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________________ पूजादि से जिनधर्म की प्रभावना करना प्रभावना अंग है। स्थान हैं । वेदक सम्यक्त्व चौथे से सातवें तक चार गुण स्थान होते हैं, उपशमसम्यक्त्व चौथे से ग्यारवा तक आठ गुण स्थान में रहता है, मिथ्या सम्यक्त्व पहिले एक में, सासादन सम्यक्त्व दूसरे एक में, मिश्र सम्यक्त्व तीसरे एक गुण स्थान में होता है, ॥ इति सम्यक्त्व मार्गणा ॥ संज्ञयसंज्ञिषु द्वादश प्रथमादित्रयोदश पंचगुणाः क्रमशः । आहारकानाहरके एतेषु इति मागणस्थानेषु गुणाः ॥२०॥ भावार्थ-संज्ञि जीव प्रथम से बारहवे गुण स्थान तक है। असंज्ञि जीव के पहिले दो गुण स्थान होते हैं। इति संज्ञि मार्गणा ॥ आहारक प्रथम से तेरहवें गुण स्थान तक होते हैं-संयोग केवली के समुद्धात अपेक्षा से है। अनाहारक-मिथ्यात्व, सासादन, अविरति, संयोग केवली, अयोग केवली, ये पांच गुण स्थान में-पहिला, दूसरा, चौथा, इनमें विग्रह गति अपेक्षा, तेरावा, समुद्धात अपेक्षा, चौदा में स्वभासे हैं । इस प्रकार मार्गण स्थान में गुण स्थानों का वर्णन पूर्ण हुआ ॥ इति १४ मार्गणा में १४ गुण स्थान वर्णन ॥ अथ १४ मार्गणा में १५ योग वर्णन आहारकौदारिकद्विकैः हीना भवन्ति नारकसुरेषु । आहारक वैक्रियिकद्विकयोगेन एकादश तिरश्चि ॥२॥ भावार्थ-नरक गती में, देवगती में- योग मनोयोग चारों, बचन योग चारों, वैकियककाय योग १ वैक्रियक मिश्र १ कार्मणकाय योग, ग्यारा होते हैं। तिर्यंच गती मेंमनोयोग ४ वचन योग ४ औदारिक १ औदारिक मिश्र १ कार्माणकाय योग १ कुल ग्यारा होते हैं। वैगूर्विकद्विक रहिता मनुजे त्रयोदश एकाक्षकायेषु । पंचसु औदारिकद्विकं कार्मणं त्रयो विकलेषु ॥२२॥ भावार्थ-मनुष्य गती में वैक्रियक १ मिश्र १ दो छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं ॥ इति गति मार्गणा । पाँचो एकेन्द्रि-पृथ्वी १ अप १ तेज १ वायु १ वनस्पति १ में तीन औदारिक १ मिश्र १ कार्माणकाय योग १ होते हैं। विकलत्रय में आगे बताते है। [२२७]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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