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________________ विकारी विस को सन्पग्बान रूपी अमृत को पार से शान्त करना चाहिए। एक है व निमित्ति कारणो की आवश्यकता पड़ती है,. उन दोनो कारणो के बिना कार्य नही होता है। इस विषय का समर्थन आचार्य कुद कुद ने भी अपने ग्रन्थ में किया है सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं नस्सनाणमा पुरिसा। अंतर हेवो भडिया दंसण मोहस्स खय पहुदी ॥ -नियमसार सम्यक्त्व उत्पन्न होने के लिए बाह्य (निमित्त) कारण दो है। एक तो जिनवाणी का स्वाध्याय और जिनागम के ज्ञाता उपदेशक आचार्य आदि । सम्यक्त्व उत्पत्ति का अतरगकारण दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम है। इस प्रतिपादन मे आचार्य कुद कुद देव ने निमित्त पद को देकर निमित्त कारण को स्वीकार किया है। एक ही उपादान कारणत्व नही यहा पर यह भी समझने की आवश्यकता है कि एक पदार्थ में एक ही उपादान शक्ति या गुण नही है। उसमे निमित्त को पाकर विभिन्न रूप से परिणमन करने की शक्ति है । अगर यह नही माना जाय तो पदार्थों में अनत धर्मों का अस्तित्व स्वीकार नही किया जा सकता है । अनत धर्म द्रव्य मे अगर न हो तो अनेकात की सिद्धि नही हो सकती है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान दर्शनमय है, वह किसी भी अवस्था मे ज्ञान दर्शन का परित्याग नही करता है। तथापि आयु कर्म को निमित्तता पाकर वह कभी नारकी बनता है और कभी तिर्यच बन जाता है। और कभी देव व मनुष्य, यदि आयु कर्म को निमित्तता स्वीकार नही की जाये तो उस जीव में अन्यान्य पर्याय नहीं बन सकती है। एक ही पदार्य अगर पड़ा रहा तो गल, सडकर चला जाता है। उसे पानी में डाल रखें तो ताजा हो जाता है । अगर उसे इतर रूप रग दिया जाय तो खुलकर दिखता है। एक ही द्रव्य का उपयोग अनेक रूप से कर सकते है। इसमें निमित्त ही कारण है। इस निमित्त को नही मानने का क्या कारण है ? उसका एकमात्र कारण यह है कि निमित्त में कार्यकारिता या सहकारिता स्वीकार करने पर उपादान को पूर्ण शक्तिमान् सिद्ध करने मे आपत्ति आती है । एक द्रव्य अन्य द्रव्य के ऊपर असर नहीं करता है इस सिद्धान्त में भी बाधा आती है। परन्तु प्रत्यक्ष में देखा जाता है कि एक द्रव्य अन्य द्रव्य पर असर करता है। जीव जीव का उपकार करता ही है, पुद्गल भी जीव का उपकार करता है । हर एक द्रव्य का हर एक द्रव्य के साथ उपकार सभव होता है। उस प्रकृति को इनकार नही करना चाहिए। दूसरी बात केवली ने अपने ज्ञान से देखा उस प्रकार होता ही रहेगा, निश्चित रूप से होगा, फिर निमित्त कारण को मान कर अन्यथा रूप में परिणत होने की प्रक्रिया को क्यो माना । जाय? इस भय के मारे निमित्त कारण को ही उडाने की बात सोचना उचित नही है। ...
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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