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________________ तमोगुणी मानय को विद्या दृष्टि, विष सपं राज के समान उत्तम पापं शनि सनी है। परन्तु महाराज श्री के मुख मंडल पर अपूर्व तेज था-सिह के गमान निर्भय होकर जाय। जब साहब की कोठी के नीचे गये, तो साहब उनको शान्त मुद्रा बैग कर नत माता गया, भूरि-भूरि प्रशसा करने लगा। मत्य ही है --महा पुरुषो का प्रभाव अपूर्व होता है। अपवाद-उपसर्ग विजयी ___ आपको भावना थी "सर्वे मुखिन. भवतु" । महाराज श्री का निन्तर प्रयत्न गमागे जीवा को धर्माभिमख करने के लिए था। गुरुदेव को तास्या केवल आत्म कल्याण के लिए नहीं भी, अपितु इस युग को धर्म और मर्यादा का विरोध करने वाली दूपित पाप-वृत्तियों को गरने के लिए भी थी। मानवो की पाप-वृत्तियो को देख कर उनका चित्त आशक्किा था । महाराज श्री ने इनके विनाश करने में पूरे साहस और धैर्य से यल किया। मूढ धर्म भावना गन्य लोगो ने इनके पथ मे पत्थर बरसाने में कोई कमी नही रखी। परन्तु मुनि श्री ने एक परम साहलो सेनानी के समान अपनी गति नहीं बदली। यश और वैभव को ठुकराने वाले " विरोधियो की परवाह कर सकते हैं कभी नहीं । महाराज श्री हमेशा ही सत्य मिद्धान्त ओर आगम पक्ष के अनुयायी रहे । सिद्धान्त के समक्ष आप किमी को कोई मूल्य नही देते थे। यदि शास्त्र को प्रतिपालनामें प्राणो की भी आवश्यकता होती थी तो आप नि मकाच देने का तैयार रहते थे। जिन धर्म के मर्म को नही जानने वाले द्वेप की अग्नि से प्रज्वलित अनानियो ने महाराज श्री पर वर्णनातीत अत्याचार किए जो लेखनी मे लिखा नही जाता। परन्तु मुनि श्री ने तनेइतने घोरोपसर्ग आने पर भी अपने सिद्धान्त का नहीं छाडा-सत्य है "न्यायात्पर. प्रविचलन्ति पद न धीराः" घोरोपसर्ग आने पर भी धीर-वीर न्याय मार्ग में विचलित नहीं होते। यह निश्चित है कि मानव मे असाधारणता कठिन से कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही आती है। अगर वत्ती को अग्नि मे जलना मान्य नहीं हो तो उसको सुरभि दगो दिशाओ में महक नही सकती । सुवर्ण का मूल्य अग्नि मे तपाये विना आका नहीं जा माताउसी प्रकार उपसर्ग सहन किये बिना महानता आ नहीं सकती । अग्नि मे तपाने पर जो निगरता है उसे कुन्दन कहते है । आपत्ति आने पर भी विचलित नही होने उने मज्जन कहते है। ___ महा सती सीता देवी की महिमा इसलिए है कि वह अग्नि परीक्षा में उत्तीणं हुई। उसके सतीत्व की परीक्षा के लिए राम ने अग्नि कु ड बनवाया और कहा तुम्हें अपने जीन की परीक्षा देने के लिए अग्निकुन्ड में प्रवेग करना होगा। सीता मती भभरती हुई भीगा अग्नि की ज्वाला में कूद पड़ी महामाता सीता वास्तव मे निप्कनक निप्पाप पूज्य पाद महामती थी। उसका वह घोर अग्नि ज्वाला कुछ नहीं कर सकी-स्वय जलवन शात हो गई। स्वर्गस्थ देवगण ने अग्निकुण को जल कुण्ड बना दिया तथा उन पर कमल का भागन विछा दिया और देवकृत चमत्कारो ने उस आसन पर नीता बामीन हो गई । नम मल स्य. कारो की ध्वनि से व्याप्त हो गया । नीता का सुयग जग में फैल गया । आज रितने वर्ष हो गए अभी तक जन-जन के हृदय में सीता के गुणों की नुवान भरी हुं है। मत्व है-आपनियो ता सामना करने पर ही गुणो की प्रतिष्ठा होती है । गुरु देव ने घोर नापनियों का मानना पिया जिससे बाज भी उनका नाम अजर-अमर है। (१)
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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