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________________ आत्मध्यान से सब संताप मिट जाते है। ॥ सप्तभंग जिन वाणी ।। द्रव्य क्षेत्र काल भाव अपने चतुष्टय अस्ति, परके चतुष्टैसे न नास्ति दरव है। आपसे है परसे न येक समै अस्ति नास्ति, ज्यों के त्यों न कहै जाहि अव्व तव्व तच्छ है। अस्ति कहै नास्तिका अभाव अस्ति अव्व तब्व, नासक है, अस्ति नाहि नाश अव्व तव्व है। येकठे कहै न जाय अस्ति नास्ति अव्व तव्व, स्यादवादसेति सात भंग सधै सव्व है ॥१०१॥ ॥ आत्म महिमा ॥ जीव है अनंत एक जीवके अनंत गुण, एक गुण के असंख्य परदेश मानिये । एक परदेश में अनंत कर्म वर्गना है, एक वर्गना अनंत परमानु ठानिये ॥ अनूमें अनंत गुण, एक गुण में अनंत परजाय एकके अनंत भेद जानिये । तीन ते हूं ये अनंत तातै होहिंगे अनन्त सब जाने समै माहि देव सो बखानिये ॥१०२॥ नमहु नाम अरिहंत, थुनहु जिनबिव कलिलहर । परमौदारिक दिव्य बिबु निर्वाण अवनि पर ॥ . कही कल्यानक काल, भजहु केवल गुण ग्यायक । यह षटविधि निक्षेप महा मंगल वर दायक ॥ • मंगल दुभेद सब जायमल, मंगल सुख लहै । जोवरा यह आदि मध्य पर जत में मंगल राखो होयरा ॥१०३॥ चरचा मुखसौ भजे, सुनें नाहि प्राणी कानन । केई सुनिघर जाय नाहि भाकै फिरि आनन । तिनको लखि उपगार-सार यह शतक बनाई। पढत सुनय ह्र बुद्धि शुद्ध जिनवाणी माई ॥ इसमें अनेक सिद्धांतका कथन,मथन 'धानत' कहा। सब माही जीवको सारहै, जीव भाव हम सर्दहा ।।१०४॥ ॥ इति चर्चा शतक समाप्त ॥ [१९२]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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