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________________ परिवार की संगति से मोह को उद्भूति होती है। दानेश्वर श्रेयांस, शील में सीता नामी। तप बाहूबली नाम, भाव भरतेश्वर स्वामी ॥ जग महादेव है रुद्र पद कृष्ण नाम हरि जानिये । द्यानत कहे, कुलकर में नाभि नृप भीमवली भुज मानिये ॥८॥ ॥तीर्थकर वणं ।। पुष्पदंत प्रभुचंद, चंदसम सेत विराजे । पारिसनाथ सुपार्श्व, हरित पन्नामय छाजै॥ वासुपूज्य अरुपदम, रकत माणिक ध्रुति सोहै। मुनिसुव्रत अरु नेमि, स्याम सुन्दर मन मोहे ।। बाकी सोले कंचन वरण, यह व्यवहार शरीर युत । निहचे अरूप चेतन विमल, दरसन ज्ञान चरित जुत ॥६॥ ॥चौ० तीर्थकरों के अंतर ॥ पचास, तीस, दस, नौ, करोर लाख, निब्बै, नौ सहसकोर, निब्बै, नौकोर है । सो सागर वर्ष लाख छयासठ सहस छबीस घाटि को, सागर चौवन, तीस, और है । ब,चारि तीनघाट पौणपल्ल, अर्द्ध पाप घाट, लाखलाख वर्ष लाखेलाख वर्ष लाखेलाख जोर है।। बौवन, छ पांच लाख, सहस पौने चौरासो पांव अंतरा जीनेश गावै नीसिभोर है ॥१०॥ ॥ निगोदनाही, ४ सासादन नाही, तीर्यकर सत्तानाही वर्णन ॥ भूमी, नीर, आगि, पौन, केवली, औ आहारक । नर्क स्वर्ग आठमें नौगोद नहीं पाईये । सूक्ष्म, नरक, तेज, वाय में न सासादन, भौन त्रीक पशू में न तीर्थंकर पाईये ॥ सबही सूक्षम अंग कहै हैं कापोत रंग, कारमान देह को सूपेद रंग गाईये ॥ विपूल मतिमनः पर्यय परमावधि, ठीक लहै मोक्ष ईतै सोस को नमाईये ॥११॥ ॥ इन्द्रिय विषय मर्यादा वर्णन ॥ स्पर्श चार सै धनुष्य, असैनीलो दुगुना गिनी । रसना चौसठ धनुष, घाणसो तेइन्त्रीभनि ॥ लख योजन उनतीस शतक चौवन परबानो । कान आठसे धनुष्य सुने, सैनीसो जानो ।। नव योजन घाण, रसना स्पर्श कान दुवादश योजना। चख संतालिस सहस दुस तेसठि देखे जिनभणा ॥१२॥ [१७४]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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