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विषयाभिलापा रूपी अग्नि को संयम रूपी जल से शान्त करना चाहिये।
अर्थः-मुह फाड तिरछी ४ भाग लम्बी रखै। उपरले होठ के नासिका के नीचली
अपरली गोजी अर्थात् प्रणाली अर्ध भाग लम्बी और १ भाग का तीसरा हिस्सा चौडी रखै ॥२१॥
एकॉगुल विस्तीर्णस्तथैकांगुल मुछितः।
आयनो द्वयं गुलस्तओरधरः परि कीर्तितः ॥२२॥ अर्थः--नीचे का होठ १ अंगुल मोटा १ अंगुल विस्तीर्ण अर्थात् चौडा २ अंगुल लम्बा रखे ॥२२॥
सृक्विणी वांगुलायामा विज्ञेया झुगुलं पृथुः ॥
चिबुकं द्वयं गुलं ज्ञेय विस्ताराया मतस्तथा ॥२३॥ अर्थः-सृविवरणी अर्थात ओष्ट की वाम दक्षिण बगल १ भाग लम्बी अर्ध भाग मोटी
रखै चिबुक अर्थात अधरोष्ट के नीचला भाग २ भाग चौडा २ भाग लम्बा रखे ॥२३॥
अन्तर हनुमूला त्स्याच्चिवुक स्यांगुलाष्टकं ।
हनुद् नयस्य विस्तारो द्वयंगुलस्यात्पृथक् पृथक् ॥२४॥ अर्थः- हनूकामूल से चिवुकके ८ भाग अन्तर रखे हनूगाल के नीचे कानों के नजीक के हाड का नाम है वो हाड दो दो भाग मोटा रख ॥२४॥
हृयं गुलं च पृथुत्वे न दीर्घत्वं चतुरंगुलं ॥
कर्णयोः लंवितौ पाशावंगु लानां चतुष्टयम् ॥२५॥ अर्थः--कान २ भाग चौडा ४ भाग लम्बा कान को विचली करडी नस नेत्र के अन्त को सीध में पर नाली रूप खाल का नाम पाश है वो ४ भाग लम्बी रखे ॥२५॥
अर्धागुल प्रविस्तीणों कुर्याच्छोभान्वितौ श्रुम्मै ॥
कर्णपूरोंगुलार्द्धस्यात्पादं करणोद्धं वत्तिका ॥२६॥ अर्थः--दोनों पाश अर्धागुल चौडी शोभनीक करै। कर्णपूर अर्धागुल प्रमाण करे
परनाली रूप पाश की ऊपर की वत्तिका कहिए गोट सो. १ भाग का चतुर्थांश चौडी रखे ॥२६॥
कर्णशष्कुलिकारंध मर्धागुल मुदीरितं ॥ कर्ण नेत्रांतर सार्धमंगु लानां चतुष्टयम् ॥२७॥
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