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सन्मार्ग से च्युत होते हुये को स्थिर करना स्थितिकरण अंग है। चतुर्दश पंचाक्षत्रसयोः धरादित्रिषु द्ध एकं तेजः पवनयोः। सत्यानुभययोः त्रयोदश मनो वचनयोः द्वादशान्येषु ॥१३॥
भावार्थ-पंचेन्द्रिय के चौदाहि गुणस्थान होय हैं । इति इन्द्रिय मार्गणा ॥ त्रसकाय के मिथ्यात्वादि चौदाहि गुणस्थान होय हैं । पृथ्वी-अप-वनस्पति कायों के मिथ्यात्व, सासादन दो गुण स्थान होते हैं । तेज-पवन कायों के एक मिथ्यात्व गुण स्थान होता है। इति कायमार्गणा ॥ सत्यानुभयमनयोग में-मिथ्यात्वादि तेरह गुण स्थान होते हैं। सत्य १ अनुभय १ वचनों में-तेरह तक हैं । असत्यमनयोगे-उभयमनयोगे-असत्य वचनउभय वचन योग-चारों में प्रत्येक को मिथ्यात्वादि क्षोण कषाय पर्यन्त बारह गुण स्थान होते हैं।
औदारिके च त्रयोदश मिश्र कार्मणे च मिश्र त्रिकयोगिनः। वैर्विकद्विके चतुः त्रिंक प्रमत्तमाहारकद्विके च ॥१४॥
भावार्थ-औदारिक काय योग में मिथ्यात्वादि तेरह गुण स्थान होते है। औदारिक मिश्रकाय योग मे-कार्माणकाय योग में-मिथ्यात्व १ सासादन १ अविरति १ संयोग केवलि १ ऐसे चार प्रत्येक में जानो। उक्तंच-'मिश्रे क्षीणे संयोगे च मरणं नास्ति देहिनाम्' इति वचनात । वैक्रियकाय योग में-पहिले चार गुण स्थान होते है, वैक्रियकमिश्रकाय योग में- मिथ्यात्व, सासादन, अविरति १ ऐसे तोन गुण स्थान होते है। आहारककाय योग में, आहारकमिश्रकाय योग में-एक छट्टा गुरण स्थान होता है । इति योग मार्गरणा ॥
वेदत्रिके क्रोधत्रिके नवगुणस्थानानि दशकं तथा लोभे । अज्ञानत्रिके द्वी मतित्रिके चतुर्थादिनव चैव ॥१५॥ भावार्थ-वेद तीनों में-स्त्री-पु०-न०-में पहिले से नव गुण स्थान होते है । इति वेद मार्गणा ॥ क्रोध, मान, माया तीनों कषाय नववे गुण स्थान पर्यंत होते है, लोभ कषाय दश गुण स्थान पर्यंत होते हैं । इति कषाय मार्गणा पूर्ण । कुमति कुश्रुत, कुअवधिज्ञान, मिथ्यात्व सासादन दोनों गुण स्थानों में होते हैं। सुमति, सुश्रुत, सुअवधिज्ञान अविरत चौथे से बारहवें क्षीणकषाय तक नव गुण स्थानों में होते हैं।
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