Book Title: Atmprabodh
Author(s): Jinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मानंद ग्रंथमाला नंबर २२ मो. - SARY ARCAN PEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE COSOPHY - E EEERRENGE श्रीमद् जिनलाभसूरि विरचित, श्री आत्मप्रबोध भाषांतर NA जिन वचनामृत महोदधिमाथी धुरंधर गीतार्थ पंडित वचनतरंग बिन्दुरुप सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति अने परमात्मभाव स्वरूप विगेरे अनेक विषयोपर दृष्टांतयुक्त विस्तारथी विवेचन. CAA RECENSEEEEEEEEEEEEEEEEEEEET अनुवादक, स्वर्गस्थ झवेरभाइ भाश्चंद शाह, भावनगर निवासी. बाबुसाहेब प्रतापचंदजी गुलाबचंदजी मुंबइ निवासीए करेली आर्थिक सहायवडे, छपावी प्रसिधकर्ता, श्री जैन आत्मानंद सभा भावनगर. वीर संवत २४३८ आत्म संवत १७ विक्रम संवत १९६८ इ. स. १९१२ धी" आनंद " प्रान्टींग प्रेस-भावनगर. అదిరికిరి సిరికిరికిరికిరికిరికివ కిక్కిరిసి పనికిరిని నియంత కికి RUN PRO POTO Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेंज देवेंजसुखानि सर्वा-प्यपि प्रकामं सुखनानिनोके । परं चिदानंदपदैकहेतुः सुननस्तात्त्विक आत्मबोधः ॥ ततो निरस्याऽखिनउष्टकर्म-व्रजं सुधीनिः सततं स्वधर्मः । समग्र सांसारिकःखरोध-स्समर्जनीयः शुचिरात्मबोधः ॥ ત્રણ ભુવનમાં ચક્રવર્તી અને ઇદ્રના સર્વ સુખો અત્યંતપણે સુલભ છે; પરંતુ સિદ્ધિસુખના અદ્વિતીય કારણરૂપ “આત્મબેધની પ્રાપ્તિ વાસ્તવિકપણે દુર્લભ છે. તેટલા માટે વિચક્ષણ જનોએ સમસ્ત દુષ્ટ કર્મના સમૂહને દૂર કરી આત્માને એકાંત હિતકારી અને સંસારની સર્વ આધિ, વ્યાધિ અને ઉપાધિઓને સંવર કરનાર પવિત્ર આત્મબંધની ઉપાર્જના કરવી. श्रीमद् जिनलानसूरिजी. (आत्मप्रबोध) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. ન્યાયનિધિ શ્રીમવિજ્યાનંદસૂરી. (આત્મારામજી મહારાજ ) Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबुसाहेब गुलाबचंदजी अमीचंदजी झवेरी मुंबई. Baboosaheb Gulabchandji Amichandji Zaveri BOMBAY. Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEEEEEEEEEEEEEEEEERecccccccccERSEEEEE99E%ERCENCERTRECEMENT श्री आत्म प्रबोध. (Daas B EERAJEEEEEEEEER1999 भाषांतर, प्रकाशक, श्री जैनआत्मानंदसभा भावनगर, Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिव्यासदा श्री गुरुकल्पवृक्ष श्रीजनागमसागरप्रमथने नियाजमन्थाचनः प्रौढोन्मादिकुवादिवारणकुले गर्वाग्रकण्वः सच्चारित्रधरःकुशाग्रधिषणः सघर्मनीलास्पदम् आत्माराममुनिश्वरो विजयते जव्याम्बुजे जास्करः ॥ १॥ ભાવાર્થ-શ્રી જેનાગમરૂપ સમુદ્રને મથન કરવામાં ખરેખર મંથાચલ પર્વત સમાન, પ્રાત અને ઉન્માદિ એવા કુવાદરૂપી હાથીઓના કુળમાં ગતિ પ્રસિંહ સમાન, સારવને ધારણ કરનાર, કુશાગ્ર બુદ્ધિવાળા, સદ્ધર્મના લીલાધ્યાન, અને ભવ્ય પ્રાણરૂપ કમળમાં સૂર્ય રૂપ એવા શ્રી આત્મારામજી મુનીશ્વર વિજય પામે છે. --- -- - - - -- - - - - - - - - - श्रीमद्विजयानंदसूरीश्वरपादपद्मज्यानमः Jain Education Intemational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RESERESERESEARCCESSEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEESERSEENESCERA अर्पणपत्रिका. स्वर्गवासी बाबुसाहेब, गुलाबचंदजी अमीचंदजी पन्नालाल झवेरी, मुंबश्. आप व्यावहारिक स्थितिमां सारी प्रवृत्तिवाळा हता. आफ्नो उच्च कुळमां जन्म थयो होवाथी तेमज बाबु पन्नालाल पुरणचंदजीना पौत्र थता होवाथी जवेरीना धंधामां कुशळ होवासाथे धर्मउपर श्रघावाळा हता. आपर्नु हृदय जधिक, शांत, उदार अने साधर्मी बंधुओने सहाय करवानी नावनाथी वासित हतुं. जीवदया अने झानोछारना कार्यों पर आपने खास प्रेम हतो. आपना तेवा प्रेमपात्र धार्मिक कार्यो जोवानो जैनसमाजने वखत आव्या पहेला नघुवयमा आफ्नो देहोत्सर्ग थयो , तेवा परलोकवासी आत्माने नावमय शांति आफ्नारो, अने भव्यात्माने आत्मबोध प्राप्त करावनारो (आत्म स्वरूप ओळखावनारो) आ आत्मप्रबोध ग्रंथ आपना स्मरणीय हृदयमां आरोपित करी तेनी प्रेरणा करनार आपना पितृनक्त पुत्र बाबु साहेब प्रतापचंदजीना पुत्र कर्तव्यने अभिनंदन आपी अमे अति आनंदित थइए जीये. आत्मानंद भुवन. श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगर. MNSNA.COM HTONDA HERECASSENCECEDESEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN Jain Education Intemational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. दरेक आत्मामां असाधारण अज्युदयने आपनार सामर्थ्य अने शक्तिओ बीजरुपे रहेली . तेमने मनुष्य निश्चय बळथी मेलवी शके . निश्चयबळ ए काइ साधारण प्रकारनुं बळ नथी, पण ते मनुष्य जीवननी चंचामां चंची नूमिकामां जवानुं साधन छे. जैन योगविद्यानो महान् आरंन जेने माटे प्ररूपित थयेलो बे, तेवा मनना निग्रहनु फळ पण निश्चयबळ डे. मनुष्यनी अंतर्त्तिमां जे उच्च अनिलाषाओ अने शुद्ध विचारो प्रगटे , तेमनी कृतार्थता निश्चयबळमांज रहेली छे. जेनामां ए अद्भुत बळ रहेनु छ, ते धर्मनी क्रिया अने तत्त्वमार्गनो पथिक बनी शके छे. विश्वोपकारी नगवान् तीर्थकरोए प्राणीओना हितने माटे जे आकारुप नियमो प्ररूपेला जे, ते बधा निश्चयबळथीज पाळी शकाय छे. ते निश्चय बळने दृढ राखवाने माटेज दान, शील, तप अने जाव-ए चतुर्विध धर्मनी प्ररूपणा करवामां प्रावी . ए चार स्तंनोने अवलंबीने सर्वधर्मशिरोमणि आईतधर्मनो सुंदर प्रासाद रहेलो . निश्चयबळ अथवा मनोबळने धारण करनार जव्य आत्माए पवित्र अने सुंदर प्रासादमां वास करवानो अधिकारी थाय . ते निश्चयबळने टकावी राखवाने माटे जे गुणोनी आवश्यकता , ते गुणो आहत धर्मशास्त्रमा दर्शावेला , ते शास्त्र उद्घोषणा करे ने के, “निश्चयबळ मेळववाने माटे सद्वर्तन धारण करजो. उदासीनता, खेद, चिंता अने जय जे मनोबळने बुद्धं करी नांखनारा छे अने आत्माना जावी उदयने रोकनारा तेमने हृदयमा पेसवा देशो नहीं निरंतर आत्मचितवन करजो, कटुतामां मधुरता शीखजो. एटले उखमां सुखने मानी लेतां शीखजो. मुःखोने अनुननी ढीला थशो नहीं अने संतापना रोदणां रमशो नहीं. तमारा मनने कर्म प्रकृतिनुं ज्ञाता अने तत्त्वज्ञानने सेववार्नु अधिकारी वनाववा निश्चयवळ आपजो, तेथी तमोने मुःखमा प्रसन्नता राखवातुं कार्य जरापण कग्नि जणाशे नहीं." Jain Education Intemational Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) शास्त्रोनी आ वाणी बोली जवानी के सांनळी जवानी नयी पण तेने क्रियामां-वर्चनमा मुकवी जोइए. ए वर्तनमा मुकवाने माटेज आहेत आगम उपरथी प्राचीन विधानोए अनेक लेख लखेत्रा . प्रत्येक लेखनी रचना जिन्न निन्न लागे छे, पण तेमनो पवित्र उद्देश एकज होय छे. ते पवित्र नदेशथी बखाएला ग्रंयोनी अंदर केटबुं वधुं गौरव रहेढुं जे ? तेनो चितार सहृदय विधानोज आपी शके तेम जे. . सर्व दर्शन शिरोमणि जैनदर्शनमा विश्वोपकार। महात्माअोए जव्यास्माओना हितनी खातर अनेक ग्रंयो बखेस्रा ने. अने तेथीज जारतवर्ष उपर वसती आर्य प्रजामां आईत धर्मनी ज्ञान समृधि सर्वोत्कृष्ट गणाय . जोके तेनां अनेक कारणो छे, परंतु मुख्य कारण तेमना ग्रंथोमां वर्णवेलु उच्च प्रकारनुं तत्त्वज्ञान केवन शुष्क नथी, पण ते साये ते क्रिया, आचार अने सतनना बोधरुप माधुर्यथी जरपूर जे. तेनी अंदर हृदयना जच्च नावने जाग्रत करनारी नावनाओ एवी रीते प्ररूपेली छे के जेमनाथी संसारी जीवो पोताना दोषोने दूर करवा अने आत्माना गुणोने संपादन करवा समर्थ थइ शके .. आ आत्मप्रवोध ग्रंथ आहत धर्मनी ज्ञानसमृद्धिना वैनवना परिपूर्ण विनास रुप . उपर कहब निश्चयवळ अथवा मनोवळ प्राप्त करवानी सामग्री आ ग्रंथमां भरपूर गोठवेली . आत्मा ए पदार्थनी अंदर जे सामर्थ्य, वीर्य अने सत्ता रहेली , तेने ओळखाववाने माटे जे जे साधनो जोइए, ते साधनो आ ग्रंथमां युक्ति अने प्रमाण साथे प्रतिपादित करेला . मनुष्योमा कमजनित जे जे दोषो रहेना , तेमने टाळीने तेमना आत्मामा रहेवा उच्च बक्षणो खीलववामाटे सर्वोत्तम साधन सम्यक्त्वज . ते विषे आ ग्रंथमां सविस्तर विवेचन करवामां आवेदूं जे, ते उपरथी आत्मा केवी रीते प्रबोधने प्राप्त करे छे, अने प्रबोध प्राप्त करवा माटे आत्माए शुं करवू जोइए ? इत्यादि जच्च प्रकारो ग्रंयकारे एवी शैली अने क्रमथी वर्णव्या डे के, जेथी या ग्रंथर्नु आत्मप्रबोध ए नाम संपूर्ण सार्थकताने धारण करे . वळी प्रबोधनो अर्थ जागृति थायजे, अनाथी आत्मानी प्रबोध-जागृति थाय एवा विचारोनो जमां संग्रह छे, एवो आत्मप्रवोध ग्रंथ तेना नामनी संपूर्ण कृतार्थता पण संपादन करे. ज्या प्रकाश त्यां प्रबोध होयजे. अंधकारमा प्रबोध होइ शकतो नयी तेथी आ ग्रंथना प्रकरणने प्रकाश नाम आपेढुं . आ ग्रंथमां प्रकरण रुपे चार Jain Education Interational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३): प्रकाशो आपेला जे. प्रथम प्रकाशनुं नाम सम्यक्त्त्वनिर्णय राखे, जे. आ प्रकाशनी अंदर आ ग्रंथना अधिकारीनो निर्णय कर आत्मा शब्दनो अर्थ, आत्माना प्रकार, अने सम्यक्त्वनुं स्वरूप विस्तारथी निरूपण करेखें . श्रावकपणाना तत्त्वने प्रतिपादन करनार सम्यकत्त्व तत्त्वने प्ररुपतां ग्रंथकारे तेने अंगे आत्मशुद्धिनो विषय घणो सरसरीते वर्णव्यो छे. मनुष्यनी मानस शक्तिओ अने गुणो केवीरीते विकाशने पामे अने असाधारण मानसशक्तिओ शाथी खीले ? ए वात आत्मशुधिना विषयथी स्पष्ट थायडे. ते उपर आपेल प्रभास चित्रकारनुं दृष्टांत ए विषयर्नु यथार्थ स्पष्टीकरण करे. सम्यक्त्वना दोना प्रसंगमां पंचविध विनयन स्वरुप प्रतिपादन करतां देवपूजा अने चैत्य नक्तिनो विषय घणोज चित्ताकर्षक रचाएलो . पवित्र प्रभुनी पूजा-नक्तिथी हृदय उपर झंडामां ऊंडी जे लावना पडेने, अने तेथी हृदय जे द्रवीजूत थायछे, तेनो चितार ग्रंथकारे ते विषयनी चर्चामां दर्शावेलो . अने ते उपर असरकारक दृष्टांतो आपी प्रस्तुत विषयने अत्यंत समर्थ बनाव्यो बे; जे वांचतां आस्तिक हृदय जावोब्लासथी उन्नराइ जायजे. सम्यकत्त्वनी विविध शुधि दर्शावतां ग्रंथकारे सम्यक्त्वनी महत्तानुं जान कराव्युं अने पनी तेना पुषणो ने दृष्टांत पूर्वक समजावी सम्यक्त्वना आठ प्रभावकनुं सविस्तार ब्यान आपेलुं जे. जे प्रसंग सम्यक्त्वना अधिकारी आत्माओने अति आनंद उपजावे . ते नपरथी ग्रंथकारे सिफ करी बताव्यु डे के, दरेक जैने सम्यक्त्वनी नावनाने माटे जच्चपणे गतिमान् थर्बु जोइए, ते प्रमाणे गतिमान् थतां उच्च वर्तन राखवा प्रयत्न करवो जोइए अने कल्याणकारक प्रवृत्ति प्राचरवी जोइए अने तेथी दरेक जैने सम्यक्त्वना अनावक थवं जोइए. प्रवचन, धमेकथा, वादविवाद, निमित्तझान, तप, विद्यासिषि अने शासनशान ए उच्च साधनोथी प्रजावक थइ शकाय , अने प्रनावनाने माटे ते साधनो मेळववानी आवश्यकता बे, ए वात विधान् ग्रंथकारे जच्च आशयथी प्रतिपादन करेली . आ नवोदधिमाथी प्रसार थवा इच्छा राखनारा नव्यात्माए धारण करेला सम्यक्त्वने सर्वदा विभूषित राख जोइए. ए जद्देशने लश्ने आहेत आगाममां दर्शावेला सम्यक्त्वना जूषणो विषे ग्रंथकारे रसिक विवेचन करेलुं छे. त्यार बाद सम्यक्त्वना पांच लक्षणो हेतुपूर्वक उदाहरणो आपी समजाव्या . पी प्रकारनी यतना, आगार, छ नावना अनेक स्थानकना शुफ स्वरूप दर्शावी ए प्रथम प्रकाशने पूर्ण करवामां आव्यो बे. Jain Education Intemational Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४) आ ग्रंथनो बीजो देश विरति नामे प्रकाश छे. या प्रकाशमां गृहस्थ धर्मर्नु उपयोगी विवेचन आपलृ . गृहस्थनी समाचारी केवी होवी जोइए? केवा गुणोथी गृहस्थावास अलंकृत थाय ? अने गृहस्थे केवा व्रतो पाळवा जोइए ? ए विषय उपर ग्रंथकारे पातानो वाणीनो वैनव उच्च प्रकारे दर्शाव्यो . तेमांथी एवो ध्वनि निकले जे के, नव्य मनुष्ये निश्चय बळ वधारवाना साधनो संपादन करवा, उर्सन एवा मनुष्यजीवनने सूर्य जे तेजस्वी, प्रतापी अने सर्वतुं श्रेयःसाधक बनाक्वू, आळस, प्रमाद, व्यग्रता, क्रोध, चिंता, मोह अने अमर्याद आसक्ति एटलाथी अत्यंत सावध रहे, ए दोषो विपत्तिोना महासागरमां डुवामनारा ने, एम मानवं, सप्तर्व्यसनो उदयनी आशाने निर्मूळ करी दुर्गतिना दरवाजा तरफ लइ जनारा , एम निश्चय करवो. बळ अपंचनी छायामां पण जन्ना न रहे,, सत्यनो प्राण जतां पण त्याग न करवो अने निश्चय बळ अने आत्मबळमां विश्वासवाळा रहे, ए देशविरति धर्मना उपदेशनु रहस्य ने, अने गृहस्थ धर्मना शुछ स्वरूपनो प्रकाश जे. ते गृहस्थधर्मने अंगे बार व्रतोतुं स्वरुप अने सदाचार नरेला सद्वत्तेन विषे ग्रंथकारे घणां रसिक दृष्टांतो आपला डे. ते प्रसंगे दानधर्मनुं विवेचन करी गृहस्थावासमां करवा योग्य उदारता नरेनी सखावतो विषेपण इसारो करवामां आवेलो . तदनुसार श्रावकनी एकादश प्रतिमा दृष्टांत सहित प्रतिपादन करी गृहस्थ श्रावकना जच्च जीवनने अपनारा कत्तव्यो दाव्या जे जे मनन पूर्वक वाचवा योग्य . आ प्रकाशना लेख उपरथी ग्रंथकारे सिक कर्यु डे के, प्रत्येक ग्रहस्थे कर्त्तव्यनिष्ट थवानुं जे अने पोताना जीवनने सदनावनामय बनावी सर्व प्रति जच्च प्रेमनी लागणीथी जोवानुं जे. हृदयमा प्रेमरुप अमृतने नरी मृता नरेली वाणी उच्चारवानी , जे वाणी सर्व श्रवण करनारने शीतळता अने शांति उपजावे छे. प्रत्येक गृहस्थ देशविरति , छतां तेनी नावनामा सर्व विरतिपणानुं स्वरूप प्रकाशित होवू जोइए . तेनु वर्तन दयालुताथी रंगाएछं, विमुफ अने सात्विक होवू जोइए; जेथी शुकदेव, गुरु अने धर्म-ए त्रिपुटीनी आराधना करवानी योग्यता तेनामां पूर्णरीते प्राप्त थाय बे. सद्वर्तननी शुछिने सेवनारो गृहस्थ श्रावक आत्माना असाधारण महिमाने जाणी शकेले, ते कोइपण जातना पुराग्रहने वश थतो नथी, मिथ्यात्व नरेला विचारो तेने रुचिकर लागता नथी, ते निरंतर पोतानी सम्यग् दृष्टि उच्चपद तरफ राखेडे, अने नीचपदनी उपेक्षा करे. तेनी भावनामां श्रेणीबंध सद्विचारो Jain Education Intemational Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहेला . तेनी मनोवृत्तिथी मलिन वासना सदा दूर होय छे अने तेना जीवननो प्रघाह सत्पत्ति तरफ वल्या करेछे. आवा गृहस्थना उच्च जीवनने माटे ग्रंथकारे घणुं विवेचन करेलु . त्रीजा प्रकाशनुं नाम सर्वविरति छे. आ स्थळे विच्छिरोमणि ग्रंथकारे संयम मार्गना शुध स्वरूपनी प्ररूपणा करली . संयमनुं स्वरूप, तेना अधिकारी अने यतिधर्मना दश प्रकार विषे करेलु विवेचन अज्यासी वाचकोने अति उपयोगी थइ पमे तेवू जे. तप, स्वाध्याय, इंडियनिग्रह, दमविरति वगेरे विषयो रसिक दृष्टांत पूर्वक प्रतिपादन करेला छे. संयम साधकने हेय अने उपादेय शुं छे ? ते दावी बार नावना, सुबोधक स्वरूप आपढं जे. ते प्रसंगे आपेला प्राचीन ऐतिहासिक दृष्टांतो घणा असरकारक छे. ते पली बार प्रतिमान स्वरूप आपी साधुओनो अहोरात्रनो कार्यक्रम उपस्थित कर्यो छे. आ प्रसंगे ग्रंथकारे सिकांतमां कहेला साधुगुणोनुं वर्णन एवी सुंदरताथी करी बताव्युं छे के, जेनी असर आस्तिक वाचकांना हृदय उपर सत्वर आरुढ था शके छे. आ प्रकाश उपरथी महोपकारी महाशय ग्रंथकर्ताए सिफ करी बताव्यु छे के, अधिकारी मनुष्यने पोतानुं जीवन उच्च स्थितिए बइ जवामां बे मार्ग साधनीय . गृहधर्म मार्ग अने यतिधर्म मार्ग. गृहधर्म मार्ग यथार्थ रीते संपादन कर्यो होय तो ते द्वारा यतिधर्मनो मार्ग सुगमताथी प्राप्त कराय . सर्व विरति संयममार्ग ए मानवजीवननी उन्नतिनुं शिखर . ते पर आरूढ थयेलो आत्मा परम आनंदनी समीप आववानो अधिकारी बने ने. संसारनो त्याग करवाथी तेना अंगरुप बीजी उपाधिो दूर रहे बे, एटले ते निरुपाधि आनंदनो पूर्ण अनुनय करवानो अधिकारी बने डे, आनंदनी शीतळ गयामां विश्रांत थयेला संयमीने झेय चिंतनीय अने ध्येय सुख साध्य थाय जे. ते सर्वदा पोताना हृदयने संबोधीने कहे के, " माझं जीवन संयमनो जे आनंद अनुजवे ने ते आनंदन मारु बदय , मारु जीवन डे, मारा हृदयनो रवि बे, अने माझं सर्वस्व . अग्निनो संबंध यतां जेम पारो उमी जाय रे अने सूर्यना प्रकाशनो संबंध थतां जेम अंधकार उमी जाय छे, तेम मने संयमनो संबंध थतां आ संसारनी विविध जपाधिो उमी गइ जे. जे हृदयमां पूर्वे क्षणे क्षणे सु:ख, कलेश, जय, चिंता अने शोक वगेरे आवोने नन्ना रहेता हता, ते अत्यारे सिंहना नादथी जेम मृगवृंद नाशी जाय, तेम नाशो गया छ, संयमरुपी सिंह मारा हृदयरुप गुफामां बेठो के. Jain Education Intemational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) तेना मुखमाथी 'सोऽहं' रुप महानाद थया करे , जे महानादनो प्रतिध्वनि गगनने जेदी स्रोकाकाशना सर्व प्रदेशमा व्यापी जाय ." । आ ग्रंयना चोथा प्रकाशनुं नाम परमात्मस्वरूप . परमात्मा कोण ? परमात्मापा' के होय ? अने तेनी प्राप्ति शी रीते थाय ? ए विषयो ग्रंथकारे सुबोधक वाणीथी वणवेला जे. जवस्थ केवळीनुं स्वरूप आपी जिननिक्षेपार्नु यथार्थ रहस्य दशावेलु उ. ते पछी सिफ स्वरूप, सिधोनी अवगाहना अने समस्त वस्तु विषयिक केवळझान अने केवळदर्शन संक्षिप्तमां एवी स्पष्टताथी निरूपित करेला डे के, जे उपरथी ग्रंथकारनी दिव्य प्रतिनावाळी महाशक्ति जणाइ आवे . श्री अर्हत् जाषित जैनागममा जेने अनिर्वाच्य कहे , तेवा सिक सुखनु दृष्टांत सहित वर्णन करतां ग्रंथकार विघान् वाचकोना हृदयने आकर्षी ले ले. ते पनी सिद्धनगवानना अलौकिक गुणोनुं वर्णन करी अने आत्मबोधनी पुर्वनता दर्शावी श्री विकच्छिरोमणि ग्रंयकार आ आत्मिकझानना महोदधिरुप ग्रंयना सामा तट नपर आवी पोहोचे जे--ग्रंथ समाप्त थायजे. आ बेम्बा गहन विषय उपर ग्रंथकारनो जे महान् उद्देश बे, तेने जो पबवित करवा धारीए तो आ प्रस्तावना पण एक ग्रंथरुप था पसे. तेथी संक्षेपमा एटर्बुज कहेवातुं के, परमात्मभाव ए लोकोत्तर दिव्यत्नाव जे. ते नावनी साथे सिधावस्थानो उत्कृष्ट संबंध जे. सिधावस्थानो आनंद अवर्णनीय छेअवाच्य जे. ते आनंदना अनुलवीओज तेने जाणे . आपणे तो तेनी नावनाज जाववानी . ए जावना जावतांज विचार, वाणी अने कृति आनंदमय बनी जाय . ते विषे एटर्बुज कहेवू वश बे. आ प्रमाणे धर्म, अर्थ, काम अने मोद ए चार पुरुषार्थनी संख्याने जाणे सूचवता होय, तेवा चार प्रकाशथी आ आत्मप्रबोध ग्रंथने तेना विद्वान् कर्ताए प्रकाशित करेलो छ. उदयमान जैनसमुदायने धर्म अने तत्त्वोनी श्रेष्ट शिक्षण पचतिने जैनागम प्रमाणे उत्तेजी तेने स्वाश्रयनिष्ट तया कर्तव्यनिष्ट करवा आ ग्रंथ उद्देशे छे, एटलुज नहीं पण तेना मनन पूर्वक अध्यासीने आत्मिक उन्नत्तिना आनंदमय द्वारसुधी उत्तम सुबोधना शब्दोथो ते दोरी जाय छे ए निःसंदेह . ___ आ ग्रंथना कर्ता श्री जिनमानसूरि खरतरगच्छना एक प्रख्यात आचार्य हता. विक्रमसंवत् १७८४ ना वर्षमा तेमनो जन्म विकानेरमां थयो Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हतो. तेमनुं संसारी नाम साबचं हतुं. तेमणे विक्रमसंवत् १७७६ ना वर्षमा बारवर्षनी वयमां दीक्षा लीधी हती. तेमना गुरुर्नु नाम जिननक्तिसूरि हतुं. जिनमानसूरि बाव्यवयमांधीज बुधिशाळी हता. तेमणे दोदा सीधा परी उंची जातनो अभ्यास को हतो. तेमनी व्याख्यान करवानी शक्ति उत्तम हती, आथी लोको तेमने बहु मान आपता हता. विक्रम संवत् १७०४ना वर्षमा तेमनी वीश वर्षनी वय थतां तेमने सूस्पिद आपवामां आव्युं हतुं. ए सूरिपद नो महोत्सव कच्छदेशमा आवत्रा भांमवीबंदरनी अंदर थयो हतो. ते स्थळे रहीने तेमणे आ आत्मप्रबोध ग्रंथनी रचना करी हती. अने तेना सुबोधक व्याख्यानो कच्छनी जैनप्रजाने संजळाव्या हता. जेनी प्रशंसाना शब्दो देश विदेशमां पण प्रसरी गया हता. सूरिवर जिनवानसूरिनी वित्ता अने व्याख्यान शक्तिथी घणाओ आ संसार तरफ विरक्त थ तेमनी पासे दीक्षित थया हता. विक्रम संवत् १७१एना वर्षमा तेमना परिवारमा पोणोसो साधुओ विद्यमान हता. एवा शिष्योना मोटा परिवार साथे तेमणे गोमो पार्श्वनाथजीनी तथा आबुनी यात्रा करी हती. विक्रम संवत् १०३वना वर्षमां पचाश वर्षनी वये ते महानुनाव काळधर्मने पाम्या हता. तेमना स्वर्गवासथी ते देशनी जैनप्रजामां कहेवायुं हतुं के, “खरतर गच्छरुपी गगनमांयी एक तेजस्वी तारो अस्त थप गयो." आ ग्रंथनुं गुर्जर जाषांतर नावनगर निवासी स्वर्गस्थ शा. जवेरचंद नाइचंदे करे . मरहूम आहेत धर्मशास्त्रना सारा झाता हता. नावनगरनी श्री जैनप्रजाना आगेवान पैकीना तेत्रो एक हता. अने तेज नगरमा स्थपाएन श्री वृधिचंद्रजी जैनविद्याशाळाना मंत्री हता अने पोताने प्राप्त थयेन धर्मज्ञान बीजाने आपq एज जेनो मुख्य उद्देश हतो; आयी तेश्रो शास्त्रीय ज्ञानने संपादन करवामां अने तेनुं दान बीजाने आपवामां यावजीवित नत्साही रह्या हता. आर्हत झानना अनुजवनो परिपाक थयेसो होवाथी तेओ आ उत्तम ग्रंथर्नु नाषांतर करवा शक्तिमान् थयेत्रा ने, तेमज तेओए जैन शैलीने अनुसरी खेली जाषा बालित्यवाळी जे. केटोक प्रसंगे मूत्र ग्रंथना आशयने समजाववामां तेमणे सारो स्पष्टार्थ करेतो. जापांतरकार या पोतानी कृतिने परिपूर्ण मुांकित थयेन जोइ शक्या नथी. श्रा ग्रंथनो बीजो प्रकाश थोमो छपाया बाद गइ शालना श्रावण वदी ८ ना रोज तेमना जीवितनुं अवसान थपे, डे, पाळथी तेमना पितृनक्त अने उत्साही पुत्र फत्तेहचंदे पोताना पितानी कृतिने पूर्ण रीते प्रसिद्ध थवा ग्रुफो वि Jain Education Intemational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (0) गेरे वांचवामां आसनाने सारी मदद करी छे, जो जाषांतरकार या ग्रंथनामुचित rer बाह्ययंतर सुंदर स्वरूपने प्रसिद्ध थयेलुं जोइ शक्या होत तो ते - मना हृदयमां पूर्ण संतोष थात ने आ प्रसिद्ध करनारी संस्थाने सारं अभिनंदन मळत; परंतु कर्मयोगे एम बनी शक्युं नहीं, एटलं असंतोषनं कारण थयुं बे. या प्रसंगे जावतां आनंद उपजे बे के, नामदार नीकाम सरकारना ऊवेरी बाबू पन्नालाल पूरणचंदना प्रपौत्र बाबू प्रतापचंदजी गुलाबचंदजी ए पोताना स्वर्गवासी पिता बाबूसाहेब गुलाबचंदजीना स्मरणार्थे या उपयोगी ग्रंथ प्रगट करवामां उत्तम सहाय आपी छे. स्वर्गवासी बाबू गुलाबचंदजी पोताना टुंक जीवनमां पण धार्मिक वृत्ति, तेमज पोताना ऊबेरी तरिकेना धंधामां असाधारण उदारतायुक्त अने कर्त्तव्य निष्ट ययेला छे, तेवा पोताना स्वर्गवासी पिताना नामना स्मरणार्थे पितृनक्त युवान पुत्र बाबू प्रतापचंजीनी आ सत्प्रवृत्ति खरेखर धन्यवादने पात्र छे, उद्योग, ज्ञान ने धार्मिक कार्योमां उत्साहथी आगळ बघता युवान बाबू प्रतापचंद्रजीनी या प्रवृत्ति वीजा गृहस्थाने अनुकरण करवा योग्य बे, एवी नम्र सूचना आपी ते आपली सहायताने माटे अंतःकरणथी आजार मानवामां आवे छे. सदरहू ग्रंथनी शुद्धिने माटे यथाशक्ति प्रयत्न करवामां आवेलो बे छतां स्थपणामां सुलन एवा प्रमाद तथा दृष्टि दोषादि दोष के प्रेसना दोषने asने कोइ स्थाने स्खलना थइ होय तो मिथ्यादुष्कृत पूर्वक दमा याचीए छीए. सर्व जैन प्रजा पोताना धार्मिक साहित्यना गौरवमां, समृद्धिमां तथा कल्याशक्तिमा वृद्धि करनारा, या उपयोगी ग्रंथने पठन पाठन तथा वांचननो उत्तम उपयोग कर आदर आपशे तो करेलो श्रम सफळ थयेलो मानी या संस्था पोतानी वी प्रवृत्तिमां विशेष उत्साहित थशे. छवेट नीचेनी जावनावडे आत्मानुं उद्बोधन करीरी या प्रस्तावना समाप्त करवामां आवे छे. " प्रवर्त्ततां सत्प्रवृत्या, निवर्त्ततां सदा तेषां " सर्व साधी अंतराय करनारी विपत्तिनी सदा निवृत्ति याओ. " ॥ १ ॥ सधर्मसुहृदो ऽखिलाः । विपत्तत्रांत यकृत् " ॥१॥ सत्प्रवृत्ति प्रवत्त अने तेमने ते प्रवृत्तिमां वीर संवत २४३८, आत्म संवत १७ आश्विन शुक्ल तृतीया रवीवार आत्मानंद भुवन. "} श्री जैन श्रात्मानंद सना. जावनगर. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात. प्रत्येक ग्रंथना यांतर शरीरनी घटनानो आधार खास करीने तेना अनुबंध चतुष्टय उपर होवाथी तेनी जेवा प्रकारे संकलना थयेली होय तदनुसार विद्वज्जनो ग्रंथ महत्वतानी समीक्षा करे छे, मंगळ, अभिधेय, प्रयोजन असंबंधरुप या चतुष्टय ग्रंथनी आदरणीयता तरफ दिग्दर्शन करावी वांचकोने सन्मुख यवा प्रवृत्ति करावे छे. जे ग्रंथनी आदिमां अढार दोष रहित सर्वज्ञ परमात्माने नमस्कार होय, जे ग्रंथमां आत्मानो उद्बोधन क्रम अभिधेय होय, जे ग्रंथ प्रयोजन स्वपरने व्यावहारिक मात्र नहि किंतु आत्मिक हित शीघ्रपणे प्राप्त करावतुं होय, अने जे ग्रंथमां दर्शावेला आंतरभावो रूप उपायो वमे कर्मक्षयथी उत्पन्न थली मुक्ति संपादन थइ शके-आवा ग्रंथो लौकिक फळदानने बंधी अलौकिक फळदान सादर करे तेमां शुं आश्चर्य ! जैनदर्शनना ग्रंथकारोए प्रथमथीज आवाज अनुबंध चतुष्टयनी योजना करेली छे, जे प्रशस्य होइ ज्ञान प्राप्त करना उत्तम फळने अनिल बे. सन्मुख थयेला वांचको पछी थी नागोनुं निरीक्षण करी स्वरुचि ने स्वादर रूप तुलाओ वमे ग्रंथपरत्वे पोताना अधिकारनी तुलना करे बे; तदनुसार श्रवण मनन के वांचन तरफ प्रवृत्तिशील बने छे, ने बुद्धिना क्षयोपशम प्रमाणे ग्रंथावलोकननी समीक्षा थायबे. श्रुत, चिंता ने जावनाना सतत परिशीलन व ग्रंथनी प्रांतर सुंदरता प्रोलखवामां आवे छे अने भावनाना परिपाकपणा पछी ग्रंथना चर्मदृष्टि देखाता स्थूलजावोनुं चैतन्यमय आत्मा साथे आरोपण थाय छेत्र ग्रंथकारनो श्रम संपूर्ण फळग्राही बने बे. , " आत्मा शब्दनो अर्थ आत्मप्रबोध ग्रंथना व्याख्याकारे ' अततीति आत्मा ते ते जावने सततपणे प्राप्त करे ते आत्मा' ए रीते शरुआतमां कहेलो बे, ते पूर्व जावसूचक बे. पश्चिमथी पूर्वतरफ जोसबंध वदेता आजम - वादना जमानामा आत्मा ए शुं वस्तु बे ? ते अरूपी होवा बतां केवा लक्षणो ah ओळख शकाय बे ? जकुलगतकेसरीनी पेठे पोतानुं स्वरूप कया साधनो Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) म जा शके ? अविद्याना अंधकारमां पमी रहेला आत्मरत्नने शावके खोळी काय ? श्वासोश्वासादि बाह्य प्राणोथी जीवन्त कहेवाता - देह एज हुँ एवी मान्यता करता मनुष्योनो आत्मा केवुं जीवन अनुभवे बे ? स्थावर अने जंगम रूप बाह्य समृकिने पोतानी समृद्धि माननाराओ आत्माने ओळखी शक्या बे के केम ? वैज्ञानिक विद्याथी पण आत्मा जेवो कोई देहगत पदार्थ अनुमान थइ शके बे ? सुख दुःखनो ज्ञाता कोण होवो जोइए ? या सर्व स्थितियो तपासवी मुश्केल बे तो आत्मज्ञान प्राप्त करी तेनो उन्नतिक्रम नक्की कर ते मार्गना अनुयायी थवं, ए विशेष प्रमाणमां दुर्लक्ष्य होय, तेनुं कहेवुज शुं ! जमवादना या जमानाने अंगे एक तरफयी आत्मज्ञान नष्ट थतुं जाय बे, तो बीजी तरफथी आत्मानुं अस्तित्व प्रतिपादन करनारा शास्त्रो जुदीज दिशामां गमन करता होवाथी आत्मारूप पदार्थतुं वास्तविक जान प्रकट थ‍ शकतुं नथी. जुम्रो ! बौद्ध दर्शन आत्माने अव्यरुपे क्षणस्थायी मानी वस्तुस्थितिमां सांकर्य उत्पन्न करे बे, मीमांसको सर्व अवस्थामा आत्मा नित्य ने प्रबंध माने बे, प्रत्येक शरीरे भिन्न भिन्न आत्मा मानतुं सांख्यदर्शन सर्व अवस्थामां आत्मा कर्ता ने अनोक्ता माने छे तेमज नैयायिक दर्शन पण जीवात्मा अने परमात्मा जुदा माने छे तेथी जीवात्मा परमात्मा थइ शके नहि विगेरे मान्यताने अवलंबी आत्मवादने अन्यथारुपे करेलो बे. तदुपरांत प्रत्यक्ष प्रमाणनेज माननारा आत्मारूप पदार्थ नहीं देखातो होवाथी तेना अस्तित्वनीज उपका करता होवाथी आत्मवादयी विदूर छे. आ रीते आत्माने शाधवो अने ते यथार्थ ते शोधवो ए सामान्य बुद्धिगम्य नथी, परंतु तेने वास्तविक रीते शोधी मूळस्वरूपनी ओळखाण कराववी ए सूक्ष्म बुद्धिगम्य होवाथी जैनदर्शने निवेदन क रेला नित्यानित्यरूप, प्रव्यपर्यायात्मक, faar व्यवहारमय — विगेरे अपेक्षाओ व जुदी जुदी अवस्थामां प्राप्त यता स्वरूपने शास्त्र साधनव मे नीहाळी अनुष्ठान रूप कप, छेद, नेतापरुप कसोटीए चडावी सुवर्णनी जेम आत्मशुद्धि - एकात्म ओळख काढवो ए आ दश दृष्टांतथी फुर्लन मनुष्यजन्मनुं पूर्व कर्तव्य बे, जे स्वयंसिद्ध बे ने अध्यात्मज्ञानी प्रो तेमज संबोधि गया बे.. चतुर्गतिमां पद धरावती मनुज गतिने प्राप्त ययेला मनुष्यमाणी के मांन्य गति करतां बुद्धिमत्ता विशाळ प्रमाणमां प्राक् पुण्य कर्मने अंगे मळेली होय बे ते त्रण प्रकारना जीवन वमे जीवता होय . ( १ ) बहि Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) रात्म जीवन (६) अंतरात्म जीवन (३) परमात्म जीवन. आत्माने नहि ओळखनार पौद्गलिक जावोमां रची पची रहेनार अने स्थूळदेहवमे अनुग्रह अने उपघात युक्त बनता दरेक पदार्थोनी क्रियाने पोतानी माननार, दरेक प्रसंगे स्वत्वर्नु आरोपण करनार, सर्व मनुष्या बहिरात्म जीवनवाळा गणायला. आ मनुष्योना साडा त्रण हाथनी अवगाहनावाळा देहगत प्रमाण वाळो आत्मा पोतानी आसपासना तेमज बहु दूर रहेला पदार्थोनो का पोतानेज माने छे. आ स्वरूपमा आत्मस्वनाव, आ. च्छादन थइ गयेधुं होवाथी तेत्रो प्रथम कोटिमां वर्ते छै. बीजी कोटिमां वर्तता मनुष्यो 'आत्माने ओलखी लेनारा' होय जे; तेमने समजाय छे के हुं कोण बुं ? आ पौद्गनिक सर्व पदार्थोथी मारी स्थिति विलक्षण प्रकारनी . मारो अने तेनो संबंध पूर्व अने पश्चिम दिशानी जेवो ; उतां आजसुधी दिङ्मूढ प्राणीनी जेम पूर्व ने पश्चिम दिशा गणी बने एकज ने तेवा घ्रांतिजन्य अज्ञानमा वासित हतो. चौदराजलोकना सर्व जम पदार्थोथी पोताने जुदोज समजी बेनारा पोतानी मर्यादाने वास्तविक स्थितिमां समजी लेनारा मनुष्यो अंतरात्म जीवन वझे सजीव गणाय बे; परंतु परमात्मजीवनयुकत मनुष्योए आत्माने स्वरूपवमे संपूर्ण रीते ओळखी लीधेलो छ; अने ते एवी रीते ओळखी लीधेलो डे के, जे पुनः कदापि विस्मृतिना पटमां अदृश्य न थाय ! एटटुंज नहि, परंतु तेओए जगत्ना सर्व प्राणीओना आत्मानी परिस्थिति जाणी सीधेली . आ मनुष्यो कदापि आत्मा शिवाय अन्य वस्तुना संबंधनी इच्छा करता नथी. ज्यांसुधी देहधारीपणे होय त्यांसुधी आ संसारमा विहरे पीथी निरीहनावपणे रहेला देहसंबंधने पण तजीने पूर्णानंदमय आत्माज मात्र लोकाग्रे विराजे जे अने ते शाश्वतपणे आत्मानुभव करता सदा जीवन्त . आथी ए पण सिद्ध थाय ने के जेटले जेटले अंशे सार्थक थाय-आत्मझान-आत्मबोध प्राप्त थाय तेटने तेटने अंशे आत्माना श्रात्मत्वनो आविर्भाव . आत्माने उच्च कोटिमां मूकवाने माटे, रागधेष दूर करवाना शिक्षणने घणा दर्शनकारो सम्मत थयेला डे; परंतु तेने दूर करवाना अनुष्ठानोमां अनेक गुण तफावत जे. जैनदर्शन वझे निरूपण करायलो आ क्रम सर्व दर्शनोथी अग्रपद धरावे छे, एम कह अतिशयोक्ति नरेखें कदापि यशेज नहि. केमके कर्मनी बंध, निधत्त, निकाचित, उदय, उदीरणां विगेरे अवस्थाओ, आत्मप्रदेशनी साथे श्रतो तेमनो संबंध, ते घड़े आत्माने प्राप्त थतो अनुग्रह अने उपघात तेमज कर्म Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) प्रकृतिनुं घातित्व, प्रघातित्व, संक्रमण अने निष्क्रमण विगेरे जेवुं सूक्ष्मतर स्वरूप य दर्शनमां वर्णवेनुं बे, तेनो आंशिक नाग पण अन्यदर्शनोमां द्रष्टिगोचर थइ शकतुं नथी; एज तावी पे बे के या सर्वमणीत दर्शन होवं जोइए; अन्यथा वा प्रकारनी अपूर्व हकीकतनो संजव कयांथी होइ शके ? जे दर्शन परमाणुने पण कर्ता मानी अन्यनो जगत् कर्ता तरीके निरास करे छे, ते साथै आत्मा पोते कार्मण परमाणुओना वशवतीं पणाथी अनेक पदार्थों, अनेक स्थिति नानी नानी अनेक सृष्टियो सर्जवानी शक्ति धरावे छे ( पछी ते ज्ञानथी के अज्ञानथी गमे ते रीते होय ) अने पछी थी विनाश करे छे. आवी परंपराओनी मान्यतावाकुं जैनदर्शन आधुनिक प्रत्यक्ष प्रमाण मात्रने माननारी विज्ञान विद्या ( Science ) वमे शोधखोळ करायला जड स्वरूपने मळतुं आवे छे, एटलुंज नहि परंतु अरूपी पणे प्रत्यक्ष प्रमाणयी अगोचर आत्मवादने सुंदर शैली व स्थापन कर, जमवादथी थयेला एकांत अज्ञानने दूर करी, सूक्ष्मदशजनाने ' प्रदीप हस्तमतिनी' पेठे अच्छो प्रकाश आपे बे. वस्तुस्थिति या प्रकारे हो जगत्ना आत्माओ शिवाय एवा कोइ जगत्कर्तृ महात्मानी सृष्टिना पदार्थो सर्जनरूपे जरूर परुती लागती नथी, के जे वगर विश्वव्यवस्था शून्य बनी जाय ! परमाणुओ पण अनंत शक्तिवाळा निवेदन करेलाछे. आ उपरथी वास्तविक रीते ए सिद्ध थायडे के आत्मा ए अस्तित्व धरावनारी अपूर्व वस्तु छे नेते अनंत शक्तिवाळी छे. कर्मरूप जडपरमाणुओोथी जेनो स्वभाव आच्छादित थइ गयेलो बे एवा आत्माने ते ते जमपरमाणु ने दूर करवानो आत्मज्ञान प्राप्त करवानो यथार्थ क्रम होय ने तेने अनादि मिथ्यात्वरूप घोर निद्रामांथी जागी आत्मा समजवा प्रयत्न करे ने समजी तदनुकूल आचरण करे तो इष्टसिद्धि संपादन करे युक्तियुक्त जे. ग्रंथ ' आत्मप्रबोध ' तदनुकूळ कार्यवाहकपणे योजायेलो बे; तेमां आत्मानी चार भूमिकाओ उच्च उच्च जावने अनुक्रमे वहन करनारी दर्शाव तेना उपर आरोहण करवानो वारंवार उद्बोध करवामां आवेलो . जोके जैनदर्शनमा आत्मानी चौद भूमिकाओ— ज्ञान दर्शन चारित्रना प्रकटीकरनी जुदी जुदी अवस्था प्रतिस्थाने वर्णवेनी डे, बतां ग्रंथकर्त्ताए संक्षिप्तपणे ग्रहण करी या चार भूमिकानुं निरूपण कर्यु बे. (१) सम्यक्त्व (२) देशविशति ( ३ ) सर्वविरति ( ४ ) परमात्मजाव. . Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्त्व नूमिकाना स्वरूप दर्शनमा मिथ्यात्व गुणस्थामकथी आत्मा उच्च स्थाने आवतां-तेना मिश्र परिणाम थतां, पनीथी अनिवृत्ति करणरुप आत्मवीर्यथी चतुर्थ गुणस्थानके प्रवेशतां आत्मा सम्यक्त्त्व नूमिका प्राप्त करे . आ सम्यक्वने केवी रीते प्राप्त कर ? प्राप्त करनार आत्माना परिणाम केवा होय ? विगेरे प्रथम प्रकाशरुपे क्रमपुरःसर दर्शावजे. सम्यक्त्व ए अनादि निष्पन्न नवनी आत्यंतिक निवृत्तिनुं बीज ने एम जैनदर्शन पुनः पुनः मिर्मिम वगामीने कहे तेथीज कहेवामां आवेवू डे के: कृष्णपके परिक्षीणे, शुक्ने च समुदञ्चति । योतते सकताध्यक्षाः, पूर्णानंदविधोः कसाः ॥ 'मिथ्यात्वरुप कृष्णपक्ष पूर्ण थतां अने सम्यक्त्वरुप शुकनपद उदयमान थतां पूर्णानंदमय आत्मारूप चंद्रनी कलाओ क्रमशः सकळनावाने प्रत्यक्ष करती प्रकाशे श्रीमद् यशोविजयजी. आम होइ सम्यक्त्वरुप बीज अवश्य मुक्ति फळ प्राप्त करावी आपने, असप्त कर्म प्रकृतिओना क्षय के उपशमथी उत्पन्न थयेवं दायिक के औपशमिक सम्यक्त्व उत्कृष्ट स्वरूपमा सर्वघाति प्रकृतिओना क्षयरुप दायिक सम्यक्त्वरुपे प्रकटे ने. सप्तकर्मप्रकृतिना दय के उपशमरुप आत्मनावनी जागृति ते अंतरात्म अवस्था के अने सर्व प्रकृतिओना दयरुप आत्मनावनी जागृति ते परमात्म अवस्था छे. __ग्रंथकर्ता पूर्वोक्त स्थिति जान करावतां सम्यक्त्वना बाह्य अने आभ्यंतर स्वरूपनुं दर्शन करावे , ते साथे सम्यक्त्वना सदहणा, लिंग, विगेरे सडसठ प्रकारों दर्शावे . सम्यक्त्वना अनेक प्रकारो जुदीजुदी अपेक्षाए पण दर्शावे डे, परंतु व्यवहारथी शुद्ध देव-गुरु अने धर्मनी श्रधा अने निश्चयथी अंतरात्मपणुं प्राप्त कर ए मुख्य उद्देशोमां सम्यक्त्वना षट्स्थानको दर्शावतां या प्रकाश समाप्त करे छे. त्सार पनी पंचम गुणस्थानक उपर देशविरतिनी भूमिकानो आत्माने अधिकारी बनावे . 'ज्ञानस्य फलं विरति' ए सूत्रनुं सत्य आत्माने देशविर तिनी नूमिका यथार्थ करावे छे. केमके आत्माए संसारना क्षणिक पदार्थोंने भ्रममूलक जाण्या * अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, अने सम्यक्त्व मोहनीय. Jain Education Intemational Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) शी रीते ? शुं कहेवा मात्रथी ? शुं अन्यने उपदेश आपना पुरता ? शुं पोतानुं स्वार्थी जीवन तृप्त करवा खातर ? शुं दंभवमे जगत्नी वंचना खातर ? न हिज. वास्तविक स्थिति जानार मनुष्य तेज होइ शके के जे जाएया पछी हेय पदा ने जवानी अभिलाषा राखतो जाय-क्रमे क्रमे ततो जाय ने परिणामे सती दे. देशविरतिपणुं ए गृहस्थने योग्य वारव्रतनी परिपालना रूप कर्तव्य विशेष बे, के जे कर्तव्यवमे आत्मा असत्य मार्गथी दूर रहेवा यथाशक्ति प्रयत्नपरायण थाय बे, अने सर्व रीते दूर रहेवानी निरंतर अभिलाषानुं सेवन करे बे. षष्ठ तथा सप्तम गुणस्थानके वर्तता आत्मानी त्रीजी भूमिका सर्वविरति छे. अत्र जततुना सर्व पदार्थोमांथी ' अहंममता ' दूर थाय छे. आरंभ समारंजजन्य सर्व पापोनो परिहार थाय छे. सर्व विरति भूमिकाने प्राप्त ययेला मनुष्य प्राणी कोइ प्रकार पाप सेवता नथी, अन्यने ते करवानो उपदेश करता नथी, तेमज तेवं करनारनी अनुमोदना करता नयी सांसारिक इच्छा मात्रनो ज्यां त्याग ने एक मात्र आत्मानुभवनीज अपेक्षा अस्खलितपणे वहती होय त्यां स्वार्थमय दुनियामां निविरूपणे वास करीरी रहेला क्रोध, कीर्ति, यश, मान, दंन ने प्रपंचोमां अमूल्य समयने गुमाववानो वखत क्योंथी होय ? वस्तुतः सर्व विरतिनो या अप्रतिहत मार्ग निर्दिष्ट थयेलों छे. आ नूमिकामां बाह्य मर्यादामां टकी रहेवाने संस्कार पामवा माटे ऽव्यथी मुनिवेष अंगीकार करवो पाने नावथी कषायादिने निर्मूल करवा हिंसा, असत्य विगेरे तोथी सर्व प्रकारे विरमण कर पके बे. चतुर्थ परमात्म भूमिका - टम गुणस्थान वर्ती आत्मार्थी मांगीने सिद्धपणानी अवस्था पर्यंत बे. आमां पकश्रेणि के उपशम श्रेणिगत आत्मा गीयारमुं गुणस्थानक के ज्यां मोहनों सर्वथा उपशम होय छे, अथवा बारमुं गुणस्थानक के ज्यां मोहनों सर्वथा दय होय छे तेथी, बने गुणस्थानके ' वीतराग ' पणे संबोधाय बे, त्यारथी ते परमास्मानी कोटिमां वी शके बे. चतुर्दश गुणस्थानक सुधी ते जवस्थ परमात्मतामां पीथी शाश्वतपणे सिद्धिस्थ परमात्मतामां वर्ते बे. या प्रकाशमां नवस्थ केवीं स्वरूप तथा सिवना जोवोनी अवगाहना तथा सिद्ध सुखन। अनिर्वचनी - यतानुं स्फोटन करे छे. या रीते विस्तारथी चारे भूमिकानुं स्वरूप ग्रंथकार प्रतिपादन करे छे. जैनदर्शनरूप प्रासादना चार द्वार इव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकर Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णानुयोग अने कथानुयोग रुप ले. आ चारेनु स्वरूप अखिन ग्रंथना सर्वांगमां व्यापेलू जे. दरक अव्यानुयोगनी हकीकत प्रसंगे कथाओ, दृष्टांतो अने उपनयो आपी जव्यानुयोगना उत्तम पण कठिन विषयने सामान्य बुधिजनोने तृप्ति थाय तेवू बनाववामां ग्रंथकर्ताए अधिक पण उपयोगी श्रम लोधेलो ; प्रसंगे चैत्यविनय विगेरे प्रकरणोमां गणितानुयोगरुपे चैत्य संख्या विगेरे प्रतिपादन करेली ; अने देशविरति तथा सर्व विरति अधिकारमां तो खास करीने चरणकरणानुयोग अग्रपद धरावतो होवाथी चतुर्गतिना अंतरुप चारे अनुयोगोनो प्रकाश पामेलो . प्रसंगोपात्त जगवती तथा राजप्रश्नीय विगेरे सूत्रना आळावाओ सादीरुपे दर्शावेला ने, नीतिशास्त्रना श्लोको उपनय तरीके दाखल करेला छे, अने अशुचिनावनामां गर्जनुं व्यावहारिक स्वरूप पण बतावी आप्यु ; आ सर्व अंगो एकदरे तपासतां आ ग्रंथना अधिकारी मनुष्यो प्रति ग्रंथकारनी उपकार्य बुफि सादर थयेनी जे एम स्पष्ट थाय . ग्रंथना अंतरंग शरीर परत्वे आटली हकीकतना निवेदन पछी कहेवानी आवश्यकता के के, अमारा मर्दुम पिताश्री के जेओ आ ग्रंथना भाषांतर कर्ता ने 'मर्डम पूज्यपाद श्रीमद् वृधिचंदजी महाराज पासे तेओए व्याख्यानमा आ सुंदर ग्रंथनो अमुक भाग श्रवण करतां तेनु भाषांतर करवानी इच्छा तेमना हृदयमां प्रकटी. आधी पोताना अनेक व्यवसायोमांथी पण अवकाश मेळवी, मर्डम पूज्यपाद पासे आ ग्रंथ साद्यंत वांची लीधो अने पछीथी अनुकूळताए नाषांतरनी शरुआत करी थोमा वखतमां ते पूर्ण कर्यो. त्यारपती अनेक प्रकारनी व्यवसायमय प्रवृत्तिओना उद्भवने अंगे तैयार करेलो ग्रंथ एक बाजुएज रह्यो. आ ग्रंथ उपरांत बीजी अनेक परचुरण संक्षिप्त हकीकतोनो संग्रह करेस्रो, परंतु ते अग्निनो भोग थइ परता फक्त आ ग्रंथ अन्यस्थाने होवाथी अवशेष रह्यो; केटलोक वखत वीतवा परी अमारा स्वर्गवासी पिताना निकट संबंधमां श्री जैन आत्मानंद सजाना सेक्रेटरी मो. वबभदास त्रिन्नुवनदास गांधी आवतां प्रसंगोपात्त एक वखत तेमनी साथे धर्मसंबंधी वातचीत थतां-' उक्त ग्रंथ घणोज उपयोगी छ अने जेर्नु भाषांतर अमोए कर्यु छ' एम अमारा मर्तुम पिताश्रीए उक्त सेक्रेटरीने जणाव्युं, जेथी आवो नपयोगी ग्रंय श्री जैनात्मानंद सभा तरफथी बहार पसे तो सभाने मोडे मान प्राप्त थवा साथे जैनप्रजा तेनो लाभ सारी रीते संपादन करी शके एम उक्त सक्रेटरीने हकीकत जणाववाथी तेमणे अमारा पिताश्रीने उक्त ग्रंथर्नु भाषांतर सजा Jain Education Interational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरफथी प्रसिद्ध करवानी मागणी करी; अमारा पिताश्रीए ते योग्य जाणी आग्रंथ उक्त सेक्रेटरीने सुपरत कर्यो, त्यारवाद शुद्धिने माटे अमारा पिता तरफथी पुनरवलोकन करी ताकीदे उपाय तेम गोठवण करवा सूचववामां आव्यु. तदनुसार आ ग्रंथ छपाववानी शरुआत करवामां आवी. परंतु प्रथम एकज प्रकाश तेमना विद्यमानपणामां मुद्रित थया पठी तेओ काळनी गतिने आधीन थया; जेथी त्यारपती आग्रंथ तेमना अवसान पठी लगभग एक वर्षे उपरांत आश्विन शुक्ल दशमीए पूणे थवा पाम्यो बे; अने त्यारपली जनसमूह समक्ष सादर करवामां आव्यो . _ ग्रंथना संबंधमां प्रस्तावना के उपोद्घातरुपे ग्रंथकार अथवा तेना अनुवादक जे दृष्टिबिंदु वडे लखी शके छ तेवू अन्य लखी शकता नथी ए निःसंदेह वात जे. अमारा मर्हम पिताश्रीना हाथथी आ ग्रंथमाटे तेवू नखायुं होत तो तेश्रो धार्मिकझानना एक सारा अन्यासी होवाथी खरेखर तेने माटे योग्य न्याय आपी शकत; परंतु ग्रंथ प्रसिफ थया पहला तेआनो देहोत्सर्ग थवाथी तेम बनवू अशक्य थइ पमयुं : जेथी उक्त भाषांतरकार जेवू नहि परंतु तेमना ऋणी पुत्र तरीके तेमनी सेवारुपे आ ग्रंथपरत्वे तेमनावतीनी यत्किंचित् फरज बजाववा तरीके आ उपोद्घात लखी जनसमाजनी सेवामां मूकवामां आवे . आ ग्रंथना कर्ता श्रीयुत जिननाभसूरि खरतरगच्छीय ने अने व्याख्याकार श्रीयुत क्षमाकल्याणकजी ने. खरतरगच्छमां पण अनेक धुरंधर पंमितो नयचक्रसारादिना कर्ता श्रीमद् देवचंद्रजी विगेरे थइ गया . तपगच्छ अने खरतरगच्छनी मान्यतामां अमुक फेरफार पोषधादि क्रियाकांडमां क्वचित् क्वचित् के जेथी आ ग्रंथने अंगे थयेला पोषधव्रतना विवेचनमा जेटना पुरतो तफावत ने ते बने गच्छोने माटे आग्रंथना पा.२४ मे दर्शाववामां आवेलो जनमंझळ सन्मुख पुरोहित थयलो.श्रीयुत जिनसानसूरिनी वित्तानी तुलना तेमना ग्रंथना अवलोकन पठी जाणी शकाय तेम ले. तेोश्रीए अन्यग्रंथोनी रचना करी डे के नहि ते जाणवामां आवी शकयुं नथा; उतां एटटुं तो कहे, अस्थाने नथीज के 'सामान्य अने विशिष्ट सर्वे जनोने एकांत हितकारी आ अमूल्य ग्रंथ डे' ते साथे आ अग्रबोलना प्रांते 'आ उत्तम ग्रंथ यावचं दिवाकर यशस्वी अने अविचल रहो' एवा मांगलिक आशीर्वचन पुरःसर विरमवामां आवे . तथाऽस्तु आश्विन शुक्ल दशमी शा. फतेचंद झवेरना भावनगर. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक विषयानुक्रमणिका. प्रथम प्रकाश ( सम्यक्त्व निर्णय. ) विषय १ मंगलाचरण ५ ३ आत्म शब्दनो अर्थ ४ आत्माना त्रण प्रकार २ बहिरात्मानुं स्वरूप ६ अंतरात्मानुं स्वरुप ग्रंथना अधिकारीयो कोण छे ? **** ७ परमात्मानुं स्वरूप आत्मबोध शब्दनो अर्थ .... 0000 ९ आत्मबोधनुं महात्म्य ... १० आत्मबोध वगरनो प्राणी केवो होय छे ? ११ आत्मबोध थवानुं कारण शुं बे ? १२ सम्यक्त्वने प्रतिपादन करवानी उत्पत्तिनी रीति १३ सम्यक्त्वमां प्रवेश करवानो विधि १४ सम्यक्त्वना भेद १५ देवगुरुनुं संक्षिप्त स्वरुप १६ सम्यक्त्वना बीजा बे प्रकार १७ सम्यक्त्वना बीजी रीते बे नेदो १८ सम्यक्त्व विषे मार्ग तथा ज्वरनुं दृष्टांत **** ... १० सम्यक्त्वना ऋण प्रकार २० सम्यत्क्वना बीजी रीते त्रण द २१ सम्यक्त्वना चार नेद ⠀⠀ : ... .... C २२ सम्यक्त्वना पांच प्रकार २३ सम्यक्त्वना पांचे प्रकारना काळनो नियम ... २४ सम्यक्त्व कटेलीवार पमाय छे ? : .... : : .... :: .... ... .... .... .... ... ... पृष्ट. १ ६ G U १२ १२ १७ ?0 १८ १८ १ ए ?吧 १ २१ श्‍ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) अंक विषय २५ क्ये गुणस्थानके क्युं सम्यक्त्व होय ? २६ सम्यक्त्व केलीवार मूकाय अने केटलीवार ग्रहण थाय ? २७ सम्यक्क्त्वना दश प्रकार २८ उपरना प्रकारोनुं विवेचन ७ आशारुची सम्यक्त्व उपर माष्तुषं दृष्टांत ३० सुत्ररुची सम्यक्त्व उपर गोविंद वाचकनी कथा ३१ सर्व धर्म कृत्यामां सम्यक्त्वनी प्रधानता ३२ आत्मशुद्धि उपर प्रभास चित्रकारनं दृष्टांत ३३ सम्यक्त्वना बीजा नेदो ३४ सम्यक्त्वना ६७ जेदोनुं सविस्तर विवेचन ३५ त्रण जिंगनी व्याख्या ३६ छ प्रकारना विनयनी व्याख्या ३७ विनयना पांच प्रकारनी व्याख्या ३८ त्रीने चैत्य विषे विवेचन ३० बीजी रीते चैत्यना पांच प्रकार ४० साधार्मिक चैत्य विषे वार्तक मुनिनी कथा ४१ गृहस्थी पोताना घरने विषे केवी प्रतिमा पूजवी जाइए ? ४२ चैत्य विनयनुं स्वरुप ४३ पुष्पपूजा विषे धनसारनी कथा ४४ आचरण पूजा ४५ बीजी अग्रपूजा .... ४६ दिपक उपर देवसेननी मातानुं दृष्टांत ४७ त्रीजी भावपूजा ४० पांच प्रकारनी पूजा .... .... gru देव द्रव्य उपर सागरशेठनुं दृष्टांत ५० चोथी नक्ति ५१ पांचमी नक्ति ५२ तीर्थयात्रा विषे धनशेवनी कथा .... **** : .... *201 .... *** **** .... 3000 .... .... .... .... .440 .... .... .... .... .... .... **** .... .... .... www. .... .... .... **** पृष्ठ. १२ २३ २३ २३ २४ २५ २७ २७ श्ए ३२ ३३ ३४ ३४ ३५ ३६ ३७ ४६ ४७ ४ ५१ ५१ ५२ ५३ ५४ ५७ ६१ ६२ ६५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) अंक विषय ५३ आठ प्रकारनी पूजा२४ सम्यक्त्वनी त्रिविध शुद्धि ५५ पांच दूषण ५६ शंका दूषण पर वे वेपारी मोनुं द्रष्टांत .... ५७ कांदा दूषण पर दृष्टांत ५८ श्रीजुं विचिकित्सा दूषण ५ चायुं दूषण कुदृष्टि प्रसंशा ६० पांचमुं दूषण मिध्यात्वीनो परिचय ६१ पांचमा दूषण उपर नंदम शिकार शेनुं दृष्टांत ६२ सम्यक्त्वना आठ प्रजावक १ प्रवचनी प्रभावक .... .... 2004 0000 0000 .... .... ***G .... .... .... ७५ सम्यक्त्वना पांच भूषण. ७६ पहेल | गुणकर सूरिनो वृत्तांत, 99 सम्यक्त्वनुं बीजं भूषण. जिनशासन प्रजावना. ७८ सम्यक्त्वनुं त्रजुं भूषण. तीर्थसेवा. ६३ प्रवचन प्रजावक उपर देवकि गणीनी कथा ६४ बीजा धर्मकथ प्रजावक ने चार प्रकारनी कथाओ ना लक्षण ६५ धर्मीकथी प्रावक श्री नंदीषेणनुं दृष्टांत ६६ त्रीजा वादी नामना प्रभावक कोने कहेवा ? ६७ चोथा नैमीतिक प्रजावक कोने कहेवा ? ६० पांचमा तपस्वि प्रजावक कोने कहेवा ? ६० बा विद्यावान प्रजावक कोने कहेवा ? ७० सातमा सिद्ध प्रजावक कोने कहेवा ? ७१ सिद्ध प्रजावक उपर आर्यसमीतसूरीनी कथा ७२ आठमा शासनप्रजावक कोने कहेवा ? ७३ शासन प्रजावक उपर सिद्धसेन दिवाकरनुं दृष्टांत ७४ बीजे प्रकारे आठ प्रजावक. .... .... .... **** **** .... .... .... .... .... .... .... ७ सम्यक्त्वनुं चोयुं भूषण स्थिरता ... ० सम्यक्त्वनुं चोयुं भूषण स्थिरता विषे सुनसानुं वृतांत...... 1000 .... **** ... .... .... .... .... .... ... 02.0 **** .... .... ... 92.0 **** **** .... पृष्ठ. ६ ७२ ७४ ७४ પ્ ૩૫ ७६ .... ७६ のの Go ८० Մա ८६ Y Խա १०२ ...१०३ .....१०३ ....१०७ .....१०८ ....१०ए १ ए१ U? एश् ... १० Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....१२५ .....१२५ ....१२६ (२०) अंक विषय ७१ सम्यक्त्व, पांचमुं नूषण जक्ति. .... २ सम्यक्त्वना पांच लक्षणो. ७३ सम्यक्त्वना पहेला लक्षण उपशम उपर राजर्षिनी कथा. ४ सम्यत्क्वनुं संवेग नामर्नु बीजु लक्षण. .... ५ सम्यक्त्वनुं त्रीजुं लक्षण निर्वेद .... .... ७६ जीजा लक्षणउपर दृढपहारीनुं दृष्टांत. ७ सम्यक्त्वनुं चोथु लक्षण अनुकंपा. .... चोथा लक्षण उपर सुधर्मराजानी कथा. .... नए सम्यक्त्वनुं पांच लक्षण आस्तिकता .... ए० सम्यक्त्वना पांचमा लक्षण उपर पद्मशेखरनी कथा. ए१ छ प्रकारनी यतना. ए२ उ यतना जपर धनपाळ पूरोहितनी कथा..... ए३ सम्यक्त्वना आगार. एच पहेला आगार राजाभियोग उपर कोषावेश्या दृष्टांत. एए बीजो आगार गणानियोग. ए६ त्रीजो आगार बनानियोग ए७ चोथो आगार देवानियोग ए पांचमो आगार कांतारवृत्ति. .... एए बहो आगार गुरुनिगृह १०० सम्यक्त्वनी नावना. १०१ सम्यक्त्वना ब स्थानक. ....१७ ....१२८ ....१३३ .....१३४ ....१३७ ...१३५ .... १४० ....१४ए ....१५१ ....१५१ ....१५१ ....१५१ ....१५५ ....१५३ ....१५५ द्वितिय प्रकाश (देश विरति.) १०५ देश विरति १०३ श्रावकना १ गुणो..... १०४ श्रावकना बार व्रत. .... .... १०५ प्रथम व्रतनुं स्वरुप. .... १०६ अन्वय अने व्यतिरेकथी दयानुं फळ. ... ....१६५ : ....१६७ Jain Education Intemational Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) अंक विषय १०७ प्रथम व्रत पर सुलशानुं वृत्तांत. १०० बीजं स्युल मृषावाद विरमण व्रत. १०९ श्रावकना बीजा व्रतउपर वसुराजानी कथा.... ११० त्रीजुं स्युल प्रदत्तादान विरमण व्रत. १११ चोरीना फळ विषे विवेचन. .... ११२ अदत्तादानना त्याग विषे नागदत्तनी कथा. ११३ चोयुं स्थुल मैथुन विरमण व्रत. ११४ वेश्याना अनासेवन उपर वे राजपुत्रोना दृष्टांत. ११ सुशिल पने शिलनुं अंतर. ११६ चोथाव्रत पर सुनप्रासतिनुं चरित्र ११७ पांच स्थल परिगृह विरमणव्रत ११७ पांचमात उपर धनशेठनी कथा ११७ त्रण गुणव्रतो - प्रथम दिशी परिमाण गुणवत १२० पहेला गुणव्रतउपर राजा अशोकचंडनी कथा १२१ जोगोपभोग नामे बीजं गुणवत १२२ बावीश अभक्षोना नाम १२३ बीजा गुणव्रतउपर बँकचूलनी कथा १२४ पंदर कर्मादान १२५ अनर्थदं विरमण नामे त्रीजुं गुणवत १२६ गृहस्थे चंदरवा क्ये क्ये स्थळे बांधवा जोइए ? १२७ त्रीजा गुणव्रत उपर मृगसुंदरीनी कथा १२० चार शिक्षाव्रत - प्रथम सामायक शिक्षावृत १२० सामायक नारायनुं कृत्य १३० मन, वचन अने कायाना दोषोनुं वर्णन १३१ प्रथम सामायिकत्रतउपर दमदंत महर्षिनुं वृत्तांत १३२ देशावकाशिक नामे बीजुं शिक्षाव्रत .... १३३ बीजा शिक्षाव्रत उपर चंककोशिकनी कथा १३४ श्रीजुं शिक्षाव्रत पोषधव्रत १३५ बोयुं प्रतिथिसंविभाग नामे शिक्षाव्रत .... .... 0000 .... **** .... 1000 ... : पृष्ठ. .१७१ ....१७१ ....१७७ १८३ ....१८५ ... १८७ ...१८७ .. १० . १२ . १८६ .... .. २०१ .... ...२०५ ....२०० ...२१० ....२१२ ...२१३ ..२१६ ...२२५ .२२८ ....१३१ ..२३१ .... .. २३५ .. १३७ ..२३७ ...२३ए ..२४१ .... .... .... २४३ . २४३ .... २४७ .... Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) अंक विषय १३६ सुपात्र दानना पांच दूषणो १३७ सुपात्र दानना पांच भूषणो १३८ सुपात्र दान विषे पंचकशेठनी कथा .... १३० सुपात्र दान उपर जीरण शेठ तथा पुरण शेठनुं वृतांत १४० तीर्थकरोनो दान विधि .... .... १४१ ते दान समये उप्तन्न यता व अतिशयो १४२ वि जीवो केटला जावने पामता नथी १४३ बारव्रतन । षमभंगी एकवीश जांगायुक्तनुं वर्णन १४४ यावतकथित अने इत्वरकथितनुं स्वरूप १४५ दश श्रावकोना दृष्टांतानंद श्रावकनुं वृतांत १४६ बीजा कामदेव श्रावकनुं वृतांत १४७ श्रीजा श्रावक चुलनी पितानुं वृतांत १४८ चोथा श्रावक सुरादेवनुं वृतांत १४० पांचमा श्रावक चुनशतकनुं वृतांत १५० छठा कुंमकोलिक श्रावकनुं वृतांत .... १५१ सातमां सदालपुत्र श्रावकनुं वृतांत १५२ आठमा महाशतक श्रावकनुं वृतांत १५३ नवमा नंदनी पिता श्रावकनुं वृतांत... १५४ दशमा तेतली पिता श्रावकनुं वृतांत १५५ श्रावकनी ग्यार प्रतीमानुं स्वरुप १५६ क्त विषय माटे केशवनुं ष्टांत १५७ तिथि, वार, नक्षेत्र, आदि आश्रीने साध्य साध्यनो विचार १५८ श्रावकने निवास करवा योग स्थाननुं स्वरुप ..... १५ नगर दिकमां वसनारा श्रावकोए केवा पमोसमां न रहे. ? १६० केवो श्रावक उत्तम गणाय ? १६१ चार प्रकारना श्रावकोनुं वर्णन. १६२ श्रावकनुं संक्षिप्त आन्हिक. १६३ त्रीकाल जिन पूजानो विधि. .... .... .... ÷ .... .... 3399 .... .... .... .... .... .... .... 49.0 पृष्ठ. ......२५१ .... २५१ ....१५२ ... २५३ . २५५ ... १५५ .. २५७ .... ... २५८ . १५० ...२६० .... २६३ .. १६६ ....३६७ .. १६७ .... .....१६० ....१६ए ... २७२ .... २७५ . २७५ ... २७६ .... .... २७८ १८६ ..200 .... २८ए . २०० ....२०१ . श्एश् ... २ए६ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय अंक १६४ श्रावक रात्रि कृत्य. १६५ श्रावकना सद्भुत गुणोनुं वर्णन ..... १६६ मंडुक श्रावकनो वृत्तांत. १६७ दरि ब्राह्मणनो उपनय - दृष्टांत. .... १६८ श्रावकपणुं प्राप्त करवानी इच्छावाळा जव्य पुरुषोए निन्हवा दिक कुदृष्टिना वचनमां विश्वासी न थवं जोइए. १६ उक्त विषय उपर सुवर्णना कंकण घमावनार पुरुषनुं दृष्टांत. तृतीय प्रकाश (सर्व विरति.) .... ( ३३ ) ... *** १७० सर्व विरति ...३०५ ...३० १७१ दिक्षा अंगिकार करनार पुरुष, स्त्री ने नपुंसकनुं योग्यायोग्यपणं. ३०८ १७२ बाळ वयनी दिक्षा उपर अतिमुक्त कुमारनुवृत्तांत. १७३ दिक्षा आपवाने अयोग्य पुरुषनुं वर्णन. १७४ स्त्री जातीने विषे वीश दिक्षा आपवाने योग्य बे. १७५ नपुंसकना सोळ जेद....... १७६ दश प्रकारना यतिधर्म १७७ मायाकषाय विषे दृष्टांत १७८ तपस्यानुं स्वरुप. १७९ उणोदरी प्रमुखनुं स्वरुप. १८० आज्यंतर तपना प्रकार. १८१ प्रायश्चित तपना प्रकार. १८२ व्यावच्च. ... ... 6.06 .... १८३ स्वाध्याय...... १८४ स्वाध्याय ध्यान उपर विद्याधरनुं दृष्टांत. १८५ चार प्रकारना ध्यान. : १८६ संयमनुं स्वरुप. १८७ पांच इंद्रियांना निग्रहनुं स्वरुप. १८८ इंद्रिय निग्रह उपर वे काचबाना दृष्टांत. .... .... ... .... .qug ...200 .... श्एए .३०१ .... .... ...३०३ ..३०४ ..३१ए ....३१८ ...३१८. ..३११ . ३२३ . ३२५ ..३२५ ..३२६ .३२६ ....३२७ .... ...३१८ . ३३ए ..३३१ . ३३५ ....३३७ ...३३८ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) अंक विषय १८९ कषाय जयतुं स्वरुप. .... .... .... १८० कषाय शब्दनो अर्थ. ... .... १९१ दंग वीरति स्वरुप. ... १९५ सत्य उपर दत्त अने कानकाचार्यनी कथा. १९३ कायगुप्ति. १एच प्रमादउपर सुमंगळ मुनिनो वृत्तांत. .... १७५ बार नावनानुं स्वरुप. .... १९६ संसारजावनाउपर कुबेरदत्तनुं वृत्तांत. .... १५७ धर्मकथकनावना उपर रौहिणय चौरनी कथा. १९७ बार प्रतीमार्नु संक्षिप्त स्वरुप. १७ए अहोरात्रिनु संक्षिप्त कृत्य. .... ५०० कृत्यनो क्रम. २०१ सिकांतोक्त साधु गुण वर्णन. .... २०३ धर्मनी उर्लनता उपर पशुपाळ अने जयदेव- दृष्टांत. .... ...३४० ...३४५ ....३४६ ...३४७ ....३५४ ....३७६ .....३९७ ...२० ...३८१ चतुर्थ प्रकाश परमात्म स्वरुप. २०३ परमात्म स्वरुप. .... ३५ २०४ परमात्मतानी प्राप्ति २०५ नवस्थ केवळीतुं स्वरुप. ....३६ २०६ जिन निक्षेपार्नु स्वरुप ( नाम अने स्थापना) २०७ जिन प्रतीमानी पूजा- स्वरुप. ....३७ २०० अव्य जिन- स्वरुप. ....४०३ २०ए जाव जिन- स्वरुप, ....४०३ ११० सिफ स्वरुप. ....४४ १११ मध्यम अवगाहनानुं स्वरुप. ....४०० १२ जघन्य अवगाहनानुं स्वरुप. ...नए २१३ सिझना जीवोनुं बक्षण. ....४१० १४ केवळझान अने केवळ दर्शन समस्त वस्तुनुं विषयपणुं छेतेनी समज.४१० Jain Education Intemational Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५.) २१४ सिकना जीवो निरुपम सुखना जजनारा बे. २१५ सिना सुखनी समान बीजं सुख नथी। तेनुं वर्णन. २१६ सिवना निरुपम सुखनुं वर्णन. २१७ निरुपम सुख विषे कथा. २१० सिद्ध भगवानना ३१ गुणेोनुं वर्णन. २१ सिद्धना आठ गुणोनुं वर्णन. १२० आत्म बोधनी दुर्लनता. २२१ मिथ्या दुष्कृत प्रार्थना. २२२ ग्रंथकारन | प्रशस्ति.. पत्र. G 19 " १० २० २५ १६ १६ १० २० २५ ३५ ४३ " ४५ पंक्ति. १२ १३ १५ २४ 2 20 ܘ ܘ es ܩ ܗ 6 १७ १ ए 29 ४८ ५० २७ ५३ २ ૫૪ ५४ १२ .... अशुद्ध. पल्पोपमना कोटीनी दुर्जेयाने कांन .... शुद्धिपत्रक. कुमदहन‍ वियढेसु पूइजाइ निकलन .... स्पष्टं गयो प्रेमरागा प्रसादनी अगपू ····), Overee अविरुद्ध र्निमळ पुरुषअविरति करवाने के उच्चार करवाने शक्तिमान् नावनाओ वीजा .... विरुद्ध निर्मळ शुरू. पस्योपमना कोटा कोटी नी फुटले कांइसास्वादन गुणस्थान वतीं न भावनाए તીનૅ पुरुष सम्यगृष्टिविरति करवाने शक्तिमान कुडकुंड दहन‍ वियढेसु पूइज्जइ निष्फलंन स्पृष्टं गया ...४११ ..४११ ...४११ प्पेमरागा प्रासादनी अग्गपूत्र्याए ..४१२ ...४१४ ...४१५ ....४१७ ....४१८ ....४१U Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र. पंक्ति. ( २६) अशुफ. यदाणा शुक. य दाण ५५ १ए ६४ १ 2 * * * पुणफलं पूयाएह संघ जच्चन अरकप्रयो स्थिरता पुण्णफलं पूयाण्ड संघ उच्छेय अरकओ स्थित. ७५ १ ७१ १० एस १८ १०० १०७ १७ वय वाया घर्मो धों प्रवचननी प्रवचनी थता तथा चेतननो अने झानरुप देवार्फि देवाई घमेकथी धर्मकथी सूरिए कोलाहाल कोलाहल प्रसाद प्रासाद प्रत्याख्याननु फल विशेषज्ञान विशेषज्ञान-फलपत्याख्यान उदयना हृदयना सुघमो अभिलाष राखवो अजिलाप न राखवो शोजतेनापि शोजनेनापि इदममा हृदयमां पठी ग्रकारनुं प्रकारर्नु युक्त शरीरवडे युक्त यज्ञ बुढाणगो बुढाणुगो मज्जा मज्ज बारसचओ बारसव्वों तेमनो सूक्ष्मएकेंघियनो सुधर्मो १२५ १० १४ १५ १३४ पनी १४१ ५ १४७ फुटनोट १६१ १६७ २ ___" १६७ २३ Jain Education Intemational Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र. १७ पंक्ति. १५ ( ७) अशुफ. दयालुपणाथी स्थूल परजू उरहिणिवेसान पस पंमुत्तं दीपथी तेनाथी वस्तु दयानुपणानी कसोटीथी पराई पुरहिणिवेसा पप्भ पांमुत्तं १० १३ २०१७ 22ntence १०४ विविरं एटले प्रमाणनुं स्वरूप अने दीपथी बाकीनाथी वास्तु विवरं एटने तेना प्रमाणमां अने जेवा गृहस्थे श्रा अनेषणीय ___, अमे २०० २५ २१० १२ जेवा आ अनेएषणीय नद दल दुध्यान अनर्थदंग वर्जेकोले अने अंगकारी मांस दाल, २२८ १६ दुध्यान अर्थदंड वर्जेलो ने तेथी अंगीकारी तेणे तेने २३७ २ " श्व४ ३ राजादिकश्रावकनीपारळचालतांतेने राजादिकने एवो श्रावक एवा सज्जन अने परिजन स्वजन अने परजन दिग्व्रतने दिगव्रतनो देह अने सत्कार देहसत्कार चनुर्विध चतुर्विध पुच्छग पोषध अतिथि पोषध अने अतिथि करावाने करवाने षड्नंगीनो षड्नंगी छे अनुमति अने अनुमतिनो तेनानामनुं तेनुं पुबगं ३४ए ए २५४ ११ २५५ १० Jain Education Intemational Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र. पंक्ति. (१७) अशुध. बन्या पाळवाप' करीतेमांसर्व जणस्स २६७ १७ १ १७ २५ १६ ज्दजद् शुफ. धन्या पामवाप करीसर्व जणय जजेद धर्मवालू ने ते पात्र कराववा करवो प्रवृत्तिवाळा ३१० २४ WWWWW धर्मवाळु अने पत्र करवा करतो प्रवृत्तिवाळाने पर्यापवासाने ३२॥ ॥ पर्यायवालाने घणी धणी करें ३४२ १५ ३४४ ७ ३२३ ए, एवमेयं नावेयव्वा पदार्थो--पेठे, अस्थिमज्जा अवाङ्मुख अव्यवछिन्न ३६५ ५ बटम ३७६ २२ ३७८ १५ ३७७ ३७ए ८ करे नहीं, एवमएं नावेयवा पदार्थोन-पेठे अस्थिमज्जा अवाङ्गुख अव्यवबन्न बट्टम तेने विषे सुरासुरादि कायंगुत्तो परिद्ध देवताठित जैनानासोए जव्वाइ चेहयाणि प्रमाणे झाननना सामान्य सिमोनुं ब्राह्म ..www. ३०१ फुटनोट ३६ २१ ३एन् १७ करतां उतां सुरसुरादि कायगुत्तो पसिघ देवताधिष्ठित जैनाभासो जववाद चेश्याणि झाने झानना सिघोर्नु सामान्य ins ४०० ३ ४०४ १३ ४१० ४१४ १५ Jain Education Intemational Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TART કર રરરરર રરર૭ SE BuuuuuuueesusereservUue ereetseses serverešo શ્રી આમ પ્રબોધ. (ભાષાંતર) SortezzetreueuruesverusuvuorueUuuupe અરજી ફરજ Jain Education Interational Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IWA । नमः श्री पार्श्वनाथाय । मन श्री आत्मप्रबोध. V A प्रथम प्रकाश. (सम्यक्त्व निर्णय.) अनंतविज्ञान विशुधरूपं निरस्तमोहादिपरस्वरूपम् । नरामरेंः कृतचारुनक्तिं नमामि तीर्थेशमनंतशक्तिम् ॥ १॥ नुं विज्ञान अनंत डे, जनुं स्वरूप निर्मळ , जेणे मोह अज्ञानआदि पर स्वरूपने टाळेवं छे अने मनुष्योना इंध-चक्रवत्तीओए तथा देवताओना इंजोए जेनी मनोहर नक्ति करेली , एवा अनंतशक्तिवाळा श्री तीर्थकर प्रजुने हुं नमस्कार करुं बुं. १ अनादिसंबधसमस्तकर्म-मलीमसत्वं निजकं निरस्य । नपात्तशुधात्मगुणाय सद्यो नमोऽस्तु देवार्यमहेश्वराय ॥२॥ ___ पोतानी अनादिकाळयी बंधाएता समस्तकर्मनी मलिनताने दूर करी जेमणे शुफ आत्मगुण ग्रहण करेसो उ, एवा देवताओने पूजवा योग्य महेश्वर श्री वीर जगवानने नमस्कार हो. २ Jain Education Interational Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. जगत्त्रयाधीशमुखोजवाया वाग्देवतायाः स्मरणं विधाय । विनाव्यतेऽसौ स्वपरोपकृत्यै विशुधिहेतुःशुचिरात्मबोधः ॥३॥ त्रए जगत्ना स्वामीना मुखथी उत्पन्न थयेन वाग्देवता-सरस्वती स्मरण करी पोताना अने परना नपकारने माटे विशुचिनो हेतुरुप एवो आ पवित्र-शुफ आत्मबोध ग्रंथ रचवामां आवे छे. ३ ग्रंथना आरंजमां संदेप करवानी इच्छावाला पुरुष शिष्टपुरुषोना प्राचारने आचरवाने अने ग्रंथनी समाप्ति थवामां अंतराय करनारा घणां विघ्नाना समूहने दूर करवाने अत्यंत अव्यभिचारी अने योग्य इष्टदेवताना स्तवन वगेरे करवा रूप जेनुं स्वरुप डे एवं नाव मंगळ प्राये करीने कर जोइए, एवं विचारी अहिं पण ग्रंयनी आदिमां सर्व तीर्थकरोने प्रणाम करवा पूर्वक नजीकना उपकारी श्रीवीर परमेश्वरने नमस्कार करवा रुप अने वाग्देवताना स्मरण करवा रुप नावमंगळनो आश्रय करवामां आव्यो जे. तेमज वळी श्रोताओनी प्रवृत्ति माटे या ग्रंथतुं प्रयोजन, अभिधेय अने संबंध ए त्राण पण नियमथी कहेवा जोइए. प्रात्मझान मोक्षने प्राप्त करावनार होवाथी सर्वनु उपकारक डे, तेथी अहिं पोताना अने परना उपकारने अर्थे ए पद कही स्वोपकार अने परोपकार रुप प्रयोजन दर्शाववामां आव्युं डे, अने 'आत्मबोध ' ए नाम आपी अतिशुष्प प्रात्मझाननो मार्ग अनिधेय रुपे निरुपण करवामां आवेल . अने ' ते प्रात्मबोध ' कहेवामां आवे डे' एम कही वाच्य वाचक नाव वगेरे संबंध सूचव्यो जे. तेमां आत्मबोधनुं स्वरूप ते वाच्य में अने 'आ ग्रंथ ' वाचक . इत्यादि अहीं घj कहेवार्नु , पण ते सद्बुमिवाना पुरुषोए पोतानी मेले बीजा अंथोथी जाणी बेवं. ग्रंथनो विस्तार थवाना जयथी अहीं कहेवामां आव्युं नथी. हवे प्रथम जे सामान्यथी अभिप्राय दीवेल डे, तेने विवेचन करी बतावे . Jain Education Intemational Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. प्रकाश माद्यं वर दर्शनस्य ततश्च देशाद्विरतेर्द्वितीयं । तृतीय मस्मिन् सुमुनि व्रतानां वदये चतुर्थं परमात्मतायाः॥४॥ आ ग्रंथमां प्रथम प्रकाशमां सम्यग् दर्शननुं स्वरुप बतावेल बे, बीजा प्रकाशमां देश विरतिनुं स्वरुप, त्रीजा प्रकाशमां उत्तम मुनित्रतनुं स्वरुप ने चोथा प्रकाशमां परमात्म भावनुं स्वरूप दर्शावेल बे. या उपरथी परस्पर संबंधवाला सम्यक्त्वादि स्वरूपने प्रतिपादन करनारा एवा चार प्रकाशथी प्रतिष एवो आत्मबोध ग्रंथ बे, एम सूचवेलुं बे. ग्रंथना अधिकारीयो, कोण बे ? नव्या नहि जातिजव्या न दूरजव्या बहु संसृतित्वात् । मुमुक्षवोऽनूरिनवज्रमा हि आसन्न नव्यास्त्वधिकारिणोऽत्र || || व्य, जातिय ने दूरजव्य ए बहु संसारी होवाथी या ग्रंथना अधिकारी नथी. जेमने बहु जवमां जमा करवानुं नये । एवा मुमुक्त पुरुषो ने प्रसन्न जन्य ए आ ग्रंथना अधिकारी. २ कवानुं तात्पर्य एबे के, दुष्ट अंतवाला ने अनंत चार प्रका रनी गतिना स्वरुपने प्रसार करनारा या संसारने विषय जगतना सर्व जंतुना चित्तने चमत्कार करनारा एवा इंद्रादिक सुर असुरोए रचेला उत्कृष्ट आठ महाप्रातिहार्य वगेरे सर्व अतिशयोथी युक्त एवा जगद्गुरु श्री वीरमनुए सर्व घनघति कर्मना दीयाना समूहना नाशथी उत्पन्न थयेल सर्व लोकालोक लक्षणवाला लक्ष्यने अवलोकन करवामां कुशल एवा निर्मल केवलज्ञानना बसथी ऋण प्रकारना जीवो कहेला बे. १ जव्य, २ अव्य, अने ३ जातिजव्य. जे जीवो कालादिकना योगनी सामग्री प्राप्त करी पोतानी शक्तिथी सर्व कर्मोंने पाव मुक्तिए गया डे, जाय बे अने जवाना बे, ते सर्व जीवो त्रिकालनी - पेare aव्य कदेवाय के. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. आत्मवाध. जे जीवो आर्य क्षेत्र विगेरेनी सामग्री उतां पण तेवी जातना कोई जाति स्वनावने बस्ने सर्वदा तत्त्वश्रद्धाना अनावी क्यारे पण मुक्तिने पाम्या नथी, पामता नथी अने पामवाना नथी, ते अजव्य कहेवाय डे. मुक्तिनी प्राप्तिनुं गन्न कारण सम्यक्त्वज जे. तेने माटे शास्त्रमा कह्यं जे दसणनहो जहो सण नहस्स नस्थि निव्वाणं । सिकंति चरणरहिया दंसणरहिया न सिकंति॥ १॥ जे सम्यक्त्वथी नष्ट थयेस्रो , ते सर्वथी ज्रष्ट समजवो. सम्यकत्वथी ज्रष्ट थयेना प्राणीने मोक्ष प्राप्त थतो नथी; पाणीओ चारित्ररहित मुक्ति पामे डे परंतु सम्यक्त्वरहित कदापि मुक्तिमार्ग प्रति प्रयाण करी शकता नथी. अहिं जे ' चारित्र रहित' एम का, ते अव्य चारित्रथी रहित एम समजवू. वर्सी जे जीव अनादिकालथी आश्रित एवा सूक्ष्म नावनो त्याग करी जो बादर नावने पामे तो ते अवश्य सिद्ध थाय डे, परंतु सर्व संस्कारने करनाराना विषयमां नहीं आवेनी ग्वाणनी अंदर रहेन संस्कारने योग्य एवा पापाणनी जेम सूक्ष्म नावनो त्याग करी कदि पण अव्यवहार राशिरुप खाणथी बाहेर आवेना नथी, आवता नथी अने आववाना नथी, ते जातिजव्य कहेवाय जे. आ जीवो मात्र कहेवानाज नव्य , पण सिद्धि साधकपणे नव्य नथी, तेने माटे आगममां कां के के " सामग्गिअन्नावाओ, ववहाररासिअप्पवेसाओ । जव्वा वि ते अनंता, जे सिधिसुहं न पावंतित्ति ॥१॥ सामग्रीनो अनाव होवाथी जेमनो व्यवहार राशिमा प्रवेश नयी एवा जव्य जीवो पण अनंता ने के जेओ माद सुरखने पामता नथी अने पामवाना नथी. १ उपर कहेला विविध जीवामाथी जे अजव्य अने जातिव्य-ए वे Jain Education Interational Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. राशिना जीवो निर्मल श्रद्धाथी रहित होवाथी आ आत्म प्रबोध ग्रंथने विषे अधिकारी नथी, माटे बाकीना जव्य राशिना जीवो रह्या, तेज या ग्रंथना अधिकारी के. ते जव्य जीवो वे प्रकारना बे. एक आसन्ननव्य अने 2 दूरव्य, तेमां दूरव्य कोने कहेवाय ? ते कहे बे. जेने अर्ध पुद्गल परावर्तनी - धिक संसार हजी व बे, ते दूरजन्य कहेबाय बे ने जेने अर्ध पुद्गल परावर्त्तनथी न्यून संसार व बे, ते प्रसन्ननव्य कहेवाय बे, तेोमां जे दूरजव्य जे, तेमने मिथ्यात्वनो उदय प्रवल होवाथी केटलाक काळ पर्यंत सम्यक्दर्शननी प्राप्तिनो अजाव होय वे, तेथी तेमनुं पर्यटन आ संसार मां काल रहे वे, एटले तेसने आत्मबोधनो सधर्म मार्ग उर्लन थाय बे, अजेय आसन्नव्य बे, तेमने कांइक न्यून अर्ध पुदगल परावर्त्तन काल star आत्मबोधन धर्म मार्ग सुल्लन थाय बे. वली तेमने हलका कर्मने अइने तत्त्व श्रद्धा सुमन के, माटे आसन्ननव्य जीवो या ग्रंथना अधिकारी बे, ते प्रसन्नव्य जीवोना उपकारने अर्थे आत्मबोधनुं कां स्वरुप निरुपण करवामां आवे छे. आत्मा शब्दनो अर्थ. ते ते जावने सततपणे प्राप्त थाय ते आत्मा कहेवाय बे. ( अततीति आत्मा पोताना गुणपर्यायाने ग्रहण करवानी जेनामां शक्ति बे, ते आत्मा कढेवाय जे. परमात्मा. आत्म आत्माना त्रण प्रकार. प्रकारना े १ वहिरात्मा, २ अंतरात्मा अने ३ बहिरात्मानुं स्वरूप. मिथ्यात्वना उदयने वश थ‍ शरीर, धन, परिवार, मंदिर, नगर, देश, मित्र अने शत्रु वगेरे इट-अनिष्ट वस्तुओमां राग द्वेपनी बुद्धिने Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मबोध. धारण करे अने सर्व असार वस्तुने सार रूपे जाणे बे. ते पेहेला गुण ठामां वर्त्तनारो जीव बाह्य दृष्टिपणाने लइने वहिरात्मा कहेवाय बे. अंतरात्मानुं स्वरूप. तत् श्रासहित थइ कर्मना बंध वगेरेनुं स्वरूप सारीरीते जाते बे. जेम के "आ जीव आ संसारने विषे कर्म बंधना हेतुरूप एवा मिध्यात्व, अविरत कषाय ने योगव के समय समय प्रत्ये कर्मने बांधे छे, ते कर्म ज्यारे उदय आवे छे, त्यारे ए जीव पोतेज तेने जोगवे बे. तेने कोइ बीजो जीव सहाय पण करतो नथी." या प्रमाणे चितवे बे. अने ज्यारे द्रव्य कोरे कांइक वस्तु जाय बे, त्यारे ते प्रमाणे चितवे छे. मारो य वस्तुनी साथेनो संबंध नष्ट थयो. मारुं खरं अन्यतो ज्ञानादि वे, जे आत्म प्रदेशनी साथ संबंध धरावे बे, ते अन्य कथां पण जवानुं नथी. " ज्यारे कां‍ प्रव्य वगेरेनो लान थाय बे, त्यारे ते या प्रमाणे जाणे बे- पौगलिक वस्तुनो संबंध मारे थयो बे तेमां हर्ष शो धारण करवो ? " ज्यारे वेदनीय कर्मना उदययी कष्ट वगेरेनी प्राप्ति थाय त्यारे ते समजावने धारण करे बे ने आत्माने परनावथी जिन्न मानी तेने त्याग करवानो उपाय करे वे अपने चित्तमां परमात्मानुं ध्यान करे बे, तेमज आवश्यकादि धर्म कृत्यमां विशेष उद्यमवंत थाय बे, ते चोथा गुणarural area गुण गणां सुधी वर्त्तनारो जीव अंतर्दृष्टिथी अंतरात्मा कदेवाय जे. 