SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ NAMAYANAYI असंयम रूपी विष को संयम रूपी अमृत से दूर करना चाहिये । WMAMAMAAVAAMANAMAMINAVANAVAMAVANTI बाईस परीषह WWWWWWWWWWW क्षुधा तृषा हिम उष्ण दशमंशक दुःख भारी। निरावरण तन अरति खेद उपजावत नारी।। चयों आसन शयन दुष्टवायस वध-बंधन । याचें नहीं अलाभ रोग तृण स्पर्श निबन्धन ॥ मलजनित मान सम्मान वशप्रज्ञा और अज्ञानकर। दर्शन मलिन बाईस सब साधु परीषह जान नर ।। दोहा * सूत्र पाठ अनुसार ये, कहे परीषह नाम । इनके दुःख जे मुनि सह, तिन प्रति सदा प्रणाम । १ क्षुधा परीपह अनशन उनोदर तप पोषत है, पक्ष मास दिन बीत गये हैं। जो नहीं बने योग्य भिक्षा विधि सूख अंग सब शिथिल भये है। तब तहां दुःसह भूख की वेदन सहित साधु नहीं नेक नये हैं। तिनके चरण कमल प्रति प्रतिदिन हाथ जोड़ हम शीश नये है ।। २. तृषा परीषह पराधीन मुनिवर की भिक्षा पर घर लेय कहें कछु नाहीं । प्रकृति विरुद्ध पारणाभुंजत बढ़त प्यास की त्रास तहाँ हो ।। प्रीषम काल पित्त अति कोपे लोचन दोय फिरें जब जाहों। नोर न चहैं सहैं ऐसे मुनि जयवन्तों वर्तो जग माहीं ॥ ३. शीत परीषह शीतकाल सबही जन कम्पै खड़े जहां वन वृक्ष डहे हैं। संझा वायु चले वर्षा ऋतु वर्षत बादल झूम रहे हैं। तहाँ धीर तटिनी तट चौपट ताल पाल पर कर्म रहे हैं। सह सम्हाल शीत की बाधा ते मुनि तारण तरण कहे हैं। ४. उष्ण परीषह भूख.प्यास पीड़े उर मन्तर प्रज्वले आंत देह सब बागे। [२२]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy