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________________ अहिंसा और अपरिग्रह के आचरण में विश्ववन्धुत्व आत्मकल्याण की कामना उत्पन्न होती है। विधवा माता पर गिर गया। उस समय इनके बड़े भाई को उम्र२०वर्ष की थी छोटे भाई की चार वर्ष की थी। घर की परिस्थति नाजुक थी-ऐसी अवस्था में बच्चों के शिक्षण की व्यवस्था कैसे हो सकती है इसको भुक्त भोगी ही जानसकना है । खुशहाल चन्द्र की बुद्धि तीक्ष्ण थी परन्तु शिक्षण का साधन नही होने के कारण उनको छह क्लाग नक पढकर १४वर्ष की अवस्था मे शिक्षण छोड कर व्यापार के लिए उद्योग करना पड़ा। पढ़ने को इच्छा तीव्र होते हुये भी पढ़ना छोडना पड़ा ठीक ही है कर्म की गति विचित्र है-इस समार में किसी की इच्छा पूर्ण नही होती। जब वण हाल चन्द्र को उम्र २० वर्ष की थी, उसकी इच्छा न होते हुये भी कुटुम्बी जनों ने उसकी शादी करदी परन्तु इस शादी से आपको संतोप नही था-क्योंकि लदको रुग्ण थी। डेढ़ साल बीता होगा कि आपको पत्नी का स्वर्गवास हो गया । आपके लिये मानो खान् नो रत्नवृष्टि' आकाश स्थल से रत्नो की वर्षा ही हो गई क्योंकि आपकी रुचि भोगो में नहीं थी। उस समय आपकी उम्र २१ वर्ष की थी-अग अग में जवानी फट रही थी भाल ललाट देदीप्यमान था। तारुण्य श्री से उनका शरीर अलकृत था; और उनके कुटुम्बी जन उनको पुनः विवाह के बधन मे बाधकर संसारिक भोगों में फमाने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु खुशहाल चन्द्र की आत्मा सर्व प्रकार से समर्थ एवं एवं सांसारिक यातनाओ मे भयभीत थी इगलिये उन्होंने मकटी ने नमान अपने मुख की लार से अपना जाल बनाकर और उगी में फगकर अपना जीवन गमाने की चेष्टा न की। किन्तु अनादि कालीन विषय वासनाओं पर विजय प्राप्त कर आत्म तत्त्व को प्राप्त करने के लिये, दुर्वलताओं का वर्धक दुख और अगान्ति का कारण गृहवास को मिलाजलि देकर दिगम्बर मुद्रा को धारण कर आत्म साधना निमिन अन्तः वाद्य. गत्य, अहिंमा अनोयं ब्रह्मचर्य अपरिग्रह का प्रशस्त पथ स्वीकार कर कर आत्म कल्याण करने का विचार किया। इमलिये आपने जेष्ठ शुक्ला नवमी विक्रम संवत् १९६२ को आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया। इस तारुण्य अवस्था में आपने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर महान् वीरता का काम किया। मित्र-लाभ : आत्मिक उन्नति की ओर उस दिन से आप अपने मनो मर्कट को वश में करने के लिए स्वाध्याय में लीन हो गये। ग्रहस्थ सम्बन्धित व्यवसाय करते हुये भी जैसे जल में कमल भिन्न रहता है उमी प्रकार आप उनमें अलिप्त थे । यदि उस समय किसी त्यागी गण का सत्संग मिलता तो उस समय घर बार छोड़ देते । गृहस्थाभार सिर पर होने से व्यापार करने के लिये बम्बई आदि नगरो में भ्रमण किया। व्यापार में उन्नति की व्यापारियों के विश्वास के पात्र बने । आपकी दिन प्रतिदिन घर की उदासीनता बढ़ती ही चली गई। उनके मन में संसारिक दु.खो से ग्लानि उत्पन्न हो गई और वह किसी प्रकार शांत नहीं हुई। इस बीच में आपकी मित्रता श्री व० हीरालालजी गंगवाल से हो गई मानो सोने में सुगन्ध आगई । ब्रहीरालालजी धर्मानुरागो एव वात्सल्य भाव से ओत प्रोत थे इनकी शास्त्र स्वाध्याय में बहत प्रवृत्ति थी दिनभर शास्त्र समुद्र का मथन कर सार निका लते थे । आप दोनो की सगति आत्म साधक हई आप दोनो जब कभी परस्पर मिलते थे तो [१८]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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