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________________ कर्तव्यच्युत प्राणी आसुरी योनि में जाने की सामग्री का संघय पाता है। "आत्मिक उन्नति कैसे होगो" इसी का विचार किया करते थे। आप दोनों ने समाज मेरा करते हुए आत्मोन्नति करने का निश्चय कर लिया। पांचवी प्रतिमा वीर सवत् २४४६ में श्री १०५ ऐलक पन्नालाल जी का चातुर्मास नादगाव मे हुआ नव आपने अपाढ शुक्ला दशमी के दिन तीसरो सामायिक प्रतिमा धारण को । श्री ऐलक मागज के चरण प्रसाद से आपकी प्रतिदिन ससार से विरक्ति वृद्धिगत होती गई। इसलिये भाद्रपद शुक्ला पंचमी को सचित्त त्याग पाचवी प्रतिमा धारण की। चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात् आपने श्री १०५ ऐलक जो महाराज के माथ नार महोना तक महाराष्ट्र के ग्राम और नगरो मे भ्रमण कर धर्म का प्रचार किया। तदनतर आपने समस्त तीर्थ क्षेत्रो की यात्रा की अपनी शक्ति अनुसार क्षेत्रों में दान भी दिया। उस समय इस भूतल पर मुनियो के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ थे महानिधि के समान दिगम्बर साधु कही कही दृष्टि गोचर होते थे। आप का हृदय मुनि दर्शन के लिए 'निरन्तर छटपटाता रहता था। उनको गृहस्थारम्भ विपके समान प्रतीत होता था निरन्तर विचार करते थे अहो वह शुभ घड़ी कब आयेगी जिस दिन में दिगम्बर होकर आत्म कल्याण के अग्रसर हाऊ । आचार्य शांतिसागर जी के दर्शन एक दिन आपने आचार्य श्री १०८ शाति सागर महाराज की ललित कीति मुनी । आपका मन उन गुरुवर के दर्शनो के लिये लालायित होने लगा। उनके दर्शन बिना आपका मन जल के विना मछलो के समान तड फने लगा । इसी समय ० हीरालाल जो गगवाल मानिनागर महाराज के दर्शन करने के लिए दक्षिण की ओर जाने लगे। यह वार्ता सुनकर मशहाल चन्द्र का मन मयूर नाचने लगा और ब्रह्मचारी जी के साथ आप ने भी आचार्य श्री के दर्शनार्थ प्रस्थान किया। आचार्य श्री उस समय ऐनापुर के आस पाम विहार कर रहे थे । आप दोनो महानुभाव उनके पास चले गये । तेजोमय मूर्ति शाति मागर महाराज के चरण कमला में अतीव भक्ति मे नमस्कार किया-आपके चक्ष पटल निनिमेप दृष्टि में उनको आर निहारनं ही रह गये। आप का मन आनद की तरगो से व्याप्त हो गया। आपने आचार्य श्री की बात मुद्रा देखकर निश्चय कर लिया कि यदि ससार में मेरे कोई गुरु हो सकते है तो यही महानुभाव हो सकते है और कोई नहीं। आप का चित्त आचार्य श्री के पादमूल में रहने के लिए ललचाने लगा। आप गोम्मट्ट स्वामी की यात्रा करके वापिस आये और उनमें मग्नम प्रतिमा के बन ग्रहण किये । कुछ दिन घर में रहकर आचार्य श्री के पास वीर निर्वाण सम्वन् २/५० फागुन शुक्ला सप्तमी के दिन क्ष ल्लक व्रत ग्रहण किये। निरन्तर महाराज के समीप स्वाध्याय पान में मग्न रहने लगे। आचार्य श्री ने समडोली मे चातुर्मान किया । आश्विन शुक्ला एवारगी वीर सं० २४५०मे ऐलक दीक्षा ग्रहण की आपका नाम चन्द्रसागर रा गया। वानव ने पार चन्द्र में
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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