66 परमात्मानुं स्वरूप. जे जीवशुद्ध आत्मस्वनावने प्रतिबंध करनारा कर्म शत्रुने ह ने निरुपम केवलज्ञानादिकनी उत्तम संपत्तिने प्राप्त कररी सर्व पदार्थोंना समूहने हथेली मां रहेल आमळानी जेम अथवा हथेळीमां रहेल निर्मळ जंबनी जेम जाणे ने जुवे, तेमज परम आनंदना संदोहथी संपन्न थाय ते तेरमा ने चौदमा गुणगणामां रहेल आत्मा तथा सिद्धात्मा (शुद्ध स्वरूपपणे) परमात्मा कहेवाय बे. ܪ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. आत्मबोध शब्दनो अर्थ. बोधन एटले वस्तुना यथार्थ स्वरुपनुं ज्ञान ते बोध. आत्मा के. जेनुं लक्षण आगळ कहेवामां आवशे, एवो चेतन अने तेनाथी अनिन्न सम्यक्त्वादि धर्म तेनो बोध, ते आत्मबोध तेने प्रतिपादन करनारो ग्रंथ ते उपचारथी - त्मबोध कहेवाय जे. एवी रीते आत्मबोध शब्दनो अर्थ कह्यो. ___ आत्मबोधनुं माहात्म्य वर्णवे जे. जे प्राणीने आत्मबोध थयेलो होय जे, ते पाणी परमानंदमां मग्न होवाथी कदि पण संसार सुखनो अनिशाषी थतो नथी. कारण के, ते संसार सुख अप अने अस्थिर होय . जेम कोइ माणस विशिष्ट इच्छित वस्तुने आपनारा कल्पक्षने प्राप्त करी तेनी पासे खुखा जोजननी प्रार्थना करतो नथी, तेम प्राणी परमानंदमां मग्न थइ संसार सुखनो अनिवापी थतो नथी. जेम सारा मार्गे चालनारो देखातो पुरुष कुवामां पमतो नथी, तेम जे प्राणीओ आत्मझानमां तत्पर , तेत्रो कदि पण नरकादि मुःखने पामता नथी. जेणे अमृतनो स्वाद लीधो होय तेवा पुरुषने जेम खारा पाणीने पीवानी रुचि थती नथी, तेम जेणे आत्मबोधने प्राप्त कयों में, तेने बाहेरनी वस्तुना संसर्गनी इच्छा थती नथी. ___ आत्मबोध वगरनो प्राणी केवो होय ? जेने आत्मबोध थयो नथी ते प्राणीने मनुष्य देह होवार्थी शींगमा पुंउमा प्रमुख कां होतुं नथी, तोपण तेने पशुज जाणवो. कारण के, आहार, निजा, नय अने मैथुनवमे युक्त होवाथी तेना ते धर्म पशुना जेवां जे, तेम वली जे पाणीए वस्तुताए आत्माने जाएयो नथी, तेने सिद्धिनी प्राप्ति दूर , अने परमात्मसंपत्तिनो उपलक्षक ते थतो नथी, अने संसारनी धन धान्य विगैरेनी समृद्धि तेना उत्साहनुं कारण रहे तेमज तेनी आशा रुपी नदी सदा पूर्ण रहे डे. तेथी ज्यांसुधी पाणीने आत्मवोध थयो नथी, त्यांसुधी तेने आ संसार समुज सुस्तर जे; त्यांसुधी मोह रुपी महा सुभट तेने उर्जय चे अने त्यांसुधी अति विषम एवा कषायो टके , तेथी आत्मबोध सर्वोत्तम . Jain Education Intemational Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रवाध. आत्मबोध थवानुं कारण सम्यक्त्व . कारण विना कार्यनी उत्पत्ति थती नथी एवो न्याय , तो आत्मबोध प्रगट थवामां का सत् रुप कारण हो जाइए. ते कारण वस्तुताए सम्यक्त्त्व ज . बीजुं कांह नथी. आगममां पण सम्यक्त्व शिवाय आत्मवोधनी उत्पत्ति सांनळवामां नयी, ते उपरथी आत्मबोध सम्यक्त्व मूत्र ने एम सिह थयुं. सम्यक्त्वना स्वरुपने प्रतिपादन करवाने तेनी नत्पत्तिनी रीति कहे . कोइ अनादि कालनो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वने बझ्ने अनंत पुद्गल परावर्त्तन सुधी आ अपार संभार रुपी गहनमां नमी नमी नव्यपणाना परिपाकने पामी तेने बइ पर्वतनी नदीना जलना वेगमां घसमाता पाषाणना घसारानी जेग मांस मांग अनाजोगयी निवृत्त एवा यथा प्रवृत्ति करणरूप परिणाम विशेषथी घणां कर्मनी निर्जरा करतो अने थोमा कर्मने बांधतो संझी जीवपणं प्राप्त करे . पठी पल्पोपमना असंख्येय नागयी न्यून एवा एक सागरोपम कोटीनी स्थितिवाला आयुष्य शिवायना सात कोंने करे जे. जीवने पोताना उप्कमयी उत्पन्न थयेत्र घाटा राग पना परिणाम रुप, कठोर अने घाटा लांबा कालनी लागेल गोपाएन वक्रग्रंथि ( गांउ ) ना जेवो मुनेंद्य अने पूर्व कदि नहीं नेदाएल ग्रंथि डे, ए ग्रंथि सुधी अजव्य जीवो पण यथाप्रवृत्तिकरणवमे कमने खपावी अनंतवार आवे . अने ते ग्रंथिदेशमा रहेन अजव्य जीव अथवा जव्य जीव संख्येय अथवा असंख्येय कान सुधी रहे . तेमा कोइ अजव्य जीव चक्रवर्ती वगेरे अनेक राजाओए जेमने श्रेष्ठ पूजा, सत्कार, अने सन्मान आपेल , एवा उत्तम साधुओने जोवाथी, अथवा जिन समृफिना देखवाथी अथवा स्वर्गना सुख वगेरेना प्रयोजनथी दीक्षा ग्रहण करी प्रव्य साधुपणाने प्राप्त करी पोता. नी महत्ता वगेरेनी अनितापाची जावसाधुनी जेम प्रतिलेखनादि क्रियाोना कनापने आचरे . अने ते क्रियाना बलथी उत्कृष्टा नवमा अवेयक सुधी पण जाय जे. अन कोइ नवमा पूर्व सुधी मात्र सूत्रपात जाणे अर्थ जाणता नथी, Jain Education Intemational Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. कारण के, अनन्य जीवोने पूर्वधर सब्धिनो अनाव , तेथी ते मात्र अव्यश्रुत मेलवे . कोई मिथ्यात्वी नव्य जीव तो ग्रंथिदेशमा रही कांइक ऊणा दश पूर्व मुधी अव्यश्रुत मेलवे जे, एथीज कांक ऊणा दशपूर्व सुधी श्रुत पण मिथ्याश्रुत थइ जाय. कारण के, ते मिथ्यात्वीए ग्रहण करेल , अने जेने पूर्ण दशपूर्व श्रुत थाय तेने निश्चे सम्यक्त्व थाय डे, अने बाकीना कांश जणा दशपूर्वधर वगेरेमां सम्यक्त्त्व थवानी जजना ने एटने सम्यकत्व थाय अथवा न पण थाय. तेने माटे कल्पनाष्यमां नीचे प्रमाणे कडं जे“चन्दस दसय अनिन्ने, नियमा सम्मं तु सेसए नयणा." __ए पी कोइ महात्मा के जेने परम निवृत्ति-मोदनुं सुख नजीक ने अने जेना अनिवार्य वीर्यनो वेग घणीरीते नस्लास पामेलो बे, ते महात्मा तीदण खम्गनी धारानी जेम परम शुछ अध्यवसाय विशेष रुप अपूर्वकरणवडे जेनुं स्वरूप कहेवामां आव्युं डे, एवा ग्रंथिनो नेद करी अनिवृत्तिकरणमां प्रवेश करे बे. त्यां प्रतिसमये शुफ थतो ते तेज कर्मोने निरंतर खपावतो अने उदय आवेता मिथ्यात्वने वेदतो ते जे उदय आवेल नथी तेने उपशम करवारुप अंतर्मुहूर्त कालना प्रमाणवाला अंतरकरणमा प्रवेश करे . ते प्रवेश करवानो विधि आ प्रमाणे जे. अंतरकरणनी स्थितिना मध्यमांथी दलिया लइ ज्यांसुधी अंतरकरणना दलीया सघळा क्षय पामे त्यांसुधी प्रथमनी स्थितिमा नांखे . एवी रीते अंतमुहर्तना काले करी सर्व दलियानो कय था जाय जे. ते पछी ज्यारे ते अनिवृचिकरण समाप्त थाय अने उदीरणा करेल मिथ्यात्वने जोगववाथी दीण थतां, अने नहीं उदीरणा करेल मिथ्यात्वने परिणाम विशेषथी रोकतां खारी जमीननी जेम मिथ्यात्वनो विवर पामीने एटले जेम संग्रामने विषे मोटो सुन्नट वैरीनो जय करीने अत्यंत आव्हादने पामे तेम कर्मे आपेला मार्गने पामीने परम-उत्कृष्ट आनंदमय अने अपौद्गलिक एवा उपशम सम्यक्त्वने पामे . ज्यारे जीव उपशम सम्यक्त्वने पाम्यो ते वखते जेम उन्हाळाना तापमां तपाइ गयेसो कोई जीव बावनाचंदनथी अत्यंत शीतळताने पामे , तेम ते जीवने उपशम Jain Education Intemational Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. सम्यक्त्वना रथी पोताना आत्मानी अंदर अत्यंत शीतळता प्रगट थाय बे. ते पर्छ। उपशम सम्यक्त्वने विषे वर्त्ततो जीव सत्ताने विषे वर्त्तता एवा मिथ्यात्वने शोधी तेनी त्रण पुंज रुपे व्यवस्था करे बे. जेम कोइ मेलाना कोदराने शोधे बे, ते शोधतां केलाएक शुद्ध था जाय डे, केटलाएक अर्धा शुद्ध थाने harएक वाने वाज रहे बे. एम जीव पण अध्यवसाये करीने जिनवचननी रुचिने रोकनारा दुष्टरसनो उच्छेद करी मिथ्यात्वने शोधे बे, ते शोधतां बतां शुद्ध, अर्ध शुद्ध अने अशुद्ध, एम प्रकारे थाय छे. १० पुंजमा जे शुद्ध पुंज बे, ते सर्वज्ञ भगवंतना धर्मने विषे सम्यक्त्वनी प्राप्तिमां रोकवावाळो नथी; तेथी ते सम्यक्त्व पुंज कहेवाय बे ने बीजो अर्ध शुद्ध पुंज बे, ते मिश्रपुंज कहेवाय बे. ते मिश्रपुंजनो उदय थवार्थ | जिन धर्मने विषे उदासीनता होय बे, अने अशुद्ध पुंजना उदयथी - रिहंत - सिद्धादिकने विषे मिथ्यापणानी प्राप्तिनो उदय थाय ब्रे, तेथी ते मिथ्यात्वपुंज कहेवाय बे, एटले शुद्धदेव अरिहंतने कुदेव माने अशुद्ध गुरुने कु गुरु माने ते मिथ्यात्व कहेवाय बे. तेज अंतरकरणे करी अंतर्मुहूर्त्त काल पपशमिक सम्यक्त्व अनुजच्या पत्री तरतज निश्रयथ । शुद्ध पुंजना उदयी क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि थाय के अने अर्ध शुद्ध पुंजना उदयथी मिश्र ने अशुद्ध पुंजना उदयर्थी सास्वादन गुणस्थान फरसवा पूर्वक मिथ्यादृष्टि थाय बे. ते सास्वादन गुणस्थान जघन्यपणे एक समय प्रमाण ने उत्कृष्टथी व आवळी प्रमाण बे. वळी प्रथमनुं उपशम सम्यक्त्व प्राप्त थतां कोइ जीव सम्यक्त्वनी साथेज देश विरतिपणाने पण पामे बे ने कोइ जीव प्रमत्त जावना बठा गुणस्थानने पामे अनेको जीव सास्वादन गुणस्थान पामी मिथ्यादृष्टि पण थाय बे. शतकनी - वृहद चूर्णीमां ते विषे कां बे वसम सम्मदी अंतरकरण पमत्तावपि सासायणो ans को इति ॥ १ ॥ बीजुं कां न पामे एम कर्म ग्रंथनो अभिप्राय कहेलो बे. हवे सिद्धांत कोइ देसविरईपि ॥ पुण न किंपि सहे Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. नो अभिप्राय कहे जे अनादि मिथ्यादृष्टि को ग्रंथिनेद करीने तेवी रीतना तीव्र परिणाम साथे अर्ज करणमां आरूढ थइ मिथ्यात्वना त्रण पुंज करे जे, ते पड़ी अनिवृत्ति करणना सामर्थ्यथी शुन्छ पुंजना पुद्गलोने वेदता उपशम समकित पाम्या वगरज तेने प्रथमथीज श्योपशम सम्यक्त्त्व प्राप्त थाय . अन्य प्राचार्य वळी आ प्रमाणे कहे . “यथाप्रवृत्ति वगेरे त्रण करण करीने अंतर करणने पेहेले समये उपशम सम्यक्त्त्व पामे छे, पण ते त्रण पुंजने करतो नथी अने ते पड़ी उपशम सम्यक्त्त्वथी एमी अवश्य मिथ्यात्वमांज जाय जे." आ विषे तत्व शुंडे ? ते केवती नगवान् जाणे . हवे कटप जाप्यने विषे कहेल त्रण पुंजनो संक्रमण विधि बतावे - मिथ्यात्वना दलिया रूप जे पुद्गलो , तेमने खेंचीने जे सम्यग्दृष्टि ते जेना परिणाम विशेष वधता रे ते सम्यक्त्त्व अने मिश्र ए बनेनी मध्ये संक्रमावे जे, अने सम्यग्दृष्टि मिश्र पुद्गलोने सम्यक्त्वमा संक्रमावे , अने मिथ्यात्वी मिश्र पुद्गलोने मिथ्यात्वमा संक्रमावे डे अने सम्यक्त्वना पुद्गलोने मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्वने विषे संक्रमावे पाण मिश्रयां संक्रमावे नहीं-ए प्रकारे पण मिथ्यात्व हीण न थयुं होय त्यांसुधी सम्यग्दृष्टिओ नियमा ए त्राण पुंजवाला होय . मिथ्यात्वनो कय थतां निचे वे पुंजवाला होय डे, अने मिश्रनो कय थतां एक पुंजवाला होय , अने सम्यक्त्वनो कय थतां दायिक समक्तिी होय . उपर ज्यां ज्यां सम्यक्त्व, मिश्र अने मिथ्यात्व ए त्रण शब्दो योजवामां आव्या जे, त्यां त्यां मोहनीय शब्द साथे जोमवाथी सम्यक्त्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय अने मिथ्यात्व मोहनीय एम जुदा नाम पझे . वत्री कर्मग्रंथना अभिमाये एम जे के, “ पहेलवेलो सम्यक्त्व पामेस्रो जीव सम्यक्त्वमाथी पतित थ६ मिथ्यात्वने पाम्या उतां फरीथी उत्कृष्ट स्थितिवाली कर्म प्रकृतिने बांधे , अने सिद्धांतना अभिप्राय प्रमाणे एम डे के, जेणे ग्रंथिनेद करी सम्यक्त्व प्राप्त करेल डे, एवो जीव सम्यक्त्त्वथी पतित थइ पुनः कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति बांधतो नथी. ा स्थने सम्यक्त्वना विचारने माटे घणी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रवोध. चर्चा , पण ग्रंथगौरवना जयथी ते अहीं करत नथी; ते बीजा ग्रंथोथी जाणी लेवू. सम्यक्त्वना नेद. सम्यक्त्व केटला प्रकारनुं ? तेवी शंका थतां तेने दूर करवाने सम्यक्त्त्वना जेद बताववामां आवे -सम्यक्त्व एक प्रकारे , तेम वे, त्रण, चार, पांच अने दश प्रकारे पण ने, एम अनंतानी श्री तीर्थकर लगवाने कहेलु . ___ सम्यक्त्वनो एक प्रकार शीरीते थाय? ते कहे जे. तत्त्वश्रधान एटले तत्त्वने विषे श्रघा ते सम्यक्त्वनो एक प्रकार . श्रीजिनलगवाने उपदेश करी बतावेवा जीव-अजीव विगेरे पदार्थने विषे सम्यक् प्रकारे जे श्रद्धा एटले धारणानी रुचि ते सम्यक्त्वनो एक प्रकार . सम्यक्त्वना अव्य अने नाव एम वे प्रकार थाय , जे परिणामनी विशुद्धिथी मिथ्यात्वना पुद्गलोने विशुफ करवा ते “व्यसम्यक्त्व" कहेवाय , एटले तेमां पुद्गल ऽव्यने शोधी शुष्ध करवाथी ते अव्य शुफ थयुं, माटे ते अव्य सम्यक्त्व कहेवाय , अने जे तेना आधारचूत थइ जीवने जिनेश्वरे कहेला वचनने विष तत्त्वश्रधा थवी ते वीजुं " नावसम्यक्त्व" कहेवाय जे. वली निश्चय अने व्यवहारना नेदथी सम्यक्त्व वे प्रकारनुं थाय . ज्ञान दर्शन अने चारित्ररुपजे आत्माना शुज परिणाम ते “निश्चयसम्यक्त्व" कहेवाय जे, अथवा "ज्ञानादि परिणामथी आत्मा अभिन्न , एटो जुदो नथी " आईं जे श्रधाथी मानवू, ते “निश्चयसम्यक्त्व" कहेवाय . तेने माटे कयु डे के "आत्मैव दर्शनशानचारित्राण्यथवा यतेः । यत्तदात्मक एवष शरीरमधितिष्ठति" ॥ १॥ यतिने आत्माज दर्शन, ज्ञान अने चारित्र ले. कारणके, ज्ञान, दर्शन चारित्र रूपज आत्मा आ शरीरने विषे रहेलो . कारणके, जोते आत्माथी जिन्न होय तो मुक्तिना हेतु रूप थइ शकता नथी. वळी निश्चयथी पोतानो जीवज देव निष्पन्न स्वरूपवालो ने, तेम पोता Jain Education Intemational Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. नो आत्मा तत्त्व रमणरुप गुरु पण जे अने पोताना जीवनो जे ज्ञानदर्शन स्वनाव तेज धर्म . ते शिवाय को बीजो नथी. आईं जे श्रधान ते निश्चय सम्यक्त्व कहेवाय . आ सम्यक्त्वज मोदनुं कारण ने तेथी जीवने स्वरूपना ज्ञान विना कर्मक्षयरूप मोक्ष थतोज नथी. ___ अरिहंत जगवान् ते देव , सुधर्मनो उपदेश आपी मोक्षमार्गने देखामनार ते गुरु , अने केवनी जगवते कहेलो दयामूल धर्म ते धर्म डे, इत्यादिक पदार्थ तरफ सातनय चार प्रमाण अने चार निदेपवमे जे तत्त्वश्रधान ते निश्चयसम्यक्त्वनुं कारणजूत व्यवहारसम्यक्त्व कहेवाय जे. अहिं कहेवानुं तात्पर्य ए ने के, जेना राग, क्षेष, मोह अने अज्ञान गयेला , तेज देव कहेवाय. तेवा देव तो श्री अरिहंत भगवान् के. वीजा हरि, हर ब्रह्मादिक देव नथी, एटले ते देवोमां देवत्व नथी, कारण के तेओने विषे स्त्री, शस्त्र, जपमाला आदि रागादिकना चिन्हो प्रगटपणे वर्ते . अहिं शिष्य प्रश्न करे ने के, " ते देवाने विषे रागादिक होय तेमां अमारे शी हानि के ?" तेना उत्तरमा गुरु कहे –“ एम कहो नहीं. कारण के, ते देवो रागादिकथी कबुषित बे, तेथी तेमनो हजु मोक्ष थयो नथी, तेथी तेमनामां मोदसुख आपवानी योग्यता नथी, माटे तेमनामां देवपणुं नथी, कारण के, देवनुं सन्मुखपणुं मोक्षसुखने अर्थे रे, एटले जो देव सन्मुख होय तो मोक्षसुख सुखे मेलवी शकाय डे, तेथी एम कहे योग्य नथी. नित्यमुक्त तेजके जे कर्मे करीने सेपाय नहीं, अने रागादि के करीने पण न पाय. जे विष्णु, शंकर अने ब्रह्माने नित्यमुक्त कह्या , ते अयोग्य बे, कारण के, तेमने फरीथी संसारमां जटकवापणुं सांजळवामां आवे जे, अने तेमने असंख्याता जव करवा पुरापोने विषे कहेला ने. अहिं शिष्य प्रश्न करे बे के, नले कदि ते देवने मुक्तिना दातापणुं न होय तो पण तेमनामां राज्य-धन दोलतनुं दातापणुं तेमज रागादिक कष्टर्नु वारवापणुं , तेथी आ जगतमां कहेवाता जे देव-ते नाम देवने विषेसादात् जोवामां आवे . Jain Education Intemational Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्री आत्मप्रबोध. गुरु उत्तर आपे जे; "एम कहे योग्य नथी. कारणके, जो एवा देव कहेवाता होय तो राजा प्रमुख तथा वैद्योमा देवपाणु केम न कहेवाय ? पण राजा प्रमुख अने वैद्यो सागा पुरूपना कर्मने अनुसारेज आपनारा , तेथी अधिक आपनारा नथी, केणके वधारे पानी तेमनी शक्तिज नथी, तेमनी तेटनीज प्रवृत्ति , वत्री ते देवना सर्व नक्त राजाओ नीरोगी होय, ते अनुजवथी पण विरुद्ध जे. कयु के केजे पुरुष (जीव) पोते जेवा कर्म करे अथवा तेणे जेवां करेलां , ते जीव तेवा प्रकारे कर्मनुं शुभाशुज फब लोगवेने एटले तेवा प्रकारना जोगने पामे जे ते विषे हचे विशेष कहेवायी बस थयुं. ___ आ जगत्मा जे देव कहेवाय , ते सर्व देवतत्त्वने लायक नथी. जे अढार दूषणथी रहित तथा रागषयी रहित , ते देव कहेवाय ने अने तेज मारा शुष देव . जे पृथ्वीकाय वगेरे उ कायजीवनी विराधनाथी निवृत्ति पाम्या ने अने उत्तम ज्ञानवान् , तेज मारा शुछ गुरु . परंतु जेमनी सर्व प्रारंजमा प्रवृत्ति के अने जे निरंतर उकाय जीवनी हिंसा करनारा बे, तेवा ब्राह्मण, तापस वगेरे मारा गुरु नथी, एम निश्चय दृष्टिवंत नव्य जीवने सम्यक्त्व होय . अहिं शिष्य प्रश्न करे ने के, "ब्राह्मण वगेरे कुगुरुने विषे छकायनी विराधना जले होय, पण जातिथी तो ते ब्राह्मण जे." ____ गुरुए उत्तर प्राप्यो. “शिष्य, एम कहे नहीं. कारण ब्राह्मण जातिए श्रेष्ठ होय, पण जो तेना आचरण निंदनीय होय तो ते निंदा करवा योग्य . जुवो पाराशर अने विश्वामित्र वगेरे ऋपिओ ब्राह्मण जातिने अनावे पूजनीय कहेवाया . ते विषे पुराणमा बखे डे के, “श्वपाकीगर्भसंनूतः पाराशरमहामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम् " ॥१॥ पाराशरमहामुनि चंमाळणीना गर्नथी उत्पन्न थया हता, पण तपवळे ब्राह्मण थया हता, तेथी ब्राह्मणपणामां जाति कारण नथी. १ Jain Education Intemational Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश ~ . . . . “कैवर्तीगर्भसंनूतो व्यासो नाम महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम्” ॥ २ ॥ धीवरनी स्त्रीथी नत्पन्न थपेक्षा महामुनि व्यास तपवळे ब्राह्मण थया हता, तेथी ब्राह्मण थवामां जाति कारण नथी. ३ " शशकीगर्भसंभूतः शुको नाम महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माजातिरकारणम्" ॥३॥ हरिणीना गर्नथी उत्पन्न थयेला महामुनि शुकदेव तपवझे ब्राह्मण थया हता, तेथी ब्राह्मण थवामां जाति कारण नथी. ३ “ न तेषां ब्राह्मणी माता संस्कारश्च न विद्यते । तपसा ब्राह्मणा जातास्तस्माज्जातिरकारणम् ” ॥ ५॥ ते उपर कहेला मुनिओनी माता ब्राह्मणी न हती, तेमज तेमने संस्कार थयो नहतो; परंतु तेओ ब्राह्मणो थया हता, तेथी ब्राह्मण थवामां जाति कारण नथी. ५ वली बीजे स्थडे पण कां ने के" सत्यं ब्रह्म तपो ब्रह्म ब्रह्म चेंजियनिग्रहः । सर्वभूतदया ब्रह्म एतद् ब्राह्मणवणम्” ॥ १॥ " सत्य ब्रह्म , तप नाप , इंजियोनो निग्रह करवो ए ब्रह्म डे अने सर्व प्राणी उपर दया करणी ए जल , ए बापणना लक्षणो डे." १ " शूजोऽपि शीलसंपन्नो गुणवान् ब्राह्माणो जवेत् । ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शनापत्यतमो नवेत्” ॥२॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. शूज होय पण जो ते शीलसंपन्न अने गुणवान् होय तो ते ब्राह्मण थायबे, अने ब्राह्मण होय पण जो ते क्रियारहित होय तो ते शूजना संतान जेवो था जाय जे. १ तेथी सर्वमा विरति प्रमाणभूत ले. विरतिनाव विना गुरुपाणुं पण तार्य तारकपणाने अयोग्य जे ते विषे कडं जे के,“ पुन्निवि विसयासत्ता पुन्निवि धणधन्नसंगहसमेआ। सीस गुरू समदोसा तारिज नणसु को केण" ॥१॥ " गुरु अने शिष्य बने विषयमा आसक्त बे, बने धन तथा धान्यना संग्रहथी युक्त जे, तेथी बने सरखा दोषवाला , तो तेमां कोण कोने तारे ? ते कहे." १ कदि कहेशो के, तापस वगेरेने शामाटे गुरु न कहेवाय ? कारण के, तेश्रो संयमी, निःसंगी अने जंगलमा रहेनारा . वली तेश्रो फुल फलादिक खानारा डे. पण तेमने गुरु कहेवा योग्य नयी, कारण के, तेमने सम्यक् प्रकारे जीवना स्वरुपनो बोध होतो नथी, तेमज तेमनामां स्नान वगेरेनुं आरंजपणुं रहेलजे, तेयी कायना पालक साधुज मारा गुरु , एम सिघ थाय जे. तेम सर्वज्ञ, अने केवलझानीए प्ररूपेल धर्मज श्रेष्ठ , ते मोक्षपदने आपनारो बे, वीजा अन्य धर्मो पोक्षपदने आपनारा नथी, तेथी ते धर्मो सर्वाना धर्म डे, एम कहेवू नहीं, अने तेमना देव तया गुरुने सर्वज्ञ न कहेवा, कारण के, एक मूर्तिपणे जे अविरुष धर्मनुं नाषण करवं, ते सर्व रीते अयोग्य जे.जे धर्मना व्याख्यानमां अनेक प्रकार ना जुदा जुदा विरुछ कयन आवे ते धर्मनुं मूत्र कहेवाय नहीं. जैन धर्मना आग ममा ज्या ज्या जुवो त्यां अरिहंत नगवाननुं कथन एकज प्रकारचें आवेठे तेथी ते धर्म मानवाने योग्य . ज्यां मोक्ष मार्गना हेतुमा विरुध्ध कथन आये त्यां धर्म रहेवानो संजव नयो कारण, 'एक कहे ग्राम करवू अने एक कहे तेथी विपरीत कर तेथी आचरनारने कयुं करवू, ते विषे जव्य प्राणी शंका आकांक्षामां पमी जाय जे. अने शंका वगेरेथी धर्म विमुक्तताना हेतु प्रगट थाय जे. जेमके विष्णुना मतमां आ सृष्टि विष्णु मूल डे,एम कहे जे अने शैवमतमां आ सृष्टि शिव मूल के, Jain Education Interational Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश एम माने बे, तेमज शुधिनी बावतमां पण एक जने कररी शुछि माने जे, अने एक रक्षावमे शुछि माने . मोदनी बावतमां एक आत्माना लये करी मोद माने डे अने एक नव गुणनो उच्छेद थाय, त्यारे मोक्ष माने . वली तेमां देवताओ पाउळथी उच्छेद करनारा, वरदानने आपनारा अने सांसारिक रीतिमां वर्त्तनारा होय जे, तेथी तेश्रो सर्वझपणाने योग्य शी रीते थाय ? नज थाय. ते माटे तेमनो प्ररूपेलो धर्म प्रमाणनूत नथी. जेम अनेक माणसो 'अमे, आ, ते, तेओ, एम पोतानी मेले धर्म कहे ते प्रमाणनूत गणाय नहीं, तेम तेमनो कहेलो धर्म प्रमाण नूत गणातो नयी; कारणके, तेश्रो सर्वना वचनने अनुसारे धर्मने कहेता नथी, जे सर्वझना वचनने अनुसारे कहेवामां आवे तेज धर्म गणाय , तेथी केवलि प्ररूपित धर्मज श्रेष्ठ , आ प्रमाणे सम्यक् प्रकारनी शुफ रुचिश्रधा होय ते व्यवहार सम्यक्त्व कहेवाय जे. कारणके, व्यवहारनयनो मतपण प्रमाणज डे. ते व्यवहारनयना बळयीज तीर्थनी प्रवृत्ति बे, जो ते नयने प्रमाण नूत न मानीए, तो तीर्थनो जनेद थइ जाय. ___ शास्त्रमा कह्यु डे के," जय जिणमयं पवजह, ता मा ववहार निच्छयं मुयह। __ ववहारननच्छए तिथ्युच्छेो जवस्समिति" ॥ १ ॥ ___“जो तमारे जिनमत अंगीकार करवो होय तो तमे निश्चय अने व्यववहार बने नयने ओशो नहीं. तेमां व्यवहार नयने गेमवाथी. अवश्य तीर्थनो जच्छेद थाय ." १ सम्यक्त्वना बीजा बे प्रकार. पुद्गलिक अने अपुद्गलिक एम पण सम्यक्त्वना बे नंद पडे. जेमां मिथ्या स्वनाव गयो होय अने सम्यक्त्वना पुंजमा रहेला पुद्गलोना वेदवा रूप दपोपशम प्राप्त थाय, ते पुद्गलिक सम्यक्त्व कहेवाय जे. सर्वथा मिथ्यात्व, मिश्र सम्यक्त्व पुजना पुद्गलोनोक्यथवाथी तथा उपशमथी उत्पन्न थयेन जे निःकेवल जीव परिणाम रुपदायिक तथा उपशम सम्यक्त्व ते अपुद्गलिक सम्यक्त्व कहेवायचे. Jain Education Interational Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ខ៥ श्री आत्मप्रबोध. अर्थात् पुद्गलो, वेदन स्वरुप ते पुद्गलिक सम्यक्त्व अने कयोपशम करवाथी जे जीवना परिणाम ते अपुद्गलिक सम्यक्त्व एम समजवू. सम्यक्त्वना बीजा वे प्रकार. वती निसर्ग अने अधिगम एम वे प्रकारे पण सम्यक्त्व कहेवाय . तीर्थकर तथा गणधर वगेरेना उपदेश शिवाय स्वाजाविक कर्मना उपशम दयपणाथी जे सम्यक्त्व प्रगट थाय, ते निसर्गसम्यक्त्व कहेवाय जे. श्री तीर्थकर गणधर वगेरेना उपदेशथी तया जिन प्रतिमा देखवायी अने वीजा शुन बाह्य निमित्तना आधारथी कर्मनो उपशम-क्ष्य थतां जे सम्यक्त्त्व थाय ते अधिगम सम्यक्त्व कहेवाय जे. ते विषे मार्ग तथा ज्वरनुं दृष्टांत. एक वटेमाणु मार्गथी भ्रष्ट थयो होय, ते कोइना बताव्या शिवाय नमतो जमतो पोते तेज खरे मार्गे जेम आवी जाय , तेवी रीते निसर्गसम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय जे. कोइ वटेमामु मार्गथी नष्ट थतां कोइना बताववाथी खरे मार्गे आवे तेवी रीते अधिगम सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय . जेम कोई माणसने ज्वर आव्यो होय ते परिपक्क स्थिति थातां औषधना उपचार विना स्वानाविक रीते उतरी जाय जे तेवी रीते निसर्ग सम्यक्त्व समजवू अने जेम कोइनो ज्वर औषधना उपचारथी उतरी जाय , ते अधिगम सम्यक्त्व जाणवू. एवी रीते प्राणीने मिथ्यात्व रूप ज्वरना जवाथी सम्यक्त्व मार्गनी प्राप्ति थाय जे अने ते निसर्ग अधिगम रूप थाय. सम्यक्त्वना त्रण प्रकार. कारक, रोचक अने दीपक एम सम्यक्त्व त्रण प्रकारनुं जे. जे जीवोने सम्यक् प्रकारना अनुष्ठाननी क्रियानी प्रवृत्ति करावे ते कारकसम्यक्त्व कहेवायजे. एटवे ते सम्यक्त्वमा उत्कृष्ट विशुधि-निर्मळतारुप सम्यक्त्व प्रगट थतां जीव सूत्रमा कहेवा प्रमाणे क्रिया करे , तेथी ते कारक सम्यक्त्व कहेवाय . ए कारक सम्यक्त्व विशेष निमळ चारित्रवाळानेज प्राप्त थायजे. मात्र श्रधान ए रोचक सम्यक्त्व कहेवाय जे. ए सम्यक्त्वमां जीवने सम्यक् अनुष्ठाननी प्रवृत्ति Jain Education Intemational Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश १ए. रुचे , पण ते करी शकतो नयी. आ सम्यक्त्व अविरति सम्यग्दृष्टि एवा कृपण अने श्रेणिक वगेरेने थयुं हतुं. जे जीव पोते मिथ्यादृष्टि अथवा अनन्य एवा अंगारमर्दक आचार्यनी जेम धर्मकथावके जिनेश्वरना कहेल जीव-अजीवादि पदार्थोने यथार्थीते परने प्रकाशे-दीपावे तेथी ते दीपक सम्यक्त्व कहेवाय जे. दीपक जेम वीजाना अंधकारने दूर करे अने पोताने प्रकाश करतो नथी तेम दीपक सम्यक्त्वधी वीजाने गुण थाय ने अने पोताने गुण थतो नथी, तेथी ते दीपक सम्यक्त्व कहेवाय . अहीं शिष्य प्रश्न करे . जे जीव पोते मिथ्यादृष्टि , तो पठी तेने सम्यक्त्व शद्र शी रीते घटे ? ए वचननो विरोध आवे छे. गुरु जत्तर आपे चे. शिप्य, एम कहे नहीं. ते जीवने मिथ्याष्टिपणुं - तां पण तेनामा जे परिणाम विशेष चे, ते निश्चे प्राणीने धर्म पमामबानो हेतुरूप थाय ने एटने सम्यक्त्वनुं कारण नूत थाय , तेथी जेम धीमां आयुष्यनो उपचार करवामां दोष नयी तेष कारणने विष कार्यनो उपचार करवाथी ते सम्यक्त्व कहेवाय . सम्यक्त्वना बीजी रीते त्रण नेद. औपशमिक, दायिक अने श्योपशमिक एम सम्यक्त्वना त्रण प्रकार पण थाय . सम्यक्त्वना चार नेद. उपशमिक, दायिक, श्योपशमिक अने सास्वादन-एवा सम्यक्त्वना चार नेद . सम्यक्त्वना पांच प्रकार. उपशमिक, दायिक, दयोपशमिक, सास्वादन अने वेदक-एम सम्यक्त्वना पांच प्रकार पण थाय . १ उपशमिक-नदीरणा करेला मिथ्यात्वने अनुभवया कय करतां अने नहीं नदोरणा करेला मिथ्यात्वने परिणामनी निर्मळता विशेषे करी सर्व प्रकारे Jain Education Intemational Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रवोध. उपशमावतां-दबावी देतां एटले उदयमां न आववा देवारुप करतां जे चैतन्यनो गुण प्रगट थाय जे, ते उपशमिक सम्यक्त्व कहेवाय . आ सम्यक्त्व अनादि मिथ्यादृष्टिने, ग्रंथिनेद करनारने, अने उपशम श्रेणिना प्रारंजना करनारने थाय. २ दायिक-अनंतानुबंधी कषायनी चोकमीनो तय थया परी अनंतर मिथ्यात्व, मिश्र सम्यक्त्वरूप त्रण पुंजरूप दर्शनमोहनीय कर्मनो सर्वथा क्य थतां आत्माने जे गुण उत्पन्न थाय, ते दायिक सम्यक्त्व कहेवाय. आ सम्यक्त्व दपक श्रेणी अंगीकार करनारने होय . “दपक श्रेणी अंगीकार करनार पुरुष आठ वर्षथी उपरांत वयवाळो, वज्रऋषजनाराच संघयणवाळो, अने ध्यानने विषे चित्त आपनारो होय , ते पुरुष अविरति होय, देश विरति होय अथवा प्रमत्त-उग गुणगणावाला अथवा अप्रमत्त-सातमा आउमा गुणगणांवालामाथी गमे ते होय ते आपकवेणी मां , " एम प्रवचनसारोद्धार ग्रंथने विषे कहवं . ३ कयोपशमिक–उदय आवेना मिथ्यात्वने विपाकना उदये करी वेदी क्षय करे अने शेष के जे सत्तामा अनुदय आवेदूं होय तेने उपशांत करे एटले मिथ्यात्व मिश्र पुंजने आश्रीने रोके अर्थात् उदयने अटकावे. अने शुद्ध पुंजने आश्री मिथ्यात्व भावने दूर करी एटले नदीरणा करेल मिथ्यात्वनो कय करवाथी अने नहीं दीरणा करेत मिथ्यात्वनो उपशम करवाथी आत्माने जे गुण नुत्पन्न थाय ते क्योपशमिक सम्यक्त्त्व कहेवाय जे. आ मिथ्यात्व शुफ पुंज बकणवा, डे, ते अतिशय निर्मल एवा वादळानी पेठे जे, तेथी तेमां यथावस्थित शुक तत्त्वरुचिर्नु आच्छादन थतुं नथी, एटले ते आच्छादन करनार न होवाथी ते उपचारथी सम्यक्त्व कहेवाय . अहिं शिष्य प्रश्न करे -उपशम सम्यक्त्व अने क्षयोपशमसम्यक्त्त्वमा शो तफावत ? कारणके, ते वंने सम्यक्त्वमां कांश विशेष जोवामां आवतुं नथी. ते बनेमां उदय आवेन मिथ्यात्वनो कय अने नहीं जदय आवेत मिथ्यात्वनो उपशम, ए कहेवामां आव्युं . गुरु उत्तर आपे डे-तेमां विशेषपणुं . क्षयोपशम सम्यक्त्त्वमां मिथ्यात्वना विपाकनो अनुभव नथी, पण रक्षाए Jain Education Interational Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. rial खेलाग्ना धुमाकानी श्रेणीनी जेम प्रदेशनो अनुभव छे. अने उपशम सम्यक्त्वमां विपाक उदयथी तथा प्रदेश उदयथी सर्वथा मिध्यात्वनो अनुवज नथी, माटे ते वनेमां एटलो तफावत बे. ४ सास्वादन - प्रथम कहला उपशम सम्यक्त्वथी पकता एटले सम्यFaथी पतित थतां ते वखते सम्यक्त्वना आस्वादस्वरूपमय थवाय ते सा स्वादन सम्यक्त्व कहेवाय बे. उपशम सम्यक्त्त्वथी परतां बतां ज्यांसुधी मिथ्यात्व न पमाय त्यांसुधी सास्वादन सम्यक्त्व होय ते. ते सास्वादनसम्यक्त्वनो काल जघन्य एक समयनो अने उत्कृष्ट आवळीनो बे. 33 ए वेदक – जेणे दपक श्रेणी अंगीकार करेली बे, एवा पुरुषने चार - ingबंधी मिथ्यात्व मिश्र पुंज (वे ) खपावतां अपने क्षायोपशमिक लक्षण रूप शुद्ध पुंजने खपावता, ते शुद्ध पुंजना पुद्गलनो बेल्लो पुद्गल खपाववाने उजमाळ थतां ते बेब्ला पुद्गलने वेदवा रूप जे सम्यक्त्व ते वेदक सम्यक्त्व क देवाय बे. ते सम्यक्त्व एक समयनुं छे. वेदक सम्यक्त्व पाम्या पत्री अनंतर समraायिक सम्यक्त्व अवश्य प्रगट थाय बे. ते पांचे सम्यक्त्वना कालनो नियम कहे. 66 तत्समो व सासाणवेअगो समय । सादीयतित्ति सायर खोडुगुणो खओवसमो ॥ १ ॥” उपशम सम्यक्त्वनो काल अंतर्मुहूर्तनो बे, सास्वादन सम्यक्त्वनो काल वलीनोबे, वेदकनो काल एक समयनो बे, कायक सम्यक्त्वनो काल तेश्रीश सागरापेथी कांइक अधिकनो बे ने क्षयोपशम सम्यक्त्त्वनो काल बासठ सागरोपमrtain धिक एटले क्षयोपशमनो कायकना करतां बमणो काल बे. आ उत्कृष्ट काल कहेलो े. दायक सम्यक्त्वनी स्थिति जे तेत्रीश सागरोपमथी अधिक कली, ते सर्वार्थ सिद्धादिकनी अपेक्षाए संसारने आश्रीने समजवी सिद्ध अवस्थानी अपेक्षा ए तो तेनी सादि अनंत स्थिति जालवी. जे क्षयोपशमनी मणी स्थिति कहीं बे, ते विजयादिक अनुत्तर विमानने विषे तेत्रीश सागरोपमनी स्थितिमां वे चार जवानी अपेक्षा ए कही बे. अथवा बारमा दे Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. स्रोकने विषे वावीश सागरोपमनी स्थितिए त्रणवार जवानी अपेक्षाए कही जे. जे साधिक-(अधिक सहित ) एम कहेवामां आव्युं छे, ते मनुष्य नवना आयुष्यनो प्रक्षेप करवायी जाणवू. आ सर्व उत्कृष्ट स्थिति जाणवी. जघन्य स्थिति तो वेदक, उपशम अने सास्वादन-ए त्रणेनी एकज समयनी स्थिति के अने दयोपशम तथा दायक ए बेदना वे सम्यक्त्वनी स्थिति जघन्यपणे अंतर्मुहूर्तनी . आप समयथी मांझीने बे धीमां एक समय ओडो ते अंतर्मुहूर्त कहेवाय जे. ते अंतर्मुहूर्त्तना असंख्याता नेद छे. सम्यक्त्त्व केटली वार पमाय . " नकोसं सासायणं नवसमियं हुं ति पंचवाराओ। वेयग खश्गाश्कासि असंखवारा खनवसमो” ॥ १ ॥ "श्रा संसारने विषे उत्कृष्टथी सास्वादन अने उपशमिक सम्यक्त्त्व पांच वार होय . पण ते प्रथम एकवार उपशम सम्यक्त्व प्राप्त थाय त्यारे चार वखत उपशम श्रेणीनी अपेक्षाए होय . वेदक तथा दायक सम्यक्त्त्व एकजवार होय डे अने श्योपशम सम्यक्त्त्व असंख्यातिवार होय , ते पण बहु नवनी अपेक्षाए समजवू." कये गुणस्थानके कयुं सम्यक्त्व होय . "बीयगुणे सासाणो तुरियाइसु अग्गिारचउचनसु । नवसमखायगवेयगखाओवसमा कमा हुँति" ॥१॥ सास्वादन सम्यक्त्त्व वीजे गुणगणे होय जे. अने उपशम सम्यक्त्त्व चोथासम्यकऽष्टि गुणगणांथी अगीयारमा गुणगणा सुधी आठ गुणस्थानके एटले अविरतिथी लश्ने उपशांतमोह गुणगणांसुधी उपशम सम्यक्त्व होय छे तथा चोथा गुणस्थानथी अयोगी गुणस्थानना अंग सुधी अगीयार गुणगणे दायिक सम्यक्त्व होय जे. चोथा गुणगणांथा लश्ने अप्रमत्त गुणगणानां अंतसुधी वेदक सम्यक्त्व होय तेज चोथा गुणस्यानयी मामीने अप्रमत्त गुणस्थान सुधी एटले चार गुणस्थाने क्षयोपशमिक सम्यक्त्व होय डे, अर्थात् सातमा गु Jain Education Interational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ रूपकश्रेणि मांरुवावाळाने वेदक थइने कायक प्रथम प्रकाश. ठाणा सुधी ते होय छे. अने थाय ने आठ गुणठाथ श्रेणि मांछे, " सम्यक्त्व केलीवार मुकाय अने केटलीवार ग्रहण थाय. प्रथम मुक्युं पी ग्रहण कर्यु, एवं जे सम्यक्त्वादि ते गृहीतमुक्तने आकर्षा कदेवाय बे. ते सम्यक्त्व केटलीवार ग्रहण थाय ने केटली वार मुकाय, ते दर्शाa. ते साथ एक जीवने एक नवमां केटला सम्यक्त्व थाय ते पण जपावे बे. नावश्रुत, सम्यक्त्व अने देशविरति नामना त्रण सामायिकवालाने एक नवमां हजार 'पृथक्त्व होय बे, सर्वविर तिवालाने एक नवे सो पृथक्त्व आकर्षा थायडे. ते उत्कृष्टथी जाणवा. अने जघन्यथी तो एक आकर्ष थाय बे. संसारने विषे रहेला जीवोने सर्व जवमां केटला आकर्षा एटले जीव व्यवहार राशिमां याव्या पछी मोक्षे जाय त्यां सुधीमां केटला आकर्षा थाय ते वात जावतां कहे छे के, अनेक नवोमां एक जीवने त्राण नावश्रुतादिकना असंख्याता हजार पृथक्त्व आकर्षा थाय बे एटले सर्व भवनी अपेक्षायेत्रण नावतादिने उत्कृष्टा असंख्याता हजार पृथक्त्व आकर्षा याय डे. तेमां जे सर्व विरति बे, तेने हजार पृथक्त्व उत्कृष्टा थाय बे, अने अव्यश्रुतवाळाने अनंता आकर्षा थाय छे; कारण, तेमां बेइंडिय आदि मिध्यात्वीनी गणना बे. सम्यक्त्वना दश प्रकार. प्रथम तरा रहित कहेला एवा उपशमादिक पांच प्रकारना सम्यक्त्वने निसर्ग तथा अधिगम साथै गणतां तेना दश प्रकार थाय छे अथवा पनवणा वरेगमने विषे निसर्ग रुचि बगेरे भेदथी दश प्रकारना सम्यक्त्व कहेला बे, तेना नाम आ प्रमाणे डे. १ निसर्गरुचि, २ उपदेशरुचि, ३ आज्ञारुचि, ४ सूत्ररुचि, ५ बोजरुचि, ६ अभिगमरुचि, ७ विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि ने १० धर्मरुचि. ते दश प्रकारना सम्यक्त्वनुं विवेचन. १ बेभी लइने नव ध कहेवामां पृथक्त्व शद्ध वपराय छे. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्री आत्मप्रबोध. १ निसर्गरुचि - निसर्ग एटले स्वनावे करीने जिनेश्वरना कहेला तत्वोने विषे रुचि याय, ते निसर्गरुचि सम्यक्त्व कहेवाय बे; अर्थात् जिनेश्वरे दर्शावेला तत्त्वादिकनुं स्वरूप एमज बे, तेथी अन्यथा बेज नहीं, ग्राम जाणे; एटले जे तीर्थंकर भगवाने कहेला प्रव्य, क्षेत्र, काल तथा जावना भेदे करी तथा नाम, स्थापना द्रव्यभावना ने करी चार प्रकारना जीवादिक पदार्थोंने जातिस्मरण ज्ञाननी जेम बीजाना उपदेश विना अथवा श्रुतज्ञानना बळे करीने अत्यंत श्रा करे ते निसर्गरुचि. सम्यक्त्व कहेवाय बे. २ उपदेशरुचि - गुरु, माता, पिता वगैरे वकिलोए कहेला वस्तुतत्त्वम जे रुचि उत्पन्न थाय एटले आंतरा रहित कडेला जीवादिक पदार्थोंने विषे तीर्थकर, गणधर आदि पुरुषोना तेमज ब्रद्मस्थ पुरुषोना उपदेशथी जे रुचि - श्रा उत्पन्न थाय ते उपदेश रुचि सम्यक्त्व कहेवाय बे. ३ आज्ञारुचि - सर्वज्ञनी आज्ञा उपर जे नव्य पुरुष रुचि करे पटले जे जव्य राग, द्वेष, मोह, तथा अज्ञानथी देशथकी रहित थइ तीर्थंकर तथा गणधर वगेरेनी आज्ञा व प्रवचनना अर्थ थयेला बे, एम जाए। पोते बुद्धिहीन होय तो पण तेने यथार्थ रीतें माषतुष मुनिनी पेठे अंगीकार करे ते आज्ञारुचि सम्यक्त्ववालो कहेवाच जे आ सम्यक्त्वमां कहेवानुं तात्पर्य ए छे के, यागमने विषे जे अर्थ ज्ञानी महाराजे कहलो बे ते यथाथर्ज बे-मारे प्रमाण छे; कदि तेमांधी को जाग हुं मंदबुद्धि समजी शकतो नथी तो आगळ उपर विशेष ज्यासी ते मारा समजवामां त्र्यावशे. उद्यम करवाथी शुं प्राप्त थंतु नथी ? तेम करतां कदि समजवामां न आवे तो मारा कोइ कर्मनो दोष छे. या प्रमाणे माने छे. पण जेमां पोताने समज पडे नहीं तेने अप्रमाण गणे नहीं; अने एवी दृष्टियी पोते पोतानी मंद बुथिवाना कारण प्रगट करेछे. सर्व जव्य जीवोए सम्यग्दृष्टियी जिनेश्वर ना वचन उपर श्रद्धापूर्वक एव प्रतीति करवी जोइए, अने अभ्यासमां तत्पर रहे जोइए. एवी ते जिनेश्वरे जे कहेल तेने प्रमाणभूत माने ते आज्ञारुचि सम्यक्त्व कहेवाय बे. आज्ञारुचि सम्यक्त्व नपर माषतुषनुं दृष्टांत. काइ पुरुष कोइ उत्तम गुरु पासे धर्म सांजळी प्रतिबोध पामी दीक्षा लोधी हती. गुरुए तेने अभ्यास कराववा मांरुयो, परंतु कोइ ज्ञानावरणीय कर्म Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. २५ ना उदयथी ते शिष्य एक पद पण धारण करवाने के उच्चार करवाने शक्तिमान् थयो नहीं. आथी गुरु कंटाळी गया अने तेमणे मान्युं के, हवे आ शिष्यने शास्त्रनुं अध्ययन करावाथी सर्यु. डेवटे एक वखते गुरुए तेने कह्यु के, “ शिष्य, तने काइ पण आवमे तेम नथी, माटे तुं केवल ' मारुष, मातुष' एम जप्या कर." ते अपमति शिष्य ते वाक्य पण पूरी रीत बोली शक्यो नहीं. तेने ठेकाणे ' मापतुष' एम बोलवा लाग्यो. पोते ते जाणतां पोताना आत्माने पड़ी निंदतो हतो, पण केवल गुरुनी आझान प्रमाण करी ते जपर पूर्ण श्रछा राखतो हतो, तेथी ते नत्तम जावनाओ करी चार घनघातीकर्मनो कय करी तत्काल केवलझाननी बदमीने प्राप्त थयो हतो. आवो पुरुष आझारुचि कहेवाय . ४ सूत्ररुचि-सूत्र एटने अंग जपांग आदि आचारांगप्रमुख. जेनी अंदर आचारनुं बक्षण कहेवामां आवे डे, तेने विषे जेने रुचि ने एटले जणवा जणाववानी, धारवानी अने तेना स्वरूपना चितवननी प्रीति जे, ते सूत्ररुचि सम्यक्त्ववान् कहेवाय जे. अर्थात् सूत्र नणतां नणावतां ते सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय ने अने अतिशय सारा अध्यवसाय जत्पन्न थाय . ते सूत्ररुचि उपर गोविंदवाचकनुं दृष्टांत डे. गोविंद वाचकनी कथा. गोविंद नामे एक बौद्ध धर्मनो जक्त हतो. ते जिनेश्वरना आगमनुं रहस्य तथा तत्त्व ग्रहण करवा माटे कपटे करी जैन साधु वनी प्राचार्य महाराजनी पासे जैन सिघांत जाणवा आव्यो. जैन सिघांत नएतां तेने सूत्रना अर्थवमे तेना परिणामनी निर्मळता प्रगट थप आवी अने तेथी सम्यक्त्वने पामी जैन शुछ मुनि थइ आचार्य पदने पामी गोविंदवाचकना नामथी प्रख्यात थया हता. आ गोविंद वाचक सूत्ररुचि सम्यक्त्ववाळा जाणवा. ५ बीजरुचि-वीजनी पेठे जे एक वचन अनेक अर्थने बोध करनारं होय ते बीज वचन कहेवाय , तेवा वचनने विषे जेने रुचि होय ते बीजरुचि सम्यक्त्ववान् कहेवाय . जेम बीज एक होय उतां अनेक बीजोने उत्पन्न करे जे, तेम आत्माने एक पद नपर रुचि होय ते अनेक पदनी रुचिने उत्पन्न करनारी थाय ने, एवी जे आत्माने विषे रुचि ते वीजरुचि कहेवाय . अथवा ते Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ श्री आत्मप्रबोध. उपर जळने विषे पमेला तेलना बिंदुनुं दृष्टांत बे. जेम तेलनो बिंदु जळना एक देशमा पबे, पण ते पछी समस्त जळने आक्रमण करे छे, तेवी रीते तत्त्वना एक देशमां आत्मान | रुचि उत्पन्न थइ, तो ते आत्मानी रुचि तेवी रीतना योपशमर्थ | समस्त तत्त्वाने विषे प्रसरी जाय े, आनुं नाम बीजरुचि कहेवाय बे. ६ निगमरुचि — अभिगम एटले विशेष प्रकारनं ज्ञान, तेने विषे जेने रुचि थाय ते निगमरुचि सम्यक्त्ववान् कहेवाय बे. एटले 'श्रुतज्ञानना प्रर्थने श्रीने जेने विज्ञान - विशिष्ट ज्ञान प्राप्त थाय ते निगमरुचि कहेवाय डे. 9 विस्ताररुचि -- सातनयो वमे संपूर्ण द्वादशांगीनी विस्तार पूर्वक वि चारणा करवामां जेनी रुचि वृद्धि पामे बे, ते विस्ताररुचि सम्यक्त्ववालो कहेवाय जे. ए विस्ताररुचि सम्यक्त्वमां नैगमादिक सर्वनयो वने तथा प्रत्यक्षादिक प्रमाणो व पट् व्यनुं अने तेना पर्यायनुं यथार्थ ज्ञान थाय छे. ८ क्रियारुचि -- सम्यक् प्रकारे संयम चारित्रना अनुष्ठान एटले क्रिया तेनी प्रवृत्तिने विषे जे रुचि थवी ते क्रियारुचि सम्यक्त्व कहेवाय जे. जे पुरुषने क्रियारुचि सम्यक्त्व प्राप्त थयेलुं होय, तेने जावथी कानाचार, दर्शनाचार अने चारित्राचार आदि अनुष्ठानने विषे रुचि उत्पन्न थाय छे. ए संक्षेपरुचि - जेनामां विशेष प्रकारे जाएवानी शक्ति न होय, तेथी जे संपथ जावानी रुचि करे, ते संक्षेपरुचि सम्यक्त्ववालो कहेवाय छे. ते सम्यक्त्वमां जिन वचन रूप आगमने विषे अकुशलपएं तां तेमज बौदिक कुदर्शननो अभिलाषी न बतां चिल्लातिपुत्रनी पेठे उपशम, विवेक ने संवर नामना पढ़े करीने तत्त्वनी रुचि प्राप्त थाय . १० धर्मरुचि - धर्म एटले अस्तिकायादि धर्म तथा श्रुतधर्म अने चारित्रधर्म, तेने विषे जेने रुचि होय ते धर्मरुचि सम्यक्त्ववालो कहेवाय बे. एटले जिनेश्वरेकला धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय वगेरेना गति, स्थिति रुप उपष्टकता आदि स्वनावने विषे अस्तिपणं तेमज अंग-प्रविष्ट अर्थात् अंग-आगम १ आचारांग आदि अंग, उववाइ आदि उपांग अने उत्तराध्ययनादि प्रकरण ते श्रुतझान कहवाय छे. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश १७ ना स्वरूपने विषे तथा सामायिकादि चारित्रधर्मने विषे जे जीव श्रद्धा करे छे, ते धर्मरुचि समजवो. जे सम्यक्त्वना उपाधि भेद व जुदा जुदा प्रकार कला बे, ते शिष्यने विशेष बुद्धि उपजाववा माटे कहेला बे. परंतु वस्तुताए तो निसर्ग ने अधिगम ए वे नेदमां कोइ कोइ स्थले ते बधानो अंतर्भाव यह जाय बे. वळी सम्यक्त्वने जीवथी अभिन्नपणं जे कहेतुं बे, ते गुण अने गुणीनो - द जणाववा माटे कल बे, ते उपरथी समजवानुं के, जे दश प्रकारनुं सम्यक्त्व तेज आत्मा, कारण के सम्यक्त्व ए ग्रात्मानो गुण बे, एटले आत्मा तेज सम्यक्त्व अने सम्यक्त्व तेज आत्मा, ए तत्त्वथी जावं. आत्मा ने आत्माना गुमां नेद . तत्रयी गुण ने गुणी जुदां नयी. - ए परमार्थ बे. सर्व धर्मकृत्य मां सम्यक्त्वनी प्रधानता. " समत्तमेव मूलं निहिं जिवरेहिं धम्मस्स । एपि धम्म कच्चं न तं विणा सोहए नियमा” ॥१॥ 66 जिनवरोए धर्मं मूळ सम्यक्त्वनेज कहेलुं बे, ते सम्यक्त्व विना धर्मनुं एक कार्य पण निचे शोतुं नथी. " १ अपार संसारमां बहु प्रकारे भ्रमण कर खेद पामी गयेला जन्यजीवोए जेनुं स्वरुप प्रथम कहेलुं बे एवा शुद्ध सम्यक्त्ववमे पोताना आत्माने युक्त करवो. कारण के, पोतानी आत्मारूपी भूमिने निर्मळ करवार्थी ते आधारे करेला सर्व धर्मना कृत्यो मनास चित्रकारे रचेली भूमि उपरना चित्रोनी जेम असाधारण रोते शोभी वे छे. कारण के, आत्म शुद्धि कर्या विना एक पण धर्मकृत्य शोतुं नयी तेथे नव्य जीवोए प्रथम आत्मशुद्धिने विषे प्रयत्न करवो. प्रजास चित्रकारनं दृष्टांत. जंबूदीपने विषे जरतक्षेत्रना मध्य जागे साकेतपुर नामे नगर बे. ते मनोहर ने ज्वळ एवा घरोयी तथा सुंदर जिन मंदिरोनी श्रेणी थी सुशोचित े. नाग, पुंनाग विगेरे विविध जातना वृक्कशोथी युक्त एवा अनेक उद्यानो क विराजित बे. तेमां सर्व शत्रुरूपी वृकोने नखेवामां गजेंद्र समान महाबल नामे Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. एक राजा हतो. एक वखते ते राजा सनामंझपमां बेगे , तेवामां अनेक प्रकारना देशोमां फरनारा पोताना एक दूतने आ प्रमाणे पुरयुं, “ हे दृत, मारा राज्यने विषे राजनीबाने योग्य एवी कोई वस्तु नथी एम ? " दूते कहां, राजेंज, तमारा राज्यमां बीजी वस्तुओ के, पण नेत्रोने आनंद आपनारी अने अनेक प्रकारना चित्रोथी अलंकृत एवी राजकीमा योग्य चित्रसन्ना नथी." दूतनां आ वचन सांजळी राजानुं मन तेवी सन्जाना कुतुहलथी परित थ६ गयु. तत्काळ तेणे मंत्रीने बोलावीने हुकम कर्यो के, ' सत्वर एवी चित्रसना करावो. ' राजानी आझा थाज मंत्रीए ते आझा शिरपर चमावी दीधी, विस्तारवाळी अने मनोहर विविध प्रकारनी रचनाथी सुशोजित एक मोटी सना तैयार करावी. ते पछी राजाए विमल अने प्रनास नामना वे चित्रकारोने बोलावीने कह्यु, “चित्रकारो, तमे बंने चि. त्रना काममां निपुण लो, माटे एक आ सजाने चित्रवाळी करो, तेमां सन्जानो अर्ध नाग विमन चितरे अने अर्थ नाग प्रनास चितरे," एम कही तेमने अर्ध अर्ध नाग वहेंची आप्यो. पठी तेनी मध्य जागे एक पमदो बांधी राजाए तेमने सूचना आपी के “ तमारे कोइ कोइना चित्रो जोवां नहीं, तमे प्रत्येक तमारी बुधि प्रमाणे तेमां चितार काम करो. " राजानी आवी आझा थतां ते बंने चित्रकारो एक बीजानी स्पर्धाथी पोतपोताना जागमां चित्रकाम करवा लाग्या. एवी रीते चित्रकाम करता ते मने उ मास वीता गया. ते पठी चित्रकाम जोवाने आतुर एवा राजाए ते बंननी पासे आवी चित्रकाम पूर्ण करवा माटे पुग्यू, आ वखते विमले का, “ स्वामी, में मारो नाग पूरो को डे, ते आप जुवो." राजाए तेमां प्रवेश करी जोयुं, त्यां विचित्र प्रकारना चित्रोयी अनुत एवा ते नूमि जागने जोड्ने राजा संतुष्ट थइ गयो. त काल राजाए विमाने घणुं अन्य तथा वस्त्रादिक- इनाम आपी तेनी उपर महान् प्रसाद को. ते पळी राजाए प्रनासने पलं, त्यारे प्रजासे कहूं के, में तो हजु चित्रनो आरंज पण कर्यो नयी, मात्र हजु नृमि संस्कार कयों ने. एटले चितरवानी नूमिने शुछ करी छे. कारण जो नूमिने बराबर शुछ करी होय तो ते पर चितार काम घjज शोजी नवे . पली राजाए ते नूमि संस्कार केवो को हशे ते जोवाने माटे वचयां राखेखा पमदाने दूर कराव्यो. तेवामां ते मिनी अंदर घणुं रमणीय चित्रकाम थयेनुं जोवामां आव्युंते जोड राजाए कह्यु, Jain Education Intemational Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश " अरे प्रनास, तुं शुं अमने पाण उगे डे ? अहिं तो साक्षात् चित्रकाम देखाय जे." प्रनासे का, “ महाराज, ए साक्षात् चित्रो नथी पण या सामेना नागना चित्रोना प्रतिबिंबोनो संक्रम थयेलो . " तेना आ वचनो सांचळी राजाए फरीवार ते पमदो बंधाव्यो, एटले मात्र एकली नृमि जोवामां आवी. आथी राजाए विस्मय पामीने पुज्यं, " चित्रकार, ते आवा नारे संस्कारवाळी चमि केम रची ?" प्रनास बोटयो, “ स्वामी, आवी नज्वन चूमि नपर चित्रकाम घj सरस थाय जे. चितरेत्री मूर्तिोना रंगनी कांति अधिक शोजे अने ते पर आलेखेला रूप बहुज दीपी नोकळे डे, जेयी प्रेक्षकोना हृदयमां आवेहूब नावनो उस्वास थ आवे छे." प्रनारा चित्रकारना आ वचनो सांचळी राजा तेनी विवेकवाळी कुशलता उपर हृदयमां संतुष्ट थइ तेने इनाम आपी तेनी उपर प्रसाद को. अने तेने का के, "मारी आ चित्र सना जे प्रकारनी शोजावाळी थडे ते अपूर्व प्रसिछि पामी एवी ने एवी कायम रहो." एकथानो उपनय. साकेतपुर नगर ते आ महान् संसार समजवो. महावन राजा ते सम्यक् प्रकारे उपदेश आपनार आचार्य समजवा. जे सना ते मनुष्यगति समजवी. जे चित्रकार ते जव्य जीव जाणवो. जे चित्रशालानी नूमि ते आत्मा अने ते नूमिनो जे संस्कार ते सम्यक्त्व जाणवू. अने चित्र ते धर्म समजवो. जे अनेक प्रकारना चित्रो ते प्राणातिपातनी विरति वगेरे व्रतो जाणवा. चित्रोने दीपावनारा उज्वल प्रमुख वर्णो ते धर्मने शोनावनारा अनेक प्रकारना नियमो जाणवा. अने नावनो जलास ते वीर्य समजबु. श्रा नपरथी ए उपदेश देवानो डे के, प्रहास चित्रकारनी जेम पंमित पुरुषोए आत्मारूप ऋमिने निर्मळ करवी के जेयी ते आत्मनूमि उज्वल क्रियारूप अनेक प्रकारना चित्रोनी अद्लुत शोचाने धारण करे , जे शोना आ जगतने विषे अनुपम गणाय . आ प्रजासना दृष्टांतही सर्व धर्म कार्योने विषे सम्यक्त्वनुं प्रधानपणुं दर्शाव्यु डे. सम्यक्त्वना बोजा समसा भेदो. हवे विस्ताररुचि जीवोना उपकारने माटे सम्यक्त्वना समसठ नेदो कहे Jain Education Intemational Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. के. चार प्रकारनी श्रघा, त्रण लिंग, दश विनय, त्रण शुचि, पांच दूषण रहित, आउ प्रनावक, पांच नूषण, पांच लक्षण, उ जयणा, आगार, नावना अने उ स्थानक, एवी रीते सम्यक्त्त्वना समसठ नेदो थाय . ए समसठ नेदोए जे युक्त होय तेने निश्चयथी विशुच्छ सम्यक्त्त्व प्राप्त थाय . चार श्रघा. १ परमार्थनी स्तवना, ५ परमार्थ जाणनारनी सेवा एटले तेनी गुरुपणे मान्यता, ३ जेमणे सम्यक्त्त्व वमेधुं होय तेवा व्यापन्न दर्शनीअोनुं वर्ज, तथा अन्य दर्शनीओनो त्याग करवो. आ चार प्रकारनी श्रघा कहेवाय जे. जेन श्रा चार श्रधा होय तेने अवश्य सम्यक्त्त्व होय . त्रण लिंग, जेनामां सम्यक्त्व होय, तेने ओळखवाना जे चिन्होते लिंग कहेवाय जे. १ शुश्रूषा, धर्मराग अने ३ वैयावृत्य ए त्रण लिंग जाणवा. दश प्रकारनो विनय. १ अरिहंत, २ सिफ, ३ चैत्य, ४ श्रुत, ५ धर्म, ६ साधुवर्ग, ७ श्राचार्य, उपाध्याय, ए प्रवचन अने १० दर्शन ए दशनो विनय करवो ते दश प्रकारनो विनय कहेवाय . जक्ति-बहुमान आदिथी विनय कराय . त्रण प्रकारनी शुछि. १ जिन, २ जिनमत अने ३ जिनमतने विषे रहेला जे साधु साध्वी वगेरे, तेनाथ। बीजाने असाररूपे चिंतववा-ए त्रण प्रकारनी शुचि कहेवाय . पांच दूषण. ? शंका, २ कांक्षा, ३ विचिकित्सा, ४ कुदृष्टि प्रशंसा अने ५ कुदृष्टिनो परिचय ए सम्यक्त्वना पांच दूपणो वर्जवा योग्य जे. आठ प्रत्नाविक. ५ प्रवचनी, २ धर्मकथी, ३ वादी, ४ नैमित्तिक ५ तपस्वी, ६ प्रज्ञप्ति Jain Education Intemational Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. आदि विद्यावान् ७ चरण, अंजनादिकवमे सिफ, अने 6 कवि-ए आप मनाविक कहेवाय . पांच जूषण. १ जिनमतने विष कुशळता, जिन शासननी प्रजावना करवापणुं, ३ तीर्थसेवा, ४ जिनमतने, विषे स्थिरता, अने ए जिनमतने विषेनक्ति-ए पांच सम्यक्वना नूषण कहेवाय . कारण के, ते सम्यक्त्वने आपणनी जेम शोजा पमामनारा . पांच लक्षण. १ शम, २ संवेग, ३ निर्वेद ४ अनुकंपा, अने आस्तिकता-ए पांच सम्यक्त्वना लक्षण डे. ते उपरथी सम्यक्त्ववान् पुरुष ओलखी शकाय डे. यतना. परतीर्थिक आदिने ? वंदन, २ नमस्कार, ३ आलाप, ४ संलाप, ५ खानपाननू दान अने ६ गंध पुष्पादिक अर्पवा- ए उ यतना वर्जवा योग्य जे. र आगार. १ राजाना हुकमथी, २ समुदायनी आझाथी, ३ वळवान्ना हुकमी, ४ देवतानी आझाथी, ५ पुर्खन आजीविकाथी अने ६ मोटा महान् पुरुषना आग्रहथी कां कर पमे ते आगार कहेवाय डे, ते उपर प्रमाणे उ प्रकारना अागार . उन्नावना. १ आ सम्यक्त्व चारित्र धर्मनुं मूल , २ आ सम्यक्त्व चारित्र धर्मनुं कार , ३ आ सम्यवत्त्व चारित्र धर्मनो स्तंन डे, ४ सम्यक्त्व चारित्र धर्म, आधारचूत , ५ आ सम्यक्त्त्व चारित्र धर्मनुं नाजन डे अने ६ आ सम्यक्त्त्व चारित्र धर्मनुं निधान बे. श्रा प्रमाणे शास्त्रमा कहेल, तेनुं चितवन करवू, ते उ जावना कहेवाय जे. ब स्थानक. १ जीव , २ ते जीव नित्य , ३ ते जीव को करे , ४ ते करेला Jain Education Intemational Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ श्री आत्मप्रबोध. कर्मने नोगवे , ५ मोक्ष ने अने ६ मोदनो उपाय जे. एवी अस्ति (जे) पणे श्रका करवी ते न स्यानक कहेवाय जे. आ प्रमाणे समसठ दे करी सम्यक्त्व निर्मल होय . ते सम्यक्त्वना समसउदोनुं सविस्तर विवेचन. चार श्रधातुं स्वरूप. १ परमार्थ संस्तक एटले जीव, अजीव, पुण्य, पाप वगेरे तात्त्विक पदाथोनो परिचय, अर्थात् तेना स्वरूप जाणवाना विशेष उद्या, रटण, बहुमान पूर्वक जीवादि पदार्योने विषे जे निरंतर अभ्यास ते प्रथम श्रछा कहेवाय . ५ परमार्थने जाणनारानी सेवा एटले परमार्थने जाणनारा प्राचार्य वगेरेनी चक्ति अर्थात् स. वेरीनी जेम मुनिना गुणोनी परीक्षा करी तेमनी सेवा भक्ति करवी. जे मुनि संवेग एटो मोवानिवाषना शुध रंगना कल्लोलने जीवनारा अर्थात् जेना चित्तमां निरंतर मोके जवाना तरंग उठी रह्या डे, एवा अने जे शक जैन मागने प्ररुपनारा , तेवा पुरुषोनी सेवा-भक्ति करवायी समतारूप अमृतनुं पान मळे . अने तेथी आत्माने विष आनंद पमाय . ए वीजी श्रघा . ३ जेमणे जैन दर्शननो नाश कर्यो , एवा अने प्रन्नुना वचनने जलापनारा एवा निन्हको वगेरेने वर्जवा. कारणके ते निन्हवो सम्यक्त्वने ग्रहण करी पुनः तेनुं वमन करनारा जे. अने प्रत्तुना वचनथी विपरीत रीते वर्त्तनारा डे, ते गोष्टा माहिल वगेरे कहेवाय छे. तेवी रीते ययाउंदा पुरुषोने पण वर्जी देवा. ते लोको आगम नपर दृष्टिने बंध करी स्वच्छंदे वर्तनारा अने स्वकपोल कल्पित मार्गे चालनारा जे. तेमनुं आचरण गृहस्थना करतां पण नगरं जे. तेत्रो काचुं पाणी पीवे , माथे तेल घाली मुंमावे डे, काचा पाणीए न्हाय डे, धोवे , वस्त्रो धोवरावे जे, गुप्त रीते स्त्री सेवन करे , अने लोकोमा पोताने ब्रह्मचारी कहेवरावे डे, नपान प्रमुख पेहेरे ये अने मउधारी थइ रहे . पासत्या, नत्सन्ना, कुशीलिया, संसक्ता, यथाच्छंदा ए पांच जिन मतमां अवंदनीय कहेला जे. महावीर प्रतुना वेषनी विझवना करनारा, मंद अने अझानी एवा ए कुगुरुने वर्जवाथी त्रीजी श्रघा प्रगटे जे. Jain Education Intemational Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. ३.३ ४ चोथी श्रद्धा कुदर्शनने त्याग करवा रूप बे. कुदर्शन एटले जैन शिवाय बौद्ध वगेरेना दर्शनो तेनो त्याग करवाथी सम्यक्त्वनी चोथी श्रद्धा कहेवाय बे. ए चार श्रद्धा उपरथी पुरुषमां सम्यक्त्वनी प्रतीति थाय बे. सभ्यग्दर्शनवाला प्राणी ओए पोताना आत्माना गुणोने निर्मल करनारी ए परमार्थ परिचय वगेरे चार याने निरंतर धारण करवी. तेमां खास करीने चोथी श्रवामां कला कुदर्शनवाला पुरुषोनो सर्वथा त्याग करवानो बे. कारण, ते पोताना दर्शननी मक्षिताना हेतु रूप बे. जो कुदर्शनीनो संग न वर्जे तो जेम गंगानुं जल लवण समुडना संसर्गयी तत्काल खारुं थइ जाय छे, तेम सम्यग्रह ष्टिना उंचा गुणो तेवा कुगुरुना संसर्गथी तत्काल नाश पामी जाय बे; तेथी सर्वथा तेमनो संसर्ग वर्जवो; एवो जिनेश्वरनो उपदेश जे. त्रण लिंगनी व्याख्या. १ शुश्रूषा - एटले सांजळवानी इच्छा. सद्झानना हेतु रूप एवा धर्मशास्त्र सांजळवा उपर प्रीति साकरना स्वादथी पण वधारे मधुर ने युवान सुंदर स्त्री परिवृत थइ दिव्य गीतने सांभळवानी इच्छावाला चतुर पुरुषने जेवो राग था, तेवी रीते धर्म सांनळवानो आत्मानो जे अध्यवसाय ते शुश्रूषा नामे सम्यक्त्वनुं पेहेलं लिंग - चिन्ह छे. ज्यारे जव्य जीवने सम्यक्त्व प्राप्त aj होय, त्यारे एवा परिणाम थाय बे. २ धर्मराग – चारित्रादि धर्मने विषे राग ते धर्मराग नामे वीजुं चिन्ह कहेवाय . एटले कोइ मोटी वीनुं उल्लंघन करी आवेलो ने कुधाथी जेनुं शरीर की थइ गयुं बे, एवो ब्राह्मण जेम वेबर खावानी इच्छा करे तेम सम्यक्त्ववालो जीव कोइ कर्मदोषी सदनुष्टानादि धर्म करवाने अशक्त होय पण तेने धर्मने विषे सीव्र अभिलाष होय बे, तेवं धर्मरागनुं चिन्ह कहेवाय बे. ३ देवगुरुनी वैयावच करवानो नियम ए सम्यक्त्ववंतनुं बीजं चिन्ह बे. देव एटले अतिशय आराधन करवा योग्य अरिहंत ने गुरु एटले शुरू धर्मनो उपदेश करनारा आचार्य भगवान, तेनी वैयावच करवामां यथाशक्ति सेवा प्रमुख करवानो नियम, जे नियम श्रेणिक वगेरेने हतो. महान् श्रेणिक ५ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. राजाने एवो नियम हतो, के ज्यारे परम तीर्थकर महावीर नगवान् जे दिशाए. विचरता होय, ते समाचार जाणवामां आवे त्यारे, ते दिशानी सन्मुख सुवर्णना एकसो आठ जवनो साथीओ करी पठी दातण करवू, तेवी रीते देवपूजामां पण तेने एवो साथीओ करवानो नियम हतो, ते प्रमाणे ते दररोज करतो अने तेथी तेणे तीर्थकर नामकर्म उपार्जन कर्यु हतुं. तेवीरीते वीजा पण नव्य जीवोए ए प्रमाणे यथाशक्ति नियमो ग्रहण करवा यत्न करवो जोइए. ए शुश्रूषादिक त्रणे लिंगोथी सम्यक्त्वनी उत्पत्तिनो निश्चय थाय ने. दशप्रकारना विनयनी व्याख्या. १ अरिहंत एटले तीर्थकर नावजिन विचरता जिन. २ सिफ एटने जेमना अष्ट कर्म रूप मलना पमल क्षीण थइ गया , एवा सिक नगवान्. ३. चैत्य एटले जिनेश्वरनी प्रतिमा-मूर्ति, ४ श्रुत एटले सिघांत-आचारांग प्रादि आगम. ५ धर्म एटले क्षमादिक दश प्रकार रूप. ६ साधुवर्ग एटले श्रमण समूह. ७ आचार्य एटले बत्रीश गुणना धारक अने गच्छना नायक. ७ उपा" ध्याय एटले शिष्यो ने सूत्रो जणावनारा, ए प्रवचन एटले जीवादि नव तत्त्वाने कहेनार (अथवा संघ) १० सम्यगदर्शन एटले सम्यक्त्त्व अने तेनी साथे अनेदोपचारथी सम्यक्त्ववान् पण दर्शन कहेवाय जे. पूर्वे पण संभव प्रमाणे कहे. ए अरिहंतादिक दशस्थानने विषे पांच प्रकारे विनय करवो. विनयना पांच प्रकारनी व्याख्या. १ नक्ति एटले साहामा जवू, अशनादिक चार प्रकारनो आहार प्रा. पवो, अथवा जे योग्य होय ते आप, ते रूप बाह्य प्रतिपत्ति. बाहेरनी देखाती सेवा. आम जक्ति करवाथी अन्य जनो जाणे के, 'आ नक्तिवंत ,' ते जो बीजाओ पण तेम करवाने प्रवर्ते. अहिं वाह्य नक्तिनो अर्थ राग विनानी -उपरनी नक्ति एवो अर्थ न करवो; कारणके, समकितगुण होवाथी जीवथी. अंतर्दशारूप परिणामवाळीज नक्ति बने . ३ बहुमान एटले मनमा अतिशय प्रीति. ३ वर्णन एटले तेमना प्रजाविक गुणोनु कीर्तन-स्तवन कर ते. Jain Education Intemational Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. ४. अवर्णवादपरिहार एटवे तेमनी अप्रशंसा-निंदानो त्याग करवो. वोजाना उत्तम गुणोनी प्रशंसा करे, पोताना गुणोनी न करे, अने जेथी धर्मनी अधुता थती होय, तेवा कामने गोपवे-प्रगट न करे. ५ आशातनापरिहार-एटले मन, वचन अने कायाए करीने प्रतिकूल प्रवृत्तिनो निषेध करे एटले जे जे काम करे तेमां देव, गुरु अने धर्मनी आशातना करे नहीं अने करावे नहीं. अर्थात् जिनमतनी निंदा, लघुता थवारूप आशातना पण न करे. एटो पोताना हृदयने नगारी प्रवृत्तिमां नांखे नहीं..। आ दश प्रकारनो दर्शन विनय उपर कहेला दश स्थानोने आश्रीने जाणी लेवो. सम्यक्त्त्व होयतोज आ विनय प्रगट थाय , तेथी ते दर्शनविनय कहेवामां आव्यो . त्रीजा चैत्य विनय विषे विवेचन. चैत्यनो अर्थ जिनेश्वरनी प्रतिमा थाय जे. अथवा जिनबिंब थाय जे. ए मनुनी प्रतिमां केवा स्वरूपवाळी अने केटला प्रकारनी ? एवी शिष्यनी शंका थतां तेना नेद दर्शावे . श्री जिनेश्वरना चैत्यना पांच नेद . १ नक्ति चैत्य, ५ मंगळ चैत्य, ३ निश्राकृत चैत्य, ४ अनिश्राकृत चैत्य अने ५ शाश्वत चैत्य. गृहने विषे शास्त्रोक्त विधिपूर्वक लक्षणादिक सहित प्रतिदिन त्रिकाल पूजा वंदनादि करवाने माटे करावेशी जे जिनप्रतिमा ते नक्ति चैत्य कहेवाय जे. ए प्रतिमा घर देरासरमा थापवाने धातुनी बनेत्री अने अष्ट प्रातिहार्य सहित थाय . घरना घार उपर रहेला वीजा काष्ट ( उत्तरांग )ना मध्य लागे स्थापेला जिनाबबने मंगलचैत्य कहे जे. लोको मांगलिकने माटे ते घारना काष्ट उपर जिनमूर्ति कोतरावे . अने जो ते मंगलचैत्य होय तोज तेः घरमा रहे , अन्यथा रहेता नथी. मंगलचैत्य वगरना घरमां रही शकाय नहीं, ते विषे एक दृष्टांत कहेवाय जे. मथुरा नगरीने विषे मंगा निमित्ते प्रथम जिनप्रतिमानी प्रतिष्टा करे . जिनबिंबनुं स्थापन करे जे. जे घरमां मंगलचैत्यनुं स्थापन न कर्यु होय ते घर Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ श्री आत्मप्रबोध. पकी जाय े. श्री सिद्धसेनाचार्ये कर्तुं बे के “ घर घर प्रत्ये धारना मध्य जागे —उतरांगे श्री पार्श्वनाथ प्रजुनी प्रतिमा स्थापे छे.” ते मथुरा नगरी मां आजे पण लोकोना वरना द्वार उपर मंगल चैत्य देखाय बे. जे कोइ गच्छ संबंधी चैत्य एटले तपगच्छ, खरतरगच्छ के अंचलगच्छनुं चैत्य, ते निश्राकृत चैत्य कहेवायडे. ते चैत्यमां ते ते गच्छना आचार्यादिकनो तेमां प्रतिष्ठा प्रमुख कार्यों करवानो - धिकार होय . बीजा गच्छना आचार्यो वीजा गच्छ संबंधी चैत्यमां प्रतिष्ठा करावी शकता नयी. उपर कल निश्राकृत चैत्यथी विपरीत जाववाळु चैत्य प्रनिश्राकृत - त्य कवाय बे. ते चैत्यने विषे सर्व गच्छोना आचार्यो प्रतिष्ठा करावी शके बे. Hariपण वगेरे चैत्य संबंधी सर्व कार्यो करवानो अधिकार सर्व गच्छोना या चायने होय . शत्रुंजयगिरि उपर आदीश्वर जगवाननुं चैत्य अनिश्राकृत चैत्य, ते कमां सर्व गच्छोना आचार्यो प्रतिष्ठादि करावी शके बे. त्यां सवासोमीना देरासरमां देवाजियतीने नामे ओळखातो यतिवर्ग तेनी मालेकी धरावी प्रतिष्ठादि करावे, ते निश्राकृत चैत्य कहेवाय बे. पांच सित्य ते सियायतनना नामर्थ। ओलखाय बे. अने तेने शाश्वत जिन चैत्य पण कहे . बीजी रीते चैत्यना पांच प्रकार. १ नित्य चैत्य, 2 विविध चैत्य, ३ नक्तिकृतचैत्य, ४ मंगलकृतचैत्य अने ए साधर्मिक चैत्य, जे देवलोकने विषे शाश्वत चैत्य बे, ते नित्यंचैत्य कदेवाय बे. v a unit after करेला निश्राकृत ने निश्राकृत ( जरतादिके जेम कराव्या हता तेवा ) ए वे प्रकारना चैत्य ते विविध चैत्य कहेवाय छे. ते बीजो नेत्री जो जेद समजवो. मथुरानगरीनी जेम मंगळने अर्थे गृहधारना मध्य जागे काष्ट (उत्तरांग ) उपर करेल चैत्य ते मंगळचैत्य समजवं. जे कोइना नामी देवहां प्रतिमा करावी स्यापे ते साधर्मिक चैत्य कहेवाय बे. वार्त्तक मुनिना पुत्रे पोताना रमणीय देवगृहने विषे पोताना पितानी मूर्ति स्थापी हती. ते साधर्मिक चैत्य कहवायुं छे. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश वार्त्तक मुनिनी कथा. वार्तक नामना नगरने विषे अनयसेन नामे राजा हतो. तेने सद्बुछिना नंमार रूप वार्त्तक नामनो मंत्री हतो. एक वखते ते मंत्री पोताना घरना दीवानखानामां बेगे हतो, तेवामा कोइ परगामथी मीजमान आव्यो. मंत्री तेने मान आपी तेनी साथे वार्तालाप करवा लाग्यो, तेवामां धर्मघोष नामना मुनि तेने घेर निदा लेवाने आव्या. मुनिने निदा माटे आवेता जाणी वार्त्तकनी स्त्री घी, खांमयी मिश्रित एवं एक वीरनुं पात्र जरी तेमने व्होरावा आवी. ते वखते पात्रमांथी एक बिंदु नूमि उपर पड्यो. ते मुनिना जोवामां आव्यो. ते महात्मा जगवते उपदेश करेला निक्षाग्रहणना विधिने जाणनारा हता. निशा बेतालीश दोषोथी दूषित न होवी जोइए, एम तेओ समजता हता. आथी ते पमेलो विसु जोइ तेमना मनमां स्फुरी आव्युं के, " आ निदा छर्दित नामना दोषधी दूषित डे, तेथी आ निदा मारे करपे नहीं." आधुं विचारी ते महात्मा ते निदा ग्रहण कर्या वगर ते घरमांथी बाहेर नीकळी गया. चतुर मंत्री वार्त्तक के जे घरना दीवानखानामां बेगे हतो, तेणे मुनिने निदा सीधा वगर पाग जतां जोयां. ते जोतांज ते मनमां चिंतववा लाग्यो के, आ मुनिए मारा घरनी निका केम लीधी नहीं ? जेवामां तेणे आ प्रमाणे जोयुं, त्यां प्रांगणामां घी साथे मिश्रित खांमनो बिउ जोवामां आव्यो. ते उपर मांखीओ एकठी थइ. ते मांखीओने लक्षण करवाने गरोळी दोमी. ते गरोळीन नक्षण करवा जंदर दोड्यो. चंदरने मारवा माटे बीलामी दोमी आवी. बोलामीने हणवा माटे पेला आवेला मीजमाननो कुतरो दोड्यो. तेने मारवाने आमोशी पामोशीना कूतरा दोड्या. ते कुतराोने परस्पर समाइ थइ एटले पोतपोताना कूतराअोने वारवाने ते मीजमानना अने आमोशी पामोशीना तथा मंत्रीना सेवको दोमी आव्या. पोतपोताना कूतरानो पन करतां तेमनी वच्चे परस्पर समाइ सळगी नगी. पठी वार्त्तक मंत्रीए ए सर्वना युछने शांत करी दीधुं. पठी तेणे पोताना मनमां विचार्यु के, “ एक घी खांमनो बिंदु नूमि उपर पवाथी आटली वधी मारामारी थइ पमी, तेथीज ते महा मुनिए “आ दूषित निदा ग्रहण करी नहीं. ते महात्माए विचार्यु हशे के जो हुं आ दूषित निदा लाश Jain Education Interational Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. तो मने मोटा पापनो नाग लागी जशे. कारणके, आमांथी पापनो प्रसंग उत्पन्न या विना रहेशे नहीं. " आ प्रमाणे विचार करी दूषित निदा ग्रहण करी नहि. ते पठी वार्त्तक मंत्रीए नीचे प्रमाणे जैन धर्मनी प्रशंसा करी हती. ... “अहो ! नगवान् जिनेश्वरनो सुदृष्टिवाळो धर्म केवो के ? वीतराग जगवान् विना आवो पापरहित धर्मनो उपदेश देवाने कोण समर्थ डे ? माटे मारे पण हवे वीतराग अनुना धर्मने त्रिकरण शुचिथी सेववो. ए वीतराग जगवान्ज मारे सेववा योग्य जे. अने तेमणे कहेली क्रियाज पाळवी नचित जे." या प्रमाणे चिंतवी ते मंत्री आ संसार उपरथी विमुख थइ गयो. तेनामा शुन ध्याननो योग प्रगट थयो. तत्काल तेने जातिस्मरण शान थइ आव्युं. ते वखते देवताओए तेने मुनिवेश अर्पण कर्यो. परी मंत्री वार्त्तके गृहनो त्याग करी शुष अनगार था बीजे स्यले विहार कर्यो. अनुक्रमे चिरकाल संयम पाळतां तेने के वलज्ञान प्राप्त थयु. पड़ी ते वार्त्तक नगरने विषेज देह त्याग करी ते मोके गयो. ते मंत्रीनो सुबुछि नामे पुत्र हतो. पिताना स्नेहे करीने तेनुं हृदय पुरा गयु. पठी ते पितृवत्सल पुत्र एकरमणीय देरासर करावी तेमां रजोहरण तथा मुहपत्तीरुप परिग्रहने धरनारी पितानी प्रतिमा रचावी स्थापित करी अने तेनी पासे एक दानशाळा उघामी. आ सार्मिक चैत्य कहेवाय जे. ए रीते चैत्यना पांच नेद कहेला . - उपर कहेला चैत्यना नेदोमां नक्तिकृत वगेरे चार प्रकारना चैत्योनी अंदर कृत्रिमपणुं छे, तेथी तेमां न्यूनाधिक नावनो संभव होय जे, माटे तेमनी संख्यानो नियम नथी एटले जे कत्रिम जिनन्नुवन डे, तेने श्रावको नक्तिने अर्थे करेजे. ते अशाश्वता जिनन्नुवन कहेवाय छे. ते जिननुवनो कांक वधारे अने कांक अोडा होय , तेथी तेमनी संख्यानो नियम हो शकतो नथी. अने जे शाश्वता जिन चैत्यो , तेमनुं नित्यपणुंडे, माटे तेमनी संख्या हो शके ने ते कारण माटे आ त्रिनुवनने विषे शाश्वत जिन संबंधी देवकुळना बिंबोनी संख्या चैत्यवंदननी अंतर्गत रहेन 'कम्मभूमि' इत्यादि गाथाने अनुसारे कहेवामां आवे ने ते गाथा नीचे प्रमाणे जे. Jain Education Intemational Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. सत्ताणवर सदस्सा सरकाबपन्न अकोडियो । चसय छायासिया तिलुके चश्ए वंदे ॥ १ ॥ वंदे नवको मिस पणवीस को मितेन्ना । अठ्ठावीस सहस्सा चनस्य श्रट्टासियापमिमा " ॥ २ ॥ ३७ क्रोम, उप्पन्नलाख, सत्तालुहजार, चारसोने बयाशी, एटला जिन चैत्यत्र लोकने विषे छे तेमने हुं नमस्कार करूँ बुं. तथा नवसो पचवीश क्रोम त्रेपनलाख, ठयावीश हजार, चारसो व्यासी एटला जिनबिंब त्रलोकने विषे बे, तेमने हुं नमस्कार करुं. ear भुवनने विषे कहेला प्रमाणनी शाश्वत जिनभुवन तथा जिनबिंबोनी जे संख्या बे, ते कहे बे. तेमां अधोलोक पाताळने विषे दक्षिण अने - त्तर दिशाना विजागे रहेला जुवनपतिना दश निकायने विषे सर्व संख्या सातको टीने बोतेरलाख, जुवनो छे. ते दरेक जुवनने विषे एक एक चैत्यनो सद्भाव होने शाश्वत जनचैत्यो पण तेटलाज बे ते चैत्याने विषे रहेला जिनबिंबोन) सर्व संख्या आठसोने तेत्रीकोटी, अने बोंतेर लाखनी बे. ते दरेक चैत्यने विषे एकसोने व जनप्रतिमानो सद्भाव होइने उपर प्रमाणे जिनबिंबो बे. ca dar लोकने विषे अने पांच मेरुने विषे पंचाशी चैत्यो केवी रीते ? ते कहे . ते प्रत्येक मेरुमां चार चार वन बे. ते दरके वनने विषे चारे दि शाए चार चार चैत्यो बे. ते दरेक मेरुने एक एक चूलिका बे, ते उपर एकेक चैत्य एम एकएक मेरुने विषे सत्तर सत्तर चैत्य बे, एटले ते पांचे मेरुनां सर्व मळीने पंचाशी चैत्यो थाय बे. तथा ते दरेक मेरुनी विदिशामां चार चार गजदंता पर्वत मळी वीश गजदंता पर्वतो बे. अने तेनी उपर वीश चैत्यो तया पांच पांच देवकुरु उत्तरकुरुने विषे वेला जंबू शाल्मलि प्रमुख दश होनी अंदर दश त्यो बे. प्रत्येक महाविदेहने विषे शोळ शोळनो सद्भाव होवाथी ऐंशी वरखारा पर्वतो बे. ते उपर ऐंशी चैत्यो बे, तथा दरेक महाविदेह मत्ये वत्रीश वत्रीश १. आ प्रमाणे खरतर गच्छवाळा माने छे; तपगच्छादिक तो प्रतिक्रमण सूत्रमां छपायेल गाथा प्रमाणे माने छे. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. अने जरत औरवतमा एक एकनो सदनाव होवाथी चोत्रीश विजयो थाय अने तेमां पांच भरत, पांच औरवत अने महाविदेहना एकसो साठ एम कुल मळी एकसो सीतेर विजय थाय . ते प्रत्येकमां एक एक दीर्घ वैताढय पर्वत के ते दरेक पर्वत उपर एक एक चैत्य होवाथ। एकसोने सीत्तेर चैत्य जे. जबुधीपमां उ अने धातकीखंम तथा पुष्कराफने विषेबार बार थइने त्रीश कुलगिरि पर्वतोछे, तेमनी उपर त्रीश चैत्यो . धातकीखंड अने पुष्कराई बनेमां बे बे क्षुकार पर्वतोमां चार चैत्यो जे. अढीकीपनी मर्यादा करनार समयक्षेत्ररुप मानुषोचर पर्वतने विषे चार दिशाओमां चार चैत्यो . तथा आउमा नंदीश्वर कीपमां बावन चैत्यो ने ते प्रमाणे-पूर्व दिशाए आवेला नंदीश्वरना मध्य नागे अंजनना जेवा वर्णवाळा अंजनगिरि ने. तेनी चार दिशाए चार वाव्यो छे, ते वाव्योना मध्यभागे श्वेतवर्णनाचार दधिमुख पर्वतो .चार विदिशामां बबेनो सद्नाव होवाथी रक्तवर्णना आप रतिकर पर्वतो छ. ते आठ, चार अने एक एम मळीने पूर्व दिशाए तेर पर्वतो थया, ते तेर पर्वतो उपर तेर चैत्यो . तेवी रीते पश्चिम, दक्षिण अने उत्तर-ए त्रणे दिशाए कहेला नाम प्रमाणे तेर तेर पर्वतो छे, एम चारे दिशाओ मन्त्री बावन पर्वतो थया. ते दरेक पर्वत उपर एकेक चैत्य होवाथी बावन चैत्यो थाय . अगीआरमा कुंमलद्वीपने विषे चार दिशाआमां चार अने तेरमा रुचककीपने विषे चार दिशाओमां चार चैत्यो रहेला बे; एम सर्वनी संकलनाए करी तिरग लोकमां चारसोने त्रेशन चैत्यो थायछ; ते चैत्योनी अंदर पचास हजारने चार जिनबिंबो छ; अहीं पण दरेक चैत्यने विषे एकसो आठ बिंबो रहेला . हवे ऊर्ध्व लाकने विर्षे सुधर्मा देवनाकथी आरंजीने पांच अनुत्तर विमान सुधी चोराशी लाख, सत्ताणु हजार अने त्रेवीश विमान . ते दरेक वि. माने एक चैत्यनो सदनाव होवाथी चैत्यो पण तेटलाज जे. ते सर्व चैत्योमा मळी एकाj क्रोम, डोंतेर लाख, अठ्योतेर हजार, चारसोने चोराशी जिनपिंबो डे. कारण के दरेक चैत्ये एकसा आठ जिनबियोना सदनाव होवाथी तेमनी संख्या तेटलीज थाय ने. ए प्रमाणे त्रण मोकने विषे रहना शाश्वत जैन चैत्योनी अने जिनवि Jain Education Interational Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश ४१ बोनी संख्या मेळववाने माटे “ सत्ताण वईसहस्सा" इत्यादि वे गाथाओ कहेली ने अने ते उपरथी सर्व संख्या प्राप्त कराय जे. अहींा चैत्यो अने जिनबिंबोना अविसंवादी स्थानोने आश्रीने आ संख्या देखामी जे. केटलाएक - चार्य विसंवादि स्थानोने आश्रीने आंतरारहित कहेली संख्यानी अपेक्षाए चैत्य अने बिंबोनी संख्या वधारे प्रतिपादन करे . ते विषे संघाचार नामनी चैत्यवंदन नाष्यनी टीकाने विषे नीचे प्रमाणे कयुं . " सगकोमिलक बिसयरि, अहो य तिरिए उतिसपणसयरा । चुत सिलखा सग नवई, सहसतेविसुवरिखोए ॥ १ ॥ तेरस कोमि सया कोमिगुण नव सहिलक अहदोए । तिरिए तिलक तेणव सहस्सपमिमाउसयचत्ता ॥ ३ ॥ बावन्न कोमिसय चनणव सकसहस चनयाल । सत्तसयासटिजुआ सासयपमिमान वरिलोए ॥ ३ ॥ अधोलोकने विषे सात क्रोम अने बोहोतेर लाख चैत्यो .. तिरगलोकमां प्रत्येक नवने एक एक चैत्यनो सद्भाव होवाथी बत्रीशोने पंचोतेर चैत्यो . ते चैत्योने विस्तार पूर्वक कहे . पांचमेरु, वीश गजदंता पर्वतो, जंबू शामली प्रमुख दश वृदो, एंशी वखारा पर्वतो, एकसों सीतेर दीर्ध वैताढय पर्वतो, त्रीश कुलगिरि पर्वतो, चार इषुकार पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, नंदीश्वर छीप, कुंमाघीप, अने रुचकछीपने विषे अविसंवादी स्थानोमां चारशो ने वेशन चैत्यो जे पूर्वे कहेला ले, ते जाणवा. बाकी रहेल चैत्योनी संख्या विसंवादी स्थानने विषे , ते आ प्रमाणे-पांचमेरुनी अपेक्षाए पांच नषशान वनने विषे आठ आठ करिकूट ( हाथीना आकारना ) पर्वतो . ते दरेक पर्वत ऊपर एक एक चैत्य होइ बधा मनी चालिश चैत्यो आवेला . गंगा सिंधु वगेरे नदीओना प्रपात कुंमो त्रणसो ने एंशी , ते दरेकमां एक एक चैत्य होवाथी त्रणसोने एंशी चैत्यो त्यां रहेला . एंशी पद्मजह . तेमांपण एंशी चैत्यो पांच देवकुरु अने पांच उत्तरकुरुने विषे दश चैत्यो, हजार कांचनगिरिओने विष हजार चैय, अने वीश यमनगिरिमां वीश चैत्यो सीतेर गंगादि महा नदीअोमां सीतेर चैत्यो : वीश वृत वैतान्योने Jain Education Interational Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. विषे वीश चैत्यो . जंबू, शामली, प्रमुख, मूल दश वृक्षोने विषे जे दश चैत्यो बे, ते पूर्वे कहेल अविसंवादी चैत्योनी गणनामां ग्रहण करेला ; पण तेना परिवार नूत एवा अगीयारसो अने साउनी संख्यावाळा लघु जंबू आदी वृक्षो जे, तेश्रोमां चैत्योनी संख्या तेटली ज डे ; ते आ स्थले ग्रहण करवा. .... वनी बत्रीश राजधानीओने विषे बत्रीश चैत्यो जे. एथी विसंवादी स्थानना सर्व चैत्योनी संख्या बे हजार, आठसो अने वारनी थाय जे. एवी रीते अविसंवादी तथा विसंवादी बने स्थानोना सर्व चैत्योनी संख्या मेळवतां कुल मळीने बत्रीशोने पंचोतेर चैत्यो थाय छे. अने नवं लोकने .विषे चोराशी लाख, सत्ताएं हजार अने त्रेवीश चैत्योनी संख्या बे. ते संख्या प्रत्येक विमाने एकेक चैत्यना सदनावथी थाय . ए प्रथम गाथानो अर्थ थयो. बाकीनी बे गाथा वो ते कहेला चैत्योने विषे अनुक्रमे जिन बिंबोनी संख्या दर्शावे . अधो लोकने विषे तेरसोने नेवाशी क्रोम अने साठ लाख प्रतिमाओ जे. तेटली संख्या दरेक चैत्ये एकसो एंशी जिनबिंबना सदनावी थाय जे. तिरग लोकमां त्रण लाख, त्राणुं हजार, बशो अने चालीश जिन बिंबो जे, ते आ प्रमाणे-नंदीश्वर, रुचक अने कुंमल छीपने विष रहेला साउ चैत्योमा प्रत्येकने विषे एकसो चोवीश बिंबोना सदनावथी अने बाकीना स्थानने विष रहेला सत्यावीशसो अने बावन चैत्योनी अंदर एकसो वीश बिंबोना सदनावी-उपर कहेली संख्या थाय जे. __तथा ऊपरना लोकमां एकसो बावन क्रोम, चोराणुं लाख, चुमालीश हजार सातसो अने साठ शाश्वत प्रतिमाओ जे. बार देवलोकने विषे रहेला चैत्योनी अंदर प्रत्येके एकसो एशी बिंबोनो स्वीकार होवाथी तेमज नवग्रैवेयक तथा पांच अनुत्तर विमानने विष रहेला चैत्योनी अंदर प्रत्येके एकसो वीश जिनबिंबो होवाथी ऊपर कहेली संख्या थाय . ए बीजी गाथानो अर्थ जाणवो. सर्व चैत्योना जिनबिंबोनी संख्या केटली ने ? तेने माटे नीचेनी वे गाथा कहेली . “ सव्वेवि अहकोमिलस्का सगवन्न उसयअमनना । तिहुअण चेश्य वंदे असंखदहि दीवजोश्वणे ॥१॥ Jain Education Intemational Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. ४३ पनरसकोमिसयाई कोमि बायान लकअडवन्ना। अमतीससहसवंदे सासयजिण पमिमतियसोए ॥२॥ आ गाथानो अर्थ सुगम , मात्र तेमां एटलोज विशेष छे के, समुघ वीप ज्योतिषीना विमानो, अने व्यंतर देवोना नगरो असंख्याता , तेमने विषे रहेला असंख्याता चैत्योने हुं वंदन करुं बु. अहिं प्रथम करिकूटादि पर्वतोने जे विसंवादी स्थानपणुं कर्तुं छे, ते जंबूधीप प्रज्ञप्ति विगेरे ग्रंथोमां ते स्थानोने विषे चैत्योने कहेला नथी, तेथी कहेल . वली तेने अनुसरती क्षेत्रसमासनी गाथा आ प्रमाणे जे “ करिकुमदहन कुरुकंचणजमतसम वियढेसु । जिणलवण विसंवाओ जोतं जाणंति गियत्था ॥१॥ पूर्वे जे दरेक चैत्य प्रत्ये एकसो साउ जिन बिंबोनी संख्या ग्रहण करेली जे, ते बधी पन्नत्तिने अनुसारेज . तथा वैताढ्यने विषे रहेला सिचायतनकूटना अधिकार विषे नीचे प्रमाणे सूत्र - ___एत्थणं महं एगे सिखाययणे पन्नत्ते कोसं आयामेणं अधकोसं विख्नेणं देसूर्ण कोसं नव उच्चत्तेणं अहगई धणु सयाई विखंनेणं तावंतियं चेव पवेसेणं सेयावर कणगथून्नियागा दारवालोजाववणमाणा तस्सणं सिहायतणस्स बहुसमरमणिजस्स भूमिनागस्स बहु मज्झादेसनागे एत्यणं महंएगे देवच्छंदे पन्नत्ते इत्यादि । आ पाउमा एकसो आठ आठ प्रतिमा कहेली ने अने ते पठी ते जिन प्रतिमानो परिवार कहेल ले. एरीते जंबूछीपने विषे रहना सर्व चैत्योने विषे प्रत्येक तेमा एकसो आठ जिन प्रतिमा जे. ते छठा ऊपांगमां कहेल के तेने अनुसारे त्रण लोकना सर्व चैत्योने विवे प्रत्येक चैत्ये एकसो आउ जिन प्रतिमा जाणी लेवी. एज कार Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ श्री आत्मप्रबोध. थी ' कम्मनूमि' इत्यादि स्तोत्रने विषे पण एज प्रमाणे संख्या प्रतिपादन करेली , तेथी सद्बुकिवालाओए विचार करवो अने जैनागम सर्व प्रमाण जूत मानवो. अहिं कोई प्रश्न करे के, " तमोए ए प्रकारे चैत्योनी अने जिन बिंबोनी संख्या प्रतिपादन करी पण जो चैत्यादिकनी संख्या अधिक हशे, तो परी तेनी अोछी संख्या कडेवामां मोटो दोष उत्पन्न थशे. " आ प्रश्ननो उत्तर आपे -" तमे जे शंका करी ते सत्य , पण ते कारणने खाने स्तोत्रने अंते त्रिलोकवत्ती सर्व शाश्वता तथा प्रशाश्वता जिन चैत्यादिकने नमस्कारनुं प्रतिपादन करनारी 'जं किंचि नाम तिथं' इत्यादि गाथा कहेली , माटे तेमां ऊपरनो दोष उत्पन्न थशे नहीं. अने तत्त्वथी तो तेनो निर्णय केवली अथवा बहु श्रुत जाणे. विवाद करवामां कांय पण सिकि थती नथी. सम्यग् दृष्टिोने तो “ तमेव सचं निस्संकं जं जिणेहिं पवेश्यं " आ वाक्यज ग्रहण करवा योग्य जे. ते विष हवे बहु विस्तार करवानी जरुर नथी. हवे अविसंवादी तथा विसंवादि बने स्थानकने आश्रीने त्रिजुवनने विषे रहेला शाश्वत जिनचैत्योनुं प्रमाण दर्शावे , बार देवलोक, नव ग्रैवेयक, पांच अनुत्तर अने नंदीश्वर, कुंमत तथा रुचक नामना छीपोने विषे रहेला जिन चैत्यो बोतेर योजन ऊंचा एकसो योजन लांबा अने पचास योजन पोहोळा छे. कुलगिरि, देवकुरु, उत्तर कुरु, मेरुवन, गजदंतपर्वत, वखारा पर्वत, इषुकार पर्वत, मानुषोत्तर अने असुरकुमारादि दश निकायने विषे रहेला चैत्यो बत्रीश योजन ऊंचा, पचाश योजन लांबा अने पचाश योजन पोहोला छे. दीर्ध वैताढ्य, मेरुनी चूलिका, कांचनगिरि, महा नदीओ, कुमो, जंबू प्रमुख तो, वैताढय, अहो, यमल पर्वतो, अने करिकूट गिरिओने विषे रहता चैत्यो चौदशे चुंमातीश धनुष ऊंचा, एक गाऊ लांबा अने अर्ध गाऊ पोहोला छे, राजधानी, व्यंतर देवताना नगरो, अने ज्योतिष्क विमानाने विषे रहना चैत्यो नव योजन ऊंचा, सामाबार योजन लांबा अने सवाउ योजन पोहोला ने. इत्यादि सर्व सद्बुफिवंत पुरुषोए विचारी ले. Jain Education Interational Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. जे नंदीश्वर, रुचक अने कुंमल ए त्रण कीपोने स्थाने रहेला साठ चैत्योने चार चार घार छे अने ते शिवायना सर्व शाश्वत चैत्योने त्रण त्रण घार . वली शाश्वत जिन चैत्योमा रहेला जिन विबो ऋषनानन, चंजानन, वारिषेण अने वर्षमान एवा चार नामे ओलखाय जे. अने ते आगमने विषे प्रतिपादन करेल . एवी रीते शाश्वत जिनचैत्य संबंधी वक्तव्यता कही अने नक्तिकृत विगेरे अशाश्वत जिनचैत्योना गुणदोषनुं वर्णन करे. कपाल, नासिका, मुख, ग्रीवा, हृदय, नानि, गुह्य, साथळ, जानु, पीझी अने चरण प्रमुख अगीयार अंगोमां जे प्रतिमा वास्तुकादि ग्रंयने विषे कहेना प्रमाणवाळी होय, नेत्र, कान, खांध, हाथ अने अंगुलि आदि सर्व अवयवोवमे अदूषित होय, समचारस संस्थाने रहेन पर्यकासने युक्त होय, कायोत्सर्गे करी विराजित होय, सर्वांगे सुंदर होय अने विधिवमे चैत्यादिकमां प्रतिष्ठित कर होय, तेवी प्रतिमा पूजवाथी सर्व नवी पाणीओने ते मन वांडित आपना। थाय . उपर कहेबां बक्षणोथी रहित एवी जिनपतिमा अशुन अर्थनी सूचक होवाथी अपूज्य ले. जे प्रतिमा उपर कहेला लक्षणोयी युक्त होय, पण जो सो वर्ष अगान को प्रकारे अवयवोथ। दूषित थ होय तो ते पण अपूज्य गणाय . पण जो उत्तम पुरूषे विधिपूर्वक चैत्यादिकने विषे प्रतिष्टित करेली होय अने ते सो वर्ष पछी अंगथी विकल थ गइ होय तो तेने पूजवामां बीलकुन दोष नथी तेने माटे शास्त्रमा नीचे प्रमाणे कहेलु डे के " वरससयाओ नटुं जं बिंब उत्तमेहिं संगवियं । वियत्रंगविपूजाइ तं बिंबं निकलंन जो ॥१॥ अहिं एटलो विशेष डे के, मुख, नेत्र, मोक अने कटी नाग आदि प्रदेशने विषे खंमित थयेक्ष मूलनायक बिंब सर्वथा पूजवाने अयोग्य जे. अने आधार, परिकर अने लांबनादिक प्रदेशे करीने खंमित होय तो ते पूजनिक . जेम धातु तया लेप आदिना बिंबो विकत अंग थवाथी फरीथी समाराय ने, तेम पाषाण, काष्ट तथा रत्नमय बिंब खंडित थवाथी फरीथी सज्ज करी शकाता नथी. Jain Education Intemational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मबोध. ते बळी अतिशय गवाळी, हीन अंगवाळी, कृशोदरी, वृकोदरी, कृश हृदयवाळी, नेत्रादिकथी होन, उंची दृष्टिवाळी, नीची दृष्टिवाळी, धोमुखवाळी ने जयंकर मुखवाळी प्रतिमा देखनारने शांत जाव नहीं उत्पन्न करना। तेमस्वामीनो नाश, राजादिकनो जय, अव्यनो नाश, अने शोक-संताप आदि अशुजने सूचवनारी होवाथी ते सज्जन पुरुषोने पूजनीय कहेली बे. अने यथोक्त उचित अंगने धरना ने शांत दृष्टिवासी जिनप्रतिमा सद्भावने उत्पन्न करना। तथा शांति ने सौभाग्यनी वृद्धि करवा प्रमुख शुन ने आपनारी होवा - थी सदा पूजनीय कडेली छे. ४६ गृहस्थोए पोताना घरने विषे केवी प्रतिमा पूजवी जोइए ? गृहस्थ पोताना घरने विषे केवी प्रतिमा पूजवी जोइए ? तेनुं स्वरूप दर्शावे . पूर्वे दर्शावेला दोषथी रहित, एकथी लइने अगीयार आंगळ सुधीना मानवाळी, परिकर सहित - एटले अष्ट प्रातिहार्य सहित, सुवर्ण, रुपं, रत्न अने पीतलादि धातुमने सर्व अंगे सुंदर, एवी जिन प्रतिमा गृहस्थे पोताना घरने विषे स्थापी सेवा योग्य छे. परिकर विनानी उपर कहेला मानथी रहित, पाषाण, लेप, दांत, काष्ट, लोह ने चित्रमां आलेली जिनमतिमा गृहस्थने पोताना घरने विषे पूजनिक नयी श्रेटले पूजवी न जोइए तेने माटे शास्त्रमां कबे के, - " समयावलि सूताओ लेवोबल कदंतलो दाणं । परिवारमाणरदियं घरंमि नहु पूयए बिंबं ॥ १ ॥ ते घर देराशरनी प्रतिमानी आगळ बलिबाकुलनो बहु विस्तार न करवो; पण जावथीज निरंतर न्हावण करवुं ने त्रिकाल पूजा करवी. - गीयार यांगळी अधिक प्रमाणबाली जिनप्रतिमा घरने विषे पूजवी नहीं. तेव प्रतिमा तो देराशरने : विषेज पूजवा योग्य बे. तेमज अगीयार आंगळथी हीन प्रमाणवाली प्रतिमा मोटा देराशरमां स्थापत्री नहीं, ए पण विवेक राखवो. विधिपूर्वक जिनबिंबना करनार तथा करावनारने सर्वकाल समृद्धिनी Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. ४७ वृद्धि थाय छे. दारि, दुर्भाग्य, नारुं शरीर, दुर्गति, हीनबुद्धि, अपमान, रोग ने शोक वगेरे दोषो कोइकाले पण थता नथी. हिंजिनचैत्यना अधिकारमा घणी बाबत कहेवानी बे, पण ते विषे श्री चार दिनकर प्रमुख ग्रंथोथी जाणी लेवुं. ए प्रकारे पांच प्रकारना चैत्यो - नी वक्तव्यता कहेवामां आवी, हवे तेना विनयनुं स्वरुप कहे . चैत्य विनयनुं स्वरूप. द्वित्रिपंचाष्टादिनेदैः प्रोक्ता भक्तिरनेकधा । द्विविधा द्रव्यन्नावाभ्यां त्रिविधांगादिनेदतः ॥ १ ॥ पूर्वे विनय, जक्ति, बहुमान वगेरे जे कहेला बे, तेना प्रकार कहे बे. क्ति, त्र, पांच ने वगेरे दोथी अनेक प्रकारनी छे. तेमां अव्य aar वे प्रकारनी बे. अने अंग, अ ने नाव - एम ऋण प्रकारनी . मां जल, विलेपन, पुष्प ने आरण वगेरेथे । जे अंग पूजा थाय बे, ते बतावे . दुःखे करने प्राप्त थयेला सम्यक्त्व रत्नने स्थिर करवानी इच्छावाला विवेकी पुरुषे पोते प्रथम पवित्र थइ, बादर जीवनी यतनादिकने माटे शुद्ध वस्त्र पेढे | जिनालयमां जवं. त्यां श्री जिनेश्वर समान मुझाए युक्त, एवा श्री जिनबिंबने मार्जन करी, कपूर, पुष्प, केशर, तथा साकर प्रमुखथी मिश्रित सुगंधी जलव स्नात्र कर. ते पनी कपूर, केशर, अने चंदन आदि इव्योथी विलेपन कर, ते पी पुष्प पूजा करवी. जन्य प्राणीए सामान्य पुष्पोथी प्रभु पूजा न करवी. तेने माटे नीचे प्रमाणे कहेलं बे "" न शुष्कैः पूजये देवं कुसुमैर्न महीगतैः । न विशीर्ण फलस्पृष्टैर्नाशुनैर्ना विकासिभिः ॥ ॥ १ ॥” सुकाइ गयेला, पृथ्वीपर पमेला, समीने विशीर्ण थयेला, फलोथी स्पविकास नहीं पामेला पुष्पोथी जिनेश्वरनी पूजा करवी र्शाला, नहीं. १ " पूतिगंधान्यगंधानि आम्लगंधानि वर्जयेत् । कीटकोशापविद्धानि जीर्ण पर्युषिता निच ॥ २ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. नगरा गंधवाला, सुगंध वगरना, खाटा गंधवाला, कीमाए वींधेला, जुना अने वासी पुष्पोथी पूजा करवी नहीं. २ हस्ता प्रस्खलितं कितौ निपतितं लग्नं कचित्पादयो र्यन्मूर्योर्ध्वगतं धृतं कुवसनैर्नालेरधो यद् धृतम् । स्पष्टं दुष्टजनैर्धनरनिहितं यद् दूषितं कीटकैः त्याज्यं तत्कुसुमं ददं फल मथो नक्तैर्जिनप्रीतये ॥३॥ हाथथी पमीगये, पृथ्वीपर पमेनुं, पगमा कोइ काणे अमके, मस्तक उपर चमेलु, नगरा वस्त्रोमां लीधेचं, नाजिनी नीचे राखेवू, पुष्ट लोकोए स्पर्शेलं, धनथी हणाएलं, अने कीमाओए दषित करेलं एवं पुष्प, पत्र अने फल जिनेश्वरनी प्रीतिने माटे नक्तोए त्यजी देवू. ३ उपर कहेला दूषित पुष्पोवझे प्रनुनी पूजा करवाथी माणस नीचपणाने पामे जे. तेने माटे कयु डे के, " पूजां कुर्वन्नंगलग्नैर्धरामा पतितः पुनः। यः करोत्यर्चनं पुष्पै रुच्छिष्टः सोऽनिजायते ॥ १॥" अंग उपर बागेला अने पृथ्वीपर पहोगयेला पुष्पोथी जे पुरुष पूजा करे , ते पुरुष नच्छिष्ट थइ जाय जे. एटले नीचपणाने पामे . ? ___ ए कारण माटे उपर कहेला दोषथी वर्जित एवा पुष्पोवमे जिनपूजा करवी. तेवा उत्तम प्रकारना पुष्पोनी पूजाना प्रजावधी जव्य प्राणीना घरने विघे धनसारनी पेठे सर्व सुखवाली समृधिनी वृधि वगेरे प्रगट थाय ने. अने दारिज, शोक, अने संताप आदि पापना उदय दूर था जाय . आ प्रमाणे आ लोकमां फल मोडे अने परलोकमां देव लोकना तथा मोक्षना सुखनी प्राप्ति थाय . पुष्प पूजा विषे धनसारनी कथा. कुसुमपुर नामन नगरने विषे धनसार शेठ रहेतो हतो. ते हमेशा त्रिकाल जिनपूजा वगेरे कार्यो करवामां तत्पर हतो. एक वखते अर्धरात्रे ते धनसार Jain Education Intemational Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश पए शेठना मनमां आ प्रमाणे विचार थयो-" में पूर्वनवे सारा काम करेला हशे, तेथी आ नवमां ते शुज कर्मना बलथी मने आ वृधि पामती समृद्धि प्राप्त थर २. हवे जो हुं आ जवने विषे कां शुज कार्यनी क्रियानुं सेवन करुं तो हुँ पाजो आगामी नवे समृधिना सुखने प्राप्त करनारो था. वली जे आ समृद्धि देखाय , ते पण हाथीना कर्णनी जेम चंचल , माटे आ प्राप्त थयेनी लक्ष्मीने सफल करवाने अने परलोकमां सुख पामवाने अर्थ हुँ एक जिन प्रासाद करावीश, कारण के, शास्त्रने विषे श्री जिनप्रासाद कराववानुं महा फल कहेढुं ३. अने तेथी मोटा पुण्यनी प्राप्ति दर्शावी जे. तेथी प्रथम एज कार्य करी मने प्राप्त थयेन आ मनुष्यनव वगेरेनी सर्व सामग्री मारे सफर करवी - चित जे." आ प्रमाणे चितवन करता धनसार शेउने बाकीनी सर्व रात्रि व्यतिक्रातथइ गइ. ज्यारे प्रनात समय थयो एटले ते धनसारे न्यायथी उपार्जन करेनी पोतानी लक्ष्मीवझे बावन जिनालयवाळु एक जिनमंदिर करावानो आरंज कर्यो. आ कार्यमा प्रतिदिन घणां व्यनो खर्च थवाथी तेना पुत्रे पोताना पिता धनसारने पूज्यु.-" पिताजी, सर्व व्यने नाश करनारं आ वृथा काम केम आरंन्यु डे ? आ काम मने बोलकुल रुचतुं नथी. आ अव्यथी नवा घर, अने नवीन आजूषणो कराव्या होय तो वधारे सारं. कारण के, घर अने आजूषण वगरे को कालांतरे काम आवे . " पुत्रनां आ वचनो शेठ धनसारे जाणे सांजळ्या नहोय तेम काढी नाख्या. तेणे ते उपर बीलकुल ध्यान प्राप्यु नहीं. धनसार शेठे तो नदास सहित चमता परिणामे करी अव्यनो जारे व्यय करी ते जिनालयने पूर्ण कराव्यु, ज्यारे चैत्य पूर्ण थयु, त्यारे को पूर्वना अंतराय कमना उदयथी तेना घरमा रहेना सर्व प्रन्यनो नाश थइ गयो. आ वखते तेनो पुत्र अने बीजा मिथ्यात्वी लोको बोलवा लाग्या के " धनसार शेरे जिनालय कराव्युं, तेथी तेना सर्व व्यनो नाश थइ गयो." ते लोको आम बोलता तोपण जेनुं चित्त जैन धर्मने विष दृढ ने एवो धनसार शेठ पोताना अव्यना प्रमाणमां थोडं थोमु पुण्य कर्या करतो हतो. एक वखते धर्मगुरु नगवान् ते नगरमां पधार्या. धनसार सेमने वंदना क Jain Education Intemational Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ve श्री आत्मबोध. 66 46 रवाने गयो, गुरुए ए धर्मी शेठने पुछ्युं, ' केम तमारे सुखशाता बे ? ' त्यारे शेठे कर्छु, “ जगवन्, तमारी कृपार्थी सुखज बे, पण धर्मना निंदक लोको बोले बे के, “ जिनालय कराववाथी या धनसार शेठनुं सर्व व्य नाश पामी गयुं. " धर्मनी निंदा सांजळी मारा मनने चिंता थाय बे. मारुं प्रव्य नष्ट थयुं, तेनी चिंता मने बीलकुल नयी पण धर्मनी निंदा थवाथी मने जारे खेद थायछे. अव्यने माटे तो हुं समजुं हुं के, शुभ कर्मना उदयथी अन्य बहु वार आवे उत्तम अंतराय कर्मना दययी नाश पामे बे. हे स्वामी, आप ज्ञानना बलवी अने मने कहो के “ आ जवने विषे मारुं अंतराय कर्म त्रुटशे के नहीं ?" धनसार शेठना या वचनो सांजळी ते गुरु संतुष्ट थ‍ गयो, अने तेमाणे पोताना ज्ञानना बलथी धनसार शेठना अशुभ कर्मनो नाश ने शुभ कर्मनो उदय जाणी बी. पी धर्मनी उन्नति करवाने माटे गुरुए ते धनसार शेवने सर्व मंत्रोमां श्रेष्ठ ने महामंगल रूप नवकार मंत्र साधन विधि सहित प्यो. धनसार शेठ ते मंत्रने विधि सहित जाली जिनालयमां जइ मूलनायक प्रभुनी आगळ रही अष्टम चरवा पूर्वक ते महा मंत्रनो जप करवा लाग्यो. ज्यारे ए तपना पारणानो दिवस आव्यो एटले ते दिवसे एक अखंमित yoपोनी माला श्री जिनेश्वरना कंठमां स्थापी जेवामां प्रजुनी स्तुति करवा प्रवत्यौ, तेवामां नाग कुमार देवतानो इंड धरणें संतुष्ट थइ ते शेवनी आगळ प्रगट थयो. ने बोढ्यो, “ धनसार शेठ, तमारी जक्तिथी हुं संतुष्ट थयो बुं. जे इच्छा होय ते मागी लो. धनसार शेठे प्रजुनी स्तुति पूर्ण करीने कां, “देव, जो तमे मारी पर संतुष्ट थया हो तो, आ प्रभुना कंठमां आरोपण करेली पुष्पमाला व जे पुण्य प्राप्त थयुं होय, तेनुं फल मने पो. " धरणे कां, “शेठ, ते अर्पण करेली पुष्मालाना पुण्यनुं फल आपवाने हुं समर्थ नथी. चोसन इंडो पण तेनुं फल प्रापवाने शक्तिमान् नथी, माटे बीजुं कांइ मागो. " शेठे कएं, “ कदि तमे बधी पुष्पमालानुं फल आपवाने असमर्थ हो तो ते मालाने विषे रहेल एकज पुष्पनुं फल आपो. " इंसे कर्छु, “ ते पण आपवाने हुं समर्थ नथी. " धनसार शेठे कर्छु, “ ज्यारे तमारामां एटलु फल आपवानी पण शक्ति नथी तो तमे तमारे स्थाने पाळा चाव्या जाओ. " धनसार शेठना ए वचन सांजळी धरणें कं, “शेजी, देवतानुं दर्शन निष्फल होय नहीं, माटे तमारा घरमां में रत्नोथी 46 46 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. ५१ नरेला सुवर्णना कलशो स्थाप्या बे. " आटलं कही धरणें अदृश्य थइ गयो. ते पी धनसार शेत्र ज्यां गुरु महाराज हता, त्यां आव्यो. अने तेमनी समक्ष ते देवेंद्र संबंधी वृत्तांत जणाव्या. पछी पोताने घेर यावी पारणुं कर्यु. पारणुं कर्या पर्छ। धनसारे जैनधर्मनी निंदा करवामां तत्पर एवा पोताना पुत्राने Mal पूर्व सर्व वृत्तांत कही संजळाव्यो अने रत्न जरित सुवर्णना कलशो बताव्या. ते पछी श्री जिनश्वरनी पुष्पनी पूजानो महिमा वर्णवी पोताना सर्व कुटुंब जैनधर्मना मार्गमां स्थिर करीने धनसार शेठ जावजीव सुधी सुखी, जोगी, दानी ने जितेंद्रिय थयो हतो. या प्रमाणे पुष्प पूजा उपर धनसार शेवनी कथा . आजरण पूजा. विवेकी पुरुषोए सुवर्णना अने रत्नोना चक्षु, श्रीवत्स, हार, कुंम्ल, बीजोरू, छत्र, मुगट अने तिलक आदि अनेक प्रकारना आजरणो के जे पोते तथा अन्य पुरुषो नागवला होय ते जिनबिंबने घटमान स्थाने आरोपित करवा, जे दमयंती वगरेए करेला हता. दमयंती के जे पूर्वनवे वीरमती नामे स्त्री हती, तेणीए अष्टापद पर्वतने विषे चोवीश जिनविवोना ललाटन विषे रत्नना faast रोपित कर्या हता. ते पुण्यना प्रजावथी ते बीजे जवे स्वानाविक तिलकीकृत ललाटवाळी अने तेनी कांतिवरे निरंतर अंधकारनो नाश करना | त्रिखमना अधिपति नळ राजानी दमयंती नामे राणी थइ हती. ते शिवाय वीजा पण घणां जव्य जोवो आजरण पूजाना मज्जावधी सुखनी - fीने पामेला छे. आ प्रमाणे पेढेली अंगपूजा कहवामां आवी. बीजी अग्र पूजा. नैवेद्य, फल, अत ने दीवा प्रमुखथी अग्र पूजा थाय बे. अहिं उत्तम प्रकारना मोदक प्रमुख खाजां ते नैवेद्य कहेवाय ते. श्रीफल बीजोरा वगेरे फल कहेवाय बे. पोताने जोग्य एवं खंग रहित अने उज्वल एवं शालिममुख धान्य विशेष ते कृत कवाय े. ते नैवेद्य, फल अने त प्रभुनी पासे मुकवा. ते साधे प्रधान यता पूर्वक समीपे श्रेष्ठ घृतनो दीपक करवो. हिं विवेकी Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ श्री आत्मप्रबोध. गृहस्थे एटलुं ध्यानमां राखवानुं के, ते मनुना दीपकवने पोतानुं गृहकार्य कांपण कर नही. जो कोइ ए दीपकवने गृहकार्य करे तो ते देवसेननी मातानी जेम तिर्यच प्रमुख योनि मां उत्पन्न याय के अने तेथी मोटा दुःखनुं नाजन या बे. ते विषे कछु बे के, - Apda दीपं विधाय देवानामग्रतः पुनरे वहि । गृह कार्यं न कर्तव्यं कृते तिर्यग् जवो जवेत् ॥ १ ॥ 46 'देवनी आगळ दीवो कर ते दीवा वमे गृहकार्य न करखं. तेम करवायी तिर्यचनो जव प्राप्त थाय छे." १ ते विषे देवसेननी मातानुं दृष्टांत. इंषपुर नामना नगरमा अजितसेन नामे राजा हतो. ते नगरमां देवसेन नामे एक शेठ रहता हतो. ते उत्तम श्रावक हतो. ते हंमेशा धर्म कार्य करी सुखे काल निर्गमन करता हता. ते नगरमां धनसेन नामे एक ऊंटने वहन करनारो पुरुष हतो. तेना घरमाथी एक कंटकी निरंतर देवसेन शेठने घेर आव्या करती हती. ऊष्ट्रवाहक धनसेन लाकमीना प्रहार करी तेलीने तामन करतो तो प एजंटम) तेना घरमा रहेती नहीं देवसेनने घेर आव्या करती हती. ते कंटकति मार तो जोड़ जनुं हृदय दयाथ आई बे, एवा देवसेन शे मूल्य पीने ते ऊंट खरीदी बीधी अने पोताने घेर राखी. एक खते धर्मा आचार्य ते नगरने विषे पधार्या. ते खबर सांजळी घणा जन्य जीवा तेमने वंदना करवाने गया. तेमनी साथे देवसेन शेठ पण गयो हतो. ते वखते ते गुरुए तेमने नीचे प्रमाणे धर्मोपदेश प्राप्यो. “धर्मो जगतः सारः सर्वसुखानां प्रधान हेतुत्वात् । तस्योत्पत्तिर्मनुजात्सारं तेनैव मानुष्यम् ॥ १ ॥ अपि लभ्यते सुराज्यं लभ्यंते पुरवराणि रम्याणि । न हि यते विशुद्धः सर्वज्ञोक्ता महाधर्मः ॥ २ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. ५३ न धम्मकज्जं परमत्थि कज्जं, न पाणि हिंसा परमं यकज्जं । न प्रेमरागा परमत्थि बंधो, न बोदिलाना परमत्थि बाजो ॥३॥ “ सर्व सुखोनुं मुख्य हेतु होवाथी धर्म या जगतमां सार रूप बे. ते धर्मनी उत्पत्ति मनुष्यथी थायडे, तेथी मनुष्य पशुंज तेमां सार रूप बे. कदि सारुं राज्य प्राप्त थाय अने मनोहर नगरो मेलवी शकाय पण शुद्ध वो सर्वज्ञ कथित धर्म मेलवी शकतो नयी. धर्म कार्यना जेवुं बीज उत्कृष्ट कार्य नथी. जीव हिंसाना जेवुं बीजुं उत्कृष्ट कार्य नयी, प्रेमरागना जेवो बीजो उत्कृष्ट is a बोधिलानना जेवो बीजो उत्कृष्ट लाज नथी." १-२-३. 44 या प्रमाणे धर्मघोष गुरुनो ऊपदेश सांजस्या पछी देवसेन शेठे गुरुने प्रमाणे पुयुं, “स्वामी, कोइ एक ऊँटमी बे, ते मारा घर शिवाय को बीजे ठेकाणे रहेती नथी, तेनुं शुं कारण हशे ? " गुरु महाराजे कां; “ जरू, एंटी पूर्व नवे तारी माता हती. एक दिवसे पीए श्री जिनेश्वरनी आगळ दीवो करी ते दवाव पोताना घरना काम कर्या. तेमज मनु यागळ करेला धूपना अंगारा व घरनो चुलो सळगाव्यो हतो. ते पापने तेणीए आलोच्युं नहीं, अनेकाले करी मृत्यु पामी गइ. ते कर्मना योगे ते अहिं ऊंट | थइने अवतर जे. पूर्व जवना स्नेहथी ते तारा घरने बोमती गथी." आ वाची सांजळी देवसेन शेठ वगेरे नव्य लोको देव संबंधी वस्तुना एवा उपयोगनुं फल जाण । तेनो त्याग करवाने ऊजमाळ थया, अने ते गुरु महाराजने नमी पोतपोताने स्थाने चाव्या गया हता. प्रमाणे देवसेननी मातानुं दृष्टांत लक्ष्मां बही संसारथी जय पामनारा जन्य जीवोए देवनी वस्तुओमे पोताना घरनुं कार्य न करवुं. देव उपर hi यो पण ग्रहण कर नहीं. देवनी सुखमनुं तिलक पण न कर, अने देवना जलव पोताना हाथ पग पण पखाळवा नहीं. देव अव्य व्याजे पण लें नहीं. अर्थात् देव संबंधी वस्तु पोताना काममां कदिपण बेवी नहीं. त्रीजी जाव पूजा. त्रीजी नाव पूजा जिनेश्वरने वंदन स्तवन स्मरण वगरेथी थाय बे. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्री आत्मप्रबोध. प्रथम उचित स्याने रही चैत्यवंदन करवं. तेमां शक्रस्तव विगेरे बोलवा. एटले लोकोत्तर एवा तीर्थकरना बता गुणोने वर्णन करनारा वचनो वझे स्तुति करवी. ते पछी श्री जिनेने पोताना हृदयकमळमां स्थापी तेमना गुणोनुं स्मरण करवं, तया मनुनी आगळ नाटकादि करी रावणनी जेम अखंझनाव धारण करवो. जेम लंकाना स्वामी रावणे एक समये अष्टापद पर्वतने विषे नरत राजाए करावेला पोतपोताना वर्ण प्रमाणवाला चोवीश जिनेश्वरोना प्रसादनी अंदर ऋषनादिक प्रजुओनी अव्यपूजा करी हती, अने मंदोदरी प्रमुख सोळहजार अंतःपुर साये नाटक कर्यु हतुं, ते समये तेणे तेनी वीणानी तांत तुटी जतांपशुनागुण गानना रंगमां जंग परवाना जयथ। पोताना शरीरमांथी नस खेंचीने सांधी हती. तेवी जिन जक्तिथी ते रावणे तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन कर्यु हतुं. जे रावण महाविदेह क्षेत्रने विषे तीर्थकर थशे. ए प्रमाणे बीजा पण जव्य जीवोए जिनपूजाने विषे यत्न करवो जोइए, तेने माटे नाष्यमां नीचे प्रमाणे लख्यु जे. “ यद्यपि गंधवनवाश्यतेवणजवारत्तियार दीवाइज किच्चं तं सव्वं पिनर अग्गपूआ ” ॥ १ ॥ आ वचनथी जो के नाटकने अग्र पूजामां गणेल , तो पण ते नाटक नाव मिश्रित होवायी, तेमां नावनी प्रधानता , तेथी तेने भाव पूजामां कहेलु ने ते दोष नथी, प्रेम जाणवू. ए प्रकारे त्रीजी नाव पूजा जाणवी. पांच प्रकारनी पूजा. पांच प्रकारनी पूजा आ प्रमाणे कहेवाय . १ पुष्प प्रमुखनी पूजा, २ जिनेश्वरनी आझा, ३ देव अव्यनुं रक्षण कर, ४ नत्सव अने ५ तीर्थ यात्रा आ पांच प्रकारे जिनेश्वरनी चक्ति पण कडेवाय डे ते विषे कयु डे के " पुष्पाद्यर्चा तदाज्ञाच, तद्व्य परिरक्षणम् । नत्सवास्तीर्थ यात्रा च, नक्तिः पंचविधाजिने" ॥ १ ॥ " पुष्पादिकथी पूजा करवी, जिनेश्वरनी आज्ञा मानवी, देव ऽव्यर्नु Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश ए५ रक्षण करवू, नत्सवो करवा अने तीर्थ यात्रा करवी-ए पांच प्रकारनी जिनेश्वरनी जक्ति कहेवाय ." ? जिनेश्वरनी जक्ति पांच प्रकारे थाय . केतकी, चंपक, जाइ, जुइ, शतपत्र वगेरे अनेक प्रकारना उत्तम पुष्पो तथा धूप, दीप अने चंदनादि वो पूजा करवी ते प्रथम जक्ति कहेवाय जे. मन, वचन अने कायाए करीने जिनंजनी आज्ञा पाळवी ए बीजी जक्ति कहेवाय जे. जिनेश्वरनी आझा ए सर्व धर्मकृत्यतुं मूल कारण ने, जिनाझा विना सर्व धर्म कार्यो निरर्थक , एम जाणी जव्य जीवोए जिनाज्ञा पानवाने उद्यम करवो. तेने माटे आ प्रमाणे कयु जे" आणाश्तवो, आणाश्संजमो, तह यदाणा माणाए। आणारहिओ धम्मो पत्रात पूलव्व परिहाइ ॥ १॥ नमिओ नवो अणंतो तुहाणाविरहिएहिं जीवहिं । पुणनवियव्यो तेहिं जेहिं नंगीकया आणा ॥२॥ जो न कुण तुह आणं सो आणं कुण तिहुअणजणस्स । जो पुण कुण जिणाणं तस्साणा तिहुणेचेव ॥३॥" __“जिनेश्वरनी झा ए तप, ए संयम अने दान मान ए आझाथी सफल जे. ते आझा विनानो धर्म ते शाळना फोतरानी जेम निष्फल . हे जिनेश्वर, तमारी आझाथी रहित एवा जीवो आ अनंत संसारमा लम्या ने. अने जे जीवे तमारी आझा अंगीकार करी नथी, ते जीवनी गति फरीथी पण तेवीज थशे. जे जीव तमारी आझा करशे नहीं, ते जीव त्रण जगत्ना लोकोनी आज्ञा करे ने एटले तेने त्रण जगत्ना जीवोने ताबे रहे पमेने अने जे जीव तमारी आझा माने , तेनी आझाने त्रण जगत्ना जीवो माने . देव भव्यतुं सम्यक् प्रकारे रक्षण करवं,- वृधि करवी, ते त्रीजी जक्ति कहेवाय . आ संसारने विषे सर्व प्राणीओ पोताना अन्यना रकणने मादे Jain Education Intemational Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ श्री आत्मप्रबोध. तत्पर रहे छे, परंतु देव ऽव्यतुं रक्षण करवामां - तेने वधारवामां उत्तम जीवोनी ज प्रवृत्ति होय . जेओ देव द्रव्यना रक्षणने माटे सारी रीते प्रवर्ते , ते पाणीओ आ लोक तथा परलोकमां सुखनी परंपराने प्राप्त करनारा थाय ने, जेओ देव अव्यतुं नक्षणादिक करे , तेओ आ उन्नय मोकने विषे प्रति घोर मुःखना नाजन बने ले. ते विष कडु डे के, “जिण पवयण वुढी करं पत्नावगं नाणदसण गुणाणं। जवंतो जिणदव्वं अणंत संसारिओ होइ॥१॥ ____ “जिन प्रवचननी वृधि करनारुं अने ज्ञान तथा दर्शन गुणोतुं प्रत्नावक एवा जिन व्यतुं जे पुरुष नकण करे , ते अनंत संसारी थाय ने."१ जिण पवयण वुढी कर पत्नावगं नाणदेसण गुणाणं । रखंतो जिण दव्वं परित्त संसारित्रो हो ॥२॥ __“जिन प्रवचननी वृद्धि करनारुं अने ज्ञान तथा दर्शन गुणोनुं प्रनावक एवा जिन व्यतुं जे पुरुष रक्षण करे डे, ते पुरुष नव संख्याना प्रमाणवाळो थाय ले. अटले तेना जवनी संख्या परिमित थाय जे." "जिण पवयण वुढ्ढी करं पत्नावगं नाणदंसणगुणाणं। वळतो जिणदव्वं तित्थयरत्तं सह जीवो ॥३॥ ___“जिन प्रवचननी वृद्धि करनारुं अने ज्ञान तथा दर्शनना गुणोनुं मनावक एवा जिन व्यने वधारनारो जीव तीर्थकरपणाने प्राप्त करे ." ३ __ अहिं वृधि एटो नवा नवा अव्यनो प्रक्षेप करवा वगेरेथी वधारवं, एम समजबुं ते पण पनर प्रकारना कर्मादान रुप कुव्यापार वर्जीने सद्व्यापारना विधि वमे व्यनी वृधि करवी. अविधि वझे करेली प्रव्य वृछि उलटी दोषरुप थाय. . तेने माटे शास्त्रमा कयु डे के, "जिणवर आणा रहिय, वधारतावि केवि जिणदव्वं । बुड्डुति जवसमुद्दे मूढा मोहेण अन्नाणी॥१॥" Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. " जिनेश्वरनी आझाथी रहितपणे जिनजव्यने वधारनारा केटलाएक मूढ थयेला अज्ञानी जीवो पण मोहवमे आ समुन्ने विषे बुझे जे. १" . केटलाएक आचार्य कहे जे के, श्रावक शिवायना बीजा पासेथी वधारे ग्रहण करी कालांतरे देवव्यनी वृधि करवी नचित ने, कयुं के, "चेश्यदव्वविणासे रिसिघाए पवयणस्सनड्डाहे । संजयी चनथ्थनंगे, मूत्रग्गि बोहिवानस्स ॥१॥ चैत्यभव्यना विनाश करवाथी, मुनिनो घात करवाथी, शासननी निंदा करवाथी अने संयतिनुं चोयु व्रत जांगवाथी बोधिलाजनो मूत्रमाथी नाश पामे . १" चैत्यभव्यतुं को लक्षण करतो होय तेनी उपेक्षा करवी, ए चैत्यभव्यनो विनाश समजवो. चैत्यव्यना नक्षण तथा रक्षण करवा जपर घणा दृष्टांतो बे, पण आ स्थळे सागर शेवन दृष्टांत कहेवामां आवे . सागर शेग्नुं दृष्टांत. साकेतपुर नगरमा सागर नामे एक शेठ रहेतो हतो, ते परम श्रावक हतो. एक वखते ते नगरना श्रावकोए ‘ा सारो श्रावक जे.' एम धारी तेने चैत्यन व्य सौंपी दीधुं. अने कह्यु के, " सागर शेठ, आ नवीन चैत्य बने , तेनी अंदर सुतार, कमीआ वगेरे जे काम करनारा , तेमने तमारे अव्य चुकववं." सागर शेने ते ऽव्य ग्रहण कर्यु. लोनने वश थयेला ते शेठे ते मजुरोने रोकडं जव्य न आपतां ते ऽव्यने बदले दाणा, गोळ, घी, तेल, वस्त्र वगेरे पदार्थो आपवा मांड्या, अने ते वस्तुओ खरीद करी तेमां जे नफो मले ते पोते लेवा मांड्यो. एम करतां रुपीयाना अंशीमा नागरुप जे कांकणी थाय , तेवी एकहजार कांकणीनो तेने नफो थयो. आ कृत्य करवाथी ते सागर शेठे अतिघोर दुष्कर्म उपार्जन कर्यु. केटलेक समये ते सागर शेठ ते कर्म आलोव्या विना मृत्यु पामो समुडमां जन मानुष रुपे उत्पन्न थयो. जातिवंत रत्नोना ग्रहण करनारा Jain Education Intemational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. पुरुषोए समुज्ना जलचर जीवोना उपवने वारनार अने जलनी अंदर उद्योत करनार तेत्र ग्रहण करवाने माटे ते जल मनुष्यने पकमी वज्रनी घंटीमां नांख्यो. तेमां ते महान् पीमाथी उ मास सुधी बंदाइ मृत्यु पामी त्रीजी नरके नारकी रुपे उत्पन्न थयो. त्यांची नीकळीने पांचसो धनुष्यना प्रमाणवालो मोटो मत्स्य थयो. त्यां म्लेच्छ लोकोए सर्व अंगना डेदवारुप मोटी कदर्थना करी तेने मारी नांख्यो. त्यांथी मृत्यु पामी ते चोथी नरके गयो. त्यांथी नीकळी एज प्रमाणे बे वार मत्स्य थयो अने बे वार सातमी नरके उत्पन्न थयो. एटले एक वार मत्स्य अने एकवार सातमी नरके–एवी रीते उत्पन्न थयो. ते पठी पूर्वे करेला हजार कांकणी प्रमाण देव अव्यना उपजोगथी अंतर रहित हजारवार घोमो थयो. ते पठी अनुक्रमे तुंग, गामर, हरण, सावर, शीयाळ, मार्जार, ऊंदर, नोलीओ, गीरोळी, घो, सर्प, वींछी, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, शंख, छीप, जलो, कीमी, कीमा, करमीश्रा, पतंगीश्रा, मांखी, जमर, मत्स्य, काचबो, गधेमो, पामो, ऊंट, खचर, घोमो, अने हाथी वगरे अनेक जातिमां सहस्र नव जम्यो हतो. ते सर्व तिर्यचोना नवोमां शस्त्रोना घातनी मोटी पीमाओ सहन करी मरण पाम्यो हतो. एवी रीते थवाथी जेना पुष्कर्म कीण थयेला छे, एवो ते सागरशेग्नो जीव वसंतपुर नगरने विषे रहेता कोटिपति वसुदत्त नामना शेउनी स्त्री वसुमतीना उदरने विषे गर्नपणे उत्पन्न थयो. ज्यारे जीव गर्नमां आव्यो त्यारे ए कोटि धनपति वसुदत्त शेउनुं सर्व अव्य नाश पामी गपुं. ज्यारे तेनो जन्म थयो त्यारे तेनो पिता वसुदत्त शेष पोतेज मरण पामी गयो. ज्यारे ते बालक पांच वर्षनो थयो त्यारे तेनी माता वसुमती मरण पामी. त्यारे लोकोए तेनुं नाम निःपुण्यक पामयु. ते निखारीनी वृत्तिथी उबरी मोटो थयो. एक दिवसे ते निःपुण्यकनो मामो तेने सुःखी जाणी तेमवा आव्यो. ते तेने पोताने घेर तेकी गयो. जे दिवसे निःपुण्यक मामाने घेर गयो, ते ज रात्रे चोरोए आवी तेना मामाना घरने बुंटी लीधुं. ते निःपुण्यक जेना घरमां एक दिवस रहे तेना घरमां चोरोनी धाम, अग्निनी लाह्य अने घरना स्वामीनो नाश इत्यादि ऊपञवो थता हता. 'आधी आ उर्जागी बे, बनती गामी ने अने मूर्तिमान् उत्पात डे' इत्यादि शब्दोथी लोको तेनी निंदा करवा नाग्या. Jain Education Intemational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. | ԱՍ आथी ते जगपामीने देशांतर चाट्यो गयो. फरतो फरतो ताम्रलिप्ती नगरीने विषे रहेता विनयंधर नामना एक शेउने घेर नोकर रह्यो. जे दिवसे ते रह्यो, तेज दिवसे ते शेग्नुं घर अग्निथी बक्षीने जस्म थइ गयु. एथी शेने तेने श्वाननी जेम घरनी बाहेर काढी मुक्यो. 'हवे शुं करवं ?' एम मूढ बनी ते पोताना कर्मने निदवा लाग्यो. कडं डे के “कम्मं कुणंति सवसा, तस्सुदयंमिय परव्वसा हुंति। मुखं सह सवसो निवस परवसो तत्तो" ॥१॥ "जे जीवो स्ववश थइने कर्म करे , तेओने परवश थइने कर्म जोगववा पमे जे. पण स्ववशे जे सुःख जोगवे , ते परवश पमता नथी." १ ते पठी पोतानु लाग्य बीजे स्थळे हशे, अर्बु धारी ते समुज्जना तीर ऊपर गयो. अने तेज दिवसे एक वहाणमां बेटो. त्यां रहेला धनावह नामना एक खलासीनी साये ते सुखे छीपांतरमां आवी पोहोच्या. आ वखते ते हृदयमां फुलाइ गयो अने विचार करवा लाग्यो के, 'हवे मारा जाग्यनो उदय थयो, कारण के, हुं बेठा उतां आ वाहाण नांग्यु नहीं के बुझयुं नहीं. अथवा मारा दुर्दैवतुं कृत्य हमणा मने विसर। गयु. हवे क्वतो वखते मने ए दुर्दैवस्मरण न थाओ." आ प्रकारे चिंतवी ते पागो वसतां वाहाण पर चमयो. दुर्दैवे जेम दंमयी पात्र नांगे तेम ते वहाणने नांगी नांख्युं. तेनासो कटका थइ गया. ते वखते निःपुण्यक एक पाटोआने वागी महाकष्टे करी केटलेक दिवसे समुनने कांठे आव्या. त्यां आवेला एक गामना गकोरने त्यां सेवक थइने रह्यो. ते गकोरना शत्रु नीलो ते गाम नपर धाम पामी, अने 'आ गकोरनो पुत्र डे' एम धारी निःपुण्यकने बांधी पोतानी पन्त्रीमा ला गया. तेज दिवसे बीजी पब्लीना पति प्रावी ते पनीनो नाश कर्यो. आयो पेला नीलोए 'आ कोई अनागोओ छे' एवं मानी निःपुण्यकने पोतानी पनीमाथी बाहेर काढी मुक्यो. ___ एवी रीते ते निःपुण्यकन नुपद्रवोनो हेतु होवाथी बोजा हजारो काणेथी काढी मुकवामां आव्यो हतो अने तेथी तेणे अनेक जातना सुःखो जोगव्या हता. Jain Education Intemational Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मबोध. एक वखते ते वतिने आपनारा एक यज्ञना मंदिरमां आवी चड्यो. त्यां तेणे पोताना दुःख निवेदन करवा पूर्वक एकाग्रताथी ते यनी आराधना क. एकवीश दिवस उपवास करतां ते यक्ष तेने तुष्यमान थयो यदे प्रत्यक्ष दर्शन आप तेने कछु, “न, अहिं दररोज सायंकाले सोनाना हजार पींडाaal एक मोटो मोरवी मारी पासे नृत्य करशे, ते नृत्य थइ रह्या पछी तेना पाथी दररोज एक एक सोनानुं पीढुं परुशे, ते तारे ग्रहण करं. " यक्षना आवां वचन सांजळी ते निःपुण्यक खुशी थयो. पनी त्यां रही ते प्रतिदिन ते मोरना सुवर्णना पाने ग्रहण करवा लाग्यो. अनुक्रमे ते नवसो पींडा एकटा कर्यां. हवे ते मोरनी पासे सो पीछा वाकी रह्या. दुर्दैवथी प्रेराएला ते निःपुण्यके चितव्यं के, ' हवे एक एक पीं लेवाने माटे या टवीमां केटलोक वखत रहें, माटे एक साथे बाकी रहेला सोपींना मुत्री मां ग्रहण करीरी लडं. " आ चितवी ते मोरना बधा पीछा मुष्टिवमे ग्रहण करवा गयो, तेवामां ते मोर काकी - मानुं रुप लइ नमी गयो ने निःपुण्य के जे पूर्वे नवसो पीछा ग्रहण करेला हता, पण तेनी साधे नाशी गया. कहुं बे के, 66 ६० दैवमुल्लंघ्य यत्कार्यं क्रियते फलवन्न तत् । सरोंऽनश्चात केनातं गलरंध्रेण गच्छति ॥ १ ॥ " जे काम दैव- कर्मने ओळंगीने करवामां आवे ते सफल यतुं नथी. चातक (बषैयो ) सरोवरनुं जल मेळवे बे, पण ते तेना गळाना विषमांथी नीकळी जाय े. " ? > निःपुयक ' मने धिकार बे में फोगटनी उतावळ करी. एम चिंततो ते वनमां आमतेम जमवा लाग्यो. तेवामां एक ज्ञानी मुनि तेना जोवामां याव्या. तेणे ते मुनिने नमस्कार कर पोतानो पूर्वजव पुढयो पछी ते मुनिए तेना पूर्वजवनुं स्वरूप यथास्थित कही संजळान्युं ते सांजळी ते पूर्वनवे देवअव्यवरे करेल आजीविकाना पापनी आलोयणा मार्गी त्यारे मुनिए कछु के, प्रथम तो देवव्य अधिक अधिक आप अने ते या पछी तेनुं सम्यक् प्रकारे रणने वृद्धि प्रमुख कर - एम करनुं, ते लागेला दुष्कर्मनो प्रतिकार ( उपाय ) , ते करवायीज सर्व प्रकारे जोगऋद्धि तथा सुखनो लाभ प्राप्त थाय . " Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. ६१ मुनिनां वां वचन सांजळी तेणे एवो नियम ग्रहण कर्यो के “ ज्यां सुधी पूर्वे ग्रहण करेला देवव्यथी हजार गणुं प्रव्य न अपाय त्यांसुधी आहार, वस्त्रादिना निर्वाहथी जरा पण अधिक 5व्य मारे ग्रहण कर नहीं. " आवो नियम ग्रहण कर । तेणे श्रावकनो धर्म अंगीकार कर्यो. ते पछी ते निःपुण्यक जे जे वेपार करवा लाग्यो, तेमां ते घणुं प्रव्य कमावा लाग्यो. ते पोताना आहार वस्त्रना निर्वाह जेटलं राखी बाकीनुं प्रव्य देव कार्यमां आपतो. एम करतां थोमा दिवसमां तेणे देव निमित्ते दश लाख कांकणी अव्य आपी दीधुं. तेटलं अव्य ते देवन नृणी थयो. पी घणुं प्रव्य उपार्जन कर ते पोताना नगरमां व्यो. त्यां ते सर्व धनाढ्य शेोमां महान शेत्र गणायो. पोताना अने परना करावेला सर्व चैत्याने विषे पोतानी शक्ति प्रमाणे अखंक नक्ति पूर्वक निरंतर पूजा पावना करवा लाग्यो. अने सम्यक् प्रकारे देव प्रव्यनुं रण अने योग्यता पूर्वक देव व्यनी वृद्धि वगेरे करी तेणे अरिहंत भक्तिरूप प्रथम स्थानक मारातेथ करीने तेथे जिननाम कर्म - तीर्थकर नाम कर्म उपार्जन कर्यु ज्यारे अवसर प्राप्त थयो, एटले तेणे गीतार्थ गुरुनं । पासे दीक्षा ग्रहण करी. ते पी सिद्धांतो यास करी ते गीतार्थ थयो. अने तेणे धर्मदेशनाथ घणां नव्य जीवने प्रतिबोध कर्यो. जेवढे ते अनशन लइ काल करी सर्वार्थ सिद्धि वि मानने विषे देव रूपे उत्पन्न थयो. त्यां देवतानी समृद्धि जोगवी महा विदेह देविषे तीर्थंकरनी संपत्ति जोगवी ते मोक्षपदने प्राप्त थयो. ए प्रकारे देवषव्यना अधिकारमा सागर शेवनी कथा कहेवाय बे. एवी रीते जिनेश्वरनी त्रीजी नक्ति कढेवामां आवी. चोथी नक्ति. जे निचे कर जन्यजीवो अठ्ठाइनुत्सव, स्नात्र, चैत्यविवनी प्रतिष्ठा, वगेरे उत्सवो करे तथा श्री पर्यूषण पर्वने विषे कल्पसूत्रनी वांचना प्रमुख शासननी प्रजावना करे, ते जिनशासननी उन्नतिना हेतु होवाथी ते पण जिनपूजाज कवा . क . - "" प्रकारेणाधिकां मन्ये नावनातः प्रजावनाम् । ज्ञावना स्वस्य वाजाय स्वान्ययोस्तु प्रभावना ॥ १ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. " को प्रकारे नावनाथी प्रनावना अधिक छ एम हुं मानुं बुं, कारण के, जावना पोतानाज लानने माटे थाय डे अने प्रत्नावना पोताना अने बीजाना बंने ना मानने माटे थाय . १" । पांचमी नक्ति. तीर्थयात्रा करवी ए जिनेश्वरनी पांचमी चक्ति कहेवाय जे. शत्रुजय, गिरनार, अर्बुदाचल, अष्टापद, संमेतशिखर, आदि सर्व तीर्थोने विषे जिनवंदन करवा अने ते क्षेत्रनी स्पर्शनादिक करवाने माटे जवू, ते तीर्थयात्रा कहेवाय ने; ए तीर्थयात्रा पण जिननक्तिन गणाय जे. ते तीर्थोमां शत्रुजय तीर्थ सर्व तीर्थोनो राजा ने अने त्रण लोकमां तेना जेवू वीजें तीर्थ नथी. कह्यु डे के. " नमस्कारसमो मंत्रः शत्रुजयसमो गिरिः।। वीतरागसमो देवो न नूतो न नविष्यति ॥ १ ॥" " नवकारना जेवो मंत्र, शत्रुजयना जेवो गिरि अने वीतरागना जेवो देव थया नथी, अने थशे नहीं. ?” । श्री शत्रुजय तीर्थना स्पर्शवा प्रमुखे करी महापापी प्राणीओ पण स्वर्गादिकना सुखने जोगवनारा थाय जे. अने जे पुण्यवंत प्राणीओ ने, ते अस्पकाळमां सिछिपदने पामे छे. तेने माटे कयु डे के. " कृत्वा पापसहस्राणि हत्वाजंतुशतानिच । दं तीर्थ समासाद्य तिर्यंचोऽपि दिवंगताः ॥ १ ॥ एकैकस्मिन् पदे दत्ते शत्रुजयगिरि प्रति । जवकोटि सहस्रेज्यः पातकेन्यो विमुच्यते ॥२॥" “ हजारो पाप करीने अने हजारो प्राणीओने मारीने तिर्यंचो पण आ शत्रुजय तीर्थने प्राप्त करी स्वर्गे गयेला . ? शत्रुजय पर्वत प्रत्ये एक एक पगलु नरवाथी प्राणी क्रोमहजार भवना पापमाथी मुकाय . १-२ Jain Education Intemational Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश तेम वली कह्यु डे के.'उणंनत्तेणं अपाणएणं व सत्तजत्तान जो कुण सत्तुंजे सो तश्य नवे सह सिलिं' बस नक्तवझे पाणीथी रहित सातयात्रा शत्रुजय पर्वत उपर करनार प्राणी त्रोजे नवे मुक्ति पामे के. वली आ प्रकारे जे मनुष्य उर्सन मनुष्यनव पामीने सिघाचळ तीर्थनी यात्रा करीने पोतानो जन्म सफळ करे रे तने धन्य ! जे पाणी तथाप्रकारनी योग्य सामग्रीना अनावथी पोते यात्रा करवानी शक्ति रहीत ने तोपण अन्य यात्रिकोनी अनुमोदना करे रे तेमने पण धन्यवाद जे. जे प्राणीओ श्री सिघाचळने पोतानी दृष्टिए अवलोकन करे ने अने पोताना शरीरना अंगोपांगोवमे स्पर्शे ने तेमज ऋषनादि देवोर्नु अर्चन करे ने तेश्रो पण अनेकशः स्तुतिपात्र . परप्रति यात्रा संबंधे उपदेश आपतां नीचे मुजब कहे . वपुः पवित्रीकुरुतीर्थयात्रया । चित्तंपवित्रीकुरु धर्म वांग्या॥ वित्तं पवित्रीकुरु पात्र दानतः। कुत्रं पवित्रीकुरु सञ्चारित्रतः॥ अर्थ-तीर्थयात्रा वझे शरीरने पवित्र करो, धर्म इच्छा वझे चित्तने पवित्र करो, अव्यने सुपात्र दानवझे पवित्र करो अने उत्तम आचारना पामनवमे कुलने पावन करो. आ प्रकारे उपदेश आप्या करे तथा मुक्तिनगर प्रति प्रयाण करवा इच्चता लोकोने सुखे करीने आरोहण करवाने माटे उत्तम पगथीयारुप विमलाचन तीर्थने हुँ क्यारे नेत्रयुगल वमे नीरखीश तेमज स्वशरीर वझे क्यारे हुं ते तीर्थाधिराजने स्पर्शवा जाग्यशाळी था. आ मारो जन्म तीर्थना दर्शनादि विना फोकट जाय जे ए रीते स्वचित्तमा नावना जावे जे तेवा प्राणीओ पोताना स्थानके रहेला उतां पण तीर्थ यात्राना महा फळने पामे जे. जेओ बती सामग्रीए यात्रा करता नथी तेो दीर्घसंसारी जाणवा. श्री शत्रुजय गिरि उपर थोड़ें पण करेलु पुण्य महा फळ दायक थाय ने, कयुं . “नवि तं सुवन्ननूमिनूसण दाणेण अन्नतिथ्येसु । Jain Education Interational Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्री आत्मप्रबोध. जं पावइ पुष्णफलं वूयाएदवणेण सत्तुंजे ॥ १ ॥ " “अन्य तीर्थोमां सुवर्ण, भूमि अने आभूषणोना दान करवार्थी जे पुण्य यतुं नयी, ते पुण्य शत्रुंजय तीर्थ उपर पूजा ने न्हावण करवा थाय बे ? " तीर्थ यात्रा करनारा प्राणीओए यात्रा वखते भूमि संथारो, शीव्रत, एकाहार प्रमुख व वानां करवाना छे. अने तेम करीने रहेवाथी त्यां तीर्थयात्रानो प्रयास विशेष इष्टफलने आपनारो थाय छे. ते बवानांने 'बरी' करीने कहे . बरीकार नीचे प्रमाणे दर्शाव्या . एकाहारी नूमिसँस्तारकारी पद्भ्यां चारी शुद्धसम्यक्त्व धारी । यात्राकाले यः सचित्तापहारी पुण्यात्मा स्याद् ब्रह्मचारी विवेकी ॥ १ ॥ " 66 46 यात्रा वखते जे विवेकी पुरुष एकाहार - एक वखत आहार क करनार, परावके चारी - चालकरनार अने ब्रह्मचारी - ब्रह्म - नार, भूमि संस्तारकारी — भूमि उपर संथारो नार, सचित्तापहारी - सचित्त वस्तुनो त्याग चर्य पालनार रहे ते पुण्यात्मा कहेवाय बे. १ " वली कछु बेके, " श्रीतीर्थपांथरजसा विरजी जवंति तीर्थेषु बंचमणतो न जवे चमंति । Sव्यव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः पूज्या जवंति जगदीशमथार्चयतः ॥ १ ॥ " जव्य प्राणी तीर्थोमां भ्रमण करनारा अव्यनो व्यय करे बे, ते नारा बीजाने पूजवा 66 तीर्थना मार्गना रजव मे विरज पापरहित थाय बे आ संसारमां भ्रमण करता नथी. जे तीर्थक्षेत्रमां स्थिरसंपत्तिवाळा थाय बे ने त्यां जगत्पतिने पूज योग्य थाय बे. " १ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश. आ प्रमाणे तीर्थ सेवानुं महाफल जाणीने नव्य जीवोए श्री शत्रुजयादि महातीर्थनी यात्राने विषे आदर सहित थर्बु. अने तेमां पोतानुं द्रव्य सफल कर वळी तोर्थनी यात्रा करवाने इच्छता एवा वीजा यात्रालुओने शंबळ ( नातु ) आपवा वगेरेथी सहाय करवी. तीर्थ यात्रा करनारे धनशेठनी जेम पोतानी शक्ति प्रमाणे तीनी उन्नति करवी, बघुता करवी नहीं. ते विषे धनशेग्नी कथा. हस्तिनागपुर नगरने विषे अनेक कोटी व्यनो स्वामी धनशेव नामे एक परम श्रावक हतो. एक दिवसे रात्रे धर्म जागरणा करतां तेणे पोताना मनमां आ प्रमाणे चिंतव्यु. “हुँ निश्चे पूर्व जन्मना पुण्यने सीधे आ मनुष्य जन्म पाम्यो बुं, ते साये आयक्षेत्र, उत्तम कुळ, रुप अने लक्ष्मीना समूहने प्राप्त थयो बु. तेम वळी जेम मोटा पुण्यना नदययी रंक पुरुष निधानने प्राप्त करे, तेम हुं श्री जिनश्वरे कहेला धर्मने पाम्यो बुं. पण ज्यां सुधी श्री विमलाचन अने रैवताचन आदि तीर्थमा रहेवा श्री आदीश्वर प्रत्तु तथा नेमिनाथ प्रनु वगेरे तीर्थकरोना विंबना दर्शन, वंदन, अने पूजनादि सत्कृत्यो में कर्या नथी, त्यां सुधा आ सर्व समृधि प्राप्त थवाथी शुं ? तेमज आ वैनवथ परिपूर्ण एवा कुटुंब, गृह वगेरे प्राप्त थया, ते शा कामना ?" आ प्रमाणे चिंतवी प्रजात काळे राजानी आज्ञा लइ तेणे हस्तिनाग पुरनगरमा जद्घोषणा कर मोटो संघ एकठो को. पठी शुज दिवसे ते मोटा संघनी साये हस्तिनागपुरनी बाहेर नीकळयो. अने तेणे शासनना अधिपति श्री वीर प्रजुना चैत्यने साथे सीधुं. मार्गमां ठेकाणे ठेकाणे मोटी समृधिथी चैत्योने पूजतो, जीर्ण चैत्योनो उघार करतो, मुनिराजना चरण कमळने वंदन करतो, स्वामिवात्सल्य करतो अने करुणाथी दीन जनाने निरंतर वांछित दान आपतो ते धन शेठ अनुक्रमे शत्रुजय पर्वत पासे आवी पोहोच्यो. ते गिरिपर आरूढ थयो अने त्यां आदीश्वर प्रनुने मोटी समृद्विथी नमन पूजन करी असा उत्सव आदर्यो. ते सिद्धक्षेत्रने स्पर्शी, वंदन, पूजन अने नेट वगेरे करी तेणे पोताना जन्मने सफळ को. ते पड़ी ते धनशेट गिरनार पर्वत उपर आव्यो. त्यां मुख्य चैत्यने विषे Jain Education Intemational Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ श्री आत्मप्रबोध. यादव कुळना मंमनरूप ने सर्व ब्रह्मचारी ओना समूहमां मुगट समान एवा श्री नेमिनाथ प्रजुने ऋण प्रदक्षिणा करी नमस्कार कर्यो. ते पछी सुगंधी जळवमे जुने न्हावण करावी उत्तम बावना चंदननुं विलेपन कर सारा उत्तम वस्त्रोथ अनेम सुवर्ण तथा रत्न आभरणोथी श्री नेमिप्रजुना बिंबने नूषित कर्यु. ते पछी प्रजुना कंमां पंचवर्षी पुष्पमाला आरोपित करी, तेमनी समीपे अष्टमंगळनुं आलेखन करी श्रीफलने ढोकित करें. पछी धूपनो उत्क्षेप, दीपक, बत्र चामर अने चंदवा प्रमुख स्थापी मोट । ध्वजा चमावी इत्यादि अनेक प्रकारनी पूजा क्ति सित एवा रोमांचने धारण करतो ते धनशेठ जेवामां श्री नेमिमनुना मुखकमलने अवलोकतो हतो, तेवामां महाराष्ट्र देशना मध्य जागेवला मलयपुर नगरथी श्वेतांबर सानो द्वेषी, दिगंबर मतनो जक्त वरुण नामनो एक क्रोतिशेठ पोताना संघने लइ त्यां यावी चमयो. अहीं धनशेठे करेली मञ्जु पूजाने देखी ते वरुण शेठना हृदयमां द्वेष उप्तन्न थर आयो ते रोषातुर थइने या प्रमाणे धनशे प्रत्ये बोल्यो. “ तत्त्वथी विमुख एवा श्वेतांबर श्रावकोए नियमां श्रेष्ट एवा या जगवानने सग्रंय केम कर्या ? परिग्रहवाळा केम बनाव्या ? 66 प्रमाणे कही ते मिथ्याबुद्धिवाला वरुण शेठे तरतज उतावळा थइ प्रभु उपर चावेला, वस्त्र, आभूषण, पुष्पमाळा कोरने विंव उपरथी दूर कराव्या. अने हाथी पगलांना जनवमे ते जिनबिंबनी पखाळ करावी या वखते जिनेश्वर देवनी विधि - शातना करनारा ते वरुण शेठनी साथे धनशेने घणो वचनविवाद थयो. ते पर्छ। ते बने संपति परस्पर आमर्ष राखी पोतपोताना परिवार साये तत्काळ पर्वत उपरथी नीचे उतर्या ने विक्रमराजाना गिरिनगर नामना नगरनी समीपे वी पोहोच्या त्यां ते बनेनी बच्चे पोतपोतान। पर्षदा कर पोतपोताना तीर्थ स्थापना करवा महान् वादविवाद थयो राजा विक्रमे आ तेमनेो वृत्तांत लोकोना मुखथी सांजळयो एटले पोते राजा तेमनी पासे आव्यो अने तेमने वादविवाद करतां अटकाव कहां के, “ हुं तमारो वाद का सवारे दूर करीश. हम को दाग्रह करवो नहीं. " या प्रमाणे कही राजा विक्रम पोताने स्याने चाल्यो गयो. राजा गया पीते बने संघपतियो पण पोताना स्थाने गया. या वखते धनशेव ' प्रजाते कोनुं तीर्थ स्थापाशे. ' एवी चिंता करवा तेथ तने निशा आवी नहीं. तेणे पोताना चित्तने शासन देवीना 66 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. ध्यानमां लगान्युं तवामां शासन देवी प्रत्यक्ष प्रगट थइ नीचे प्रमाणे बोली" वर सिजिव सुप इसमयल इवानयनत्रमामागऽविनिययमणे कुसु का मिणं " ॥ १ ॥ ६७ " प्रधान ने मोटाम मोटा धर्मने तथा आगमने तुं वे तारो जय नष्ट थयेलो समजजे. तेथी मनमां जरा पण मनने निश्चित राखवं. " १ " जं चिश्वंदणमज्जगादं नर्जितसेलइच्चाई पखिविय निवसहाए जयं धुवं तुज्झ दादामि" ॥ २ ॥ “ जे चैत्यवंदनना मध्यमां “ उर्जित सेन सिहरे " ए गाया डे, ते मदिप्त गाया बे; एम तेना कहेवाय । तने राजा विक्रमनी सजाम अवश्य जयनक्ष्मी अपावीश. " २ या वात सांजळी धन शेव हर्षित थइ गयो. पछी तेणे रात्रिने सुखेथी निर्गमन करी. मनात थतां राजा विक्रमे ते बने संघपतित्रोने पोतानी सनामां परिवार सहित बोलाव्या. तेस्रो राज सनामां आव्या अने राजानी आज्ञाथी ते बने पक्षकारोए पोत पोतानो वृत्तांत जगाव्यो. ते सांजळी राजा विक्रम बोल्यो पति, तमो ने जैन आगमना ज्ञाता बो; जैन धर्मना श्रद्धालु बो जिनशासनना प्रजावक करवाने विषे प्रवीण देखाओ बो, ते बतां तमोए 66 घटित कार्य के आरंज्यं बे ? प्रथम धन शेठे नम्रताथी कहुं, " राजेंद्र, मोमाराम वस्त्र आभूषणोए करे जिनपूजा करीए बीए, तेनो आ पुष्ट बुद्धिवाळो शेठ शामाटे विनाश करे बे ? त्यारे वरुण शेठे जणान्युं, “स्वामी, मोमारा तीर्थने विषे कोइने प्रविधि - आशातना नहीं करवा दशए. या प्रमाणे बनेना वचन सांगळी राजाए संशय लावीने कां, “ या तमारा नेम कोनुं तीर्थ हो, ए शी रीते जाणवामां आवे ?" धनशेठे कां, “स्वामी, तीर्थमाज बेकारणके, अमारा चैत्यवंदननी अंदर नज्जित सेल सि हरे ' इत्यादि गाया लांबा वखतथी चाली आवे छे. जो आपने तेमां शंका रहे 66 6 पाम्यो बे, एटले दुःख धं नहीं. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.८ श्री आत्मबोध. ती होय तो मारा संघमांयी बालक, तरुण, अने वृद्धमांथी गमे तेनी पासे चैत्यवंदन सूत्र बोलावो, एटले आपने खात्री थशे. " वरुण शेठे कशुं, "महाराजा, या नवीन गाया रची या कपटी शेठ पोताना वधा संघने वखते शीखव तो न होय ? ते शी खबर पमे ?" वरुण शेठना आ वचन सांजळी राजाए पोताने खात्री करवाने माटे एक सेवकने पवनगति नामनी ऊंटकी उपर बेसामी पोताना शेहेरनी नजीक रहेला श्रेणिपक्षी नामना गाममांथी शीलादिक गुणोव प्रसिद्ध, उत्कृष्ट जैन धर्मना जाए एवा धनशेवनी एक पुत्रीने तत्काल त्यां बोलावी. ते शेठ पुत्री त्यां आवी एटले राजाए श्वेतांबर संघनी समक्ष तेणीने पुयुं, " व्हेन तने चैत्यवंदन व बे ? तेण । एकयुं, स्वामी, ते मने सारी रीते आव छे. " राजा कां, त्यारे तुं ते सत्वर कही संजळाव. " राजानी आज्ञाय ते बालाए अति गंजीर स्वरथी प्रथम संपूर्ण चैत्यवंदन त्यांसुधी कधुं के, नीचेनी गाथा बोलवामां आवी. (6 उर्जित सेल सिहरे, दिकानाणं निसिदिया जस्स । तं धम्मचक्कवहिं, रिठ्ठनेमिं नम॑सामि "" या गाथा सुधी ज्यारे ते बाला चैत्यवंदन बोली, ते सांजळी सर्व परिवार सहित राजा विक्रमनुं हृदय हर्पथी जलसित थइ गयुं तत्काल ते प्रसन्न थ‍ • 46 बोस्यो, “प्रा श्वेतांबर संघ जीत्यो बे. निश्चयथी या तीर्थ तेनुं ज े. "" राजाना वचन सांजळी हारी गयेलो वरुण शेठ लोकोना मुखर्थी पोतानी निंदा धन शेनी प्रशंसा सांजळतो कचवाते मने पोतानो संघ लइ चाढ्यो गयो. ने पोताने स्थाने आव्यो. ॥ १ ॥ त्यारथी ए गाथा चैत्यवंदननी अंदर अद्यापि जणाय बे. जो के आ गाथा अविरत देवता रचेल्सी होवाथी विरतिवंताने जणवी प्रयुक्त छे, तो पण शासननी उन्नति हेतु रूप बे, तेथी पूर्वाचार्योए - गीतार्थ पंकितोए तेनो निषेध करेला नथी; तेथी सज्जन विजनोए ते अवश्य जणवा योग्य बे. तेम वल्ली तेवा पूर्वाचार्योंना आचरणाने जे अन्यथा करे छे, तेने आगमने विषे दंक यापवो कहा| बे. श्री जन बाहु स्वामीए सुयगमांग सूत्रनी निर्युक्तिमां तथा अध्ययमांप्रमाणे कहेतुं छे Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. ६ए "आयरियपरंपरएण आगयं जो उच्छवबुछिए कोविय इच्छे य वाइजमालिनासंसनासिदि" ॥१॥ आचार्यनी परंपराए आवेशानो जे उच्छेद करे , ते जमालिनी पेठे अनेक दुःखोने सहन कर जे.” १ ते पनी जेनो विजय थयो छे, एवा ते धनशेठनो विक्रम राजाए सारो सत्कार को अने घj सन्मान आपी नेने विदाय को. पठी धनशेठ पोताना संघनी साये फरीवार गिरनार पर्वत उपर आव्यो अने त्यां श्री नेमिप्रन्नुनी उत्तम वस्त्रानरणो अने पुष्पोथी प्रथमना करतां विशेष पूजा करी. तेणे त्यां याचकोने अगणित दान आपी अचाइ उत्सव कर्यो. पळी पोते पोताना संघने साथे लश्, त्यांथी नीकळ्यो अने अनुक्रमे मार्गे चालतां हस्तिनागपुर आवी पोहोच्यो. त्यां राजा वगेरे प्रजा जने ते धनशेउनुं नारे सन्मान कर्यु. ते पछी धनशेठ चिरकाल सुधी श्रावक धर्मने पाळी अने अनेक प्रकारे जिन शासननी प्रनाबना करी अंते सद्गतिनो नाजन बन्यो हतो. आ प्रमाणे वृध संप्रदायथी श्रा धन शेवनी कथा छारा पांचमी नक्ति कहेली , जेनी अंदर पांच प्रकारनी पूजा कहेवामां आवी . आठ प्रकारनी पूजा. हवे आठ प्रकारनी पूजा कहे , तेने माटे कछु डे के, " वरगंधधूवचुकएहि, कुसुमेहिं पवरदीवेटिं। नेवजफत्रजलेहिय, जिणपूयाअठहा होइ” ॥ १ ॥ " १ नत्तम गंध-चंदनादिक उव्य, २ अगर प्रमुख सुगंधी धूप, ३ अखंमित अक्षत, ४ पंचवर्णी पुष्पो, ५ निर्मज्ञ घृतथी पूरित सुवर्ण मणिमय पात्रवालो दीपक, ६ लामवा प्रमुख नैवेद्य, ७ श्रीफल प्रमुख फत्र, अने निर्मत्रपवित्र जन्न एम आठ प्रकारे पूजा कहेवाय . ते अष्ट प्रकारी पूजानुं फल नीचे प्रमाणे कहे - “ अंगगंधसुवन्नवन्नं रूवं सुहं च सोहग्गं । Jain Education Intemational Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ go श्री आत्मप्रबोध. पाव परम पयं (पहु, पुरिसो जिणगंधपूयाए ॥ ३१ ॥ जिण पूयणेण पुंसो, होश सुगंधोसुगंध धूवेण । दीवेण दित्तमंतो, अस्को अकएहिं तु ॥ ३२॥ पूर्वई जो जिणचंदं, तिलिवि संकासु पवर कुसुमेहिं । सो पाव सुर सुखं, कमेण मुखं सया सुखं ॥ ३३ ॥ दीवासी पव्वदिणे, दीवं काऊण वधमाणग्गे । जो ढोय वरसफले, वरसंसफर नवे तस्स ॥ ३४॥ ढोय बहु नत्ति जुओ, नेवजं जो जिणंद चंदाणं । भुंज सो वरनोए, देवासुरमणुअनाहाणं ॥३५॥ जो ढोय जलनरियं कसं जत्तिश्यवीयरागाणं । सो पावर परमपयं सुपसथ्यं नावसुधीए ॥ ३६ ॥" " पुरुषो जिननी गंधपूजा करवाथी सुगंधी अने सुवर्ण वर्णी रूप वाला शरीरने पामे . तथा: सौजाग्य, सुख अने अनुक्रमे मोद सुखने प्राप्त करे . ३१ सुगंधी धूपवके जिनपूजा करवाथी पुरुष सुगंधी थाय , दीपपूजा करवाथी दीप्तिवालो-तेजस्वी अने अक्षत पूजायी अक्षय सुखवालो थाय . ३२ जे पुरुष त्रणे काल उत्तम प्रकारना पुष्पोथी जिनपूजा करे ,ते देवताना मुख पामी अनुक्रमे सदा सुखवाला मोदने प्राप्त करे . ३३ जे दीवालीना पर्वने विष श्री वर्षमान प्रजुनी पासे दीपक प्रकटी उत्तम फनने मुके, ते पुरुषर्नु आखं वर्ष सफल थाय बे. ३४ जे पुरुष घणी जक्तिवालो था श्री जिनचंधने नैवेद्य धरे ले, ते पुरुष देव, असुर अने मनुष्योना स्वामीना जोगने जोगवे . ३५ Jain Education Intemational Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. जे पुरुष नक्तियो श्री वीतराग प्रनुने जन्ननो नरेन कलश ढोले, ते पुरुष नाव शुधिवके श्रेष्ठ थ उत्तम एवा मोक्षपदने पामे ले. ३६ उपर प्रमाणे विविध प्रकारे कहेली जिनपूजा जव्य पुरुषोए मन, वचन अने कायानी शुछि पूर्वक करवी. जो जिननक्ति शुक नावथी को होय, ते थोमी होय तो पण मोटा फलने आपनारी थाय डे ते विषे का डे के " यास्या म्यायतनं जिनस्य लभते ध्यायंश्चतुर्थं फर्श षष्ठं चोरियत नद्यतोऽष्टममयो गंतुं प्रवृत्तोऽध्वनि । श्रघाबुर्दशमं बहिर्जिनगृहा प्राप्तस्ततो बादशं मध्ये पाक्षिकमीक्षिते जिनपतौ मासोपवासं फलम् ॥ " हुँ जिन मंदिरमा जा' एवं चिंतववाथी पुरुषने एक उपवासनुं फस मळे जे. अने त्यां जवाने ऊठे त्यारे व तपनुं फल मने जे. ज्यारे ते प्रत्ये मार्गे चालवा मांझे त्यारे अष्टमनुं फल मो . जिनगृहनी बाहेर नजीक आवे त्यारे चार उपवासनुं फल मले में, चैत्यमां आवे त्यारे पांच उपवासर्नु फन्न मसे , चैत्यनी मध्ये आवे त्यारे पंनर उपवासनुं फन मले ने अने जिनेश्वरना दर्शन करे त्यारे मासोपवासर्नु फल मने ." १ अहिं तेवी ज रीतनी नावशुचि ते मुख्य कारण समजवं. एवी रीते आठ प्रकारनी पूजा कहेली . आदि शब्दथी सत्तर प्रकारनी अने एकवीश प्रकारनी पूजा पण कहेवाय ले. ते आ प्रमाणे" न्हवण विवेवण वच्छजुग, गंधारुहणं च पुप्फरोहणयं। मातारुहणं वन्नय, चुन्न पमागाण आनरणे ॥ २७॥ मात करावंस घरं, पुप्फ पगरं च, अस मंगल यं । धूवुकवो गीयं, नटं वजं तहा नयिं " ॥ २० ॥ "१ निर्मन जन्न वमे स्नान, २ चंदनादिक वो नव अंगे नव तिमक, ३ वस्त्र युगळ पेहेराववा, ४ वास चूर्णनो प्रक्षेप, ५ विकस्वर पुप्पो चकावना, ६ Jain Education Intemational Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ श्री आत्मप्रबोध. मन्नु कंठे गुंयेन पुष्पमाळनुं आरोपण, ७ पंचवर्णी पुष्पो वझे सर्व अंगे शोना करवी-अर्थात् फुलनी आंगो रचवी, कपूर, कृष्णागरु प्रमुख सुगंधी व्य वके पूजन करवू, ए ध्वजा चमाववी, १० उत्र, मुगट वगेरे आभूषणो पेहेराववा, ११ पुष्पनुं गृह कर, १२ प्रनुनी आगळ पांचवर्णी पुष्पोनो ढगलो करवो, १३ अदत वगेरे अष्टमंगळ आलेखवा, १४ सुगंधी धूप ऊखेववो, १५ गीत-गान करवा, १६ अनेक प्रकारना नृत्य करवा,-नाटक करवा, १७ अने शंख, नगारा वगेरे वाजित्रो वगामवा ए सत्तर प्रकारी पूजा कहेवाय जे. एकवीश प्रकारनी पूजा नीचे प्रमाणे कहेली -- जिणपमिमाणं पूया, भेया इगवीस नीरचंदणयं। नूसणपुप्फो वासं, धूवं फलदीव तंत्रयं ॥ २ ॥ नेवजं पत्त पूगी, वारि सुवच्छं च उत्त चामरयं । वाजित्तगीय नर्से, शुश्कोसं वुटु श्यहीरं ॥ ३० ॥" ___“ १ स्नान, २ चंदन, ३ आनूषण, ४ पुष्प, ५ वासक्षेप, ६ धूप, ७ फल, दीपक, ए अदत, १० नैवेद्य, ११ पान, १२ सोपारी, १३ जल, १४ वस्त्र, १५ उत्र १६ चामर, १७ वाजित्र, १७ गीत १५ नाटक, २० स्तुति अने २१ नंमारनी चि. ए प्रमाणे एकवीश प्रकारनी पूजा कहेवाय जे." ते शिवाय एकसो आठ वगेरे वीजा पूजानां घणां नेदो कहेला ने ते बीजा शास्त्रीय ग्रंथोथी जाणी सेवा. एवी रीते चैत्य विनयनी अंदर आवेल दश प्रकारना विनय मांहेलो आ विनयनो त्रीजो जेद कहेवामां आव्यो. वाकीना विनयना बोजा जेदोनो सविस्तर व्याख्या पंमितोए वीजा मोटा ग्रंथोमांथी जाणी लेवी. सम्यक्त्वनी त्रिविध शुकि. अनुक्रमे सम्यक्त्वनी त्रण प्रकारनी शुफिनी व्याख्या करे बे. १ जिन, २ जिनमत अने ३ जिनमतने विष स्थिरता. ए सम्यक्त्वनी त्रिविध शुकि . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश ७३ जिन एटले श्री वीतराग. जिनमत एटले स्यात् पदे करीने युक्त एवा तीर्थकर प्रणीत, यथास्थित जीव अजीवादि तत्त्वो, अने जिनमतने विषे स्थिरता एटने जेमणे जिन तीर्थकरना आगमने अंगीकार करन , एवा मुनि महाराजा वगेरेएटले साधु, साध्वी, श्रावक अने श्राविका. ए जिन, जिनमत अने जिनमतने विषे स्थिरता कहेवाय . ए कहेवानो आशय एवो छ के, ए जिनादि त्रणने मुकी बाकीना एकांत वादरुप ग्रहे करीने ग्रसित थयेना आ संसारने विष कचरारुप के. एटने जिनादिक त्रज आ जगतमा साररुप छे, वाकीना सर्वे असार रुप . आवा प्रकारनी विचारणाथी सम्यकत्वनी निर्मलता थाय , तेथी ते सम्यकत्वनी शुद्धि कहेवाय जे, ते सम्यकत्वनी शुधि आगमने विष बीजी रीते पण कहेली . ते या प्रमाणे--- " मणवयकायाणं सुधि सम्मत्त साहणा तथ्य । मणसुधि जिण जिणमय वज्जमसारं मुण सोयं ॥१॥ तिथंकर चलणाराहणेण जं मासिझ न कजं । पच्छेमि तथ्थ नन्नं देव विसेसं च वयसुछि॥ ॥ विजंतो निजतो पिलिज्जतोविडज्ज्ञमाणोवि । जिणवजं देवयाणं नमह जो तस्स तणुसुद्धि” ॥ ३ ॥ “ मन, वचन अने काया ए ऋणे करीने कराती जे शुद्धि, ते सम्यकत्वनी साधन चूत थाय जे. एटले मन, वचन तथा कायानी शुद्धिथीज सम्यकत्व उप्तन्न थाय ने, ज्यारे जीव जिनमत शिवाय आ समग्र लोकने असारपणे माने जे, त्यारे ते पहेली मनः शुचि कहेवाय जे. श्री तीर्थकर देवना चरण कमळनुं आराधन करीने मारुं कार्य सिक थयुं नथी, तो पठी बीजा देवना आराधनधी मारुं कार्य शी रोते सिक थाय ? अर्थात् नज थाय; तेथी हुँ तीर्थकर शिवाय बीजा देवनी आराधना नही करूं.' आ प्रमाणे पोताने मुखे कहेवू, ए बीजी वचन शुकि कहेवाय जे. जे शस्त्र बंगरेथी बेदाता होय, नेदातो हाय, पीमातो होय अने बनतो होय, उतां वीजा देवने जरा पण कायाथी नमें नही, तो त्रोजी काय शुकि कहेवाय बे. १-३-३ Jain Education Intemational Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्री आत्मप्रबोध. आ प्रकारे बीजी रीते पण सम्यकत्वनी त्रण प्रकारनी शुधि कहेली . पांचदूषण. ? शंका एटले रागषयी रहित, ययार्थ उपदेशना करनार अने सर्वई एवा जिनेश्वरना वचनने विषे संशय ए शंका सम्यकत्वने बाधित करनारी बे, तेथी ते सम्यकत्वनुं पहेलु दूषण कहेवाय जे. तेथी सम्यकत्व दर्शनीओए ए शंकानो सर्वथा परिहार करवो जोइए. वळी ते शंकाथी लोकमां पण माणस पोताना कार्यने सिघ करी शकतो नथी. शंकालु माणसवें कार्य नाश पामी जाय . जेओ निःशंक रहेनारा , तेओना कार्य अवश्य सिफ थयेला देखाय जे. ते विषे बे व्यापारीअोनुं दृष्टांत प्रसिक जे. शंका उपर बे व्यापारीओनुं दृष्टांत. कोइ एक नगरीमा बे व्यापारीओ रहेता हता. तेश्रो बने को पूर्व कमना योगयी जन्मथीज दरिषी हता. एक वखते तेत्रो ज्यां त्यां जमता हता, तेवामां कोइ सिक पुरुष तेमना जोवामां आव्यो. तेने जोई संपत्तिनी सिछि करवाने माटे तेओ बने ते सिफ पुरुपनी सेवा करवा बाग्या. एक दिवसे तेमनी सेवानक्तिथी प्रसन्न थयेला ते सिघ पुरुषे ते बनेनी बच्चे बे कंथाओ (मंत्रितवस्त्रो) आपी. अने तेणे आ प्रमाणे कयुं, “वेपारीओ, आ वे कंथा चमत्कारी . तमारे तेने कंउने विषे धारण करवी. उ मास सुधी आ कंथा तमे धारण करशो, एटले पठी दररोज ते कंथा तमोने पांचसो सोनैया आपशे." सिम पुरुपना आ वचनो सांजळी ते बंने व्यापारीओ ते कंथाओ सह पोतपोताने स्थाने याव्या. ते बंनेमांथी एक व्यापारी शंकाशील हतो, तेणे विचार कर्यो के,"त्रा कंथा उ मास सुधी धारण कर्या पटी फल आपशे, एनी शी खात्री ?" आकी शंका लावी तेणे ते कंथानो त्याग करी दीधो. बीजाए एवी शंका करी नहीं. तेणे निःशंक थप अने लोकलज्जाने डोमी दश ते कंथाने उ मास सुधी धारण करी. आयी ते कंथाना प्रनावथी ते मोटी समृचिवालो शेठ बनी गयो. तेनी आवी समृधि जोर पेक्षा कंथाने त्याग करनारा व्यापारीने यावज्जीवित पश्चात्ताप थया कर्यो. धनाढ्य बनेलो व्यापारी यावज्जीवित सुखी, जोगी अने दानी Jain Education Intemational Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. ७५ थयो हतो." आ दृष्टांत नपरथी समजण सर जव्य पुरुषोए उत्तम वस्तुमां जरा पण शंका न करवी जोइए. 'कांक्षा' एटले अन्य दर्शननो अनिताप. ते उत्पन्न थवाथी परमार्थ रीते श्री अरिहंत नगवाने कहेला आगम उपर अविश्वास थायडे, तेथी ते सम्यक्त्वने दूषण कहेवाय छे. सम्यक्त्वंत पुरुषोए ते कांदा दूषणनो परिहार करवामां यत्न करवो. कारणके, लोकमां पण कांक्षा करनारो पुरुष घणां दुःखोनो लागी यतो देग्वाय छे. ते विषे एक दृष्टांत कहेवाय . कांक्षा नपर दृष्टांत. " एक नगरने विष को एक ब्राह्मण रहेतो हतो. ते हमेशां ' धारा' नामनी पोतानी गोत्रदेवीनुं आराधन करतो हतो. एक वखते तेणे लोकोना मुखयी 'चामुंमा' देवीनो अनाव सांजल्यो. ते सांगळी ते चामुंमा देवीनु आराधन करवा लाग्यो. एटो धारा अने चामुंमा बंने देवीओनी आराधना करना लाग्यो. अने तेम करतां घणो समय बीती गयो. एक वखते ते ब्राह्मण ग्रामांतर जतो हतो. मार्गमां चालतां एक नदीन चोतरफ पर आव्यु. ते पूरमां ब्राह्मण सपमा गयो अने तणावा लाग्यो. ज्यारे ते पूरनी वाहेर नोकळी न शक्यो, त्यारे ते उंचे स्वरे पोकार करी कहेवा लाग्यो " हे धारादेवी, दोमो दोमो, हे चामुंमा, मारी रक्षा करो, रक्षा करो." आवा पोकारथी ते बंने देवीओ- स्मरण करवा लाग्यो. तेना पोकारथी बने देवीओ त्यां हाजर था. परस्पर यायो ते वनेमांयी एके देवी ते ब्राह्मणनी सहाय करवाने ग३ नहीं. ब्राह्मणनुं रक्षण थयु नही. ब्राह्मण आर्त तथा रोषध्यान धरतो ते पुरना जळमां मुबी गयो हतो. ___ आ दृष्टांत उपरथी आत्म हितेच्छ पुरुषोए बीजा मतनी कांदा न करवी. ए प्रकारे कांदा नामनुं सम्यक्त्वनुं बीजं दूषण दृष्टांत पूर्वक कहेढुं जे. त्रीजुं विचिकित्सा दूषण. जिनेश्वरनी आझाने अनुसरी चालनारा अने शुफ आचारने धारण Jain Education Interational Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्री आत्मप्रवोध. करनारा मुनि आदि आदि शब्दथी श्रावको पण लेवा. तेमनी जे निंदा करवी, ते विचिकित्सा नामे त्रीजुं दूषण कहेवाय बे. ते सम्यक्च्वने दूषित करनारुं होवाथी तेने दूषण तरीके कहेलुं छे. ए विचिकित्सा दूषणने सर्वथा वर्जित करं. जेमने सम्यक्त्व रत्न प्राप्त थयेल े, अने यो सम्यक्त्वने विषे प्रयत्नवंत वे, एवा पुरुषानी तथा बीजा हरकोई पुरुषनी निंदा करवी योग्य नथी. तेमां जे निर्दोष एवा साधु प्रमुख उत्तम पुरुषो डे, तेमनी निंदा तो सर्वथा वर्जवी, एवो न्यायडे. जे श्रा एवा वीजानी गळ पोताना गुरुजननी निंदा करे बे, अने यो स्वयं मंगळरूपाने मंगळना कारणरूप एवा त्यागी गुरुग्रोने सन्मुख यावता जोइ "या अमंगळनुं कारणरूप मारे अपशुकन थयां. हवे आथी मारा कार्यनी सिद्धि नहीं था." प्रमाणे पोताना मनमां चिंतवे बे, तेस्रो महा मूढपणावाळा, जिनवचन विमुख, एकांते मिथ्यादृष्टिवाळा अने दुष्कर्मना बंधक जाएवा. ज्ञानी महाराज कहे बेके, तेवा पुष्ट प्राणीओनी आलोक तथा परलोकमां माये करीने को वखत पण वति कार्यनी सिद्धि यती नथी. ए सम्यक्त्वनुं विचिकित्सा नामे त्रीजुं दूषण कडेल बे. कुदृष्टि प्रशंसा. मिथ्यात्वनी प्रशंसा करवारुप सम्यक्त्वनुं चोयुं दूषण बे. कुदृष्टिले खराब दृष्टिवाळा, जेनुं शुद्ध दर्शन नथी, एवा अशुद्ध धर्मवादी कुतीथीं, तेमनी जे प्रशंसा करवी. ते सम्यक्त्वनुं चोयुं दूषण बे. ते प्रथम कला हेतुथी वर्ज. कारण के, ते सम्यक्त्वने मलिन करे बे. ठीक बे, आ जे कुतीर्थना कांइक अतिशय वगेरे जोइ " मत ग्राबे, कारण के जेनी अंदर यावा अतिशयवाळा होय बे. " जे प्रशंसा करे बे, ते मूढ निष्कारण पोतानुं शुद्ध सम्यक्त्व रत्न मलिन करे बे. मिथ्यात्वीनो परिचय. या प्रमाणे मिथ्यात्वी ओनो परिचय राखवो, ए सम्यक्त्वनुं पांचमुं दूषण छे. उपर कला कुदृष्टियोनी साथे आलाप संताप प्रमुखथी परिचय करवो, ते पण सम्यवचने दूषित करे बे, माटे ए पांचमा दूषणनो सर्वथा परिहार करवो. जेओ सुदृष्टि Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश. 99 वाळा मुनिओ वगेरे होय तेमनोज परिचय करवो. कुदृष्टिप्रोनो परिचय न करवो. कुदृष्टि - अन्य मतिओनो परिचय करवाथी नंद मणिकार शेठनी पेठे प्राप्त थयेल सम्यक्त्वरूप रत्न नाश पामे डे. नंद मणिकर शेनुं दृष्टांत. 46 एक वखते राजगृह नगरने विषे श्री चरम तीर्थंकर श्री वर्द्धमान मनु समासर्या हता. श्रेणिक वगेरे श्रदालु लोको तेमने वंदना करवाने आव्या हता. ते समये सौधर्म देवलोकनो निवासी दर्डरांक नामे देव पोताना चार हजार सामानीक देवताना परिवार साथे त्यां प्रजुने वंदना करवा आव्यो, ते सूर्यान देवनी पेठे श्री वीर प्रजुनी आगल बत्रीश प्रकारनुं नाटक करवा मांगयुं. ते नाटक कर्या ते देव पोताने स्थाने चाव्यो गयो. ते पत्री श्री गौतम गणधरे भगवंतने पुयं के, “ जगवन्, या देवता यावी ऋद्धि क्या पुण्यथी प्राप्त करी बे ?" प्रत्तुए उत्तर आप्यो. " या नगरमां नंदमणिकार नामे एक शेठ वसे बे. एक वखते मारा मुखर्थी धर्म सांजळीने तेथे सम्यक्त्व सहित श्रावक धर्मने अंगीकार कर्यो. ते पी घणां काल सुधी ते श्रावक धर्म पाळ्यो हतो. एक खते कोइ कर्मना योगथी तेने कोइ कुदृष्टिनो परिचय थयो. तेनो परिचय वधवाथी तेने को शुद्ध मुनि महाराजना परिचयनो अभाव थयो. आथी तेना हृदयमां मिथ्या बुद्धि वृद्धि पामी. ते पूर्वे घणो सदबुद्धिवालो हतो, पण मिध्यादृष्टिना सहवास अनुक्रमे बुद्धिमां मंद जावने पामी गयो. ते मिश्र परिणामथी कालक्षेप करवा लाग्यो. एक दिवसे ते नंद मणिकार शेठे ग्रीष्मरुतुमां पोषध साथे मनो तप ग्रहण कर्यो. वे दिवसे तेथे ए व्रत पाळ्युं. त्रीजे दिवसे मध्य रात्रे तेने अतितीव्र मन तृषा लागी, तृपानी वेदनाथ तेनामां प्रार्त्तध्यान उत्पन्न ययुं ते आ प्रमाणे चितववा लाग्यो. " या संसारने विषे जे पुरुषो परोपकारने माटे वाव्यो तथा कुवाओ करावे बे, तेओने धन्य बे. धर्मना उपदेशकोए नवाण कराववाना धर्मने उत्तम को बे. जेओ ते धर्मने निंदे बे, तेओनी युक्ति खोटी बे. वाव्य कुवा वगेरे नवाण करावनाराने माटे शास्त्रमां कां बे के. " "" 'धन्यास्त एव संसारे कारयति बहूनिये। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 श्री आत्मबोध. वापी कूपादि कृत्यानि परोपकृति देतवे ॥१॥ धर्मोपदेशकैश्चापि प्रोक्तो ऽसौ धर्म उत्तमः | येत्वादुष्टतामत्र तक्तिर्दश्यते वृथा ॥२॥” " जेो वाव्य, कुवा वगेरेना कृत्यो परोपकारने माटे करावे छे, तेस्रो आ संसारमा धन्य बे. धर्मना उपदेशकोए ए धर्मने उत्तम कहेलो बे. जे लोको ए धर्म दूषित कहे बे, मनुं वचन वृथा वे. १-२ बली कहां ने के, "ग्रीष्म डुर्बलाः सत्वास्तृषार्त्ता वापिकादिषु । समागत्य जलं पीत्वा जवंति सुखिनो यतः ॥ ३ ॥" sage विषे पूर्व प्राणीओ, तृषार्थी पीमित थड़ वाव्य अथवा कूवा वगेरेमां प्रवीने जलपान करी सुखी थाय छे. " ፡ तोदमपि च प्रातर्वापीमेकां महत्तराम् । कारयिष्यामि तस्मान्मे सर्वदा पुण्यसंभवः " ॥ ४॥ “ एथी हुं पण प्रातःकाले एक मोटी वाव्य करावीश, तेथी मने सर्वदा पुण्य थवानो संभव बे. " ४ 66 प्रमाणे मनमां चिंता तेणे बाकीनी सर्व रात्रि प्रसार करी प्रातःका पारकरी किराजानो हुकम लड़ ते वैजार गिरि पवर्तने विषे अव्या नेत्यां वने ते एक मोटी वाव्य करावी. ते वापिकानी चारे दिशाए अनेक प्रकारा वृदोथी सुशोभित ने दानशाळा, मठ मंमप तथा देवकुल प्रमुख ति एवा वन कराव्या. मिथ्यात्वीना परिचयथ । आ प्रमाणे तेणे पोताना धर्मनो त्याग करी दीघो. अनुक्रमे प्रबळ कर्मनो उदय थवाथी तेनामां मोटा सोळ रोग उप्तन्न थया. ते सोळ रोगना नाम या प्रमाणे बे. १ कास, २ श्वास, ३ ज्वर ४ दाह, ए कुक्षिमां शूल, ६ भगंदर, ७ हरस, अजीर्ण, ए दृष्टिरोग, १० पृष्ट शूझ, ११ अरुचि, १२ खुजली, १३ जलोदर, १४ मायानी पीमा, १ एकर्ण वेदनाने १६ को सोळ रोगो तेने नारे पीमा करवा लाग्या. या रोगोथी Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश gu जेनुं शरीर पीमित थयेनुं , एवो ते शेव अतिशय वेदना जोगवी मृत्यु पामी गयो. मरण वखते तेनुं ध्यान तेनी वाव्य उपर हतुं, तेथी ते मरण पामीने तेज वाव्यमां गर्नज देमकापणे उत्पन्न थया. ते वाव्य जोड्ने ते वाव्य पोतानी करावी बे, एम थतां तेने जाति स्मरणशान जप्तन्न थइ आव्यु. ते ज्ञान उप्तन्न थवाथी तेना जाणवामां आव्यु के, जैन धर्मनी विराधना करवाथी आ फळ प्राप्त थयु छे, तेथी तेना हृदयमां वैराग्य उप्तन्न थइ आव्यु. आथी ते देको विचार करवा लाग्यो के," आजथी हवे मारे निरंतर न तप करवो. पारणाने दिवसे वाव्यना कांग नपर आवी स्नान करता एवा लोकोथी प्रासुक थयेला जलनु पान कर अने प्रासुक थयेली मृत्तिकानुं नक्षण करवं." आवो विचार करी तणे तेवो अनिग्रह धारण कर्यो. एक वखते ते वाव्यने विषे स्नान करवाने आवता एवा स्रोकोथी मारूं आगमन तेना सांजळवामां आव्युं, तेथी मने ते पोताना पूर्व जवनो धर्माचार्य मानी एक सहस्त्र पत्रवाद्धं कमळ मुखमां लश् मने वंदना करवाने नीकट्यो. ते व. खते केटलाएक दयालु लोको मने वंदना करवा आवता हता, तेमणे दयाबुषिथी ते देमकाने वारंवार वाव्यना जलमा नांखवा मांझयो. उतां पण मने वंदना करवामां एकाग्रचित्तवाळो ते देमको वाव्यमांथी वाहेर नीकली जेवामां आवतो हतो, तेवामां लक्तिथी जेनुं मन उल्लास पामेलु डे एवो श्रेणिकराजा घणो परिवार बस्ने मने वंदन करवा आवतो हतो, ते तेज मागे नीकळ्यो. कर्म योगे ते देमको श्रेणिकराजाना घोमानी खरी नीचे चकदाइ गयो. शुन्न ध्यानथी त्यांज मृत्यु पामी ते सौधर्म देवलोकने विषे दर्डरांक नामे महा समृधिवान् देवतारुपे जप्तन्न थयो. तरतज तेने अवधिज्ञान उप्तन्न थयु. तेथी तेणे पोताना पूर्व नवनो वृत्तांत अवलोकी अहीं मारा समवसरणनी बीना जाणी तत्काळ अहीं मने वंदना करवाने आव्यो अने पोतानी सर्व समृद्धि देखामी पालो पोताना स्थान प्रत्ये चाट्यो गयो. हे गौत्तम, ए प्रमाणे एरांक देवनो वृत्तांत में तमने को जे." . गौतम मुनिए पुनः प्रजुने प्रश्न कर्यो " जगवन् , ए देवता अहथि। च्यवीने क्यां जशे ? " लगवाने कह्यु, " ते महाविदेह क्षेत्रने विषे जप्तन्न थशे." - मिथ्यात्वीना परिचयथी केव नगरुं फळ मळे ? ते विषे आ नंदमणि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ៩០ श्री आत्मबोध. कारनं दृष्टांत सांजळ सम्यक्त्ववंत पुरुषोए सर्वथा कुदृष्टिना परिचयनो त्याग करवो. अने सम्यगृष्टिना परिचयने वधारवो. याप्रमाणे सम्यक्त्वने दूषित करनारा सम्यक्त्वना पांच दूषणो जे कहेवामां आव्या तेोथी सम्यक्त्व मलिन थाय बे, मांटे ते पांचे दूषणोनो सर्वथा परिहार करवो. सम्यक्त्वना आठ प्रजावक. हवे सम्यक्त्वना वधे ते प्रजावक कहेवाय बे. प्रजावक कहे वे. जेनाथी सम्यक्त्वनो प्रजाव १ प्रवचनी प्रजावक. प्रवचन एटले द्वादशांगी. ते जेने अतिशयनी पेठे होय ते प्रवचननी कवाय बे. वर्त्तमानकाळने योग्य एवा जे जे सूत्रो बे, तेना अने तेना अर्थना धारण करनारा - तीर्थना वहन करनारा जे आचार्य ने प्रवचनी कहेवाय बे. देवगिणी क्षमाश्रमणादिक प्रथम प्रवचनना प्रजावक थया हतां. --- देवगिनी कथा. • एक वखते राजगृही नगरीने विषे चरम तीर्थकर श्री महावीर प्रभु समोसर्या हता. देवताओ मनोहर समवसरण रचेतुं हतुं बार परिषदो तेमां एकटी मळी हती. ते वखते सुधर्मा इंद्र आव्यो. ते जगवान्ने ऋण प्रदक्षिणा करी ने वंदन करी पोताने योग्य स्थाने वेळो. ते पछी प्रजुए जल सहित मेघना जेवा ध्वनि स्वरनी मधुरतार्थ परमानंदरुप अमृतने ऊरनारी, महा निविम मोहरूप कारनो नाश करनारी, सर्व जगत्नां प्राणी ओने चमत्कार करनारी ने मनने हरनारी एवी देशना आपी. देशनाने अंते सौधर्मपति से विनयथी वीरमनुने पुछ्युं, “ जगवन्, अवसर्पिणी कालमां तमारुं तीर्थ केटलो काल प्रवर्त्तशे. पीशी रीते तेनो विच्छेद थशे ? " इंडनो आ प्रश्न सांजली वीर प्रजुए कहुँ, हे प्र, एकवीश हजार वर्ष दुषम नामे पांचमा आारा सुधी मारुं तीर्थ प्रवर्त्तशे. ते पर पांचमा आराना बेले दिवसे पेहेला पोहोरमां १ श्रुत, २ सूरि, ३ धर्म अने ४ संघ - ए चार विच्छेद पामशे. बीज पोहारे विमलवाहन राजा थता तेनो Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. सुधर्मा नामे मंत्री ने राजनीति नाश पामी जशे. सायंकाळे बारच्छेद थड़ जशे. आवी रीते मारा तीर्थनो उच्छेद य जशे . इंद्रे पुनः प्रश्न कर्यो; " स्वामी, तमारुं पूर्वगत श्रुत केटलो काल रहेशे ?" मनुए उत्तर आयो “ इंड, एक हजार वर्ष पर्यंत मारुं पूर्वगत श्रुत रहेशे ते पछी तेनो उच्छेद थड़ जशे. • G? 46 इं पुनः पुच्युं, स्वामी, कया आचार्य महाराजनी पछी सर्व पूर्वगत श्रुत विनाश पामशे ? " प्रभु बोब्या- “ देवगिणी क्षमाश्रमणनी पछी सर्व पूर्वगत श्रुत विच्छेद पामी जशे. " इंझे फरीथी पुक्युं, भगवन्, जे देवगिणी थवाना बे, तेमनो जीव हाल क्यां बे ? " मनुए कहाँ, "इंड, जे तारा पेदल सैन्यनो अधिपति हरिणगमेप देव तारी पासे रहेलो बे, ते देवगिणी नो जावी जीव बे. प्रजुनां या वचन सांगळी इंद्र विस्मय पामी गयो अने ते पोतानी पासे रहेला हरिणगमेषी देवनी प्रशंसा करवा लाग्यो. ते देवे पण आ पोतानो वृत्तांत सांजळी लीधो. ते पी इंद्र परिवार सहित प्रभुने नमी पोताने स्थाने चाल्यो गयो. 46 हरिगमेषी देवे अनुक्रमे आयुष्यना दलियानी हानि थतां ब मासनुं आयुष्य थाकतां मनुष्यनुं त्र्यायुष्य बांध्युं, ते पछी पोतानी पुष्पमाळानुं करमाइ जवं पोनुं कंपन वगेरे च्यववाना चिन्हो देखी तेणे इंडने आ प्रमाणे विनंति करी. " स्वामी, तमे अमारा पोषण करनारा प्रभु बो तेथी मारा पर क्रूपा करी एटलं करो के, जेथे । मने परभवने विषे धर्मनी प्राप्ति थाय हुं फरीथी योनिरूप यंत्रना संकटमां पकी वे प्रकारना अंधकारथी जेना चेतननो अने चतुनो लोप थलो एवो बनी गर्जनी औरमां क्षेपाला शरीरने अग्निथी ताप थाय ने सूची ( सोइ ) ना समूहथी पण अधिक शरीरने वेदना थाय, तेवा डुःखो जोगवना जतां हूं धर्मकरणीने जुली जश, माटे मारे स्थाने उत्पन्न थयेला बा हरिगमेषी देवने मने बोध करवा मोकलजो. एथी पनुं स्वामिपणुं पर नवने विषे पण सफळ थशे. " ते देवताना या वचनो अंगीकार कर्या, तोपण ए हरिणगमेपी देवताए पोताना विमाननी जींत उपर वज्र रत्नवमे नीचे प्रमाणे अकरो लख्या. ૧૧ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रवोध. "जे हरिणगमेषी देव आ स्थाने उत्पन्न थाय, तेणे मने परनवने विषे प्रतिबोध करवो. जो ते नहीं करे तो तेने इंधना चरणकमळनी सेवामां विमुखपणानो दोष लागशे." आयुष्य पूर्ण थया पठी ते हरिणगमेषी देव त्यांथी च्यवीने जंबूधीपमा आवेता जरतक्षेत्रनी अंदर सौराष्ट्र देशमा वेवाकुलनगरना राजा अरिदमनना सेवक कामछि क्षत्रियनी स्त्री कलावतीनी कुदिने विषे पुत्ररुपे उत्पन्न थयो. ते काधि सेवक काश्यप गोत्री हतो. ज्यारे ए गर्नमां आव्यो त्यारे तेनी माता कलावतीए स्वमाने विषे एक महर्षिक देवने जोयो हतो. अनुक्रमे शुत्न दिवसे ए पुत्रनो जन्म थयो. तेनुं नाम देवर्षि पामधु. पांच धात्रीओथी पालन करातो ते पुत्र बार वर्षनो थयो. पिताए तेने बे कन्याओ परणावी. देवर्षि ते कन्याओनी साथे विषय नोग जोगवतो हतो. ते युवान थयो त्यारे तेने अधर्मी जनोनो सहवास थयो हतो. पोतानी समान वयना राजपुत्रो तथा क्षत्रिय पुत्रोनी साथे ते सीकारनीवार्ता करतो हतो. ते धर्मनी वार्ता जाणतो नहीं तेम सांजळतो पण नहीं. ते आ रीते पोतानो काल निर्गमन करतो हतो. हवे पेक्षा विमानने विषे नवो हरिणगमेषी देव उत्पन्न थयो. उत्पत्ति समये जे पूजा आदि करणी करवा योग्य डे, ते करी ते सुधर्मा इंजनी सनामां सेवाने माटे आव्यो. तेने देखी इंझे पुग्यं के, " तुं नवो उत्पन्न थयो के ?" तेणे हा कही एटने इंझे तेने आझा करी के, तारा स्थान उपर थयेला पेहेलाना हरिणगमेषी देवने तारे प्रतिबोध करवो." इंधनी आ आझा तेणे अंगीकार क. री. ते पनी ते पोताने स्थाने चाट्यो गयो. एक वखते ते हरिणगमेषी देवे पोताना विमाननी दीवाल उपर पेला अक्षरो अवलोक्या. ते वांची तेणे एक पत्र लख्यो. तेमां नीचे प्रमाणे श्लोक ब. ख्यो हतो. " स्वन्नित्तिलिखितं वाक्यं, मित्र त्वं सफली कुरु । हरिणेगमेषिको वक्ति, संसारं विषमं त्यज ॥ १॥" Jain Education Interational Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश. ८३ “ हे मित्र, तारा विमाननी जींते लखेलुं वाक्य तुं सफल कर. नेहरिगमेषी देव कहे हे के, या विषम संसारने बोमी दे. १ " आ श्लोक लखी तेथे पोताना एक सेवकने बोलावी कडुं के, "आ पत्र तारे देवर्द्धने पवो. " एम कही ते सेवकने विदाय कर्यो. ते सेवक ज्यां देवर्द्धि हतो त्यां व्यो अने आकाशमां रही ते पत्र तेनी पासे नांख्यो. दव - ए प्रकाशमाथी पकता ते पत्रने देखी लइने वांच्यो, पण तेना अर्थ तेना समजवामां आव्यो नहीं. ते पछी केटलोक समय बीती गयो. पी पेला देवताए स्वप्नामां आवतेने ए श्लोक कलो, तोपण देवकि प्रतिबोध पाम्यो नहीं. एक वखते देवादि सीकार करवाने नीकल्यो हतो. कोइ अटवीमां आani एक वराह तेनी नजरे आव्यो. तत्काळ तेथे पोताना घोमाने वराहनी पुंठे दाव्यो. वराहनी पाबळ ते अटवीमां दूर चाल्यो गयो. तेवामां पेक्षा हरिणगमेषी देवे तेने जय बताव्यो. एक केशर सिंह उनो बे ने पाछळ मोटो खाम डे, ते खामनी बे पमखे बे मोटा वराह घुर्धुर शब्दो करतां नजावे. नीचे धरती कंप थाय ने उपरथी पथरानो वर्षाद पके बे. या प्रमाणे मृत्युना जयने उत्पन्न करनारा कारणोने देखी ते देवर्द्धि जययी व्याकुल थर गयो. अने चारे दिशा तरफ जोवा लाग्यो. तेथे चोतरफ जोयुं पण कोइ तेना मरणनो निवारक जोवामां आव्यो नहीं, तेथी ते विशेष चिंता करवा लाग्यो. ते समये पेला देवताए रु दृष्टि विलोकी ने कयुं, “केम हजु सुधी मारा कहेला श्लोकनो अर्थ नयी जाणतो ?" देवर्किए जय पामीने कथं, “हुं कांइपण जाणतो नथी. " पछी ते देवताए तेने तेना पूर्वजवनो बधो वृत्तांत कही संजळाव्यो. अने पछी कथं के, 'जो तुं व्रत ग्रहण कर तो तने बोमी दर्ज - मरणांत कष्टमांथी तारुं रक्षण करूं. " ते सांजळी ते देव ते अंगीकार कर्यु, पछी ते देवताए ते देवर्द्धिने त्यांची उपाम तचार्य पासे मुक्या अने त्यां तेमले जिनेश्वर भगवान्नी दीक्षा ग्रहण करी. दीक्षित थयेला देवर्षिए आगमनुं पूर्ण ज्ञान संपादन कर्यु ने पोते यथागीतार्थ था. गुरुनी पासे जेटलुं पूर्वश्रुत हतुं, तेटलं तेमणे जणी लीधुं. ते पछी ते श्री केशीगणधरना संतानिक देवगुप्त गणी पासे आव्या ने तेमनी पासे प्रथम पूर्व अर्थयुक्त ने बाजुं पूर्व मात्र सूत्ररूपे नएया हता. तेमना विद्यागुरु Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. स्वर्गवासी थया पठी गुरुमहाराजाए देवर्षिने गीतार्थ जाणी पोतानी पाटे स्थापित कर्या अने तेमने गणीपद प्राप्यु. अने वीजा गुरुए तेमने क्षमाश्रमण पद आप्यु. त्यारे महानुनाव देवर्षि गणी दमाश्रमण, ए नामथी प्रख्यात थया हता. ते समये पांचसो आचार्यो विद्यमान हता, तेश्रोमां देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण युग प्रधानपदने धारण करनार, कलिकाल केवनी, सर्व सिधांतनी वांचना आपनारा, अने जिनशासननी मनावना करनारा थया हता. ___ एक वखते महानुनाव देवगिणी श्री शत्रुजय पर्वत उपर अाव्या हता. त्यां वज्रस्वामीए स्थापेक्ष श्री आदीश्वर प्रनुनी प्रतिमाने नमी तेमणे श्री कवमयदनी आराधना करी हती. श्री कवमयके प्रत्यक्ष थप्ने गणीने कयु के, “ मारु काम के ?" ते वखते महानुनाव देवर्षिगणीए कह्यु, हे यकदेव, हमणां बार वर्षनो उकाल थयेत्रो जे. श्री स्कंदिलाचार्ये मयुरामां सिमांतनी वांचना करी, तो पणचानता समयने अनुसारे मंदबुछिपणायो साधुओ आगमोने विसरी · जाय ने, अने जशे. तेथी तमार। सहाययी ते सिधांतोने तामपत्र उपर सखवानी मारी इच्छा . तेम करवाथी जिनशासननी उन्नति थशे. कारण के, मंद बुधिवाळा पुरुषो पण पुस्तकर्नु अवलंबन करीने सुखे शास्त्राच्यास करी शकशे." देवर्षिगणीना आ वचनो सांजळी ते यह प्रसन्न थइने बोल्यो " हुं तमोने ए कार्यमां सांनिध्य करीश. तमो साधुओने एका करो. पनी आचार्ये कयुं के, तमो मषी, तामपत्र विगेरेनो मोटो जथ्यो एकत्र करावो. केटलाएक लहीआने पण एकग करो. अने ते साथे साधारण अव्य पण एक करो." आ प्रमाणे कही ते गणी त्यांची विहार करीने वसनीपुरमां आव्या हता. त्यां पेसा यह पुस्तक लखवानी सर्व सामग्री एकठी करी हती. पनी वृछ अने गीतार्य देवर्षिगणी जेम जेम अंग-नपांगना आलावा कहेता गया, तेम तेम बहीआओए प्रथम खरमारुपे लखी बीधा. ते पठी ते गणी महाराजाए संयोजना करावी मूत्र पत्रमा लखाव्या हता. अद्यापि पण ते कारणने बस्ने अंगोने विषे उपांगोनी साक्षी आपवामां आवे . वळी बच्चे बच्चे विसंवादनी संख्यानो Jain Education Intemational Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. ՇԱ नियम न होवाथो माथुरी वाचना पण देखाइ आवे बे. तेम वळी पूर्वे आर्य रक्षितसूरि महाराजाए सिद्धांतो ने विषे जुदा जुदा अनुयोग कर्या, स्कंदिलाचायें तेमनी वांचना करी अने देवर्किंगणीए तेमने पुस्तकरू की हता. ते कारणने लइने सुधर्मा स्वामीना वचनो कोइ कोइ ठेका संस्थूल देखाय बे. एटले तेमां पाठांतरो जोवामां आवे छे; ते पण आ 5षम कालनोज प्रजाव े. तथापि सम्यग् दृष्टि जीवोए या जिन आगमने विषे जरा पण संशय करवो नहीं. ते समये देवताना सांनिध्यथी एक वर्षनी अंदर एक कोटी प्रमाण जैन पुस्तको लखवामां आव्या हता. श्री वीरप्रतुना निर्वाण पीनवसो ऐंशी वर्ष प्रतिक्रांत थया पछी सर्व सिद्धांतोना लखनार ने युग प्रधान पद धारण करनार श्री देवगिणी क्षमाश्रमण श्री जिनशासननी बहु प्रकारे प्रजावना करी बेवटे सिन्दगिरि उपर अनशन करी देवलेोके गया हता. आवा प्रकारना आचार्यो श्री जिनशासनना प्रजावक कहेवाय बे. बीजा धर्म नामे जावक कहेवाय बे. जेमनी धर्मकया प्रशस्त होय ते धर्मकथी कदेवाय बे. ते क्षीराव लब्धि प्राप्त करी जल सहित मेघनी गर्जना जेवी वाणी व आपणी, विशेपणी, संवेदनी, अने निवेदनी - एवी चार जातनी देशना व लोकोना मनने प्रमोद उत्पन्न करे तेवी धर्म कया करे छे अने तेमनाथी घणां भव्य जीवोने प्रतिबोध करे बे. तेवा धर्मकथी श्री नंदिषेण विगेरे हता. ते चार प्रकारनी कथाओना लक्षणो. १ जेमां हेतु दृष्टांत व स्याद्वादनी पद्धती थी पोतानो मत स्थापन करवामां आवे ते आपण कथा कहेवाय बे. 2 जेम पूर्वापर विरोधवने मिथ्या दृष्टिना मतनो तिरस्कार करवामां आवे ते विक्रेपणी कथा कहेवाय बे. ३ जे मात्र सांजळवाथी जव्य जीवोने मोनो अभिनाष थाय, ते संवेदनी कथा कहेवाय बे. ४ जमां संसारना जोगना अंगनी स्थिति अनुं मात्र वर्णन करवाथी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. ज जन्य जीवोने ते वैराग्यतुं कारण थाय, ते निवेदनी कथा कहेवाय . घर्मकथी श्री नंदिषेनुं दृष्टांत. को एक नगरमा मुखप्रिय नामे एक धनवान् ब्राह्मण रहेतो हतो. एक वखते तेणे मिथ्यात्वथी मोहित थइ यज्ञ करवानो आरंज को.ते यज्ञमां रांधता अन्ननी रक्षा करवा माटे तेणे एक जीम नामना पोताना सेवकने आशा करी. ते वखते ते जीमे एवो ठराव कर्यो के, ब्राह्मणोने जमाड्या पळी जे बाकी अन्न रहे ते मने आप.' आवा ठरावथी तेणे ते अन्ननी रक्षा करवाने कबुल कर्यु हतुं. मुखप्रिय ब्राह्मणे ते ठराव कबुन को अने ते जीमने अन्ननी रक्षा करवाने राख्यो. ते गृहस्वामी मुखप्रिय ब्राह्मणे ब्राह्मणो जमी रह्या पठी वधे अन्न पो. ताना सेवक नीमने आपो दी . जीम सेवावृत्ति करतो हतो, तोपण ते सम्यक् दृष्टि हतो. तेणे ते अन्नयो जैन मुनिओने प्रतिमानित कर्या. अने बीजा अन्य दर्शनीओने पण दया दाननी बुद्धिथी आप्यु आथी ते नीमे जोगकर्म उपार्जन कर्यु. केटलेक समये ए नीम सेवक मृत्यु पामीने देवता थयो. देवताना सुख जोगवी त्यांथी च्यवीने ते राजगृह नगरीना राजा श्रेणिकने घरे पुत्ररुपे उत्पन्न थयो. त्यां तेनुं नंदिषेण नाम पाडवामां आव्यु. पेला मुखप्रिय ब्राह्मणनो जीव मृत्यु पामी केटझाक जव नमी ते काळे कदलीना वनने विषे को हाथिओना टोळामा एक हाथिणीनी कुझिने विषे उत्पन्न थयो. ते वखते हाथिणीोना यूथपति गर्ने विचार करतो के, जो कोइ नवीन हाथी मोटो यूथपति थशे, तो ते मारो पराजव करशे. " आई विचारी ते यूथपति हाथिणीओने प्रसव समये कोई हाथी अवतरे त्यारे तेने हणी नाखतो हतो. जेना गर्नमां पेक्षा मुखप्रिय ब्राह्मणनो जीव अवतरेल ते हाथिणी ते यूथपतिथी पोताना गर्न, अकुशल जाणीकपटथी लंगमी थइ अने हलवे हलवे हाथीनी पाछळ चालवा लागीको कोश्वार एक बे दिवसे ते पोताना यूथपतिना टोळाने मळवा लागी. एक वखते कपट करी हाथिणी टोळाथी विखूटी पकी कोई तापसना आश्रममां आवी तेणी पोतानी सुंढवळे ते दयाळु तापसना चरणनो स्पर्श करवा लागी अने तेने वारंवारनमवा लागी. दयालु तापसाए ते हाथिणीने गर्भवती जाणी तारो गर्न कुशन रहो' एम आशीष आपी पोताना आश्रय नीचे राखी. हाथिणीए एक Jain Education Interational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. दिवसे एक पुत्रने जन्म प्राप्यो . तापसना पुत्रोए तेनी परिपालना करवा मांगी नेते गजपुत्र सुरक्षित थयो. हाथिणी अरण्यमां चरवा जती ने आश्रममां पोताना पुत्रने स्तनपान करावा यावती हती. हाथिणीनुं ते बालक उछरवा मातापसोना बालकोनी साथे क्रीमा करवा लाग्युं तापसोना कुटुंबोनी साथे हलीमली गयेलो ते गजबालक हंमेशां पोतानी सुंढमां जल लावी श्राश्रमना वृदोने सिंचन करतो हतो. या प्रमाणे वृक्षोने सिंचन करतां गजेंकना बालकने जोड़ने ते तापसोए तेनुं नाम सेचनक पाड्युं. ते सेचनक ते स्यले जबरी वृद्धि पामी त्रीश वर्षनो गजेंद्र थयो. एक वखते ते महान् इस्ती वनमां फरतो पेक्षा मोटा गजेंना जोवामां आव्यो. तत्काल ते गजेंद्र तेना उपर सीतां युवान हस्तीए पोताना उग्र बलथी ते यूथपति गजराजने मारी नांख्यो. ने पोते यूथपति बनी गयो. तेथे विचार्य के “ जेम मारी माताए पेला यूथपतिना जयर्थ । मने तापसोना आश्रममां जणी मोटो कराव्यो, तेवी रीते बीजी हाथो न करे. " या धारी पोतानुं यूथ लइ तापसोना आश्रममा गयो अने त्यां ते तापसना कुंपकाने तेणे जांगी नांख्युं, ते जोइ तापसो तेनी उपर रोषाविष्ट गया अने ते प्रदेशना राजा श्रेणिकनी पासे तेनी फरीयाद करी. राजा श्रेणिक तापसोनुं ते कष्ट जोड़ कांइ प्रयोगथी ते नवीन यूथपतिने बंधनमां error. ने बंधनना स्थानमां यंत्रवाली सांकळोथ । तेने बंधाव्यो. Go एक वखते तापसोए ते बांधला सेचनक हाथीने जोड़ने कछु के, ' तें जें कर्म कर्यु, ते तने फल मळ्युं छे. ' आ वाक्य सांजळतांज ते गजेंड क्रोधातुर थइ गयो ने तत्काल ते बंधनने तोमी ते तापसोने मारवाने पाबळ दोड्यो. तापसो व्याकुलपणाना शद्बो पोकारता नाशी गया. तापसोनो पोकार सांजळी श्रेणिक राजानो पुत्र नंदीषेण ते हस्तीने वश करवा माटे दोमी आव्यो. नंदी पेणने जोत ते गजेंद्र तत्काल उहापोह करवा लाग्यो. अने तेम करतां तेने वधिज्ञान उत्पन्न थइ प्रान्युं. तेने पोताना पूर्व जवनो वृत्तांत याद आवी गयो. - मार नंदीषेण पण ते हाथीने जोइ स्निग्ध हृदयवालो थ गयो. पूर्व जवना स्ने| तेणे गर्जेने केलाएक वचनो कही प्रतिबोध प्राप्यो पछी संतुष्ट थयेला गर्जे उपर बेसी कुमार नंदीषेण तेने बंधन स्थानमा लाग्यो अने त्यां तेने बांधी दीधो. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ចថា श्री आत्मप्रबोध. आ खबर सांजळी श्रेणिकराजाए प्रसन्न थइ पोताना कुमारनो नारे सस्कार कर्यो अने तेने पांचसो कन्याओ परणावी. एक वखते श्रीवीर नगवान् राजगृह नगरीमां समोसा. आ शुज खबर सांजळी तेमने वंदन करवाने पोताना पिता श्रेणिक राजनी साथे कुमार नंदीषेण पण गयो हतो. श्रीवीरमनुए धर्मदेशना आपी. ते सांजळी नंदीषेण प्रतिबोध पाम्यो. तत्काल नंदीषणे वीरपत्नुनी पासे दीक्षा आपवानी मागणी करी. तत्काल प्रनुए विचार्यु के, “ अमाराथी तेने धर्मनी वृधि थशे." आबुं विचारी 'यथा सुखं. देवानुप्रिय' एम कही पड़ी' आने प्रतिबंध करशो नहीं' एवं बीजं वाक्य कयु नहीं कारण के, तेमणे जाएयु हतुं के, आगळ उपर आ नंदीषणने व्रतमां विघ्न थवानुं . नंदीपेण कुमार ते पनी प्रजुने वांदी घेर आव्यो. तेणे व्रत लेवाने माटे पोताना मातापितानी आझा मेलवी. पड़ी ते मोटा उत्सव पूर्वक दीक्षा ग्रहण करवा तत्पर थयो. आ वखते शासन देवताए आकाश वाणीथी जणाव्यु, " कुमार नंदीषेण, तुं दीक्षा लेवाने तैयार थयो , पण हजु तारे जोगनिक कर्मनो ऊदय ने, माटे केटलोक वखत तेनी राह जो. पठी दीक्षा ग्रहण करजे." शासन देवताए आ प्रमाणे कयुं, तोपण नंदीषणे ते मान्युं नहीं अने तत्काल पोताना मननी दृढता विचारीने ते श्री वीरप्रभुनी पासे गयो अने तेमनी पासे दीक्षा ग्रहण करी. दीक्षा लीधा पठी ते बुधिमान् नंदीषेण मुनिए अनुक्रमे दशपूर्व झाननो अन्न्यास कर्यो. अने ते राजर्षि पुष्कर तपस्या करवा लाग्या. आ तेना आचरणथी तेश्रो पूर्ण रीते लब्धिवान् थया हता. वीरमनुए जे धारणा धारी हती, अने शासनदेवे तेने माटे जे वचनो नच्चार्या हता, ते सफल थवानो वखत आव्यो. मुनि नंदीषणने तेमना जोग कर्मनो उदय थइ आव्यो. मननी चंचळताथी पूर्वे नोगवेला अने रमण करेला वैषयिक विचारो तेना स्मरण मार्गमां आववा लाग्या. तेना मनमां मनोजवनो उदय थयो. ज्यारे पोते ए कामपीमाने सहन करवा असमर्थ थया एटले सूत्रने विषे कहेला विधि प्रमाणे मनने वश करवाने अने पोताना विकारी देहने कुश करवाने माटे घणी आतापना करवा लाग्या. हमेशा विशेष तप आचरवा लाग्या. तोपण तेमनी जोगनी इच्छा निवृत्त थ नहीं. Jain Education Interational Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश | ចំង ज्यारे कोइ पण रीते तेनी कामवेदना शांत थ नहीं एटले तेमने पोताना शुक्छ व्रतनो जंग थवानो महान् जय लागो आव्यो. तत्काल तेमणे चिंतव्यु के, "व्रतनो जंग थया करतां मरण पाम, सारं ." आथी तेओए मृत्यु पामवाने माटे गळे पाश नांख्यो. तत्काळ ते खबर जाणी देवीए तेनो फांसो तोमी नांख्यो तोपण तेश्रो एटोथी अटक्या नहीं. तत्काल तमणे विष नक्षण कयु. देवताना प्रत्नावथी ते विष अमृत रुप थप गयु. पठी अग्निमां पमी प्राण काढवा तैयार थया. देवना प्रत्नावथी ते अग्नि पण बुझा गयो. एवी रीते मरणने माटे करला तेमना सर्व प्रयोगो निष्फळ थइ गया हता. एक वखते ते नंदोषेण मुनि राजगृह नगरीमा अउमना पारणा माटे निदा खेवा नोकळतां एक वेश्याना घरमां पेशी गया. त्यां जड़ तेमणे कह्यु, “ हे गृहनायिका, जो तारी श्रधा होय तो मने निदा आप. तने धर्म बाल थशे.. वेश्याए नंदिषेण मुनिना आ वचन सांनळी हसता हसता कह्यु, “महाराज, तमे धर्म लान आपो नो, पण ते धर्म लानमां सिछि नथी. अर्थ बालमां ." वेश्याना आ वचन सांनळी ते वखते अजिमान रुपी पर्वत उपर आरूढ थयेक्षा एवा मुनि नंदीषेण वेश्या प्रत्ये बोली जठ्या के, 'तमारे अर्थ लान थाओ.' आ वाक्य मुखमांयी नीकळतांज तेमना तपनी बब्धियी ते वेश्यानुं घर सामावार क्रोम सोनयाथी पुरा गयुं हतुं. ते विषे निशीथ मूत्रना उघा अध्ययनमां नीचे प्रमाणे कहे . “ धम्मवानं तो नण, अथ्यलाभं विमग्गियो । तेणावि बखिजुत्तेण, एवं जवनत्ति नाणियं ” ॥१॥ “ धर्मलान वाले , तेवामां तो तेणीए ( वेश्याए ) अर्थ बान माग्यो. नेणे पण लब्धि युक्त थइ एम ज थाओ' एम कर्दा." श्री ऋषिममलनी टीका वगेरेमां वन्त्री बीजी गरीने का , नेथी तत्वनी वात तो केवली नगवान जाणे. वेश्या अत्यंत विस्मय पार्मी गइ अने जुतावळी कवी मुनिना चरणमा प्रावीने नमी पमी. तेणीए हावन्नाव करी मुनिना चित्तमां विकार उत्पन्न क Jain Education Intemational Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. रवा आ प्रमाणे बोली. “ स्वामी, तमोए आ सोनेयाथी मने वेचाती सीधी डे, तेयी आ धन साये मने तमे ज जोगवो." आ प्रमाणे कही मोहना चाळा करती अने प्रेम वचनोने माधुर्य साथे बोलतो वेश्याए मुनिना हृदयने कोल पमाको दीधुं. मुनि नोग्य कर्मना उदययी दोन पामी वेश्याने वश थइ तेणीना आवासमांज रह्या. तोपण मुनिए ते वखते एवो नियम राख्यो हतो के, वेश्याने त्यां आवनारा कामी पुरुषोमां दररोज दश पुरुषोने धर्मनो उपदेश कररी प्रतिबोध पमामवा. ज्यारे तेमां एक पण न्यून रहे त्यारे तेनी जग्याए पोताने रही प्रतिबोध पामवो. आ नियमने लश्ने मुनि वेश्याना गृहधार आगळ जन्ना रहेता अने जे कामी पुरुषो त्यां आवे, तेमने अनेक प्रकारनी युक्तिनी रचना साथे आक्षेपण वगैरे चार प्रकारनी धर्म कथाओ कहेता हता. अने धर्म करावता हता. तेओमांथी तेमणे केटलाएकने तो श्रीजिनेश्वर समीपे महावत लेवरावता अने केटलाएकने सम्यकत्व मूल वार व्रतो अंगीकार करावता हता. या प्रमाणे धर्म कथाथी जव्य जीवोने प्रतिवोध आपता अने पोते शुछ श्रावक धर्मने पात्रता बार वर्ष वीती गया हता. हवे तेमना नोग्य कर्म जीर्ण थइ गया, प्राथी एक दिवसे नव कामी पुरुषोने प्रतिबोध आप्यो, दशमा पुरुषने शोधतां एक सोनी मनी आव्यो. तेने अनेक प्रकारनी युक्तिथी प्रतिबोध आपवा मांड्यो, पण ते धीठ पुरुष प्रतिबोध पाम्यो नहीं. ज्यारे तेने घj समजाव्यो, त्यारे तेणे मुनिने कडं, " अरे नाइ, विषय रुप कादवमां बुमेना तारा आत्माने तारवाने तुं पोते समर्थ नथी तो, पठी बीजाने शो उपदेश आप डे ?" आ अरसामा वेश्याए ते नंदिषणने जोजन करवाने बोसाव्या, पण दश पुरुषोने प्रतिबोध करवानी पोतानी प्रतिझा पूर्ण था नथी, त्यां मुधी तेश्रो जोजनने इच्छता नथी. रांधेत्री रसवती वे त्रण वार शीतळ थइ गइ. ज्यारे नंदिषेण आव्या नहीं एटले वेश्या तेमनी पासे आवी अने हसती हसती बोली-" स्वामी, जो कोइ दशमो पुरुष मनतो न होय तो तमे पोतेज दशमा थाओ. अने तमारी प्रतिझा पूर्ण करी आवीने जमी ट्यो." वेश्याना आ वचनो सांजळी मुनि नंदिपेण के जेमना जोग्य कर्म पूर्ण थइ गया , एवा तेश्रो फरीवार मुनिवेष सर श्री वीर प्रजुनी पासे आव्या Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. तेम तेमनी पासे महाव्रत अंगीकार कर्या. पनी शुद्ध-निर्मल चारित्र पाली अंते समाधिथी काल करी देवलोकने प्राप्त थया. त्यांथी च्यवीने तेप्रो महाविदेह क्षेत्रने विषे जड़ मोक्ष पदने प्राप्त थशे. आ वृत्तांत श्री वीर चरित्र उपरथी वामां आव्यो बे. महा निशीथ सूत्रमां तो नंदिपेने केवळ ज्ञाननी प्राप्ति थ येली, एम लखेलुं बे. तेमां तत्त्व शुं डे ? ते केवलिगम्य बे. या प्रकारे या धर्मara नामना शासनना बीजा प्रजावक जाणवा. त्रीजा वादी नामना प्रभावक वादी, प्रतिवादी, सज्य ने सनापति ए चतुर्विध पर्षदाने विषे प्रतिपनुं निराकरण करवा पूर्वक स्वपकनुं स्थापन करवा जाषण करे ते वादी नामे शासनना त्रीजा प्रजावक कहेवाय बे. जे वाद लब्धिथी संपन्न अथवा वकवादी होड़ देवताओना वृंदोथी पण जेमना वचननो वैजव मंद करी शकाय नहीं एवा होय ते वादी कहेवाय छे. ते उपर प्रत्यक्षादि सर्व प्रमाणोमां कुशळ अने प्रतिवादीनो जय कर राजधारमां मोटा माहात्म्यने पामेला मनुवादीनुं दृष्टांत छे. ते वादी शासनना त्रीजा प्रजाविक जाणवा. ते मल्लवादीनी कथा अन्य ग्रंथोथी जाली लेवी. चोथो नैमित्तिक नामे प्रजावक. निमित्त एटले लान तथा अलाने सूचवनारुं त्रैकालिक ज्ञान; तेने जे जाणे अथवा जणे बे, ते नैमित्तिक कहेवाय बे. जिनमतना प्रतिस्पर्धीने जीतवा माटे बाहु स्वामी प्रमुखे अनेक निश्चय नरेला चमत्कारो बताव्या हता. चोथा नैमित्तिक नामना शासनना प्रजावकमां महानुभाव भद्रबाहु स्वामीनुं वृत्तांत प्रसिद्ध बे. ते वृत्तांत बीजा ग्रंथोथी प्रख्यात ययेलुं होवाथी अहीं आपवामां व्यं नथी. पांचमो तपस्वी नामे प्रभावक विशेष उत्कृष्ट ने दुःखर्थ । करी शकाय तेवा अष्टम प्रमुख तपने जे आचरे ते तपस्वी कहेवाय जे. जे तपस्वी शांत रसथी जरपुर थ‍ अष्टम, चार उपवास, पांच उपवास, पक्ष, मासखमण वगेरे अनेक जातनी तपस्या करी Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. जिनमतनी प्रजावना करे , ते वीर शासननो पांचमो तपस्वी नामे प्रनायक कहेवाय. ते विषे श्रीवीर प्रन्नुए वर्णन करेला धना कांकदी नामना साधु वगेरेना वृत्तांतो प्रग्ब्यान उ. ते तपम्बी नामे पांचमा प्रजावक जाणवा. गे विद्यावान् नामे प्रनावक. विद्या एटो प्रज्ञप्ति प्रमुख शोळ विद्यादेवीओ अने शासनदेवी तेओ जेमने सहायनूत , ते विद्यावान् नामे शासननो यो प्रजावक कहेवाय . ते उपर महानुनाव वज्र स्वामी, वृत्तांत प्रसिछ . सातमो सिद्ध नामे प्रत्नावक. सिद्ध चूर्ण, अंजन, पादलेप, तिलक, अने गुटिका तथा वैक्रिय प्रमुख सिछिओ जेन प्राप्त थाय, ते सिफ नामे सातमो प्रभावक कहेवाय जे. ते सिक चमत्कार नरेला संघादिक कार्यों साधवाने माटे अने ते चमत्कारधारा मिथ्यात्वनो नाश करवा माटे तेमज शासननी प्रनावना वधारवाने माटे अवसर प्रमाणे ते चूर्ण अंजन विगेरेने जोडवामां कुशलपणुं बतावे छे. तेवा सिछोमां आर्यसमित आचार्य वगेरेना वृत्तांतो प्रख्यात डे. नेनो शासनना सातमा प्रनावक जाणवा. आर्यसमित सूरिनी कथा. आजीर देशमां अचलपुर नामे एक नगर . ते नगरमां जिन शासनने दीपावनारा अने मोटी समृच्छिमान् घणां श्रावको रहे . ते अचळपुरनी समीपे कन्या अने वीणा नामनी वे नदीओ आवेली छे. ते नदीओने मध्य नागे एक ब्रह्मदीप जे. तेनी अंदर घणा तापसो वसे जे. ते तापसोमां एक तापस पादअपनी क्रियाने विष प्रवीण . ते हमेशां पाद लेप करी स्थन मार्गनी जेम जल मार्गे चालतो हतो. ते क्रियाथी लोकोने अति आश्चर्य पमामतो ते तापस वेणा नदी उतरी पारणुं करवाने अचनपुरमा आवतो हतो. जोळा लोको ते तापसनो आ चमत्कार देखी सुःसह एवा मिथ्यात्वना तापयी तपेला होवायी पामानी जेम तेना दर्शन रुप कादवां खुची गया. ते लोको जिनमतनी श्रमावाला श्रावकोने जिनमननी अवगणना करता था प्रमाणे कहेवा वाग्या-श्रावको. जुवो, Jain Education Intemational Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ मारा शासनने विषे गुरुनो जेवो प्रत्यक्ष प्रजाव े, तेवो तमारा शासनमां नथी; मारा धर्मनी समान वीजो कोइ धर्म नथी. 17 प्रथम प्रकाश. 46 तेमना या वचन सांजळी “ ए जोला लोकोनुं मिथ्यात्वने विषे स्थिर थवाणुं न थाओ " एम चिंतवी ते श्रावको ते मिथ्यात्वना वचनने अनेक युक्ति प्रतिहत कर ते तापसने दृष्टिथी पण जोता नहीं. एक दिवसे आचार्यपणानां संपूर्ण गुणोथी अलंकृत अने अनेक सिद्धिथ संपन्न एवा श्री वज्रस्वामीना मामा श्री आर्यसमितमूरि त्यां आवी चड्या. तेमना आगमनो वृत्तां सांजळी नगरना सर्व श्रावको मोटा आमंत्ररथी सामा जड़ तेमना चरणकमळने विषे वंदना करी. पछी ते श्रावकोए पेला तापसे करेली जिन शासननी लघुतानो वृत्तांत दीन वचनोथी सुरिजीने निवेदन कर्यो. ते सांजळ आर्यसमितगुरुए ते श्रावकोने या प्रमाणे कां, “ श्रावको, ए कपटी तापस पालेपनी क्रियाथी मूढ लोकोने लगे बेः तेनामां बीजी को जातनी तपशक्ति नथी. " 46 सुविरना या वचनो सांजळी ते श्रावको ते गुरुने सविनय वंदना करी पोताना स्थान तरफ आव्या. तेमले तत्काल ते धूर्त तापसनी परीक्षा करवानो विचार करें। ते तापसने अति आदरपूर्वक एक श्रावके पोताने घेर निक्का माटे आमंत्रण क. घणा जक्त ने रागी लोकोथी परिवृत थयेलो ते तापस उत्सुक यते श्रावकने घेर जमवा आव्यो. ते तापसने यावतों जो अवसरने जाणनारा ते श्रावके एकदम बेठा थइ तेने बहु मान आप एक उंचा आसन उपर बेसार्यो, पी उष्णजली ते तापसना चरणनुं कालन करवा मांगयुं. ते कपटी तापस पोताना पाद लेपनो नाश थवाना जययी चरणनुं कालन इच्छतो न हतो, तोपण ते श्रावके जक्ति दर्शावतां अति आग्रहथी पाद प्रकालन कर्य. ते एवी रीते मर्दकरीने कर्य के जेथी लेपनो गंध पण तेमां रह्यो नहीं. पी अनेक जातनी रस परसतेने माड्यो. तापस मिष्ट रसवतीने जमतो पण पोताना चरणलेपनो नाश थवार्थी कदर्थना थवाना जविष्यना जयर्थी चिंतातुर रहेतो हतो. तेने रसतीनो स्वाद पण वे स्वाद लागतो हतो. जोजन कयी पछी ते वेणा नदीने कांटे आव्यो. तेनी ते चमत्कारी क्रिया जोवाने हजारो लोको एकता थया हता. तेमां श्रावको पण मोटी संख्यामां हाजर हता. ते वग्वते कपटी तापसे विचार कर्यो के, Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ श्री आत्मप्रवोध. ते श्रावके चरणनो लेप धोऽ नांख्यो , उतां तेनी अंदर लेपनो कांक अंश रहे लोहशे, तेथी जन मार्गे चालवामां हरकत नहीं आवे. आवं चिंतवी ते तापस हिंमत लावीने वेणा नदीना पूरमां पेठो. तेमां पेसतांज ते जलमां मुबवा लाग्यो. 'हुं मुबुं बुं हुं मुबुं बुं' एम तेणे पोकार करवा मांड्या, ते वखते केटलाएक दयालु श्रावकोए अनुकंपा करी तेनी पाउळ दोमो तेने जवनी बाहेर काढयो. ते वखते तेनुं पोगळ सर्वना जाणवामां आव्यु. केटलाएक लोको ' अरे ! आ कपटीए आपणने नेतर्या हता,' एम कहेवा लाग्या. ते पछी केटलाएक तेना रागी बनेला मिथ्यात्वीओ पण तत्काल जैनधर्मना रागी बनी गया. ते वखते श्री जिन शासननी प्रनावना करवाने इच्छता अने अनेक योगना संयोगने जाणनारा श्री आर्य समित सूरि त्यां आव्या. तेमणे ते वेणा नदीमां एक चूर्ण नांखीने सर्व लोकोनी समक्ष कह्यु के, " वेणानदी, अमारे तारी पेत्री पार जवानी इच्छा जे." आवं कहेतांज ते नदीना वे कांग एकदम नेगा मत्री गया. ते जोइ सर्व लोको आश्चर्य पामी गया. ते पछी ते महान् आचार्य अमंद आनंदथी पूर्ण एवा चतुर्विध संघ सहित ते नदीना सामेना तीरनी नूमि नपर आवी पहोच्या. अने त्यां तेम णे सत्य धर्मोपदेश आपी सर्व तापसोने प्रतिबोध प्राप्यो. प्राचार्यना प्रतिबोधथी जेमना हृदयमां सर्व मिथ्यात्व मल नाश पाम्यो छे, एवा ते सर्व तापसोए प्रतिबोध पामी ने आचार्यनी दीक्षा ग्रहण करी हती. ते तापस साधुओथी ब्रह्म दीपिका नामे एक शाखा चाली ने ते आगममा प्रसिध जे. आ प्रमाणे महानुनाव आर्यसमितसूरि ते पाखंमोोना तीत्र मतनुं ग्वंकन करी, जिनमतनी नारे प्रनावना वधारी, अने ते उत्कृष्ट एवा जिनमतने विषे रक्त ययेला नव्यजनोना मनने हर्षमय करी त्यांथो बीजे स्थले विहार कर्यो हतो. त्यां रहेला सर्व श्रावको अनेक प्रकारनी धर्मक्रिया वझे जिन शासननी उन्नति करतां सुखे श्रावक धर्म पाळतां अनुक्रमे सद्गतिना नाजन थया हता. या प्रमाणे ते आर्यसमितसूरिन दृष्टांत · सिक' नामना शासनना सातमा प्रनावक विषे जाणवं. . शासन कवि नामनो आवमो प्रभावक. जे नव नवा वचनोनी रचनाओथी मुशोजित, श्रोतृवर्गना मनने हर्ष न Jain Education Intemational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश त्पन्न करनार अने अनेक नापाए ग्रंथित एवा गद्यमय तथा पद्यमय प्रबंधोनुं वर्णन करे ते 'कवि' कहेवाय जे. आपणा सत्यधर्मनी वृधिने अर्थे सुंदर तथा रसिक वचनोनी रचना करी राजा प्रमुख नत्तमजनोने ते प्रतिबोधे डे, तेथी ते कवि ए शासननो आठमो प्रनाविक गणाय जे. ते नपर सिझसेन दिवाकर- दृष्टांत श्रापवामां आवे . सिद्धसेन दिवाकर, दृष्टांत. नज्जयिनी नगरीने विषे श्री विक्रमादित्य नामे राजा हतो. तेने देवसिका नामनी मातानी कुश्मिांयी नत्पन्न थयेस्रो अने सर्व विद्यामां प्रवीण एवो मुकुंद नामे एक पुरोहित पुत्र हतो. एक वरखते ते मुकुंद वाद-विवाद करवाने माटे नृगुपुर ( नरूच ) तरफ चाट्यो. रस्तामा चालता जैनोना गुरु वृषवादी आचार्य तेने सामा मळ्या. तेमनी साथे ए मुकुंद वाद करवाने तैयार थयो. ते व. खते बनेनी वच्चे एवी प्रतिज्ञा करवामां आवो के, जे कोइ जेनायी हारे ते तेनो शिष्य थाय. आवी प्रतिज्ञा कर। तेमणे तेज स्यने कोइना क्षेत्रमा वादनो आरंज कर्यो, ते स्थले हार जीतमां सादी नरोके गोवाळीयाओने राखवामां आव्या. नकाल मुकुंदे आचार्यनी साथे प्रयम वादनो आरंज को. अने संस्कृत जाषामां पूर्व पक्ष ग्रहण कयों. ते वखते गोवालोआ स्रोको संस्कृत भाषा समजो शक्या नहीं, एटले तेमणे जाणाव्युं के अमे आ जाषामां का पण समजता नथी. तोपण मुकुंदे संस्कृत नाषा डोमी नहीं एटले गोवानीयाअोए जाएयु के, आ पुरोहित काइ पण समजतो नयी. ' पठ। गुरु महाराज अवसर जाण। रजोहरणने कटी साये बांघी चर्पटीथी नृत्य करतां बोट्या" नवि चोरीए नवि मारोए, परदारा गमण निवारीए; थोवा थोवं दाइए, सग्ग मटामट जाइए. कालो कंबल अरुणी बट्ट, गवें नरिओ दीवम पट्टा .. एवम पीओ नीले काम, अवर कीशु सग्ग निवाम. Jain Education Intemational Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. अर्थ-चोरी करवी नहीं, कोऽ जीवने मारवा नहीं, परस्त्री गमन करवं नहीं, वधारे शक्ति होयतो विशेष दान आप, अने अपशक्ति होय तो थोड़ें दान आपवं, एम करवायी सुखे देवलोकमां जवाय जे. जेमनी पासे काळी कांबवो होय जे, जे वृतना गलना वस्त्रो पेहेरे जे अने जेत्रो छासयो नरेन। दाएं। नुपर गटना राव। लोला मुगंधी आंबाना वृक्ष नीचे रहेला , एवा गो. वालीयाओने गुरु महाराज कहे जे के, तमारे आव। सामग्री ले ते उतां तमारा जाग्यमां वो शुं म्वर्ग ? तमारे तो अहींज स्वर्ग . १-२ प्राचार्यनी आ वाण। सां नळी ते गोवालोयाओ खुशी खुशी था गया अने सर्वे एक साथ कहेवा लाग्या के, आ महाराजे आ मुकुंदने जीती स्रोधो . ते पञ्। ते वृक्षवाद। आचार्य राजस नामां गया अने त्यां मुकुंदनी साथे चर्चा कर। तेने पराजित कर। दोधो अन तेने पोतानो शिष्य बनाव्यो. अने तेनुं कुमुदचंड एवं नाम राख्यु. कुमुदचंड ते आचार्यन। पासे अज्यास करी आगळ वध्या. पर। गुरुए तेनुं सिझसेन दिवाकर एवं नाम आप्युं. अने त्यारयो ते एज नामयो विख्यात थया हता. एक वखते सिरसेन दिवाकरन। पास कोई नट वाद करवाने आव्यो हतो. तेने संजळाववा माटे ते चतुर विधाने " नमो अरिहंताणं" इत्यादि प्रा. कृत पाउने बदने “ नमोऽहसिघाचार्योपाध्याय सर्व सावत्यः " एवो संस्कृत बोळ्या हता. ए संस्कृत वाक्य चाँद पर्वन। आदिमा रहे हतुं. एक दिवसे दिवाकरे पोताना गुरुने पुग्यं के, आपणा सर्व जैन आगमो प्राकृत जाषामां , ते संस्कृतमां होय तो केवा बने ? जो आपनी आझा होय तो हुं ते सर्वने संस्कृतमा गोठवी दनं. त्यारे गुरुए सिझसेन दिवाकरने नोचेना श्लोकयी कडं-- " बासस्त्री मंदमूर्खाणां, नणां चारित्रकाक्षिणाम् । अनुग्रहाय तत्त्वज्ञैः, सिद्धांतः प्राकृतः कृतः" ॥१॥ वाल, स्त्री, मंद बुछि, अने पूर्व एवा चारित्रना अनिवाषी पुरुषोनी पर अनुग्रह करवा माटे तत्त्वज्ञ पुरुपोए जैन सिचांतने प्राकृत करेलो . ? Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. तेथी हे शिष्य, तारा हृदयमा प्राकृत आगमने संस्कृत करवानी जे स्कुरणा थइ, तेथतने प्रायश्चित्त लाग्यं जे. अने तेयी तने गच्छनी बाहेर मुकवानी शिक्षा करवामां आवे . आ प्रमाणे कही ते. आचार्ये सियसेन दिवाकरने गच्छनी बाहेर मुकी दीधा हता. आ वखते समस्त संघे आवी सूरिवरने विनंति करी के, " स्वामी, सिकसेन दिवाकर कवित्व वगेरेना गुणोयी युक्त छे, तेथी ते शासनना प्रजावक डे, माटे तेमने गच्छनी बाहेर मुकवा न जोइए. श्रा प्रमाणे संघना अति आग्रह पूर्वक कहेवाथी गुरुए कह्यु के ते सिफसेनदिवाकर अव्यथी मुनिवेशनो त्याग करी अने नावथी मुनिवेपने धारण करी अनेक प्रकारना तप करतां डेवटे अढार राजाओने प्रतिबोध पमामी जैनो करशे अने एक नई तीथे प्रगट करशे, त्यारे हुं तेने गच्छनी अंदर लश्श. ते शिवाय सेवामां आवशे नहीं" गुरुना आ वचन सांजळी सिघसेनदिवाकरे विचार करी ते गुरुना वचनने अंगीकार कर्यु अने त्यांयी विहार करी तेश्रो नज्जयिनी नगरीमा आव्या. एक वखते सिघसेनदिवाकर कोइ शेरीमाथी बीजी शेरीमा पेशता हता, तेवामां घोमा खेनववा माटे जतां एवा विक्रम राजाए तेमने जोया. तत्काल राजाए दिवाकरने पुज्यु, के, " तमे कोण डो?" सिफसेनदिवाकरे उत्तर आप्यो, “अमे सर्वज्ञ पुत्र डीए." तत्काल राजाए तेमने मानसिक नमस्कार को. सिघसेनदिवाकरे तेमने जंचे स्वरे धर्मशान दीधो, त्यारे राजाए आश्चर्य पामीने पुज्यं के, " तमे कोने धर्मज्ञान प्राप्यो ? " दिवाकरे कहूं, " जेणे अमोने नमस्कार करेलो , तेमने अमे धर्मशान आप्यो ." ते सांजळी राजा आश्चर्य साये संतुष्ट थइ गयो अने तेणे हर्षयी तेमने विनंति करी के, “ तमारे तमारा पवित्र चरणवझे मारा सना मंझपने पवित्र करवो." आम कही विक्रमराजा पोताने स्थाने चाल्यो गयो हतो. एक वखते सिरसेनदिवाकर विक्रमराजाना चार नवा श्लोको रची राजधारे गया अने तेमणे झारपान पासे नीचे प्रमाणे राजाने कहेवराव्यु “दिदृकुर्भि कुरायातो, घारे तिष्टति वारितः । हस्तन्यस्तचतुः श्लोको, यहागच्छतु गच्छतु ॥ १ ॥ १३ Jain Education Intemational Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. " राजाने मळवानी इच्छायी निक्षुक आव्यो बे; पण द्वार उपर अटकाववाय । ते त्यां जो बे. तेना हाथमां चार श्लोक बे; ते आपनी पासे यावे के पाछो जाय. 77 ? राजा उत्तरमां नीचे प्रमाणे कहेवराव - दीयंतां दशनकाणि, शासनानि चतुर्दश । हस्तन्यस्तचतुः श्लोको यद्वा गच्छतु गच्छतु ॥ २ ॥ जेना हायमां चार श्लोको बे, ते निक्षुकने दश लाख व्य अने चौद गामोना पट्टा कर पो. ते खुशी होय तो वे अने खुशी न होय तो पात्रो जाय. ‍ " सिद्धसेन दिवाकर राजानी पासे गयो. ते वखते महाराजा विक्रम पूर्व दिशा तरफ सिंहासन उपर वेळा हता. त्यां जड़ ते कवीश्वर नीचे - माणे नवीन श्लोक बोट्या " ग्राहते तत्र निःस्खाने, स्फुटिते रिपुहृद्घटे । गलिते तत्प्रियानेत्रे, राजंश्चित्रमिदं महत्" ॥ १ ॥ " हे राजा, तमारा नीशाननो मंको वागतां तमारा शत्रुग्रोनो हृदयरूप फूटी जाय ने तेमनी स्त्रीओना नेत्र गळे छे. आ एक मोडं आश्चर्य a." ? श्लोक सांजळी राजा विक्रम दक्षिण दिशा तरफ मुख करीने वेळा. कारण, ते श्लोक प्रसन्न थयेला राजाए मनमां चितव्यं के, “ में आ निक कविने मारुं पूर्व दिशानुं राज्य आपी दीधुं. आचार्य पुनः सन्मुख यात्री नीचे प्रमाणे श्लोक बोब्या पूर्वेयं धनुर्विद्या, जवता शिक्षिता कुतः । मार्गणौधः समयेति, गुणो याति दिगंतरम् ॥ २ ॥ हे राजा को पूर्व धनुर्विद्या तमो क्यांथी शीख्या के जेथी त 66 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. मारी आगळ मार्गण - बालोना समूह आवे छे अने गुण ( पछ) बीजी दिशामां जाय बे. एटले कहेवानो आशय एवो बे के, धनुर्विद्या जाणनार पुरुष मार्ग - बालोना समूहने बीजा तरफ फेंके बे, अने गुण-पएछ उंची चमे छे. परंतु तमारे तो बालो तमारी पासे आवे छे, अने पछ बीजी दिशामां जाय बे. ग्रा विरोधन परिहार एवं रीते ने के, हे राजा, तमारी आगळ मार्गण - याचक लोकोना समूह अने तेय तमारा गुणो बीजी दिशाओमां फेझाय डे. १ एए श्लोक सांजळी राजा विक्रम पश्चिम दिशा तरफ मुख राखीने बेठो एटले दक्षिण दिशानुं राज्य तेने आपी दीधुं ते वखते सिद्धसेन आचार्य नीचे प्रमाणे त्रीजो श्लोक बोब्या " सरस्वती स्थिता वक्त्रे, लक्ष्मीः करसरोरुहे । कीर्तिः किं कुपिता राजन्, येन देशांतरं गता ॥ ३ ॥” हे राजा, तमारा मुखमां सरस्वती रहे बे ने तमारा करकमळमां रहे . तोप कीर्त्ति शा माटे कोप पामी बे के जे रीसाइने देशांतरमां चाली गइ बे. 19 ३ आलोक सांजळी राजा विक्रम उत्तर दिशा तरफ मुख राखीने बेटा; त्यारे सिद्धसेनाचार्य तेन सन्मुख थइ नींचेनो चोथो श्लोक बोल्यासर्वदा सर्वदो सीति, मिथ्या संस्तूयसे बुधैः । नारयो बेजिरे पृष्ठं, न वक्षः परयोषितः " ॥ १ ॥ (1 हे राजा, तुं हमेशा सर्वद - सर्व वस्तुओने आपनारो छे, एम विधानो तारी स्तुति करे बे, ते मिथ्या छे, कारण के तारा शत्रुने तें पीठ पीनी परस्त्रीने बीपी नथी अर्थात् जे सर्व वस्तुनो दाता होय ते तेवी वस्तुने शा माटे न आपे ? कहेवानो आशय एवो बे के, तुं कदिपण रणभूमिम थी पाटो फर्यो नथी के जेथी तारा शत्रुओतारी पीठ जुवे अने तें कदिपण परस्त्रीने बाती साथे दबावी नयी के जेथी ते तारी बातीने मेळवे. ** श्लोक सांजळी संतुष्ट थयेला राजा तत्काल पोताना सिंहासन उपरथी वेठो यो अने तेथे चारे दिशाओनुं राज्य सूरिवरने आपवा मांगयुं, त्यारे Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्री आत्मप्रबोध. सूरि सिघसेन दिवाकरे कयु. “ राजन् , मारे राज्यनी कांश जरुर नथी." राजाए पुग्युं, “ त्यारे तमारे शुं जोइए जीए ? " सूरिजी बोट्या. " हुँ मात्र एटर्बु मागुं बुं के ज्यारे हुं तमारी पासे आवं, त्यारे तमारे मारा मुखथी धर्म सांनळवो." राजाए ते वात अंगीकार करी. ते पठी आचार्य सिकसेन दिवाकर पोताने स्थाने चाव्या गया हता. एक वखते प्राचार्य सिघसेन उज्जयिनी नगरीमा आवेना महाकाल शंकरना प्रासादमां जय ते शंकरना लिंग उपर पग करी सुइ गया हता. प्रातःकाले ते शंकरना पूजारीओए आवी तेमने पोकार करी: उगमवा मांड्या, तोपण तेओ जठ्या नहीं. ते वखते ते लोकोए जश्ने राजानी आगळ फरीयाद करी के, राजेंज, कोइ निकुक महाकाल शिवना लिंग उपर पग करीने सुतो . अमोए तेने घणं कर्यु तोपण ते उठतो नथी."लोकोना आ वचनो सांनळी राजा विक्रमे हुकम कर्यो के, “ तेने मारीने काढो." तत्काल राजानी आझा मेनवी ते लोको त्यां आव्या अने चाबुक तया लाकमीओना प्रहारथी सिघसेनने मारवा लाग्या. जेम जेम ते आचार्यना शरीर उपर घा पमवा लाग्या, तेवी रीते राजाना अंतःपुरमा राजानी राणीना शरीर उपर घा पम्वा मांड्या, आथी जनानामां मोटो कोलाहाल उठ्यो अने ते सांनळी राजा त्यां दोमी आव्यो अने आश्वयेयी पुरावा लाग्यो के, 'आ शुं थयुं ? तेवामां कोइए आवी राजाने जणाव्यु के, " महाराज, कोइ महाकाल प्रसादनी अंदर निक्षुकने ताडना करे जे, ते तामनाना प्रहारो अंतःपुरमा राणी साहेबने वागे . राजा तत्काल महाकाल प्रासादमां गयो, त्यां तेमणे सिकसेन आचार्यने जोया अने तत्काल अोलखी बीधा. तत्काल तेमणे लोकोने तामना करतां अटकाव्या अने पर। बधो वृत्तांत सांनब्यो. राजाए आचार्यने पुग्यु के, “ तमे महादेवना लिंग उपर चरण शामाटे मुक्या हता ? आ महादेव ए मोटो देव ने अने स्तुति करवा योग्य . " आचार्ये कह्यं, राजन, महादेव तो अनन्य देव जे जे महादेव जे. तेनी हुं स्तुति करुं बुं, ते तमे सावधान थने सांनळो. “ आ प्रमाणे कही सिकसेन आचार्ये कल्याणमंदिरस्तात्र रचानो आरंज को. ज्यारे तेमणे अगीयारमां श्लोकन आदिपद " यस्मिन् हरमभृतयोऽपि हतपनावाः" आ प्रमाणे कहां, त्यारे तत्काल पृथ्वी कंपायमान थवा लागी. अने अमिनो धुमामो नीकलवा लाग्यो. कणवारमा ते Jain Education Intemational Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश १०१ शिवलिंगना वे कमका थया अने तेमांथो तेजनो समूह चारे तरफ प्रसरी गयो. तेम थतांज तेमांथी धरणेष सहित श्री पार्श्वनाथजोनी प्रतिमा प्रगट थइ आवी. ते वखते आचार्ये ते स्तोत्रने संपूर्ण कर आ प्रमाणे कडं, “ राजन्, अहिं प्रथम अवंतिसुकुमालनो लोकप्रसिघ पुत्र हतो. तेना पिता नलिनोगुल्म विमानमां गया हता. तेओ जे स्थाने कायोत्सर्ग करीने रह्या हता, ते स्थाने तेणे महाकाल नामे लोक प्रसिफ नवो प्रासाद करावी आ प्रतिमानी प्रतिष्टा करी हती. केटलोक काल गया पली मिथ्याष्टिआऐ ते पार्श्वनाथना प्रतिबिंबने आच्छादित करी ते ठेकाणे आ शिवलिंगनी स्थापना करी दीधी हती. अत्यारे मारी आ स्तुतिना प्रनावथी ते लिंग फाटी तेमाथी ते प्रतिमा प्रगट थइ डे." आचार्यना आ वचन सांजळी विक्रम, राजाना हृदयमा चमत्कार साथे हर्ष उत्पन्न थर आव्यो. तत्काल तेज वखते राजा विक्रमने जिनोत तत्त्वना स्वरूप उपर पूर्ण श्रधा थइ अने तेने सम्यक्त्त्व रत्ननी प्राप्ति था आवी. उदार महाराजाए तेज क्षणे ते पार्श्वनाथ प्रनुनी नित्य पूनाना निर्वाहने माटे एकसो गाम अर्पण कर्या अने पोते श्रावक धर्म अंगीकार को. आचार्य सिघसेन दिवाकरे महाराजा विक्रमनी आझामां वर्तनारा बोजा अढार राजाओने प्रतिबोधित कर्या. आचार्यना गुणोना समूहथी रंजित थयेन्ना विक्रम राजाए आचार्यने बेसवा माटें एक पालखी नेट करी हती. ते पछी ते महान् आचार्य ते पालखीमा वेशा निरंतर राजघारमा जता हता. ते पठी वृद्धवादी आचार्यना सांजळवामां आव्युं के, सियसेन दिवाकर जे कार्य करवा माटे गया हता, ते कार्य तो सिद्ध थइ गयुं बे, परंतु तेओ प्रमादरुपी कादवमा मन थइ गया जे-राजमानना पाशमां सपमाइ गया , माटे मारे त्यां जइ तेमने प्रतिबोध आपवो, अने तेमने प्रमादमांथो मुक्त करी सन्मार्गे दोरवा." आई विचारी वृद्धवादी गुरु विहार करी नजयिनी नगरीमां आव्या. सिघसेन विक्रम राजाना बहुमानयो तेमनी पासे जश् शक्या नहीं, तेथी वृद्धवादी आचार्य पालखी उपामनार नोनुं रूप धारण कर) तेने छारे उना रह्या. ज्यारे सिघसेनसूरि पालखीमां बेशी राजनुवन तरफ जता हता, तेटलामां ते वृकवादीसूरिजीए एक जोइने बदले पोते पात्रखा उपामो अने वृक्षपणाने लइने तेओ मंद मंद गतिथी चालवा नाग्या. तेमने मंदगतिथ। चानतां जोडु सिकसेन दिवाकर नीचे प्रमाणे बोल्या Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ - आत्मप्रबोध. "जूरिभारतराक्रांतः स्कंधः किं तव बाधति। "घणा नारथी आक्रांत थयेला तारा स्कंधने शुं काइ बाधा थाय ने ?" आ वाक्यमां 'बाधति ' ए अशुध रूप छे. कारणके, 'बाध्' धातु आत्मनेपद होवायी तेनुं खरं रूप 'बाधते ' थq जाइए. आचार्य सिघसेन दिवाकरे प्रमादथी तेवी नूल करी एटले गुरुए नीचे प्रमाणे कां. “न तथा बाधते स्कंधो यथा बाधति बाधते” ॥१॥ जेवी रीते बाधते ने बदले तुं बाधति एवं अशुष रूप बोल्यो, ते मने जेवं पीछे , तेवी स्कंधने पीडा थती नथी." आसांनळी ते आचार्य सिघसेन चमत्कार पाम विचारमा पकी गया. तत्काल तेमणे विचार्यु के, 'आ कोण ? ' तेमने जोतांज तेमना जाणवामां आव्यु के, 'आ तो वृकवादी गुरु . ' तत्कान पोते पालखी उपरथी उतरी तेमना चरणमां नमी पडया अने 'मारो अपराध क्षमा करो, क्षमा करो' एम कहेवा लाग्या. पर। गुरुए सिफसेनने फरीथी प्रतिबोध पमामो संघनी समक्ष मिथ्याउष्कृत आपवा पूर्वक तेमने संघमां लीधा हता. ___ महानुनाव दिवाकर पी चिरकाल सुधी श्री वीरशासननी प्रजावना करी प्रांते सद्गतिना नाजन बन्या हता. आ प्रमाणे ते आचार्य कवि नामना प्रापमा प्रजावक जाणवा. एवी रीते शासनना आठ प्रजावक कहेवाय जे. ते प्रवचनी आदि आप प्रनावको जिनशासनने शोजावे . पोताना प्रकाशक स्वभाववाळु जे प्रवचन कहेवाय छे, तेने देश, काल, नाव, अव्य तथा क्षेत्रनी योग्यता प्रमाणे सहाय करवायी-जेओ प्रकाश करे डे, तेथी तेश्रो प्रनावको कहेवाय जे. तेआनी क्रियारूप प्रनावना सम्यक्त्वने निर्मल करे . बीजे प्रकारे आठ प्रभावक. ते आठ प्रनावकने बीजे प्रकारे पण दर्शाबे ने. "अश्सेसशङ्किधम्मकहि', वाश् आयरिय खवग नेमिति । Jain Education Interational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. विज्जाव रायगण सं मयाय तित्थं पनावंति ॥ १ ॥ 6 अतिशय ऋद्धिवाला अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, आमर्ष औषधि प्रमुख लब्धिवान् ते पेहला; बीजा धर्मकथी, त्रीजा वादी, चोथा आचार्य, पांचमा क्षपक-मोटी प्रतापना प्रमुख लेनार तपस्वी, छठा निमित्ति, सातमा विद्याश्रेष्ठमा राजवल्लन तथा गच्छ-समुदाय वल्लन अर्थात् महाजनमान्य प्रमाणे आठ नावक बीजे प्रकारे जाणवा. ?? सम्यक्त्वना पांच भूषण. जिनशासनमां एटले अरिहंतना दर्शनमां कुशलपणं, ए पेहेलुं भूषण जे. ते सम्यक्त्वने शोजावे बे, माटे नूपण कढेवाय बे. तेथे सम्यग्दृष्टि जीवोए तेवी कुशलता मेलववामां विशेष उद्यम करवो. अरिहंतना दर्शनने विषे कुशल एवो पुरुष व्य, क्षेत्र, काल अने जावादिकने अनुसारे अनेक प्रकारना उपायो योजी वीजा अज्ञानी जीवोने सुखे करी प्रतिबोध पमाने बे. ते विषे कमळ नामना एक श्रावक पुत्रने प्रतिबोध पमामनार श्रीगुणाकरसूरिनो वृत्तांत प्रख्यात बे. बीजा ए ते सूखिरनी जेम जिनमतने विषे कुशलता करवी जोइए. श्री गुणाकरसूरिनो वृत्तांत. एक नगरने विषे धन नामे श्रावक रहेतो हतो. ते धनवान्, बुद्धिमान् गुणी हतो. तेथे ते महाजन मंगलमां मान्य थर पड्यो हतो. ते धन शेठने कमल नामे एक पुत्र हतो. ते घणो कलावान् अने चतुर हतो. पण धर्म तरफ रुचि धरनारो हतो. धर्मना तत्त्व उपर तेनी बीलकुल श्रद्धा नहती. तेनो पिता धन शेव तेने घणुं समजावतो पण ते मानतो नहतो. ज्यारे तेनो पिता कांईपण ती वात कहे न्यारे ते नत्रीने नाशी जतो हतो. आथी धन शेठ घणो कंटाली गयो हतो. एक वखते धन शेठना मनमां विचार थयो के, जो कोइ त धर्मना प्रवीण आचार्य हीं वे तो मारा पुत्रने लाज यया विना रहे नहीं. कोइ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Poy श्री आत्मप्रबोध. पवित्र महात्मानी सेवा करवाथी आ कमळने धर्मनी प्राप्ति थया विना रहेशे नहिं. आ अरसामा कोइ आचार्य महाराज ते नगरनी समीपे आवेला वनमा आवी समोसयो. प्रा खबर सांनळी नगरना लोको तेमने वंदना करवाने गया. तेमनी साये धन शेव पण गुरुने वंदना करवा आव्यो. गुरुए तेश्रोने धर्मनो उपदेश आप्यो. देशना समाप्त थया पठी वीजा नगरजनो तेमने वंदना करी पोत पोताने स्थले चालता थया. पारळ रहेला धन शेठे ते महानुनावने आ प्रमाणे विनंति करी-" स्वामी, मारो पुत्र कमळ धर्मना विचारथी तदन अज्ञात जे. धार्मिक तत्व उपर तेनी श्रद्धा नत्पन्न थती नथी. तो कृपा करी आपे तेने प्रतिबोध आपको जोइए. आपना जेवा गीतार्थ गुरुनो बोध कदिपण निष्फन थतो नयी. धन शेवना आ वचनो सांजळी आचार्ये ते वात मान्य करी पठी तत्काल शेठ घेर अाव्या अने तेमणे तेना पुत्र कमलने आ प्रमाणे कयुं,-" पुत्र, आजे एक गीतार्थ गुरु वनने विषे पधार्या , तो तारे त्यां जइ तेमना वचन सांजळवा." पिताना कहेवाथी कमळ ते आचार्यनी पासे आन्यो अने नम्रमुख था तेमनी पासे बेगे. आचार्ये तरत सातनय युक्त एवा व्यगुण पर्यायवमे गर्जित विचारवानी देशना आपी. देशना समाप्त थया पठी आचार्य पुग्यु, “नज, अत्यार सुधीमां तारा समजवामां कांइ आव्युं ? " कमले प्रत्युत्तर प्राप्यो, " जगवान्, कांक जाएयु जे.' आचार्ये कडं, "जाण्यु ? ' कमल बोटयो, " नगवान, आ नजीक रहेन बोरमीना दृढ़ना बिलमांथी मंकोमा नामना एकसोने आठ तेइंति जीवो नीकलीने बीजा बिलमां पेग. ते मारा जाणवामां आव्यु. पुनः आचार्य पूज्यु, “ ए तो ठीक, पण अमारा कहेवामांथी कांइ जाएयु ?,' कमने कहा, " ना, कांई जाएयुं नथी." कमलनुं आ वचन सांनळी आचार्ये जाण्यु के, 'आ अयोग्य डे' परी तेओ मौन धरी रह्या. परी कमन्न उठीने पोताने घेर चाट्यो गयो. बीजे दिवसे कमानो पिता धन शेउ आचार्यने वंदना करवाने आव्यो. ते वरखते आचार्य कमलनी सर्व चेष्टा तेने जणावी पनी आचार्य त्यांथी विहार करी बीजे स्थाने चाटया गया हता. एक वखते कोइ बीजा आचार्य तेज वनमां आवी समोसर्या. धनशेठ तेमने वंदना करवाने आव्यो, अने पूर्वनी जेम तेणे पोताना कमळपुत्रनो वृत्तांत तेमनी आगळ निवेदन को. आचार्ये धनशेठने कह्यु के, ते कमळने अहिं मोक Jain Education Intemational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश. १०५ बावो. अने तेने कहेवू के, तेणे गुरुनी पासे नीची दृष्टिए न रहे, तेम गुरुनी सामे जोया कर अने गुरु बोले तेमां उपयोग राखतो." आचार्यन। सूचना उपरथी धन शेठे कमळ पुत्रने ते प्रमाणे करवाने कही गुरुनी समीपे मोकव्यो. कमळ गुरुनु मुख जातो तेमनी समीपे बेचो. गुरुए पुग्युं, “ नज, तुं कांड पण तत्त्व जाणे जे ?" कमले कयु, “हा, हुं त्रण तत्त्वो जाणुंछं. मन इच्छित एवं पहे अशन, बीजुं पान अने त्रीजु शयन. ए त्रण तत्त्वो जाणुं बूं." आचार्य हसीने बोट्या"आ तो गाममोआना वचन जेवा वचनो . परंतु जे झेय एटने जाणवा योग्य, हेय एटो त्याग करवा योग्य अने उपादेय एटवे ग्रहण करवा योग्य होय, तेमांथी कांइ जाणे डे ? कमने कड्यु, “ एमांयी तो हुं कांइपण जाणतो नयी. तमे पोते कहो तो हुँ श्रमायो सांनळोश." ते वखते आचार्य तेने प्रतिबोध पमामवा माट बेत्रण घमी सुधी तत्त्वना निर्णय रुप देशना आपी निवृत्त थया. पी तेमणे कमळने पुछयु के, 'जज, कहे, हवे ते शुं तत्त्व जाण्यु ?' अपमति कमल बोल्यो, गुरुजी, में कांश बीजुं जाएयुं नयो. मात्र तमे बोलता हता, त्यारे तमारो हमीओ एकसो ने आठ वार जंचो नींचो थतो मारा जोवामां आव्यो, ए में जाएयु जे. ते शिवाय हुं कांइपण समज्यो नयी." कमळना आ वचनो सांनळी आचार्य खेद सहित बोल्या के, “ आ तो अंध आगळ आरसी थइ." परी ते कमळ चाख्यो गयो अने ज्यारे धन शेठ तेमने वांदवा आव्यो एटने आचार्य कमळनी ते चेष्टा धन शेउने निवेदन कररी पठ। आचार्य त्यांया विहार करी बीजे स्थले चाख्या गया हता. एक दिवसे अन्य, क्षेत्र, काल अने जावने अनुसारे परने प्रतिबोध करवामां कुशळ एवा को बीजा आचार्य पाठा तेज वनमा आवी चड्या. तेमना आगमनना खबर सांजळी लोको श्रेणिबंध तेमने वंदना करवाने गया. साथे धनशेठ पण त्यां गयो हतो. देशना पूर्ण थया पली धनशेठे गुरुने निवेदन कर्यु, स्वामी, मारो पुत्र कमळ धार्मिक विचारमा अत्यंत अज्ञात रहे जे. पूर्वे अहिं पधारेला आचार्योए तने अतिशय बोध आप्यो हतो, ते उतां ते प्रतिबोध पाम्यो नहीं. प्रयम आचा प्रतिबाध आपतां तेणे मंकोमानी गगत्री करी अने बीजा आचार्य बोध आपता ते तेमना कंठनो हमोयो उंचा नोचो थवान। गणत्री कर। तेयी कोइपण प्रकार ते अज्ञान। पुत्रने आप प्रतिबोध आपो के जेयो ते अज्ञानी पुत्र १४ Jain Education Intemational Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. नुं मिथ्यात्व रुप अंधकार नष्ट यश् जाय. अने तेने सम्यक्त्वरत्ननी प्राप्ति थाय. जो मारो पुत्र गाढ अज्ञाननायो मुक्त थशे तो आपने महान् लान थशे." आचार्य विचार करने जणाव्युं, " शेठ, आ तमारा पुत्रनी बुधि लौकिक व्यवहारमा केवो के ? धनशेठे कथु, " स्वामी, एक धर्म विचार विना बीजी सर्व बाबतोमां ते निपुण ." आचार्य उत्साह लावाने कथु, " त्यारे तो ए तमारो पुत्र सुबोध्य जे; माटे अवसरे तेने अहिं मोकनको." पउ धनशेटे पोताने घेर आवी कमळनी पासे ते आचार्यना गुणोनी प्रशंसा करी के, " पुत्र, कोइ उत्तम आचार्य आता डे, ते त्रिकालदर्शी छे अने सर्व प्राणी मात्रनी सुख दुःखनी प्रत्ति जाणे , माटे तारे त्यां जर तेमने मन्त्र अने पुq." तत्काल कमळ पितानुं वचन अंगीकार करी आचार्यनी पासे आव्यो. अने विनयथो वंदना करी तेमनी पास बैठो. आचार्य तेना मननो अनिपाय जाणवाने कडं, "ना आ तारा हाथना मणिबंधमां मत्स्यना मुख सहित शीघ्र फन आपनारी धनरेखा देखाय छे." करते विनययो पुज्युं, “ महाराज, ए रेखानुं शुं फन थशे ? " गुरुए " मच्छेण य सहस्सवणं" इत्यादि गाया बोली कयुं के, नक, ए रेखायो अमारा जाणवामां आरे क, " तारो जन्न शुक्लपकमां ने अने तारा ग्रहो समनावने भजनारा थशे." तस्कान काठ चात्कार पामी त्यांयी उप पोताने घेर आव्यो अने जन्नमत्रिका र आवो तेथे गुरुने बतावो. गुरुए जन्मपत्रिकामांयी पूर्वे कहेला ग्रहोने बतायो दोधा. अने कथु के, तारो अमुक वर्षे विवाह थयेस्रो अने अमुक वर्षे तने तावनी पीमा थर हती." आ प्रमाणे गुरुतुं वचन सांजळी कमळ चमत्कार पामो गयो अने तेणे घेर आवो पोताना पिताने जणाव्युं के, “ गुरु खरेखर त्रिकालज्ञानी जे." ते पछ। कमळ दररोज गुरुने वंदना करवा जतो हतो. आचार्य तेज नगरमां चातुर्मास्य रह्या. तेओ हमेशां कौतुक जरेत्री कयाओ कही धर्मोपदेश आपा वाग्या, आयी कमळ धर्मनो विशेष जाण थवा लाग्यो. तेना हृदयमां आहत धर्म उपर श्रघा थइ आवी अने तेयी तेणे अनुक्रमे श्रावकना बार व्रतो ग्रहण कर्या. उवटे गुरुनो कृपायो ते पोताना पिता करतां पण वधारे धर्म पर दृढतावानो थयो. चातुर्मास्य वोत्या पठी ते आचार्य त्यांयो विहार कर बीने स्यग्ने चाख्या गया. कुमार काळ श्रावक धर्मने चिरकाळ पात्री अंते सद्गतिर्नु पात्र थयो हतो. आ उपरथी समजवायूँ के, बीजाओए पण तेवी रीते Jain Education Interational Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश. जव्य जीवोनो उपकार करनारुं श्री जैन शासनने विषे कुशलपणुं राख; तेम करवायो सम्यकत्व रत्न आ जगत्मां निःसीम शोनाने धारण करनारं थाय छे. ए प्रमाणे जिनदर्शनमां कुशलपणारुप सम्यक्त्वना पेहेला नूषण उपर श्रावकपुत्र कमळने प्रतिबोध करनार आचार्य, दृष्टांत कहेवामां आव्युं. सम्यक्त्वनुं बीजुं नूषण. सम्यक्त्वनुं बीजं चूषण श्री जिनशासन प्रजावना ले. आगमादिकना बलथी अथवा ज्ञानना बन्नथी श्री जिनशासनतुं विशेष दीपकपणुं करवं, ते जिनशासननी प्रनावना ले. पूर्वे आठ प्रनावकना नेदयी ते आठ प्रकारे कहेवामां आव्युं डे. पूर्व कहेला, अहिं पुनःजे ग्रहण करवामां आव्युं, ते पोताने अने परने उपकारकारी होने तेमन तोर्यकर नाम कर्म बांधवाने बस्ने तेनुं प्राधान्य जणाववाने माटे . तेम व. ळी जे वचनो सदनूत अर्यने प्रकाश करनारा अने रागवेपने दूर करनारा , तेने वारंवार ग्रहण करवामां कांश पण दोष नयी; कारणके, ते सद्बाधन। दृषिनुं कारण रुप . ते विषे श्री उमास्वातिवाचक महाराजाए प्रशमरति प्रकरणमां कयुं बे "ये तीर्थकृत्प्रणीता, नावास्तदनंतरैश्च परिकथिताः । तेषां बहुशोऽप्यनुकीर्तनं नवति पुष्टिकरमेव ॥१॥ "जे तीर्थंकर प्रणीत जावो , ते आंतरा रहित कहेना उतां तेमनुं बहु वार अनुकीर्तन-स्मरण करवं, ते पुष्टिने करनारु ज थाय . " १ यउपजुक्तमपि सद्, भेषजमासेवतेऽतिनाशाय । तत्रागार्तिहरं, बहुशोऽप्यनुयोज्यमर्थपदम् ॥२॥" “जेम औषध एकवार खाधुं होय पण ते पीमानो नाश करवाने फरीवार खवाय . तेवी रीते राग रुपी पीमानो नाश करवा माटे अर्थना पदो घणी वार कहेवामां आवे . " १ " यहिषघातार्थ मंत्रपदैःनपुनरुक्तदोषोऽस्ति । तमागविषघ्नं पुनरुक्तमजुष्टमर्थपदम् ॥ ३ ॥ Jain Education Intemational Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्री आत्मप्रबोध " जेम विषनो नाश करवा माटे वारंवार मंत्रना पदो बोलवामा पुनरुक्ति दोष आवतो नथी, तेवी रीते राग रुपी विषने हणनारा अर्थ पदो बोलवामां पुनरुक्तिनो दोष आवतो नथी. वृत्त्यर्थं कर्म यथा, तदेव बोकः पुनः पुनः कुरुते ।। एवं विरागवार्ता, हेतुरपि पुनः पुनश्चित्यः " ॥३॥ जेम लोको पोतानी आजीविकाने माटे तेनुं तेजकाम वारंवार करे , एवी रोते वैराग्यनी वार्ताना कारणने वारंवार करवू जोइए." ३ सम्यक्त्त्व, त्रीजु नूषण. सम्यक्त्वनुं त्रीजें जूषण तीर्य सेवा छे. तीर्थ अव्ययी अने जावथी, एम बे प्रकारे जे. तेमा जे शत्रुजयादिक ते अव्यतीर्थ डे अने जे झान दर्शन चारित्रना धारण करनार अने नव्य जनोना तारक एवा साधु साध्वी ते नावतीर्थ कहेवाय डे. ते उजय प्रकारना तीर्थनी सेवाने विधि पूर्वक करवाथी सम्यक्त्व जूषणवाडं कहेवाय . अने ते परंपराए सिछिरुप फलने आपनारुं थाय . श्री नगवती सूत्रना बीजा शतकनी पांचमा नद्देशमां कहेवामां आव्युं ने के “ तथा प्रकारना साधु तया श्रावकनी पर्युपासना करवायी शु फन प्राप्त थाय ? " तेना उत्तरमा प्रनुए कडु डे के, सिघांतनुं श्रवण ए पर्युपासनानुं फन . श्रवणर्नु फन श्रुतझान , श्रुतझानतुं फन विशेष ज्ञान छे. विशेष ज्ञाननुं फत्र प्रत्याख्यान , प्रत्याख्याननुं फन्न संयम उ. संयमतुं फल अणएहय , अपएहयतुं फन्न तप डे, तपर्नु फल वोदाण , वोदाण- फन अकिरिय , अने अकिरियर्नु फल सिधि के. श्रुतझानथी हेयोपादेय प्रमुखतुं विवेचनकारी ज्ञान थाय . प्रत्याख्यान- फन विशेष ज्ञान कहुं तेनुं कारण ए डे के विशेष ज्ञानवालो पुरुष पापना पच्चखाण करे जे. ज्यारे पच्चखाण करवामां आवे त्यारे तेने संयम प्राप्त थाय . अणएहयनो अर्थ अनाश्रव थाय ने. संयमवंत पुरुषने अनाव होय ने एटले ते नवा कर्मने ग्रहण करतो नथी. ज्यारे अनाश्रवने लश्ने ते लघुकर्मीथाय डे, त्यारे ते तपस्या करे. वादाएनो अर्थ व्यवदान थाय जे. व्यवदान एटने कर्मनी निर्जरा. तपस्याथी पूर्वना कर्मनी निर्जरा थाय छे. अकिरिय एटने योगनिरोध. कर्मनी निर्जरा Jain Education Intemational Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. २०७ थवाथ योगनो निरोध थाय छे. ते पछी पर्यवसाने सिद्धिनुं फळ प्राप्त थाय बे. आ प्रमाणे सम्यक्त्वना त्रीजा भूषण तीर्थसेवानुं फल जाए। सम कितवंत पुरुषोए मां प्रवृत्ति करवी. सम्यक्त्वनुं चोयुं भूषण. सम्यक्त्वनुं चोयुं भूषण स्थिरता बे स्थिरता एटले चित्तनी चपलतानो जाव. जैनधर्मने विषे पोतानुं अथवा परनुं स्थिरपणं कर-दृढ चित्त राखी रहें, स्थिरता कवा बे. परत थींनी महान् समृद्धि जोवामां आवे तोपण सुन्नसानी पेठे निःप्रकंप रहेनुं, जिन वचन उपर त्र्यविचन्न श्रद्धा राखवी. तेवा जीवो धर्मी कवाय बे. जे दृढधर्मी पुरुषो होय बे, तेयो अरिहंतना प्ररुपेला आगममां प्रशंसनीय गाय बे. ते विषे आगममां कहुं बे के, “ चार प्रकारना पुरुषो होय . १ प्रियधर्मी डे पण दृढधर्मी नयी. २ दृढधमीं बे, पण प्रियधमी नथी. ३ धर्मी ने प्रियधर्मी ने ४ हृदधर्मी नथी तेम प्रियधर्मी पण नथी. आ चार प्रकारैना पुरुषोमांत्री जो प्रकार सर्वोत्तम बे. अने ते जव्य पुरुषोए ग्रहण करवा योग्य बे. 46 स्थिरता विषे सुनसानो वृत्तांत. जंबुपना भरत क्षेत्रने विषे मगध नामे देश छे. ते देशनी राजधानी राजगृही नगरी बे. ते नगरीमां प्रसेनजित् नामे राजा राज्य करे बे. ते सर्व उचित कलामां कुशल बे. तेने नाग नामे एक सारथि हतो. ते राजा प्रसेनजित्ना चरण कमळनी सेवामां सदा तत्पर रहेतो हतो. तेने सुनसा नामे स्त्री हती. ते पतिव्रता ने जैन धर्म उपर पूर्ण रागी हती. ते गुणवती बाला सर्वदा शुरू निष्ठाथी देव जक्ति ने पति जक्ति करती हती. एक दिवसे नागसार थिए कोई घरमां गृहस्थने पोताना उत्संगमां पुत्रने रमामतो जोयो. पोते अपुत्र होवाथी ते जोइ हृदयम अतिशय परिताप पाम्यो ने पोताना मुखने हाथ ऊपर राखी या प्रमाणे मनमां कहेवा लाग्यो - " अहो ! हूं केवो मंद जाग्यवान् बुं के मारे एक पण पुत्र नयी. या जाग्यवान् पुरुपने धन्य छे के जेने हृदयने आनंद आपनारा घणा पुत्रो डे. " प्रातुं चिंतवतो Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. नागसारयि पोताने घेर अाव्यो. पोताना पतिने आम चिंता करतो जोइ सती सुन्नसाए कयुं, “स्वामी नाय, तमारा हृदयमां शी चिंता उत्पन था ? तमारं चिंतातुर मुख जोड़ मारा हृदयने परिताप थाय रे. माटे जे सत्य होय ते कहो." नागसारथि मंद स्वरयी बोल्यो-" प्रिया, आजे एक गृहस्यने में पोताना उत्संगा पुत्रने रमामतो जोयो, ते उपरथी मने पुत्रनी चिंता ऊत्पन्न थइ आवी ने. आज सुधी मारे कांड पण पुत्र थयो नयी, एयी ९ मारा आत्माने उर्जागो मार्नु बुं. मने अत्यार सुधी एक पण पुत्र प्राप्त थयो नहीं, ए मारा हृदयने शयनी जेम पीमे ." स्वामीना अावा वचनो सानळी सुखसाए कडु- स्वामी, चिंता करशो नहीं. पुत्रने उत्पन करवा माटे तमे कोई बोजी कन्या- पाणिग्रहण करो. कोइ पण रोते तमारा मननी चिंता दूर करवी ए मारी फरज छे." नागसारथि बोटयो-“प्रिये, ए वात मारी आगळ कहीश नहीं. आ जन्ममां मारे तुं एकज प्रिया जे. तारा शिवाय बीजी स्त्रीने हुं मनयी पण इच्छतो नयी. मारामां पुत्र दर्शननी अनिझाषा उत्पन्न थडे पण ते पुत्र तारी कुतिया उत्पन्न थयेसोज इच्छु बु. वीजी स्त्रीथी उत्पन्न थयेना पुत्रने जोवानी मारी इच्छा नयो. माटे तुं सती , तेयो कोइ देवतानी आराधना करी तेनी पासे पुत्रनुं वरदान माग, जेयी मारो मनोरय सिघ थाय." सुनसा पतिना आवा वचन सांजळीने बोली,-स्वामिनाय, जो आपणा कर्ममां पुत्र हशे तो आपणने अवश्य प्राप्त थशे. ते शिवाय कदिपण पुत्रनी प्राप्ति नहीं थाय. वांछित अर्थनी सिधि करवाने माटे मन, वचन अने कायायी वीजा कोइ पण देवनी आराधना करीश नहीं. आपणे तो श्री अरिहंत देवनी आराधना करीशं. जे जगवान् सर्व इष्ट सिफिना कारण रूप कल्पवृक समान . हुं सर्व मनोरयोने पूरनारा 'आचाम्न प्रमुख तपने आचरिश. एनायी आपणां कार्यनी सिधि थशे. कोइ जातनी चिंता करशो नहीं." सतोना आ वचनो सांनळी नागसारथिने आश्वासन मळ्यु. ते परी सती सुनसा आदिनाय प्रमुख सर्व जिनेश्वरोनी त्रिकाल पूजा करवा लागी अने वीजा धार्मिक कार्यो तया तपस्या करवामां ते तत्पर बनी गइ. केटलोक समय वीत्या पली देवलोकमां इंनी सनानी अंदर सुनसाना १भायंबिल. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. धार्मिकपणानी प्रशंसा करवामां आवी ते वखते एक मिथ्यात्वी देवता ते प्रशंसा सांजळी शक्यों नहीं, तेयो ते मुलसानी परीक्षा करवाने पृथ्वी पर आव्यो. ते साधुनो कत्रिम वेष पेहेरी सुनसाना घरमां पेठो. ा वखते सुन्नसा पोताना घरमा जिनेश्वर प्रभुनी पूजा करवामां आसक हती, तोपण तेणीए ज्यारे मुनिने घेर आवेन्ना जोया, एटने ते तत्काल बेठी थइ अने अतिशय नक्ति पूर्वक तेणे मुनिना चरणकमळमां वंदना करी सतीए मुनिने विनय यी पउयुं, "महाराज, शं कारण पधार्या गे? " कपटो मुनिए कडु, “बाइ, अमार। साथ एक बोजा साधु , तेमने एक रोग थयेनो . ते रोगर्नु बेदन करवाने नापाक तेन्न जोइए जीए; तेव॒ तेन्न तमारा घरमा हशे, माटे ते लेवा श्राव्यो बु" मुनिना आ वचनो सनिळतांज सती सुन्नसा पोताना ओरमामां गई अने नपाक तेलनो एक घमो लावी ते गीए मुनिन। आगळ मुक्यो. पोते ते घडार्नु ढोका उघामवा मांझयु, तेटनामा देवना प्रनावी ते घनो फुटी गयो. आयो सुन्तलाना हृदयमा जरा पण खेद थयो नहीं. ते पाछी घरमा जश्ने बोजो घमो लावी ते घमो नपामतांज नांगी गयो. तोपण ते अखिल हृदये पागे बीजो घमो लावी. ते पण प्रयमनी जेम जांगो गयो. हो तेगोना घरमा चोयो घको नहतो, तेयो ते घमानो अपशोष न करता पोताना मनमा कहेवा मागी के, " अरे ! हं केवी निर्जागो : आ मारुं तेत्र ग्नान मुनिना उपयोगमा आव्यु नहीं." सती सुन्नसाने आम चिंतवती जाण, तेनी उत्तम जावना जोइ ते देव प्रसन्न थइ गयो. तत्कान तेणे पोतानुं स्वरूप प्रगट कर्यु. ते बोस्यो-" सती श्राविका तमने धन्यवाद घटे . ईथे देवतानी सनामा तमा। प्रशंसा करवा मामी ते वखते में अस्पबुधिवाले तेमां शंका करी. पठी तमारी परीक्षा करवाने हुँ मु. निनो वेष धारण कर। अहिं आव्यो हतो. इंजे कोनी प्रशंसायी पण पधारे तमारामां धर्मनी स्थिरता जोइ हूं संतुष्ट यइ गयो बुं, तेयो जे तमोने इष्ट होय ते मागी स्यो." आ वखते सती सुन्नसाए प्रसन्न थइने कयु, " देव, जो तमे मारी उपर संतुष्ट थया हो तो मने पुत्र रूप वांछित वर आपो." सतोनी ा मागणी उपरयी ते देवताए तेषीने बत्रीश गुटिकाओ आप। अने कयुं के, “तमारे आ गुटिकामो अनुक्रमे नक्षण करवी तेयो तनारे तेटन्ना सुंदर पुत्रो थशे. ते शिवाय मारा योग्य काय पण कार्य आवी पमे तो मने संजारजो." आटद्धं कही ते Jain Education Interational Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्री आत्मप्रबोध. देव अदृश्य थइ गयो. देव अदृश्य यया पठी चतुर सुनसाए विचार कर्यो के, आ गुटिका अनु न ना करवायो बत्रोश पुत्रा यश. तो ते पुत्रोना मन्न मूत्र वि. गेरे अशुचिने कोण साफ करशे ? अने तेमन बरदाप्त शो रोते था शकशे ? माटे या बर। गुटिका या एक साये खाव वधारे सार। , ते करवायो बत्रोश लकपवान्नो एकज पुत्र थशे." आई विचार) सुप्तता ते बरीश गुटिकाप्रोने एको साये नाश कर गइ. ते पर) सुन्नप्तानी धारणा प्रमाणे बन्युं नहीं पण दैवयोगे तेणना जदरमा बत्रोश गर्न उत्पन्न थया. अनुक्रमे जदरनी मोटी वृद्धि थवायो सतो सुनसाने नार पोमा यः पमो. गर्नना नारन। पोमाने नहीं सहन करवायो सुन्नसाए कायोत्सर्ग करो पेन्ना देवता स्मरण कर्यु. तत्कान ते देवता त्यां हाजर थयो अने पोताना स्मरणतुं कारण पुग्यु. सुन्नप्ताए ते देवनी आगळ पोतानो सर्व वृतांत जणाकी दोधो. ते वावते दव बोम्यो. " नं, तें एक साये बत्राश गुटिका खाधी, ते घाणू अयोग्य कर्यु . हवे तारा गर्नमा बत्रीश बान्नको उत्पन्न थया . तेप्रो बधा एको साथै अवतरशे अने सरखा आयुष्यवान्ना थशे. ते सर्वनू मरण एकज वखते थशे. परंतु तुं गर्न पीमानो लय राखीश नहीं हुं तने ते विषे सहाय करीश." आ प्रमाणे कही मुन्नसाना गर्ननी पोमाने हरी ते देव पोताने स्थाने चाट्यो गयो. पजी सुनसा गर्ननी पीमायो रहित थप अने सुखे गर्न नुं वहन करवा मागी. समय पूर्ण थयो एटनेतेणोए बत्रोश लक्षणवाला बत्रीश पुत्रोने जन्म आप्यो. नागसारथिए मोटा आमंबरथी ए बत्रीश पुत्रोनो जन्मोत्सव कर्यो. अनुक्रमे ते बत्रीश पुत्रो मोटा थइ यौवन क्यने प्राप्त थया. सारथिए ते वत्रीश कुमारोने राजा श्रेणिकनी सेवामा राख्या. तेमनी उत्तम सेवायो श्रेणिक राजा तेमनी उपर संतुष्ट रहेतो हतो. एक दिवसे राजा श्रेणिक प्रयमयी संकेत करी चेमाराजानी पुत्री सुज्येटाने गुप्त राते लाववान योजना करी. ते योजना पारपाबाने चंपा नगरोनी सामे बुपी सुरंग करावी अने ते सुरंग मागे नागप्तायिना बत्रीश पुत्रोनी साये रथमां बेशी श्रेणिकराजा ते नगरना दरवाजामां पेग. राजकुमारी सुज्येष्टाए पण प्रयम चित्रमा जापेक्षा माधपति श्रेणिकने प्रोन्नखो पोतानो नानी बेन चेक्षणाने ए वृत्तांत कयो हतो. चेनपा पोतान। बेनना वियोगने सहन करवा असमय हती, तेयो ते पण ते रथमां साथे प्रावी. रस्तामां जतां सुज्येष्टा पोताना आजूषणनो Jain Education Intemational Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश कंमोओ नुसी जवायी ते लेवाने पाठी गइ ते वखते सुनसाना बत्रीश पुत्रोए राजा श्रेणिकने जणाव्यु के, “ स्वामी, आपणे आ शत्रुना घरमा घणीवार रहे। योग्य नयो." राजाने ते वात रुचिकर लागो. तत्कान ते चवणानेज लाने त्यांयो आगन चाध्यो गयो. पाउळ यो सुज्येष्टा रत्नानरणनो कमोयो लइ आव।. तेणे ते स्यने श्रेणिकनो रय जोयो नहीं. पोतानो मनोरथ अपूर्ण रह्यो. आथी तेना मनमा लाग। आयु. तेम वळी पोतानी बेन चेवणानो वियोग पण ते सहन कर शको नहीं, आय। तेणोए जंचे स्वरे पोकार को-" हा, हा, कोश् चेद्वणाने हरी जाय ." आ पोकार राजाना सांजळवामां आवतां चेमो राजा तत्कान क्रोध पामी तैयार थइ गयो. ते वखते ते राजानी पासे रहेझो वैरंगिक नामनो सुनट ते राजाने निवारी पाते चेवणाने पाठी वानवा दोमी गयो. ते वेगयी दोमतां श्रेणिकना रयनी थोमे दूर आवी पोहोच्यो. तेणे जोरथी एक एबुं वाण मार्यु के जेयो सुनसाना बत्रीश पुत्रो एकी साये हणा३ गया. पठी तेणे ते सांकमी सुरंगमांयी ते बत्रोश रथो खेचया मांड्या तेवामां श्रेणिक राजा पोतानो रय वेगथी आगळ चत्रावी गयो. ते वखते वैरंगिक सुनट पोतानो मनोरथ सिफ न थवाथ निराश थइ पाछो फर्यो. तेणे सखेद मने ते वृत्तांत चेमा राजाने जणाव्यो. अने परी ते पोताने घेर चाट्यो गयो. राजा श्रेणिक सुज्येष्टाने वदले चेलणाने बस्ने पोतानी राजधानी राजगृह नगरीमा आवी पोहोच्यो. त्यां जश् ते गांधर्व विवाहन विधियी चेनणाने परण्यो. राजाना मुखयो नागसारथि अने सुखसा पोताना बत्रीश पुत्रोना. मरणनो वृत्तांत सांजली अति शोकातुर थइ गया. अने तेनो नारे विलाप करवा लाग्या. ते बंने दंपती शोकना महासागरमां मग्न थयेला जाणी राजा श्रेणिक अने अजयकुमारे तेमने आ प्रमाणे प्रतिबोध आप्यो. “ नक, तमे आहेत धर्मना झाता अने विवेको गे. आ संसारनुं स्वरुप तमारा जाणवामां ने, तेथी तमारे विशेष शोक करवो नहीं आ संसारने विषे जे कांश आ साक्षात् नाव देखाय डे ते सर्व विनाशी डे अने मरण पाम, ए सब जीवोने साधारण डे, तेथी शोकनो त्याग करी धर्मना साधनरुप धैर्यन अवलंबन कर." आ प्रमाणे प्रतिबोध आपी शाजा श्रेणिक पोताना कुमार अजय मंत्री साथे पोताने मेहेल गयो. ते पली बने १५ Jain Education Intemational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्री आत्मप्रबोध. दंपति पोताना पूर्वना कर्मना विपाकने प्रमाण करी शोकरहित थइ गया. अने आहेत धर्मना आराधनमा विशेष जजमाल थया हता. एक वखते श्री वीरपत्नु चंपा नगरीना उद्यानमां समोसर्या. सर्व पर्षदा तेमने वंदना करवाने आवी. जगवते धर्मनी देशना आपी. आ वखते दंग, उत्र, अने 'काषाय वस्त्र धारण करनार अंबम नामनो एक परिव्राजक के जे श्री वीर प्रनुनो उत्तम श्रावक हतो, ते वीरपत्नुने नमी योग्य स्थाने बेशी अनुना मुखयो धर्मदेशना सांजळतो हतो, ते मनुने वंदना कर आ प्रमाणे बोल्यो" स्वामी, हाल राजगृह नगरने विषे जवानी मारी इच्छा ." अनुए विचार करोने क[, “ देवानुपिय, जो तमारे त्यां जq होय तो त्यां नागसारथिने घेर अमारी श्राविका सुनसा , तेने मधुर वाणीथी धर्मशुछि साथे सुखशाता पुरजो.". मनुनी प्रा आझाने अंगीकार कर। अंबम श्रावक लब्धिना बलथी आकाश मार्गे चाली राजगृह नगरीमां आव्यो. ते नागसारथिना घरना घार आगळ आवी उनो रह्यो, ते वखते तेणे पोताना मनमां चिंतव्यु के, “ लगवान् वीरमन्नुए जेने माटे कालजी राख्नेली , एवी सुनसा धर्मने विषे केवी दृढ हशे? तेनी परीक्षा करवी जोइए." आबु चिंतवी तेणे तत्काल वैक्रिय लब्धि वमे वीजु रूप करी मुलसाना घरमा प्रवेश को. तेणे घरमां पेशी प्रथम सुलसानी पासे जिदा मागी. सुलसाए ' सत्पात्र शिवाय बीजाने निदा आपवी नहीं' एवो नियम ग्रहण करेलो हतो, तेथी ते प्रतिज्ञा पालवाने तेणे अंबम श्रावकने पोताने हाये निका आपी नहीं. अंबम त्यांथी पागे फर्यो अने नगरनी बाहेर पूर्वमां जश तेणे ब्रह्मानुं स्वरूप विकुयु. चार मुख अने चार जुनाओ धारण करी. अंग उपर ब्रह्मसूत्र अने कंठमां रुजमाळा आरोपित करी. ते सावित्री साथे हंसना वाहन उपर वेठो हतो. ते रक्तवर्णी ब्रह्मा बनी चारे मुखे चार वेदोनो ध्वनि करवा साग्यो. आ ब्रह्माना प्रत्यक्ष दर्शन करवाने राजगृही नगरीना हजारो लोको आबवा लाग्या. केटलाएक तेनी नक्ति करवाने, केटसाएक कौतुक जोवाने अने केटमाएक मननी इच्छा पूरी करवाने ते स्थले एका थवा लाग्या. आ वार्ता सती मुलसाना सांगळवामां आवी तोपण सम्यक्त्वने विष दृढ नियमवाळी ते रमणी .. .