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________________ । सुधारस मयो चन्द्रबिम्बको शोभा से चकवाक द्वेष करते हैं। देकर सतुष्ट करते है। उसके अमृत तुल्य वचन सुनकर तथा धन प्राप्ति का उपाय सुनकर वह ब्राह्मण परम हर्ष को प्राप्त हुआ । उसका समस्त शरीर रोमाचो से सुशोभित हो गया तथा उसका हृदय अत्यन्त अद्भुत भावो से युक्त हो गया । वह उस स्त्री को नमस्कार कर तथा बार बार उसको स्तुति कर चारित्र पालन करने के लिए शूर-वीर मुनिराज के पास गया और अजुली बाध सिर से प्रणाम कर उसने उनसे अणब्रत धारण करने वालो को क्रिया पूछी। उस चतुर बुद्धिमान ब्राह्मण ने मुनिराज के द्वारा उपदिष्ट गृहस्थ धर्म अगीकृत किया तथा अनुयोगो का स्वरूप सुना। पहले तो वह ब्राह्मण धन के लोभ से अभिभूत होकर धर्म श्रवण करना चाहता था। पर अब वास्तविक धर्म ग्रहण करने के भाव को प्राप्त हो गया । मुनिराज से धर्म का स्वरूप जानकर जिसका हृदय अत्यन्त शुद्ध हो गया था, ऐसा वह ब्राह्मण बोला कि-हे नाथ। आज आपके उपदेश से तो मेरे नेत्र खुल गये है । जिस प्रकार प्यास से पीडित मनुष्य को जल मिल जाय, आश्रय करने की इच्छा करने वाले को छाया मिल जाय, भूख से पीडित मनुष्य को मिष्ठान मिल जाय, रोगी के लिए उत्तम औषधि मिल जाय, कुमार्ग मे भटक हुये को इच्छति स्थान पर भेजने वाला मार्ग मिल जाय और बडी व्याकुलता से समुद्र में डूबने वाले को जहाज मिल जाय, उसी प्रकार आपके प्रसाद से सर्व दुखो को नष्ट करने वाला यह जैन शासन मुझे प्राप्त हुआ है । यह जैन शासन नीच मनुष्यो के लिए सर्वथा दुर्लभ है । चूकि आपने यह ऐसा जिन प्रदर्शित मार्ग मुझ दिखलाया है, इसलिये तीन लोक में भी आपके समान मेरा हितकारी कोई नही है । इस प्रकार कहकर तथा अञ्जलीबद्ध सिर से मुनिराज के चरणो मे नमस्कार कर प्रदक्षिणा देता हुआ वह ब्राह्मण अपने घर चला गया । घर में प्रवेश कर ब्राह्मण ने अपनी पत्नी से कहा-हे प्रिये ! आज मैंने परम दिगम्बर गुरुओ के मुखारविन्द से अश्रु त तत्व का स्वरूप का और धर्म का उपदेश सुना है, जो तुम्हारे माता पिता ने भी नही सुना है। मैने भीषण अटवी में अत्यन्त रमणीक नगर देखा । उसमे प्रवेश करने से दारिद्र दूर हो जाता है। परन्तु उसमे प्रवेश वही कर सकता है, जो जिन-धर्मावलम्बी हो, इसलिये मैने जिन धर्म स्वीकार किया है । आज मैने महान पूर्व पुण्योदय के प्रभाव से भवनाशक अरहन्त नाम रूप महौषधि प्राप्त कर ली है। आज तक मैने अहिंसा से निर्मल वीतरागमय अरहन्त भगवान कथित धर्म रूपी रसायन को छोड़कर अज्ञानवश मिथ्यात्वरूपी विषम विष का भक्षण किया। मानव देह को पाकर भी देवोपदिष्ट धर्म रत्न का परित्याग कर विषयरूपी कांच के टुकड़ को स्वीकार किया। उस सम्यगदृष्टि विप्र ने अपनी भार्या को जिनधर्मावलम्बी बनाया दोनो घर मे रहकर व्रती श्रावक के बतो का पालन करने लगे। [४१]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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