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________________ विषय वासना रूपी बन्दर से संयम रूपी खेत की रक्षा करनी चाहिये । आकस्मिकमिव युगपद्दिवसकर सहस्त्रमपगत व्यवधानम् । भामंडल मवि भावित रात्रिदिव भेद मतित रामाभाति ॥५५॥ प्रबल पवना भिघात प्रक्षुभित समुद्र घोषमन्द्र ध्वानम् । वंध्वन्यते सुवीणा वंशादि सुवाद्य दुन्दुभिस्ताल समम् ॥५६॥ त्रिभुवन पतिता लांछनमिदुत्रय तुल्यमतुल मुक्ताजालम् । छत्रत्रयं च सुबृहद्वैडूर्य विक्लृप्त दंडमधिक मनोज्ञम् ॥५७॥ ध्वनिरपि योजनमेकं प्रजायते श्रोत्रहृदय हारिगंभीरः । ससलिल जलधर पटल ध्वनितमिव प्रविततान्तराशावलयम् ।।५८॥ स्फुरितांशु रत्नदीधिति परिविच्छुरितामरेंद्र चापच्छायम् । प्रियते मृगेंद्रवयः, स्फटिशिलाघटित सिंहविष्टरमतुलम ॥५६॥ यस्येह चतुस्त्रिशत्प्रवरगुणा प्रातिहार्य लक्ष्म्यश्चाष्टौ । तस्मै नमो भगवते त्रिभुवनपरमेश्वराह ते गुणमहते ॥६०॥ - कायोत्सर्ग आलोचनाइच्छामि भंते ! गंदीसरभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं । गंदीसरदीवम्मि, चउदिसि विदिसासु, अंचणदधिमुहरदिकरपुरणगवरेसु जाणि जिणचेइयाणि ताणि सव्वाणि तिसुवि लोएसु भवणवासिय वाणवितरजोइसिगकप्पवासि यत्ति चउविहा देवा सपरिवारा दिव्वेहि गंधेहि, दिव्वेहि पुष्फेहि, दिव्वेहि धुव्वेहि, दिव्वेहि चुण्णेहि, दिव्वेहि वासेहि, दिव्वेहि ण्हाणेहि, आसाढकत्तिय फागुणमासाणं अमिमाईकाउण जाव पुण्णिमंति णिच्चकालं अंचति, पूजंति, वंदंति, णमंसंति। गंदीसरमहाकल्लाणं करंति अहमवि इह संतो तत्थ संताई णिच्च कालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिण गुण संपत्ति होउ मज्झं। - इति नदीश्वर भक्ति. समाप्त - [e.]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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