भगवा वन. .. Jain Education Interational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ ते कपटी ब्रह्मानी पासे गड़ नहीं. ज्यारे सुलसा तेने वंदन करवा आवो नहीं एटले ते श्रावके बीजे दिवसे दक्षिण दिशामां विष्णुनुं स्वरूप धारण कर्यु. तेणे गरूरु उपर आसन कर्यु, पीळा वस्त्रो धारण कर्या, चारे जुजामां शंख, चक्र, गदा ने शार्ङ्गधनुष्य राख्या, ते साये सम्झी तथा बीजी गोपांगनाओ सहित बीला प्रदर्शित करी. तेना दर्शन करवाने अनेक लोको दोमी गया. पण मिध्यावन परिचय जय पामती ते शुद्ध श्राविका ते स्थाने गइ नहीं. ज्यारे सुनसा पोताना विष्णुना स्वरूपी बन्नचाणी नहीं एटले ते त्र्यंबके त्रीजे दिवसे पश्चिम दिशामां शंकरनं रूप विकुर्यु. ते महादेव वाघना चर्मने धारण कर वृषजनावाहन उपर बेठा हता. त्रण नेत्रो ने मस्तक पर चंद्र धारण कर्यो. जटामां गंगा, गजचर्मना वस्त्र, शरीरे जस्म, एक हायमां त्रिशूल, बीजा हायमां खप्पर, गल्लामां रुंडमाळ खळामां पार्वती धारण करेला हता. ते शंकर रूपे लोकोने कहेतो हतो के, या जगना सर्व प्राणीने संहार करनार हुं हुं. मारा जेवी कोइनामां शक्ति मारा शिवाय कोइ परमेश्वर ज नयी. नगरना सर्व लोको तेना दर्शन करवाने जा लाग्या पण सम्यक्त्वथ । विभूषित एवंी सुन्नसा त्यां गइ नहीं. ते पोताना धर्मने विषे दृढता धारण करीने बेशी रही. प्रथमप्रकाश. A श्रावके जाएयुंके, सुलसा पोताना धर्ममां दृढ रही बे. पछी चोथे दिवसे तेणे उत्तर दिशामां समवसरणनी रचना करो. मातिहार्य सहित जिन स धारण करी तेमां ते विराजित यो. ते वार्ता सांजन घा बांको तने वंदना करवाने गया. अने नगरना लोकोने आर्हत धर्मनो उपदेश आ पवा मांड्यो . तयापि धर्मने विषे दृढतावासी सुनसा ते स्थळे गर नहीं. या वात बना जाणवामां आवतां तेणे मुलसाना मनने दोन पमावाने माटे एक पुरुपने ने घेर मोको. ते पुरुषे सुनसाने घेर आ आ मनाऐ कहुँ,– “ज. s, आ नगर न। बाहर श्री अरिहंत भगवान् समासर्या बे, तेमने वंदना करवाने माटे तमे केम जता नथी ? " सुलसा बोली " हे महाभाग, हाल आ पृथ्वीने विषे श्रीवीर भगवान् शिवाय बीजा कोइ तीर्थकर विद्यमान नथी. अने श्री वीरगवान् तो हाल वीजा देश तरफ विचरे बे, तेयो एकदम अहीं शीरीवे ? कोण रीते वीरमनुनो अहीं आववानो संजव नथी. " सुनसाना Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. आ वचन सांजली ते पुरुषे का, “अरे जोली स्त्री आतो पचवीशमा तीर्थकर के तेओ हमणांज उत्पन्न थयेना , माटे तमे पोते तेमनी पासे जइ केम वंदना करवा नथी ?" सुलसाए आदप करीने का, “ जज, ए वात तदन अघटित के. आ जगतने विषे पचवीशमा तीर्थकर कदिपण थताज नथी. मने तो लागेठे के, आ कोइ मायावी पुरुष जे. ते कपटना आवरथी जोला लोकोने उगे . तेवा धूर्त्तनी पासे मारे शा माटे आव, जोए ? “ सुनसाना आ वचन सांगली ते पुरुषे विचार करीने कयुं, " नजे, तमारे एवी शंका शा माटे लाववी जोइए. ए धूर्त होय के कपटी होय तोपण ते जैन शासननी उन्नतिनेतो करनारो . गमे ते रीत शासननी उन्नति थती होय, तेमां दोष जोवानो नथी." सुलसा जरा नाखुश थइने बोली-" जज, आवो वात कहेवा उपरथी मने लागे ने के, तुं पण जोळो ( मूर्ख) माणस जे. जो तुं ज्ञानव विचार करीश तो तने मालुम परशे के, असद् व्यवहारथी शासननी उन्नति थती नथो पण नबटी लोकोमां हांसी थाय ." सुखसानां आवां दृढता नरेलां वचनो सांजळी ते पुरुष त्यांची चालीनीकळ्यो अने अंबानी आगळ आवी तेणे ते सर्व वृत्तांत निवेदन कर्यो. ते उपरथी अंबमे पोताना हृदयमां विचार कर्यो के, “वीर प्रजुए सना समक्ष जे सुलसाने धर्मलान पूगव्यो, अने तेणीनी संभावना करी ते सर्व रीते घटित ने. ते वखते नीचे प्रमाणे वे पद्य बोल्यो हतो " मया व्यामोहितं विश्वं, विश्वं न सुखसा पुनः । तमसा ग्रस्यते सोको, न प्रदीपशिखा पुनः ॥ १॥ तयामुष्य मनोरूकं, विपु रहतां गुणैः । स्थातु मिष्टे मया तत्र, महिमा नहि मादृशाम् ॥॥" “ में वधा विश्वने मोहित कर्यु, पण सुलसाने मोहित करी नहीं. अंधकार मोकने ग्रसे छ पण ते दिवानी शिखाने ग्रसी शकतुं नथी. ? - आ सुनसानुं मन अरिहंतोना विशाळ गुणोथी एवं रंधाइ गयुं छे के जेमां मारा जेवाओनो महिमा रही शके तेवो अवकाश रह्यो नथी. २ Jain Education Interational Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश. आ पद्योने कही ते अंबम श्रावके विचार्यु के "सुलसाने में घणी रीते चलायमान करी ते उतां पण ते जरा पण चलित थ नहीं. तेथी तेनी दृढताने पूर्ण धन्यवाद घटे " आई विचारी ते अंबा श्रावके पोतानुं मायारुप फेरवी स्वानाविक रुप धारण कयु, अने ते हृदयमां प्रसन्न थश्ने सुनसाना घरमां आव्यो. सती सुलसा तेने मूलरुप धारी जोइ बेठी थइ सामी आवी अने तेने एक साधर्मि बंधु तरीके मान आपी आ प्रमाणे बोली-“हे त्रण जगत्ना स्वामी श्री वीर प्रभुना श्रावक, तमे कुशल गे?" एम सुखशातानुं प्रश्न करी तेना चरण, प्रक्षालन करी तेने पोताना गृह चैत्यनुं वंदन कराव्युं अंबर श्रावक पण विधि पूर्वक चैत्यवंदन करी सुखसा प्रत्ये बोध्यो-“हे महासति, आ जरतक्षेत्रने विषे तमे एकज धर्मने विषे दृढतावाला अने पुण्यवान् गे; कारणके, श्री वीर प्रनुए मारे मुखे तमोने धर्मबाल कहेवराव्यो ने. अंबाना मुखथी आवात सांनळी मुलसा अतिशय आनंदवाली पर गइ. अने जे दिशामां प्रत्तु विहार करता हता, ते दिशा तरफ अंजलि जोकी, प्रजुने हृदयमां धारण करी तेणे उत्तम वाणीथी प्रन्नुनी स्तुति करी. आ वखते तेणीनो आशय विशेष जाणवाने माटे अंबम आ प्रमाणे बोटयो-" महासती, आ नगरनी बाहेर हमणा ब्रह्मा, विष्णु अने शंकर प्रत्यक्ष आव्या हता, तेमना दर्शन करवाने तमे गया हता के केम ? मुलसा बोली-" देव, जे पुरुषो जैन धर्ममां अनुरक्त थया होय, तेोरागषरुप शत्रु ओने जीतनारा, जव्यजनोनो उपकार करनारा, सर्वज्ञ अतिशय संपन्न अने पोताना तेजथी सूर्यने पण पराजित करनार एवा देवाधिदेव श्री महावीर मनुने मूकी राग, केष तथा मोहथी पराजव पामेना, निरंतर स्त्री सेवामां तत्पर रहेनारा, वध बंधन वगेरे क्रियाने आचरनारा आत्म धर्मने नहीं जाणनारा अने सूर्यनी आगळ खद्योत जेवा ते देवाने जोवा केम उत्साह करे ? अर्थात् नज करे. कोश पुरुषे परम आल्हादने आपनारा अमृततुं पान कर्यु होय तेने खारं पाणी पीवानी इच्छा केम थाय ? कदिपण न थाय. जेणे हीरा, माणक तयारत्नोनो वेपार कर्यो होय तेने काचना कमकानो वेपार करवो केम रुचे ? हे देवता, तमे जिनेश्वरना Jain Education Intemational Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. कहेला नावने जाणोगे, अने तेमणे प्ररुपेला धर्मने विषे रक्तबो, ते उतां तमे मने आवो प्रश्न केम करो डो?" सुलसाना आ वचनो सांनळी अंबा अत्यंत प्रसन्न थइ गयो. तेणे सुलसानी धर्म नपरनी स्थिरतानी प्रशंसा करी. पठी तेणे ब्रह्मा, विष्णु, वगेरेना स्वरुपने धारण करवानो पोतानो सर्व वृत्तांत सुखसानी आगळ कही संजळाव्यो. पछी तेणीने मिथ्यामुष्कृत कही ते पोताने स्थाने चाव्यो गयो हतो. पठी अंबमने श्री वीरपत्नु पासे ग्रहण कर्या , वार व्रत जेमणे एवा सातसो शिष्यो थया हता. एक वखते ते अंबम्ना शिष्यो कोपिलपुरथी विहार करी पुरिमताळपुर जता हता. मार्गे जतां तेओ तृषाथी आकुळ व्याकुळ थइ गया. तेवामां गंगा नामनी एक मोटी नदी आवी पण कोई जळ आपनार त्यां न हतुं. तेश्रो सर्वे अदत्तादानथी विरक्त हता. एटले तेश्रो परस्पर आ प्रमाणे कहेवा लाग्या. हे देवानुप्रियो, आपण सातसोमांथी को एक पोताना व्रतनो जंग करी जो जलपान करावे तो बाकीना बधाना व्रतनुं रक्षण थाय. श्रा प्रमाणे कहेवामां आव्यु तोपण कोइ पोताना व्रतनो नंग करवा तैयार थयुं नहीं. पळी सर्वेए ते स्थळे अनशन व्रत ग्रहण कर्यु. हृदयमां श्री महावीर प्रजुनुं ध्यान करतां अने पोताना गुरु अंबमने नमन करतां तेओ समाधि मरणथी काल करी पांचमा देवलोकने प्राप्त थया हता. अंबम श्रावक मूल परिव्राजक हतो, पण ते आर्हत धर्मने प्राप्त कर्या पनी स्थूनहिंसानो त्याग करतो, नदी वगरे जलाशयोमांक्रीमाने न करतो, नाटक, तथा विकथादिक अनर्थ दमने नहीं आचरतो, तुंबी, लाकडां के माटीनां पात्रोने वर्जी बीजा पात्रोन नहीं स्वीकारतो, गंगानी मृत्तिका शिवाय बीजी वस्तुओथी विलेपन न करतो, कंदमूत्रनुं लक्षण डोमी देतो, आधाकर्मिक आहारनो परिहार करतो, मात्र मुजा अलंकारने धारण करतो, काषाय वस्त्रोने पेहेरतो, जलने गळी पान करतो, 'अर्ध आढक प्रमाण जलथी स्नान करतो अने श्री जिन प्रणीत ध. मैने विषे बुछिने राखतो पोताना जीवनने सफन करतो हतो. वटे उ मासर्नु अनशन ग्रहण करी अंबम श्रावक समाधियी मृत्यु पामी पांचमा देवलोकने प्राप्त थयो हतो. ते देवलोकमां दिव्य जोगने जोगवी अनुक्रमे मनुष्य नव पामी चारित्रनो आराधना कर। मोक्षपदने पामशे. १ एक जातर्नु माप. Jain Education Intemational Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. सती सुलसाए हृदयमां धर्मनी स्थिरता धारण करते अने सम्यक्त्वने उत्तम प्रकारे दीपावी तीर्थकर नाम कर्म उपार्जन कर्यु हतुं. ते महा सतो आ जरत क्षेत्रने विषे आवती चोवीशीमां श्री निर्मम नामे पंनरमा तीर्थकर थशे. एवी रीते बीजा जव्य जीवोए पोतानुं सम्यक्त्व रत्न दोपाववा माटे, धर्म उपर स्थिरता करवा माटे सर्वदा प्रयत्न करवो. जेयी आ त्रण जगतना शिखर उपर रहेला मोकपदनी प्राप्ति अवश्य थशे. एवी रीते सम्यकत्त्वनी स्थिरता उपर सुलसानो वृत्तांत कहेवामां आव्यो. सम्यक्त्व, पांचमुंजूषण नक्ति. प्रवचननो विनय करवो-वैयावञ्च करवी-ते नक्ति कहेवाय जे. ए साचा जावे करवायी सम्यक्त्वने शोजावे , माटे ते सम्यक्त्वनुं नूपण कहेवाय . सेनाथी अनुक्रमे मानुषी तथा दैवी संपत्ति प्राप्त थाय ने अने परिणामे ते मोदने आपे . ते जपर श्रीबाहु तथा सुवाहु आदिना दृष्टांतो प्रख्यात जे. श्रीबाहु साधुए उदसित नावथी पोताना गुरु आदि पांचसो साधुओने आहार लावी आपी तेमज बीजी वैयावच करी उत्तम प्रकारनी भक्ति करी बतावा हती. तेनाथी तेणे नोग्य कर्म उपार्जन कर्यु हतुं. सुबाहु मुनिए पण तेमनी वैयाबच्च-क्ति करी अतिशय नुजवन्न उपार्जन कर्यु हतुं. ते पठी बने मुनिओए पूर्वोक्त प्रकारे नक्ति करता पोताना सम्यक्त्वने सारी रीते शोनाव्युं हतुं. ते जक्तिना प्रभावी उत्तम पुण्य संपादन करी तेओ देवलोकमां गया अने त्यां दि. व्य सुखनो अनुनव लश् ते बंने श्रीऋषनदेव प्रत्तुना पुत्र रुपे अवतो हता. पहेला जे बाहुमुनिनो जीव हतो ते नरत चक्रवती थयो अने सुबाहुनो जीव बबवान् बाहुबनो थयो हतो. बंने निरुपम एवा मनुष्य सुखने प्राप्त करी डेवटे मोदना परम सुखना जोक्ता थया हता. ते विषे विस्तारथी जाणवू होय तो अन्य ग्रंथोथी जाणी सेवं. ए प्रमाणे प्रवचननी नक्तिनुं फल मोडें , एम मानी भव्य जीवोए तेने विषे विशेष नद्यम करवो-एवी रीते सम्यक्त्वने दीपावनारा पांच आनूषणो कहेवामां आव्या. सम्यक्त्वना पांच लक्षणो. 'उपशम, संवेग, निर्वेद, 'अनुकंपा, 'आस्तिकता-ए सम्यक्त्वनां पांच लक्षणो कहेला छे. Jain Education Intemational Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. १ उपशम-मोटो अपराध करनारामाणस जपर पण कोप न करवो, ते जपशम कहेवाय . ते नपशम कोइ प्राणोने कषायनो परिणतिना कटु फळ जोवायी थाय ने अने कोइने स्वानाविक राते थाय . अर्यात् अपराधी माणसतुं पण प्रतिकूळ चिंता नहीं ते उपशम कहेवाय जे. आ उपशमयपोतानामां प्राप्त थयंत्रा सम्यक्त्वनी ओरख थाय जे तेयो विवेको पुरुषोए ए उपशम नावने सर्वदा धारण करवो. उपशम नाव एटनो वधो नपयोगी ने के ते सर्व कार्योने स्हेसायी साधे . क्रोधना नदययो कदि कार्य नष्ट थ गर्दा होय, पण ते उपशमथो पुनः प्राप्त थाय , ते विषे शास्त्रमा आ प्रमाणे कहेनुं . "कोहण पहारवियं, नप्पजंतं च केवलं नाणं । दमसारेण य रिसिणा, उत्सम जुत्तेण पुण लहं" ॥१॥ श्री दमसार मुनिए क्रोधे करीन उत्पन्न यतुं केवळझान गुमायुं हतुं, पण उपशम नावयो पाचुं, ते ज्ञान प्राप्त कर्यु हतुं. ते कया था प्रमाणे . दमसार राजर्षिनी कथा. आ जंबूकीपमा आवेना जरतक्षेत्रनी अंदर कृतांगना नामे नगरी जे. तेमा सिंहरय नामे एक राजा थयो हतो, तेने सुनंदा नामे रागो हती. ते राणोना उदयी दमप्सार नामे एक कुमार थयो हतो. ते घणोज बुधिमान् हतो. ते बालवयमांज बोतेर कळामा प्रवीण वनी गयो; तेथी ते तेना पिताने नदयना आनंदने उपजावतो हतो. अनुक्रमे दमसार यौवन वयने प्राप्त थयो. पिताए तेने घणी राजकन्याओनी साये परणावो युवराज पद उपर नीमो दीपो. राजकुमार दमसार पठी सुखे काळ निर्गमन करतो हतो, एक दिवसे ते नगरनी समीपे जगवान् महावीर स्वामी समोसा. देवताओए आवी तमनुं समवसरण कर्यु, पर्पदा वंदन करवाने आवी. आ. वखते राजा सिंहरय पोताना कुमारनो साये सपरिवार तेमने वंदना करवाने आव्यो. उत्र, चामर वगेरे राजचिन्होने दूर मूकी राजा पनुनी समोपे आव्यो. मनुने त्रण प्रदक्षिणा करी नत्कृष्ट नक्ति साथे विधिपूर्वक वंदना करी योग्य स्थाने वेगे. Jain Education Intemational Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश. . .१२१ पछी प्रनुए मनुष्य तथा देवतानो पर्षदामा उत्तम प्रकारनी धर्मदेशना आपी. पर्षदा धर्मनी देशना सांनळी पोतपोताने स्थाने चाली गइ. ते वखते दमसार कुमारे जगवंतने प्रदक्षिणा करी विनयपूर्वक आ प्रमाणे कयु, "स्वामी, आपे सर्व विरतिरुप धर्मनो जे उपदेश आप्यो, ते मने रुच्यो जे; माटे हुं आपनी पासे दीक्षा अश्श. पण जो मारा माता पिता आज्ञा आपशे तोज हुं दीक्षा लश्श." । प्रनुए गंजीर स्वरथी कां, " देवानुप्रिय, जेम सुख उपजे तेम करो; पण प्रतिबंध करशो नहीं." प्रतुना आ वचन सांनळी दमसार कुमार घेर आव्यो अने तेणे पोताना मातापिताने आ प्रमाणे का,-" पूज्य मातापिता, आजे में श्री वीरप्रजुने जक्तियी वांद्या ने तेमनो उपदेश मने रुचिकर लाग्यो . जो तमे मने आझा आपो तो हुँ ते प्रजुनी पासे चारित्र लवानी इच्छा राखं ." कुमारनां आ वचन सांजळी माता पिताए कह्यु, “ वत्स, तुं हजी बाळक . तें नोग्य कर्मने लोगवेना नयी, तेथी तारायी चारित्र पाळी शकाय नहीं. संयम मार्ग पाळवो घणोज मुश्केल . तीक्ष्ण तरवारनी धार उपर चालवा जेवो बे. तारुं शरीर घणुंज सुकोमळ , तेथी ताराथी मुनिना परिपहो सहन था शकशे नहीं; माटे आ संसारना सुख जोगव्या पठी योग्य वये चारित्रनुं ग्रहण करजे." माता पिताना आ वचनो सांनळी दमसार कुमार नम्रताथी बोब्यो-" पूज्य माता पिता, तमोए जे संयमनी पुष्करता वतावी ते यथार्थ डे, परंतु ते पुष्करता कायर पुरुषोने लागे . धीर पुरुषोने वागती नथी. धर्मवीर पुरुषो संयमनी गमे तेवी मुश्केली होय तोपण तेने साध्य करवाने समर्थ थइ शके ले. तेने माटे कयु डे के," ता तुंगो मेरुगिरि, मयरहरो होइ तावत्तारो। ता विसमा कजगक्ष, जाव न धीरा पवजंति ” ॥१॥ "ज्यां सुधी धीर पुरुषो प्रबजित थया नथी, त्यां सुधी तेमने मेरुपर्वत चंचो लागे डे, समुच उस्तर लागे डे, अने कार्यनी गति विषम लागे जे." १ "हे पूज्य माता पिता, आयी हुं संयम ग्रहण करवाने हीमत धरुं बु. मने संपूर्ण वैराग्य प्राप्त थयेन . पूर्वे में अनंतीवार संसारना निःसार सुखो जोगवेला Jain Education Interational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्री आत्मबोध. बे, तेवा सार सुखने विषे हवे मारी इच्छा नयी संसारनी आधि तरफ मने संपूर्ण तिरस्कार बे, तेथी तमे मने विसंबे आज्ञा आपो; जेथी हुं संयमने अंगीकार करु. " दमसार कुमारनो संयमने विषे यावो नाव जोइ तेमज दृढ निश्चय जाली माता पिताए तेने संयम लेवानी आज्ञा आपी. पछी तेमणे पोताना कुमारनो दीोत्सव कर्यो. पवित्र वृत्तिवाळा दमसारे वर्द्धमान परिणामथी श्रीवीरमनु पासे आनंद पूर्वक दीक्षा लीधी पछी तेना माता पिता परिवार सहित पोताने स्थाने चाया गया हता. राजर्षि दमसार ते पी चारित्र धर्मने यथार्थ रीते पालवा लाग्या. बन, म वगेरे तपस्या करी तेमणे कर्म निर्जरा करवा मांगी. एक दिवसे महानुजाव दमसार मुनिए श्री वीरप्रजुनी पासे वो अि ग्रह ग्रहण कर्यो के, " हे जगवन्, हुं जावजीव सुधी मासखमण तप अंगीकार कर ने विचरीश. " वीरमनुए कहुं, “देवानुप्रिय, जेम तमने सुख उपजे तेम करो.” पछी राजर्षि दमसार मुनि ए महा तपने आचरवा लाग्या. घणा मास सुधी ए तपस्या करवाथी तेमनुं शरीर शुष्क थइ गयुं. मात्र शरीरमां हामपिंजर रहे . वखते जगवान् महावीर प्रभु चंपा नगरीमां समोसर्या हता. महात्मा दमसार मुनि तेमनी पासे यावी चड्या. एक समये ते राजर्षि मासखमाना पारणाने दिवसे पेहेली पोरिसीए स्वाध्याय ध्यान करी बीजी पोरिसीए ध्यान करतां तेमना मनमां एवो विचार उत्पन्न थयो के, आजे वीरमनुने एवो प्रश्न करवो के, हुं जव्य बुं के अनन्य बुं. चरम बुं के अचरम बुं. मने केवलज्ञान यशे के नहीं थाय ?" यावो विचार कर ते ज्यां वीरप्रभु विराजमान हता, त्यां आवी तेमने ऋण प्रदक्षिणा आपी वंदना करी आगळ बेटा. तेवामां त्रिकालदर्शी वीरमनुए कहुं, " दमसार मुनि, आजे ध्यान करतां तमोए मने पुत्रवाने माटे एवो अध्यवसाय कर्यो हतो के, हुं जव्य बुं के अजव्य, हुं चरम बुं के अचरम अने मने केवलज्ञान यशे के नहीं ? वात सत्य डे ?” मनुना या वचनो सांजळ | दमसार मुनिए कां, “स्वामी, "ए बात सत्य बे. " पछी मनुए कहुँ, “ राजर्षि, तुं नव्य नथी पण जव्य छे. तुं Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश. अचरम शरीरी नयी, पण चरम शरीरी . तने प्रथम प्रहरनी अंदर केवलज्ञान उदय आव्युं हतुं पण कषायना नदयथी तेमां विलंब थयो ने. अने हजु विलंब पण थशे."आ वखते दमसार मुनि बोट्या-" जगवन् , हवेथी हुं सर्वथा कषायनो त्याग करीश. ते पठी त्रीजी पोरिसीमां ते राजर्षि प्रजुनी आज्ञा लश्मासखमणने पारणे निका सेवा माटे नीकळ्या. ते वखते तेओ र्यासमिति पाली चालता हता. चालता चालता तेश्रो चंपा नगरीना मार्गमां आव्या. ते वखते सूर्य मस्तक पर तपे . ग्रीष्मऋतुना सख्त तापथी तपेनी रेती अग्निनी ज्वाला समान धरखती हती, ते उपर मुकवामां आवता चरणमा महा पीमा थती हती. तापनी पीमाथी आकुळ व्याकुळ थयेला मुनिए पोताना मनमां चिंतव्यु के, “ आ ग्रीष्मरूतुनो ताप घणो मुसह छे, मोटे कोइ जाणीता माणसने चंपा नगरीनो रस्तो पुछु. एटलामां को मिथ्यादृष्टि पुरुष ते मार्गे प्रसार थतो जोवामां आव्यो. ते मुनिने सन्मुख आवतां जो पेला मिथ्यादृष्टि पुरुषना मनमा आव्यु के 'आ तो अपशुकन थया.' आq चितवी ते नगरने दरवाजे ननो रह्यो. त्यारे मुनिए ते साधुने पुग्युं" नज, आ नगरमां कये मार्गे जवाय रे ?" ते मिथ्यात्वीए विचार्यु के,श्रामुनि मने अपशुकन रुप थयेल , तेथी तेने नुलो पामो सुखी करूं' आई चितवी तणे साधुने कयु, “ महाराज जे रस्तो देखाय जे, ते रस्ते चालो एटले नगरमां जवाशे अने ज्यां वस्तीवाळा घर हशे ते स्थने आवी पोहोंचाशे." मुनि तेणे बतावेले मार्गे चाव्या. ते मार्ग एटलो बधो विषम हतो के मुनि तेमां एक मगर्बु पण जरी शक्या नहीं. मगनां जरतां तेने नारे पीमा थइ आवी. ते मार्गे घरोनो पउवामानो नाग जोवामां आव्यो. कोइ पण माणस तेमने सामे मळ्यो नहीं. आय) ते राजर्षिना मनमा क्रोध कषायनो उदय थइ आव्यो. तत्काल तेमणे पोताना मनमा चितव्युं,-" अहा ! आ नगरना लोको पुष्ट . कोई पापीए मने नगरो मार्ग बताव्यो, तेथी हुँ घणोज सुःखी थयो. एवा उष्ट पुरुषो शिक्षा प्रापवाने योग्य . तेने माटे कयुं छे के, " मृत्वं मूषु श्लाघ्यं, काग्न्यिं कठिनेषु च । भंगः किणोति काष्टानि, कुसुमानि दुनोति न ॥ १॥ कोमळ वस्तुनी अंदर कोमळता अने कठिन वस्तुनी अंदर कठिनता Jain Education Intemational Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्री आत्मप्रबोध. वखावा योग्य बे. जेमके नमरो काष्टने बोले े. अने पुष्पाने बोलतो नयी. १ तेथी या गामना दुष्ट लोकोने हुं कष्टमां पामीश. " याप्रमाणे विचारी ते मुनिए कोपथी आकुल-व्याकुल यइ कोइ बायावाला प्रदेशमां उना रही उत्थानश्रुत गणवानो प्रारंभ कर्यो. जे उत्थानश्रुतम उद्वेगने उत्पन्न करनारा सूत्रो रहेला छे. ते सूत्रोना मनावथी जे देश, नगर के गाम सुखे वसवा योग्य होय ते दुःखे वसवा योग्य थइ जाय बे. राजर्षि दमसार मुनि ते सूत्र गणाववानो आरंभ कर्यो. जेम जेम ते मुनि तेने गएवा लाग्या, तेम तेम चंपानगरनी अंदर अनेक जातना अकस्मातो थवा लाग्या. नगरना सर्व लोको जयजीत थइ गया. ने शोकाकुल थइ पोतपोताना धन धान्यादिकनो त्याग करी, मात्र जीवित व दशे दिशाओ मां नाशवा लाग्या. ज्यारे प्रजा नशा लागी एटले राजा पण पोताना समृद्धिमान् मेहेलनो त्याग करी नाशी गयो. सर्व नगर शून्य थ गयुं. या वखते नगरनो आवो देखाव जोइ अने लोकोने कष्ट पामता विलोकी ते मुनिना हृदयमां पश्चात्ताप थवा लाग्यो तत्काल ते ते सूनी गणना करवायी निवृत्त थइ गया. तेमणे पोताना मनमां चिंतन्युं " अरे ! आमे शुं कर्यु ? में कारण शिवाय या लोकोने दुःखी कर्या. सर्वज्ञनुं वचन अन्यथा होय नहीं. वीर प्रभुए मने कहुं के, 'कषायना नदयथी तुं केवलज्ञानने हा गयो बे. ' ए वीरनुं वचन यथार्थ थयुं बे." आ प्रमाणे चितव अति करुणारसमां मग्न थयेला मुनिए सर्व लोकोने स्थिर करवा माटे समुत्थानश्रुतने गवा मां. ए श्रुतना सुत्रोने गएवाथी देश, नगर के गाम सुवासित थाय बे. तेमणे आह्लाद आपनारा ते सूत्रोनुं परावर्त्तन जेम जेम करवा मांगयुं, तेमतेम सर्व लोको प्रमुदित थता नगरमां पाछा आववा लाग्या. राजा पण सहर्ष थइ पोताना दरबारमां आव्यो. सर्व नगर निर्भय थ गयुं ने सर्व लोको स्वस्थ थइ गया. पछी दमसार मुनि तपथी कृश थइ उत्कृष्ट एवा शमरसमां मन यता ते नगरमांथी आहार पाणी बीधा वगर पाठा वढया ने विनय सहित मनुनी पासे व्या. राजर्षि दमसार मुनिने जोइ वीरप्रजु वोढ्या " राजर्षि, चंपा नगमां निक्षाने अर्थे जतां कोई मिथ्या दृष्टिना वचनथी क्रोध पामी पछी क्रोधथी Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. शांत थइ तुं अहीं आवेलो बु ए वात यथार्थ जे." ? मुनिए का, हा, ए वात यथार्थ जे. प्रनु बोव्या-" मुनि, जे को साधु अथवा साध्वी कषायने वहन करे, ते आ संसारने दीर्घ करे ने अने जे उपशम नावने धारण करे ने तेनो संसार अल्प थइ जाय ." अनुना आ वचनो सांनळी दमसार मुनिए कह्यु,-" जगवन्, कृपा करी मने उपशमनुं सारनूत प्रायश्चित्त आपो. पठी मनुए तपकरवा रुप प्रायश्चित्त आप्यु. पठी ते महर्षिए प्रनुनी पासे अनिग्रह सीधो के “ स्वामी, ज्यारे मने केवळझान जप्तन्न थशे त्यारे हुं आहारने ग्रहण करीश. “ आवो अनिग्रह धारण करी ते महात्मा दमसार मुनि तप तथा संयमथ) पोताना आत्माने जावता विचरवा लाग्या. प्रमादयो उत्पन्न थयेना दोषने निंदता अने शुन अध्यवसायने धारण करता ते महर्षिने ते पठी सातमे दिवसे केवनझान उत्पन्न थर आव्यु. देवताओए आवी तेमना केवाज्ञाननो महोत्सव कर्यो. महर्षि दमसार केवली जव्यजीवाने प्रतिबोध आपी बार वर्ष सुधी केवनीपर्याय पाली अंते अनशन करी मोक्षपदने प्राप्त थया हता. आ प्रमाणे उपशम नाव उपर दमसार मुनि- सुबोधक दृष्टांत . एवो रोते बीजा पण सम्यक्त्वधार। जीवोए सर्व आत्यंतर तापने निवारवा माटे अने पोताना तथा परना उपकारन करनारा उपशम रसने विषे मग्न थर्बु के, जेयी परमानंदना सुखनी श्रेणी नससित थाय बे, ए उपशम नामनुं प्रथम लक्षण कहेवामां आव्युं. __संवेग नामनुं बीजं लक्षण. अतिशय श्रेष्ट एवा देव तथा मनुष्यना सुखनो अनिवाष राखवो, ए संवेग नामर्नु सम्यक्त्वनुं बीजं लक्षण कहेवाय जे. सम्यग्दृष्टि पुरुष इंछ तथा चक्रवर्तीना मनोहर सुखने पण अनित्य अने मुःखानुबंधी माने ने अने शाश्वतनित्य आनंदना स्वरुपवाळा मोक्षसुखनेज वांछे. ए सम्यक्त्त्वनुं बीजं संवेग अक्षण कहेवामां आव्यु. सम्यक्त्त्व, त्रीजुं लक्षण निर्वेद. नारकी तथा तिर्यच आदि सांसारिक सुखथी कंटाळी जवं, ते निर्वेद नामे सम्यक्त्तनुं त्रो लक्षण कहेवाय . सम्यग्दृष्टि पाणीओ जेमा जन्म मर १ क्रोध कषाय Jain Education Intemational Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्री आत्मप्रबोध. पादि गहन दुःख रहे बे एवा या संसाररूप बंदीखानामां कर्मरुपी पोलीसो अनेक प्रकार कदर्यना करे छे, तेनो प्रतिकार करवाने असमर्थ अने ममत्वर्थी रहित एव प्राणी दुःखे करी संसार उपर विरक्त थइ जाय बे. एवी रीते बीजुं संवेग नेत्री निर्वेद ए उजय लक्षणो मोक्षपदने आपनार होवाथी सम्यदृष्टि पुरुषोए दृढप्रहारीनी जेम तेनो सर्वथा आश्रय करवो. दृढप्रहारीनुं दृष्टांत. मादी नगरीने विषे 'सुन' नामे एक शेत्र रहेतो हतो. तेने 'दत्त' नामे एक पुत्र हतो. दत्त बालवयमांथीज उन्मत्त जेवो हतो. ते बीजा बाळकोनी उपर दृढ प्रहार करतो ते लोकोमां ते दृढप्रहारीना नामयी ओळखातो हतो. दत्तना तोफानथी लोको तेना पिता सुननेठपको आापवा यावता हता. सुन पोताना उन्मत्त बोकराने घण रीते वारतो तो पण ते उच्छृंखल बोकरो रंजाम बोमतो नहीं. हंमेशा नाना बाळकोन | उपर प्रहार कर्या करतो हतो. दृढप्रहारीना आवा नारा वर्तनय | कंटाळ । लोकोए राजानी पासे फरीयाद करी राजाए हुकम कर्यो एटले सुन शेठे दत्तने पोताना घरमाथी काढी मुक्यो. दत्त घर ani चायो गयो. तेनो स्वभाव अतिशय क्रूर होवाथी कोइ ठेकाणे ते निवासने पाम शक्यो नहीं. ते फरतो फरतो कोइ चोर लोकोनी पचीमां गयो. त्यां संसर्गना दोष दूषित ते चोर बनी गयो. एक वखते कोई दरिद्री ब्राह्मए ना घरमा ते चोरी करवा पेजो. तेवामां तेना गणामां रहेसी गाय पोताना शींगमा तेने मारवा सन्मुख दोमो यावी. घातकी दृढमहारीए पोताना हा - थमां रहेला खमयी ते गायने मार। नांख. ते वखते घरमा सुतेत्रो ब्राह्मण हा i area a तेनी सामो आव्यो. दृढप्रहारीए तेने पण खजय मारी नांख्यो. ते वखते ते ब्राह्मन गर्ना स्त्र) पोकार करवा लागी घातकी चोरे तेली ने प रमानांखी. ते वखते तेलीना उदरमांथी गर्न बाहेर नोकळी तरफमवा लाग्यो. तेने जोतां ज ते दृढमहारोना हृदयमां कोई शुभ कर्मनो उदय थ‍ आतां तत्काल वैराग्य उत्पन्न थर आव्यो. ते घातकी चोरे पोताना मनमां आ प्रमाणे चितव्यं, 64 अहा ! शुं में पापी घोर पाप कर्तुं ? मारा मानुष्य जन्मने धिकार बे के जे जन्म यात्रा पापना समूहने करनार थइ पर्यु. " आवुं चिं Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाशं. १७ तवी तेणे पंचमुष्टि सोच करी चारित्रनो अंगीकार कर्यो अने एवो अनि ग्रह धारण कर्यो के, “ज्यां सुधी मने आ करेला पापर्नु स्मरण थइ आवे त्यां सुधी मारे अन्नपाणी ग्रहण करवा नहीं , आवो अनिग्रह ग्रहण करी ते दृढप्रहारी मुनि ते नगरनी पूर्व दिशाने दरवाजे कायोत्सर्ग ध्याने रह्या हता. ते मुनिने एवी स्थितिमा जोइ नगरना मूर्व लोको तेन नपर धुम तया पथ्यरनो वृष्टि करवा लाग्या; तो पण ते झानी मुनि कमागुणने धारण करी रहेता हता. तेमना वशीचूत थयेन्ना चित्तनो अंदर कोई पण जातनो कोन थतो न हतो. तेवी रीते दोढ मास सुधो रहेतां तेने पोताना पापर्नु विस्मरण तहन न थयुं, त्यारे ते बीजे दरवाजे जइ कायोत्सर्ग ध्याने रह्या, त्यां पण तेमने तेवीज रीते बन्युं हतुं. तेवी रीते ते चारे दरवाजे फररी तेणे सर्व प्रकारना उपजयो ने सहन को. अने सर्व प्रकारनी पीमा वे। पोतानी दृढताने अचन राखी हती. ते पठी आ पुःखमय संसारथी विरक्त अने परम संवेगना रंगयी व्याप्त थयेना ते महर्षिने उ मासे ते पूर्वतुं पाप मनमायो नष्ट थतां केवलज्ञान उत्पन्न थयु पछी तत्काळ तेत्रो मोक्षपदने प्राप्त थया हता. ए प्रकारे संवेद तया निर्वेद उपर दृढ प्रहारी महर्षिनी कथा प्रख्यात जे ते कयानुं श्रवण करी वीजा आत्महितार्थी पुरुषोए ते उन्नय लक्षणोने यत्न पूर्वक धारण करवा. . . ... सम्यक्त्वनुं चोथु बक्षण अनुकंपा. दुःखी प्राणोोना उखने निष्पकपातया निवारण करवानी जे इच्छा ते अनुकंपा कहेवाय . ए सम्यक्त्वनुं चोयुं नकण . पुष्ट स्वनाववाळा सिंह, वाय वगेरेन पण पोताना संतानो उपर करुणा होय , पण वस्तुताए ते करुणा कहेवाती नयी, कारणके, ते पक्षपातने बस्ने करुणा ले. जे पक्षपात वगर स्वानाविक करुणा होय ते अनुकंश कहेवाय . ते अनुकंपा भव्य अने नाव एम बे प्रकारे छे. पुःखीयाने देखी पोतानी शक्ति प्रमाणे तेना नुःखनो प्रतिकार करवा, ते अव्ययी अनुकंपा कहेवाय जे. जेओ धर्म रहित , तेने धर्म पमायो अथवा आ संसार तरफ वैराग्य उत्पम कराववो, ए जावयी अनुकंपा कहेवाय . सम्यग्दृष्टि पुरुषोए इंदत्तने आश्रीने सुधर्म राजानी पेठे ते उजय प्रकारनी अनुकंपानो सर्वदा आश्रय करवो. Jain Education Interational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. सुधर्म राजानी कथा. पंचान्न देशमा वरशक्ति नामे एक नगर हां. तेमां दयायो जेनु आई हृदय , अने जे जैन धर्ममा पूर्ण रागी जे,एवो सुधर्मा नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने जयदेव नामे एक नास्तिक मंत्री हतो. एक वरखते परदेशमायो आवेन्ना कोश्चर पुरुषे सना मंझपमां बेठेला राजानी आगळ विनंतो कर। के, “ स्वामी महावन नामनो एक सीमामानो राजा घणो जन्मत्त थइ गयो जे. ते अनेक गामोनो नाश करे ने अने सार्थपतिओने बुंटे . ते पुष्ट राजा तमारा शिवाय कोश्थी वश था शके तेम नथी." ते चरना आवा वचन सांजळी राजाए पोताना मंत्रीनी सामे जोयु, एटने मंत्री विनययी बोध्यो, " महाराजा, ए बोचारो रंक राजा आपनी आगळ कोण मात्र ने ? ज्यांसुधी आप महाराजाए तेनुं आक्रमण कर्यु नथी, त्यांसुधी ए गर्जना करे ले. तेने माटे कयु छ के, " तावद्गर्जति मातंगा, वने मदनरालसाः । शिरोऽवनग्नतांगूनो यावन्नायाति केशरी" ॥१॥ " ज्यांसुधी मस्तक पर पुनमी चमावी केशरीसिंह अान्यो नयी, त्या सुधी मदना जारथी जरपूर एवा गजेंघो वनमां गर्जना करे ." ? मंत्रीनां आवां वचनो सांनळी राजाए चिंतव्युं के, जे ताबानो राजा पोताना देश के मंझळनो नाश करनार थाय, तेने अवश्य वश करवो जोइए. नहीं तो तेने नोतिना नंगनो प्रसंग प्राप्त थाय . नीति शास्त्रमा लखेने के, " पुष्टस्य दंमः स्वजनस्य पूजा" एटले जे पुष्ट होय तेने दंम आपको अने जे स्वजन होय तेनी पूजा करवी; माटे आ कार्यमां जरा पण विलंब न करवो." आई चिंतव। राजाए आझा करी पोताना सैन्यने एकवू कर्यु अने पोते सज्ज थइ ते महाबन्न शत्रु नपर चमाइ करवा चाव्यो. अनुक्रमे तेना देशमां आव्यो, अने मोटी समाइ करी ते राजाने कणवारमा हरावो दोधो. ते राजानुं सर्वस्व हरी लइ राजा सुधर्म पागे फरी पोतानी राजधानी पासे आव्यो. नगरना महाजन मंगळे मोटा आमं. बरयो सामैयुं कर्यु अने राजानो प्रवेशोत्सव कर्यो. मोटा सैन्ययी परिवृत थयेस्रो राजा जेवामां नगरना मुख्य दरवाजा पासे आव्यो, तेवामां ते दरवाजो अकस्मात् Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. तुटी पड्यो. मोटें अपशुकन थइ पमयु. पी राजा पाडगे वळी नगरनी बाहेर पमाव नाखीने रह्यो. पठी मंत्रीए हजारो लोकोने कामे लगाडी तत्काळ ते दरवाजो पागे ननो कराव्यो. पछी बीजे दिवसे राजा प्रवेश करवाने आव्यो, तेटलामा पागे ते बीजो दरवाजो पण तुटी पड्यो, पुनः पागे फर्यो अने त्रीजी वार पण तेमज वन्यु पछी राजाए कंटाळी पोताना मंत्रीने आ प्रमाणे कयु, " मंत्रीश्वर, जयदेव, आ दरवाजो वारंवार केम पमतो हशे? हवे ते कया उपाये स्थिर था शकशे ? “ मंत्रीए कयु, " महाराज, में ते विष एक निमित्तियाने पूज्यु हतुं, मारा पूछवाथी ते निमित्तियाए मने कडंडे के, " आ दरवाजाना अधिटायक देव कोप पाम्या ते दररोज आ दरवाजाने पामी नारखे जे. जो राजा पोताने हाथे अथवा पोताना मातापिताने हाथे एक मनुष्यनो वध करी तेना रुधिरथी आ दरवाजानुं सिंचन करे तो ते दरवाजो स्थिर रहेशे. ते शिवाय पूजा, बलिदान वगेरे वीजा उपायोथी ते स्थिर रहेशे नहीं." मंत्रीना आ वचन सांजळी दया धर्मी राजा बोल्यो. " मारे ए दरवाजाने स्थिर राखवानी कां जरुर नथी. जीवनो वध करवो, ए महा पाप छे, ए महा पाप माराथी कदिपण बनशे नहीं. तेने माटे का रे के, " क्रियते किं सुवर्णेन, शोनते नापि तेन च । कर्णस्तुट्यति येनांग, शोला हेतुर्निरंतरम् ॥ १॥" " ते सुवर्ण शा कामर्नु डे ? अने तेनाथी शुं शोना प्राप्त थाय तेम डे ? के जेनाथी कान तुटी जाय." ___ माटे मारे तेवी हिंसा करीने नगरमा जवानी जरुर नथी. ज्यां हुँ रहुं, तेज नगर जे." राजाना मननी आवी दृढता जोइ मंत्रीए नगरना महाजनने बोनावीने कयु, " लोको, आ नगरनो दरवाजो मनुष्यनुं बलिदान आप्या शिवाय टकी शकवानो नथी ते मनुष्यनुं बलिदान करवामां राजा विरुध डे, एटले राजानी आझा शिवाय ते बनी शके तेम नथी, माटे हवे तमने योग्य लागे तेम करो." मंत्रीना आवा वचन सांभळी सर्व महाजन मेमन राजानी पासे आव्यु अने तेमणे राजाने जणाव्युं, " स्वामी, जे काम आपनाथी बनी शके तेवू न होय तो ते काम अमे मतीने करीशु, तमे पोते तेमां मौन पकमीने रहो." राजाए Jain Education Intemational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्री आत्मप्रबोध. कयुं, " प्रजाजनो, एम बने नहीं. प्रजाथी पुण्य के पाप जे कांइ थाय छे, तेनो बो नाग राजाने प्राप्त थाय बे. तेथी तेवा पाप कामनो जाग बेवानी मारी इच्छा नथी. " महाजनोए पुनः आग्रहथी जणान्युं, “ स्वामी, तेना पापनो जाग - मारो ने पुण्यनो जाग तमारो बे, एम मानी अमोने आज्ञा आपो. अने कुंपा कर मौन धरीने बेशी रहो. " प्रजाजनना यावा आग्रहथी राजा मौन धरीने वेशी रह्यो . पछी नगरजनोए प्रत्येक घरे फरी घराणं करी घणुं प्रव्य एकतुं कर्यु. ते व्यथी एक सोनानो पुरुष बनाव्यो. पछी ते पुरुषने एक गामामां बेसामी तेनी कोटि अव्यनी पत्रिका मुकी नगरमां एवी उदघोषणा करावी के, " जे कोइ माता पिता पोताने हाथे पुत्रनुं गळं मरडी मारी देवताने बलिदान - पेतेने सुवर्णनो पुरुष अने कोटि इव्य आपवामां आवशे. " यावी जाहेर घोषणा नगरमां चारे तरफ प्रवर्तावी. ते नगरमां वरदत्त नामे एक दरिशी ब्रा रहेतो हतो. तेने रुसोमा नामे एक स्त्री हती. ते बीज लोनी अने नियहती. ते दंपतीने सात पुत्रो हता. ज्यारे या घोषणा सांजळवामां आवी त्यारेते दरी वरदते वी पोतानी स्त्री रुद्रसोमाने वधी बात कहीने पू. "प्रिये आपणे सात पुत्रो बे. तेमां इंद्रदत्त नामे सर्वथ। नानो पुत्र बे. जो आपऐ तेने वलिदानमां आपीए तो आपने या इव्यनी प्राप्ति थाय अने आपणं दारिश दूर यह जाय. जेनी पासे व्य होय बे, ते सर्व सद्गुणी गाय बेतेने मालखं से के, “ यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पंडितः स श्रुतिमान् गुणः । स एव वक्ता सच दर्शनीयः सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयंते ॥ १ ॥ " " जेनी पासे अव्य बे, ते पुरुष कुलवान, पंडित, विधान, गुणइ, वक्ता ने दर्शनीय गाय बे, तेथी सर्वे गुणो व्यने श्रीने रहे झाडे. " १ ते वली कांबे के, Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6 " जे अपूज्य बतां पूजाय बे, अगम्य बतां गम्य थाय बे यतां वंदनीय थाय बे, ते अव्यनो प्रभाव बे. १ 17 जे के प्रथमप्रकाश. पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योऽपि गम्यते ॥ वंद्यते यदवंद्योऽपि तत्प्रजावो धनस्य च ॥ १ ॥ "" स्त्री, थी जो आपणां घरमां इव्य आवशे तो आपणे सर्वोपरि थशुंने पुत्रने वेचवाथी थयेला पापने बहु ब्रह्मजोजन वगेरे करीने दूर करीशुं काममां को जातनी चिंता करवी नहीं. " पतिना आ वचन सांजळी ते निर्दय स्त्री ते वात अंगीकार करी. पत्री वरदत्त ब्राह्मणे महाजनना पटहनो स्पर्श करीने कयुं, "हुं मारा पुत्रने वलिदानमां आपवाने तैयारढुं, मने आयुं 5व्यापी दो. " महाजने कनुं, “ जो तुं तारी स्त्री सहित तारा पुत्रनुं गळं ममी देवताने बलिदान आपे तो पी सर्व प्रव्य तने आपवामां आवशे. वरदत्ते ते वात कबुल करी. या वखते तेनो पुत्र इंद्रदत्त पोताना माता पितानी स्वार्थमय चेष्टा जोड़ विचार करवा लाग्यो - " अहा ! या संसारनुं स्वरुप के - वं स्वार्थमय के ? परमायें करी कोइ कोड़ने वलन नयी. कथं ब्रे के, " वृकं कीलफलं त्यजंति विहगाः शुष्कं सरः सारसा: " इत्यादि " जेना फलो की यह जाय एवा वृक्षनो पक्षीओ त्याग करे बे. अने शुकाड़ गयेला सरोवरनो त्याग सारस पक्षीओ करे बे. बळी जे दरिशी होय, तेने प्राये करीने दया होती नथी. कं १३१ ܐܐ ने वंदनी बुकितः किं न करोति पापं, कोणा जना निष्करुणा भवन्ति । " जुख्यो माणस शुं पाप नथी करतो ? जे माणसो अव्यथी क्षीण थ5 जाय, ते निर्दय बनी जाय बे. " इंद्रदत्त पोताना मनमां आ प्रमाणे चितववा लाग्यो. पी बरदत्ते पोताना पुत्र महाजनने सोध्यो महाजने ते पुत्रने वस्त्र, आभूषण वगेरेयी सपगाय. पी तेना बलाट उपर तिलक करी मुखमां तांबूल आप्युं. एवी रीते तेने Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. मुशोजित बनावी राजानी पासे साववामां आव्यो. राजा पण अलंकृत थर तेना माता पिता अने नगरजनोथी वीटाएला इंजदत्तने प्रसन्न वदनवाळो जोइ चमत्कार पामीने बोल्यो-" हे इंजदत्त, तने आ वखते बलिदानमा लइ जाय जे, ते उतां तुं केम प्रसन्न वदन देखाय डे ? तने मृत्युनो नय केम लागसो नथी ?" इंजदत्त बोल्यो. " देव, ज्यां सुधी जय नथी आव्यो, त्यां सुधी व्ही नहीं. जय अाव्या पठी निःशंक थइने ते सहन करखं. तेने माटे का डे के, " तावनयस्य नेतव्यं, पावनयमनागतम् । आगतं तु नयंवीक्ष्य, प्रहर्तव्यमशंकितः" ज्यां सुधी लय आव्यो नथी, त्यां सुधी तेनाथी जय राखवो, पण ज्यारे नय आवी पसे त्यारे निःशंकपणे ते उपर प्रहार करवो." आटलं कही ते इंदत्ते कह्यु, आ वखते हुं एक नीतिनुं वचन बोर्बु बु, ते तमारे सर्वने सावधान थइने सांनळवा योग्य . " लोकोमा कहेवायचे के, पिताए संतापेलो बालक माताने शरणे जायडे माता पिताथी परिताप पामेस्रो बाळक राजाने शरणे जाय जे अने राजाए संतापेलो महाजनने शरणे जाय छे. हे राजा, ज्यां माता पिता पोते पुत्रनुं गळू मरमी तेने मारवा तैयार थाय छे, तेमां राजा प्रेरक के अने महाजन अव्य आपी हणवाने माटे ग्रहण करेछ, त्यां एक परमेश्वर शिवाय बीजा कोनी शरणे जवू ? अने कोनी आगळ ते दुःख निवेदन कर ? हवे तो परमेश्वरतुं शरण लइ धैर्यने धारण करी सुखने सहन कर. महाराजा, आवो विचार करवाथी मारा मनमां मरणनो शाक थतो नथी." इंदत्तना आ वचनो सांनळी राजानुं हृदय करुणारसमां मग्न थइ गपुं. तेणे आई हृदयथी जणाव्युं, " खोको, तमे शामाटे आ दीन बाळकने हणवा तत्पर थया गे? आर्बु पाप करवानी शी जरुर ले ? पापना हेतुरुप एवा आ नगर अने तेना स्थिर दरवाजानी मारे कांश पण जरुर नथी. आ जगत्मा सर्व संसारी प्राणीओ जीवितना अर्थी , कोइ पण मरणनी इच्छा करतुं नथी; तेथी आत्माना हितेच्छ पुरुषोए कोइ पण जीवनी हिंसा न करवी जोइए. सर्व जीवोने विपे अनुकंपा राखवी जोइए." आ प्रमाणे राजाने दया धर्ममां दृढ रहेल Jain Education Interational Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश. तथा इंदत्तने सत्त्ववंत देखी ते नगरनी प्रतालीनो अधिष्टायक देव प्रसन्न था गयो. तत्काळ तेणे ते बनेनी उपर पुष्पनी वृष्टि करी अने ते दरवाजाने सर्वना जोतां स्थिर करी दीधो. ते देखाव जोइ सर्व नगर जनो विस्मय पामी गया. पठी राजाना गुणोन कीर्तन करता अने दयामय जैन धर्मनी अनुमोदना करता लोको राजानी साथे मोटा उत्सव सहित नगरमां पेग हता. पेलो इंदत्त पण हर्ष पामतो पोताना माता पितानी साथे घेर गयो. त्यारथी घणा जव्य जनोए दयामय जैन धर्मने अंगीकार कर्यो हतो. ए प्रमाणे अनुकंपा नामे सम्यक्त्वना चोथा लक्षण उपर सुधर्म राजानुं दृष्टांत कहेवामां आव्यु. एवी रीते बीजा पण जव्य जनोए आत्म धर्मने ओलखावनारा, अने सर्व सुखनी श्रेणीने प्रतिपादन करनारा ए अनुकंपा लक्षणने धारण करी जगत्ना सर्व प्राणी नपर अनुकंपा राखवी. सम्यक्त्वनुं पांचमुं बक्षण आस्तिकता. जेनी मति अस्तिपणाने विषे होय ते आस्तिक कहेवाय जे. ते आस्तिकपणानो नाव अथवा क्रिया ते आस्तिकता अथवा आस्तिक्य कहेवाय .अन्यमतना तत्त्वो सांजले छे तो पण श्री जिनक्ति तत्त्वने विषे जे आकांक्षा रहित प्रीति धारण करवामां आवे ने एटने जिन वचन नपर पूर्ण विश्वास राखवामां आवे ते आस्तिक्य कहेवाय जे. तेवा आस्तिकपणाने बस्ने सम्यक्त्व सारी रीते ओलखाय जे, तेथी ते सम्यक्त्वनुं लक्षण कहेवाय . सम्यक्त्व प्रत्यक्ष जणातुं नथी ते एवा लक्षणयी ओलखाय छे. तेवा आस्तिक्यवालो पुरुष ते आस्तिक कहेवाय जे. तेने माटे आगमने विषे कह्यु डे के, “ मन्नश तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहि पन्नत्तं । सुह परिणामो सम्मं कंखा विसुत्तियारहिओ" ॥१॥ "जे जिनेश्वरे प्ररुपेल , तेने सत्यज माने छे अने ते पण निःशंकपणे माने डे, अने जे आकांक्षा वगेरे दोषयी रहित एवा शुन परिणाम ते सम्यक्त्त्व कहेवाय . ? आ गाथा उपर पद्मशेखरनी कथा प्रख्यात , ते कथानी अंदर आ गा Jain Education Interational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्री आत्मप्रबोध. थानो नावार्थ आवी जाय . __ पद्मशेखरनी कथा. अबूधीपमा जरतक्षेत्रनी अंदर पृथ्वीपुर नामे नगर ने. ते नगरने विषे पद्मशेखर नामे राजा राज्य करे . एक दिवसे ते नगरनी पासे आवेना वनमां घणा मुनिग्रोथी परिवृत्त थयेला श्री विनयंधर नामे आचार्य समोसा. तेमना आगमननी वाती सांनळी राजा प्रमुख घणा लोको तेमने वंदना करवाने आव्या. गुरुवर्ये सर्व नव्य जीवोना उपकारने माटे धर्मदेशना आपी. ते वखते राजा पद्मशेखरे गुरु पासयी जीवाजीवादि नव तत्वोनो परमार्थ जाणी तेने वज्रलेपनी पेठे पोताना ह्रदममा धारण को हतो. बोजा पण घणा जव्य जीवोए ते समये गुरु पासेयो सम्यक्त्त्व रत्नने प्राप्त कर्यु हतुं. ते पती राजा प्रमुख सर्व लोको विनययो गुरु महाराजने नमन करी पोतपोताने स्याने चाख्या गया. पर। गुरु महाराज त्यांथ विहार करी बीजे स्थले चाट्या गया हता. त्यारथी राजा पद्मशेखर श्री जिनोक्त तत्त्वोने विषे आस्तिकताने धारण करी सुखे कान निर्गमन करतो हतो. कदि कोइ पुरुष जिनोक्त नव तत्वोनी नपर श्रघा न राखे अने पोतान) मंद बुधिने बस्ने ते तरफ अनाव दर्शावे तो राजा पद्मशेखर जेम सारथि वृषनने वश करे तेम तेने वादयी जोतो वश करी आहेत धर्मनुं ययार्थ स्वरूप समजावतो हतो. वळी ते राजा को वार घणा सोकोनी सना वच्चे गुरु तत्त्वनी या प्रमाणे प्रशंसा करतो हतो-" हे जव्य लोको, आ संसारमा गुरु सर्वोत्तम जे. जे सदा आ लोकनी ममतायो रहित, जीवदयाना प्ररूपक, उष्ट वादिगणने जितनार, कषाय रहित, नपमा रहित, उपशम रसना समूहयो परिपूर्ण हृदयवाना, रागषयो वर्जित, संसारय। विरक्त, काम विकारने नाश करनार, सिफि रूपी स्त्री उपर परिचार करनार, सर्व प्रव्यनो परिहार करनार, चारित्र रुप महारत्नने ग्रहण करनार, सर्व जीवो नपर करुणा रसने वर्षावनार, अने पुर्धर प्रमाद रुप गजघटानो नाश करवामां सिंह समान , ते शुध गुरु कहेवाय उ. जे प्राणीओ मनुष्यत्व विगेरे सर्व धर्मनी सामग्री प्राप्त कर एवा मुणवाला गुरुने सेवे , तेवाओने धन्य छे. अने जेओ तेमना उपदेश वचन रूप Jain Education Interational Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. Oww अमृतनुं पान करे , तेओने विशेष धन्य ." आवा वचनो कही राजा पद्मशेखर घणा नव्य आत्माओने प्रतिबोधित करतो हतो अने अनेक आत्माओना पापकर्मना मलने प्रक्षावित करतो हतो. ____ ज्यारे राजा आवो प्रतिबोध आपतो हतो, तेवामां एक विजय नामे शेवनो पुत्र ते स्याने बेगो हतो. राजाना वचनमां तेने प्रतीति प्रावी नहीं. तेयी तेणे उना थाने जणाव्युं, “ महाराजा, तमे जे गुरुनी प्रशंसा करोगे, ते सर्व गुरुत्रो फोतरानी जेम सार वगरना के कारण के, पवने चलावेना ध्वजपटनी पेठे चपन चित्तवाना ते मुनिओ विषयोमा आसक्त एवी पोतानी इंजियोने रोकवाने केम समर्थ थइ शके ? इंसादिक देवताओ पण ते इंजियोने रोकवाने समर्थ थर शकता नथी." ते श्रेष्ठि पुत्रना आ वचनो सांजळी राजा पोताना मनमां चिंतववा लाग्यो. " आ कोइ पुर्बुधि अने वाचान . आ अटपमति माणस आवा विपरीत वचनोथी जोला लोकोने जमावी सन्मार्गयभ्रष्ट करशे, माटे आ युवानने कोइ पण रीते प्रतिबोध करवो जोइए." आई चितवी राजाए यह नामना एक सेवकने एकांते बोलावीने कडं, " यह, तारे आ विजयनी साथे गाढ मैत्री करवी अने तेनो विश्वास मेलववो. पठी तेना रत्नना कंमीयामां आ मारुं महा मूल्यवायूँ रत्नाचरण नांखी देवं." राजानी आवी आज्ञा थवाथी ते यते ते विजय शेउनी साथे गाढ मैत्री करी अने तेनो पूर्ण विश्वास संपादन कर्यो. ते पछी एक दिवसे ते रत्नाचरण विजयना करंमीयामां नांखी ते वृत्तांत राजाने निवेदन को. ते पळी राजाए तत्काल नगरनी अंदर त्रणवार उद्घोषणा करावी के, " सर्व लोकोने खबर अापवामां आवे छे के, आजे राजानुं एक रत्नाचरण गुम थयेटु डे, तो जो कोइए ते लीहोयतो तेणे जलदी आपी देवें. जो ते नहीं आपी जाय अने पाउळथी ते जाणवामां आवशे तो तेना लेनारने सख्त शिक्षा करवामां आवशे.” आव। उद्घोषणा करावी सर्व नगरना लोकोना घर शोधवा माटे पोताना सेवकोने हुकम को. सेवकोए लोकोना घर शोधवा मांगतां विजयना घरनो शोध कयो. शोध करतां रत्नना करंमीयामां रत्नानरण जोवामां आव्यु. ते जोइ तेमणे विजयने पूज्यं, “ विजय, आशुं ? आ राजानु रत्नाजरण तमारा कंमीयामां कयां Jain Education Interational Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. थी ? " विजये कह्यु, “ हुं कांइपण जाणतो नथी. " राजपुरुषोए कह्यु, " पोते रत्नाचरणनी चोरी करी अने कहे जे के, हुं कांइ जाणतो नथी. ए के कहेवाय ? शा माटे चोरीने बुपावे ? " विजय जयथी कां बोली शक्यो नहीं. ते मौन धरीने रह्यो. “ पछी राज सेवकोए तेने पकडी बांधी सीधो अने तेने राजानी समीपे लाव्या. राजाए सेवकोने गनी रीते सूचना करी के," हुं आझा करूं तोपण तमारे तेनो वध करवो नहीं. पठी राजाए प्रकाशथी सना समक्ष कत्यु, “ आ चोर , माटे तेने हणी नांखो. " राजानी आवी आझा थवाथी राज सेवकोए विजयने वध करनारने सोंपी दीधो. विजयना सगांओ, स्नेहीओ अने संबंधीओ ते जोता हता, पण तेने खरो चोर जाणी तेश्रो तेने गमाववाने आगळ पड्या नहीं. विजये पोताना मनमां जाएयुं के, हवे मारा जीवितनो अंत आवी जशे. पड़ी ते पेना याने दोन वचनोथी कहेवा लाग्यो. " मित्र, तुं हरेक रीते राजाने प्रसन्न करी मने गेमाव अने मने जीवित, दान आप." तेनी आवो दीनवाण। सांजळी याने दया आवी तेणे राजाने विनंति पूर्वक कछु, " स्वामी, आ मारा मित्र विजयनो योग्य दंम लागेको दो अने सर्व कट्याणना साधन रुप एवा जीविततुं तेने दान आपो." यदना आ वचनो सांजळी राजा कोपायमान थइने बोल्यो-" यक, आ चोरने डोमो देवो ए मने योग्य लागतुं नयी. तोपण तारा वचननुं मान राखवाने एक उपाय डे के, ते विजय मारा घरमांयी एक तेत्रया जरे पात्र हाथमा ले अने तेमांथी एक बिंदु पण नीचे पमे नहीं. तेवी रीते आखा नगरमां नमीने मार। पासे लावीने मुके, तो हुं तेने जीवतो राखीश. ते शिवाय तेने जोवतो राखवामां आवशे नहीं.” यके राजानो आ हुकम विजयने जणाव्यो. मरणना जययी जय पामेला विजये पोताना प्राण बचावाने ते सर्व कबुल कर्यु. पी राजा पद्मशेखरे पोताना नगर जनोन बोलावी आ प्रमाणे आज्ञा करी. नगरजनो, आजे आपणा नगरमा प्रत्येक स्थाने विविध जातना वाजांओ वगमावो. मनोहर रूपने धारण करनारी अने सर्व इंजियोना सर्वस्वने हरनारी वेश्याओने घेर घेर नचावो." राजानी आवी आझा थवायो लोकोए आखा नगरमां तेवो गोठवण करी दीधी. पत्री विजय ते तेलतुं पात्र ला नगरमा फरवा नोकळ्यो. ते शब्द, रूप, रस, अने गंध वगेरे विषयोनो अति रसिकं ढतो, छतां मरणना जयथा ते जितेंजिय, निर्विकारी अने मनने Jain Education Intemational Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश १३७ जीतनारो थर कोइ पण स्थले स्खलना पाम्या वगर आखा नगरमां नमी राजानी सनामां आव्यो अने यत्नथी जाळवेलुं ते तेलतुं पात्र राजानी आगळ मुकी ते प्रणाम करीने उनो रह्यो. राजा हास्य करीने बोब्यो-“विजय, तुं नगरमां फर्यो ते वखते वाद्य, गीत, अने नृत्यो थतां हतां, ते उतां तें तारा विद्युत्ना जेवा चपळ मनने अने इंजियोने केवी रीते वश करी ?" विजय बोध्यो-" स्वामी, मरणना जयथी हुं तेम करी शक्योबुं. कहुं डे के, “ मरणसमं नस्थि जयं" " मरण समान बीजं जय नथी." राजाए कहां, “ विजय तुं विषयोमा तृषातुर , ते उतां तें एक नवमां मरणना नयथी प्रमादने हणी नांख्यो, तो जे मुनिश्रो अनंत जवना नीरु ने अने तत्त्वोने जाणनारा जे, तेओ अनंत अनर्थो उत्पन्न करनारा प्रमादने केम सेवे ? " राजानुं आ वचन सांनळी विजय एकदम प्रतिबुक थइ गयो. तेना मोहनो उदय नाश पामी गयो. जिनमतना परमार्थने जाणी तेणे श्रावक धर्मने अंगोकार को. ते वखते सर्व लोको आनंद पामी गया. अने राजाना सद्गुणोने प्रेमपूर्वक गावा लाग्या. आ प्रमाणे राजा पद्मशेखरे घणां जव्यजीवोने जैन धर्ममां स्थापित करी अने जैन धर्मना महिमाने वधारी सुखे राज्य पालन कर्यु हतुं. वटे आस्तिक्य रुप सम्यक्त्वना बदणना प्रजावथी ते चिरकाल राज्य करी देवगतिने प्राप्त थयो हतो. जव्य जीवोए आ पद्मशेखर राजाना चरित्रने सांनळी पोताना हृदयमां आस्तिकरूप सम्यक्त्वना लक्षणने धारण कर के जेथी मोक्क संपत्ति प्राप्त थाय छे. प्रकारनी यतना. __ " परतीर्थिकादि वंदनेत्यादि " परतीर्थिो एटले परिव्राजक, संन्यासी निकु, अने नौत वगेरे वगरे शब्दयी शिव, कृष्ण, ब्रह्मा, बौक, प्रमुख देवोर्नु ग्रहण करवं. तथा अरिहंतनी प्रतिमा रुप एवा स्वदेवो पण जो दिगंबर वगेरे कुतीर्थिओए ग्रहण करेला अने नौत एटने नौत मतिओए अंगीकार करना होय तेमने वंदन स्तवन न कर. ते पेहेनी यतना कहेवाय . १८ Jain Education Intemational Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. तेवा देवाने नमस्करण एटले मस्तक व पंचांग वंदन न करवुं, ते बीजी यतना कहवाय बे. सम्यक्त्व वंत पुरुषोए या बनेनो त्याग करवो. तेनो त्याग न करवायी जो तेवा देवाने वंदन - स्तवन वगेरे करवामां आवे तो तेना नक्त लोको मिथ्यात्व वगेरेमां स्थिर थाय बे, १३८ प्रवचन सारोवार नामना ग्रंथमां लखेलुं डे के, मस्तके करी जे करवामां वे ते वंदन कवाय अने प्रणाम पूर्वक श्रेष्ठ ध्वनि बजे गुणोनुं कीर्त्तन करं, ते नमस्करण कहेवाय बे. तेने माटे बीजे स्थळे पण या प्रमाणे लखेलुं बे. वंदण यं करजोमण, शिरसा नमण पुयणं च इहनेय । वायाई नमुक्कारो, नसणं मण प्पसाओत्ति" ॥ १ ॥ " 46 कर जोवा ते वंदन, मस्तक नमाव ते नमन, वचने करी नमवं, ते नमस्करण ने मननो प्रसाद - प्रसन्नता नमसन समजवं. " १ परतीर्थ प्रथम नहीं बोलाव्या बतां, रोमनी साथे आलाप न करवो त्रीजी यतना कदेवाय ले सम्यकदृष्टि पुरुषो तेवी आलापनो सर्वथा त्याग करो जोइए. परतीर्थनी साथै संझपन कर, एटने वारंवार न बोलवं, ए चोथी यतना कहेवाय छे, सम्यग् दृष्टियोए संलपन न कर जोइए, परती थींनी साथे विशेष भाषण करवाथी अति परिचय थाय बे ने तेने लड़ने आचार भ्रष्ट थवाय बे. तेमज मिध्यात्वनो उदय थ आवे छे. कदि परतीर्थिओ प्रथम बोलावे तो संग्रम रहित थ लोकापवादना जयर्थी तेनी साथ थोकुं बोलकं. ते परतीर्थिओने अशन, पान, खादिम ने स्वादिम तथा नख पात्र अनुकंपादान सिवाय बीजी रोत न आए पांचवी यतना कहेवाय बे. बी पाथी जो ते वीजा लोकोना जोवामां आवे तो तेमनुं बहुमान थाय मिथ्यात्वनी प्राप्ति थाय बे. मात्र परतीर्थित्र्यांने अनुकंपादान करवानीज आज्ञा छे. अनुकंपा शिवाय धर्म बुद्धिथ । तेमने कांइ पण आप शकातुं नथी. अनुकंपादान देवामां कांइ पल दोष नथी. तन माटे कछु छ के Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. "सव्वेहिं पि जिणेहिं, उज्जय राग दोस मोहेहिं। सत्तानुकंपणठ्ठा, दाणं न कहिंपि पमिसिद्धं ॥१॥ “जेमणे राग, प अने मोहनो त्याग करेलो , एवा सर्व जिनेश्वरोए सर्व प्राणीओने अनुकंपादान करवानुं कदिपण प्रतिषेध्यु नथी." १ वळी सम्यग् दर्शनी पुरुषोए परतीथिकोए ग्रहण करेला जिनविंवोनी पूजा निमित्ते गंध, पुष्पादिक वस्तु सम्यग्दर्शनीओए मोकनवी नहीं. आदि शब्दथी विनय, वैयावच्च, यात्रा, स्नात्र वगेरे न करवा. तेम करवाथी लोकोने मिध्यात्वमा स्थिर करवापणुं थाय छे. तेम न करवाथी ए उठी यतना कहेवाय ने. आउ यतना साचवी पर तीर्थीोना परिचयनो सर्वथा त्याग करनारा जव्यात्माओ नोज राजाना पुरोहित धनपालनी पेठे सम्यक्त्वनुं उलंघन करता नथी. __धनपान पुरोहितनी कथा.. अवंति नगरीमां नोज राजाने सर्वधर नामे एक पुरोहित हतो. तेने धनपाम अने शोजन नामे वे पुत्रो हता. बंने पुत्रो पांमित्य वगेरे गुणोयी ते महाराजाना मानीता थया हता. एक दिवसे श्री सिफसेनसूरिना संतानिक श्री *सुस्थित नामना आचार्य जव्य जनोने प्रतिबोध करवा माटे त्यां आवी चड्या. पुरोहित सर्वधर हमेशां आचार्य पासे जतो आवतो, तेथी तेने आचार्य उपर प्रीति थ. एक वखत पुरोहित सर्वधरे आचार्यश्रीने पुज्यु, स्वामी, में मारा घरना प्रांगणांमां कोटि प्रव्य दाटेखें हतुं. हाल में तेनी घणी तपास करी तो पण ते ऽव्य मने हाथ मागतुं नथी. तो हवे ते अव्यनी प्राप्ति शी रीते थशे ? ते कृपा करी जणावो." आचार्ये हास्य करी उत्तर प्राप्यो. “ जक, जो ते अव्य तने प्राप्त थाय तो तारे शुं करवू ?" सर्वधरे कयु,-" स्वामी, जो ए अव्य मने प्राप्त थाय, तो हुँ तमोने अर्थोअर्ध वेहेची आपुं. गुरुए कोइ प्रकारथी ते व्य सर्वधरने बतावी आप्यु. सर्वधर ते अच्यनो ढगलो जोइ सानंदाचर्य थइ गयो. पड़ी तेना के सरखा जागना ढगला करी, तेमांथी एक ढगनो गुरुने माट निर्धारी * कोइ बीजा ग्रंथमा श्री उद्योतन सूरिना शिष्य श्री वर्धमान सूरि हता, एम लखेळ छे. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्री आत्मप्रबोध. गुरुने विनंति करी. “ स्वामी, आ अधु अव्य आप ग्रहण करो." गुरु बोट्या" ना अमारे मुनिने व्यर्नु कांई प्रयोजन नथी. अमोए तो प्रथम पासे रहेला जव्यनो त्याग करी दीयो . __ सर्वधर बोल्यो-" त्यारे शुं तमे सार रुप अर्ध अव्य मागोगे ?" गुरुए कह्यु, “हा, जे तमारा घरमां अर्ध सार रुप होय ते आपो." सर्वधरे कयु," मारा घरमां शं सार रुप ले ?" आचार्य बोल्या-" तमारा घरमां सार रुप बे पुत्रो , तेमांथी एक पुत्रने आपो." गुरुना आ वचनो सांनळी ते पुरोहित चकित थइ गयो अने कणवार मौन धरीने रह्यो. पठी ते आचार्य महाराज त्यांची विहार करी बीजे स्थाने चाल्या गया हता. __पछी पुरोहित सर्वधर ते गुरुना उपकारनुं स्मरण करवा लाग्यो. ते स्मरण करतां तेना मनमां आव्यु के, ते नपकारी गुरुनो प्रत्युपकार करवाने समर्थ था शक्यो नहीं. आ पश्चात्तापयो तेने हृदयमा बागेला शब्यनी जेम पीमा थवा लागी. तेवी स्थितिमां केटलोक काळ निर्गमन कर्या पठी ते रोगग्रस्त बनी गयो. रोगी अवस्थामा रहेता ते डेबी स्थितिमा आवी पड्यो. ते वखते तेना बंने पुत्रोए पोताना धर्मने उचित एवी अंतक्रिया करवा मांझी. ते वखते पितानुं मन मुखो यतुं जोइ तेना पुत्रोए पूज्युं, “ तात, तमारा चित्तमां को चिंतानी पीमा होय तेवू देखाय , तो ते शी चिंता डे ? ते कृपा करी निवेदन करो." पुत्रोना आ वचनो सांनळी सर्वधरे पोतानो सर्व वृत्तांत जणाव्यो. ते पठी कडं के, "पुत्रो, तमारा बनेमांथी एक जण जैनधर्मनी दीक्षा ब्यो. तेम करवाथी हुँ ऋणमुक्त थइश. तमारा जेवा पुत्रोए मने ऋणमुक्त करवो जोइए." पिताना आ वचन सांनळी धनपान जय पामी नीचं मुख करी रह्यो. ते वरखते शोजने कयु,-" तात, हुं दीक्षा ग्रहण करीश, तमे ते जैन मुनिना ऋणमाथी मुक्त थाो. अने हृदयमां परमानंद नावने धारण करो." पुत्रना आ वचनो सांजळी ते सर्वधर पुरोहित काल धर्मने पामी देवलोके चाल्यो गयो. ते पछी शोजने पितानी उत्तर क्रिया करी श्री वर्षमान सूरिना शिष्य श्री जिनेश्वर सूरि पासे जैन दीक्षा ग्रहण करी. आथी तेनो बंधु धनपाल रोषाविष्ट थइ गयो अने त्यारथी ते जैन धर्मनो पूर्ण केपी थवा लाग्यो. तेणे पोतानी सत्ताथी अवंतिमां साधुओना आगमननो निषेध करा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. १४१ व्यो. आधी अवंतिना संघे गुरुने या प्रमाणे पत्रथी लखी जायुं - " स्वामी, आपे शोजनने दीक्षा आपी उपव जो कर्यो बे. शोमनने दीक्षा नापी होत तो शुं गच्छ शून्य थइ जात ? शुं ते निर्देश थइ जात ? गच्छ तो एक रत्नाकर रूप बे. शोजने दीक्षा बीधी तेथे तेनो नाइ धनपाल पुरोहित मिथ्यात्वीपणाथी रोषाविष्ट थ आर्हतं धर्मनी घणी हानि करे छे. " गुरु आ वृत्तांत जाण। विचारमां पड्या. तेमणे पोताना शिष्य शोमनने गीतार्थ जाणी शुभ दिवसे तेने वांचनाचार्यनुं पद प्राप्यं हतुं. ते पछी तेमने एक मुनि युगल साथे ते उपवन शांतिने माटे अवंति तरफ मोकल्या. शोजनाचार्य गुरुनी - ज्ञा मान्य करी त्यांथी विहार करी उज्जयिनी नगरी प्रत्ये याव्या. ते वखते रात्रि होवाथी नगरना दरवाजा बंध हता एटले ते रात्रे बाहेर रह्या हता. प्रातःकाले प्रतिक्रमण करी ते नगरमा प्रवेश कर्यो, तेटलामां पुरोहित धनपाल तेमने सामो मळ्यो. ते जैन धर्मनो पूर्ण द्वेषी होवाथी पोताना बंधु शोजनने आ प्रमाणे उपहास्यनुं वचन कहुँ, - “ गर्दजदंत दंत नमस्ते " “ गधेकाना जेवा जेना दांत बे, एवा हे जगवान्, तने नमस्कार बे." वचन सांगळी शोजनाचार्ये पोताना नाइने ओळखी तेना प्रत्युत्तरमांप्रमाणे क. “ कपिवृषणास्य वयस्य सुखं ते " । 44 44 बांदराना वृषण जेवा मुखवाला हे ना, तने सुखशाता बे ? " प्रतिहास्यनुं वचन सांजळी धनपाळे कर्छु, “ तमारो निवास क्यां बे ? " शोजनाचार्ये कां, “ ज्यां तमारो निवास बे, त्यां" पछी धनपाळ पोताना जाइना वचनने ओळखी लज्जा पामी त्यांथी कोइ कार्यने माटे चाल्यो गयो हतो. ते पी शोजनाचार्य प्रत्येक जिनमंदिरे चैत्यवंदन कर जेवामां चैत्यनी बाहेर वेबे, तेलामा नगरनो संघ एकठो थर गयो. अने ते गुरुनी सामे आवी तेमना चरणमां नमी समीप बेटो. शोजनाचार्ये उत्तम वाणीथी तेने धर्मदेशना पी.पी सर्व संघनी साथे ते पोताना नाइ धनपालना घर तरफ चाल्या. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्री आत्मप्रबोध. ते वखते बंधु धनपाल सन्मुख आव्यो ने विनयथी नमस्कार कररी पोताने घेर इगयो. त्यां तेमने वसवाने माटे एक सुशोभित चित्रशाळा आपी. ते वखते तेणे पोतानी माता ने स्त्री वगेरेनी पासे उत्तम प्रकारनी रसवती तैयार करावी. ज्यारे ते रसवती शोजनाचार्य पासे निवेदन करी, त्यारे आचायें ते स्वीकारी नहीं. ते जायुंके, प्राधाकर्मिक आहार जैन साधुने अग्राह्य बे ते पछी गुरुनी आज्ञा मेलवी तेमनी साथ रहेला वे मुनिओ श्रातु श्रावकोने घेर आहार लेवाने गया. ते वखते धनपाल तेमनी साथे चाल्यो. ते समये कोइ श्रावकने घेर गोचरीए जतां एक गरीब श्राविकाए एक दहींनुं पात्र ते मुनिनी आगळ ध. अनेकां के, “ मारा घरमां या वस्तु बे, ते वोहोरो." मुनिए पुक्युं, "प्रा दहीं शुरू बे ?" श्राविकाए कहुं, "महाराज ते त्रण दिवसनुं छे." 'तत्काल मुनि बोल्या के, " तो ए दहीं मारे लेवा योग्य नथी. कारण के, श्री जिनेश्वरे मम दिवस दहीं लेवानो निषेध करेलो बे. या सांजळी साधे आवेला अशुद्ध केम बे ? " मुनिए कर्छु “ ते पछी धनपाळ ते दहींनुं पात्र लइ शोनाचार्य पासे यो अने ते आचार्यने बतावी कीं के, " आ दहीं अशुद्ध म बे ? ते लोकोमा अमृत तुल्य कहेवाय ते. जो तमें या दहींमां जीव देखामो तो हुं श्रावक थ जाने जो नहीं देखामो तो हुं जाएीश के, तमें जोळा लोकोने ठगनारा बो. " पोताना जानां प्राचां वचन सांजळी शोजनाचार्ये कां, " धनपाळे पू के, “महाराज, या दहीं विषे तमारे तमारा जाइने पुबी जोवुं. " "L हुं तमोने हमांज जीव बतावुं, पण पछी तमारे तमारुं वचन पाळं जोशे.” धनपाले ए वात कबुल करी पछी शोभनाचार्ये एक लाखनी थेपली मंगावी. पछी दहींना पात्रं मुख बंध करी, तेनी पमखे एक बिष करी ते पात्र तमके मुक्युं पीते विषमांथी दहीं पेक्षा लाखना अळतामां परुवा लाग्युं, त्यारे तेनी अंदर धोला जीवमात्र्यो जोवामां त्र्याव्या. तत्काळ तेमणे ते धनपाल ने बताव्या. धनपाल ते चालता जीवोने जोइ पोताना मनमां अतिशय आश्चर्य पामी गयो. तत्काल तेना हृदयमां एवी भावना प्रगट थइ आवी के, जैन धर्मने धन्यवाद घटे छे. तत्काल ते पोताने मुखे आईत धर्मनी प्रशंसा करवा लाग्यो. तेना हृदयमां तत्त्व रुचिरुप सम्यक्त्व प्रगट थइ आव्युं. पछी तेणे पोताना नाइ शोभनाचार्य पासे बारव्रत अंगीकार कर्या अने ते शुद्ध श्रावक बनी गयो. ते श्री अरिहंत ते Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश. १४३ शुक देव, उत्तम साधु ते गुरु, अने जिने जाषित ते धर्म मानतो अने हृदयने विषे श्री पंचपरमेष्ठितुं ध्यान धरतो ते आत्म साधन करवा लाग्यो. तेणे अन्य मतने तदन बोमी दीधो. ते घादशव्रत धारी उत्कृष्ट श्रावक बनी गयो. शोजनाचार्य आ प्रमाणे पोताना बंधुने प्रतिबोध आपी गुरुनी समीपे गया हता. धनपाल उ यतना पाळतो सुखे करी सम्यक्त्त्व धर्मने आराधतो काम गुमावतो हतो.एक वखते को पुष्ट ब्राह्मणे आवी नोजराजाने कह्यु,"महाराजा, तमारो पुरोहित धनपान जैन थइ गयो . ते जिनेश्वर विना बीमा कोश पण देवने नमतो नथी." ते ब्राह्मणना आ वचनो सांभळी राजाए पोताना मनमा विचार कर्यो के, जो ए वात सत्य होय तो तेनी परीक्षा करीए. ते पती राजा जोज एक दिवसे धनपालने साथे लश् महाकालना मंदिरमा गयो. जोज राजाए महाकालेश्वर शंकरने प्रणाम को. धनपाल शंकरने नम्यो नहीं. तेणे पोताना हाथमा रहेस मुभिकानी अंदर स्थापित एवा जिनेश्वरनी प्रतिमाने नमस्कार कर्यो. जोजराजाए ते चातुर्यथी जाणी लीधुं. पडी राजा पाताने स्थाने आव्यो, त्यां तेणे चंदन पुष्प वगेरे पूजानी सामग्री आपी धनपालने आज्ञा करी के, "धनपान आ पूजानी सामग्री लश् देवनी पूजा करी आवो." आवी आझा करी तेनी पाउळ गुप्त बातमीदारो मोकट्या. धनपाल राजानी आझाथी तत्काल उनो थइ प्रथम देवीना मंदिरमा गयो.त्यांथी जयनीत थ बाहर नीकळी शिवालयमां गयो. त्यां पण आसपास फरी बाहेर नीकळी विष्णुना मंदिरमा पेगे.त्यां पोतार्नु उत्तरीय वस्त्र नांखी रूप ढांकीने बहार नीकली श्री ऋषनदेवना मंदिरमां गयो. त्यां शांतचित्ते नक्तिनावथी श्री जिनेश्वरनी पूजा करी राजघारे आवी पोहोच्यो. राजाए मोकवेला गुप्त दूतोए ते वृत्तांत राजाने गनी रोते कही दीधो पी राजा जोजे धनपालने पुग्यु. “केम धनपाल, तमे देवपूजा करी ?" धनपामे उत्तर आप्यो. “स्वामी,में सारी रोते पूजा करी." त्यारे राजाए पुनः जणाव्यु." धनपाल, तमे जवानी देवीना मंदिरमां जयनीत थ बाहेर केम नीकळी गया ?" धनपान बोल्यो “स्वामी, ते देवोना हाथमां त्रिशून हतुं. ललाट प्रदेशमा प्रकुटी चमावेशी हती अने ते पामा, मर्दन करता हता. तेथी हुँ तेमनाथ जय पामीने बाहेर नोकरी गयो हतो. कारण के, में जाएयु के, श्रा जवानीने युक करवानो Jain Education Intemational Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्री आत्मप्रबोध. अवसर , पूजानो अवसर नथी, आई विचारी में तेमनी पूजा करी नहीं." राजाए पुनः पुग्युं, “ धनपाल, त्यारे तें शंकरनी पूजा केम न करी ?" धनपाने उत्तर आप्यो “ स्वामी, जेने कंठ न होय तेने पुष्पमाल शीरीते पेहेरावाय ? जेने नासिका न होय, तेने सुगंध केम अर्पाय ? जेने कान न होय तेने गीत शी रोते संनळावाय ? अने जेने चरण न होय तेने चरणमां वंदना शो रीते थाय ? आईं विचारी विंगरुप ते शंकरनी पूजा में करी नहीं. आ अर्थने अनुसरतो श्लोक ते आ प्रमाणे बोटयो हतो. "अकंठस्य कंठे कथं पुष्पमाला, विना नासिकायाः कथं धूप गंधः। अकर्णस्य कर्णे कथं गीतनादः, अपादस्य पादे कयं मे प्रणामः।१।" श्रा श्लोक बोली रह्या पठी राजा जोजे पुनः प्रश्न को. " धनपाम, त्यारे विष्णुना मंदिरमा जइ तेमनी पूजा केम न करी ? अने तेमने वस्त्रयी ढांकी तुं जलदी बाहेर केम नीकळी गयो ?" धनपाले कां, " राजेंक, विषा पोतानी स्त्रीने साथे राखी रहेना हता. तेथी में विचार कर्यो के, आ वखते विष्णु जनानामां एकांत रहेला छे, माटे हमणां पूजानो वखत नथी को साधारण पुरुष पण मो पोतानी स्त्री पासे एकांते रह्यो होय ते वखते तेनी समीपे सारा माणसे न जवू जोइए तो आ तो कृष्ण वासुदेव के जे त्रण खंगना स्वामी कहेवाय , ते मनी पासे केम जवाय ? " आवो विचार करी हुं तेमनी पूजा का वगर पागे वट्यो हतो. वन्नी में विचार्यु के, “ चौटे जता आवता लोकोनी दृष्टिए आ देखाव आवशे," आबु विचारी में तेमनी उपर वस्त्र ढांक्युं हतुं." धनपालना आ वचन सांनळी राजा जोजे कयुं, " त्यारे मारी आझा शिवाय, ते ऋषनंदवनी पूजा केम करी ?" धनपाले कयु, “ स्वामी,तमे मने देवनी पूजा करवानी आझा करी हती अने ते देवपणुं तो में ऋषनदेव जगवान्मा जोयुं, तेथी में तेमनी पूजा करी हती. जेमना स्वरूप वर्णन आ प्रमाणे जे. "प्रशम रसनिमग्न दृष्टियुग्मं प्रसन्नं वदनकमतमंकः कामिनी संगशून्यः । करयुगमपि धत्ते शस्त्र संबंध वंध्यं तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव " ॥१॥ Jain Education Intemational Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश १४५ ___ “जेमना बे नेत्रो समता रसमां निमग्न बे. जेमनु वदन कमळ प्रसन्न , जेमनो उत्संग स्त्रीना संगयी रहित ने अने जे शस्त्राना संबंधयी रहित एवा बे हाथने धारण करे , एवा हे ऋषनदेव जगवान् , आ जगत्मां तमेज एक वीतराग देव डो." १ आ श्लोक बोल्या पनी धनपाने विशेषमा जणाव्यु, “ स्वामी, जे रागषयी युक्त होय, ते देव कहेबाता नथी; कारण के, तेमनामां देवपणानो अनाव डे. तेवा देवो आ संसारना तारक थक्ष शकता नथी. जेओ आ संसारना पारने नतारनारा , तेोज आ लोकमां देव कहेवाय जे, अने तेवा देव तो श्री जिनेश्वर एकज , तेथी उत्तम बुटिवाळा पुरुषोए नेवा देवनीज सेवा नक्ति करवी जोइए." धनपालना आवा युक्तिवाळा वचनो सांनळी नोज राजाना मनमा कुदेवने माटे शंका उत्पन्न थर अने तेणे धनपालनी प्रशंसा करवा मांमी. एक वखते मिथ्यात्वी ब्राह्मणोनी प्रेरणायो नोज राजाए एक मोटा यझनो आरंज कयों. ज्यारे यझनी पूर्णाहुतिनो समय आध्यो त्यारे एक बोकमाने होमवा माटे त्यां लाववामां आव्यो. होम करतां बोकमो पोकार करवा लाग्यो, ते जोइ राजा जोजे धनपालने पुग्यं, " ना धनपाल, आ बोकमो शुं बोले उ ? ते कहे. ? ते वखते धनपाले कयुं, “ महाराज, ते बोकमो आ प्रमाणे वाले चे" नाहं स्वर्गफनोपभोग रसिको नान्यर्थितस्त्वं मया संतुष्ट स्तृण भक्षणेन सततं साधो न युक्तंतव । स्वर्गे यांति यदि त्वया विनिहिता यझे ध्रुवं प्राणिनो यज्ञं किं न करोषि मातृपितन्निः पुत्रैस्तथा बांधवैः ॥१॥ हे साधु पुरुष, हुं स्वर्गना फझनो उपयोग करवायां रसिक नथी. ते फसने माटे में तारी प्रार्थना पण करी नधी. हुं हमेशां घास खाइ संतुष्ट रहुं बुं, ते उतां तुं मने मारे जे, ते घटित नयी. या हणेला पाणीओ जो स्वर्गे जता होय तो तुं तारा माता पिता, पुत्रो अने बांधवाने मारी यह केम करतो नथी?"१ Jain Education Interational Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. धनपालना मुखी या शब्दो सांजळी राजा जोज कोपायमान थ‍ गयो. पण ते वखते ते मौन धरीने बेशी रह्यो. १४६ एक वखते राजा जोजे एक मोई सरोवर करा. वर्षाऋतु वाथी सरोवर जळथी परिपूर्ण नरा गर्छु. ते खबर जाही राजा नोज पांचसो पंमितोनो परिवार लइ ते सरोवर जोवाने आव्यो. चतुर पंदितो पोतपोतानी बुद्धिने अनुसारे नवा काव्योथी ते सरोवरनुं वर्णन करवा लाग्या. धनपाल ते वखते मौन धरीने रह्यो . ते समये जोज राजाए धनपालनी सामे जोड़ने कछु के, धनपाल, तमे पण सरोवरनुं वर्णन करो. राजानी आज्ञा वाथी धनपाले प्रमाणे एक नवीन कविता रची सरोवरनुं वर्णन कयुं. 66 एषा तमाग मिषतो वरदान शाला मत्स्यादयो रसवती प्रगुणा संदेव । पात्राणि यत्र बक सारस चक्रवाकाः पुण्यं कियद्भवति तत्र वयं न विद्मः ॥ १ ॥ " या सरोवर एक उत्तम दानशाळा . तेनी अंदर मत्स्य वगेरे सदाकाल तैयार थयेली ऊमकदार रसोई छे, बगला, सारस ने चक्रवाक पक्षीओ तेमां पात्ररूप बे. ते दानशाळानुं पुण्य केटलुं यशे, ए असे जाणी शकता नथी. 27 १ " धनपालना या वचनो सांजळी राजा जोज मनमां रोषाविष्ट थइ गयो. तेणे पोताना मनमा चितव्यं के, “ धनपाल बोज दृष्ट े मारी कीर्तिने वधानारुं जे काम छे, ते जोड़ने इर्ष्या करे छे. वळी या तेना वचनो उपरथी जलाय के, ते मारो शत्रुरूपे पुरोहित ने जो एम न होय तो वीजा ब्राह्मणोए बे सरोवरनुं वर्णन करी मारी कीर्ति वधारी प्रशंसा करी अने या दुष्ट पुरोहिते मारी निंदा करी. माटे मारे पोतार या धनपाळने सख्त शिक्षा करवी जोइए. बीजी को शिक्षा करवानी जरूर नथी, मात्र तेना के नेत्री काही नांखा, एटले तेने खरी शिक्षा थशे. " या विचारी मौन घरी राजा पोतानी स्वारी लइने दरबार गढ़मां वा नीकळ्यो. चौटामां आवतां एक वृद्ध कोशी तेने सामी Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश. १४७ मळी. तेलीए एक वालिकाना हाथनुं अवलंबन लीधुं हतुं ते मोशीने जोइ राजाए पोताना पंकिताने क. "करकंपावे शिर धुणे, बुट्टी कहा कह " ? 66 या बुड्ढी हाथ कंपावे रे ने मस्तक धुणावे बे, ते उपरथी ते शुं कहेवा मागे बे ? ते कहो. राजानो या प्रश्न सांजळी एक पंकि कां. "हकारंता यम जमां, नन्नंकार करे३. ॥१॥" 'यमराजाना गुळटो तेने हणाली, हणाणी, एम हाकोटा मारे बे, त्यारे मस्तकावीने 'ना ना' एम कहे वे एटले यमराजाना सुनटो तेने लेवा etter सारे त्या ते मोशी ना पावे. 66 या ते धनपाले कहुं, "राजेंद्र, आ मोशी शुं कहे बे ? ते सांजळो किं नंदिः किं मुरारिः किमु रतिरमणः किं नलः किं कुबेरः fiar faresataमय सुरपतिः किं विधुः किं विधाता । नायं नायं नचायं न खलु नहि नवा नापि नासौ न चैष' : क्रीडां कर्त्तुं प्रवृत्तो यदिह महीतले नुपति नजदेवः ॥ १ ॥ 44 आ पृथ्वी उपर क्रीमा करवाने पवतेला जोजराजाने जोड़ कोइ बालिका या वृद्ध मोशीने पुछे ने के, “शुं या नंदि (शंकर) बे? शुं या कृष्ण के ? शुं कामदेव बे ? शुं य नवराजा ? शुं या कुवेर बे ? शुं आ विद्याधर बे ? शुं ष े ? या चंद्र के शुंआ विधाता के ? ते वखते मोशी ना पाने , ए सर्वमाथी को नयी, कोह नथी, कोइ नथी, परंतु ते या पृथ्वीपट उपर कीमा करवाने माटे वृत्त घयेला जोजराजा छे, १ धनपाला मुखी या रसिक कविता सांजळी जोजराजा हृदयमां संतुष्ट थइ गयो. तेथे संतुष्ट थड़ने कां, धनपाल, हुं तमारी उपर प्रसन्न थयो बुं, माटे १ ते डोशीना मस्तक कंपन जावा अकारने अर्थ सूचक है. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्री आत्मप्रवोध. जे इच्छा होय ते मागी ख्यो." आ वखते प्रथम सरोवरना वर्णनथी नाखूश थयेला राजाना अनिमायने बुछिवळथी जाणोने कहा, “ राजेंज, मने बे नेत्रो आपो." राजा आ वचनो सांजळी अति विस्मय पामी गयो. तेणे पोताना मनमां चिंतव्यु के, “में आ वात कोइने जणावी नथी, ते बतां आ धनपालना जाएवामां शी रीते आवी हो ? आ उपरथी मने लागे ने के, आ धनपालना हृदयमां कोई अलौकिक झान हो जोइए." आवं चितवी ते धनपालनो तेणे अनेक नामो आपी मोटो सत्कार कर्यो. ते पनी राजाए धनपालने बे नेत्रोना वरदानने माटे पूजी जोयुं, त्यारे धनपाले कडं के, “स्वामी, श्री जैनधर्गनी सेवाथी मारामां एवी अलौकिक बुधि उत्पन्न थइ , तेना बलय हुं ते जाणी शक्यो बुं." आ सांजळी राजानोजनी जैन धर्म उपर बच्चा पद अने तेणे जैन धर्गनी प्रशंसा करी हती. पड़ी धनपाल कवि शुद्ध श्रावक बन्यो. हतो. तेणे श्राफ धर्म विधि, ऋषनपंचाशिका वगेरे केटसाएक ग्रंथोनी रचना करी आईत धर्मनी उन्नति करी हती. श्राफ धर्म विधि प्रकरणमा एक नीचे प्रमाणे गाथा नखेली . जत्थपुरे जिणनवणं समय विऊ साहु सावया जत्थ । तत्य सया वसियध्वं पजर जलं इंधणं जत्थ " ॥१॥ जे नगरमां जिन जवन होय, अवसरने जाणनारा साधुओ अने आपको होय अने घाणू जल तथा इंधणा होय ते नगरमां सदा वास करवो. ' श्रा प्रकारे जावजीव सुधी उ यतना पानी सम्यक्त्वादि धर्मने पाराधी ते धनपान अंते देवगतिने पाम्यो हतो. एवी रीते यतनाने विष धनपालतुं वृत्तांत कहेवामां आव्यु. आगार. आगार उ कहेवाय छे. १ राजानियोग, २ गणानियोग, ३ बलानियोग, ४ देवानियोग, ५ गुरुनिग्रह अने ६ वृत्तिकांतार. ए उ आगारोना नाम ले. पोते अजाणता राजाना हुकमथ। कर प ते पहेलो राजानियोग कहेवाय जे. श्रावकनी इच्छा न होय पारा राजानी आझाथी कर पसे ने एटसे Jain Education Interational Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. १४ए जे क्रियाना करवाना पञ्चखाण कर्या होय, पण राजाना फरमानथी ते अव्यथी करवी पमे ते पेहेरो आगार जे. तेवा आगारने लश निषिद्ध क्रिया करवाची सम्यक्त्वनो नाश गणातो नथी. ते उपर कोशा वेश्या दृष्टांत कडेवाय रे. कोशा वेश्यानुं दृष्टांत. पाटलीपुर नगरमा कोशा नामे एक वेश्या रहेती हती. तेणीए भी स्थूसन मुनिनी पासे सम्यक्त्व प्रमुख बार व्रतो ग्रहण करेला हता. एक वखते संतुष्ट थयेला राजाए ते वेश्याने एक रथकारने आपी दीपी. कोशा राजानी प्राश्रित हती, एटले राजाए तेणीने हुकम कयों के, तारे रथकारनी साथे रहेहैं. कोशा दृढ श्राविका हती. तेथी तेणीने रथकारनी साथे रहेg पसंद पमयुं नहीं, तेम ते अंतःकरणथी पण रथकारने इच्छती नहती. परंतु राजाना हुकमथी तेणीने रथकारनी साथे रहे, पमयु. ते पठी कोशा रथकारनी साथे रही तेनी भागन श्री स्थूलना मुनिनी प्रशंसा करती हती. ते आ प्रमाणे प्रशंसानो शोक बोली डती. " संसारेऽस्मिन् समाकीणे बहुनिः शिष्टजंतुनिः । स्थूलभऽ समः कोऽपि नान्यः पुरुषसत्तमः॥१॥" " घणां शिष्ट जंतुओथी व्याप्त एवा आ संसारमा स्थूलनधना नेपो को बीजो उत्तम पुरुष नथी.." स्थूलना मुनिनी आ प्रशंसा सांजली ते रथकार खुशी यतो हतो. एक वखते ते रथकार कोशा वेश्याना मनने रंजन करवा माटे पोताना घरना बागमां गयो. त्यां जश् एक गोखमां बेशी ते पोतानी कला तेणीने बताववा लाग्यो. प्रथम तेणे पोतानुं एक बाण आंबानी लुंब उपर नांग्युं, बीजा बाणथी ते वाणने अने त्रीजा बाणथी वीजा बाणने–एम पोताना हाथ सुधी वाणोनी श्रेणी करी ते आंबानी लुंबने हाथवझे खची लीधी अने ते कोशा वेश्याने आपी, अने तेणीनी सामे जोयु. आ वखते वेश्याए कह्यु, " तमे तमारी चालाकी बतावी त्यारे हवे मारी चालाकी जुवो. पड़ी तेणीएः एक थाळमां ससवना दाणानो ढगलो कर्यो, तेमां पुष्पोथी आच्छादित करेम सोय मुकी ते Jain Education Interational Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्री आत्मबोध उपर तेलीए नृत्य करवा मांगयुं, पण ते सोयनी अणीथी तेलीना वे पग वींधा नहीं ने ससेवन ढगलो जरा पाए वींखायो नहीं. कोशानुं प्रातुं चातुर्य जोइ ते रथकारे कयुं, वेश्या, तने पूर्ण साबाशी घंटे बे. तारुं आवं अद्भुत चातुर्य जोइ हुं संतुष्ट थयो बुं. तारी इच्छा आवे ते मागी ले. हुं तने जे माग ते आपना तैयार बुं. वेश्या बोली -- “ रथकार, तुं खुशी थयो. पण ग्रामां में शुं कर्यु ? अन्यासथ गमे ते थइ शके छे, अभ्यासनी आगळ कांई पण दुष्कर नथी. तेने माटे कछु छे के, " सुकरं नर्तनं मन्ये सुकरं बुंबिकर्त्तनम् । स्थूलोऽपि यच्चक्रे शिक्षितं तत्तु पुष्करम् ॥ १ ॥ " नृत्य कर सेलुंबे अने ग्राम लुंब कापवी सुगम बे, एम हुं मानुं बुं, पण महामुनि स्थूलन मुनिए जे करी बताव्युं ने शीखन्युं बे ते प्रति पुष्कर बे. १ 66 वेश्याए विशेषमां जणान्युं के, “शकमाल मंत्रीना पुत्र श्री स्थूलन मुनि पूर्वे मा साथै बार वर्ष सुधी जोगजोगवी पछी पुनः चारित्र ग्रहण करी हिज मारा घरनी चित्रशालामां शील व्रतने पाली चातुर्मास रह्या हता, ते वखते तेमने अनेक जातना जोग्य पदार्थो आपवामां आव्या हता. विकार थवानुं एक कारण होय तो ते लोहमय शरीरवाला पुरुषना व्रतने नाश करनारुं थाय तो पीस जोजन, चित्रशालामां निवास, यौवनवय, ने वर्षाऋतु प्रमुख विकारना कारण तने नाश करनारा केम न थाय ? परंतु ते बधा कारणो ते महामुनि रुप पर्वत सिंहनी फाळनी जेम कोन पमावाने असमर्थ थया हता. ए महानुजाव मुनीश्वरने विषे मारा करेला दावनावो पण जलना महार अने विरागिणीना हारनी जेम निरर्थक थया हता. पोताना व्रतनुं रक्षण करवाने इच्छता एवा मनुष्यो जे स्थानमां स्त्री होय, तेनी समीपे एक क्षणमात्र प रहेवाने समर्थ नथी, तो श्री स्थूलन मुनि प्रयत्रत वाला थइने मारी समीपे सुखे चातुर्मास्य रह्या हता. तेथी वधारे शुं कहे ? डंकामां एटलुंज कहेवानुं के, महामुनि स्थूलन मुनिना जेवा अति दुष्कर कार्यना करनार कोड़ पण पुरूप या पृथ्वी उपर थयेल नथी. 99 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. १५१ महानुनाव स्थूलना मुनिनी आवी प्रशंसानुं वर्णन सांजळी ते रथकार हृदयमा प्रतिबोध पामी गयो अने ते कोशा वेश्याने वारंवार नमी स्तुति करवा लाग्यो. स्तुति कर्या पठी तेणे कोशा वेश्याने कडं, “ नजे, तमे मने आ संसार रुप समुअमां मुवतो वचाव्यो . हुं तमारो हृदयथी आनार मानुं बुं." आटवू कही ते रथकारे गुरुनी पासे जश्ने दीक्षा ग्रहण करी हती. पवित्र हैदया कोशा वेश्या पण सम्यक्त्त्व युक्त थइ चिरकाल पर्यंत श्रावक धर्म पानी मेवटे सद्गतिर्नु पात्र बनी हती. एवी रीते राजानियोग उपर कोशा वेश्यानुं दृष्टांत कहेवामां आव्यु. गणान्नियोग. बीजो गणानियोग जे. गण एटले स्वजनादिकनो समुदाय, तेनो जे अनियोग एटवे हुकम. ते बीजो गणानियोग कहेवाय छे. जे कार्य सम्यक्त्त्ववंतने करवं अयोग्य होय पण कदि ते स्वजन समुदायना आग्रहथी करवं पके एटने व्यथी कर पके नावथी नहीं, पण तेथी करीने सम्यग्दृष्टिने धर्मनुं नबंधन यतुं नमी. ते उपर विष्णु कुमार प्रमुखनुं दृष्टांत प्रसिध जे. विष्णु कुमार गच्छना आग्रहवाला आदेशथी वैक्रिय लब्धिवझे रूप (आकार )नी रचना करी जिनमतना पूराधेषी नमुचि नामना पुरोहितने पोताना चरणना प्रहारवमे मारी सातमी नरक नूमिनो अतिथि को हतो. पठी ते विषाणु कुमार मुनि ते पापनी आलोयणा करी पोताना सम्यक्त्वादि धर्मने आराधी उत्कृष्ट सुखने प्राप्त थया हता. एवी रीते आगल पण जावना पूर्वक उदाहरणो जोमीने ांची देवा. ३ वनानियोग. बन एटले पराक्रम हा प्रयोग, तेवझे बलात्कार करी अनियोग (हुकम ) करवो, ते त्रीजो वज्ञानियोग कहेवाय . एटले सम्यक्त्त्व वंतनी पासे कोइ बनवान् पुरुष पोताना बाथी अनुचित कार्य करावे, ते सानियोग कहेवाय जे. तेवा वनानियोगथी जो सम्यग् दृष्टि पुरुष धर्मर्नु उबंधन करे तो ते दूषित गणातो नथी. Jain Education Intemational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. ४ देवानियोग. कुल देवता वगेरेना नियोगथी कांइ पण धर्म विरुद्ध कार्य कर प ते चोथो देवानियोग कहेवाय बे. तेवा देवना बलात्कारथी कांइ पण धर्मनुं - तिक्रमण करनार पुरुष दूषित यतो नथी. कारण के, देवता पोतानी शक्तिथी अनेक जातनी हेरानगति करी शके वे ; माटे ते देवानियोग आगारमां गणाय बे. ૨૫૨ ए कांतार वृत्ति. कांतार एटले जंगल, तेने विषे वर्त्तं, अर्थात् जंगलमा निर्वाह करवो ते कांतार वृत्ति कहेवाय जे. कांतार — जंगल पीमानो हेतु होवाथी तेनी अहिं विवा करेली छे. जेम जंगलमां रहे पीकाकारी छे, तेम तेवी रीते निर्वाह करवो ते पीकाकारी छे. तेवा कारणथी धर्मनुं उलंघन थाय, तो ते निर्दोष बे ६ गुरु निग्रह. गुरु एटले माता पिता प्रमुख वमिलो, तेमनो निग्रह एटले तेमना आग्रहथ कबजे रहें पते गुरु निग्रह कहेवाय बे. गुरु- वकिलो कया कया कहेवाय ? तेने माटे शास्त्रमां कहां छे के, " माता पिता कलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो गुरुवर्गः सतांमतः ॥ १ ॥” माता, पिता, कलाचार्य ने तेमना कुटुंबीओ, वृद्ध अने धर्मनो उपदेश करनारा - ए सर्व गुरु वर्ग कहेवाय बे. एम सत्पुरुषोए मानेतुं बे. १ कदि को मिलना आग्रहथी धर्मनो अतिक्रम करवो पमे तो ते जिनशास्त्रमां आगार कहे बे. एटले अपवाद कहेल बे. तेवा धर्मना उलंघनथी दोषित थइ शकातुं नथी. आ प्रकारे जेणे सम्यक्त्व मूल बार व्रत अंगीकार करेला छे, एवा प्रापीओने जे परतीर्थ वगेरेनुं वंदन प्रमुख निषेध्युं बे, बतां राजा नियोग वगेरे Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. १५३ कारणोने लइने ते नक्ति रहित अव्यथी आराधे तो पण ते सम्यग् दृष्टि होवाथी पोताना सम्यक्त्वनुं उल्लंघन करता नथी, एम जाणं. आ ब आगारो - अपवादो जे अल्प सत्व वाला बे, तेमने माटे कहेला बे परंतु जेओ महा सववंत तेमने माटे तो या प्रमाणे कहेतुं छे. " न चति महा सत्ता सुनिज्जमाणाश्रो सुद्ध धम्मायो । श्रेसिं चलावे पन्नगो न एएहिं ॥ १ ॥ महासत्त्ववाला पुरुषो जो तेमना शुद्ध धर्मने कोई दवा वेतो पण ते चलायमान थता नथी. अने जे अपसत्ववाला बे, तेयो कदि चमापमान थाय तो ते स्वनावने लइने तेमनी प्रतिज्ञानो जंग यतो नथी. " 44 ते उपर टीकाकार लखे छे के, “ महासत्त्ववंत पुरुषो कदि कोइ राजादि मन मना धर्म चलित करवा तत्पर थाय तो पण ते मोटा सत्त्ववाना दोare चलित थता नथी. पण जे अल्प सत्त्ववाना बे, तेश्रो चक्षित थवाना स्वभाववाला, एटले ते राजादिकना अनियोगना कारणथी चलायमान थ‍ जाय बे; तेथी तेमने माटे अब आगार कहेला बे, तेथी करीने तेमनी प्रतिज्ञानो जंग थतो नथी. sa थाय बे. ब जावना. जावनानी व्याख्या करे बे. ए छ भावना जाववाथी सम्यक्त्व पेहेली भावना. सम्यक्च पाँच अणुव्रत, ऋण गुणव्रत, अने चार शिक्षाव्रत - एषार तो पंचपात्रत रूप चारित्रनुं सून्न कारण बे; एम श्री तीर्थकरोए तथा गणधरादिकर कहेलुं छे. जमल गन्नुं क्ष तीव्र पवनथी कंपायमान यह पमी जाय, ते सम्यक्त्र रूप शूजपासुं धर्ग रूपी क्ष के जे प्रति दृढ अने मजबूत बे, ते घरी वृक्व रहित होय तो कुतीर्थ - कुमत रुपी तीव्र पवनथी चलायमान थर जाय बे, ते स्थिरताने पामतुं नथी; तथी सम्यवचने धर्म - ૨૦ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्री आत्मप्रबोध. दनुं मूल कहेलुं जे. जो मूल दृढ होय तो वृक्षने कोइ नातिनी हानि यती नथी. ए पेहेली नावना जाणवी. बीजी नावना. आ सम्यक्त्व धर्मरुप नगरमा प्रवेश करवानुं धाररुप ने, जेम नगर चारे तरफ हढ किरावाळु होय, पण जो तेने दरवाजो न होय तो ते नका, गणाय . कारण के, लोकोन निर्गम अने प्रवेश करवानो तेमां अनाव . तेवी रीते धर्मरुपी नगर जो सम्यक्त्वरुप धारथी रहित होय तो ते तदन नकामुं. तेमा प्रवेश करवो अशक्य ने, माटे सम्यक्त्वने धर्मरुप नगरना धार तुभ्य कहेलु ने. त्रीजी नावना. प्रा सम्यक्त्व धर्मरुपी प्रासादन प्रतिष्ठान एटले पायारुप ने, जेनी नपर प्रासादनी प्रतिष्ठा कराय ते प्रतिष्ठान कहेवाय . जो पायो मजबूत होय तो प्रासाद मजबूत रहे , अने पायो मजबूत न होय तो प्रासाद दृढ रहेतो नथी, ते मंगमगे के. तेथी धर्म रुपी प्रासाद सम्यक्त्व रुप पायाथी मजबूत रहे के. चोथी नावना. आ सम्यक्त्व धर्म रुपी जगत्ना आधार चूत . जेम आ जगत् पृथ्वी तलना आधार विना रही शके नहीं, तेम धर्म रुपी जगत् सम्यक्त्व रुप आधार विना रही शकतुं नथी. पांचमी नावना. सम्यक्त्त्व ए धर्मने रहेवानुं पात्र रुप जे. जेम कुमी वगेरे पात्र विना हीर प्रमुख पदार्थो रही शकता नथी, तेओ विनाश पामी जाय छे, तेम सम्यक्त्त्व रुप पात्र विना धर्म रुप वस्तुनो समूह विनाश पामी जाय जे; माटे सम्यक्त्वने पात्र कहेतुं . उगी भावना. सम्यक्त्व ए धर्मद् निधान-नंमार रुपडे जेन निधान वार बहु मूत्र्यवाना मोती, मणि, सुवर्ण वगैरे अव्य प्राप्त करी शकाता नम , तेन सम्पत्व रुप मोटा निधान Jain Education Intemational Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. १५५ विना निरुपम सुखने आपनार चारित्र रुप धर्मरत्न प्राप्त करी शकातुं नथी, तेथी ते सम्यक्त्वने निधाननी उपमा आपेली . आ प्रमाणे उ नावना के जावेलु एवं सम्यक्त्व मोदना सुखनुं साधक बने छे. ब स्थानक. जे उ स्थानकने यथार्थ रीते धारे ते सम्यक्त्वने संपादन करी शके . ते उ स्थानक आ प्रमाणे छे. १ अस्ति जीवः । २ स च नित्यः। ३ स पुनः कर्माणि करोति । ४ कृतं च वेदयति । निर्वाणमस्ति अस्य जीवस्य । ६ अस्ति पुनर्मोहोपायः । अस्तिजीवः। जीव विद्यमान ने.प्रत्येक प्राणीओने पोताना संवेदन-अनुजव प्रमाणे सिफ चैतन्यनी अन्यथापणानी अप्राप्ति के एटले. पोताना आत्माना अनुनवथी बीजा आत्मानी अंदर जणाती जीवपणानी प्राप्ति . आ जे चैतन्य , ते नूतोनो धर्म नथी. पण जीवनो धर्म-स्वन्नाव जे. जो ते नूतोनो स्वनाव होय तो ते चैतन्यनी सर्व स्थाने अने सर्व काले प्राप्तिनो प्रसंग आवे. जेम पृथ्वी भूतमा कठिनता , तेम चैतन्यमां नथी ते उपरथी सर्व नूतोमा सर्व काले चैतन्यनी प्राप्ति थती नथी. धुमना ढेफामां तथा मुमदामां पण चैतन्यनी अमाप्ति , माटे चैतन्य नूतोतुं पण कार्य नथी. तेनामां अत्यंत विलक्षणपणुं होवाथी चैतन्यने तेना कार्य कारण जावनी पण अप्राप्ति जे. कठिनतादि स्वनाववाला भूतो प्रत्यक्ष प्रतीत थाय ने अने चैतन्यतो तेनायी विलक्षण , तेथी चैतन्य अने नूतोनो कार्य कारण जाव शी रीते घटे ? तेम चैतन्य नूतोनो धर्म पण नथी तेम कार्य पण नथी. तेथी प्रत्येक प्राणीने स्वसंवेदन ( स्वानुनव ) प्रमाणे जीव ने, ए वात सिम थाय जे. जेनुं आ चैतन्य ते जीव , आथी नास्तिक मत परास्त था जाय . २ सच नित्यः । ते जीव नित्य . एटो उत्पत्ति तथा नाशथी रहित ने. कारण के तेने नत्पन्न करवाना कारणोनो अनाव , तेमज सर्व प्रकारे तेनामां विनाशपणानो स्वनाव नथी, तेथी ते नित्य . जो अनित्य होय तो बंध मोक्षनु एकाधिकरणपणुं न थाय. ते विषे कहे . जो जीव-आत्माने नित्य न मा Jain Education Intemational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध ने अने पूर्वापर क्षणे त्रुटित एवा अनुसंधान रुप बक्षण अंगीकार करे तो कर्मनो बंध बीजाने थाय अने मोक्ष बीजानो थाय. ते तो एक नुख्यो रहे अने बीजो तृप्त थाय एम बने. दवा कोइ खाय अने रोग कोई बीजानो मटे, एवो प्रसंग आवे. तपनो क्लेश बीजो सहे अने स्वर्ग बोजाने मले, तेवा अति प्रसंग पणाना दोषथी ए वात घटित थती नथी. आथी करी बौछ मतनो निरास करवामां आव्यो बौकोना सिधांत रुप अंधकारनो नाश करी दीधो. ३ स पुनः कर्माणि करोति । ते जीव वली कर्मोने करे जे. एटले मिथ्यात्व, अविरति अने कषायादि बंधना हेतुथी युक्त होवाथी ते जीव नवा कर्म करे . जो एम न होय तो दरेक प्राणीने प्रसिक अने विचित्र एवा सुखनुःखादिकनो अनुन्नव अप्राप्त थाय अने आ लोकमां तो जीव अनेक प्रकारना सुख मुखनो अनुभव करे छे, तेथी ते विचित्र सुखजुःखनो अनुजव निर्हेतुक नथी. ते शी रीते ? निर्हेतुकपणुं उतां निष्पन्न एवो आत्मा कमळना पत्रनी पेठे निर्केप होय . ते उपरथी एवो सिफांत थाय ने के, सर्व काले ए सद्नावना अनावनो प्रसंग प्राप्त थवाथी तेम थाय ने ; माटे आ जीवने सुखःखना अनुजवनुं कारण पोताना करेला कर्मज ने ; बीजु कोइ नथी. ते उपरथी एम पण सिछ थयुं के, ए जीव कर्मोनो कर्ता के आथी कपिलना मतनो निरास करेलो, . अहिं को शंका करे के, "आजीव तो सर्वकाले सुखाजिनाषीज डे को काले ते पु:खनी वांछना राखतो नथी, त्यारे ते पोते कर्मोनो कर्ता थइ सुःखना दनने आपनारा कर्मो करे " ? तेना उत्तरमां कहेवार्नु के, जेम रोगी माणस रोगनी निवृत्ति इच्छे . ते रोगथी परानव पामी अपथ्य सेवन करवा वझे उत्पन्न थवाना जावी कष्टोने जाणे , ते उतां ते अपथ्य सेवे में, तेवी रीते जीव पण मिध्यात्वादिकथी परानव पामता उतां अने कोइ प्रकारे ते जाणता उतां पण पुःखना फलने आपनारा कर्मोने करे ने तेथी तेमां कोई जातनो दोष आवतो नथी. ४ कृतं च वेदयति। ते जीव करेला कर्मने वेदे , एटले ते करेला शुजाशुज कर्मोने जोगवे जे. तेनुं अंगीकारपणुं अनुभव प्रमाण, लोक प्रमाण अने आगम प्रमाणथी सिक थाय ने जो स्वकृत कर्मना फलने जोगवनार जीवने Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकाश. अंगीकार न करीए तो सुख उखना अनुजवनुं कारण साता असाता वेदनीय कर्मनो उपनोग नहिं थाय, अने तेम उते जीवने सिछ अने आकाशनी पेठे सुखदुःखनो अनुभव थशे नहीं. अने आ वात तो प्रसिक डे के दरेक प्राणीने सुखःखनो अनुजव स्वसंवेदन ज्ञानथी प्रत्यक्ष प्रमाणवमे सिघ जे. ते माटे अनुन्जव प्रमाणथी जीवने पोताना करेला कर्मनुं जोगववापणुं सिघ थर्बु तेम लोकने विषे पण आ जीव पाये करीने कर्मनो जोक्ता सिद्धज जे. जेम लोकने विषे कोइ पुरुषने सुखी देखी बीजा लोक कहे जे के, “ या पुरुष पुण्यवान् ने तेथी आवा सुखनो अनुभव करे ." तेने माटे जैन आगममां आ प्रमाणे कहेलु . सव्वं च पएसतया चुंजइ, कम्ममणुनावग्नश्यं " सर्वने प्रदेशपणे भोगवे, तथा विपाकपणे जोगवे उन्नय प्रकारे लोगवे ." तेम अन्य शास्त्रमा पण कडं ने के" नाजुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि" " क्रोमो गमे युग वह्या जाय, पण करे कर्म जोगव्या विना क्षय पामतुं नथी." ___आ नपरथी सिफ थयु के, "आ जीव करला कर्मनो भोगवनार . आथी जेओ जीवने कर्मनो जोक्ता मानता नथी, तेवाओना मतने परास्त कों . ५ निर्वाणमस्ति अस्य जोवस्य । वळी ते जीवने निर्वाण ने एटले तेनो मोद थाय . आ जीवनी राग, केष, मद, मोह, जन्म, जरा, मरण, रोगादि मुःखना क्षयरुपवाळी जे अवस्था, ते मोद कहेवाय जे; ते मोक्ष प्रा जीवने होय . वळी ' ते मोक्षनो सर्वथा नाश नथी, एथी दीपकना बुझावारुप अनावरुपे निर्वाण कहेवाय डे' आ वचनोथी असद्रूप कदाग्रहने निरूपण करनारा सौगत नोकोना मतनो निरास करवामां आव्यो . सौगतमतवाला तो निर्वाणने माटे आ प्रमाणे कहे - Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. "दीपो यथा निर्वृतिमन्युपेतो नैवावनिं गच्छति नांतरीक्षम् । दिशं न कांचिहिदिशं न कांचित् स्नेहदयात्केवलमेति शांतिम्१॥ जीवस्तथा नितिमन्युपेतो नैवावनिं गच्छतिनांतरीक्षम्। (दर्शन कांचिद्विदिशं न कांचित् क्वेशदयात्केवलमेति शांतिम्।। दीपक निर्वाण ( बुझावपणा ) ने प्राप्त थतां ते पृथ्वोमां, अंतरीद-प्रा. काशमा, दिशा अने विदिशामा चाख्यो जतो नथी, पण केवल स्नेह (तेल ) नो देय थवायो ते शा। तने पामे . तेव। रीते जीवपण निवृत्ति (निर्वाण ) ने प्राप्त थतां पृथ्वी, आकाश, दिशा के विदिशामां जतो रहेतो नथी, पण केवल क्लेशनो दय थवाथी ते शांतिने पामे . १-२ आ सौगतनो मत तदन अयुक्त के कारण के जो तेम होय तो चारित्र सेवा वगैरे प्रयास निरर्थक थाय ने. वन। तेमां आपेवं दीपकनुं दृष्टांत पण घटतुं नथी; कारण के दीपकनी अग्निनो सर्वथा विनाशज नथी. ते तो तेवी जातिना पुद्गलना परिणामनी विचित्रता के एटो अग्निना पुद्गलो पोताना देदीप्यमान रूपनो त्याग करी अंधकारना रूपांतरने पामे छे, तेम दीवो बुझाइ जतां केटलाएक काल अंधकारना पुद्गल रुप विकार प्राप्त थाय छे, ते पुनः चिरकाले तरतज प्राप्त करातो नथी; ते आंजणना रजनी पेठे सूक्ष्म अने सूक्ष्मतर परिणामना सद्लावधी प्राप्त करवामां आवतो नथी; अहीं आपेला अंजनना रजर्नु दृष्टांत आ प्रमाणे जे.जेम अंजननी काली रज पवने करी हराती उमी जाय , ते परिणामनी सूदभताथी पमाती नथी, ते उतां ते असत् नथी तेनुं छतापणुं में; ते उपरथी सिद्ध थयु के, जेल आंतरा रहित कहेलु स्वरूप परिणामांतरने पामी दीपकनो निर्वाण कहेवाय में, तेम जीव पण कर्म रहित था केवल अमूर्त जीव स्वरूप लक्षण रुप परिणामांतरने प्राप्त थयो तेनो निर्वाण कहेवाय . तेथ। उःखादिवायरुपवाली उती एव। जीवनी अवस्था तेज तेनो निर्वाण मोदछ, ६ अस्ति पुनर्पोझोपायः। जोवने मोक्ष मेलववानो उपाय छे. एटले सम्यगू झान, दर्शन तथा चारित्र मोक्षना साधक होवाथी ते तेना उपाय रुप छै. Jain Education Intemational Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमप्रकाश १५ए ते आ प्रमाणे-मिथ्यात्व, अज्ञान, जीव हिंसादिक पुष्ट हेतुओनो समुदाय सर्व कर्मोना जालने उत्पन्न करवाने समर्थ डे अने तेना विरोधी रुप सम्यग् दर्शनादिकनो अज्यास सकल कोने निर्मूल करवा समर्थ डे, ते आ प्रमाणे मिथ्याष्टि के करेलो जे उपाय, ते मुक्तिनो साधक थशे, एम कहे तथा मिथ्यात्वीनो करेलो उपाय हिंसादिक दोषवमे पाप वालो होत्राथी संसार- कारणपणुं बे, आ उपरथो मोदना उपायना अनावने प्रतिपादन करनार कणादमतनो तिरस्कार करवामां आव्यो जे. एवी रीते जीवना अस्तित्व वगेरे उ स्थानको सम्यक्त्वना कहेला ले. जेना आत्माने विषे ए ड स्थानकनी प्रतीति , तेने सम्यक्त्व होय ने. अहिं प्रत्येक स्थानके आत्मादिकनी सिधिने माटे घाणुं कहेवानुं , पण ग्रंथनी गहनता था जवाना जयथी ते कहेवामां आव्यु नथी. एवी रोते समसठ भेदथी सम्यक्त्वने कह्यु छे. ए समसठ नेदयी युक्त एवा सम्यक्त्वने आराधवाथी जव्य आत्मा मोद मार्गनो अधिकारी बने जे. वतो अहिं जे नव्य प्राणीओ वस्तुमात्रना प्रमाणनी सिधिमां परस्पर सापेक्ष कालादिक पांचने कारणपणे प्रमाण करे , तेने तेवा प्रकारना सम्यक्त्व रत्ननुं स्वामिपएं प्राप्त थाय , बीजा एकांतवादीओने थतुं नथी. तेने माटे कमु डे के, " कालो सहाव नियइ पुव्वकयं पुरिसकारणे पंच । समवाए सम्मत्तं, एगंते होश मिच्छत्तं ॥ १ ॥ काल, स्वनाव, नियति, पूर्वकृतकर्म, अने पुरुषकार ( पुरुषार्थ ) ए पांच कारण माने तेन सम्यक्त्त्व होय . अने तेमां जे एकांत माने तेने मिथ्यात्व होय . १ श्त्यं स्वरूपं परमात्मरूप निरूपकं चित्रगुणं पवित्रम् । सम्यक्त्वरत्नं परिगृह्य नव्या नजंतु दिव्यं सुखमक्यं च॥ १ ॥ ___ आवी रीते पूर्वे कहेला स्वरूपवावें, परमात्माना रूपने प्ररूपण करनारं अने विचित्र रूपवाटुं सम्यक्त्व रत्न ग्रहण करीने हे जव्य पुरुषो, तमे दिव्य अने अश्य सुखने नजो.. Jain Education Intemational Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. "प्रवचनसारोधारा-धनु सारेणैष वर्णितो मयका।। सम्यक्त्वस्य विचारो निजपरचेतः प्रसत्तिकृते ॥ २ ॥ पोताना अने बीजाना चित्तनी प्रसन्नताने माटे प्रवचन सारोकार वगेरे ग्रंथोने अनुसारे में आ सम्यक्त्वनो विचार वर्णन करेलो . ?" इति श्री जिननक्त सूरींजना चरणकमनने विषे त्रमर तुल्य एवा श्री जिनलाल सूरिए संग्रह करेन आ आत्मबोध ग्रंथनो सम्यक्त्व निर्णय नामनो प्रथम प्रकाश समाप्त थयो. D ति प्रथमः प्रकाशः। se Jain Education Intemational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ अथ द्वितीय प्रकाश (देशविरति.) बीजा देशविति प्रकाशमां जेनुं स्वरूप प्रथम कहेवामां आव्युं छे, एवो सम्यकत्वमूल आत्मबोध प्रकट थवायी केटलाएक आसन्न नव्य जीवोना चारित्र मोहनीय कर्मनो वय अथवा उपशम थवाथी मने देश विरति आदि बाजनी प्राप्ति थाय बे, ते बतावे बे. “ सदात्मबोधेन विशुद्धिनाजो जव्यादि के चित्स्फुरितात्मवीर्याः । जंति सार्वोदित शुद्धधर्म देशेन सर्वेण च केचिदार्याः ॥ १ ॥ निरंतर आत्मबोध वडे विद्धिने प्राप्त थरला केलाएक जन्य प्राणीओ पोताना वीर्यने देशथ अने केटलाएक सर्वथी फोरवी सर्व प्रतुए कहेला शुद्ध धर्मने जजे बे. १ 77 कवान आशय एव के, केटलाएक सर्वज्ञ प्रणीत विरतिलक्षण शुद्ध धर्म देशी जे ने केटला एक सर्वथी एटले सर्व विरति जावने नजे बे. मां प्रथम देशविरति पामवानुं स्वरूप प्रगट करे बे. या संसारने विषे वीजा कषायनी चोकीनो दय अथवा उपशम यतां मनुष्य, अने तिर्यचो सम्यक्त्व युक्त शरीर डे जे देश विरति प्राप्त करे बे, तेनी शुद्ध व्याख्या करवामां आवे छे. देश एटले कोइ जागते व प्राणातिपातादि पाप स्थानकोथी निवृत्त वुं पाछा हवं, ते देशविरति कडेवाय बे. ते निर्मल देशविर तिपणुं बीजा अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया ने लोन लक्ष्णरूप चार कपाय क्षीण अथवा उपशांत थतां या संसारने विषे सम्यक्त्व युक्त एवा मनुष्य तथा तिर्यचवमे प्राप्त करी शकाय बे; ते शिवाय बीजार्थी मातुं नथी. कारणके, देवता ने नारकी ओने ए देशविरतिनी प्राप्तिनो ૨૧ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्री आत्मप्रबोध. असंचव जे. तेथी अहि तेमनुं ग्रहण करवामां आव्युं नथी. वनी सम्यक्त्वनी प्राप्तिने समये रहेली कर्मनी स्थिति मध्येथी पट्योपम पृथक्त्व बक्षणरूप स्थितिनो क्षय थवाथी देश विरति प्राप्त थाय . तेने माटे प्रवचन सारोद्धार ग्रंथना श्वएमा घारमां आ प्रमाणे कहेलु जे. “सम्मत्तमियवद्धे पलिय पुहत्तण सावो हो । चरणोवसमखायाणं सायर संखंतरा हुँति ॥ १ ॥" जेटली कर्मनी स्थितिमा सम्यक्त्व पामवापणुंडे तेमांथी पट्योपम पृथक्त्व कालनी स्थिति खपावतां श्रावक थाय छे. अने संख्याता सागरोपमे नपशम चारित्र अथवा दायिक चारित्र पामे में एटले देशविरति पाम्या पली संख्याता सागरोपमे चारित्र पामे, ते पळी संख्याता सागरोपमे उपशम श्रेणीने पामे, ते पछी संख्याता सागरोपम जतां कपकश्रेणी पामे अने ते पनी तेज नवमां मोद थाय बे. ए प्रकारे देशविरतिने रहेवानो काल जघन्यथा अंतर्मुहर्तनो . अने उत्कृष्टथी देशे जणा पूर्व कोटीनो ने एवा प्रकारनी देशविरति जेने विद्यमान , ते देशविरति श्रावक कहेवाय ने ते श्रावकने वे प्रकारना कहेला . विरता अने अविरता. जेमणे देशविरतिपाणुं अंगीकार करेलु , ते आनंदादिक श्रावकोनी पेठे विरता श्रावको कहेवाय . अने जमणे दायिक सम्यकत्त्व अंगीकार करे, जे, ते अविरता कहेवाय . सत्यकि विद्याधर, श्रेणिक तथा कृष्ण वगेरे अविरता श्रावको हता. आ वीजा देशविरति प्रकाशने विषे जेमणे देशविरतिपाणं अंगीकार करेलु , एवा श्रावकोर्नु स्वरूप कहेवामां आवे . तेनु निरूपण करवा माटे प्रथम श्रावकनी योग्यताने दर्शावनारा तेना एकवीश गुणो कहे जे. "धम्मरयणस्स जुग्गो अखुदो रूबवंपगइ सोमो। लोगप्पिओ अकूरो नीरु असगे सदकिन्नो ॥ १ ॥ लज्जाबुओ दयाबू, मझत्यो सोमदिति गुणरागी। सकह सुपरकजुत्तो सुदीहदस्सी विसेसन्नू ॥२॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयप्रकाश. बुढ्ढाणगोविणीओ, कयन्नुओ परहियत्य कारीय । तह चेव लग्छ बरको गवीस गुणो हवा सट्ठो ॥ ३॥" १ धर्म रुप रत्न ने योग्य, एवो श्रावक अनुष एटले उंची जातनो अर्थात् सुखे करीने धर्मने जाणनार. २ रूपवान् एटने संपूर्ण अंग उपांगवाळो, मनोहर, सौम्य एटले सदाचारनी प्रवृति व जव्य लोकाने धर्मने विष गौरवपणुं उपजावनारो. अहीं कोई प्रश्न करे के, नंदिपण, हरिकेशी प्रमुख कुरूपवाळा हता,तेश्रोमां पण धर्मनी प्राप्ति सांनळवामां आवे छे. अने तमे तो रूपवाननेज धर्मना अधिकारी कहो नगे,तेनुं शुं कारण ?" तेना नत्तरमां कहे ने के, “ रूप वे प्रकारनुं . एक सामान्य रूप अने बोजु अतिशयवाळु रूप तेमां जे संपूर्ण अंगोपांगवालु रूप के जे नंदिषेण ने हतुं, से सामान्य रूप समजबु. अने जे केवळ शेष सद्गुण सदनावे कुरूपपणुं , ते कांड पण दोषवाळू गणातुं नथी. तेम अतिशायी रुप तो जो के तीर्थकरादिकनुंज संजवे ने तोपण जे रूपे करीने कोइ देशमां अने को काले अने हरेक वयने विषे वर्ततो एवो पुरुष 'आ रू. पवान् ' एम लोकोने प्रतीति जप्तन्न करे , तेज अहीं अधिकारी जाणवो एट्स ते अतिशय रूपमां तेवा श्रावकोने शास्त्रकारे गण्या के, एम जाणवू. ३ वळी प्रकृति सौप्य एटले स्वजावे करीने सौम्य-शीतळ आकृति वाळो जयंकर प्राकृतिवालो नही. तेवो सौम्य प्रकृतिवाळो विश्वास करवा लायक होय . एवा प्रकारना जीवो घणुं करीने पापव्यापारमा प्रवर्तता नथी अने तेश्रो सुखे कर। आश्रय करवा योग्य होय जे. लोकप्रिय आलोक तथा परलोक संबंधी विरुष्क कायोंने वर्जवाथी अने दान शीलादिगुणे करीने सर्व लोकाने प्रिय होय . एवो लोकप्रिय श्रावक सर्व प्राणीओने धर्म तरफ बहुमान नप्तन्न करावे . ५ अकर-एटले किशष्ट अध्यवसायवाळो न होय. जे क्रूर होय ते परना वित्रीने जावामां पर होय छे, तेथी नुं मन कबुषित रहे . माटे ते धर्मनुं अनुष्ठान आचरतो होय तोपण ते धमना आचरणना फळने मेळवी शकतो नथी. Jain Education Interational Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्री आत्मप्रबोध. तेथी अकरपणुं राख युक्त जे. ६ नीक एटले आलोक तथा परलोकना कष्टोथी नय पामनार शोलवाळो जे भीरु होय ते निःशंकपणायो अधर्ममां प्रवर्ततो नथी. ७ अशव-एटले निष्कपट आचारने विषे रहेनार. शाठ्यपणाथी वंचन, प्रपंचना चातुर्य वझे सर्व लोकोने अविश्वासनुं कारण थाय डे, तेथी अशउपगुंज राख युक्त . सदाक्षिण्य-एटग्ने दाक्षिण्यतायो युक्त पोतानुं कार्य डोमीने परकार्य करवामां रसिक हृदयवाळो एवो पुरुष सर्व लोकोने माननीय होय जे. ९ लज्जादु-प्राकृत शैलीवमे बजावातो ते अकृत्य सेवननी वार्ताथीज लज्जा पामी जाय . अने लज्जाने बस्ने पोते अंगीकार करेला सत् अनुष्टानना ते कदि पण त्याग करी शकतो नथी. १० दयानु-एटने मुःखी प्राणीोनुं रक्षण करवानो अनिवाषी. धर्म रूपी वृदन मूल दयाज . ११ मध्यस्थ. रागष रहित बुचिवालो, एटले सर्व ठेकाणे रागधेष रहित रहेनारो. तेवा पुरुष, वचन सर्व जगत्ने ग्रहण करवा योग्य थाय . १२ सौम्याष्टि-कोइने नग नहीं करनार. जेना दर्शन मात्रयी प्राणीओने प्रीति नत्पन्न थाय छे.. १३ गुणरागी-गांनीर्य, स्थैर्य प्रमुख गुणोने विषे राग-प्रीतिवालो. ते ते गुणोनो पक्षपाती होवायी सद्गुणाने बहु प्रकारे अंगीकार करे ने अने निगुणो-अवगुणो तरफ नपेक्षा करे जे. १४ सत्कय-मुगलयुक्त-सदाचारनो धारक होवाथी सद्वृत्तिना कहेनारा जे सहायो ते वझे युक्त. तथी ते कोइ पर तीथिोथी उन्मार्गे लइ जइ शकातो नथी. अहिं को आचार्य सत्कथ अने सुपच युक्त-एवा वे जुदा गुणो गणे डे, १५ सुदीर्घदर्शी-सांवा विचार करी सुंदर परिणाम वमे कार्य करनार, साहसथी के उतावळथी कार्य नहीं करनार. ते निश्चयथी पारिणामिकी बुछि मे आ लोकमां सार। परिणामवाना कार्योनो आरंज करे . Jain Education Interational Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयप्रकाश. १६५ १६ विशेषज्ञ-सारासार वस्तुना विनागने जाणनार, ते विशेषज्ञ कहेवाय जे. जे विशेषज्ञ न होय ते दोषने गुणपणे अने गुणने दोषपणे अंगीकार करे छे, तेथी विशेषज्ञ पाणु घणुंज शोजनिक ले. १७ वृक्षानुग-वृक्ष पुरुषोनी परिपक्क बुछिने अनुसारे चालनार. एटले गुण उपार्जन करवानी बुछिए वृकोने सेवनार. वृछोना वचनने अनुसरी चालनारो पुरुष कदिपण आपत्तिने पामतो नथी. ते संपत्तिनेज पामे बे. तेने माटे शास्त्रकार आ प्रमाणे लखे . " वृक्षवाक्यं सदामान्यं, प्रायश्च सुगुणैनरैः । पश्यहंसावने बघा, वृक्षवाक्येन मोचिताः॥१॥" गुणी पुरुषोए सर्वदा प्राये कररी वृधना वचनने मानवं. वनमां बंधाएला हंसो वृछना वचनथी मुक्त थया हता. १ १८ विनीत-विनयवालो. महान् पुरुषोनो विनय करनार. विनयथ। तत्काल झानादिकनी संपत्ति प्रकट थाय . १४ कृतऊ-करेखाने जाणनार-कदर जाण. ते वीजाए करेल आ लोक संबंधी उपकारने जाणे जे. तेने गोपवतो नथी. परोपकार गोपववाथी कृतघ्न थवाय ३. अने तेथी सर्वत्र निंदा पात्र बने डे. तेथी कृतज्ञ थवं युक्त जे. २० परहितार्थकारी-बीजाना हितने करनारा अर्थाने साधनार. अहीं कोइ शंका करे के, प्रथम सदाक्षिण्य ए गुणथी परहितकारीपाणु आवी जाय जे, तो पठी आ बीजी वार ते गुण शामाटे कह्यो ? ते बंनेमां शो तफावत ने ? तेना उत्तरमां कहेवायूँ के, सदाक्षिण्य ए दाक्षिण्यता करवानो गुण बे, पण ते बीजानी प्रार्थना करवाथी करवामां आवे छे अने आ परहितार्यकारीनो गुण तो स्वनावथीज जे. ते पुरुष प्रार्थना कर्या विना स्वनावधीज परहित करवामां प्रवर्ते जे. तेथी ते निरिच्छकचित्तपणे वीजाओने उत्तम धर्मने विषे स्थापित करे . १ तब्धनक-शीखवा योग्य आचरण उपर बद आपनार-पामनार. जाणे पूर्व नवे तेणे अभ्यास कर्यो होय, तेम ते अनुष्ठानने जाणे . तेवा श्रावकने वंदन तथा प्रतिलेखनादिक धर्म कृत्य सत्वर प्राप्त थाय बे. Jain Education Interational Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अन्त्यप्रबोध. ___ आ प्रमाणे एकवीश गुप्लोधी युक्त एवो श्रावक होवो जोइए. नपर कहेला एकवीश गुणवाला नव्य श्रावकने विषे देश विरतिपणानी योग्यता आवे वे. तेने माटे का डे के, " जे न खमंति परीसह, जयस्तयाण सिणेह विसय नोभेहिं। सव्वविरई धरले, ते जुग्गा देस विरइए " ॥१॥ ___“जे प्रत्याख्यानावरणी कषायना उदयवाला जीवो परिपह जय, स्वजन स्नेह, अने विषय लोचना कारणो बमे सर्व विरति धारण करवाने समर्थ नथी, तेश्रो देशविरतिने योग्य होय बे." १ अहिं कहेवानुं तात्पर्य ए ले के, उत्तम धर्मनी सामग्री प्राप्त करी विवेको पुरुषोए प्रथमथी सर्व विरतिनो आदर करचो. पण जेओ दुधा, तृषा, निदाने सहन करवा तथा मन धाराणादिक परिषहोने खमवा नीरू , तेमज अत्यंत प्रीतिपात्र एवा माता पिता, स्त्री, नादि स्वजनोनो त्याग करी एकाकी रहेवाने असमर्थ डे अने पूर्वना गुपयोगे प्राप्त करेला जियोना विषयोने छोमवा अशक्त , तेओने सर्व विरति वश्वाने उत्साह करती नथी. “ सर्व प्राणीओ ज्रष्ट न थाओ, सवनो नाहा गत जेवा तेको लाज मळे ते पण श्रेयकारी " एम चिंतवी तेमणे देशविर तिनो अंगीकार करवो जोइए जो नपर कहेला स्वरूपवाला प्रतिबंधक कारणोनी अनाव होय तो सर्व विरति अंगीकार करवी उत्तम छे. तेने माटे आवश्यक बागीमई कई छ के, “ विसयसुह पिकासाए, अहवा बंधवजणाणुराएण। अञ्चयंतो वावील परिसहे दुस्सहे साहिउं ॥ १ ॥ जन कर विसुद्धं समां अश्करं तवचरणं । तो कुजा गिहिवरमा नवजो होइ धमस्स" ॥२॥ "जे विषयनी समाधी अथवा स्वजनना अनुरागथी बावीश परिपहोने सहन करवाने समर्थ न थर झके. लेगज शुद्ध चारित्रने नाचरी शके अने अति दुष्कर तपने न करी ना. तो तणे गृहस्थ बसने आदरखी, जेथी ते धर्म वर्जनिक न थाय. १--३ Jain Education Intemational Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयप्रकाश. अने आवा देशविर तिने अंगीकार करनारा श्रावको जवन्य, मध्यम एम ए प्रकारना बे. तेने माटे कयुं जे के 64 आहि थूलहिंसा मजामंसाई चाओ । जहन्नो सावो वृत्तो जो नमुकारधारो ॥ १ ॥ धम्मजुग्गगुणाइन्नो कम्मो वारसा । गिहथ्यो सुनायारो सावग्रो होइ मक्किमो ॥ २ ॥ नक्कोसेणं तु सट्टान सचित्ताहार बजियो । एकासगो बभयारीतदेवय || ३ || " " जे श्रावक प्रयोजन बिना स्थल हिंसादि करे नहीं, मद्य, मांसादिक अजय वस्तुनो त्याग करे, नमस्काररूप महा मंत्रने धारण करे अने दररोज नवकारसीनुं पच्चखाए करे ते जघन्य देशविरति श्रावक कहेवाय छे. जे श्रावक धर्मने योग्य एवा गुद्योथी युक्त होय के निरंतर आवश्यक आचरे छेने वार व्रतने अंगीकार करे छे ते सदाचारवान गृहस्थ मध्यम श्रावक hear a. जे श्रावक सर्वदा सचित आहारने बजे थे, निरंतर एकासादिक करे छे, ने ब्रह्मचर्य पाले ले ते उत्कृष्ट श्रावक कहेवाय बे. " "हवे वार व्रतरूप लक्षणवाळु देशविरतिनुं स्वरूप निरूपण करवाने प्रथम बार व्रतना नाम पे बे." 64 १ प्राविध, २ मृपावाद, ३ अदत्तादान, ४ मैथुन, ए परिग्रह, थकी स्थूलपणे विरमवारूप पांच अत तथा ६ दिशिपरिमाण, ७ जोगोप जोगमान, अनर्थदं विरमण - पुत्र गुणत्रत तथा ए सामायिक, १० देशाकाशिक ११ पोप अने १३ अतिथि संविभाग ए चार शिक्षावतए सर्व मळी वारव्रत कहेवाय ले क के. १६७ उत्कृष्ट पाहि मुसावा दत्त मेहण परिग्गढे चैव । 'दिसि जोगदं सम देसे तपोसह विभागो |१| ૧૨. 19 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ श्री आत्मप्रबोध. अहीं आ प्रमाणे नावतां सम्यक्त्वना लाज पनी गृहस्थ प्राणातिपातादिना आरंजनी निवृतिथी सद्गति पामवारुप गुणोने जाणता सता बारव्रत ग्रहण करे . ते बारव्रतमां सर्व सारजूत प्राणीवधनी निवृत्ति , तेथी तेने जैन शासनमा प्रथम कहेलु . पाणीोना वधथी विरमवू, ते प्राणिवध विरमण अथवा प्राणातिपात विरमण-अहिंसाव्रत कहेवाय जे. जीव अव्यतुं अमूर्तपणं जे, माटे तेनी हिंसा थवी अयोग्य जे, तेथी सर्व प्राणीओना दश प्राणनो विनाश करवो, ते हिंसा कहेवाय जे. तेने माटे बख्यु डे के, "पंचेंजियाणि त्रिविधं बलं च नच्छास निःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते नगवझिरक्तास्तेषां वियोगी करणं तु हिंसा॥१॥" __“पांच इंडियो, त्रण , श्वासोच्छास अने आयुष्य ए दश प्राण जगवंते कहेला , तेमनो वियोग करवो, ते हिंसा कहेवाय छे. ?" ते पाणनो वियोग न करवो ते रुप जे नत ते अहिंसा व्रत कहेवाय बे. जैन धर्मर्नु मूल जीवदया बे, तेथी सर्व व्रतोने विषे अहिंसा व्रतने प्रथम गणवामां आवेवं डे. तेने माटे क[ डे के"श्कंचित्र इत्थवयं निदिई जिणवरेहिं सव्वहिं। पाणाश्वाय विरमणं अवसेसा तस्स रकहा" ॥१॥ सर्व जिनवरोए जिन शासनमां प्राणातिपात विरमण ए एकज व्रत कहेढुं जे. बाकीना जे वीजावतो कहेला बे, ते पेहेला व्रतनी रक्षाने माटे . १ ।। आ संपूर्ण वीश विश्वा प्रमाण वाळी दया साधुओने होय जे अने श्रावकोने सवा विश्वा प्रमाण दया होय जे. तेने माटे कयु ने के, "थूला सुहमा जीवा संकप्पारंजओ अ ते ऽविहा । सावराह निरवराहा साविकाचेव निरविका ॥१॥ सूक्ष्म अने वादर एवा जीवना वे नेदर्थी प्राणि वध बे प्रकारनो के. तेमां बेइंडिय प्रमुख स्थूल बादर कहेवाय अने एकैशिय सूक्ष्म बादर कहेवाय जे; कारणके, तेमनो शस्त्रादि प्रयोगे करी वध थवानो अनाव . Jain Education Intemational Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयप्रकाश. १६९ हवे गृहस्थोने तो स्थूल बादर प्राणातिपातथी निवृत्ति था शके पण सूक्ष्म प्राणातिपातथी निवृत्ति था शके नहीं, कारणके तेमने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रमुखथी पचन पाचनादि समस्त क्रियानी प्रवृत्ति रहेली . एवी रीते स्थावर जीवनी हिंसानो नियम न होवाथी वीशमाथी दश विश्वा अपगमे एटले तेमने दश विश्वा दया रहे . स्थूल प्राणिवध संकल्प अने आरंज-एम बे प्रकारनो छ. 'हुं मारु' ए प्रकारे मनमा जे संकल्प थाय ते संकल्पथी प्राणिवध कहेवाय जे. खेतीवामी तथा घर प्रमुखनो जे आरंज, तेमा प्रवर्तवू, ते वोजो आरंजथी प्राणिवध कहेवाय बे. तेमां संकल्पथी स्थूत्र प्राणिवधमांथी निवृत्त थy, ए गृहस्थथी बनी शके , पण आरंनथी निवृत्त थर्बु, ए बनी शकतुं नथी. जो आरंजथी निवृत्त थवा इच्छा राखे तो तेना शरीरनो अने कुटुंवादिकनो निर्वाह था शके नहीं; तेथी आरंनोत्पन्न हिंसानो अनिषेध थतां दश विश्वामांथी पांच विश्वा दया अपगमे एटले बाकी पांच विश्वा दया रही. हवे जे संकटपथी वध , ते पण वे प्रकारे जे. सापराध अने निरपराध. तेमां जे सापराध चौर, जार पुरुष वगेरेनो वध संकटपथी वर्जी शके नहीं अने निरपराधनो वध संकल्पथी वर्जी शके, एम सापराध हिंसानो नियम न होवाथी पांच विश्वा दयामांथी अढी विश्वा दया अपगमे एटले बाकी अढी विश्वा दया रही. हवे निरपराध वध , ते सापेक्ष अने निरपेक्ष एम वे प्रकारे . तेमां अपेक्षा एटले शंका तेनाथी युक्त ते सापेक्ष शंकास्थान कहेवाय ने अने तेथी जे विपरीत एटले अपेक्षा रहित ते निरपेक्ष कहेवाय . तेमां गृहस्थ श्रावक सापेक्ष हिंसा वीं शकतो नथी, निरपेक्ष हिंसा वर्जी शके . जेम को राजाना अधिकारी श्रावके वार व्रत अंगीकार कर्या होय ते पोताना धर्मनो जाण होवाथी तेने शंका रहे , तेथी कोइ निरपराधी पुरुष होय तोपण तेने वधनो निषेध करी शकतो नथी अने राजा अथवा को शत्रुना पुत्रनो पण अपराध छतां वध अटकावी शकतो नथी, तेथी सापेक्ष हिंसाना न वर्जवाथी अढी विश्वा दयामांयी सवा विश्वा दया गइ पटने बाकी सवा विश्वा दया रहे बे; तेथी गृहस्य श्रावक सवा विश्वा दया पाळ। शके उ. तन माटे कयु डे के " साहु वीसं सट्टे, तस संकप्पा वराह साविके । २२ Jain Education Interational Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० श्री आत्मप्रबोध. अद्धद्धओ सवाओ, विसोअओ पाण अश्वाए " ॥१॥ साधुने वीश विश्वा दया ने अने श्रावकने आरंज, सापराध अने सापेदपणे थावर जीव हणावाने बीधे सवा विश्वा दया . १ अहीं कोई प्रश्न करे के, नियमित स्थानथी वीजा स्थानमा श्रावक पोतानी इच्छा प्रमाणे जीववध नले करे, तेमां को जातनो दोष नथी. तेना उत्तरमां कहे जे के त्रस जीव वगेरेथी जुदा एवा स्थावरादिकने विषे श्रावकोनी यतना होय , पण निर्दयता होती नथी. ए नावार्थ समजवानो ने. “ में तो संकल्पथी निरपराधी त्रस जीवना वधनु पच्चखाण करेलं छे, वीजानुं कर्यु नथी" आ प्रमाणे चिंतवी श्रावक पृथ्वी काय वगेरेनु, तथा आरंजथी त्रसादिक- निःशंकपणे उपमर्दन करे नहीं अने जो निर्वाह थतो होय तो बनता सुधी स्थावरादिकनुं पण उपमर्दन न करे. कदि निर्वाह न थाय तो, ते विचार करे के, “ आ साधु ओने धन्य बे, के जेओ सर्व प्रकारना आरंजयी मुकाया , अने हुं तो महारंजने विषे मग्न थइ पड्यो बु. हवे हुँ एमांथी कयारे मुक्त थश." आम दयार्थी चितवी शंका सहित तेने विष प्रवर्ते जे. तेने माटे कह्यु के, " वजा तिव्वारनं कुण अकामो अनिव्वहतोय । गुण निरारंनजणं दयाबुओ सव्वजीवेसु” ॥१॥ आ गाथानो अर्थ उपर आवी गयो . ___ वली कोइ कहे जे के, अनियमित--अप्रत्याख्यात वस्तुने विषे शी यतना होय ? आम बोलQज न जोइए. कारणके, यतना शिवाय प्राणातिपात विरमण व्रतना फलनो अनाव थाय . वली जे व्रत ले ते पुण्यने माटेज आदरथी कराय, पोताना उच्चारेला निर्वाहने माटे करातुं नथी. अने वली ते पुण्य मनना परिणामथीज थाय . जो स्थावरादिकने विषे निर्दयपणुं थाय तो पठी सर्व ठेकाणे तेवु निर्दयपणुंज होवू जोइए. कारणके, जीवपणुं सर्व ठेकाण समान , माटे ज नहीं पचखाण करेला स्थावरादिकने विषे पण यतना करवी जोइए. ते विषे कडं ने के, Jain Education Intemational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयप्रकाश. "जं जं घर वावारं कुणइ गिही तथ्थ तथ्थ आरंजो । आरंभेविहु जयणं तरतम जोएण चिंते” ॥ १॥ " गृहस्थ जे जे घरना काम करे , त्यां त्यां आरंज रहेलो , पण श्रावक ते आरंभने विषे तरतमना योगे करी यतना करे ." ? ___ अल्पारनथी जे कार्य साध्य होय, तेमां महारंज करे नहीं एटले बहु सावध कर्मने त्यजी अटप सावधने आचरे ते तरतम योग कहेवाय ने. हवे अन्वय अने व्यतिरेकथी दयानुं शुनाशुजपणुं दावे . “ यो रक्षति परजीवान् रक्षति परमार्थतः स आत्मानम् । यो हंत्यन्यान् जीवान् स हंति नर आत्मनात्मानम्॥१॥ जे वीजा जीवोनी रक्षा करे , ते परमार्यपणे पोताना आत्मानी रक्षा करे छे अने जे बीजा जीवोनी हिंसा करे , ते पोताने हाथे पोताना आत्मानीज हिंसा करे . १ अन्वय अने व्यतिरेकयी दयानुं फल. हवे अन्वय अने व्यतिरेकथी दयानुं फल कहे . सुख, सौजाग्य, बल, आयुष्य, बुधि, कांति, अने लक्ष्मी, आदि जे फलो , ते दयाना फलो. बहु रोग, शोक, वियोग, उर्वळता अने भय, वगेरे हिंसाना फलो . उपलदाणथी संपत्ति, स्वर्ग, वगेरे जे रमणिक छे, ते दयाना फन डे अने नरकादिकमां पम्वा रुप ते हिंसाना अनिष्ट फल . आ प्रमाणे समजी लेवं. प्रथम व्रतनुं दृष्टांतथी वर्णन. “जे य संसार सुखं मोक्तुमिच्छति जंतुणो । अणुकंपापरा निच्चं सुत्रसुव्व हवंति ते ॥ १ ॥" जे प्राणोअोने आ संसारमाथी उत्पन्न ययेवा सुःखया मुक्त थवानी इच्छा होय, तेमणे मुलसनी जेम अनुकंपा-दयामां तत्पर थर्बु. १ सुनसर्नु वृत्तांत. राजगृह नगरीमां कालकसूरियो नामे एक कसाइ रहतो हतो.ते पोतानी Jain Education Intemational Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्री आत्मप्रबोध. झातिना पांचसो घरमां मोटो हतो. तेने सुत्रस नाम एक पुत्र हतो. तेने अजयकुमार मंत्रीनो समागम थइ आव्यो. आथी ते दयाधर्मने माननारो श्रावक थइ गयो. सुनसनो पिता कालकसूरियो दयाधर्मथी तदन रहित हतो. ते हमेशा पांचसो पामानो वध करतो हतो. राजा श्रेणिक तेने अटकावतो तोपण अजव्यपणाने लाने ते तेवा निंद्य काममाथी निवृत्ति पाम्यो नहीं. अंते ते मोटा उग्र पापथी जरेला पिंमवालो कालक उष्ट वेश्याना योगयी मृत्यु पामी सातमी नरके गयो. ज्यारे ते मृत्यु पाम्यो एटले तेना झाति जनोए तथा कुटुंबीओए आवी मुत्रसने कह्यु के, "हवे तुं तारा पिताना पदने ग्रहण कर अने कुटुंवर्नु जरणपोषण कर." सुलसे जवाब आप्यो के, "ते शी रीते करूं ? " त्यारे कुटुंबीओए कह्यु के, कुलक्रमथी चालता आवेला रीवाज प्रमाणे दररोज पांचसो पामाअोने मार अने तेमांथी उत्पन्न ययेक्षा अव्यथी अमारुं नरण-पोषण कर." कुटुंबीओनां आवां वचन सांनळी सुलस बोल्यो-" अरे ! कुटुंबीओ, एवी मोटी हिंसा करी उपार्जन करेलुं धन तमे खाओ अने तेनाथी नत्पन्न थयेद्धं पाप मारे एकने जोगववं पमे, ए केम बने ? " सुलसनां आवां वचन सांजळी ते कुटुंबीओए जणाव्यु के, “जो एम होय तो अमे बधा तारा पापने वेहेंची लइए." आ समये पोताना कुटुंबीओने प्रतिबोध आपवाने माटे सुत्रसे एक कुहवामीनो घा करी पोतानो पग जरा बेदी नांख्यो अने तेनीपीमाथी पोते आक्रंद करतो बोल्यो, " मने नारे वेदना थाय , माटे तमे वधा मारा कुटुंबीओ आ मारी पीमाने वेंहेची व्यो." तेनां आ वचनो सांनळी कुटुंबीओए कह्यु, " नाइ सुत्रस, वेदना वेंहेची लेवानुं सामर्थ्य अमारामां नथी." मुझसे कहा, ज्यारे तमारामां तेटलं सामर्थ्य नयी तो नरकना हेतुरुप अनेक पामाओना वधथी उत्पन्न थयेला मारा पापने तमे शी रीते -हेची शो ?" सुनसनां आ वचन सांजळी सर्व कुटुंबीओ मौन धरीने बेशी रह्या. पर। सुत्रस पोताना कुटुंबीओने बोध आपी प्राणीना वधथी निवारी सद्व्यवहारथी तेमनुं पालन करवा लाग्यो. ते यावज्जीवित शुध श्रावक धर्मने पाळी मृत्यु पाम स्वर्गे गयो हतो, एवी रीते पहेबा अहिंसा व्रतना आराधन उपर सुलसनुं दृष्टांत कहेवाय . एव। रीते बोजा नव्यजीवोए पण उत्तम धर्मनु मूळ अने सर्व Jain Education Intemational Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयप्रकाश. १७३ अर्थी सिद्धिने अनुकूल एवं ए व्रत प्रयत्नवमे सेववं. तेने माटे जावनानी गाथा या प्रमाणे छे ८८ धन्ना तेन मणिज्जा, जेहिं मणवयणकायसुद्धीए ॥ सव्वजियाणं हिंसा, चत्ता एवं विचितिजा " ॥ १ ॥ " जेमणे मन, वचन अने कायानी शुकिए करी सर्व जीवनी हिंसा बोमी बे, मन धन्य बे ने तेयो नमस्कार करवा योग्य बे, एम चिंतववं." १ naess वीजं स्थूल मृषावाद विरमण व्रत. मृषा एटले असत्य वचन, तेनाथी विरमनुं निवृत्ति थवं, ए वीजं मृषावाद विरमण व्रत कहेवाय बे. ते व्रत कन्यालीक वगेरेनी निवृत्ति करवारुप बे. तेने माटे कहे बे 66 कन्नागो भूअली, नासावहारं च कूमस स्किज्जं । थूलमली पंचद, चइए सुहुमंपि जहसत्ति " ॥ १ ॥ " ति स्थूल वस्तु संबंधी एटले अति दुष्ट अध्यवसायथी उत्पन्न ययेल अलीक (जु) मृषावादनो पांच प्रकारे त्याग कहे े. ते पांच प्रकार आ प्रमाणे बे. कन्यालीकं १ गवालीकं २ जुवलीकं ३ न्यासापहारः ४ कूटसादिकं च ५ ॥ निर्दोष कन्याने पण 'आ विष कन्या बे' एम कहेतुं, ते कन्यालीक कहेवाय बे. बहु दूधवाली गायने थोमा दूधवाली कहेवी, अने थोडा दूधवाली गायने बहु दूधवाली कहेवी, ते गवालीक कहेवाय छे. पारकी जमीनने पोतानी कहेवी ते जुबलीक कहेवाय बे. उपलक्षणयी तेवी रीते द्विपद (मनुष्य) चतुष्पद (पशु) ने अपद ( सर्पादि ) वगेरेनुं अलीक जाए। लेवें. प्रश्न करे, जो तेम उपलक्षणथी समजवानुं होय तो सर्व संग्रहादिपदादिक ग्रहण कम न कर्यु ? तेना उत्तरमां कहे बे के लोकोमां Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्री आत्मप्रबोध. कन्यादिक अतीक अति निंदनीय गणाय ने, माटे ते वर्जवाने अर्थे तेनुं मुख्यपणे ग्रहण करेलुं , तेयो तेमां कांइ पण दोष नथी. न्यास एटले थापण तेना अपहार एटले ओळववी, ते न्यासापहार कहेवाय छे. आ न्यासापहार अदत्तादान- रुप था शके जे, पण ओळववा रुप वचन- प्रधानपणं होवाथी, तेने मृपावादमां गणेलं . लांच वगेरेना लोनथी अथवा मत्सर नाव वगैरे पराजवपणायी प्रमाण करेला द्रव्यने अन्यथा रीते स्थापन कर, जेथी खोटी सादी पूरवी पमे ते कूटसाविप' कहेवाय . आ नेदमा पारका पापने दृढ करवापणुं होवाथी पूर्वना नेदथी तेनुं जुदापणुं ने एटले चोथो अने पांचमो नेद जुदो जे. एवी रीते स्थून मृषावादने दर्शावी हवे गृहस्थने माटे सूक्ष्म अलीकनी यतना कहे जे. एटले गृहस्थे स्थूल मृषावादनो त्याग करवो अने सूक्ष्म मृषावादमां यतना करवी, सूक्ष्म एटो अपवस्तु संबंधी मृषावाद तेनो यथाशक्ति त्याग करवा यत्न करवो. अर्थात् जो निर्वाह चाले तो सूक्ष्म मृषावाद पण बोलवू नहीं, अने निर्वाह न चाले तो तरतम योगथी यतना करवी. कहवानो आशय एवो डे के, थामाथी निर्वाह थतो होय तो वधारे मृपा बोलवू नहीं. ते सत्य व्रतनो प्रभाव आ प्रमाणे जे, ते कहे - " जे सच ववहारा, तेसिं उट्ठावि नेव पहवंति । नाश्कमति आणं ताणं दिव्वाइं सव्वाइं" ॥ १॥ जे सत्यवादी , तेमने उष्ट पुरुषो पण कष्ट आपवाने समर्थ थता नथी अने सर्व दिव्यो तेमनी आज्ञानु अतिक्रमण करी शकता नथी." १ ते विषे श्री कालिकाचार्य अने दत्तपुरोहितनी कथा कहेवाय ने,ते त्रीजा प्रकाशमां कहेवाशे. तेम वनी का छे के, - " जलमग्निटि कोशो विषं माषाश्च तंडुलाः । कादं धर्मः सुतस्पों :दिव्यानां दशकं मतम् " ॥१॥ Jain Education Intemational Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. धर्म, 46 जल, अग्नि, शत्रु, कोश, विष, माप ( अमद ), तंडुल, काल, सुतनो स्पर्श-ए दश दिव्य कहेवाय छे. " १ ए रुप सर्व दिव्यो मनी आज्ञानुं उल्लंघन करता नथी. ते आज्ञा आ प्रमाणे बे. " हे जल, तुं मने मुबामीश नहीं. " " हे अग्नि, तुं मने वाळीश नहीं. " इत्यादि आज्ञाओ जाएवी. सत्यनुं प्रतिपक्ष सत्य बे, तेने निंदे बे. " वयणम्मि जस्स वयणं, निच्च मसच्च वढे वच्चरसो । सुद्धीए जलन्दाणं, कुणमाणं तं हसंति बुहा " ॥१॥ १७५ जेना मुखने विषे सर्व जगतने अनिष्ट ने अपवित्र एवो असत्य वचन रुप विष्टार निरंतर ह्या करे बे ते पुरुष शुद्धिने माटे जलमां स्नान करे छे, तेने जो पंति पुरुषो इसे बे. " १ कवानो आशय एवो बे के पुरुष असत्य वचन बोली निरंतर पोताना आत्माने मलिन करे बे ने मात्र त्वचा उपर रहेला मळने पखाळवा जलथी पवित्र थवा इच्छा राखे छे, ते तेनी केवी सूर्खता कहेवाय ? ते विषे वीजा मतवापण या प्रमाणे कहे बे. 66 चित्तं रागादिनिः क्लिष्टमली कवचनैर्मुखम् । जीवघातादिभिः कायो, गंगा तस्य पराङ्मुखी " ॥१॥ जेनुं चित्त रागादिकथी क्लेशवाल बे, असत्य वचनोथी मुख लिप्ट थयुंबे, अने जीवहिंसा वगेरेथी काया क्लिष्ट यह बे, तेवा पुरुषथी गंगा विमुख थाय बे. " १ " सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिंद्रिय निग्रहः । सर्व नूत दया शौच, जलशौचं च पंचमम् ॥ १ ॥ "" 66 सत्य वचन बोलवं--सत्य रीते चालवं, ए पेहेलुं शौच बे; तप आचखं, ए बीजं शौच ; इंडियोनो निग्रह करवो, ए त्रीजं शौच छे; सर्व प्राणी मात्र Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अत्त्मप्रवोध. नपर दया राखवी, ए चोयुं शौच ने अने जलनुं शौच-ए पांचमुं शौच जे." १ ___अहिं सर्व प्रकारना शौचने विषे सत्यता ए प्रधान , माटे तेनुं प्रथम ग्रहण करेलु डे अने जल शौच ए बाह्य वृत्तिपणाथी रहे, चे, माटे तेने बेलु गणेलु जे. ते विषे कह्यु ने के," मुयत्तणंपि मन्ने, सारं सारंजवयणसत्तीओ। निम्ममणं चियवरं, जलंत अंगार सिंगारा” ॥ १॥ " असत्य नाषणवाला अने मर्मने उघाडवादि पाप सहित एवा वचनसंबंधी जे शक्ति, तेनायी मुंगापणुं वधारे सारं , ते जपर दृष्टांत आपे ने के, धगधगता अग्निना अंगारार्थ। शरीरनो जे शृंगार करवो तेना करतां आनूषणनो अनाव होय ते सारो बे. १" आ कहेवानो आशय एवो डे के, जेम शरीरनी शोना माटे करेलोअंगारानो श्रृंगार नवटो दाहादि अनर्थना हेतुरुष , तेम पोतानी निपुणताने माटे आरंजेलं असत्य वचन नलटुं नरकादिकने विष पामनारं थाय बे-अनेक दुःखोर्ने कारण बने बे, तेनाथी मुंगापणु उत्तम डे. आ बीजं मृषावाद त्याग रूप व्रत पाट्या अणपाढ्यानुं फल देखाडे छे. " सच्चेण जिओ जायक्ष, अप्पमिहय महुर गहिर वर वयणो । अतिएणं मुहरोगी, हीणसरो मम्मणो मूओ" ॥१॥ ___ सत्यवत वझे जीव आलोकने विषे विश्वास तथा यश- पात्र थाय ने अने परलोकने विषे अप्रतिहत, मधुर अने गंजीर प्रधान एवा वचनोने बोलनारो थायजे. अप्रतिहत एटने वज्रनी पेठे कोठेकाणे स्वलना न पामे तेवू, मधुर एटले परिपक्क सेबमीना रसना पान जेवू, गंजीर एटले जल सहित मेघनी गर्जनानी पेठे अने प्रधान एटले स्पष्ट अदरवालुं मनोहर; एम समजबु. पली असत्य वचन बोलवाथी आलोकने विषे अविश्वासनुं तथा उराचरणनुं नाजन थाय डे अने परलोकने विषे मुख रोगी, हीन स्वरवालो अने मन्मन बोलनारो मुंगो थाय . जे बोलता उतां स्खलित थाय ते मन्मन कहेवाय जे. आ Jain Education Intemational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. व्रत वाणीना विषयवाद्धं होवाथी तेन फल पण वाणीना विषयमांन कहेढे . नहीं तो आ व्रत विराधना रहित पालबाथी स्वर्गादिकनुं फल होय जे अने विराधना सहित पालवाथी नरकादिकनुं फन होय डे, एम समजवू. आ व्रतने माटे व्यतिरेकवझे दृष्टांत कहे जे" दप्पेण अत्रियवयणस्स जफवंतंन सकिमोवोत्तुं । दक्षिणात्रिएण विगओ, वसू सत्तमं नरयं " ॥१॥ " पोताना मतनी स्थापनाना गर्वथी-आग्रहथी जे अलीक बोलवू, एटले जिनमत विरुष्क जाषण करवू, तेनुं फल आ अनंतानंत संसारमा भ्रमण करवारूप थाय ले. तेने कहेवाने उद्मस्थ अने प्रमाणोपेत आयुष्यवाला समर्थ थइ शकता नथी. दाक्षिण्यातीक ए शब्दनो एवो अर्थ के, दाक्षिण्य एटले गुरु तथा स्त्रीना अनुरोधना हेतुथी जे अलीक एटखे असत्य कहेवं ते. ए रीते बोलेला असत्य वचनथी ज्यारे उर्गति थाय ने तो पड़ी अनिमान वो कहेला असत्य वचनथी के नगरुं फल थाय ? ए दाक्षिण्यात्रीकथी वसुराजा सातमी नरके गयो हतो." वसुराजानी कथा. माहबदेशमां शुक्तिमती नामे नगरीने विष अजिचं नामे राजा हतो. तेने वसु नामे एक पुत्र हतो. तेज नगरमां जिनमतथी वासित हृदयवाला हीरकदंबक नामे एक उपाध्याय वसे . बालवयथी मितना जेवा आचारवालो अने सत्यवतमां रक्त वसुकुमार तेमनी समीपे विद्याच्यास करतो हतो. ते वखते पर्वतक नामनो उपाध्यायनो पुत्र अने एक नारद नामनो विद्यार्थी पण तेज नपाध्याय पासे जणता हता. ते बंने वसुकुमारना सहाध्यायी हता. ___एक दिवस आ त्रणे विद्यार्थीओ अज्यासनो श्रम बागवायी प्रांगणानी भूमिमां सूता हता, तेवामां तेमना गुरु वीरकदंबके आकाशमाथी को चारण ऋपिना मुखथी आ प्रमाणे वाणी सांगली-" जे आ आंगणानी नूमिमां त्रण विद्यार्थीयो सुतेला छे, तेश्रोमांधी एक उच्च गतिने पामशे अने बे नरके जशे." प्रा वाणी सांजली उपाध्याय कीरकदंबके पोताना मनमां विचार्यु के, चारण Jain Education Intemational Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्री आत्मप्रबोध. " 46 मुनिना मृषा हो । नय।. तेयी आ त्रणेमां नरक गाम। वे कोण बे ? अने सद्गतिने पामनार कोण बे ? तेनी परीक्षा करूं. अने ते परीक्षा दयालुपणाथी थइ शकशे. प्रमाणे विचार करी ते चतुर उपाध्याये आटाना त्रण कुकडा बनाव्या. कुकमा बनावी ते त्रणे शिष्योने एक एक कुकको आप्यो. अने धुंके, " हे शिष्यो, तमारे कोइ पण न देखी शंकै एवे स्थले ज‍ आ कुकमाने हणी नांखवो. " गुरुनी आवी आज्ञा थवाथी वसुने पर्वतक बनए जुदा जुदा एकांत प्रदेशमां जड़ निर्दयपणाथी ते पिष्टना कुकमाने मारी नांख्या. पेल्लो त्रीजो शिष्य नारद ते कुकमाने एकांते लइ ज‍या प्रमाणे विचार करवा लाग्यो – “ गुरु मोने या जयंकर काम करवानी आज्ञा केम करी हो ? वा निरपराधी प्राणीने कयो पुरुष हशे ? वळ । तेमणे कयुं बे के, ज्यां कोइ न देखे तेवे स्थळे कुकमाने मारजो. " गुरुतां आवां वचन उपरथी मनो प्रिय एम जगाय बे के, या कुकमाने मारवोज न जोइए. कारण के, गमे तेवा एकांतमां जइए, तो त्यां कुकको तो जुबे छे, अने हुं पण जोडं बुं. अने ज्ञानीओ पण जुवे बे. ज्यां कोई देखतुं नथी, एवं स्थान कोइ बेज नहीं. तेथी हुँ एम मानुं हुं के, गुरु दयालु होवार्थ । तेमणे अमारा शिष्योनी परीक्षा करवा माटे या हुकम करेलो बे. " या विचारी ते नारदे कुकमाने मार्यो नहीं. ते पछी ते नारद शिष्य पोताना गुरुन पासे आव्यो. तेणे कुकमाने न हणवानो हेतु कही संजळाव्यो. ते शिष्यनो वृत्तांत सांजळी गुरुए नारदनी ऊर्ध्वगति थवानो निश्चय कर्यो अने अतिशय संतुष्ट थने नारदनी प्रशंसा करी. तेवामां पेक्षा वसु पर्वत बने कुकमाने हणीने आव्या ने तेम पोतानो वृत्तांत गुरु समीपे जाव्यो. गुरुए " तमे पठित मूर्ख बो, " एम कही तेमने धिक्कार आप्यो. अने गुरुपोताना हृदयमां अतिशय खेद पामी गया. गुरुए ते बखते पोताना हृदयमां विचार्य के, मारा जेवो गुरु मल्या बतां आ वने शिष्यो नगरी गतिए जाय तो पछी तेमां मारुं शुं माहात्म्य ? अथवा जेनु आयुष्य दी थइ गयुं बे, एवा पुरुपने मोटो राजवैद्य होय तो पण ते शुं करी शके ? उंचा प्रदेशमां मेघ वृष्टिनी जेम ए बने शिष्योने जाणावा करेलो मारो श्रम निष्फळ थयो. दवे नरकनी पीमाना कारण रुप एवा या गृहना आरंजनी शी जरुर बे ? " आवो विचार कर ते कीरकदंबक उपाध्याये संसारनो त्याग करी Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. चारित्र अंगीकार करें. ते पछी पर्वतक तेनी पाट ऊपर बैठो हतो. पेलो नारद शिष्य के जे शास्त्रनो महान् वेत्ता हतो, ते पोतानी इच्छा प्रमाणे त्यांथी बीजे स्थले चाढ्यो गयो. राजा अभिचं पण दीक्षा ग्रहण करी. ते पीतेन कुमार वसु राज्यासन ऊपर बेो वसु नीतिथी राज्य करतो हतो ते सत्यवादीपणाथी आखी पृथ्वी ऊपर प्रख्याती पाम्यो हतो. ते कदि पण मृषावाद बोलतो नहीं. एक समये कोइ एक निल्ल विंध्याचल पर्वतनी 66 - मां फरतो हतो. तेथे एक हरिण ऊपर बा बोमयुं. ते वाण स्खलना पामी बच्चे पकी गई; हरिणने वस्तु नहीं. आधी आर्य पामी ते निल पोतानुं वाण व्यर्थ थवानुं कारण शोधवा लाग्यो. तेनुं कारण शोधतां एक आकाशमां स्वच्छ स्फटिक शिला तेना जोवामां आवी. तेने पोताना हायनो स्पर्श कर्यो. ते वखते ते शिलानी नीचे आसपास पेला मृगने चरतो जोयो. ते जोतांज जिले विचार कर्यो के, “ मारुं वा स्खलना पाम्युं, तेनुं कारण आ शिलाज बे. आ अति स्वच्छ निर्मल शिला वसुराजाने योग्य बे. " आवुं विचारी ते निल बानी रीते वसुराजा पासे आव्यो अने तेने शिलानो वृत्तांत को. ते ऊपरथी वसुराजा ते जलने धन आप ते शिक्षा ग्रहण करावी. पत्री वसुए एक सारा कारीगर पासे ते शिलानी वेदिका करावी तेने एकांते गोठवी अन ते ऊपर पोतानुं सिंहासन स्थापित कर्यु. शिलाना प्रभावथी ते सिंहासन प्रकाशमां रहूं. ते वखते लांको कहेवा लाग्या के, " वसुराजाना सत्यना प्रजावथी आ सिंहासन आकाशमां रह्युं छे. अने या राजाना सत्यथी देवताओ पण तने सेवे छे. एक वखते नारद प्रीतिथी पर्वतकने घेर आव्यो. ते वखते ते पर्वतक ब्राह्मणोनी सामां ऋग्वेदनी व्याख्या करतो हतो. ते वखते " यजैर्यष्टव्यं एवं सूत्र आ. पर्वतके तेनो एवो अर्य कर्यो के, “ वोकमाथी यज्ञ करवो. " वसंत ते सांजळी नारद बोल्यो. "प्राः शांतं पापं” " युं. " पछी तेणे पोताना हाथ वमे कान ढांकीने कर्छु, शुं बोले बे ? " आपण उपाध्याये तो 'अज' शब्दांना अर्थ वर्षनी जुन । शाल एवा को बे. पर्वतकने ते सांच्ळी गुरुना कहेला ते अर्थनुं स्मरण थइ व्यं परंतु समीप रहेला लोकोना मनमां पोताना अविश्वास न ऊपजे एवा " अरे पाप शांत 46 जाइ, प्रांतिथी आ १७९ "" Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० श्री आत्मप्रबोध. 66 इरादाय ते गर्वित थने बोल्यो. “ अरे नारद, तुंज भ्रांतिमां पड्यो बे; तेथीज तुं मने जांतिवाले कहे बे. कारण के, 'मेष' शब्दना कहेनारा गुरुनी निघंटु ग्रंथनी साक्षी बे. " नारदे कहुँ, शब्द वे प्रकारनो छे. एक मुख्य अर्थने कहेनारो बीजो गौण अर्थ कहेनारो". तेथी" नजायंते इति प्रजाः "" न उत्पन्न थाय ते 'अज' कहेवाय. या प्रकारे व्युत्पत्ति करी गुरु 'अज' शब्दनो गौण अर्थ कहेलो बे; पण ते मुख्य अर्थ नथी. बुद्धिमंतोने निघंटुनो कल शब्दार्थज प्रमाण बे, एम मानीए तो पत्नी गुरु शा माटे करवा ? माटे हे पर्वतक, धर्मोपदेशक गुरु आ धार्मिक श्रुतिनो लोप करे तो ते पोताना वे लोकनो' लोप करे छे. " नारदनां आ वचनो सांजळी पर्वतक गुस्सो करीने बोल्यो - " नारद, वो फोगट शब्दवाद शा माटे करे छे. आपणे बने ते विषे पण लइए. जेनो पक्ष जुगे वरे तेनी जिद्दानो छेद करवो. अने आपणा प्रमाणपणामां वसुराजाने राखो. ते जणेला ; तेथी ते जे कहे ते आपले प्रमाण कर. " पर्वतकनां आ वचन सांजळी 'पोतानो पक्ष सत्य छे' एवं दृढताथी माननार नारदना मनमां कांइ पण कोन थयो नहीं. तेणे ते वात कबुल करी. पत्र । ते कोइ कार्य माटे नगरमा गयो. पाउळी पर्वतकनी स्नेहाळ माताए पुत्रनुं एवं जारे पण जाणी आ प्रमाणे कयुं, " वत्स, तें तारा आत्माने नाश करनारुं पण कर्तुं बे; कारण के, में पण तारा पिता पाथी सांजळ छे के, अजा एटले व्रीहि-जुनी मांगर समजवी. ते शिवाय बीजो अर्थ तेनो थतो नथी; तेथी हजु पण नारदने बोलावी तारा असत्य वचनने अंगीकार कर ने तेने खमाव. गर्व ए जेम रोगनुं मूल - बे, ते सर्व चिनुं मूल बे. तेनो परिहार कर. " मातानां प्रवचन सांभळी पर्वतक बोल्यो - " माता, एमां शो जय राखMarata ? मरन जय राखवो ए घटित नथी. जे प्राणी जन्म्या बे, ते अवश्य मरवानाज बे. हवे तो जे थवानुं होय ते थाय पण जे बोढ्या तेमां फरवानुं नथी." पुत्रनां वां वचन सांजळी पोताना पुत्रनी आपत्ति दूर करवा माटे १ आ लोक अने परलोक २ प्रतिज्ञा. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. १८१ वसुराजानी पासे आवी. वसुराजाए प्रणाम करी ते मातानो कुशल प्रश्न पुरवा वगेरेथी सत्कार कर्यो. पठी ते विनीत राजाए जणाव्युं, “ माता, आजे अहीं पधारी तमे मारी उपर मोटी कृपा करी जे. आपना आगमन- कारण शुं ? आपनी शी इच्छा ? ते जणावो." माताए चिरंजीव ' नी आशीष पापी आ प्रमाणे कडं, " राजा, हुं मारा पुत्रने जीवतो जोर्ड, एवं करो." वसुराजा आचर्य पामीने बोल्यो-" नसे, तमारो पुत्र मारो गुरुनाइ, तेम वळी मारा गुरुनो पुत्र होवाथी ते मारो गुरु ठे, तो तेनो पेषी कोण थयो रे ? तेनुं नाम आपो. " माताए कह्यु, " तेना पोताना मुख शिवाय तमारा गुरुनाइनो बीजो कोइ देषी नथी." आटलं कही तेणीए पोताना पुत्रना विवादनो सर्व वृत्तांत कही संजळाव्यो. पठी तेणीए वसुराजाने प्रार्थना करी के, " तमारे मारा पुत्रना वचनने सत्य करवू." तेणीनां आवां वचन सांजळी वसुराजाए कह्यु, “ जजे, हुं को दिवस कोइ पण वखते मिथ्या वचन बोलतो नथी; तो खोटी सानीमां अने गुरुना वचनने उलटुं करवामां हुं मिथ्या केम बो? ए माराथी कदिपण बनवानुं नथी". तेणीए विनंति पूर्वक जणाव्युं, " नाइ, आवो विचार करशो नहीं, जीवरदानुं पुण्य तमोने थाओ. अने मृषा बोलवायी थयेळ पाप मने लागो." आ प्रमाणे तेणीए तीव्र आग्रहथी की, एटने वसुराजाए ए वात मान्य करी. बीजे दिवसे प्रातःकाले वसुराजा सनामां आव्यो, ते वरखते पेला नारद अने पर्वतक वाद करतां करतां राजानी सभामां आव्या अने तेमणे ऊंचे स्वरे पोतपोतानो पक्ष वसुराजा आगन निवेदन कर्यो. ते समये सनामां बेठेला मध्यस्थ दृष्टिवाळा सज्य लोकोए वसुराजाने आ प्रमाणे कडं, " महाराजा, आ पृथ्वी आपनाथीज सत्यवती कहेवाय . आपे बाल्यवयथी कदि पण सत्यव्रतनो त्याग कों नथी. सत्य व्रतना प्रभावथी देवताओ पण आपना सेवक था आपना सिंहासनने आकाशमां धारण करी राखे बे, तेथी हे सत्यना समुज महाराजा, ते सत्यवाणीथी आप आ बनेना वादने शमाव द्यो." सत्य बोकोए आ प्रमाणे कर्तुं तो पण जेनी बुधि नष्ट थयेबी ने एवा वसुराजाए पोताना सत्यव्रतनो नंग करी कडं के " गुरुए 'अज' शब्दनो अर्थ 'मेष'बकरो एम कडं जे." आ प्रमाणे राजाए खोटी साही आपी. आ वखते Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. "श्रा वसुराजा मलिनान्मा , ते मारा निर्मल स्वरुपने अधःपात करे छे, एवो जाण रोष उत्पन्न थयो होय, तेम ते स्फटिकनी शिक्षा तत्काल फाटी गइ. अने कोपायमान थयेला देवताओए वसुराजाने सिंहासन ऊपरथी पानी नांख्यो. आ वखते नारदे कहां, " अरे धर्मभ्रष्ट राजा, तारुं मुख जोवा योग्य नथी." आ प्रमाणे तेनी निंदा कर नारद त्यांथी चाती नोकळ्यो. ते वखते लोकोए पेला पर्वतकने का के, “ हे मूढ, तें आवा गुप्त अने मलिन विचारथी आ शुं कर्यु ? आ प्रमाणे लोकोनी निंदा थवाथी ते पर्वतके मानभ्रष्ट था ते नगरनो त्याग करी दीधो. ते पी वसुराजाने राजदेवीए पेटमा प्रहार कयों, तेथी ते मृत्यु पाम) असत्यनी सहायथी सातमी नरके गयो हतो. ते पनी वसुराजानी गादी ऊपर जे पुत्र वेसे तेनो राजदेवी नाश करवा लागी. अनुक्रमे राजदेवीए तेनी पीना आठ पुत्रोने मारी नांख्या हता. कहुं जे के, “यो यः सनुरूपाविषयत् पट्टे तस्यापराधिनः । स स देवतया जघ्ने यावदष्टावनुक्रमात्" ॥१॥ " ते अपराधी वसुराजानी पाट (सिंहासन) ऊपर जे जे पुत्र वेसता, तेने देवताए मारी नांख्या हता. अनुक्रमे एवी रीते आठ पुत्रो मार्या हता." १ . आ वात पद्म चरित्रादिकमां कहती नथी, तो तेमां तत्त्व शुं छे ? ते तो केवली जाणे. ते विषे एम पण कह्यु के, " न जुक्त माजन्म कदापि नुक्तमते विषं हंति यथा मनुष्यम् । कदाप्यनुक्ता वितथा तथा गीतावसाने वसुमाजघान"॥१॥ ___“जन्म पर्यंत न खाधेनुं विष पण जो एक वार खावामां आव्युं तो ते मनुष्यने हणे जे. तेवी रीते वसुराजाए कदि पण असत्य वाणी कही न हती, पण एक वार असत्य वाणी कही तो तेणीए ते वसुराजानो नाश कर्यो हतो.?" एवी रोते वीजा अणुव्रत ऊपर वसुराजानी कथा कहेवाय . श्रा प्रकारे मृषावादनो विपाक सांजळी सर्व जव्य जीवोए तेनो परिहार करवा तत्पर थq. तेम थवाथी सर्व प्रकानी इष्ट सिक प्राप्त थाय , तेने माटे आ प्रमाणे नावना - Jain Education Intemational Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. १८३ “ योपि अलोय वयणं जे न हु नासंति जीवितेवि । सच्चे चेवरयाणं तेसिं नमो सव्व साहूणं ॥ १ ॥” “जे जीवितनो अंत थाय तो पण थोकुं खोडं पण बोले नहीं अने जे सत्य बोलवामां तत्पर रहे, तेवा सर्व साधुग्रने मारो नमस्कार हो." त्रीजुं स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत. (C स्थूल एवं अदत्तादान एटले नहीं आपेल वस्तुनुं ग्रहण कर, तेनाथ विराम पाम, ते स्थूल अदत्तादान विरमण नामे त्रीजुं अणुव्रत कदेवाय बे. ते सचित्तादि स्थूल वस्तुनी चोरी न करवारुप डे. तेने माटे कर्तुं बे के - तइय वयंमि वइज्जा, सचित्ताचित्त स्थूल चोरिजम् । तिणमाइ त तेणिय, मेसो पुरा मोतुमसमत्थो ॥ १ ॥” " श्रीजातने विषे सचित्त-अचित्त स्थूल चोरीने वर्जं. केमके, तृण वगेरे सूक्ष्म वस्तुनी चोरीने मुकवाने ते असमर्थ छे. " १ सचित्त एटले पद (मनुष्य) चतुष्पदादि अने चित्त एटले सुवर्ण, रुपुं वगेरे. उपलक्षणथी आभूषण, वस्त्र वगेरेनुं ग्रहण कर. तेनो स्थूलपणे त्याग करवो. स्थूलपणे स्थूल बुद्धिथी. चारनो व्यपदेश हेतुपणाथी पण जाणवो, तो पी मनीशी वाती ? ते या प्रमाणे- तृण-वासनी सळी, बोढानी रुळी, नदीनं जल, वनना पुल, बांगा, ईला वगेरेनी सूक्ष्म चोरीनो त्याग करवाने गृहस्थ असमर्थ छे, कारण के, तेवी वस्तुओ सीधा शिवाय गाय वगेरेना निर्वाहनो जाव थाय बे. तेवी सूक्ष्म वस्तुनी चोरीनो त्याग तो सूक्ष्म है 'टवाळा पुरुषो करी शके छे. ते स्थूल चोरी जेटला प्रकारे त्याग करवा योग्य बे, ते कहे बे- “ नासीकयं निहिगयं, परियं वीसारियं ठि पर अत्थं दीरंतो, नित्यं को विलासे थापण मुलुं, दाटेलं, पभी गयेलुं, वीसराइ गयेलुं, धणी मरी जवाथी को ग्रहण न करेल तथी नष्ट थयेयुं - एवं परजव्य हरण करी पो नवं । ॥ १ ॥” Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ श्री आत्मप्रबोध. तानी सर्व संपत्तिने उत्पन्न करवाने समर्थ एवो क्यो पुरुष पोताना पुण्य रुप अव्यनो विनाश करे ? कोइ पण न करे. वळी ते परजव्यने हरवाथी मात्र त्रीजा व्रतनो जंग थाय ने, एम नथी पण तेथी पेहेला व्रतनो पण जंगथाय छे, ते वात जणावे . " जंपइ ममत्ति जंपश्, तं तं जीवस्स बाहिरा पाणा । तिण मित्तंपि अदिन्नं, दयानुओ तो न गिण्हेइ ॥१॥" जे सचित्त-अचित्तादि वस्तुने माटे प्राणी एम कहे के, 'आ मारी वस्तु , ' ते वस्तु ते प्राणीना बाहेरना प्राणरुप जे. एटले प्राण बाह्य अने आज्यंतर-एम बे प्रकारना जे. जे श्वासादिक ते आत्यंतर प्राण के अने जे ममत्वना कारणरुप सुवर्णादि ते बाह्य प्राण जे. ते नन्जय प्राणनो नाश करवो ए प्राणनोज नाश कयों कहेवाय जे. बाह्य प्राणनो नाश पण घणां सुखानुं कारण था पो छे. ते उपरथी दयालु श्रावक के जणे पेहेला व्रत वझे पाणी वधना पञ्चखाण करेल जे, तेणे एक तृण मात्र पण अदत्त वस्तुने ग्रहण करवी न जोइए. आ गाथार्नु ए रहस्य जे. जे पेहेला गृहस्थने अदत्त एवा तृण वगेरे ग्रहण करवानी आज्ञा मुकी जे, ते मार्गादिकने विषे धणी वगरना तृणादिकनी अपेक्षाए छ. अहिं तेनो जे निषेध डे ते धणीवाला पदार्थनी अपेक्षाए जाणी ले. वीजाए संचय करेल तृणादिक ग्रहण करवा नहीं. ते अदत्त कवाय जे. तेने ग्रहण करनार चौर वध, बंधनादि प्राप्त करे छे, अने तेथी कुलनी कीर्तिने कलंक लागे जे तेथी बीजाए ग्रहण करेल तृणादिक अदत्तने गृहस्ये ग्रहण कर नहीं. - जे विचार रहित चित्तवालो पुरुष चोरी करीने लक्ष्मीनी श्छा करे , तेने आश्रीने कहे जे" कुन कित्तिकलंककरं चोरिजं माकरेह कश्यावि ।। इह वसणं पञ्चरकं संदेहो अत्यवानस्ल ॥ १ ॥ काऊण चोरवित्ति, जे अबुहा अहिलसंति संपत्तिं । विषनकणेण जीवियमिच्छंता ते विणस्संति ॥ ३ ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. १०५ चोरी कुलनी कीर्त्तिने कलंकित करनारी , तेथी हे नव्य, तुं कदिपण चोरी करीश नहीं; कारणके तेथी आ नवमां कारागृहमां निवास, वध, बंध अने हाय, नाक तथा पगने कापवा वगेरे घणां दु:खो प्रत्यक्ष आवी पसे ने अने तेमां वली परमव्यनी प्राप्तिनो संदेह के, एटले ते मले अथवा न मले तेवी शंका जे.१ जे मूर्ख लोको परजव्यनी चोरी करीने संपत्तिनी इच्छा करे , ते विषतुं नक्षण करी जोववानी इच्छा करे , पण तेश्रो उलटा विनाशने पामे . उपर कहेला बक्षणोथी व्यतिरेक रीते ( उलटी रीते ) वर्तनाराओनी प्रशंसा करे . "ते धन्ना सप्पुरिसा, जेसिं मणो पासिऊण परभूई। एसा परजू चिय, एवं सकप्पणं कुण” ॥१॥ "जे पुरुषो पारकी संपत्तिन देखी" ते संपत्तिने बेवाथी ते वध बंधादिकर्नु कारण थाय ने अने तेनाथी उलयलोकमां परानव थाय , " एवो संकल्प करे जे, ते पुरुषोने धन्य छे. तेओने पुण्यवान् समजवा. तेओ पर संपत्तिने पराजवरुप जाणे एटले तेनाथी सर्वदा दूर रहे ."? चोरीना फळो कहे जे. "वहबंधरोह मच्चू, चोरिजालं हवंति इहलोए । नरय निवाय धणकय,दारिदाइं च परलोए "॥१॥ ___"चोरी करवाथी वध, बंध, रोध, अने मृत्यु आलोकमां थाय ने अने परलोकमां नरकमां पात, धननो दय अने दारिद्र वगेरे थाय डे." ? ___ अही वध एटले बाकमी वगेरेनो प्रहार, बंध एटले दोरी, सांकळ वगैरेनुं बंधन तथा रोह एटने कारागृहमा वास अने मृत्यु एटले शिरच्छेदनादिक जाणq. अदत्तादानना त्यागर्नु दृष्टांत सहित फल आ प्रमाणे - "ज इत्थ जण पसंसाइ परनवे सुगमाइ होइ फलो। मुक्के अदत्तदाणे तं जायं नागदत्तस्स॥१॥ Jain Education Intemational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. "अदत्तादाननो त्याग करवायी आ नवमां लोकोनो प्रशंसा अने पर नवमां सुगति वगेरे फल प्राप्त थाय जे. ते अदचादानना त्यागयी नागदत्तने शुन फळ प्राप्त थयु हतुं. ते स्वरूप तेनी कथाथी जाणी लेवं." नागदत्तनी कथा. वाराणसी नगरीमा जितशत्रु नामे राजा हतो. ते नगरमां धनदत्त नामे एक शेठ रहेतो हतो. ते शेग्ने धनश्री नाम एक स्त्री हती. तेणीना उदरयी नागदत्त नामे एक पुत्र उत्पन्न थयो हतो. नागदराने वाव्यवययो सद्गुरुनो योग थइ आव्यो. आथी तेणे जैन धर्मने अंगीकार कयों हतो. अनुक्रमे गुरुनो उपदेश सांजळी ते आ संसार उपरथी विरक्त थयो हतो. तेणे गुरु पासेथी अदलादान विरमण व्रत ग्रहण कर्यु हतुं. जो के बीजा व्रतो पण तेणे अंगीकार कर्या हता, तथापि अदत्तादान विरमण व्रतमां ते विशेष चुस्त हतो. एक दिवसे ते नगरना नगरशेउनी नागवसु नामनी कन्या जिनपूजा करवा माटे जिनालयमा जती हती. रस्तामां पेस्रो नागदत्त तेणीनी दृष्टिए पमयो. तेने जोतांज ते बाळा तेना रूपमां मोहित थ गइ. तत्काल तेणीए चिंतव्यु के, " मारे आ जवमां आ नागदत्तज जता थाो." आ प्रमाणे निश्चय करी ते वाला पोताने घेर आवी अने ते पोताना चिंतित अर्थने पिता पाले निवेदन कराव्यो. पोतानी पुत्रीनो आयो निश्चय जाणी तेणीनो पिता नागदत्तना पिताने घेर गयो अने तेनी आगळ पोतानी कन्यानो अनिग्रह जणाव्यो. ते शेव ते वात मान्य करी. पठी नागदत्त के जे पा सांसारिक जोगनी इच्छा राखतो नथी तो पण पिताना आग्रहथी तेने मान्य कर पम्यु; पछी नागदत्तनी साथे ते नगर शेग्नी पुत्री नागवसुनुं वेवीशाळ-विवाह करवामां आव्यो. ते पड़ी एवं बन्यु के ते नगरना कोटवाळे एक वखते नगर शेउनी कन्याने जोइ ते उपरथी मोहित थप तेणे नगरशेउनी पासे पोताना माणसो मोकली ते कन्यानी मागण। करी. नगर शेठे तेना माणसोने कह्यु के, " कोटवाळने कहो के, आ कन्या धनदत्त शेषना पुत्र नागदत्तने आपी दीधी जे. तेथी हवे बीजाने आपवा हुं समर्थ नथी. नीतिशास्त्रमा कां ने के, “सकृत् कन्या प्रदीयते " "कन्या एक वारज अपाय Jain Education Intemational Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. १८७ जे." शेषना आ वचनो ते माणसोए कोटवासने कह्या तेथी कोटवाल कोपायमान थइ गयो; त्याग्थी ते नागदत्तना निजीनी गवेषणा करवा लाग्यो. एक दिवसे राजा एक अतिचपन घोमा नपर बेसी रयवामी फरवा नीकट्यो. दैवयोग राजाना कानमाथी कुंमत पडी गयु. राजा नगरमा आवतां तेने पोताना कुंमननी खबर पमी एटले तेणे पोत्रीसना माणसो धारा आखा नगरमां ते कुंमलनी गवेषणा करवा मांझी, पण कोइ स्थले कुंमसनो पत्तो लाग्यो नहीं. ते अवसरे नागदत्त जिनालयमा दर्शन करवा जतो हतो. तेणे मार्गमा कुंमल पमेनु जायु. पोते अदत्तादानना पञ्चखाण करेला तेथी तेणे ते कुंमतलीधुं नही. तत्काल ते जिनालयमां जश्प्रनुनी पूजा करी तेमनी समीपे ते कायोत्सर्ग करीने रह्यो. आ वखते दैवयोगे पेलो कोटवात्र त्यांावी चमयो. पमेय् कुंमझतेना जोवामां आव्यु. ते लइ देरासरमां गयो. त्यां नागदत्तने कायोत्सर्गे रहेलो जोयो. लाग आवेतो जाणी ते दुष्ट बुछिए नागदत्त उपर कलंक लगामवाने ते कुंमल तेना कानमा पेहेरावी दीधुं. अने पछी तेने गाढ बंधनथी बांधी राजानी पासे हाजर को. राजाए तेना कानमा प्रत्यक्ष कुंमत्र जोइ 'आ चौर ने ' एवो निश्चय करी तत्काल कोप पामी तेनो वध करवानो कोटवाळने हुकम कर्यो. कोटवाल पोतानी धारणा सफळ थयेली मानी खुशी थयो. पठी ते कोटवाल नागदत्तने चोरना जेवी विटंबना करतो बांधी शहेरमा फेरववा लइ गयो. ज्यां नगरशेउनी पुत्री नागवसु पोतानी हवेलीना गोखमां बेची हती, ते गोख नीचे थइ नागदत्तने काढवामां आव्यो. पोताना शुक्छ श्रावक जारनी आवी अवस्था जोइ हृदयमां खेद पामती नागवसु बाला श्री जिनमतनी लघुता निवारवाने अने पोताना जारना संकटनो नाश करवाने तत्काल बेठी थइ पोताना गृह देरासरमां आवी त्यां शासनदेवीनुं स्मरण करी, 'ज्यारे आ अकार्य नाश पामशे त्यारे हुं कायोत्सर्ग पारीश" एवी मनमा धारणा करी ते बाला धर्मध्यान धरती श्री जिनप्रतिमा आगळ काजस्सग्ग ध्याने उन्जी रही. अहिं कोटवाल नागदत्तने लश् स्मशान भूमिमां आव्यो. त्यां तेने शूळी उपर चमाव्यो, तेवामां शूली नांगी गइ. पुनः चकाव्यो, त्यारे पण पाळी नांगी. