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________________ आत्म तत्व से विमुख अपनो कीति से प्रसन्न होने वाला मूढ है। ने अमागलिक वचन कहने वाले ब्राह्मण को ऊर्ध्वपाद और अधोग्रोव कर घुमाकर पृथ्वी पर पछाडने के लिए प्रयत्न किया, त्योही अनुकम्पा के स्रोत राम ने कहा-हे सौमित्र, यह तुम क्या कर रहे हो, इस दीन के घात से क्या प्रयोजन है। धीर वीर महामानव, मुनि, ब्राह्मण, गाय, पशु, स्त्री, बालक और वृद्ध के दोषी होने पर भी हिंसा नही करते हैं। आज्ञाकारी सौमित्र ने धीरे से उस दीन को पृथ्वी पर सुला दिया तथा शीघ्र ही बाह्मण की कुटिया से बाहर निकल आये । शीतऋतु के समय दुर्गम कानन में तरुतल मे वास करना सर्वश्रेष्ठ है, आहार का परित्याग कर प्राण त्यागना अच्छा है परन्तु तिरस्कार के कटु वचन सुनकर दूसरे के घर मे रहना योग्य नहीं है। हम नदियो के तटो और पर्वतो की अतिशय मनोज्ञ गुफाओं मे रहेगे, परन्तु दुजनो क घर में प्रवेश नही करेंगे। इस प्रकार मन मे दृढ निश्चय कर सीता सहित राम और लक्ष्मण गाव से बाहर निकल कर बन में चले गये। इतने में ही समस्त आकाश को नीला करता और गर्जना से पर्वत की गुफाओ को प्रति-- ध्वनित करता हुआ वर्षाकाल आ गया। उस समय समस्त ग्रह और नक्षत्र बादलो की ओट छिप कर विद्युत के बहाने से हसने लगे । ग्रीष्मकाल के भयकर विस्तार का दूर कर मेघ गर्जने लगे और बिजली रूपी अगुलि के द्वारा पापी मानवो को ताड़ने लगे । जिस प्रकार हस्ती लक्ष्मी का अभिषेक करता , उसी प्रकार जलधाराओ के द्वारा नभस्थल को अधकार युक्त करता हुआ श्यामल मेघ सीता का अभिषेक करने लगे। जल वृष्टि से भीगते हुये एक निकटवर्ती अत्यन्त ऊ चे विशाल वृक्ष के नीचे वह पहुचे । जैसे ससार के दु.ख से भयभीत प्राणी जिनराज की शरण मे पहुचता है। राम लक्ष्मण के तेज से अभिभूत हुआ इभकर्ण नामक यक्ष विध्याचल पर्वत पर रहने वाले अपने स्वामी के पास जाकर नमस्कार कर बोला-हे नाथ ! स्वर्ग से आकर कोई तीन महानुभाव मेरे घर मे ठहर गये है और अपने तेज से अभिभूत कर मुझे शोघ्र ही घर के बाहर कर दिया। इभकर्ण के वचन सुनकर मन्द हास्य करता हुआ यक्षराज अपनी स्त्रियो के साथ महावैभव से युक्त लोला पूर्वक वट-वृक्ष के पास आया और अत्यन्त मनोज्ञ रूप के धारक राम लक्ष्मण को देखकर तथा अवधि ज्ञान के द्वारा यह बलभद्र और नारायण हैं, ऐसा जानकर शीघ्र ही वात्सल्य से ओत-प्रोत हो सुन्दर नगरी की रचना की। प्रात काल मनोहर सगीत के शब्द से प्रबोध को प्राप्त हुये राम और लक्ष्मण ने अपने आपको अनेक खण्डो के अत्यन्त रमणीय महल में आदर के साथ शरीर की सेवा करने में व्यग्र सेवको से घिरे हुये रत्नो से सुशोभित शैय्या पर अवस्थित देखा। महाशब्द प्रकार तथा गोपुरो से सुशोभित सहसा नगर को देखकर भी उन महानुभावो का मन आश्चर्य को प्राप्त नही हुआ, क्योकि ये [३६]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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