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________________ कोष रूपी अग्नि को शान्त करने के लिये क्षमा अद्वितीय नदी है। अजी | वह तो अकाल मरण ही नही, सकाल मरण है। क्योकि केवली ने उसे उसी प्रकार देखा है। केवली उसे किस प्रकार देखते है यह यहा प्रश्न नही है, उसकी परिभाषा केवली के दर्शन से नही हो सकती है। वह यथार्थ में सकाल' मरण है या अकाल मरण है। इसका निर्णय होना चाहिये। ___आयु कर्म के बध में ही निश्चित हो जाता है कि एक एक समय मे आयु का एक एक निषेक उदय में आवेगा और खिरेगा, यदि वह ८० वर्ष तक समयावच्छेद रूप से खिरता रहेगा जो वह जीव उस पर्याय में पूर्णायष्य को प्राप्त कर पर्याय का परिवर्तन करेगा। यदि बीच में ही कोई दुरुपयोग हो गया, आकस्मिक घटना घटी तो बीच मे हो उसका मरण होता है, उसे अकाल मरण कहते है। इस अकाल मरण को स्वीकार न करने वालो से आचार्यों ने प्रश्न किया है कि यदि अकाल मे मरण होता ही न हो तो विपभक्षण, वेदना की तीव्रता, रक्तक्षय, गिरिपात, समुद्रपात आदि से तुम डरते क्यो हो ? टायफाईड की बीमारी होने पर डाक्टरो के घर क्यो ढूढते हो? यदि आयुष्य होगा तो मरेगा ही नहीं, आयु वही समाप्त होने का योग हो तो मरेगा ही, फिर प्रयत्न की क्या आवश्यकता है? देखा जाता है कि अकाल मरण से बचाया जा सकता है, सकाल मरण से बचाने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए औषधि आदि का उपयोग (निमित्त) अकाल मरण को दूर करने मे सहकारी सिद्ध होता है, अत निमित्त का मानना आवश्यक है। ____ इसे नही मानेगे तो द्रव्य क्षेत्र काल भाव का क्या अर्थ होगा? कार्यकारण भाव कैसे सिद्ध होगा? यदि केवल उपादान कारण या द्रव्य की योग्यता से कार्य होता हो तो इतर अनेक कारण जो लोक में पडे है जिनके होने से कार्य होता है, जिनके न होने से कार्य नही होता है, उनका क्या होगा? आचार्यों ने निमित्त कारण को सर्वत्र स्वीकार किया है। कही कही उपादान का नाम ही निमित्त कहा है । हरिवंश पुराण मे आचार्य जिनसेन कहते है कि. निमित्तमांतरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता । बहिनिश्चय कालस्तु निश्चित स्तत्व दििभः । द्रव्य को योग्यता अभ्यतर निमित्त है। बाह्य निमित्त काल द्रव्य है। इस प्रकार तत्व दशियो ने निश्चय किया है । अर्थात् बाह्य व अभ्यतर निमित्त की आवश्यकता है, यह स्वीकार किया गया है। इसलिए जीव को हर प्रकार से अपने परिणामो के बनाने बिगाड़ने वाले कर्मों की निमित्तता को स्वीकार करना हो चाहिए। आचार्य कुदकुद समयसार की गाथा ८० में कहते हैजीव परिणाम हे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गल कम्म णिमित्तं तहेव जीवो विपरिणमदि ॥५०॥ [३३]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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