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ श्री प्रात्मप्रबोध. एम ऋण वार नांगी तोपण निर्दय कोटवाले तेने पागे चमान्यो, तेवामां श्री जैन धर्मना मनावथी शासनसुरीए करेली सहाय वमे ते शूलीने ठेकाणे एक सुंदर सिंहासन थऽ गयु. पडी पुष्ट कोटवाने ते नागदत्त उपर खाना प्रहार करवा मांड्या, तो ते प्रहार पुष्पनी मालारुपे परिणम्या. आ देखाव जोइ लोको विस्मय पामो गया. तेमणे जश्ने राजाने आ चमत्कारी वृत्तांत कह्यो. ते सांगली अति आश्चर्य पामेलो राजा ते स्थले आव्यो. त्यां तेणे नागदत्तने सुवर्णना सिंहासन उपर बैठेलो विलोक्यो. तेना अंग उपर अनेक आभूषणो रहेला जोवामां आव्या. तत्काल राजा प्रसन्न थइ गयो अने नागदत्तनी आगल पोतानो अपराध खमावी तेने मोटा गजें उपर बेसारी महोत्सव पूर्वक नगरमा प्रवेश कराव्यो. नागदत्तने विषे धर्मनो प्रनाव जो लोको श्रीजिनधर्मनी प्रशंसा करवा लाग्या. पेनी नागवसु तेवा आनंबरवाला नागदत्तने पोतानी हवेतीना गोख पासे नीकलतो जोइ घणी खुशी थर अने तेणीए ग्रहण करेला कायोत्सर्गने पारी दीधो. ते वखते कोटवाले नागदत्तनी उपर खोटं दूषण आप्युं हतुं, एवो निश्चय थवाथी राजा तेनी उपर घणो रोषातुर बनी गयो. तेणे कोटवालतुं सर्व अन्य लइ सीधुं अने तेने जानथी मारवानी आझा कररी. आ समये दयाने विषे जेनुं हृदय तत्पर के एवा नागदत्ते राजाने विनंति करी ते कोटवालने जीवतो रखाव्या. ते पली नागदत्त पोताने विषे नागवसु कन्यानो तात्त्विक प्रेम जाणी माता पिताए करेला महोत्सव पूर्वक शुनलग्ने तेणीने परएयो. ते पड़ी तेणीनी साथे चिरकाळ पर्यंत सांसारिक सुख जोगवी अंते सद्गुरु समीपे तेणे दीक्षा ग्रहण करी. ते सम्यक् प्रकारे संयमनी आराधना करी समाधि पूर्वक काल करी देवपदने प्राप्त थयो हतो. आ प्रमाणे त्रीजा अदत्तादान विरमण व्रतने विषे नागदत्तनी कथा कहेवाय . ते उपरथी सर्व जव्य आत्माओए सर्वथा अदत्तादाननो त्याग करवो. ते व्रतनी जावना आ प्रमाणे - " णमविचिंतेअव्वं, अदिन्नदाणा निच विरयाणं । समतिणमणिमुत्ताणं, नमो सया सव्व साहणं" ॥१॥ "जेश्रो अदत्तादानथी नित्य विराम्या ने अने जे प्रो तृण अने मणिमोतीने तजी देनारा डे एवा सर्व साधुओने सदा नमस्कार ." ? Jain Education Intemational Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश चोयुं स्थूख मैथुन विरमण व्रत. हवे चोथु स्थूल मैथुन विरमण व्रत कहे जे. स्थूल एवं मैथुन एटले स्थूलपणे कामसेवन, तेनाथी विराम पामवं, ते चोयुं स्थूल मैथुन विरमण व्रत कहेवाय जे. अर्थात् परस्त्री वगेरेनो त्याग करवा रुप ते व्रत ने. ते आ प्रमाणे“ ओरालिय वेनविय, परदारासेवणं पमुत्तणं । गेहिवए चनत्थे, सदारतुदि पवजिजा" ॥ १॥ ___" औदारिक अने वैक्रिय परस्त्रीनुं सेवन मुकीने गृहस्थ चोथा व्रतने विषे स्वदार संतोषना व्रतने ग्रहण करे ." ? ___ अहिं औदारिक अने वैक्रिय एवी परनी-पोतानाथी जुदानी अर्थात् मनुष्य, तिर्यंच अने देवतानी-मनुष्यनी परणेली, अथवा ग्रहण करेली-राखेली वगरे स्त्रीओ तथा तिर्यचणी अने देवीओ, तेमनुं सेवन, तेनो त्याग करी गृहस्थ चोथा व्रतने विष स्वदार संतोष अंगीकार करे एटले परस्त्री तथा वेश्याने वर्जी पोतानी स्त्रीमां संतुष्ट था रहे. अहिं प्रश्न करे ने के, श्रावकोने वैरादि दोषने उत्पन्न थवाने सीधे परदारानो संसर्ग करवो युक्त नयी; ए तो ठीक, पण जे वीजी स्त्रीओ नदीना जलनी पेठे सर्वने साधारण होय डे, तेमनो उपनोग करवामां शो दोष ?" तेना उत्तरमां गुरु कहे जे--" एम न कहो. कारण के, तेवी स्त्रीनो उपजोग पण सर्व पुराचारोनी शिवानुं मून्न होवाथी आलोक तथा परलोकमां महा मु:खनो हेतु डे, तेयी तेनो सर्वथा त्याग करवो युक्त छे. कडं डे के," जंपति महुर वयणं, वयणं दंसंति चंदमिव सोमं ।। तहवि न विससियव्वं, नेह विमुक्काणवेसाणं " ॥१॥ " वेश्या स्त्री सुलक्षणा स्त्रीनां जेवां साकर साथे मळेला दूधनी समान मधुर वचन बोले . चंमा जे सौम्य वदन देखामे छे, तोपण ए स्नेहहीन वेश्याओनो विश्वास करवो नहीं." ? " मा जाणह जह मन, वेसाहिश्र सममणुहावं । Jain Education Intemational Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० श्री आत्मप्रबोध. सेवासबद्धपत्थर, सरिसं पमिणेण जाणिहर्सि" ॥१॥ " हे जीव, तुं वेश्याना हृदयना मधुर आलापने कोमल न जाण, पण सेवालथी बांधेला पत्थरना जेवं कठोर जाण." ? ते वेश्याओना अनासेवनने दृष्टांत पूर्वक देखा - " तह अम्मा पिन मरणं, सोउणं एहं रायपुत्ताणं । मणसावि न माणिज्जा, उरहिणिं वेसाउ वेसाओ"॥१॥ "बे राजपुत्रोए पोताना माता पिताना मरणने सांनळीने मनमां पण वेश्याने उष्ट अध्यवसायवाली मानी नहीं." १ __ आ गाथानो आशय एवो ने के, कोइ वे राजपुत्रोए पोताना माता पिताना मरणना खबर सांजच्या तोपण तेमणे वेश्याने खराब जाणी नहीं. उपन. क्षणथी पोतानी स्तुतिनिंदा अने पुःखनी प्राप्ति सांजलीने वेश्याना उष्ट अध्यवसाय माटे तेमना मनमां कांश पण आव्युं नहीं. ज्यारे मनमां पण कांश न थयु तो पठी वचन अने कायानी वात शी करवी ? ते बंने राजपुत्रोनो वृत्तांत शांतिनाथचरित्रमा आपेल . बेराजपुत्रोनो वृत्तांत. आ जरतक्षेत्रने विषे रत्नपुर नामे एक नगर के. ते नगरमां सोळमां ती. र्थकरनो जीव होवाथी महा प्रनाविक श्रीपेण नामे राजा हतो. ते अति अनूत सौजाग्य अने जाग्यथी विभूषित हतो. तेने अनिनंदिता अने नंदिता नामे वे स्त्रीओ हती. ते बंने राणीओने बे कुमारो थया हता, ते बंने कुमारोने उपाध्याय समीपे जणाव्या हता, परंतु चित्तना उर्निवार्यपणाने लइने अने कामदेवना पुर्जयपणाने बस्ने ते बंने कुमारो गुरुना शिक्षणने नीरस मानी, पोतानी प्रसिद्धिनी अवगणना करी अने बजाना समुज्नुं उबंधन करी ते नगरमा रहेनारी अने रुपथी देवांगनाने पण जितनारी एक अनंगसेना नामनी गणिकाने विषेष रक्त थया. आ वातनी जाण थतां तेना पिताए ते बंने कुमारोने एकांते बोलावी आ प्रमाणे शीखामण आपी. “ हे कुमारो, तमे आ यौवनवयमा शुं आचरण करो हो ? Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. ११ आना जेवुं महत्ताना जंगनुं बीजुं कोई कारण नथी, के जेयी पोतानी विवाहित प्रेमवती कुलीन स्त्रीओनो त्याग करी स्वार्थी अने निःस्नेह एवी वेश्याने विषे तमे प्रीति बांधो बो. " इत्यादि पिताए तेमने शीखामण आपी तोपण तेमना मनमांनी कां पण असर थइ नहीं. तेप्रो उलटा चाबुकना प्रहारने नहीं गएनारा अश्वनी पेठे तोफानी ने बंधनस्थान जेणे तोमी नांख्युं बे एवा मदोन्मत्त हाथीनी पेठे स्वेच्छाथ वेश्यानी साथे विशेष विलास करवा झाग्या. एक वार एवं बन्युं के, ते बने एक वेश्या रुप वस्तुना अभिलाषी होवाथी तेमनामां परस्पर द्वेष उत्पन्न थइ आव्यो. ते कटीबद्ध था हाथमां खम लइ जाणे वैरी होय म निर्लज्जपणे कलह करवा लाग्या. आ खबर राजाना जाणवामां आव्याथी तेना हृदयमां घणो परिताप थइ आव्यो. तेथे तेमने सुधारवा माटे घणा उपायो कर्या पण ते जरा पण सुधर्या नहीं. जाणे असाध्य व्याधिए ग्रस्त थया होय अथवा his ras पिशाचे बल्या होय, तेम बनी गयेला ते कुमारोने माटे सुधारवाना उपायनी शक्यता जाली आखरे ते राजाए पोतानी वे राणीओ साये काल - कूट र खाधुं थी ते त्र मरणने शरण थइ गया. ते बने कुमारो पर - स्पर युद्ध करतांने लोकोमां निंदाता महा दुःखना जाजन थया हता. या उपरथी नव्य जीवोए वेश्यानुं व्यसन के जे दुःखे त्यजी शकाय तेवं बे, तेम जाली ते कर नहीं. उत्तम श्रावके परस्त्रीने विषे कायनो संसर्ग न करवो जोइए. ते तो सदा स्वदार संतोषना व्रतमां रहे जोइए. जो एम करवामां न आवे तो कामपानी प्राप्ति थाय छे अने ते कामांधपणुं श्रावकने अनुचित छे. तेने माटे कहे छेके, - " कामं कामंधेणं, न सावरण कयावि होयव्वं । देह धण धम्मस्कयकारिणीहि कामं मि अगिद्धी” ॥१॥ 44 “ काम - विषयमा अभिलाषथी धनी जेम जेनी विवेकरुपी दृष्टि नाश पामी बे, ते कामांध कहेवाय बे. उत्तम श्रावके तेवा कामांध थवं न जोइए. कामांपण कामने विषेोलुपताने लइने धर्म, देह अने धननो दय थाय बे. " १ आ प्रमाणे कामांधपणामां दोषाने जाणी गृहस्थे अत्यंत आसक्ति न राखवी. आ शीलनुं स्वरुप पुरुषोने पोतानी स्त्रीमां पण श्रीने कढेलं ने, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्री आत्मप्रबोध. हवे स्वीओने आश्रीने कहे - “जह नारीओ नराणां, तह ताण नरावि पासनूयान । तम्हा नारीओ विहु, परपुरिसपसंग मुज्झति " ॥१॥ " आ लोकमां संयम रुप बाहागमां विचरता पुरुषरुपी मृगोने स्त्रीओ तेमनी सद्गतिमा जवामां विघ्नरुप, पाशरुप थाय -तेवी रीते स्त्रीओने पुरुषो पाशरुप थाय . कामदेव जनय अंशे अवलंबीने रहेल , एटले स्त्री तथा पुरुष बनेमां ब्यापीने रहेल , तेथी शीलना अनिवापी पुरुषो परस्त्रीना संगने वर्जे ."१ एवी रीते स्त्रीओ पण पोताना पति शिवाय अन्य पुरुषोनी साथै प्रसंग, गुप्त वार्तालाप, एकांते वास, मुखदर्शन अने मन्मन आलाप वगेरे कामोद्दीपक परिचयनो परहरे ले. ब्रह्मव्रतनो आदर करती स्वीओए-पोताना जरिने वर्जीने सामान्य रीते बीजा पुरुष मात्रनो त्याग करवो. ___ हवे सुशील अने उःशीलनो अंतर वे गाथाथी कहे जे" ते सुर गिरिणोवि गुरू, जेसिं सीवेण निम्मलाबुद्धी। गयसीलगुणे पुण मुण, मणुए तणुए तिणाओवि ॥१॥ वग्याश्या जयाद, उदाविजिया न सीलवंताणं । निय छायंपि निररिकय, सासंका हुँति गयसीला" ॥२॥ " जेमनी बुछि शीलगुणे करीने निर्मल , ते पुरुषो मेरुपर्वतथी पण मोटा के केमके, मेरुपर्वतर्नु लङ्ग योजनप्रमाण ने अने ते पुरुषोना यशनुं त्रण लुवनने विषे व्यापकपणुं ने अने जे पुरुषो शीलगुणे रहित , तेओ तृणथी पण लघु . तृण लघु होवाथी तेने वायु लइ जाय अने तेथी ते पर्वत पाषाण वगरेमां स्लखना पामतुं रहे जे अने कुशीन पुरुष घणां संचित करेला पुष्कृतवमें मेरायेलो सतो आ त्रण नुवनने विषे नमतो कोइ ठेकाणे पण स्थिरता पामतो नथी; तेथी कुशील पुरुष तृणथी पण बघु जे. जे शीलवंत पुरुषो डे, तेमने वाघ आदि शब्दथी सर्प, अग्नि, पिशाच वगैरे उष्ट जीवो नयना हेतु थता नथी; अर्थात् जयना करनारा थता नथी, अने कुशीन पुरुषो मे, तेत्रो Jain Education Interational Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. " सर्वत्र शुचयो धीराः स्वकर्म बलगर्विताः । कुकर्मनिरतात्मानः पापाः सर्वत्र शंकिता : " ॥ १ ॥ " जे धीरपुरुष छे, ते सर्वत्र पवित्र ने पोताना सत्कर्मना चलथी गर्व धरनारा होय अने पाप। पुरुषो तो कुकर्मने विषे सदां तत्पर रही सर्वत्र शंकावाला होय बे. " ? शीलवाळा पुरुषोने कोइ ठेकाणेयी जय उत्तन्न थतो नथी, तेने माटे आ प्रमाणे लखे बे १३ " जन्नणो विजयं जन्नहिविगोपयं विसदाविरज्जूओ । सोल अगं मत्ता, करिणो दरिलोमाहुति " ॥ १ ॥ " शीलवाना पुरुषोनी आगळ अग्नि जल थर जाय बे, समुद्र खावोचीथड़ जाय छे, सर्प दार यह जान के अने मदमत हाथी हरिना जेवो थड़ जाय बे. " १ “ एव ते शीलना प्रजावथी सर्व कष्टोनो नाश थाय, एम कां. हवे शीना जाव मनोबित बान थवा कडे बे. " वित्थर जसं बच विलति विविध रिद्धीओ । सेवंति सुरा सिझंति मंतविज्जा य सीले " ॥ १॥ " श ेल पाळवाणी यश विस्तार पामे छे. बल वधे छे, अनेक प्रकारनी ऋनि विलास थाय छे, देवताओ सेवा करे ने ने मंत्र तथा विद्या सिद्ध थाय बे. " १ शील सर्व वीजा अलकारी करतां विशेष अलंकार रूप बे, ते दर्शावे बे. किंमंगणे दि कजं, जइ सीले अनंकिओ देहो । किं मंडणे हि कज्जे, जर सीले हुज्ज संदेहो " ॥ १ ॥ " शीलरुप आनूपरायी देह अकृत होय तो पछी बीजा आभूषणं शुं काम बे ? ने जो शीलरुपी आभूषण न होय तो पछी बीजा आभूषण शा 27% Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कामना बे ? १ अहं शिष्य शंका करे बे के, पुरुषोने तो हृदयनुं दृढतापणुं होवाथी शील होइ शके परंतु स्त्री जातिनां हृदय तुच्छ ने चपल होवाथी तेमज तेमनामां पुरुषाने आधीन रहेवापणुं होवाथी तेओने शील शी रीते रही शके ?" आशंकाना समाधानमा गुरु कहे बे के, एवी शंका करवी प्रयुक्त छे. कारण के, सर्व स्त्री एक स्वनाववाळ । होती नथी. स्त्री मां पण घणी स्त्रीओ सुशील धर्मानुष्ठाने शास्त्रमा श्रवण करवाथी शोजनिक होय छे. तेने माटे कांबे के " नारियो वि अरोगा सीलगुणेणं जयम्मि विकाया । जासं चरित्तसवणे मुणिणो विमणेचमक्कंति” ॥ १ ॥ 46 मुना, सीता, औपदी आदि अनेक स्त्रीओ शीलगुण व आ जगत्मां विख्यात थयेली बे. तेनां चरित्रो सांजळी मुनिओ पण पोताना मनमां चमत्कार पामी जाय बे. " १ श्री आत्मप्रबोध. ते विषेप्रमाणे कां बे 66 “ अजाओ बंनि सुंदरी, राइ मई चंदा पमुखाओ । कालत्तए वि जाओ, ताओ वि नमामि जावेण " ॥ १ ॥ " आर्या ब्राह्मी, सुंदरी, राजमती, अने चंदन बाला, प्रमुख सतीओ काळने विषेपण शीलगुणथी चलित यह नथी, ते सतीने हुं जावथी नमुं बुं. १ " जिनशासनने विषे जो के धर्म पुरुषयी उत्पन्न ययेलो बे ने मोटा मोटा ग्रंथांना कर्त्ताओ पण पुरुषोज होय बे, तेथी पुरुष जातिनुं प्रधानपं . परंतु जे कायर पुरुषो छे, तेमने स्त्रीओ पाशरुप बे, एवा व्यवहार नयनुं अवलंवन करीने प्रायः उत्कृष्ट मुनिए स्त्रीनी निंदा करेली छे, तेने माटे कछु बे के, " सोयसरी डुरियदरी, कवमकुंमि महिलिया किलेसकरी । वर विरोण अरणी, डुकखणी सुख पडिवरका " ॥ १ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. १५ __“ स्त्री शोकनी सरिता , पापनी गुफा , कपटनी कुंमी , क्लेशनी करनारी छे, वैर विरोध करना। बे,सुःखनी खाण अने सुखनी प्रतिपक्षी ." तथापि निश्चय नयथा विचार करतां पुरुषपणुं अने स्त्रीपाj-बने स्तुति के निंदाना हेतु नथी. केमके सुशीलता अने उःशीलतानुं पुरुषपणु अने स्वीपणं कारणनूत . तेने माटे कयुं ने के, " इत्यिं वा पुरिसंवा निस्संकं नम सुसील गुणपुढे । शत्थं वा पुरिसंवा चयसु बहु सील पझटं" ॥१॥ " स्त्री अथवा पुरुष गमे त होय, पण शीलगुण जेनामां स्पष्ट होय, तेने नमस्कार थाो . अने स्त्री अथवा पुरुष गमे ते होय पण जो ते शीलगुणधी भ्रष्ट होय तो तेनो त्याग थानो." ? दुःशीलतानुं फळ शुंने ? ते कहे जे" पंडुत्तं पंडत्तं, दोहग्गा मरूवयाय अबलत्तं । उस्सीलया लयाए, इणमो कुसुमं फवं नरो” ॥ १॥ " पांमुरोग-काढ, नपुंसकपणुं, पु ग्य, कुरूप, अल्पआयुष्य, अने निर्बलता ए उःशीलता रुप लताना पुष्पो ने, अने नरक तेनुं फळ . " १ सुशीलतानुं फस \ छ ? ते कहे जे“ आरोग्गं सोहग्गं, संघयणं रूव माजबन मनलं । अन्नं पि किं अदिजं, सीलव्वय कप्पाकस्स” ॥ १॥ " शील व्रत रुपी कल्पवृक्ष, आरोग्य, सौजाग्य, संघयण, रूप, आयुष्य, अने अतुल बल आपे जे. तेनार्थी बीजं अदेय शुं ? अर्थात् सर्व आपेले."? हवे शीलवत दृष्टांतथी वर्णन करे छे" चालणी जत्रेण चंपा, जीए नग्घाडिअं कवामतिअं । कस्स न हरे चि, तीए चरिअं सुन्नदाए" ॥ १ ॥ " जेणीए चालणी वझे जन्न काढीने चपानगररीना त्रण दरवाजा उघाड्या Jain Education Interational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ श्री आत्मप्रबोध. हता, ते सुनमा सतानु चरित्र कोना चित्तने न डरे ? " सुनजानुं चरित्र. वसंतपुर नगरमां जिनदास नावे एक शावक रहे तो हतो. तेने अत्यंत शीलगुणवानी जिनमती नाम स्त्रो हतो. तेगले गुलमा नामे एक पुत्री थाहती. मुनघा वालश्ययो सम्यक्त्व धोने धारण करनारी श्राविका था हती. ते बाला घणीज स्वरुपवतो हती. आगीवारिया कणकोना पुत्रोए तेणीना रुपमा मोहित थइ श्रावक जिनदाप पाते को पार करवा मोमो तोपण जेम कागडो कोरतुं नोजन न प्रप्त कर, नेत्र हिमानीपणाने लइने तेओ तेणीने जिनदास पासेग्री प्राप्त की शक्या नहीं.. एक वखते बुछिदास नावनो एक बौद्ध धर्मा वहिक पुत्र चंपानगरीमांथी वेपार करवाने वांतपुरमा रहका आव्यो. ते कोइ व्यापारने प्रसंगे जिनदासने घेर आवतां सौंदर्यवती सुना तेना जोवानां प्रावी. तत्काल मोह पामी तेणे जिनदासनी पासे पाणिग्रहण करवा पाटे सुनजानी मागणी करी. जिनदासे तेने मिथ्यात्वीपणाना कारणयी आपलानी ना कहो. बुद्धिदास पठी ते कन्या मेलववाना इरादायी कपटी श्रावक था कोई विचक्षण जैन मुनिनी सेवा करवा लाग्यो. ते अल्प समयमां ते मुनि पारधी श्रावक ना आचार सीखी गयो अने साचा श्रावक जेबो बनी गयो. तेनानां श्रद्धा न हती, पण ते निरंतर देवपूजा, साधु सेवा अने आवश्यकादि धर्म कृत्यो करवा लाग्यो. अनुक्रमे तेने जिनदासनी साये मैत्री थइ, अने परिचय वधतो गयो. पाखरे बुछिदासने शुकश्रावक जाणी जिनदासे पोतानी पुत्री सुभता तेनी साये परणाती. कपटी बुधिदास सुनजानी साये विषय नोग जोगवा बाग्यो अने मुखे कान निर्गमन करवा लाग्यो. एक वखते जेणे व्यापारमा घj अव्य उपार्जन कथु डे, एवा बुधिदासे पोताना देशमां जवा माटे पोताना ससरा जिनदासनी रजा मागी. ते वखते जिनदासे कg, " वत्स, तमे स्वदेशमा जवानी इच्छा राखो गे, ते नोक ; परंतु तमारा माता पिता विपरीत धर्मामा ते पामा जैम घोमाने न सहन करी शके, तेम मारी श्राविका पुत्री मुत्तत्राने तेत्रो केा सहन कररी शकशे? " बुधिदासे कां, " नज, नमे ते विषेनी चिंता राखशो नहीं. हुं तेमने जुदा घरमां Jain Education Intemational Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. १९७ राखीश; परंतु मने स्वदेश जवानी आज्ञा आपो. " पबी ससराए कहुं, “त्यारे खुशीथी जाओ. मार्गमां तमारुं कड्याण थाओ. " ससरानी आज्ञा थतां बुद्धिदास पोतानी स्त्री सुनप्रा साथे रथमां बेसी मार्गे चाल्यो अने अनुक्रमे ते चंपा - नगरी आवी पोहोंच्यो. पोतानी स्त्री सुनाने जुदा वासगृहमां राखी पोते माता पिताने घेर गयो, अने तेमने आनंद मध्यो. तेथे पोतानो सर्व वृत्तांत माता पिताने जणाव्या. पी पोताना कार्यमां तत्पर यह पोताने घेर रहेवा लाग्यो. सुभद्रा जुदा घरमा रही निष्कपट वृत्ति व अरिहंत प्रजुनो धर्म सेवती हती; परंतु तेीनी सासू ने नणंद तेलीनां बिडो जोयां करती हती. एक वखते एवं बन्धुं के, कोइ जैन मुनि निकाने माटे सुनाना वासगृहमां आवी चाव्या गया. ते जोइ ते बुद्धिदासने तेनी माता ने व्हेने कां के, "जाइ, तारी बहु कोइ जैन मुनिनी साये रमे बे. " बुद्धिदास बोढ्यो, “ तमारे एवी जुठी बात कहेवी नहीं; कारण के, मारी स्त्री कुलीन, जैन धर्ममां रक्त ने सती बे. ते कदि पण कुशीला थायन नहीं. तमे धर्मनी इर्ष्याथी वो मिथ्या आरोप चडावी कहो बो. तमारे आवं अघटित न बोलवं जोड़ए, " बुद्धिदासनां आवां वचनो सांजली ते सुनानी सासू ने नींद ते सुनाना विशेष बिडो जोवा लाग्या. एक वखते कोइ जैन मुनि सुनाने घेर निक्षा सेवाने आव्या. तेज वखते पवनवतेमना नेत्रमां जमतं तरां परुयुं. ते साधुमां जिनकरूप पणुं हतुं, एटले ते शरोर संस्कारथ विमुख हता. प्रार्थी तेमणे ते तरणांने नेत्रमाथी दूर कर्यु नहीं. समये सुजका दिक्षा आपना यावी. ते वखते तेलीना जोवामां आव्यु के मुनिना नेयांक पीका थाय छे. आथी तेलीए चालाकी थी जिल्हाना अग्र जागयी ते दुषित नेत्रगांयी तरणुं बही बंधुं तेम करतां तेएना कपाळमां करेलुं कुंकुमपि ते मुनिना अलाट उपर चोटी गयुं मुनि निका लइ तणीना घरमांर्थ र नीकव्या, ते वखते बिष जोनारी तेलीनी सासू पाताना पुत्रने बोलावीत सुनिना ललाटतुं तिलक प्रत्यक्ष बताव्युं तेवी निशानी जोड़ बुद्धिदासे पोतानी मातानुं वचन कबुल कर्यु ने सुनाना शील विषे तेने शंका उत्पन्न थ. यारथी बुद्धिदास मुजधानी उपर विरक्त थर गयो. सती सुना पोताना पतिने पोतानी उपर निःस्नेह जाणी मनमां विचार करवा लागी. " अहा ! मारी उपर वृथा दोषारोप थयो. वल्ली मारा निमित्ते Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ श्री आत्मबोध. - श्री जिनशासनने पण या अपवाद लाग्यो, माटे हवे मारुं जीवित नकानुं बे. जोवितनो त्याग करने पहुंआ मलिनता दूर करूं तो ठीक. " आवुं विचारी सती सुनाए प्रमाणे अनिग्रह धारण कर्यो. " ज्यां सुधी आ मारा अपवादनी मलिनता दूर न थाय, त्यां सुधी हुं कायोत्सर्गने पारश नहीं. " आवो अनिग्रह as तेणीए जिन पूजा करी अने शासनसुरीनी मनमां धारणा करी. संध्याकाले घरना एक खूणामां कायोत्सर्ग करीने रही. ते ना सम्यक् arrant aurat शासन देवीए प्रगट थइ सुभाने कहुं, – “हे वत्से, हुं तारा बोलाववाथ वी बुं, माटे जे कार्य होय ते कहे. ते वखते सुनझादेवी ते देवीना वाक्य सांभळी कायोत्सर्ग पारी सहर्षा धड़ देवीने नमन कर बोली - " हे देवी, मारा निमित्ते शासनने लागेनुं कलंक दूर करो.” देवी बोब्या" वत्से, तं खेद करीश नहीं. ता कलंक दूर करा मा अने श्री जिनशासननी प्रभावना वधावा माटे प्रातःकाले सर्व शुभ थशे. तुं निश्चिंत थइ शयन करी जा. या प्रमाणे कही देवी दृश्य थइ गया. ते पछी सुनझा निश्चिंत थइ सुइ गइ. प्रातःकाले ते जागृत थइ देव पूजा, गुरु पूजा वगेरे आवश्यक करी परवारी. --- " या समये नगरना दरवाजा के जे रात्रे बंध करेला, ते ऊघमी शक्या नहीं. राजाना माणसोए घणुं कर्य, पण कोइ रीते दरवाजाना कमाको ऊधमता न हता. आथी नगरना लोको मुंफाइ गया. तेमनां ढोरो पशुओ दुधा अने तृषार्थी आकुल व्याकुल थवा लाग्या. पोतानी प्रजाने माथे आवं नारे दुःख तुं जो राजा हृदयमां कुल-व्याकुल बनी गयो. राजाए, विचार्य के, या कार्य कोइ देव तरफ थयेलं होतुं जोइए, आनुं विचारी राजा पोते पवित्र यड़ धूप दीप करी अंजलि जोगी या प्रमाणे वोडयो- " हे देवदानवो, सांजळो. तमारामांयी जे कोइ मारी ऊपर कोपायमान थया होय तो तमे या मारा धूप दीपथी प्रसन्न था . राजाना या शब्दार्थे तत्काल या प्रमाणे आकाश वाणी प्रगट थइ. - 77 66 जलमुद्धृत्य चालिन्याः कूपतस्तंतुबद्धया । काचिन्महासती पुर्याः कपाटांचलुकैस्त्रिभिः ॥ १॥ आच्छोटयति चेच्छीघ्रमुद्धतेऽखिला अपि । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. १ ए कपाटा द्वार देशस्था, नोचेन्नैव कदाचन ॥ २ ॥ युग्मम् । " जो कोइ सती स्त्री काचा सूचना तंतु वमे चालणीने बांधी, ते बरे कुवाair to a आ नगरीना दरवाजाने त्रण अंजल बांटे तो ते नगर घारना कमामा बम । जशे. ते शिवाय कदि पण उघमशे नहीं. " १, २ याप्रमाणे आकाशवाणी सांजळी राजाए सती स्त्रीने आज्ञा करी एटले नगरनी क्षत्रियाणीओ, ब्राह्मणीओ अने वणिक् स्त्रीओ कुवाने कां आवी चाल व जल नरवा लागी, परंतु काचा सूत्रना तंतुओ तुटी जवा लाग्या. केटली एक चालणी ओ कुत्रामां पमी. कोइनाथी ते काम थइ शक्युं नहीं. बी लिखी थइ पानी चाली गइ. अने हृदयमां अत्यंत खेद पामवा लागी. या वखते विनयवती सुना पोतानी सासू पासे आवी ने या प्रमाणे कवालागी - " हे माता, जो तमारी आज्ञा होय तो हुं कुवामांथी चालली व जल काढी या नगरना दरवाजा उघामवानी इच्छा राखुं बुं. " सासूए ऊंचे स्वरे कयुं, “ अरे जैन मुनिने संवनारी, ताराथी ए कार्य वनशे नहीं. तारुं सतीपणुं हुं सारी रीते जाएं बुं. " हवे वीजा लोकोने जणाववानुं शुं कारण बे ? में एकलीए जाएयुं, एटलुं बस बे. " नगरनी वधी स्त्रीग्रो जे दरवाजाने जबा वा समर्थ थ‍ नथी, तो हवे तुं शी रोते यश " ? सुनषा बोली - " माता, तमे कहो बो, ते युक्त बे, पण हुं पंचनी साकीए मारा सतीपणानी परीक्षा करी शकश. तमारे या कार्यमा मने अटकाव नहीं. " आदतुं कही ते सती सुभा, तेलीनी सासू ने नगद हास्य करती हती, ते बतां तत्काल स्नान करवा गइ. स्नान कर देवगुरूने नमन करी ते कुवाने कांठे आवी. त्यां नवकार मंत्र पूर्वक शासन देवीनं स्मरण करी सूर्य सन्मुख ऊनी रह। आ प्रमाणे बोली" जो हुं जैन धर्म अने शील रुप अलंकारने धरनारी हो तो या काचे तांतणे afrat चाली व कुवामांथी पाए। नीकळजो. " या प्रमाणे कही ते सतीए काचा तंतु बांधेली चालणी कुवामां नांखी अने तत्काल तेलीए चालणीने जल साथे बाहेर काढी. या शीलनो प्रभाव प्रत्यक्ष जोइ राजा वगेरे सर्वे सान Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० श्री आत्मप्रबोध. दाश्वर्य थड़ गया. राजा पोताना परिवार साधे ते सतोन। आगळ आव्यो अने या प्रमाणे बोल्यो - " हे पतित्रता, हे सती आप कृपा करी आ नगरना दरवाजा घाम ने लोकोना संकटने दूर करा. पी सती सुना नगर जनाथ | वीटाएली विकस्वा नेत्र तथा मुखवासी ने विरुदावळ बोलनाराम्रो जेनी आगळ जय जय शब्द करी रह्या बे, एसी यह नगरना दक्षिण दरवाजे वी. त्यां नवकार मंत्र बोल | तेलीए जलनीय अंजलि ते दरवाजा ऊपर छांटी, एटले जेम जांगुलि मंत्रना जाप व सर्वना विषय) आर्त्त एवा नेत्रो उघकी जाय तेम नगरना दरवाजा उघमी गया. ते वखते आकाश मार्गे 55जिनो नाद थयो अने देवताओए जैन धर्मने आश्री जयध्वनि कर्यो. आथी नगरना aai air आर्य साधे हर्षित थइ गया. ते पछी सती सुनाए पश्चिम ने उत्तर दिशाना दरवाजाओ तेत्री रीते ऊघाड्या. पनी सुनाए कां के, में श्री जैन धर्मना पसायची ऋण दरवाजा उघाड्या बे. हवे आ नगरमा जे कोई स्त्री सतपणानो गर्व करती होय तो तेल । आ चोथो दरवाजो उघारे." बुं कही सती सुना पाठी वली ने तेल।ए ते दरवाजो उघाड्यो नहीं. पी बीजी कोइ स्त्री ते पुर घारने घामी शकी नहीं. ते चंपानगरीनुं द्वार अद्यापि बंध रहे छे; एम संजलाय . सती सुनधानुं आ चरित्र जो‍ तेलीनी सासू ने नणंद श्याममुखी यह गड़. तेशीना पति बुद्धिदासनुं मुख तो पोतानी स्त्रीनं दरभूत शील जो शरद ऋतुना चंद्रनी पेत्रे देदीप्यमान इयुं. नगरना बोको ते सतीनी स्तवना करवा लाग्या. राजाए अत्यंत हर्ष पामी सती सुनाने उत्तम वस्त्रालंकारो आप्या अने मोटा उत्सवयी तेणीने तेने घेर पोहोचामी. पी ते महासतीना प्रतिबोधयी राजा विगेरे सर्व लोकोए जैन धर्मनो अंगीकार कर्यो, सर्वे ते सतीनी स्तवना करतां पोतपोताने घेर चाव्या गया. पालथी सुनाना ससराना कुटुंबे वो पश्चात्ताप कर्यो. पछी ओए सतीनी समीपे ज‍ जैन धर्मने अंगीकार कर्यो. सती सुजानो स्वामी बुद्धिदास के जे कपटी श्रावक हतो, ते पछी सत्य श्रावक बनी गयो ने सत्य, प्रेमथी सुना साये रही सुखे काल निर्गमन करवा लाग्यो. ते बने दंपती गृहस्थ धर्म पाली ते संयमने आराधी सद्गतिना जाजन यया हता. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयप्रकाश. एवी रीते चोथा व्रत उपर सती सुनजानी कथा कहेवाय जे. आ प्रकारे शील व्रतनुं माहात्म्य सांनळी बोजा पण नव्यजनोए आदर पूर्वक शील व्रत पाळवाने तत्पर थर्बु. तेनी नावना आ प्रमाणे - " चिंतेअव्वं च नमो, तेसिं तिविहेण जेहिबंनं। चत्तं अहम्ममूलं, मूलं नवगप्भवासाणं" ॥ १॥ " जेमणे मन, वचन अने काया-ए त्रण प्रकारे अधर्मर्नु अने आ संसारमा गर्नावासनुं मूल रुप एवं अब्रह्मचर्य गेमी दीधु , तेमने नमस्कार हो." १ पाचमुं स्थूल परिग्रह विरमण व्रत. स्थूल एवा परिग्रह परिमाण करी तेनाथी विराम पामबुं, ए पांचमुं स्थूल परिग्रह विरमण व्रत कहेवाय छे. जेमके, “ गेही गिधि मणंतं, परिहरिय परिग्गहे नवविहंमि । पंचमवए पमाणं, करेज इच्छाणुमाणेणं " ॥१॥ " पांचमा स्थूल परिग्रह विरति नामना व्रतने विषे गृहस्थ अनंत गृफि-षणानो त्याग करी नव प्रकारना परिग्रह प्रमाण करे -आटबुं मारे मोकलुबे, एवी अवधि करे . " १ । परिग्रहना नव प्रकार आ प्रमाणे . १ क्षेत्र, २ वास्तु, ३ हिरण्य, ४ सुवर्ण, ५ धन, ६ धान्य, ७ विपद, ७ चतुष्पद अने कुप्य–एवा नव प्रकार छे. तेमां पेहेलु देत्र ते त्रण प्रकारचं छे. १ सेतु क्षेत्र, २ केतु क्षेत्र अने ३ जजय क्षेत्र. जे. रेंट प्रमुखना जलथी सिंचाय, ते सेतु क्षेत्र कहेवाय जे, जे आकाशना पाणीथी सिंचाय ते केतु देत्र कहेवाय जे अने जे बनेना पाणीयो सिंचाय ते उलय क्षेत्र कहेवाय जे. वस्तु एटने घर, हाट, गाम, नगर वगेरे. तेमां घर त्रण प्रकारचें के. १ खात, २ उचित अने ३ तउन्नय. जे भूमिगृह-नोयरादि गृह ते खात Jain Education Intemational Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ श्री आत्मप्रबोध. गृह कहेवाय जे. जे मेहेन, हवेली वगेरे ते नच्छ्रित गृह कहेवाय ने अने जे जोयरा नपर रहेब मेहेब वगेरे ते तज्जय गृह कहेवाय जे. हिरण्य एटो सोनुं रुपुं, जे प्रसिद्ध ने ते. धन एटने गणिम वगेरे चार प्रकारनुं ने ते. सोपारी, जायफळ वगरे जे गणी शकाय अथवा गणीने वेची शकाय, ते गणिम धन कहेवाय जे. कंकु, गोळ वगेरे जोखी शकाय अथवा जोखीने वेची शकाय, ते धरिम धन कहेवाय . घृत, लवणादि जे मापी शकाय अथवा मापीने वेची शकाय, ते मेय धन कहेवाय जे. अने वस्त्र, रत्न वगेरे जे परीक्षा करीने देवाय ते परीक्ष्य धन कहेवाय जे. धान्य एटने चोखा, डांगर वगैरे सत्तर प्रकारचें कहेवाय . कोइ ग्रंथांतरमां तेना चोवीश प्रकार पण कहेला ने. सत्तर प्रकारना धान्यने माटे आ प्रमाणे लखे . " व्रीहिर्यवो मसूरो, गोधूमो मुझ माष तिल चणकाः । अणवः प्रियंगु कोषवमकुष्टकाः शालिराढक्यः " ॥१॥ किंच काय कुलत्थौ शण सप्त दशापि सर्व धान्यानि । "१ मांगर, २ जव, 3 मसूर, ४ गोधूम, ५ मग, अमद, ७ तन्त्र, ८ चणा, ८ अणव, १० कांच, ११ कोषवा, १२ मठ, 13 शाल, १४ चोला, १५ कलथी, ६ शण अने १७ आढक, ए सत्तर प्रकारना धान्यो कहेवाय ." ? पिद एटले स्त्री, दास, दासो, मेना, पोपट वगरे. अने चतुष्पद एटने गाय, जेस, उंट वगेरे जाणवा. कुप्य एटो शयन, आसन, रथ, गामा, हल, माटीनां ठाम, स्थाल, कचोळा वगेरे घरना उपकरणो. अहिं शंका करे ने के, ए उपर कहेला पदार्थोनुं शीरीते परिमाण करवं? तेना उत्तरमां कहे जे के, पोतानी इच्छा-कल्पना प्रमाणे तेमनुं परिमाण थाय ने. कहेवानो आशय ए डे के, जो इच्छानी निवृत्ति थाय तो नियम करती वखते जेटलो परिग्रह सत्तामा रहेलो डे, एटले ते समये जे परिग्रह पोतानी पासे विद्यमान में, तेनाथ ओळ प्रमाण करवं. अने पर। वघेलु अव्य धर्मकार्यमां Jain Education Interational Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. २०३ जोमी देवु. अथवा सत्तानुमाने करीने छतां प्रमाणे बेवट नियम ग्रहण करवो. ते पर आनंदादि श्रावकोना दृष्टांतो प्रसिद्ध बे. जो कदि गृहस्थ इच्छा निरोध न करी शके तो जे होय ते करतां मां के चोगणं मोकलं राखीने बाकी जे शेष रहे तेनो नियम करे. को शंका करशे के, “ बतां परिग्रहनो निषेध करीने जे व्रतनुं अंगीकार करवापणुं बे, ते मरु देशनी वापीकाना जलना स्नाननी जेम कोने हास्यनुं स्थान नहीं थाय " ? ते शंकाना समाधानमां कहेवानुं के, नाग्ययोगे कालांतरे करीने इच्छा प्रमाणे क्षेत्रादिक संपदाना पण अधिक प्रारंभं थवा अनेकदि संपदा न होय पण इच्छा अनंत होय छे, तेनो निरोध करवा माटे व्रतनो अंगीकार करतो ते सफल बे. तेने माटे कां बे के, परिमिमुवसेतो, अपरिमियमांतया परिहरतो । पाव परंमि बोए, अपरिमिमणंतयं सुकं” ॥१॥ परिमित परिग्रहने सेवतो अने अपरिमित अनंतनो परिहार करतो पुरुष या लोकनो पार पाये बे ने अपरिमित अनंत सुखने पामे बे. " १ 66 प्रश्न करे बे के, इछा प्रमाणे वस्तु प्राप्त करतां वा पोतानी मेळे शांत पामे बेज; तो पी आ परिग्रह परिमाण करवानुं शुं कारण बे ? जोजन करवाथी क्षुधा एनी मेळे समाइ जाय बेज. तेना उत्तरमांकदेवानुं के, एम नथी; कारण के परिपूर्ण समृद्धि प्राप्त थतां पण इहानी अतृप्तिज बे. तेने माटे कां बे के, " जह बहेई रिद्धिं तद बोहो विवहुए बहुओ । बहिण दारुभारं किं अग्गी कह विविज्काइ " ॥१॥ 46 जेम जेम ऋद्धि प्राप्त यती जाय बे, तेम तेम लोन बहु वृद्धि पामे बे. अग्नि लाकमानो समूह प्राप्त करीने बुद्धी जतो नथी, पण उलटो दृष्टि पामे बे. " १ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ श्री आत्मप्रबोध. परिग्रह सर्व क्लेशोनुं मूत्र , ते दर्शावे . "सेवंति पहुं लंघति सायरं सायरं भमंति नुवं । विविरं विसंति निविसंति पिनवणे परिग्गहे निरया" ॥१॥ "द्रव्यादि संचयने विषे एकाग्र चित्तवाला प्राणीओ धनना स्वामीनी सेवा करे , समुज्नुं उबंधन करे छे, आदर पूर्वक पृथ्वीमां लटके डे, सिद्धरस व'गरेने माटे पर्वतनी गुफामा प्रवेश करे के अने मंत्रादिकनी सिधिने माटे इमशानमा वसे छे. आवा प्रकारनो परिग्रह दुःखनो हेतुरुप छे." १ एवा परिग्रहने दुःखनो हेतु जाणी, तेनाथी संतोष राखवो सारो . संतोषी मनुष्यो निर्धन होय तोपण इंशादिकना सुखने अनुलवे . तेने माटे कयुं छे के, ___“ संतोसगुणेण अकिंचणोवि इंदाश्असुहं लह। इंदस्स वि रिहिं पाविजण कणो चिय अतुट्ठो” ॥१॥ " निर्धन पण संतोषना गुणवझे इंशादिकना सुखने अनुजवे ने अने असंतोषी पाणी इंधनी समृधिने पण पामीने ऊो रहे -अवप्त रहे ." १ असंतोषी मनुष्यने इंद्रना सुखो मले तोपण संनोष वळतो नथी, एटले त करतां पण वधारे सुखनी श्छा करे . उपर कहेला स्वरुपवाला परिग्रह प्रमाणनुं स्वरूप अने संतोषनुं मूल विवेक , ए वात दृष्टांतथी देखामे . "विवेकः सद्गुणश्रेणिहेतुर्निर्गदितो जिनैः। संतोषादिगुणः क्वापि, प्राप्यते नहि तं विना" ॥१॥ " विवेक सद्गुणोनी श्रेणिर्नु कारण ने, एम जिनेश्वरोए कहेलु जे. ते विवेकविना संतोषादि गुण बीजे कोइ स्थळे पण प्राप्त थतो नथी." १ विवेक प्रगट थवाथी सर्व सद्गुणो पोतानी मेळे आवी ते जव्य पुरुषना Jain Education Intemational Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयमकाश. २०५ शरीरमा धननी जेम आश्रय केरे . तेने माटे कयुं ने के, "प्राउ वे विवेकस्य, गुणाः सर्वेऽपि शोननाः । स्वयमेवाश्रयंतेहि, नव्यात्मानं यथा धनम्" ॥१॥ आ श्लोकनो अर्थ नपर कहेवामां आव्यो जे. आ विषे विशेष अर्थ धन नामना शेउना वृत्तांतथी जाणवो. धन शेग्नी कया. कोई एक नगरमां " श्रीपति" नामे एक मोटो धनवान् शेठ रहेतो हतो. तेने “धन” नामे एक पुत्र हतो. तेने पिताए एक मोटा धनाढ्य शेग्नी पुत्रीनी साथे परणाव्यो. एक वखते आचार्यना सर्व गुणोथी अलंकृत एवा " सोमाचार्य " नामे एक आचार्य ते नगरमां आवी चड्या. तेमने वंदना करवा माटे नगरना घणा स्रोको गया. ते साथे श्रीपति शेठ पण गयो. आचार्य नगवाने सर्व धर्मनी देशना आपी. ते देशनामां परिग्रह परिमाण व्रतर्नु स्वरूप विशेषपणे वर्णवी बताव्यु. देशनाने अंते जेने विवेक नत्पन्न थयो , एवा श्रीपति शेठे ते सूरिनी पासे ते व्रत ग्रहण कर्यु. बीजा पण श्रावकोए विविध प्रकारना नियमो ग्रहण कर्या. ते पछी सर्वे गुरु महाराजने नमीने पोताने घरे चाव्या गया. ते पड़ी श्रीपति शेठे पोताना नियमित करना अव्यथी वधारे रहेला अव्यने धार्मिक स्थानमां बापरवा निश्चय कर्यो. श्री अरिहंत चैत्यना निर्मापणर्नु मोठं फल जाणी एक मोटुं जिनालय कराव्युं. ते जिनचैत्यमा शुन्न मुहूर्त्तमां उत्तम परिवार साथे तेणे श्री जिनेंनी प्रतिमान स्थापन कयु. ते पछी ते श्री. पति शेठ ते चैत्यमां निरंतर जिन पूजा करतां अने सत्पात्रने दान आपतां अनुक्रमे पोतानो काल निर्गमन करतो हतो. आयुष्य पूर्ण थतां ते शेठ शुन ध्यानवमे काल करी सद्गतिने प्राप्त थयो. ते पठी स्वजनोए एकठा मली तेना पुत्र धनने तेना स्थान उपर स्थापित कर्यो. धन शेठ लोनग्रस्त अने निर्विवेकी हतो. तेणे आ प्रमाणे चिंतव्युं-"अरे मारो पिता गांको थइ गयो हतो, तेथी तेणे घj अव्य खची नांख्युं जे. आवा चैत्य बनाववामां अव्यनो व्यय करवो, ते व्यर्थ जे. हवे हुँ मूल द्रव्य ( मुमी ) ना व्ययना कारणाने अटकावी न; अव्य उत्पन्न Jain Education Intemational Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्री Heart. करवाने उजमाल थाऊं. " या प्रकारे चिंतवी ते धन शेठे पोताना निवासगृह शिवाय वीजा घर अने हाट वगेरे स्थानो वेची नांख्या अने दास, दासी वगेरे जे उपजीवक वर्ग हतो, तेने विसर्जन कर नांख्यो. ते शिवाय चैत्य पूजा तथा प्रभावनादिक वधां धर्मकृत्योनो पण त्याग कररी दीघो. पछी पोते एकझो जीर्ण वस्त्रो पैहेरी खंने कोथळो लइ गोळ प्रमुख लइ बेचवा माटे गामोगाम फेरी करवा लाग्यो. जोजन वखते ते मात्र तेल मिश्रित जुनी कलथी प्रमुख नीरस आहार करवा लाग्यो. धनशेठनी यावी कृपण स्थिति जोड़ तेनी कुलवती ने शीलवती स्त्री हृदयमां खेद पामवा लागी . तेणीए तेने घणी हित शिक्षा आपी परंतु ते लोनादिकथी ग्रस्त हतो, एटले तेनां वचनने अल्पशे पण मानतो नहीं. आवरीते केटलो समय वीत्या पक्षी पेक्षा आचार्य महाराज तेज स्थले पुनः आवी चड्या. जव्य जीवो तेमने वंदना करवा माटे आववा लाग्या. आचार्य महाराजे तेमने देशना आपी. ते प्राचार्ये श्रीपति शेठनी स्थिति ने प्रवृत्तिविषे लोकोने पुत्र्यं. ते लोकोए कयुं, “ स्वामी, श्रीपति शेठ कालधर्मने पाम्यो बे. हाल तेनो “धन” नामनो पुत्र विद्यमान छे. ते घणो सोनानिनूत थड़ गयो बे. निर्विवेकपणे ते जिनपूजादि सर्व धर्मकृत्यो बोकी पशुनी जेम फोगट काल गुमावे . " ते श्रावक लोको आ प्रमाणे ते धनशेठनी स्थितिनुं ब्यान करता हता, तेवामां खना उपर कोथलो लइ मलिन वेषवालो ते धन शे कोइ गाम तरफ उतावले जतो दृष्टिए पड्यो. ते वखते श्रावकोए कयुं, “स्वामी, जुओ, या श्रीपतिनो पुत्र धन शेठ जाय बे. " गुरु महाराज ते धननी एवीस्थिति जोड़, तेनो उपकार करवाने माटे पोतानी पासे बेठेला एक श्रावकने मोकवी तेने बोलाव्यो. धन गुरुनी समीप आव्यो नहीं. ते तेज ठेकाणे जनो रही बोल्यो, “जाइ, हुं प्रव्यनो अर्थी बुं. मारे गुरुनी साथे कांइ काम नथी. " धनना या शब्दो सांजळ आचार्य महाराज केटलोएक बाज धारीने पोते त्यां गया ने बोल्या, "जाइ, तुं श्रीपति शेवनो पुत्र बे. तारा जेवाने यावी रीते धर्मकार्यनी विमुखता घटती नथी. कदि तारार्थी कोइ नवं धर्मकार्य न बनी शके तो कां नहीं; पण तारा पिताए करावेला जिनचैत्यमा रहेल प्रजुनी प्रतिमानुं मुखकमळ जोइ ते पी तारे जोजन करं, एवो नियम तूं अंगीकार कर." गुरुनां Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयप्रकाश. २०७ आ वचनो सांनळी, ते धन बोल्यो. “महाराज, हुं मारा कार्यमांची त्यारेष्ट थानं बुं, माटे हाल मने बोमी द्यो. परंतु आजथी पछी तमारो कहेलो नियम मारे बे. प्रमाण ११ प्रमाणे कही ते धन पोताना धर्मकार्यमा प्रव अ आचार्य जगवान् त्यांथी विहार करीने बीजे स्थाने चाव्या गया. त्यारथी को शुभ कर्मना उदययी ते शेव निरंतर प्रभुनुं मुखकमळ जोया पनी जोजन करतो हतो. तेनी स्त्री पोताना पतिनी या प्रवृत्ति जोइ खुशी ती हती. तेणी धारती हती के, आवा लुब्ध पुरुषना हृदयमां आवो शुभ नाव उत्पन्न थयो बे, तेथी जगाय ने के, आ पुरुषनो कोइ शुभोदय थशे. एक वखते एवं वन्युं के, लोभी धन गाममे फेरी करी बपोरे मोमो आव्यो. ते उतावळमां मनुना मुखकमळनुं दर्शन जुली गयो, अने तरत जोजन करवावे. ते वखते तेने याद आव्युं के, " अरे ! में हजु देवदर्शन कर्या नथी, माटे ने सत्वर करी आवं. " आवुं विचारी ते तत्काल बेठो थयो ने जिनचैत्यम व प्रजुनां दर्शन करवा लाग्यो. तेवामां चैत्यनी अंदर " हे धन, माग, माग," एवो ध्वनि प्रगट थयो. आ शब्द सांजळी धन चारे तरफ जोवा लाग्यो, पण ते शब्द कहेनार कोइ माणस तेना जोवामां आव्यं नहीं आयी तेना मनमां अतिशय आर्य उत्पन्न थयुं. ते वखते ते धने या प्रमाणे कर्छु, “तमे जे बोलो बो, ते कोण बो?" पुनः आ प्रमाणे ध्वनि थयो. “हुं आ चैत्यनो अधिष्टायक - श्री अरिहंत भगवान्नो उपासक देवता बुं. तने तारा नियममां दृढ जोड़ हुं तुष्यमान थयो बुं, माटे तुं वांछित वर माग. धन बोढ्यो - " हुं मारी स्त्रीने पुत्रीने मागीश. " या प्रमाणे कही धन पोताने घेर आव्यो अने तेणे पोतानी खीने ते सर्व वृत्तांत को. ते सांजळी तेनी विवेकी स्त्रीए विचार कर्यो के, “घरमां व्यनी कां न्यूनता नथी, पण या मारा पतिमां विवेकनी खामी बे. जो तेनामां विवेक आवे तो पछी सर्व कार्यनी सिद्धि थशे. " आवं विचारी ते स्त्रीए धनने कनुं, “स्वामी, तमे सत्वर ते देव पासे जाओ अने तेमनी पासे विवेक मागो. " स्त्रीनुं आ वचन मान्य कर ते धनशे कोथलो फेraतो चैत्यमा आव्यो. अने ऊंचे स्वरे बोड्यो, “ हे देव, जो तमे मारी उपर तुष्ट थइ मने वर आपका इच्छता हो तो मने विवेक आपो. " तेनां " Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० श्री आत्मप्रबोध. आ वचनो सांजळी अने तेनां दुष्कर्मनो दय जाए। देवताए कहुं, " हे धन, सर्व प्रकार जताने नाश करनारुं विवेक रूपी रत्न हुं तने आएं बुं. हवे तुं घेर जा. " ते पछी धन विवेकनुं वरदान प्राप्त कररी पोताने घेर आवी नोजन करवावे. ते वखते तेनी स्त्रीए तेलथी मिश्रित एवं कळयीनुं अन्न तेनी यागळ बावीने मुक्युं. ते जो धन विवेकवान थइ बोल्यो, “अरे ! आपणा समृद्धिवाला घरमां आंष्ट भोजन केम ? " स्त्रीए कघुं. " स्वामी, तमे जेवुं अन्न बावी आपो बो, ते हुं रांधी आपुं बुं. " पछ| तेणे घरमां नजर करी तेवामां स्थाने स्थाने विविध जंतुना जाळयो नरेलुं तेवं अन्न ने वीजा हलका पदार्थो तेना जोवामां आव्या. दारिथी नरपूर एवो पोताना घरनो देखाव जोइ धन पोताना हृदयमा विचार करवा लाग्यो, “ अरे ! मने अज्ञानीने धिक्कार छे. में वां आचरण करी मारा कुलने लजव्युं. में कांइ पण धर्मकृत्य कर्यु नहीं. आला दिवस कामा फोगट गुमाव्या. हवे हुं उत्तम व्यवहारने विषे उद्यमवान् थानं तो वधारे सारं. " आ प्रमाणे चितव। तेणे पूर्वे वेची दीघेलां घर, हाट वगैरे पाळा खरीदी सीधां, अने सर्व उपजीवक वर्गने पाठो बोलाव्यो. पोताना पिताना समयनी जे व्यवस्था हती, तेवी व्यवस्था करी दीधी. पछी पोताना पिताए करावेला चैत्यनो ने वीजा पण चैत्योनो विशेषपणे पूजा प्रभावना दि उत्सव कर्यो ने वर्षमान परिणामयी वीजा दानादिक कृत्यो करवा मांड्या. गुरुना योगी परिग्रह परिमाणनुं व्रत व तेणे वधारानुं अन्य सर्व धार्मिक कार्योंमां वापरवा मांग अने अनुक्रमे ते वीजा व्रतोना नियमो सेवामां पण उद्यत थयो. आथी धनशेठ नगरना महाजन प्रमुख लोकोमां माननीय थइ पड्यो. अने उत्तम प्रकारनी यश लक्ष्मीने प्राप्त थयो. एवी रीते वर्ती ते धन शेठ चिकाल श्रावक धर्म पाली बेवटे सद्गतिनो जाजन बन्यो हतो. या प्रमाणे पांचमा परिग्रह परिमाण व्रत उपर ते धन शेवनी कथा कवाय. बीजा पण जन्य प्राणीओए हृदयमां विवेकने धारण करी परिग्रह परिमाण करवामां उद्यमवंत थवं मेलोनादिकनो त्याग करवो के जे थी उन्नय लोकमां मनवांति समृद्धिनी सिद्धि प्राप्त याय बे. ते उपर या प्रमाणे जावना छे Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. "जह जह अलाणवसा, धणधन्नपरिग्गरं बहु कुणसि। तह तह बहु निमजसि, नवे नवे नारियतरिव्व ॥१॥ जह जह अप्पो लोनो, जह जह अप्पो परिग्गहारंनो। तह तह सुहं पवढ्श, धम्मस्स य होइ संसिधि ॥॥ तम्हा परिग्गहं ज-किऊण मूत्रमिह सव्वपावाणं । धम्माचरण पवन्ना, मणेण एवं विचिंतिजा " ॥३॥ " हे नवि, जेम जेम तुं अज्ञानना वशथी धन तथा धान्यनो परिग्रह करे , तेम तेम जाणे अति नारथी नरेखो हो, तेम तुं जवजवने विषे मुबे . जैम जेम थोमो लोन होय बे, अने जेम जेम परिग्रहनो आरंज अल्प होय , तेम तेम परिग्रह सुख वधे जे अने धर्मनी सिछि थाय जे. तेथी परिग्रह सर्व पापोर्नु मूल डे एम धर्मना आचरणमा प्रवीण एवा मन वझे विचारी तेनो त्याग करवो." १-२-३ एवी रीते पांचमं व्रत कहेवामां आव्यु. आ व्रतो महाव्रतनी अपेक्षाए लघु-नाना , तेथी ते अणुव्रत कहेवाय जे. 2000 त्रण गुणवतो. आ व्रतो अणुव्रतोना गुण ( उपकार )ने माटे वर्ते जे, तेथी ते गुणवत कहेवाय .ते गुणवतो दिशि परिमाण वगैरेथी हिंसाना निषेध करनार होवाथी अणुव्रतोने नपकारक बे. पेहेई दिशिपरिमाण गुणवत. जे सर्व प्राणीओथी सर्व नवमां ऊर्ध्व, अधो अने तिर्यग् दिशामां गमन आश्रीने परिमाण करवामां आवे छे ते पेहेनुं दिक् परिमाण गुणव्रत कहेवाय तेनी अंदर " मारे दरेक दिशामां आटली चूमि आक्रमण करवी, ते करतां वधारे करवी नहीं" एवो नियम लेवाय .. अहिं को शंका करे के, दिक् परिमाण व्रत लेवाथी शो बान थाय Jain Education Interational Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० श्री आत्मप्रबोध. जे? तेना उत्तरमा कहेवानुं जे. ते दिक् परिमाण व्रत बेवायी लोननो निग्रह थाय छे अने ते मोटा गुणना लाभनो संलव जे. तेने माटे आगममां कहेढुं . ___“ जुवणकमणसमत्ये, बोनसमुदेवि सप्पमाणंसि । कुण दिसापरिमाणं, सुसावो सेनबंधं व" ॥ १॥ "श्रा त्रण जुवनने आक्रमण करवाने समर्थ एवा लोजरुपी समुनने विषे गति करतो एवो श्रावक दिशापरिमाण रुप सेतुना बंधने करे " १ एटने नियमित करेला क्षेत्रथी वाहेर मोटा लाजनी प्राप्ति होय, तोपण ते त्यां जतो नयी, तेथी आ दिशा परिमाणवतथी तेटलो सोननो निग्रह थाय . ते विपे व्यतिरेकथी दृष्टांत कहे जे. " करुणा वल्ली बीयं, जश् कुव्वंतो दिसासु परिमाणं । राया असोगचंदो, ता.नरए नेव निवतो" ॥ १ ॥ " दयारुप बबीना बीजसमान एबुं ते दिशिपरिमाण व्रत कयु होत तो राजा अशोकचंड नरकमां पढ़ते नहीं." १ __ अर्थात्-तपावेला लोढाना गोळा जेवा आ पृथ्वीमंगल पर भ्रमण करवाना निषेध करवारुप आ व्रतवमे गृहस्थ एवी नावना करवी के, आ दिशिपरिमाण व्रत दयारुप वेलमीनुं वीज . राजा अशोकचंपनी कथा. चंपानगरीमां श्रेणिक राजानो पुत्र अशोकचंद्रनामे राजा हतो. ज्यारे तेनो जन्म थयो, त्यारे तेनी माताने पुःस्वप्न आववाथी, तेणीए ते पुत्रने बाहेर मूकेस्रो, तेवामां एक कुकमीए आवी तेनी आंगळी करमी खाधी हती. आथो ते राजा कोणिकना नामथी पण ओलखातो हतो. एक वखते श्रीवीरपत्नु ते चंपानगरीमां समोसर्या. ते समये जंगम कपक्ष समान ते प्रनुनु आगमन सांजळी राजा अशोकचंड मोटा उत्सव साथे तेमने वंदना करवाने गयो. वीरप्रभुए धर्मदेशना आपी. देशना समाप्त थया पठी Jain Education Interational Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयप्रकाश. २११ बुं बे के जेथी अशोकचंडे जुने आ प्रमाणे पूच्युं, “हे स्वामी, जेणे जोगनो त्याग कर्यो नथी, एवो चक्रवर्त्ती मृत्यु पामीने कइ गतिमां जाय छे ? " प्रभु वोड्या, “ तेवो चक्रवर्त्ती प्राये करीने सातमी नरके जाय बे." अहिं प्राय शब्द ग्रहण करवायी चक्रवतींनी साते नरकनी गति समजवी, एम जगवती सूत्रमां कां बे. राजा - शोकचं पुनः पुत्र्युं, " त्यारे शुं मारे पण सातमी नारकीए जवं पमशे ? " स्वामीए कहुं, " राजा, तुं चक्रवतीं नथी, तेथी तारे सातमा नरकनी गति क्यांथी होय ? तुं तो बी नरके जवानो बुं. " राजा कोएिक पोताने चक्रवर्ती मा - नतो हतो, तेथी ते बोब्यो, “स्वामी, हुं चक्रवत्ती नथी, एम मनाय ? कारण के, मारी सेना एटलीवधी वे के, जे लाखो हाथी, अश्व, रथ अने कोटी गमे सुनोथी आाखा जगत्ने संहार करवाने समर्थ छे तेमज घणां संबाधन ( खळां), घोणमुख पाटण, खटक, कर्बट, नगरादि अने खाणो मने दा आपनारा बे. तेमज व्यापारना करो, अक्षय निधानो पण मारा तावामां छे. मारो प्रताप घो जयंकर बे; ते सर्व शत्रु वर्गने आक्रमीने रहेलो बे. मारे शुं मारामां चक्रवत्तींपणुं न होय ? " राजानां आ वचनो सांजळी प्रभु वोढया, राजन, एटली समृद्धि होय तेथी शुं थयुं ? चक्रादिक चौद रत्नो शिवाय च - कवीपणुं कदिपण होतुं नयी. " प्रजुनां यावां वचन सांजळी राजा - शोकचंद्र त्यांथी नवीने पोताने स्थाने गयो, अने त्यां ज‍ लोह वगेरेना सात एकेंद्रिय रत्नो बनाव्या. पोतानी पद्मावती स्त्री उपर स्त्री रत्ननी कल्पना करी. पोताना पट्टहाथीने गजरत्न ठराव्यो. वाकीना रत्नो पण एवी रीते बनावी दी - धा. पछी ते पोतानी मोटी सेना लइ पूर्वादि दिशाओ तरफ अनुक्रमे फरवा नि कव्यो. ते मोटा सैन्यथी परिवृत थइ वैताढ्य पर्वतनी तिमिश्रा - गुहा आगळ - व्यो. त्यां ते बनावटी दंग रत्नथी तामना करी पण ते गुहानां द्वार उघड्यां नहीं. ते वखते ते गुहानो द्वारपाल कृतमाल देव अत्यंत क्रोधातुर वनी त्यां प्रगट थयो ने बोल्यो, अरे ! नहीं प्रार्थना करवा लायक एवो तुं प्रार्थना करनार कोण बे ? हिंथी चाढ्यो जा. खोंखारा खाइ काननी शा माटे कदर्थना करे बे ? " को एक राजाए कयुं, " हुं जरतक्षेत्रने विषे अशोकचंड नामे चक्रवतीं यो बुं. तेथे तुंआ गुहानुं द्वार सत्वर उघाम. " देव हास्य करीने वोढ्यो, "अरे को कि ! या नरतक्षेत्रने विषे वार चक्रवर्त्ती थाय बे, ते बधाथ‍ गया बे. 66 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्री आत्मप्रवोध. तेथी तुं चक्रवत्ती नथी पण कोइ चक्रवातो लागे ." अशोकचंड बोल्यो, "देव, तने खबर नथी. हुं मारा पुण्यना बलथी तेरमो चक्रवर्ती थयो बु. माटे तुं धार नघाम अने विलंब करी मने खेद न पमाम." अशोकचंजनां आवां आग्रही वचन सांनळी अने जाणे तेनामां नूतनो आवेश थयो होय तेम जाणी ते क्रोधातुर वनी गयो. तत्काल तेनामांथी जाज्वल्यमान अग्निनी गया प्रगट थइ. अने तेथी तेणे तेने दग्ध करी छठी नरकनो अतिथि करी दीधो हतो. आ प्रमाणे अशोकचंजनी कथा कहेवाय . आ वृत्तांत सांजळी बीजा जव्य मनुष्योए दिशिपरिमाण व्रतनो अनादर न करवो. जो ते व्रतनो अनादर करवामां आवे तो अशोकचंजनी जेम आ लोकनां कष्टने पामी परनवमां नरकनी पीमा जोगवे . तेथी ते व्रतने ग्रहण करवामां आलस करवू नहीं. तेनी भावना आ प्रमाणे जे" चिंतेअव्वं च नमो, साहणं जे सया निरारंन्ना । विहरंति विप्पमुका, गामागर मंमिश्र वसुहं " ॥ १ ॥ "जेो हमेशा आरंज रहित अने मुक्त थइ ग्राम, आकर (खाणो)थी मंमित एवी आ पृथ्वीमां विहार करेडे, तेवा साधुओने नमस्कार हो, एम चिंतववू." १ आ प्रमाणे उबुं दिशि परिमाण नामे पहलै गुणवत छे. लोगोपत्नोग प्रमाण नामे बीजु गुणवत. जे पदार्थो एक वखत जोगवाय ते जोग एटले जोजन, पुष्प वगेरे. अने जे वारंवार जोगवाय ते नपनोग, एटले स्त्री, वस्त्र, आनूषण वगेरे. तेनुं परिमाण करवाथी जे व्रत लेवाय ते “ जोगोपनोग परिमाण " नामे बीजु गुणव्रत कहेवाय . ते व्रत जोजनयी अने कर्मथी- एबे प्रकारे . ते विषे कां ने के, " नोयण कम्मेहिं उहा, बीयं लोगोवभोग माणवयं । नोयणो सावजं, नसग्गेणं परिहरेश ॥१॥ Jain Education Intemational Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयप्रकाश. बा " तह अतरंतो वजइ, बहु सावजाइएस भुजाई। बावीसं अन्नाशवि, जहारिहं नाय जिणधम्मो” ॥२॥ " बीजं जोगोपनोग परिमाण व्रत जोजनथी अने कर्मथी एम वे प्रकारे डे. तेमां भोजनथी श्रावक उत्सर्ग मार्गे करी ( मुख्य वृत्तिए करी) सावध (सचित अने एषणीय) जोज्यने परिहरे छे अने अने एतेने परिहरवानी अशक्ति होय तो एकला सचित्तनेज परिहरे . [ ते गाथामां कडं नथी, तो पण जाणी लेबु ] तथापि अशक्त उतां पण जिनधर्मने जाणनारो श्रावक बहु सावद्य एवा बावीश अजयने परिहरे में" १,-५ ते बावीश अनक्ष्योनां नाम. " पपचुंबरि महविगई, १०हिम, ११विस १२करगेअसव्वमट्टी १४राईलोअणगंचिय, १५बहुबीज अणंत १५संधाणं ॥१॥ १“घोलवमय १ वायंगण, २°अमुणियनामाणि फुलफलयाणि । २'तुच्छफलं २२चत्रिअरसं, वजनुज्जा बावीसं" ॥२॥ "पांच ऊंबरा, एटले ऊंबरो, पीपळानी पेपमी, वन, प्लक्ष, काकोडेबरिका, ए पांचना फन जे मशकना आकारवाला अने बहु जीवोथी नरेना होय , तेथी ते वर्जवा. तथा मद्य, मांस, मध, अने मांखण-ए चार विगय ( विकृति) ते घृतादिकनी अपेक्षाए महाविकारना हेतु रुप होवाथी वर्जवी. तेम वली ते क्रूर अध्यवसायना हेतु रुप , अने तेनी अंदर तत्काल तेना जेवा वर्णवाला जीवो नत्पन्न थइ जाय डे, तेथी ते वर्जवा योग्य जे. तेने माटे कj ने के, " मजं महुमि मंसे, न वणीयंमि चनत्यए चेव।। उप्पाजंति असंखा, तव्वमा तत्थ जंतुणो" ॥१॥ ___ " मद्य, मधु, मांस, अने मांखण ते चारमा लेना जेवा वर्णवाला असंख्याता जंतुओ उत्पन्न थाय ." ? तेम हिम, विष, करा, माटी, अने रात्रिनोजन ते प्रसिफ ने. तेओ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ श्री आत्मप्रबोध. मां हिम, करा, माटीने विषे घणा जीवोनी उत्पत्तिनो संभव बे. अने विष तो पोतानेज उपघात करनारुं ने महामोहनुं उत्पादक छे. रात्रिभोजनमां घणा जीवोनो संपात थवानो संभव बे. अने तेथी ते आ जव तथा परनव संबंधी बहु दोषोथी दूषित होवाथी वर्जनीय छे. मसक [ धमण ]ने विषे मगनी पेठे अगणित बीज रहेला होय ते बहु बीज कहेवाय छे. पेपा बगेरे बहु बीज छे, तेना दरेक बीजमां जीवांनुं उपमर्दन थवानो संभव छे. जे म्लेच्छ कंदादिक ते अनंतकाय छे. तेना बत्रीश जेद बे. तेनी अंदर पण अनंत जीवोनी उत्पत्ति बे. संधान - एटले बोल प्रथाणुं, तेमां पण बहु जीवनी व्याप्ति बे. घोळवमा एलेकाची बाश; दहीं अने दाळना वमा, तेने मिश्र करीने करवामां आवे छे. ते विदल रूप बे. तेमां सूक्ष्म त्रस जीवोनी उत्पत्ति बे, ते केवसिगम्य बे. तेने माटे बृहत्कल्प सूत्रमां क े, ८८ जर मुग्ग मास प्रमुहं विदलं कच्चं मि गोरसे पडइ । ता तस जीवप्पति, जांति दहिए तिदिण नवरिं" ॥१॥ 66 मग, अमद, प्रमुख काचा गोरस (दहीं बास मां पजे तेने विदल कहे . मां त्रस जीवनी उत्पत्ति बे, एम प्रभु कहे बे. " १ ताक- एटले गणादिक, ते प्रसिद्ध बे. ते बहु बीज े. तेनुं अतिशय लोकविरुद्ध . तेमां बहु जीवमयपणुं छे. वली ते घणी निषा करनार तथा कामने उद्दीपन करनारा दोषना हेतुरुप बे, माटे वर्जवा योग्य बे. पोताथी के परथी जेमनुं नाम जणाय नहीं, तेवा अजाण्यां फूल तथा फल वर्जवां; कारण के, तेनी अंदर जीवोनो उपघात रहेलो बे. तेम जे नक्षण करवाथ तृप्ति थाय छे अने तेनो आरंभ मोटो होय, ते तुच्छ फल कहेवाय बे, ते गंगेटक, सींगोमा प्रमुख कोमळ फलो जाणवा. तेथी अनर्थ दंमनो संव बे. एटले थोमा आरंथ श्रावकने गृह व्यवहार चलावतां अनर्थ दंग होतो नथी. चलित रस एटले सभी गयेलुं दुर्गंधी धान्य, (फुगी वळीगयेलुं होवाथी) ते अनंतकाय कहेवाय बे; माटे वर्जवा योग्य बे. सुखकी प्रमुख काल उपरांत रहेल होय ते तथा सभी गयेला दाणा के जेमना वर्ण ने गंधादिक बदलाइ गया होय ते कुत्सित अन्न कहेवाय बे. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयप्रकाश आ प्रमाणे आ बावीश अनक्ष्यो कहेला ले. परंतु तेटवा बावीशज अलक्ष्य , एम न समजवू; कारण के उपलक्षणथी बीजा पण अनदय कहेवाय जे. जेमके, जेने बे दिवस नबंधन थइ गया होय, रांधेलाचोखाए करी व्याप्त एवं दही तथा पत्र पुष्पादि, जे बहु सावध होय ते वर्जवा. अटप सावध होय तोपण तेनो नियम करवो. जेमके, “ मारे आदक्षा प्रमाण ओदनादि जमवा." तेवी रीते चित्तनी अत्यंत गृषि-लोबुपता, उन्माद तथा अपवाद वगेरेने उत्पन्न करनारां वस्त्र, आनूपण अने वाहनादिक वर्जबा, अने बाकीनानुं प्रमाण करवू, प्रमाणमां विरतिनी परिणति एटने विरति करवाना परिणाम होय , माटे परिमाण अवश्य करवं. अहिं केटलाएक अज्ञानी लोको कहे छ के, "श्रा संसारमा शरीरज साररुप बे, माटे ते शरीरने जेम तेम पोषधं जोइए.तेमां नदय अनदयनी कल्पना शा माटे करवी ?" या संबंधे तेमने कहेवार्नु के, तेओ खरेखरा मूखेज जे. कारण के, आ शरीरने बहु प्रकारे पोषण करवामां आवे, तोपण ते शरीरर्नु असारपणुंज होय के तेथी तेवा असार शरीरने अर्थे विवेकी पुरुषोए अजय नक्षण कर नहीं. तेने माटे कर्तुं छे के " अश् पोसिपि विहडइ, अंते एअं कुमित्तमिव देहं । सावज तुज पावं, को तस्स कए समायर" ॥ १॥ "आ शरीर अति पोषण कर्या उतां पण अंते नगरा मित्रनी पेठे विनाश पामी जाय , तेथी तेवा शरीरने माटे सावध जोगववानुं पाप कोण आचरे?"? हवे दृष्टांत सहित आ व्रत बोधानु फल देखामे ले. " मंसाईणं नियम, धीमं पाणच्चए वि पावंतो। पावइपरंमिलोए, सुरभोए वंकचुलोव्व" ॥ १॥ "मांसादिकनो नियम बुधिमान् मनुष्य प्राणना त्याग सुधी पण पालन करतो तो परलोकमां वंकचूलनी पेठे देवलोकना सुखने पामे . Jain Education Interational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रात्मप्रबोध. वेकचूलनी कथा. आ जर क्षेत्रने विषे विमल नामे राजा हतो. तेने सुमंगला नामे स्त्री हती. ते बने दंपती थी वे संतानो उत्पन्न थयां. तेमां पुष्पचूल नामे एक पुत्र अ ने पुष्पचूला नामे एक पुत्री हती. ते बने अनुक्रमे यौवन वयने प्राप्त थयां. राजकुमार पुष्पचूलने एक सुंदर राजकन्या साथे पराव्या. राजकन्या पुष्पचूलाने कोइ उत्तम राजकुमारनी साथे परणावी. राजकन्या पुष्पचूला विवाहित यया थोमा वखतमां विधवा था. आयी राजा विमल ने सुमंगला राणी घणाज दुःखी थइ गयां. विधवा थयेली पुष्पचूला तेना नाइ पुष्पचूल उपर - ति प्रेम राखती हती. आथी ते जातु स्नेहने लड़ने पोताना पिताने घेर रही हती. २१६ राजकुमार पुष्पचूल चोर वगेरे दुर्व्यसनोमा पी गयो; तेथी ते नगरना झोकोने अतिशय पीडवा लाग्यो. आ दुर्व्यसनने लइने लोकोमां ते बँकचूलना नामथ खावा लाग्यो. तेनी व्हेन पुष्पचला पण तेना जेवीज बुद्धिवाली थ, तेथे ते वकचूलाना नामथी लोकोमां विख्यात थइ. वकचूल नगर जनोने अत्यंत पीमतो हतो. तेनी घणी फरीयादो राजाना सांजळवामां यावी. आथी राजा तेनी उपर रोषातुर थइ गयो ने तेणे बँकचूलने पोताना राज्यनी हदमांथी काढी मूक्यो. तेनी बेहेन वकचूला ने तेनी स्त्री तेना प्रेमने लइने तेनी पाबळ चाली नीकळी. वकचूल पोतानी बहेन ने स्त्रीने साधे बइ जंगलमां जमवा लाग्यो. कोइ एक जयंकर अटवीमां ते आवी पहोंच्यो, तेवामां कोइ धनुर्धर जिले तेने जोयो. ते नि प्राकृतिथी तेने राजपुत्र जाणी बहु मानथी पोतानी पक्षी मां राख्यो. तेथे आदरथी तेनो वृत्तांत पुग्यो. बँकचूले तेने पोतानो वृत्तांत कही संजलाग्यो. तेनो वृत्तांत जाणी ते जिल्ह्ननी तेनी ऊपर घणी प्रीति थइ. ते समये त्यां मूल पीपति मरण पामेलो हतो, तेथी तेना स्थान ऊपर बँकचूलने स्थापवामां प्राव्यो. कचूल एक मोटो जिल्ल राजा बनी गयो. ते जोलमी ओनी साथै रहेवा लाग्यो अने नीलोनी साथे लोकोने लुंटतो ते स्थले मुखे काल निर्गमन करवा लाग्यो. एक वखते वर्षाऋतुनो समय आव्यो. तेवामां चंद्रयशा नामना एक Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. आचार्य केटलाएक मुनिओना परिवारना साथमांधी जुदा पमी गयेशा होवाथी तुला पमी ते पसीमां आवी चड्या. ते आचार्य पोताना आचारमा सारी रीते वर्तनारा हता, तेथी वर्षामां निरंतर नवा उत्पन्न थयेला अंकुराना मर्दनथी अने सचित्त जनना संघट्टथी जय पामता हता,तेयी ते समय तेमने विहार करवामां अयोग्य लाग्यो. आयी तेत्रो ते पबीमां पेशी गया हता. वंकले कुलीनताने लश्ने ते मुनिने प्रणाम कर्यो. गुरुए तेने धर्मशाननी आशीष आपी. गुरुए ते स्थले वसवा माटे वंकचूननी पासे जग्यानी मागणी करी. ते वखते वंकचूने कह्यु, “ महराज, हुं तमोने रहेवा वसति आपुं, परंतु तमारे ते जग्यामां के मारी हदमां धर्मनी प्ररूपणा करवी नहीं. कारण के, हिंसा, असत्य, अने चोरी वगेरेनो त्याग करवाथी धर्म प्राप्त थाय . परंतु अमारी आजीविका तो तेमांज रहेली जे. माटे तमारे आ स्थले धर्मनी प्ररूपणा करवी नहीं." आचार्य चंयशाए ए वात कबुल करी. पठी वंकचूने तेमने रहेवाने माटे निरवद्य स्थान प्राप्यु. पछी गुरु स्वाध्याय ध्यानादि धर्मकृत्य करता ते स्थने चातुर्मास्य रह्या हता. एक वखत वंकचूने आचार्यने आहारादिकने माटे निमंत्रण कर्य, त्यारे आचार्ये कडं, " नड, अमारे तमारा घरनी निदा कट्पती नथी. अमे तो अहिं तपश्चर्या करीनेज सुखे काल निर्गमन करीशु. तमोए अमाने जे वसति दान कर्यु बे, तेथी तमोए महापुण्य उपार्जन करेलुं . तेने माटे आगममां आ प्रमाणे कहेढुं . " जो देश उवस्सं मुणि-वराण तव नियम जोगजुत्ताणं । तेणं दिन्नावत्थन्न पाण, सयणासणंविगप्पा ॥१॥ पाव सुरनर रिकी, सुकुचुप्पत्ती य नोगसामग्गी । नित्थरइ नवमगारि, सिज्जा दाणेण साहूणं " ॥२॥ " तप, नियम अने योगयी युक्त एवा मुनियोने जे उपाश्रय आपे जे, तेणे तेमने वस्त्र, पाणी, शयन, अने आसन प्रमुख सर्व आप्युं . ते वसति दानना पुण्यथी ते मनुष्य देव तथा मनुष्यनी ऋद्धिने पामे , सारा कुलमा जन्म ૨૮ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रवोध. मेलवे डे, भोगनी सामग्री प्राप्त करे ने अने आ संसारनो पार पामे . "१-२ ___ वर्षाकाल अतिक्रांत थया पठ। गुरु महाराजाए वंकचूनने पुजी त्यांची विहार कॉ. वंकचून ते आचार्यनी सत्य प्रतिज्ञाथी हर्प पामतो शक्ति वमे तेमनी पाउळ गयो. केटलोक मार्ग नवघ्या पठ। चिरकान्न रहेना मुनिना वियोगथी विह्वल थयेला वंकचूने गुरुने नमन कर। प्रा प्रमाणे विनंति करते" स्वामी, अहींयी हवे वीजानो सीमामो आवे छे, तेयो हुं हवे पालो वनाश. हवे मने तमारुं पुनदर्शन तत्काल पाबु थाजो." आ प्रमाणे तेनां वचन सांजळी आचार्ये मधुर वाणीथी वंकचूनने कयुं, " हे ना, तमारी सहाय यी अो आटवो काल तमारा स्थानमा सुखे रह्या हता, तेथी जो तमोने रुचे तो तमागे प्रत्युपकार करवा माटे थोडं कां कहीए." वंकचून बांब्या-“ महाराज, ने माराथसुखे पाली शकाय, तेवां वचनो कही मार। नपर अनुग्रह कगे." वंकचूतना कहेवाथी ते आचार्य आ प्रमाणे बोव्या-" नक, १ जन नाम कोश्नायी जाणी शकाय नहीं एवां अजाण्यां फत तार खावा नहीं २ बीजाने मारवानी इच्छा थतां तमारे सात आठ पगलां पाई हवं. ६ राजानी पटराणीने माता समान गणवी.अने ४ कदि पाा कागम न मांस खा नहीं. आ चार नियमो तमारे चोकस रीते पानवा. या नियमो पानवार्थी तमारे उत्तरोत्तर मोटो लाभ थशे." आचार्यनां आ वचन सां नळी “ महाराज, आप मार) उपर मोटो अनुग्रह कर्यो " एम कही वंकबूले ते चार निधो ग्रहण कर्या. पळ। ते पोताने स्थाने पागे फर्यो अने गुरु महाराज त्यांथी विहार करी बीजे स्थने चादया गया. एक वखते वंकचून निबोनी सेना लइ कोई गाम मारवाने चाल्यो. ते गामना लोकोने अगानथ। मालूम पमवायी तेश्रो गाम मुकाने नाशी गया.वंकचून गामने खाली थयेनुं जोइ पोतानो परिश्रम निप्फन थयार्थी मनपा परिताप पामतो परिवार साथे त्यांय। पागे फो. अने अटवीमा एक वृक्ष नीचे विश्रांति लेवा बेगो. वंकचूलने क्षुधा सागवायी तेणे अटवीमांथी फलादि लाववाने पोताना माणसोने आज्ञा करी. ते लोको पण शुधाथी पीमित थता हता, एटले तेश्रो फलादि लेवाने अटवीमां आम तेम फरवा लाग्या. कोइ वन लतामां मुगंधी अने पाकेतां फलोथी नम्र थप गयेवं एक किंपाकनुं वृक तेमना जोवामां आव्युं. तत्का Jain Education Interational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयप्रकाश : २१९ लम एनां फलो लोधां ने ते लइ तेस्रो वंकचूलनी पासे आव्या. वंकचूलने ते फलाने जोतांज पाते लीलो नियम याद आव्यो. तेथी तेणे ते फलनुं नाम पुत्र्यं. निलो कयुं, " मे या फलनुं नाम जाणता नथी. परंतु ते बहु स्वादवाला . माटे आपने खावामां हरकत नथी. " वंकचूले कहुं, " हुं अजाएयां फल खातो नथी; कारण के में अजाण्यां फल न खावानो नियम लीधो बे. " निलो आग्रह पूर्वक कां, “स्वामी, यावी अस्वस्थ अवस्थामां नियमनो आग्रह राखवानां आवतो नय। कारण के, अहींतो प्राण रहेवानो पण संदेह बे, वा मां अनिग्रह शो ? " ते लोकोनां आवां वचन सांगळी बँकचूल धर्मनुं धैर्य धारण करीन बोध्यो, “जिल्लो, हुं क्षुधाथी पीमान बुं, परंतु मने ए नियममां दृढता . तमारे आवां वचनो वोलवां नहीं. प्राण जवानां होय तो जते जाओ, परंतु गुरु समीपे ग्रहण करेलो मारो नियम स्थिर रहो. " पछी ते लिए कच्ने आग्रह कर्यो नहीं. ते वधा ए फल खाइने ते वृक्ष नीचे सुइ गया; पण माय । कचलना निरोधथी एक सेवके ते फल खाधां नहीं. पीकच पण सूड़ गयो. थोमोवार पछी बँकचुले जाग्रत थइ पोताना खास सेवकने जगायो के, "आ सूतेला लोकोने जगाम हवे आपणे - प प मां जाए. " ते सेवके पोकार करी वधाने जगामवा मांड्या, पण कोइ जां नहीं. पत्र । करस्पर्श करी जगामवा मांड्या, तोपण को जाग्या नहीं. तेणे तपास कर जोयुं, तो त्यां सर्वे नर पामेला मालूम पड्या. पत्री ते वकचूलने ते वृतांत जणाव्यो. आयी वेकचूल आचर्य पामी गयो ने पोते ग्रहण करेलो नियम सफल थयो, एम जाणी मनमां या प्रमाणे कहेवा लाग्यो. अहा ! गुरु वानुं माहात्म्य के बे ? ते वालीना प्रजावयी हुं जीवतो रह्यो . हुं केवो निग के सर्व इष्टसिद्धि करनार कल्पवृक्क जेवा ते गुरु अकस्मात् मने प्राप्त थया हता, तेमनी वाणीना उपदेशनो लान में छोम। दीधो अने फोगटनो वखत गुमायो " आ प्रमाणे चित्तमां भावतो ते वकचूल हर्ष ने खेद साये रात्रि परुतां पोतानी पनीमां आव्यो. जेवामां ते रात्रे घरमा प्रवेश करे वे, वासां पोतान। व्हेन पुरुषनो वेष धारण करी पोतानी स्त्रीनी साये सुते तेना जोवामां आवी, ते पुरुष वेषवाली पोतानी व्हेनने ओळखी नहीं. तेना मनमां एम आयु के कोई पुरुष साये पोतानी स्त्री सुतेली बे. आाथी • 44 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० श्री आत्मप्रबोध. तेणे चिंतव्युं के, " अरे ! मारी स्त्री पुराचारिणी जे. ते आ कोइ पुरुषनी साथे सुतेत्री जे; माटे आ बनेने आ वखते खायी मारी नां. " आई चितवी ते प्रहार करवाने खड्ग जगामे बे, तेवामां तेने पेलो ग्रहण करेलो बीजो नियम याद आयो. तत्काल ते सात पगतां पागे फो. ते वखते क्रोधातर एवा ते वंकचूनतुं खा घारनी साथे अथमायुं. तेना शब्दथी तेनी पुरुषवेषधारी व्हेन वंकचूना जागी गइ. तेणे पोताना नाइने जोतांन कडं, " नाइ, चिरंजीवो." वंकचून पोतानी व्हेनने ओलखी शरमाइ गयो. पोताना खानी साथे क्रोधने संवरी तेणे पोतानी व्हेनने पुरुष वेष धरवानुं कारण पुज्यु. कचूला बोली"नाइ, आजे संध्याकाले तमारा शत्रना सेवको नटनो वेष धारण करीने अहीं आव्या हता. हुं तेमनो कपट वेप जाणी गइ हती. ते वखते में चिंतव्युं के, नाश वंकचून बाहेर गया . ते क्यों डे, एनो मने खबर नथी. जो आ लोकोना जाणवामां आवशे के वंकचून परिवार सहित बाहेर गयेल , तो तेश्रो श्रा पसीने अनाथ धारी पराजय करवाने आवशे; माटे कोई उपाय करवो. आर्बु चितवी में रात्रे कपटथी तमारो वेष पेहेर्यो अने पछी सनामां ते नट लोकोनी पासे नाटक करावी, तेमने योग्यता प्रमाणे प्रव्य आपी विदाय का. पली आलसथी में तमारो वेष काव्यो नहीं अने ते वेष साथे मारी नोजाश्नी साथे सुइ गइ हती." पोतानी बहेनना मुखयी आ वृत्तांत सांनळी वंकचून पोताना मनमां विचारवा लाग्यो के, "अहा ! गुरुना उपदेशनो केवो मोटो लान मळ्यो? मने ते गुरुनी वाणीए व्हेननी हत्याना पापमाथी बचाव्यो." आ प्रमाणे तेणे गुरुवाणीनी बहु प्रशंसा कर. एक वखते वंकचून चोरी करवा माटे उज्जयिनी नगरीमा गयो. त्यां अर्ध रात्रे को धनवान् शेउना घरमां चोरी करवाने पेगे. तेवामां त्यां ते गृहनो स्वामी शेठ एक कोमीनो खर्च वधारे थवानी ज्रांतिथी पोताना पुत्रनी साथे वाद विवाद करता तेना जोवामां आव्यो. ते जोतांज वेकचूनने मनमां तिरस्कार उपज्यो के, आवा शेठना धनने धिक्कार हजो. पड़ी ते त्यांची चोरी कर्या विना पागे फ. यो. पड़ी कोइ ब्राह्मणना घरमा पेठो. लोकांनी पासे थोड़ें थोड़ें याची संपत्तिने पामेला एवा आ ब्राह्मण- धन लड्ने शुं करवू ? एम चिंती तेनुं घर पण डोमो चाल्यो गयो. पड़ी ते काइ वेश्याना घरमां पेगे. " पोताना रमणीय शरीरवके Jain Education Intemational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश २२१ कुष्टी नरने पण सेवनारी वेश्यानुं धन लेवू, एतो विशेष निंदनीय ; माटे मारे एनुं धन पण शा माटे लेवू जोइए!" आम विचारी तेणे वेश्यानुं घर पण छोकी दीधुं. ते पड़ी ते राजाना घर आगन आव्यो. त्यां तेणे चिंतव्युं के, “ चौर्यमाचर्यते तच्चे, ब्लुंट्यते खनु नूपतिः॥ फलिते धनमक्षीणमन्ययापि चिरं यशः " ॥ १ ॥ " जो चोरी करवी तो राजानेज बुंटवो.कारण के जो काम सफल थाय तो अक्षय धन मने अने नहींतो लांबा कालनुं मोठं यश मले."१ आई विचारी ते वनमांथी एक घो लाग्यो. तेने राजाना घरना किया उपर चोटामो, तेना पुढमा साथे वलगी राजाना मेहेलमां दाखल थयो. त्यां अद्भुत रुपने धारण करनारी राजानी पटराणी तेना जोवामां आवी. ते समये जाग्रत थयेली राणीए तेने जोयो अने आ प्रमाणे पुग्यु,"तुं कोण ? अने अहिंशामाटे आव्यो ?" वंकचूने कह्यु, “हुं चोर बुं अने बहु प्रकारनां मणि तथा रत्नादिक अव्यनी इच्छाथी अहिं आव्यो ." आ वखते वंकचूलनुं रूप जोइ राजानी राणी तेनी पर मोहित थइ गइ. तेणीए कोमल स्वरथी या प्रमाणे कयुं,"ना,व्यनी वार्ता के ? आ बधुं तमारुंज जे. कोइ जातनो जय राखशो नहीं. स्वस्थ थानो. आजे तमारा कुल देवता तमा। उपर तुष्यमान थया . कारण के, हुं राजानी पटराणी तमारे वश था गइ बुं. आजे में मारा सौजाग्यना गर्वथी राजाने रीसाव्यो छे, तेथी तमे अहीं आवो अने तमारा यौवनने सफल करो.हुँ संतुष्ट थतां माणसोने अर्थ काम सुखन .मारो संतोष हो तो पळी तमारो वध के बंध थशे नहीं." आ प्रमाणे पटराणीए ते वंकचूलने कामग्रहथी लोनाव्यो अने दोन पमाड्यो. तोपण वंकचून पोते अंगीकार करेखा नियमनु स्मरण करी राणीने नमी आ प्रमाणे बोल्यो, " माता, तमे मारां पूज्य छो. मारा जेवा एक वनवासी तस्कर तरफ तमारे स्पृहा करवी योग्य नथी." पटराणी बोली, " अरे वाचाल, हुँ तारी साथे कामनी अनिलाषी बु, तेने तुं माता कहीने बोलावता केम शरमातो नथी ? जो तुं मारु वचन मानीश नहीं तो आजे तारी उपर यमराज रुठ्यो समजजे. " आ प्रकारे राणए घणां वचनो युक्तिथी कह्यां, तोपण ते वंकचून ज Jain Education Interational Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. रा पण दोन पाम्यो नहीं. पठी ते राणी क्रोधातुर थऽ अने नखे करी पोतार्नु शरीर जफरमी उंचे स्वरे पोकार करवा लागा." आ तरफ राजा ते राणीवासना गृहना द्वार आगळ बुपी रीते जजो रही आ सर्व वृत्तांत सांभळतो हतो. ज्यारे राणीए पोकार करवा मांड्यो एटले द्वारपालो जागी उठ्या अने उघामां शस्त्रो ला दोमो आव्या. ते वखते राजाए ते लोकोने अटकावीने कडं, “ आ चोर निरपराधी , माटे तेने मारशो नहीं. मात्र जरा बांधीने लइ जजो अने सवारे मारी आगळ सनामां लावजो." घारपालोए राजानी आझा प्रमाणे कर्यु. ते चोरने पकमो बांधाने ला गया. आ वखते पोतानो राणीनो पुराचार प्रत्यक्ष जोई राजा मनमां चिंता करवा लाग्यो अने ते चिंतामां तेणे जाग्रतपणाथीज महा कष्टे रात्रि निर्गमन करी. प्रातःकाले राजसेवको ते चारेने बांधी राजानी आगळ सत्नामां साव्या. राजाए आक्षेपथी वंकचूलने, सत्य कहेवाने कह्यु. एटले वंकचूने रात्रिनो सर्व वृत्तांत जे बन्यो हतो, ते साचे साचो कही संनळाव्यो. अने राणीए पोताने मधुर वाणीथी केटलांक वचनो कयां हता, एम गुप्तपणे ते वात जणावी. आथी राम वंकचूचनी नपर संतुष्ट थप गयो. तेने बंधमांथी मुक्त करी राजाए आलिंगन कर्यु. अने आ प्रमाणे कडं, “ हे सत्पुरुष, तमारा साहसथी हुँ तमारी उपर संतुष्ट थयो बुं, माटे मारी पटराणी हुं तमने अर्पण करूं." वंकचून बोव्यो"स्वामी, आपनां पटराणी ए मार। माता . आप एवं वचन न बोल." ते पठी राजाए धमकी आपीने कयुं के, “ जो तुं राणीने ग्रहण करशे नहीं तो हुं तने शूलीए चमावीश." वंकचून आवी धमकीथी पण मग्यो नहीं. तेणे धैर्यथी ते वात अंगीकार करी नहीं. वंकचूलने आम अचन अने दृढ जोइ राजा तेनी ऊपर घणोज तुष्यमान थप गयो अने तेज वखते तेने पोताना पुत्रना पद ऊपर स्थापी दीधो. पळी राजा पोतानी उराचारिणी राणीने हणवा इच्छतो हतो, तेने वंकचूले केटनांएक वचनो कही जीवती रवावी हती. ते पछी वंकचूने पोतानी स्त्री अने बहेनने त्यां बोलाव) ते नज्जयनी नगरीमा सुरवे रहा हतो. त्यारथी तेने धर्म ऊपर विश्वास नत्पन्न थयो अने तथ। तेणं पोताना हृदयने जैनधर्मने विष अनुरक्त कयु. पेत्रा आचार्य महाराजाए आपेला (नयमाने निरंतर संचारतो वंकचून यथाशक्ति धमे ऊपर श्रघावालो थयो हतो. Jain Education Intemational Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. एक दिवसे वंकचूनना नाग्योदययते आचार्य नगवान् तेज नगरीमां पधार्या. ते खबर जाणी वंकचून मोटा आवरर्थी तेमने वंदना करवाने गयो. आचार्य पासेथी धर्मनुं शुक स्वरुप सांजळ। तेणे तत्त्व रुचिरुप सम्यक्त्व अंगीकार कर्यु हतुं. आ अरसामां ते उज्जयिनी नगरीनी समोपे आवेला शालिग्राम गामना रहेवासी जिनदास नामना श्रावकनी साथे वंकचूलने मैत्री था हता. ते जिनदास श्रावक ऊपर वंकवनो घणोज स्नेह थयो हतो. एक समये राजाए अति पुर्जय एवा कामरूप देशना राजाने जीतवा माटे वंकचूलने आझा करी. बंकचूने राजानी आझायी कामरुप देशमा जइ त्यांना राजा साथे युछ करी तेने पराजित कयों, परंतु शत्रुओनां शस्त्रोथी ते घणोज घायल थप गयो.