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________________ क्रोध रूपी अग्नि संघन रूपी बगीचे को नष्ट कर देती है। कषाय को अधिक तीव्रता से अधिक स्थिति पडती है, कषाय को मदता से स्थिति न्यून प्रमाण मे पड़ती है। इसी प्रकार कषायो की तीव्रता से अनुभाग बध मे पाप रूप रस भाग अधिक पडता है, कषायो की मदता से अनुभाग बघ मे पाप रूप रस भाग की म्यूनता होती है। पुण्य रूप रस भाग की अधिकता होती है। इसमे भी कषायो की निमित्तता है। बाह्य निमित्ति एक ही प्रकार के कार्यों का निर्माण नही करते है । निमित्ति जिस प्रकार के भी मिलते है उसी प्रकार का कार्य भी हुआ करता है। आस्रव में जीवाधिकरण भी कारण है, अजीवाधिकरण भी कारण है । जीवाधिकरण से होने वाले आस्रव मे अधिक तीव्रता हो सकती है। अजीवाधिकरण से होने वाले प्रास्रव में मदता हो सकती है । किसी मनुष्य का प्रत्यक्ष वध करने में एवं उसके फोटो के वध करने में बडा अन्तर है। हाथी को साक्षात् मारने में एव हाथी के चित्र को मारने में अन्तर हो सकता है। परिणामों में भी अन्तर हो सकता है । कषायों की तीव्र मदता में अन्तर हो सकता है। किसी सुन्दरी स्त्री को प्रत्यक्ष देखने में जो सम्मोहन व आकर्षण हो सकता है, उतना आकर्षण किसी सुन्दर चित्र को देख कर नही हो सकता है, क्योकि मोह के निमित्त में अन्तर है। जैसे-जैसे निमित्त मिलते है उसी प्रकार के परिणाम होते है। परिणामों के सक्लेश व विशुद्धि मे भी बाह्य निमित्ति कारण पडते है, सो निमित्ति को उपेक्षा एकदम कैसे की जा सकती है ? इसलिए इसे स्वीकार करना चाहिये कि आत्मा कर्म के निमित्त से यहा पर रुका हुआ है, उपादान उसका कितना ही प्रवल क्यो न हो, परन्तु निमित्त कर्म उससे भी अधिक बलवान है। उसे भूलकर हमे नही जाना चाहिए। ज्ञानावरणादि कर्मो के निमित्त से अज्ञान, अदर्शन, अचारित्र, असयम, विविध रूप, निदित कुल, श्रेष्ठ कुल, जाति, उच्च गोत्र, नीच गोत्र, कार्य में सुकरता एव कार्य में दुष्करना आदि अनेक प्रकार की बाते होती है। यह सब कार्य के निमित्त से हो होते है। कर्म बलवान है। परमात्म प्रकाश में योगिदु देव ने कहा है कि कम्मई दिढ-घण-विक्कणईगरुवई वज्जसमाई। णाणवियक्खणु जीवडउ उप्पहिषाडहिं ताई ॥ यह ज्ञानावरणादि कर्म बहुत बलवान् है। जिनका नाश करना दुःसाध्य है। वे कर्म चिकने है, भारी है, एव वज्र के समान कठिन है। बुद्धिमान् जीव को भी अधः पतन के गर्त में वे डालते है। कम्माई बतियाई, बतियो कम्मादु पत्थि कोइ जगे। सव्वे बलाइ कम्मं मवेदि हत्तीव णाविणिवणम् ॥ -मूलाराधना जगत में सबसे बलवान् कर्म ही है। उससे बढकर कोई बलवान् नही है। जैसे हाथी कमल वन को मर्दित करता है उसी प्रकार कर्म सर्व प्रकार की शक्ति को मदित करता है। [२६]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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