घायल थयेलो वंकचून तेवोज स्थितिमा उज्जयिनी नगरीमां श्रावी पोहोच्यो. वंकचूतनी प्रावी स्थिति जोइ राजाना हृदयमां चिंतानी पीमा उत्पन्न थ६ अा.वी. तत्काल तणे घणा वैयोने बोलावी तेनी चिकित्सा करावी; पण वेकचूतना घा काया नहीं. राजाए पठी पोताना वैद्योने क्रोध लावीने कह्यु, " तमे वंकचलने शा माटे साजो करी शकता नथी. तमारे तेने जलदी साजो करवो." वैद्योए कह्यु, " महाराज, तेने माटे हवे एक उपाय के, जो ते कागमानुं मांस खाय तो तेना शरीरना घा रुका जाय. " आथी राजाए वंकचलने आदिगन करी अश्रुपात करतां कह्यु, " वत्स, तारी पीमा दूर करवा माटे वैद्योए घ. णा उपचार कर्या,पण तारा घा रुमाया नहीं. हवे कागमानुं मांस खावानो जपाय बाकी छे, ते तुं कर एटख्ने तारा शरीरनी पीमा दूर था जाय. वंकचूने का, "स्वामी, हुं सर्वथा मांसलक्षणथी निवृत्त थयो . तेमां खास करीने कागमार्नु मांस न खावानो में नियम कर्यो के तेयी हुं मारो नियम तोमोश नहीं. राजा वोन्यो, “ वत्स, जो जोवतां रहेवाय तो घणा नियमो लश् शकाशे. अने मृत्यु पाम्या पळी ते बधा नियमो चाव्या जो. माटे जीवन राखवा तुं कागमानुं नद भदण कर " राजानां आवां वचन सांजळी वंकचून बोब्यो. “ स्वामी, हवे मारे जीववानी जरा पण तृष्णा नथी; कारण के, एकवार अवश्य मृत्यु तो थवानुंज बे. तेयी आ प्राण नले जाय, पण हुँ अकृत्य नहीं करूं." आ वखते राजाए पेलो शालिग्राम वासी जिनदास श्रावक के जे वंक Jain Education Interational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्री आत्मप्रबोध. चूलनो परम मित्र हतो, तेने बोलाव्यो. राजाना बोलाववाथी जिनदास तत्काल वंकचूलने मलवाने मार्गे चाली नीकट्यो. ते रस्तामां आवतो हतो, तेवामां को वे देवीओ रुदन करती तेना जोवामां आवी. जिनदास तेमनी पासे आव्यो अने तेणे ते देवीओने पुठो, “ तमे कोण गे ? अने शा माटे रुदन करोडो ? " ते स्त्रीओ बोली-" अमे सुधर्म देवमा रहेनारी देवीओ बीए. अमारो स्वामी देवलोकमांथी च्यवी गयो, तेयो तेना विरहथी अमे विह्वल बनी वंकचून नामना एक क्षत्रिय जारने प्रार्थवा इच्छीए डीए.आजे ते तमारां वचनथी जो तेनो नियम भांगशे तो ते सत्वर ऽर्गतिए जशे.तेथी अमारे तेनो पागे वियोग थशे. आथी अमे रुदन करीए बीए." ते बंने देवीओनां आ वचन सांजळी जिनदासे कह्यु, "तमे रुदन करशो नहीं. जेम तमारं इष्ट थशे, तेम हुं करीश. " आ प्रमाणे ते देवीओने आश्वासन आपी जिनदास उज्जयिनी नगरीमां आव्यो. ते राजाना मंदिरमा गयो अने राजाने मन्यो. पठी तेणे वंकचूल आगळ आवी तेनुं कुशल पुढी औषधना उपाय माटे पूज्यु, ते वारे राजाए तेने सर्व वृत्तांत कह्यो. वंकचूलने काकमांस न खावाना नियममां अति दृढ जोइ अने तेनुं शरीर अत्यंत जर्जरीनूत थयेवं देखी तेणे राजादि सर्वनी समक्ष प्रा प्रमाणे कडं" आ मारा मित्र वंकचूलने धर्म तेज औषध , माटे बीजं कोइ पण औषधनी प्रवृत्ति करवी नहीं. " मित्रनां आवां वचन सांजळी वंकले कडं, " मित्र, तमे का, ते योग्य ले. हवे मारे तमने विशेषमां कहेवानुं के जो तमे मारी ऊपर पूर्ण स्नेह राखता हो तो आलस्यने दूर कररी मने आ मेवे अवसरे कांक 'संबंस आपो. " वंकचूतनी आ मागणी ऊपरथ! जिनदासे तेने सम्यक् प्रकारे आराधना करावी. तेथी वंकचून चार आहारना पच्चखाण करी अने चार शरणनो अंगीकार करी पंच परमेष्टी नमस्कार- स्मरण करतो, तथा सर्व जीवोने विषे निर्वैरपणानी धारणा करतो, पूर्वना करेलां पापने निंदतो अने सुकृतने अनुमोदतो समाधि पूर्वक काल करी बारमा देवलोके देवता थयो. ते पनी जिनदास वंकचूतनी मरण क्रिया करी शोक करतो पोताने घेर चालतो थयो. ते रस्ते जतो हतो, त्यां मार्गे पेली बे देवीओने रुदन करती जो तेणे पुज्यु, " जजे, हजु शा माटे रुदन करो गे? ते अखंडित व्रतवालो था मृत्यु पामी देवलोकमां तमारो स्वामी न थयो ?" ते देवीओए निःश्वास नांखीने कह्यु, १ भातुं. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. २२५ " हे निर्मवाशय जिनदास, तमे शुं पूछो गे ? अमारे तो ते अमारा स्वामीनो वियोगज रह्यो. कारण के, तेत्रो परिणामनी विशुद्विधी अमोने अोलंगीने बारमे देवलोके गया." पड़ी जिनदास त्यांथी पोताने स्थाने चाल्यो गयो. ए प्रमाणे वंकचूलनुं वृत्तांत कहेवाय . आ वृत्तांत ऊपरथी थोमा पण अभक्ष्य भक्षणना नियमनु महा फल जाणीने भव्य प्राणीओए विशेषयी नियम पालवामां तत्पर थq. आ प्रमाणे जोजनने आश्रीने लोगोपलोग व्रतनुं स्वरुप कर्जा. हवे कर्मने आश्रीने कहे - "कम्मा जश् कम्मं विणानतीरे निव्वहेनतो।। पनरसकम्मादाणे चयश्अणंपि खरकम्मं ” ॥१॥ "कर्मने आश्री नत्सर्ग मार्गे करीने श्रावके कोइ पण सावध कर्म करखं नहीं. अने निरारंन करीनेज रहे. पण जो कर्म विना निर्वाह न थाय तोपण पनर कर्मादान अवश्य त्यजी देवा. " ? । पंनर कर्मादान. ? अंगार कर्म, २ वन कर्म,३ शकट कर्म,४ नाटक कर्म, अने ५ स्फोटक कर्म, ए पांच कर्म. १ दांत, २ लाख, ३ रस, ४ केश अने ५ विष, ए पांच वाणिज्य. १ यंत्रपालन, २ निल्छन, ३ दवदान, 4 सर शोषण, अने ५ असती पोषण, ए पांच सामान्य. ए पंनर कर्मादान कहेवाय जे. १ आजीविका माटे अंगारा पामवा, जामनुंजीपणुं कर, कुंजार, लोहकार, अने सुवर्णकारनुं काम तथा इंटो पकाववा प्रमुखनो आरंन करवो ते अंगार कर्म कहेवाय जे. वृक्षादिकना पत्र, पुष्प वगेरेनुं वेदन, नेदन अने वेचवा प्रमुखना आरंज वझे जीवg, ते वनकर्म कहेवाय जे. ३ गामा अने तेना अंगो घमावी राखवा-वेचवा तथा गामीथी आजीविका करवी, ते शककर्म कहेवाय ने. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्री आत्मप्रबोध. ४ पोताना गामा, बलद तथा घोमावमे वीजानो जार वहेवो, अने जाएं बइ गामा प्रमुख वीजाने आपवा-ते व आजीविका करवी, ते नाटक कर्म कहवाय जे. ए कोदाळी, पावको, हल वगेरेथी भूमिनुं विदारण कर, तथा पथ्यर धरुवा - इत्यादि के जे आज ।। वका करवो, ते स्फोटक कर्म कहेवाय छे तेमज यव प्रमुख धान्यनो साथवो वगेरे कर | वेचं, ते पण स्फोटक कर्म कहेवाय बे. 'तेने माटे को के, “ जव चणया गोहुम- मुग्ग मास कर डिप्पनइय धन्नाणं । सत्य दालि कणिका, तंडुल करणाइ फोमयणं ॥ १ ॥ अहवा फोम कम्मं, सीरेां नूमिफोमणे जंतू । उमत्तयणं च तहा, तहाय सिल कुट्टयं तं चेति " ॥ २ ॥ जव, चणा, घऊं, मग, अमद, करटी प्रमुखनो साथवो करवो, दल कल करवा, ते स्फोट कर्म कहेवाय वे अथवा हले करीने जमीन फोमवी, पाणीने मारवा कूटवा लाकमीओना प्रहार करवा इत्यादि पण स्फोट कर्म कडेवाय . 46 ६ प्रथमथी म्लेच्छ वगेरे लोकोने मोकली हाथीना दांत मंगावीने वेचवा अथवा जे खीलोमां ते हाथीना जीवो पेदा थता होय त्यां पोते ज‍, दांत बावने वेचवा ते दंतवाणिज्य कहेवाय बे. उपलक्षणथी शंख, चामनुं, चामर वगेरे पण जाणी लेवा, तेनो वेपार करवो ते पण दंतवाणिज्य कहेवाय बे. खीण शिवाय बीजे बेकाऐथी दंतादिक बेचवामां के लेवामां दोष नथी. ७ लाख वेपार करवो ते लाखवाणिज्य उपलक्षणथी गळी, मणशील आदि अथवा मनोहर धान्यादिक पण जाणी सेवा. घी, तेल, मदिरा, मध, चरबी आदिनुं वेच, ते रसवाणिज्य कहे वाय बे. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सींग ज्य कहेवाय छे. लोह, लक्षणथी जावा. १० दासी, गाय, ११ तल शेलकी कर्म कडेवाय . द्वितीय प्रकाश. १७ नाग, अफी, सोमल प्रमुख वेचवां, ते विषवाणिहरताळ पण घणा जीवना घातक बे, माटे ते उप १२ बलद, घोमा वगेरे खांशी करवा, नाक वीधवा ने कान तथा कंबल वगेरेनुं छेदन कर ते निलंबन कर्म कहेवाय के. श ऊंट वगेरेने वेचवा, ते केशवाणिज्य कहेवाय छ. दिने यंत्रे करी पीलवा, पीलाववा, ते यंत्रपरीक्षण १३ तृणादिकनी वृद्धिने माटे अथवा क्षेत्र वगेरेने शोधवा माटे जे अनि लगामवो ते दवदान कर्म कहेवाय जे. १४ गोधूम वगेरेना बाज माटे प्रह, सरोवर वगेरे सुकवावा, ते शोषण कर्म कहेवाय . १५ असती - दुःशील दासी, बीलाडी प्रमुख जानवरोनुं पोषण कर, तपोषण कर्म कडेवाय बे. अहिं उपलक्षणथी शुक, सारिका, कुतरा आदि अधम पाणीनुं पण पोषण जाणी लेवं. 66 ए पंनर निaिn कर्मना बंधना हेतु होवाथी आगम जाषाए ते पंनरकमदान कहेवाय बे. अहिं एटला मात्र पंनरज त्यजवानुं नथी परंतु बीजा पण खर - कर्म, क्रूर, अध्यवसायथी साध्य कर्म जेवां के कोटवालपणुं तथा बंदीखानानुं रक्षक, इत्यादिकनो पण त्याग करवो. कदि अप सावध कर्मथ निर्वाह करवोपमे तो ते युक्त छे. तेने माटे कर्तुं बे के, श्रपितु सावजं, पढमं कम्मं न तं समारभइ । जंदण पहर, आरंने अविरओ बोओ " ॥ १॥ 46 श्रावक नहीं निषेध करेल सावध कर्म के जे घरनो आरंभ, ग्रामांतर गमन, शकट, खेमवादिक बे, तेनो वीजायी पेहेल्लो आरंभ पोते करे नहीं, ते शा माटे ? से कहे बे के, ” जेने ते कर्म करतो देखीने प्रयतनावंत लोको ते कार्य करवामां प्रवर्ते जे, तेथी बीजाना आरंजनो ते हेतु बने बे, माटे प्रथम आरंभ न करवो. " Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० श्री आत्मबोध. या प्रमाणे कर्मथ जोगोपभोग व्रत समजवं. 44 अहं शिष्य न करे के, “ पूर्वे जोगोपभोग शब्द वाची तो स्त्री वगैरे का हता, तेथी ए व्रतमां तेनुंज प्रमाण करतुं जोइए. तो पी कर्मथ ए व्रत हो शके नहीं ने कर्म शब्दने क्रियावाची पणुं होवाथी क्रियाने जोगोजोगपणानो संभव नथी. >> तेना उत्तरमां गुरु कहे बे – “ ए वात सत्य बे, पण जे जोगोपभोग पारादिक कर्मनुं कारणभूत बे, तेथी कारणने विषे कार्यनो उपचार करवाथी कर्म पण जोगोपजोगपणं कधुं छे. ते विषे हि वधारे चर्चा करवानी जरुर नथी. तनी जावना कहे - - " सव्वेसिं साहूणं, नमामि जेहि अहियंति नाऊणं । तिविष कामनोगा, चत्ता एवं विचितिजा " ॥ १ ॥ “ जे मुनिओ कामजोगने अहित जाणीने मन, वचन अने काया, ए त्रिविध वमे तेनाथी विरम्या बे, ते सर्व मुनिओने हुं नमुं बुं. " १ अर्थदंड विरमण नामे त्रीजुं गुणव्रत. अर्थ विरमण नामे त्रीजं गुणव्रत कहेवाय बे. स्वजन, शरीर, धर्म तथा व्यवहारने माटे जे आरंभ करवामां आवे ते अर्थदं कदेवाय बे. ते शिवाय बाकी ते अनर्थ कहेवाय छे. एटले पोताना उपयोगमां आवे तेनो आरंभ ते अर्थदं अने जेनी साधे पोतानुं कांड पण प्रयोजन न होय, छतां तेनो आरंभ करवो ते अनर्थदंग. तेवा अनर्थदंथी जे विरमण एटले विराम पामवं, अनर्थदं विरमण नामे त्रीजुं गुणत्रत कहेवाय े. ते व्रत दुध्यान वगेरे चार प्रकारना अनर्थदंरुना त्याग करवा रूप बे. तेने माटे कां छे, छे के, Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. शए " दंडिज जेण जिउँ, वज्जिय निय देह सयण धम्मठें । सो आरंभो केवल, पावफलोऽणत्य दंडत्ति ॥ १ ॥ अवघ्नाय पाव नवएस, हिंसदाणप्पमाय चरिएहिं । जं चउहा सो मुच्चर, गुणव्वयं तं भवे तश्यं ॥॥ "पोतानो देह, स्वजन अने धर्मनो अर्थ वर्जीने बाकीना जे जे आरंजोमां जीव दंमाय तेवो आरंन के जे केवल पाप रुप फलने आपनार मे, ते अनर्थदम कहेवाय . ते उर्ध्यान, पापोपदेश, हिंसा अने प्रमाद, ए चार आचरवाथ अनर्थदंम होय . ए चारनो जे त्याग करवामां आवे ते त्री अनर्थदंग विरमण नामे गुणव्रत कहेवाय जे." १-२ बीजी गाथामां आ प्रमाणे विशेष व्याख्या . अपकृष्ट एटले हीण ध्यान, ते आर्त तथा रौजध्यान कहेवाय जे. तेने माटे कहे जे के" राज्योपत्नोग शयनासन वाहनषु। स्त्री गंधमाल्य मणिरत्न विनूषणेषु ॥ इच्छानिवाष मति मात्रमुपैति मोहात् । ध्यानं तदातमिति संप्रवदंति तज्ज्ञाः ॥ १ ॥ संछेदनै दहन नंजन मारणैश्च । बंध प्रहार दमनै विनितनैश्च ॥ यो याति रागमुपयाति च नानुकंपां। ध्यानं तु रौषमिति संप्रवदंति तज्ज्ञाः " ॥३॥ " राज्यनो उपनोग, शयन, आसन, वाहन, स्त्री,गंध, माल्य, मणि, रत्न अने तेना आनूषणोनी अंदर जे मोहथी अत्यंत इच्छा-अनिझाप प्राप्त थाय, तेने विधानो आर्तध्यान कहे जे. १ जे छेदन, दहन, जंजन, मारण, बंध, प्रहार, दमन अने खंझनथी रागने प्राप्त थाय अने दया न लावे तेने विद्यानो रोषध्यान कहे ."२ Jain Education Intemational Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. १ धर्मी पुरुषोने पण आ संसारने विष घणुं करीने अंतरमा उर्ध्यान थाय . परंतु तेओ पोताना प्रज्ञानना बनयी जन्मार्गे जातां एवा पोताना चित्तने अटकावी पुनः सन्मार्गे लावे . जे प्राणीओ निरंतर आर्त तथा रोषध्यानमा प्रवर्ते जे, तेमने तो अनर्थदंमज . २ पापनो हेतु होवाथी पाप एटले खेती आदि कर्म, तेनी दाक्षिण्यताना स्थान विना जे उपदेश ते पापोपदेश कहेवाय छे. ३ जे हिंसनशील होय ते हिंस्र कहेवाय जे. एवा विष, अग्नि, हळ अने शस्त्र वगेरे तेनुं दाक्षिण्यताना स्थान विना जे असंयतोने आपy, ते हिंस्रदान कहेवाय . ४ प्रमाद एटले मद्य, विषय, कषायादिक. ते वझे जे आचरण, ते प्रमादाचरण कहेवाय . सात व्यसन, जलक्रीमा, दनी शाखाने आश्रीने हींचको खेलवो, कुकमा प्रमुख जीवोने समाववा, कुशास्त्रनो अभ्यास करवो अने विकथा करवी वगेरे प्रमादाचरण कहेवाय जे; अथवा प्रमादाचरण एटले आलसनी व्याप्ति नहीं शोधेला धन, धान्य तथा जनादिकनो व्यापार करवाथी, चुना,पाणीआरा वगैरेनी नपर चंदरवो न बांधवाथी अने घी, दही, दूध अने छाश आदिना पात्रो नहीं ढांकवाथी तेमां पोतानो तथा परनो नपघात थवाने बीघे ते बहु अनर्थना कारणो ने, एम जाणवू. ते कारणने बस्ने परम गुरुए श्रावकने घेर सात गलणा अने नव चंदरवा' कहेला . जेमके " सुखे सावयगेहे, हवा गलणाइं सत्त सविसेसं । जन मिउ खार आग्ण तकं घी तिवं चुलायं" ॥१॥ मोवं जल, खारं पाणी, उ, पाणी, डास, घी, तेत्र अने लोट-ए सातने गळवा माटे श्रावके गरणा राखवा. आ गाथानो अर्थ सुगम . अहिं स्रोटर्नु गळवं एवी रीते समजवं के, तेने चानणीयी चालवो. अहिं उपलक्षणथी दूध आदि वस्तुओ माटे पण गरj राखg. १ केटलेक स्थळे दश चंदरवा पण कहला छे. Jain Education Interational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. चंदवा क्ये क्ये स्थळे जोइए. जलस्थानो दुखल० ? पाणी आरे, २ खांमणीए ३ घंटीए, ४ चूले, ५ धान्यनी जूमिने विषे, ६ दहींनुं ज्यां मांखा करवामां आवे त्यां, 9 जोजन करवाने ठेकाणे, ८ सुवानी जग्योए ने ए उपाश्रये, ए नव स्थाने सुंदर वस्त्रयी निष्पन्न करेला चंदवा श्रावके धारण करवा. जो ते न करवामां आवे तो अनर्थदंड थाय छे. एवी रीते चार प्रकारना अनर्थदंनो त्याग करवो. ए अनर्थदं नामे त्रीजुं गुणवत कां. अर्थ विषे त्याग करवापणुं विशेष प्रकारे बतावे बे. घं करीने पोतानी शक्ति प्रमाणे जेणे अनर्थदं वर्जेलो के अने परमार्थ जाऐलो बे, एवो श्रावक के प्रकारे अनर्थदमने प्रयुंजे बे ? ते विषे सर्व प्रकारना अनर्थदमना दो उपर दृष्टांतो कहेवा अशक्य . तेथी मात्र एक चूला उपरनुं दृष्टांत आपवामां आवे छे. प्रमादे करीने चूला उपर चंदरखो नहीं बांधवाथी शुं ययुं हतं, ते दृष्टांत अन्वयव्यतिरेकथी कहे बे "" २३१ " चंदोदयदा, जाया मिगसुंदरी सया सुहिया । तजालनान कुट्ठी, तन्नाहों परभवे जाओ” ॥ १ ॥ 66 चूला उपर चंदरवो बांधवाथी श्रेष्ठीकन्या मृगसुंदरी नामे राजकन्या सदा सुखी यहती अने तेना तीरे ते चंदरवो वाळी नांख्यो, तेथी ते परनवे कुष्टी भयो हतो. " १ वीजा केलाएक तेना संबंधीजनो चूला उपर चंदरवो न बांधवा वगेरेथी अकस्मात् मृत्यु रुप कष्टने पाम्या हता, ए उपलक्षणथी जाणी लेवु. गाथानो अर्थ प्रमाणे अने तेनो भावार्थ कयाथी जावो. मृगसुंदरीनी कथा. श्रीपुर नगरमा श्रीषेण नामे राजा हतो. तेने देवराज नाम एक पुत्र थयो हतो. ते देवराज ज्यारे युवान थयो, त्यारे पूर्वना दुष्कर्मना उदयर्थी ते कुष्टी थयो. तेना रोग दूर करवा माटे सात वर्ष सुधी उपचारो करवामां आव्या; पण ते नीरोगी यो नहीं, बेवढे कंटाळी गयेला वैद्योए तेनो उपचार करवानी ना पामी. राजा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३‍ श्री आत्मप्रबोध. श्रीषेण आथी वधारे दुःखी रहेवा लाग्यो. एक वखते तेणे एवी जाहेर घोषणा करावी के, “ जे मारा कुमारने नीरोगी करे तेने अर्थ राज्य आपवामां आवशे. " घोषणानो मह आखा नगरमां वगमाव्यो. ते नगरमां यशोदत्त नामे एक मोटो धनाढ्य वसतो हतो. तेने शीलादि गुथी युक्त एवी लक्ष्मीवती नामे पुत्री हती. तेणीए राजाना ते पटहने निवार्यो कांके, "हुं राजकुमारने नीरोगी करीश. " राजाए अति आदरथी ते लक्ष्मीवतीने पोतानी पासे बोलावी. लक्ष्मीवती पोताना पिता वगेरेनी साथे राजानी पासे गइ. ते ए पोताना शीलना प्रजावथी पोताना हाथनो स्पर्श करी ते राजकुमारना शरीरने नीरोगी बनावी दीघुं. आधी प्रसन्न थयेला राजाए पोतानी प्रतिज्ञा पानवाने माटे ते कन्या पोताना राजकुमारनी साथे परणावी. ते पछी ते पोताना पुत्रने राज्य आपी राजा गुरु पासे दीक्षा लइ चाली नीकळ्यो. पाबल नवीन राजदंपती सुखे राज्य जोगववा लाग्यां. एक दिवसे कोइ ज्ञानी आचार्य ते श्रीपुर नगरमां आवी चडया. मना आगमननी वार्त्ता सांजळी राजा देवराज ने राणी लक्ष्मीवती तेमने वंदना करवा आव्यां गुरु तेमने धर्मदेशना संजळावी. देशनाने अंते राजा देवराजे पोताने कुष्टनो रोग थवानुं कारण कारण पूग्युं, त्यारे गुरुए कछु के, पूर्व जवने विषे उपार्जन करेला दुष्कर्म व तमने रोग थयो हतो; तेनुं स्वरुप आ प्रमाणे बे. वसंतपुर नगरमां मिथ्यात्वथी जेनी शुद्धमति आच्छादित थयेल बे, वो देवदत्त नामे एक वेपारी रहेतो हतो. तेने धनदेव, धनमित्र, धनेश्वर ने धनदत्त नामे चार पुत्रो हता. ते चार पुत्रोमा जे धनेश्वर हतो ते व्यापार कलामां कुशलहतो. एक खते ते धनेश्वर मृगपुर नगरमां व्यापार करवाने गयो. ते नगरमां जिनदस नाम जैनधर्म पालनारो शेत्र रहेतो हतो. तेने मृगसुंदरी नामे कन्या हती. ते बाला आहेत धर्म उपर आस्तिक हती. एक वखते तेणीए गुरु पासे आ प्रमाणे त्रण अनिग्रह ग्रहण कर्या. श्री जिनेश्वरनी पूजा करवी, कोइ साधु महाराजाने दान आपी जोजन कर अने रात्री भोजननो त्याग करवो. आत्रण निग्रह प्रमाणे ते सर्वदा वर्त्तती हती. मृगसुंदरी घणीज स्वरुपवती हती. एक वखते व्यापार अर्थे ते स्थले आवेला धनेश्वर मृगसुंदरीने जोइ तेणीने जोतांज ते तेना सौंदर्यथी मोहित थइ गयो तत्काल तेणीने परवाने ते अनुरागी बनी गयो. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. तेणे जिनदत्त शेउनी आगळ ते कन्यानी मागणी कर'; पण शेरे धनेश्वरने मिथ्यात्वी जाणी पोतानी कन्या आपी नहीं. मोह पामलो धनेश्वर कपटी श्रावक बनी गयो. पठी ते मृगसुंदरीन) साय परण्यो. परण्या पर्छ। मृगसुंदरीने साथ लइ ते पोतानी नगर।मां आव्यो. घेर अाव्या पनी धर्मनी इयाने बस्ने तणे मृगसुंदरीने जिन पूजा वगैरे करतां अटकावी. श्राविका मृगसुंदरी आर्हतधर्मनपर पूर्ण आस्तिक हती, तेयो ते दृढता राखीने रही. तेणीए जिनपूजा न थवाय) उपवास करवा मांड्या. अनुक्रमे त्रण उपवास थया. चोये दिवसे कोई जैन मुनि तेणीने भार आवी चड्या. ते वखते तेणीए पोगना ग्रहण करेला नियमना रक्षणने माटे ते मुनिने उपाय पुछ्यो. ते समये गुरुए गुण अवगुणनो विचार करोने कहा, " जडे, तारे चुला ऊपर चंदरखो बांधवो. एम करवाथी पांच साधुओने प्रतिज्ञाजित करवायी अने पंच तीर्थोने नमस्कार करवायो जेटटुं फल प्राप्त थाय, तंटयूँ पल तने प्राप्त थशे." गुरुनी आ ाझा तेणीए शिरपर चमात्री, अन त्यारथी ते प्रमाणे तेणीए कयु. ते चंदरवो बांधलो जोइ तेणं ना मिथ्यात्वी ससरावगेरेए धनेश्वरने कयु के, "आ तारी वहुए वस्त्र बांधीने कामण कयें . " ते सांजळी धनेश्वरने क्रोध चमी आव्यो अने तत्काल तेणे ते चंदरवाने अग्नि लगामी बाली नांख्यो. ते पली मृगसुंदरीए फरीवार वांया. ते पाण धनेश्वर बाली नांख्यो. एवी रीते सात चंदरवा बांध्या अने सात वानी नांख्या. पड़ी ससराए मृगसुंदरीने कडं, " नजे, शामाटे वृथा प्रयास करे रे ? " मासुंदरी बोत्री, • जीवदय माटे. " ते सांनळी ससराए क्रोषयी जगाव्युं, “ जो तारं जीवदया पालवी होय तो तुं तारा पिताने घेर जा." मृगसुंदरीए कह्यु, “ हुं कुलवाननी पुत्री बुं; तेथी कुनटानी पेठे एकली नहीं जाऊं. माटे तमारा कुटुंब साथे मने मारा पिताने घेर मोकलो." तेणीनां आवां वचन सांजळी तेनो ससरो कुटुंब सहित तेणीने सस्ने मृगपुर नगर तरफ चाल्यो. मार्गमां कोई एक गाममां तेणीना ससरानो सगो रहेतो हतो, तेने घेर तेश्रो मीजमान तरीके गया. ते सगाए पोताने घर परोणा आव्या जाणी रात्रने विषे नोजन तैयार कराव्यु, जोजन करवाने सर्व कुटुंब तैयार थयु, पण रात्रि जोजनना नियमने संजारी मृगसुंदरी जोजन करवा ऊठी नहीं. कोई पूर्वना पुण्यथी शुल बुधि उत्पन्न थवार्य) मृगसुंदरीना ससरा वगैरे मुगसुंदरीने मुको जोजन करवा उठ्या नहीं. पडी ते गृहस्यना कुटुंबे ते जोजन Jain Education Intemational Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्री आत्मप्रबोध. खाधू, अने खाधा पठी तत्काल तेओ मरणने शरण थ६ गया. प्रातःकाले ते सर्वने मरण पामेला जो, मृगसुंदरीना ससरा वगैरे तेनुं कारण जाणवा आमतेम जोवा लाग्या. तेवामां एक तपेलीनी अंदर सर्पनी गरळ जोवामां आवी. ते जोतां ज तेओए विचार्यु के, रात्रे रसोइना धूमामायो आकुल थयेस्रो कोइ मर्प उंचयी तपेत्रोमां पमी गयेतो, तेना फेरथी सर्वनुं मृत्यु ययुं . आ बीना जाण। सर्वेए मृगसुंदरीनां वखाण की अने तेणीनो क्षमा मागी. आ वखते मृगसुंदरी बोली, "आर्यो, आवां कारणने लश्ने हुं चूला उपर चंदरवो बांधती हती, अने रात्रि जोजननो त्याग करती हती. " तेणीनां आवां वचन सांनळी सर्वप्रतिबोध पामी गया अने मृगसुंदर ने जीवितदात्री थवाथी कुलदेवीनी प्रमाणे मानवा लाग्या. परी तेओ पाग घेर आव्या अने मृगसुंदरोना उपदेशयी उत्तम प्रकारना श्रावको थया. ते पर। मृगसुंदरी अने धनेश्वर चिरकान पर्यंत सम्यग् धर्मने आराधीने डेवटे समाधिपूर्वक कान करी स्वर्गे गयां हता. स्वर्गनां सुखनो अनुभव कर आ वखते तमो बने देवराज अने लक्ष्मीवती थया डो. तें पूर्वनवे चंदरवा बाल्या हता, ते दुष्कर्म निंदा वगैरे करवाथी ते खपावी दीधुं हतुं पण ते अंशमात्र रहेढुं, तेना थी आ भवमां तने सात वर्ष सुधी ते व्याधि रह्यो हतो. आ लक्ष्मीवतीए ते पूर्वना नियमना प्रनावथी तारा व्याधीने शांत कों हतो. राजा देवराज अने राणी लक्ष्मीवती गुरुना मुखर्थी आ प्रमाणे पूर्व ज. वनो वृत्तांत सांजळी जाति स्मरण झानने प्राप्त थयां. तत्काल तेत्रो बने आ संसार नपरथी विरक्त थइ गया. पनी पुत्रने राज्य उपर स्थापित करी तेमणे दीक्षा ग्रहण करी. जेवटे काल धर्मने पामी स्वर्गनां सुखनां नाजन थयां हतां. आ प्रमाणे अनर्थदंग विरमणव्रतने विषे मृगसुंदरीनी कथा कहेवामां आवी. ते उपरथी बोजा जव्य जीवोए चुना उपर चंदरवा न बांधवा रुप वगेरे अनर्गदमयी विराम पाम. अहिं आ प्रमाणे लावना - " चिंतेअव्वं च नमो, सअगाइं च जेहि पावाई । साहूहिं च वजियाई, निरगायं च सव्वाइं " ॥१॥ वळी, Jain Education Interational Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. " तुझेवि जअरजरणे, मूढ अमूढाण अंतरं (पच्छ । एगाणनरय उरकं, अन्नसिं सासयंसुखं " ॥२॥ "जे स्व अने परने अर्थ-उन्नय प्रकारे पाप कर्मथी विराम पाम्या , ते मुनिराज प्रत्ये अमारो नमस्कार हो. " ? मूढ अने तत्त्वज्ञानी-बनेने उदर जरवू, ते सरखं ; पण मूढ अने अमूढ-तत्त्वज्ञानीनी वच्चे केटलो अंतर डे ? ते जुवो. मूढ पुरुषने नरकनां दुःख प्राप्त थाय ने अने अमूह-तत्त्वज्ञानीने शाश्वत मुख मले में एटलो अंतर चार शिताव्रत. वारंवार प्रवृत्ति जेमां बे, ते शिक्षा कहेवाय ने अने ते शिक्षा जेमां प्रधान वे एवं जे व्रत ते शिवावत कहेवाय जे. जेम विद्याना शिक्षक व वारंवार अन्यास कराय डे, तेम श्रावके आ व्रतोनो अन्यास वारंवार करवा योग्य . प्रथम सामायिक व्रत. ___ चार शिक्षा व्रतोमां प्रथम सामायिक व्रत कहेवाय जे. सम एटझे राग द्वेष रहितपणं, तेनो आय एटो बान ते समाय कहेवाय जे. जे क्रिया-अनुष्ठान क वर्नु प्रयोजन एटले जे क्रिया-अनुष्ठान करवाथी समायनी प्राप्ति थाय ते सामायिक कहेवाय छे. ते रुपव्रत ते पहेळु सामा यक नामे शिकावत . तेने माटे आ प्रमाणे का जे" सामाइय मिह पढमं सावज्जो जत्थ वजियो जोगे। समणाणं होइ समो, देसेणं देसविरोवि " ॥१॥ “ अहिं जे सामायिक नामे पेहेळ शिवाव्रत करवाथी देशविरति श्रावक पण सावध एवा मन, वचन अने कायाना व्यापारने वर्जीने सर्व विरति मुनिसदृश थाय ." Jain Education Intemational Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मबोध. प्रश्न करने के, ते देशविरति सर्वविरति शी रीत थाय ? देशे करीने एटले देश दृष्टां करीने. जेम चंद्रमुखी स्त्री, समुद्र जं तळाव; नहीं तो साधु ने श्रावक बच्चे मोटो अंतर जे जे तं देख के बे. उत्कृष्ट द्वादशांगीना - ज्यासी ते साधु ने श्रावक तो षट् जीवनिकाय नामना दश वैकालिकना - ध्ययन सुधीनो अन्यासी होय छे. साधु उत्कृष्टपणे सर्वार्थसिद्धि विमानम उपजे छे अने श्रावक बारमा देवलोक सुधी उपने छे. साधुओंने काल धर्म पाम्या पी देवगति ने मोक्षगति ए वे गतिम्रो ने श्रावकने एकली देवगति बे. वली साधु फक्त संज्वलनना चार कषायवाला होय वे अथवा निष्कषायी प होय . अने श्रावक तो आठ पायवाला एटले प्रत्याख्यानी ने संज्वलनी होय बे. साधुओ एको साये पंच महाव्रतना अंग कारी के अने श्रावक तो थोडा अथवा समस्तना पण इच्छा प्रमाणे अंग काररी बे. साधुस्रोने एक वार अंगीकार करेलुं सामायिक व्रत जावजीव पर्यंत रहे डे अन श्रावकने तो ते सामायिक व्रत वारंवार अंगीकार कराय बे साधुने एक व्रतनी जंग थतां सर्व व्रतनो जंग थाय छे, कारणकं मांहोमांह) तनुं सापेक्षपणां वे अपने श्रावकन तेम नथी. तेथी आ सामायिक क्यां कर ? एवंी शंका यतां तेनो उत्तर या प्रमाणे बे २३६ 66 46 'मुनेः समीपे जिनमंदीरे वा, गृहेऽथवा यत्र निराकुलः स्यात् । सामायिकं तत्र करोति गेही, सुगुप्ति युक्तः समितश्च सम्यक् " ॥ १ ॥ 'गृहस्थ मुनिनी समीप, अथवा जिनमंदिरमां, घेर अथवा ज्यां निराकुलपणे रहेवाय त्यां त्रण गुप्ति ने पांच समिति साये सामायिक करे छे. " १ सामायिक करनारे जांक जिनमंदिरमां सामायिक कर योग्य बे कारणके, मां सम्प्रकारे समाधि प्राप्त थाय बे, माटे तेनुं ग्रहण प्रथम करं जोइए. परंतु मुनिनी समीपे सामायिक करवानुं प्रथम कहल बे; तेनुं कारण एबे के मुनिनी पासे धर्म वार्ता वगेरे सांनळवायी विशेष ज्ञान याय के माटे तेनुं प्रथम ग्रहण करेल . वली जे गृहादिकने विषे सामायिक करे तेणे पण समिति तथा गुप्ति सहित गुरु समीपे आवीने ते गुरुनी साक्षी पूर्वक सामायिक उच्चरे. आविधि अपऋद्धि श्रावकने माटे छे. बहु ऋदिवाला श्रावकनो विधि तो या प्रमाणे जे. जे महर्षिक राजादि बे, ते प्रथम साधुनी पांसे आवी ते Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश पठी सामायिक उच्चरे. जो तेम न होय तो जणे सामायिक करीब एवो श्रावक समृधिमान् राजादिक श्रावकनी पाउळ चालनां तेने योचाओ अने घोमाओथी आरंजनो प्रसंग आवे . आ विष विशेष विवेचन करवायी बस .ते विष धारे जाणवं होय तो आवश्यक चूणी ग्रंथ जोइ लेवो. ___सामायिक लेनाराओनुं कृत्य. सामायिक ग्रहण करनाराए केवी रीते वर्तवू जोइए ? ते प्रथम जाणार्नु जे. सामायिकमा रहेला पुरुषे श्रेष्ट एवा सिघांतना अर्थों पुरवा. अने महात्मा पुरुषोनां चरित्रीने संजारवा. तेमज तणे आलस, निशा, विकथा वगेरे दोषोने वर्जी देवा. हृदय शुद्ध अने दयागय राख. तेने माटे या प्रमाणे कयुं जे. " सामायिकस्थः प्रवरागमार्थं पृच्छेन्महात्माचरितं स्मरेच्च । आवस्य निजा विकयादि दोषान् विवर्जयेच्छुझमना दयानुः॥१॥ आलस्य प्रमुख दोषो कहे . कायाना बार दोषो. ___ १ आलस, निजा, ३ पलोंगो वालवी, ४ अस्थिर आसन, ५दृष्टिनुं परावर्तन, ६ वीजा कार्यमा प्रवृत्ति, नीत प्रमुखनुं ओठींगण, ८ अंगर्नु अति गोपन, ए देहनी मल उतारवो, १० आंगळी वगैरे मोमवा, ११ विश्रामण (बां पग कर। बेसबुं ) अन १२ खुनली खणवो. __वचनना दश दोषो. १ कुवचन, २ अविचारी वचन, ३ प्रतिघात वचन, ४ बमबमg, ५ स्तुतिवचन अथवा परिचय वचन, ६ काह, ७ विकथा, नपहास वचन, ए शीघ्र वचन अने १० जवा आववानुं कयन-ए दश वचनना दोष ने. मनना दश दोष. १ अविवेक, श्यश-कीर्तिनी अनिसापा, ३ लानार्थीपणु, ४ अहंकार, Jain Education Intemational Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AA १३७ - श्री आत्मप्रबोध. एनय, ६ नियागु, ७ फलनो संशय, क्रोध, ए अविनय, अने १० भक्तिशून्यपणुं-ए दश मनना दोष के. ___एवी रीते सर्व मबीन बत्रीश प्रकारना दोषो सामायिकने विषे वर्जवा. वक्षी कयुं के, "गृहीत्रस स्थावरजंतुराशिषु, सदैव तप्तायसगोलकोपमः। सामायिकावस्थित एष निश्चितं, मुहूर्त्तमात्रं भवतीह तत्सखः॥१॥ ___“गृहस्थ त्रस तथा स्थावर जीवोनी राशिने विषे हमेशा तपेला लोढाना गोळा जेवो बे; पण ज्यारे ते सामायिकमां रहे , त्यारे मुहूर्त मात्र-वे घमी निश्वये करी तेमनो सखा-मित्र तुल्य ३." १ अहिं मित्र तुल्य शामाटे कह्यो ? तेणे सामायिकमां सर्व आरंजनो त्याग कयों छे. वळी अहिं सावद्य योगना पचखाणरूप सामायिकनुं जे मुहूर्त्तनुं प्रमाण ते सिद्धांतमां कहेलु नयो पण जाण लेवू ; कारण के पञ्चखाणनो काळ पण जघन्यपणे नवकार सहित पचखाणनी जेम मुहूर्त मात्रनो के.वळी सामायिकर्नु जघन्य अंतर्मुहूर्त प्रमाण दे अने उत्कृष्ट एक अहोरात्रनुं मान एम जाण. ते वात दृष्टांतथी सिम करे . "सदैव सामायिकशुधवृत्तिर्मानेऽपमानेऽपि समानभावः । मुनीश्वरः श्रीदमदंतसंझो बनूव सनूतसमृझिनोगी॥१॥ "सदाकाल सामायिकने विषे जेनी शुछ वृत्ति ने अने जे मान तथा अपमानने विष समान नाववाला डे एवा श्री दमदंत नामे मुनीश्वर सम्यक्रुपवाळी समृधिना जोगी थया हता." १ सामायिकमा रहेनारो पुरुष केवो होय छे ? ते कहे . “निंदपसंसासु समो, समो अमाणावमाणकारिसु। सम सयाणपरयण मणो, सामाश्यसंगो जीवो" ॥१॥ सामायिकमा रहेलो पुरुष निंदा अने प्रशंसा अने मान तथा अपमानने विषे समान तेमज सजन अने परिजनने विषे समान एवो होय छे." ? Jain Education Intemational Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. ते विषे दमदंत महर्षिनुं वृत्तांत. हस्तिशीर्ष नगरमां दमदंत नामे एक राजा हतो. तेनी पासे घणी उत्कट सेना हती. ते सुखे करीने राज्य करतो हतो. ते समयमां हस्तिनापुर नगग्मां पांaal कौरवो राज्य करता हता. एक वखते राजा दमदंतने ते पात्रोअन कौ खोनी साये राज्यना सीमामानो मोटो कलह उत्पन्न थयो. ते पछी एक दिवसे दमदंत राजा जरासंध राजाना पुत्रनी सेवा अर्थे गयो हतो. ते प्रसंगनो लाग जोइ कौरवो ने पांव पावळथी आवी दमदंतना देशनो जंग कर्यो . आ खबर जा राजा ददतने भारे क्रोध उत्पन्न थयो. तत्काल ते माटुं सैन्य लइने हस्तिनापुर उपर चमी आव्यो. त्यां ते बनेनी बच्चे मांहोमांही मोटुं युद्ध थयुं दैवयोगे पांकौरवो दमथ भाग गया ने दमदंतनो जय थयो. राजा दमदंत विजयनो डंको वगातो पोताना नगरमां आव्यो. ते पछी केटलोक काल निर्गमन थया पछी एक वखते राजा दमदंत संध्याकाले पोताना मेहेल उपर आकाश तरफ जोता हता, तेवामां पंचरंगी वादलांओ तेमना जोवामां आव्यां. तेओने क्षणवारमां वीखराइ गयेलां जोइ तेमना हृदयमां वैराग्य जावना प्रगट थ‍ यावी. तेमणे या संसारना ऋणिक स्वरूपनो विचार कर्यो. प्रत्येकबुद्धपणार्थी तेथे सर्व संसारने असार जोड़ तत्कान दीक्षा ग्रहण करी राजा दमदंत त्यांथी विहार करी चाली नीकल्या. गामोगाम विहार करतां हस्तिनापुरनी पासे आव्या. त्यां ते नगरना दरवाजा पासे तेयो कायोत्सर्ग ध्याने रह्या. तेवामां पांरुवो राजवामीए जवा नीकल्या. ते वखते ते मुनि तेमना जोवामां आव्या. पांवोए पोताना सेवकोने पुत्र्युं के, “आ मुनि कोण बे " ? सेवकोए तपास करीने कर्छु, “ ते दमदंत राजर्षि छे. " ते सांजळतांज पांडवो तकाल अश्व उपरथी नीचे उतरी त्यां याव्या अने ते महर्षिने त्रण प्रदक्षिणा करी नमन क ने तेमना उजय प्रकारना बल्लनी प्रशंसा करी त्यांथी आगळ चाल्या. २३७ कवार पछी ते मार्गे कौरवो नीकल्या. तेप्रमाथी वृद्ध एवा दुर्योधने ते मुनिने जोइ सेवक पासे तपास करावी. सेवके दमदंत मुनिनुं नाम आयुं, दुर्योधने कघुंके, अरे ! तो आपणो शत्रु है, तेनुं मुख पण जोवुं योग्य Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० __ श्री आत्मप्रबोध. नथी. इत्यादि उक्यिोथी मुनिनो तिरस्कार करी ते साधु तरफ एक बीजोराना फलनो घा करी तेओ आगळ चालता थया. ते पळी ते कौरवोनी पाउळ चालता तेमना सैनिकोए " यथा राजा तया प्रना " ए कहवत प्रमाणे लाकमा, धूम, अने पाषाण वगेरे ते मुनि तरफ फेंक्या, जेथी करीने ते मुनिनी समीपे जाणे मोटा चॉरो होय, तेवो एक ढगलो थइ गयो. . पांवो स्वेच्छा प्रमाणे वनमां क्रीमा करी पाछा फर्या, तेवामां तेमणे ते मुनिनी पासे मोटो पाषाण वगेरेनो ढगलो जोयो. ते विषे लोकोने पुउतां तेवु काम कौरवोए कर्यु , एम तेमना जाणवामां आवतां खेद पामी तेमणे ते पाषाण वगैरेना ढगाने त्यांथी दूर करी दीघो अने पड़ी ते दमदंत महरिने विधि पूर्वक वंदना करी पठी पोताने स्थाने चाख्या गया हता. आवी रीते पांमबोए सत्कार केला अने कौरवोए अपमान करेला पण ते दमदंत मुनिए ले बनेनी ऊपर समनावने धारण कयों हतो. कोश्नी ऊपर राग के क्षेप राख्यो न हतो. ते पर चिरकाल पर्यंत चारित्रनी आराधना करी ते महा मुनि प्रांते उत्तम गतिना नाजन थया हता. आ दमदंत महपिनी कथा जाणी दरेक यात्मिक गुणना इच्छक पुरुषोए स्थिर परिणामे सामायिक आचर, अहिं आ प्रमाणे नावना जे. "धन्ना ते जिय लोए जावजीवं करंति जे समणा। सामाश्य विसुद्धं निच्चं एवं विचिंतिजा ॥१॥ कश्ाणु अहं दिक्खं जावजीवं जहष्टि समणो । निस्संगो विहरिस्तं, एवं च मणेण चिंतिजा " ॥२॥ "जो निरंतर निर्मज्ञ एवं सामायिक जावजीव सुधी करे , तेमने धन्य . आ प्रकारे चिंतववं."? ___" क्यारे हुं दीक्षा लाश ? अने जावजीव सुधा साधुओना समुदायमां रहीने निःसंगपणे क्यारे विचरीश. आ प्रमाणे मनय। चिंता." आ प्रकारे प्रथम शिवावत समजवू. Jain Education Interational Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश देशावकाशिक नाम बीजु शिक्षाबत. मोकला नियमोने संक्षिप्त विभागे करी, एटले देशथी अवकाश एटले लूट राखवी ते देशावका शिक अने तेथी रचायलं व्रत ते देशावकाशिक नामे वीजें शिवाव्रत कहेवाय जे. अने वार व्रतोनी गणनामां ते दशमं व्रत कहेवाय छे. कहेवानो नावार्थ एवो के, व्रत अंगीकार करती वखते यावजीवित ग्रहण करेला दिगवतने, प्राणातिपातादिक विरमणनो अने वीजा सर्व व्रतोनो प्रतिदिन जे संक्षेप कराय छे, ते देशावका शिक व्रत जाणवं. तेने माटे एज नावार्थमां आ प्रमाणे लखे जे. " पुव्वं गहिअस्स दिसा-वयस्स सव्व वयाणुदिणं । जो संखेवो देसा-वगासियं तं वयं विश्यं " ॥१॥ ___ अहिं वृछ पुरुषो कहे के, दिग्वतनो जे संक्षेप करवो ते वीजा व्रतोनो संदेप करवा बावत नपत्रवाणथी जाणी बेवं ; एटले तेमां वीजा व्रतोनो संदेप पाण आवश्यक जे. वली दरेक व्रत प्रत्ये दिवस, अने पक्षादिक मर्यादा करीने संक्षेप करवाथी जिन्न व्रत होवायी जे बार व्रतोनी संख्या में तेमां विरोध आवे ए प्रकारे जाणवं के, देशावकाशिक व्रतमां दिगव्रतनोज विषय डे, तेथी ए शंका दूर करवी. वत्री का डे के “दिसिवयगहियस्स दिसापरिमाणस्स पदिणं परिमाण करण देसावगासियंति -...--- “ दिशिव्रत ग्रहण करेलु होय तेने प्रतिदिवस दिशानुं परिमाण करवं त देशावकाशिक . ए मूत्र सूत्रमा दशावेलु उ. अने जे आ व्याख्या करवामां आवी , ते उपनदाणथी . वत्री अवचूणीं कहे जे के, “ एवं सब्यवएसु जे पमाणा बिया ते पुणो पुणो दिवसओ सारे देवसिाओ रत्तियो सारे" ए प्रकारे सर्व व्रतोमा जे जे परिमाण करेलु होय ते वारंवार दिवस संदेपे अने दिवसतुं रात्रिए संकेपे." Jain Education Intemational Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. आ व्रत उपर दृष्टांत कहे जे. जेने नरकावास नजीक छे, एवो क्रूरमति चमकोशिक सर्प देशावका शिक व्रतवमे तत्काल आउमे देवलोके गयो हतो. चंडकौशिकनी कथा. कोइ क्षपक ( तापस ) मुनि मासोपवासना पारणाने दिवसे शिष्य सहित आहारने माटे मार्गमां जता हता. तेवामां तेमना चरणना तन्त्र नीचे एक देमकी चंपाइ गइ. ते वखते शिष्ये कह्यु, “ स्वामिन् , तमोए आ देमकी चगदी नांखी, माटे मिथ्या पुष्कृत आपो." शिष्यना आवा वचनो सांभळी ते मुनिने कषाय उत्पन्न थइ आव्यो. तेथी ते दपक तापसे ते मर्दन करेनी देमकी लोकोने बतावीने शिष्यने का के अरे पुष्टात्मा, आ देमकीतो मरण पामी गर, शं ते में हणी?" त्यारे ते शिष्य गुरुने क्रोधायमान ययता जाण। मौन धरीने रह्यो, कांइपण बोब्यो नहीं. पळी संध्या समये आलोचना करती वखते ते शिष्ये मुनिने ते देमकीनी वात संचारी आपी. ते वरखते मुनिने विशेष क्रोध उप्तन्न थइ आव्यो, तत्काल रजोहरण उपामोने मुनि शिष्यने मारवा दोड्या. तेवामां वचमां एक स्तन आव्यो, तेनी साथे मुनिनुं मस्तक अफलायु, अने फुटी गो, तेथी ते मुनि कालधर्मने पामी गया. मृत्यु पामीने ज्योतिषी देवमां उत्पन्न थया. त्यांथी चवीने ते कनकवल नामना वनने विषे चमकौशिक नामे तापस थयो. ते नवमां पण पृव नवना परिचयथी ते घणोज कपायवान् थयो. एक वखते कोइ राजकुमारो तेना वनमा फलादिक लेवाने आव्या. तेमने जोतांज ते तापस कुहामो लय तेमने हणवाने पाउळ दोड्यो. दोडतां दोमतो तेने पगे स्खलना थतां ते कोइ खामामां पम मृत्यु पामी गयो. पछी तेज आश्रममां दृष्टिविप सर्परुपे उत्पन्न थयो. ते वनमां पूर्वनवना अच्यासही ते अति मूर्छा----मोह पामी कोइ पण मनुष्यनो संचार थवा देतो नहीं. ___एक दिवसे श्रीवीर जगवान उद्मस्थावस्थामा विद्यमान होऽ विचरता विचरता ते वनमा आवी चड्या. त्यां जतां तमने गोवाली लोकोए वार्या, पण तेश्रो लान धारी ते दृष्टिविष सर्पना बिलपासे कायोत्सर्ग करीने रह्या. ते वखते ते सर्प पोताना बीलमाथी बाहेर नीकळ्या मनुने जीतांज तेनामां नग्र कषाय उत्पन्न थइ आव्यो. तत्काल कपायना आवेशथी तेणे प्रन्नुना शरीर उपर मंश मार्यो. Jain Education Interational Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ द्वितीय प्रकाश. वज्रना स्तंजनी जम अचल एवा श्री वीर नगवान्ना शरीरमांथ) दुधना जेवा नज्वल रूधिरनी धारा नीकली. ते जोतांज ते सर्पना मनमां आश्चर्य उत्पन्न थ आव्यु. तत्काल प्रनुना स्वरूपर्नु चितवन करतां तेने जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न थइ अाव्यु. पोताना पूर्व नवो तेना जोवामां आव्या. तत्काल ते निर्विष थइ प्रतुने प्रदक्षिणा फरी अने नमन करी सामे ऊनो रह्यो. पछी पोते करेल जीवहिंसादि अकृत्यने आनोवी अनशन व्रत ग्रहण कर्यु. ते पडी " मारी दृष्टिथी को प्राणीने नय न थाओ." एम विचारी तेणे देशावकाशिक व्रत अंगीकार कर्यु. पठी ते पोतानुं मुख बीलमा राखीने रह्यो हतो. आ सर्पनो वृत्तांत सांजळी गोवातीआओए आवी मांखण थी तेनी पूजा करी. ते मांखण ना गंधथी कीमीओ आवी ते सर्पना शरीरने वळगी पमी अने तेना आखा शरीरने बिज्वाळु करी दीधुं. तथापि ते चमकौशिक सर्प मन अने काया वझे निश्चत रह्यो हतो. तेवी रीते अनशन व्रत पाली मृत्यु पामी आवमा सहस्रार नामना देवलोकमां महर्षिक देवता थयो हतो. एवी रीते दशमा देशावकाशिक व्रत जपर चमकौशिक सर्पनी कथा कहेवाय जे. एवी रोते बीजा पण संसारनीरू प्राणीओए ए व्रतने पालवामां उद्यमवंत थवं. तेनी नावना कहे जे-- " सव्वे अ सव्व संगहिं, वजिए साहूणों नमंसिज्जा । सव्वेहिं जे हिं सव्वं सावजं सव्वहा चत्तं " ॥१॥ ए प्रमाणे दशमं व्रत अने वीजें शिक्षा व्रत कहेवामां आव्यु. -~-~Srxxxra त्रीजं शिक्षाबत पोषधव्रत. धर्मनी पुष्टि करे ते पोषध कहेवायचे. तेने आचरनार व्रत ते पोषध व्रत कहेवाय के एटले पर्वने दिवसे अनुष्ठान करवानो जे व्यापार ते रुप जे व्रत ते पोषधव्रत कहेवाय जे. ते या प्रमाणे " आहार देह सकार-गेह वावार विर बंभेहि। पव्वदिणाणुट्टाणं, तश्यं पोसहवयं चउहा " ॥१॥ Jain Education Intemational Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cream श्री आत्मप्रवोध ___ "आहार, देह सत्कार, तथा गृहना व्यापारनी विरति अने ब्रह्मचर्य ए चार प्रकारे जे पर्वना दिवसन अनुष्ठान ते त्रीजं चार प्रकारनुं पोषधत्रत कहेवाय वनि अहिं जे निटत्ति शब्द , ते आहार, देह अने सत्कार अने गृहव्यापारनी साथे राखवो. एटले आहारनी नित्ति, शरीर सत्कारनी निवृत्ति अने घरना व्यापारनी निवृत्ति---- एम समज. अने ब्रह्मचर्य- पालन करवानुं जे. १ अाहारनी निवृत्तिमा अशनादि अाहारनो विशेपे करी त्याग समजवो. २ शरीर सत्कार निवृत्तिमां स्नान, नहर्तन ( शरीरे तेनादि चोलवं ) अने विलेपन वगेरेनो त्याग समजवो. ३ गृह व्यापारनी निवृत्ति, एटले घरना व्यापारनो निषेध समजवो. ४ ब्रह्मचर्य एटले स्त्री सेवा ( संग )नो निषेध, अहिं वत्री आहार निवृत्ति पोषध वे प्रकारे कहेवं जे. एक देश थकी अने बीजं सर्व थकी. विविध आहारवें पञ्चखाण करनारने देशयको पोषध होय अने चनुर्विध अाहारना पच्चखाण करनारने सर्व थकी पञ्चखाण होय . ते शिवायना बाकीना नेदोतो सव थकीज जे. तेने माटे आवो पाठ छे. " करेमि नंते पोसहं आहार पोसहं देसओ, सव्वओं वा, शरीरसकार पोसहं सव्वो,अव्वावारपोसहं सवओ, बंजचेर पोसहं सबनो. चनविहे पोसहे सावजं जोगं पञ्चखामि जावदिवसं अहोरतिं वा पज्जुवासामि विहं तिविहेणमित्यादि"॥१॥ बीजे काणे वीजी रीते पण कहेलं जे. श्रा चार प्रकारचं पोपधवत देश अने सर्व एम वे प्रकारे थाय . १ तेमां देशथी आहार पोपध-विगय वगेरेनो त्याग अने एक वार बेवार Jain Education Intemational Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा. ३४४ ( नो वधारो. ) 4. ग्रंथमां गीआरमा पोषघत्रतनी बावतमा 'खरतरगञ्जनी समाचाररोमां नेपछी समाचामां शुं तफावत छे ते नीचे मुजब बताववामां आवे छे. १ चार प्रकारना पोष व्रत बतावेला छे जेमां देशथी आहार पोषधविग वगेरेनो त्याग ने एक वार, बे बार भोजन करवं ते. अने सर्वथी आहार पोषध ते चतुर्विध प्रहारनो त्याग करबो ते, आम कहेल बे. परंतु तपगच्छ समाचारी प्रमाणे देशयक पोषधां तिविहार उपवास, आयंबिल अथवा एकाशन सुधीनी मान्यता छे. २ खरतरगच्छनी समाचारमां पोषध पर्व दिवसना अनुष्ठाननो व्यापार बेएटले मात्र पर्व तिथिएन पोषध करवो जोइए तेम मान्यता छे. वळी तेस्रो आवइक वृत्तिनो पाठ गळ करी यावी रीते कहे े के ' पोषध तथा अतिथिसंfearian प्रतिनियत दिवसे अनुष्ठेय ब्रे; परंतु प्रतिदिवस अनुष्ठेय नथी ' आम कहे बे; परंतु तेमना या करेला अर्थ माटे तपगच्छाचार्य श्रीमद् रत्नशेखरसूरिजी आवश्यकचूर्णिना अन्य पाउने आगळ करी या प्रमाणे कडे बेसव्वे कापव्वेसु पसलो जिनमत तवोजोगो । मी उस्सी सुनियमेाहविद्य पोसदिन " £6 जावार्थ - " सर्व काळ अथवा सर्व पत्रमा प्रशस्त जिनमतने विषे तपयोग छे, परंतु अष्टमी यदि तिथिने विषे नियमर्थ । पोषध व्रत होय छे. 99 या उप मनुं के पोषवत अन्य दिवसोमां न थइ शके एवो अर्थ कदापि नीकळतो नयी, परंतु पर्व दिवसमां तेनी अवश्यकरणीयता समजवी एवो जावार्थ े. ३ खरतरगच्छीय आचार्यो पोतानी समाचारीमां चार तिथियो पर्व तिथि तरिके माने बे, परंतु तपगच्छीय आचार्यो तेने माटे नीचे प्रमाणे कहे छे"वीयापंचमी अट्टमी एगारसी चन्द्दसी पण तिहिन । एमा सुतिहीन गोयमगणहारिणामणिया ॥ "गौतम गणधर महाराजे या पांच तिथि-बीज, पांचम, आम, एकादशी चतुर्दशी एम कल बे, वळी महावीर मनुए कहां बे केःजयचं ! बीयपमुहासु पंचसुतिहिसु विहियं धम्माणुवाणं किं फलंहोइ ? गोयमा ! बहुफलं होश ! हे जगवन् ! बीज प्रमुख पांच तिथिमां विधान करेला धर्मानुष्ठानं फळ शुं होय ? हे गौतम ! बहु फच होय. ते सिवाय श्येनप्रश्नमां पूर्णिमा अने अमावास्या मली बार तिथियों कहेल बे. १. आ ग्रंथना व्याख्याकार कांइक आ विषय परत्वे तपगच्छनी मान्यतावाळा होय तेम लागे छे. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. -२४५ जोजन करते सर्वथी आहार पोषध चतुर्विध प्रहारनो त्याग करवो ते. २ - ३ देह सत्कार ने गृह व्यापार पोपधने विषे कांइक देह सत्कार अने गृह व्यापार करवोते. थोरुं करं ते देशथकी अने सर्वथा न करं ते सर्व थकी. ४ ब्रह्मचर्य पोषधमां ब्रह्मचर्यनुं प्रमाण करवं ए देश की अने ब्रह्मचर्य सर्वथा पालवं, ए सर्व थकी. हिं या प्रमाणे समाचारी बे " जो देस पोसई करेइ सो सामाइयं करेइ वा नवा.. जो सव्व पोसहं करे सो नियमा सामाइयं करे, ज न करे तो वंचिज्जइ, तं कहं ? चेश्घरे साहुमूले घरे वा पोलहसालार वा उमुक्कम शिसुवो पढतो पुच्छंगं वा वायंतो सुगंतो धम्मप्राणं झियाइत्ति हिं तव शुं बे ? ते तो केवली जाणे. जे देश पोषध बे, ते सामायिक करे अथवा न करे ने जे सर्व पोषध करे ते तो नियमा सामायिक करे. जो सर्व पोषवालो सामायिक न करे तो ते साथी लगाय े. ते क्या करे ? तेने माटे कहे बे के, चैत्यगृहे, साधु पासे पोताने घेर अथवा पोषधशालामां करे. जेणे मणि सुवर्ण वगेरेनो त्याग करेलो एव ते जातो, गणतो, पुढतो, वाचना लेतो, अने धर्म सांजळतो धर्मध्यानने ध्यावे. " " हवे पूर्व जे कां ने के, पोषध " पर्व दिवसा अनुष्ठाननो व्यापार बे, तेथी पर्व शंकड़े बेचौदश, ग्राम, अमावास्या, पुनम एटली तिथिओना दिवसो उपलक्षण कल्याणकना दिवसो अने पर्युषण पर्व - एदिवसोमां पापनो व्यापार मुकीने पंदित पुरुषो पोपध व्रतने करे. हिं नामर्थ पर्वतथि चार से पण वस्तुताथी बने. एक मासे वे आम, वे चन्दश, अमावास्या ने पुनम - एम व थाय बे.. अहिं प्रश्न करे जे के, “ श्रावक पर्व तिथिने दिवसेज पौषध करे ते शि Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ श्री आत्मप्रबोध. वाय न करे ? " तेना उत्तरमा कहे जे के, केटलाएक श्रावको सर्व तिथिओने विषे पोषध करे , परंतु केटलाएक तेम न करी शके त्यारे तेमणे पर्व तिथिने बिपे ते व्रत अवश्य करवू, तेथीज अहिं पर्वतुं ग्रहण करेलु जे. आवश्यक वृत्तिने विषेतो श्रावके दररोज पोषध करवाना स्पष्ट रीते निषेध करेलो . तत्त्व शुंने ? ते तो केवलिगम्य . हवे पोषधमां सर्व अपहार-त्याग करवो पुष्कर , पण ते करवा घएं पुण्य , माटे ते अवश्य करचो जोइए. तेने माटे कयुं के, " नृप निग्रह रोगादिषु, न ह्यशनाद्यं न धर्ममपि बनसे । तत् किं प्रमाद्यसि त्वं, ध्रुवधर्मे पोषधे नव्य " ॥१॥ " हे नव्य, राजा ए निरोध को होय, कोइ रोग थप पड्यो होय इत्यादि प्रसंगे अशनादि थतुं नथी, परंतु तेवा अनशनथी तने धर्मनी प्राप्ति थती नथी ; तो जेमा अवश्य धर्म प्राप्त थाय ने, एवं पोषधव्रत लेवामां शा माटे प्रमाद करे ?" १ श्रा व्रत उपर दृष्टांत आपे जे. " यः पोषधस्थः सुतरां सुरण, पिशाचनागोरग पुष्टरूपैः । विदोनितोऽपि कुन्नितो न किंचित्, स कामदेवो नहि कस्यवर्यः” ॥ १ ॥ "जे कामदेव नामना श्रावकने पोषधव्रतमा रहेबां उतां कोई देवताए पिशाच, हाथी अने सर्प वगेरेना उष्टरुपोथी निरंतर दोन पमाड्यो तो पण ते जरापण कोनपाम्यो नहीं, ते कामदेव श्रावक कोने वर्णनीय न होय ? " ? ते कामदेव श्रावकनी कथा आगळ कहेवामां आवशे. तेनी अहिं आ प्रमाणे जावना बे. " नग्गं तप्पंति तवं, जे एएसिं नमो सुसाहणं । १ इत्यादि शब्दी वरणक अने दुकाळ वगेरे पज्यो होय त्यारे एम लेवु. Jain Education Intemational Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश २४७ निस्संगा य सरीरे,वि सावगो चिंतएमिश्मं " ॥१॥ " जे उग्रतप तपे के अने जे शरीरने विषे निःसंग , एवा सुसाधुने नमस्कार थाओ." आ प्रमाणे श्रावक मनमां चिंतवे." १ एवी रीते त्रीजु पोषध नामे शिक्षानत कहेवामां आव्युं. चोथु अतिथि सविनाग नामे शिक्षाबत. जेने तिथिपर्वादि लोक व्यवहार नदी, ते अतिथि कहवाय ले. तेवा अतिथिने जे शुद्ध आहार वगेरे आपवारुप व्रत ते अतिथि संविजाग व्रत कहे. वाय जे. केटलाएक आ व्रतने यथासंविजाग एवा नामथी कहे . ते नाम प्रमाणे आ प्रमाणे अर्थ करवो. यथा एटले प्रवृत्ति अर्थात् यथामत्ति स्वनावे निष्पन्न ययेन जे आहारदिक ते साधु प्रमुखने आपवा ते यथासंविनाग कहेवाय जे. एवो व्युत्पत्त्यर्थ ने. __गृहस्थ पोषधने पारणे परम विनयपूर्वक गुरुने जे शुफ अशनादिक आपे ते चोथु शिवाव्रत कहेवाय जे. आ स्थले उपयोगि होवाथी चूर्णीमांथी केटलुएक आपवामां आवे - 'पोसहं पारंतेणं साहणं अदा न वट्टई, पारेश्न सव्वं साहूणं दाउं पच्छा पारेयव्वं । काहे विहीए दायव्वं ? जाहे देसकालो ताहे अप्पणो सव्वं सरीरस्स विनूसं काऊणं साहू पडिस्सयगओ निमंतेइ निखं गिण्हवत्ति साहुणं का पमिवत्ति ! । ता हे अन्नोपमनगं अन्नो नायणं पमिलहेइमा अंतरोश् अदोसा हविअगाइ दोसाय नविस्संति. सो जइ पढमाइ पोरिसिए निमंतेश अस्थिय नमोकारश्त्ता ताघिप्पर जंइ नथ्थि तान घिप्प। तं धरिअव्वयं होहि. इसो घणं नगिजा ताहेघिप्प सचिरका विजय जो वा उग्घाड पोरिसीए पारे पारणगश्तो अन्नो वा तस्स विसाजज्जए तेण सावएण सह गम्मसंघामो Jain Education Intemational Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्री आत्मप्रवाधा वच्चइ एगो न वच्च. साहु पुरओ सावगो पच्छओ घरं तेजण आसणे निमंतिजा, जवि न निविठ्ठो विणो पश्त्तो ताहे नत्तपाणं सयं देहि अहवा नायणं धरेइ लज्जा देश अहवा ठिो अविश्जाव दिणं सेसंच गिहिव्वं पच्छा कम्माइ परिहरणहा दाऊणं बंदित्ता विसज्जेइ अणुगच्छिन पच्छासयं जुंजइ. जं च किर साहुणं न दिन्नं तं सावएण न जुत्तव्वं जहि पुण साइनस्थि तथ्थ देसकाल वेलाए दिसावसोओ कायव्वो विसुधेणं नावणं जश् साहूणो हुं तो तो नित्थरियो तोत्ति" ॥ “पोषध पारीने साधुने वहोराव्या वगर पारणं कर कल्पतुं नथी, माटे साधुने दान दइ पछी पारणुं करवं योग्य जे. हवे क्यारे अने का विधिए करवं ते कहे डे-देश कालने अनुसारे पोताना शरीरने विभूपित करी अर्थात् शृंगार करी साधु नतर्या होय ते स्थान ( नपाश्रय ) मां जद साधुने आहारनी विनंति करे. ते वखते साधु शें करे ते कहे जे-कोई पमला कोइ पात्र विगेरे जुदां जुदा पमिलेहे जेथी वखत नही बागवाथी अंतराय दोष तथा स्थापना दोप लागे नहि. जो विनंति करनार पहेलो पोरिसिमां विनंति करे अने कोइ साधुने नमुक्कारसहितुं पच्चखाण होय तो ग्रहण करे अने जो न होय तो ग्रहण न करे, जेथी आहार राखी मूकवो न पमे जो श्रावक घणो पाबळ मागे तो ग्रहण करी साचवीने राखे, अथवा जे कोइ तपस्वी पारणा निमित्ते अथवा बीजो कोइ नग्धामपोरिसिए पारे तेने आपे. आहार लेवा जती वावते एकलो साधु न जाय, परंतु संघाटक बे साधुओ जाय तेत्रो पण विनंति करनारनी सायेज जाय. तेमां पण साधु आगळ चाले अने श्रावक पाउळ चाले. आवीरीते घरे बाजा श्रावक आसननी निमत्रणा करे. जो के साधु कारण विना वेसे नहि. तथापि पोताना तरफथी विनय कयों कहेवाय. पछी श्रावक पोते साधु महाराजने आहार पाणी वहोरावे अथवा श्रावक पोते पात्र धरे अने श्राविका बहोरावे, अथवा श्रावक पोते एक तरफ Jain Education Intemational Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. उनो रहे अने स्त्री श्राविका विगेरे वीजा कोइ वहोरावे. साधु पण पश्चात् कर्मादि दोष वर्जवा निमित्ते जे चीज वहोरावे ते शेष बाकी राखीने ग्रहण करे. श्रावक शुध लावधी दान दश वंदना करी थोमे दूर गुरु महाराजने वळावी घरे आवी पोते आनंद पामतो जोजन करे. पण जे चीज साधुने दानमां न आपी होय ते श्रावके खावी न जाइए. जो नगरमां साधु न होय तो नोजनना स्थान अने काळमां दिशावलोकन करी मनमां शुम नावना जावे के जो आ वखते साधु महाराज होततो मारो निस्तार थात." आथी करीने उत्तम श्रावके निरंतर साधुने दान देयंज जोइए; पण अतिथि संविनाग व्रतनो नच्चार पर्वपोषधना पारणाने दिवसेज होय . तेने माटे आवश्यक वृत्तिमां कडं छे के, पोषध अतिथि संविनाग तो प्रतिनियत दिवसे अनुष्ठेय , पण प्रतिदिवस अनुष्ठेय नथी. ते विषे बहु विस्तार करवाथी बस थयुं. वळी सुश्रावके साधुने जे एषणीय आहारादिक आपवा, ते महालानकारण छ ; अने निर्वाह थता उतां अनेषणीय आहारादिक सर्वथा देवा नहीं; कारणके, ते अल्पआयुर्वधादिकनुं कारण . ___अहिं को प्रश्न करे ने के “ कुपात्रने विषे एपणीय आहारादिक देवाथी तथाप्रकारना गुण नत्पन्न थाय डे के नहीं ? " तेनो नत्तर आ प्रमाणे . कुपात्रने देवातुं एपणीय आहारादिक पण केवन पापमुंज कारण ; ते निर्जरानुं हेतु नथी. श्री जगवतीजीमां का डे के, " श्रावक तथाप्रकारना असंयति, अविरति, तथा पाप कर्मना जेणे पच्चरखाण कर्या नथी तेवा प्रत्ये फासु, अफासु, एपणीय, अनेपणीय, असण, पाण, खाश्म, अने साइमने प्रतिवाजता (आपता) उतां शुं उपार्जन करे"? प्रनुए कह्यु, “ हे गौतम, ते एकांत पाप कर्म नपार्जे, पण तेने कांइ पण निर्जरा नथी. हवे एम ने तो श्रावकोए साधु शिवाय बीजे कोइ ठेकाणे दान आप नहीं, एम ययु. गुरु कहे . “ एम नथी. आगमने विषे अनुकंपा दान निषेव्यु नथी". पूर्वाचार्योए कह्यु डे के, “जं मुख्हा दाणं, तंपइ एसो विहि समकाओ। अणुकंपा दाणं पुण,जिणेहिं न कयावि पमिसिद्धं" ॥१॥ ____“जे सुपात्र दानना लक्षणनो विधि कह्यो जे ते मोक्षने अर्थे करवामां ३२. Jain Education Intemational Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० श्री आत्मvait. प्रावता दानने आश्रीने छे. पण जे कर्मनिर्जराने प्राचींतवीनेज केवल कृपाए करीनेज देवाय ते अनुकंपा दान कहेवाय बे. ते कृपालु जिननगवंते कोइ बखत पण निषेध्यं नथी.१ " ? या कारणाने बने श्रीराजमनीय उपांगमां प्रदेशीराजाने केशी गणभरे कंबे के, " हे प्रदेशी, तुं पूर्वे रमणिक थइने अरमणिक न थइश. " ते उपरथी प्रदेशी राजाए पोताना देशना चार जाग करी, तेमां एक नागे दीनअनाथादिकने माटे निरंतर दानशाला प्रवर्ताची हती; ते तेटला माटे प्रवर्तावी हती के, दानना त्यागथी जिनमतनी निंदा न थाओ. एटले जो ते बीजा दाननो तदन त्याग करे तो जिनमतनी निंदा याय. तेथी ज्ञानी महाराजाए कोई ठेकाणे अनुकंपादान निषेध्युं नथी, जो वली जगद्गुरुए श्रावकोने सर्व ठेकाणे दान करवानी आज्ञा नदीधी होत तो तुंगिका नगरीना श्रावकोना वर्णनना अधिकारमां कहेल ने के, " जेने विस्तारवंत - प्रचुर जात पाणी छे" इत्यादि विशेषणो आप्या बे, तेवा विशे पणो न आपतां केवल साधुदानमांज प्रचुर अन्न आप एम कहेत, आ उपरथी निश्चय थयो के, कर्म निर्जराने माटे जे दान देवं, ते साधुयोनेज देवुं. साधु ने दान देवाथ कर्मनी निर्जरा थाय छे. मने जे अनुकंपा दान वे, ते बीजा सर्वने देवु. सुपात्र दानने माटे विशेष कडे ठे. " नयेनलोभन परीक्षयावा, कारुण्यतोऽमर्षवशेन लोके । स्वकीर्त्ति प्रश्नार्थितया च दानं, नाईति शुद्धा मुनयः कदापि " ॥ १ ॥ "जयी, झोनथी, परीक्षायी, दयाथी, क्रोधने वश थवाथी, ने लोकोमां पोतानी कीर्त्ति प्रसरे तेवा हेतुथी ने प्रश्नना अर्थीपणाथी जे दान आप, सेवा दानने शुद्ध मुनि कदि पण योग्य थता नथी. ܙܕ १ जयथी एटले “आ लोकोने जो नहीं आपीए तो ते असत् करनार होमने शाप आप अथवा लोकोमां मारी विरुद्ध बोलशे" - आवा जययी. २ " बोथी एटले दान पाथी या जन्ममां अथवा अन्य जन्मने विषे १ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. मने समृधि मनशे " एवा सोनथी. ३ परीक्षाथी एटले “ आ साधु निलोंजी ने, एम सांजळयुं ते आ दान लेशे के नहीं" एवी परीक्षा करवाना इरादाथी. दयाथी एटले “ मारा आप्या शिवाय ए बिचारानो शी रीते निर्वाह थशे." एवी करुणाथी. ५ अमर्षथी एटने “ अमुक माणसे प्राप्युं, तो शुं हुं तेनाथी ओगे बु, के न आपुं" एवा विचारथी. ६ पोतानी कीर्ति लोकोमा प्रसरे तेथी एटसे “ दान सेनारना अथवा मुखथी पोतानी प्रशंसा सांगळवानी इच्छाथी." ७ प्रश्नना अर्थीपणाथी एटने “ दानयी सत्कार करवाने लीधे ते मारा प्रश्नोनो ज्योतिष् प्रमुखथी खुनासो करशे" एवी इच्छाथी. उपर कहेला कारणोथी शुष मुनिओ लोकने विष कदि पण दानने योग्य थता नथी. अर्थात् उपर कहेला सात कारणोने लश्ने मुनिओने दान आप नहीं. पोतानी निस्तार बुछियी चक्तिवमेज दान देवू योग्य जे. वळी सुपात्रने विषे दान आपनारा गृहस्थे पांच दृषणो वर्जवा अने पांच आनूषणो धारण करवा. पांच दूषणो. " अनादरो विवंबश्च, वैमुख्यं विप्रियं वचः। पश्चात्तापश्च पंचैते, सदानं दूषयंत्यहो" ॥१॥ दान आपवामां अनादर करवो, आपतां विलंब करवो, मुख अवलु कखू, अप्रिय वचन बोलवू, अने आण्या पनी पश्चात्ताप करवो, ए पांच दानने दूषित करे . ___ पांच भूषणो. " आनंदाश्रूणि रोमांचो, बहुमानं प्रियं वचः । पात्रेऽनुमोदना चैवं, दानं भूषणपंचकम् " ॥ १ ॥ Jain Education Interational Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. “ दान आपतां आनंदना अश्रुओ आवे, शरीर रोमांचित थइ जाय, बहु मान करे, प्रिय वचन बोले अने पात्रनुं अनुमोदन करे, ए दानना पांच आजूषणो ."१ सुपात्र दानना प्रस्तावमा नव्य प्राणीओए मनना परिणाम चडता राखवा. पंचक शेग्नी पेठे दीन परिणामी थ_ नहीं. पंचक शेठनी कथा.. कोबर नामना गामने विषे पंचक नामे एक व्यापारी शेठ रहेतो हतो. एक दिवसे कोइ ज्ञानी मुनि तेने घेर निदा बेवाने अर्थे आव्या. ते वरखते पंचक शेठ नससित जाववमे ते मुनिने अखंड धारावझे घृतनुं दान आपवा तत्पर थया. धीनी धाराथी तेमनुं पात्र जरा जणुं रघु तोपण मुनिए ज्ञानना वक्षधी ते शेठना परिणामनी शुफिवमे घणो लान जाणी तेना परिणामनो जंग न थाय, एवी बुचिथी, जेवामां मुनि ते शेठने दान आपता निषेधता नथी, तेवामां ते शेतना परिणाम चंचलताथी पतित थप गया. तत्काल तेणे चिंतव्यु के, "अहो ! आ मुनि बोनी लागे . पोते एकला उतां आटवावधा घीने शुं करशे ? " आवं चिंतवतांज तेना हाथमां घीनी धारा हळवे हळवे पमवा लागी एटले ते ज्ञानी मुनिए ज्ञानना बळथी तेना परिणाम जाणीने कयु, हवे पमो नहि" पमो नहि त्योरें शेठे कह्यु, "स्वामी, हुं तो सारी रीते दृढताथी स्थिर रह्यो बुंहु लगारमात्रपण पडतो नथी, ते उतां तमे मृषा वचन केम बोलो हो ? " त्यारे मुनिए कह्यु, तुं - व्यथी पम्तो नथी पण नावथी पड्यो बे. तने वधारे शें कहे ? पण वारमा देवलोकमां जवा योग्य एवा अध्यवसायथी पमीने तुं पेहेला देवलोकमां जवा योग्य एवा अध्यवसायमां आवी रहेलो छे." मुनिना आ वचनो सांजळी ते पंचक शेठ अत्यंत पश्चात्ताप करवा लाग्यो. पछी मुनि तो पोताने स्थाने चादया गया. एवी रोते पंचक शेरनी कथा . दान कर्म उपर जावज प्रधानपणुं ने, ए वात दृष्टांतथी देखामे जे. अव्ययी नहीं पण जाव शुद्धिथीज दान आपनार जिनदत्त ( जीरण ) नामे शेठ Jain Education Intemational Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. महान् बाजने पाम्यो हतो. अने पुरण नामे शेष नावविना नगरा फलने पाम्यो हतो. आगममा एम संजनाय ने के, “ जिनदत्त शेठ प्रनुनो संयोग पामी अव्यथो दान न देतां उतां नावथी दान आपी महा लालने प्राप्त थयो हतो अने पुरण शेठ व्यथी दानने देतो पण जाव विना जिनदत्तनी पेठे महा लानने पाम्यो नहि अर्थात् अव्य प्राप्तिरुप अप लाननो ते जागी थयो हतो. कथा. एक दिवसे श्री वीरपत्नु उद्मस्थावस्थामां विचरता विचरता विशाला नगरीनी बाहेर आवेला बलेदेवना देहेरामां चार मास सुधी चतुर्विध आहारना पच्चखाण करी कायोत्सर्गे रह्या हता. ते नगरमा उत्कृष्टपणे जैन धर्ममां रक्त एवो जिनदत्त (नीर्ण ) नामे शेष रहेतो हतो. ते एक वखते बलदेवना मंदिरमां आवी चड्यो. त्यां श्री वीर प्रत्तुने जोश वंदना करी ते पोताना मनमां आ प्रमाणे चिंतववा लाग्यो.---" आ स्वामीए उपवास करेल . ते स्वामी प्रातःकाले अवश्य पारणुं करशे ते वखते हुं आ प्रनुने पमित्रानोश.-तेमने आहार पाणी व्होरावीश." आ प्रमाणे ते दररोज ते प्रनु पासे आवतो अने आवी जावना जावतो हतो. तेम करतां पक्ष, मास व्यतीत थवा लाग्या, तेने गणतो ते शेठ निमत अध्यवसायवालो यतो हतो, तेम करतां चार मास व्यतीत थप गया. चातुर्मास्यने अंते पारणाने दिवसे ते शेठ शुद्ध आहारनी सामग्री मेलवी बपोरे पोताना घरना घार नपर वेठो. अनुना आगमनना मार्गने जोतो ते आ प्रमाणे चितववा लाग्यो-" हमणां श्री वीर स्वामी अहिं पधारशे त्यारे हुं मस्तके अंजलि जोकी प्रनुनी सन्मुख जइ तेमने त्राण प्रदक्षिणा कर। वंदना करी घरमां बइ जश. त्यां नक्तिपूर्वक प्रधान प्राशुक अने एषणीय अन्न पानादिकथ। प्रजुने पमितानीश, अने पारणं करावीश. ते पनी प्रजुने नमी केटलांक मंगला प्रनुनी पाछळ जश्श. त्यारवाद हुं मारा आत्माने धन्य मानी बाकी रहेल अन्नादिकनुं नक्षण करीश. " आ प्रमाणे जीर्णशेठ नावनामयमनोरथो करता हता, तेवामां श्री वीर प्रनु निकाने माटे विचरता पुरण शेठना घरयां पेग. ते पुरण शेठ मिथ्यात्वी हतो, तेथी तेणे दासीने हाथे प्रजुने अमदना Jain Education Intemational Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ श्री प्रात्यमबोध. बाकला देवराव्या. तत्काल सत्पात्र दानना माहात्म्यथी देवताए त्यां पांच दिव्य प्रगट कयो. ते समये ते नगरनो राजा अने बीजा उत्तम लोको पुरण शेठने घेर एकग थया अने ते शेउनी जारे प्रशंसा करवा लाग्या. पळी श्री वीरमन्तु अमदना बाकसाथी पारणुं करी त्यांची विहार करी बीजे स्थले चादया गया. ___ अहिं जीर्ण शेउ आकाशमा यता देवताना इंजिना नादने सांजळी विचार करवा लाग्यो-"अहा ! मने निर्नागीने धिक्कार , हं सर्व रीते अधन्य बुं, के श्री वीरपनु मारे घेर निक्षा लेवाने पधार्या नहीं अने तेमणे बीजे ठेकाणे पारणं कर्यु. मारा सर्व मनोरथो निष्फळ थइ गया." आ प्रमाणे ते शेठ अपशोच करवा लाग्यो. प्रा प्ररसामा तेज दिवसे तेज नगरमा श्री पार्श्वनाथना संतानिक कोई केवलज्ञानी मुनि महाराज समोसर्या. ते खबर जाणी राजा अने नगरना लोको तेमने वंदना करावाने गया. ते वखते राजाए ते केवली जगवान्ने पुग्युं, “ स्वामी, अमारा नगरमां कयो जीव पुण्यवान् ? " " केवळी जगवाने कहां, राजा, श्रा नगरमा जीर्णशेठना जेवो कोई पुण्यवान् नथी. " राजाए कह्यु, “ महाराज ते जीर्ण शेठे श्री वीरफ्नुने पारणं कराव्युं नथी. परंतु पुरण शेठे पारणुं कराव्युं , तो ते पुरण शेठ तेनाथी पुण्यवान् केम नहीं ? " त्यारे केवली नगवाने जीर्ण शेठनी नावनातुं स्वरूप मूळथी मांगीने कही संचलाव्यु. पठी विशेषमां क के, "पुरण शेठे प्रभुने दान आप्युं, पण ते घव्यथी आप्युंडे अने जीर्ण शेठे प्रजुने नावथी दान आप्युं . वली ते जीर्णशेठे नाव समाधिने धारण करी बारमा देवनोके जवा योग्य एवं कर्म उपार्जन कर्यु जे. जो ते जीर्णशेठे ते वखते देवउंसुनिनो शब्द सांगट्यो न होततो ते तत्काल केवलज्ञानने पण प्राप्त करत. अने पुरण शेठेतो जाव शून्यपणे दान आप्युं . ते सुपात्रदान करवाथी सुवर्णदृष्टि वगेरेने प्राप्त थयेन ने. पण तेथी का अधिक फल पामेल नथी. " आ प्रमाणे ते केवनी जगवान्ना वचन सांजळी राजा वगेरे सर्वे ते जीर्ण शेउनी प्रशंसा करता पोतपोताने स्थाने चाव्या गया हता. __ जीर्ण शेठ चिरकाळ सुषी शुक रीते जिनेश्वरनो धर्म आराधी बारमे देवलोके गयो हतो. आ प्रमाणे दान आपवामां जावशुदिने विषे जीर्ण शेउनी Jain Education Interational Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. २एए कथा कहेवाय बे, ते उपरथी बोजा श्रद्धालु श्रावकोए दाननी क्रियामां निर्मळ नाव धारण करवो, के थे। सर्व समृद्धि यहिं या प्रमाणे जावना बे. पोतानी मेले प्रगट थाय छे. " धन्ना ते सप्पुरिसा, जे मणसुद्धीए सुरुपत्तेसु । सुद्धा सणादाणं दिति सया सिद्धिगइहेउं " " जे मननी शुद्धिवमे सिद्धि गतिना हेतुरुप एवं शुद्ध अशनादि दान शुपाने सदा आपे छे, ते पुरुषोने धन्य छे, १" "" ॥१॥ सर्व धर्मने विषे दाननी गौणताने कडेनारायना मतनुं निराकरण करवाने गमने अनुसारे तेनुं प्राधान्य बतावे बे. (4 सर्वतीर्थकरैः पूर्व, दानं दत्वादृतं व्रतम् । तेनेदं सर्व धर्माणामाद्यं मुख्यतयोच्यते " ॥ १ ॥ "सर्व तीर्थकरोए पूर्वे दान प्रापीनेज व्रतनो आदर करेलो बे, तेथी ए दान सर्व धर्मोमां प्रधानपणे मुख्य कहेवाय ते." १ तीर्थंकरोनो दानविधि. प्रथम शक इंजनी प्रज्ञाथी धनद नामे लोकपाल आठ क्षणमां नीपजावेला, सोळ मासा प्रमाण बाला, जिनेश्वरना पिताना नामथी अंकित ने सांवत्सरिक दानने योग्य एवा सोनैयाव के जिनेश्वरना जंकारो पूरे बे. ते वखते जिनेश्वर भगवान् दाननी प्रवृत्तिने अर्थे सूर्योदय पछी उ घडीए जे महर यावे ते एटले घीपी परिपूर्ण प्रहर सुधी प्रतिदिन एक कोटी ने आठ लाख सोनैया आपे डे. आवश्यकजीने विषे कझुं छे के, एक संवत्सरमां जिनेश्वर जगवान् सो व्यास कोटी ने एंशी लाख सोनैयानुं दान आपे बे. ते दान समये उत्पन्न थता व अतिशयोः जिनेंद्र जगवान् ज्यारे सुवर्णनी मुष्टि जरीने दान आपे छे, त्यारे सौभ जगवान्ना जमणा हाथमां महा शक्ति स्थापन करे छे; के जेथी तेमना हाथने जरापण खेद उप्तन्न न थाय. अनंत वीर्यवाला भगवान्ना हाथमां इंद्र शक्तिनुं Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ श्री आत्मप्रबोध. स्थापन करे ए अयुक्त डे, एवी शंका अहिं करवी नहीं; कारणके, नगवान् अनंत वनवासा उतां पण इंजने ते न करवामां पोतानी चिरकालनी स्थिति अने नक्तिना जंगनो प्रसंग आवे, तेथी ते अनादि स्थिति पाळवाने माटे अने पोतानी नक्ति देखामवाने माटे इंजनुं ते करवं युक्तज जे, ते विषे विशेष विस्तार करवायी सयु. ____ बनी ते समये ईशाने सुवर्णरत्नमय बाकी ग्रहण करी वचमां ग्रहण करता वीजा सामानिक देवताने वर्नता उता जे दान पामवाना , तेमने जिनेश्वरना हाषथी देवरावतां उतां लोको पासे शब्द करावे डे के, "हे प्रजु मने आपो." चमरेंड अने बनीं लोकोना लानने अनुसारे प्रभुना दाननी मुष्टि पुरे ने अने देवरावे . नवनपति देवताओ दान ग्रहण करनारा नरत केत्रना मनुष्योने त्यांबावे . व्यंतर देवताओ ते मनुष्योने पोताने स्थाने पहोचामे डे. ज्योतिषी देवताओ विद्याधरोने ते दान ग्रहण करावे , वली इंको पाण ते प्रभुना दानने ग्रहण करे , कारण के, ते दानना प्रनावश्री देवनोकमां बार वर्ष पर्यंत को पण जातनो क्लेश न थाय. मोटा चक्रवर्ती राजाओ पण पोतानो नंमार अक्षय करवा माटे ते दानने ग्रहण करे .श्रेष्ठी प्रमुख गृहस्थो पोतानी यश कीर्तिनी छिने माटे अने रोगी पुरुषो पोताना मूळ रोगनी हानि थवाने माटे तेमज बार वर्ष मुधी नवो रोग उप्तन्न न थाय तेने माटे ए दान- ग्रहण करे . वधारे शें कहेवू ? सर्व जव्यजीवो ए दाननो योग प्राप्त करी पोतपोताना वांछित अर्थनी सिफि थवा माटे श्री जिनेश्वरना हाथथी दान ग्रहण करे . अनव्य आत्माओ कदि पण ते दानने पामताज नयी. शास्त्रने विषे ते अभव्यजीवोने तीर्थकरोना हा. थना दान प्रमुख केटलाएक उत्तम जावोनी प्राप्तिनी अयोग्यता कहेली . ते कहे . जह अजवियजीवेहिं, न फासिया एवमाश्याभावा । इंदत्तमनुत्तरसुर, सिनाय नरनारयत्तं च ॥ १ ॥ केवलि गणहरहत्थे, पव्वजा तिथ्यवथ्यरं दाणं । पवयणसुरी सुरत्तं, लोगंतिय देवसामित्तं ॥३॥ Jain Education Intemational Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश २५७ तायत्तीससुरत्तं, परमाहम्मिअ जुयलमणुअत्तं । संभिन्नसोय तह पुत्व, धराहारयपुत्रायत्तं ॥३॥ मश्नाणासु बकि, सुपत्तदाणं समाहिमरणत्तं । चारणदुगमहुसिप्पय, खीरासव खीणठाणत्तं ॥ ४ ॥ तिथ्थयर तिथ्य पमिमा, तणुपरिभोगाइ कारणेवि पुणो । पुढवाश्य जावमवि, अन्नव्व जीवेहि नो पत्तं ॥ ५ ॥ चउदसरयणतंपिय, पत्तं न पुणो विमाणसामित्तं । सम्मत्त नाण संयम, तवाइ नावा न नाव दुगे ॥ ६ ॥ अणुनव जुत्ता नत्ति, जिणाण साहम्मिाण वच्छवं । न य सादेश अन्नव्वो, संविगत्तं न सुप्पखं ॥ ॥ जिजणयजणणिजाया, जिजकाजरकणि जुगप्पहाणा । आयरियापयाइ दसगं, परमथ्थ गुणदृमप्पत्तं ॥ ७ ॥ अणुबंधहेनसरूवा, तथ्यअहिंसा तहा जिणुदिछ । दव्वेण य भावेण य, दुहावि तेहिं न संपत्ता ॥ ५ ॥ "अनवी जीवो केटला जावोने पामता नथी ? ते कहे . १ इंचपाणु, २ अनुत्तर विमानवासी देवपणुं, ३ त्रिषष्टिशलाका पुरुषनी पदवी, ४ नारदपाणु, ५ केवली अने गणधरने हाथे दीक्षा, ६ तीर्थकरने हाथे वर्षीदान, ७ शासनना अधिष्ठायक देव देवी, ७ लोकांतिकपणुं, ए देवतार्नु स्वामिपाj, १० त्रायस्त्रिंशत् देवपणूं, ११ परमाधामीपणुं, १२ जुगलीया मनुष्यपणुं, १३ संजिन्न श्रोतोलब्धि, १४ पूर्वधरनी लब्धि, १५ आहारक लब्धि, १६ पुलाक बब्धि, १७ मतिझानादिकनी लब्धि, १७ सुपात्रदान, १ए समाधिमरण २० विद्या चारण तथा जंघाचारणपणं, २१ मधुशिल्प लब्धि, २२ दीराश्रव लब्धि, २२ वीणमोह गुणगणं, २४ तीर्थकर अने तीर्थकरनी प्रतिमाना शरीरना जोगमा आववाना कारणे पृथिव्यादिक भाव, २५ चौदरत्नोमां उपजवू, २६ वि Jain Education Intemational Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. माननुं स्वामिपणं, २७ सम्यक् ज्ञान, चारित्र, तपादिक भाव तथा उपशामिक अने क्षायिक तथा योपशमिक नाव पामवापणुं २० अनुभव युक्त नक्ति, २४ साधार्मिवात्सल्य, ३० संवेगपण, ३१ शुक्लपदपणुं, ३२ जिनेश्वरना माता, पिता के स्वीपणे थवापणं, ३३ जिनेश्वरना यद यक्षिणीनुं थवापणुं, ३४ युगप्रधानपणं, ३५ आचार्यादि दश पदमां थवाप', ३६ परमार्थ गुणोनुं पामवापाणुं अने ३७ अनुबंध, हेतु अने स्वरुप-ए त्रण दयानुं अव्ययी अने नावथी पामवापणुं. आ प्रमाणे सामनीश नाव अजव्य प्राणीने कदिपण प्राप्त थता नथी. अनुबंध, हेतु अने स्वरूप ए त्रण प्रकारनी दया उपर कहेवामां आवी तेना लक्षणो आ प्रमाणे छे-जे साक्षात् जीवोनो अविघात ते पेहेली स्वरूप दया कहेवाय जे. जे यतना पूर्वक प्रवृत्ति ते बीजी हेतुदया कहेवाय डे अने जे ते दयाना फलरूपे परिणमे ते त्रीजी अनुबंध दया कहेवाय जे. वळी जिनाझानुं अखंमन ते पण अनुबंध दया कहेवाय छे. वनी प्रत्तुना दानना प्रसंगमा एम पण डे के, तेमना दानने अवसरे तैमना माता पिता अने नाइओ त्रण दानशाला करावी तेमां अन्न, पाणी, वस्त्र अने अलंकार देवरावे जे. ते विषे हवे विशेष विस्तार करवाथी बस . ए प्रकारे सप्रसंग चोथु शिदावत कहेवामां आव्यु, हवे तेनुं निगमन कहे छे. " इत्थं व्रतधादशकं दधाति, गृही प्रमोदेन प्रतिव्रतं हि । पंचातिचारान् परिवर्जयंश्च, ध्रुवं यथाशक्त्यापनंगषटके'।१ "गृहस्थ ए प्रकारे हर्षथी शक्ति प्रमाणे उ नांगाए करी बार व्रतने धारण करे जे अने प्रत्येक व्रतना पांच अतिचारोने वर्जे ." ? विस्तार थवाना जयथी अहिं अतिचार दर्शावेला नथी. ते ग्रंथांतरथी जाणी लेवा. अहिं बाहुब्यपणाने आश्रीने अतिचारनी पांच पांच संख्या कहो जे, परंतु जोगोपनोगमां वीश अतिचार एम जाणवं. जे उपर ब नांगा कहेवामां आव्या, ते आ प्रमाणे. १ आ त्रण भावो भावथी न होय परंतु द्रव्यथी होय. Jain Education Interational Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. १ एकविध एकविध- पेहेलो भांगो. एटले मने करीने, वा वचने करीने वा कायाए करीने न करे अथवा न करावे. २ एकविध विविध-ए बीजो नांगो ते कहे . जेम मन वचने करीने अथवा मन कायाए करीने अथवा वचन कायाए करीने न करे अथवा न करावे. ३ एकविध त्रिविध-ए त्रीजो नांगो . मन वचन कायाए करीने न करे अथवा न करावे. विविध एकविध–ए चोथो भांगो . जेम मन अथवा वचन अथवा कायाए करीने न करे अने न करावे. ५ विविध विविध-ए पांचमो नांगो जे. जेम मन वचने करीने, तथा मन कायाए करीने अथवा वचन कायाए करीने न करे अने न करावे. ६ विविध विविध-ए ठगे नांगो . मन, वचन कायाए करीने न करे अने न करावे. आ प्रकारे एकवीश नांगायुक्त एवी पम्नंगीनो श्रावकने घाणुं करीने अनुमति अने निषेध नथी, तेथी तेना बीजा नेदो ( नांगा) वताव्या नथी. अहिं बारव्रतने आश्रीने जांगाना नेदने कहेवानी इच्छाने विषे ते अंगीकार करनारनी कर्मना क्षयोपशमनी विचित्रता होवाथी घणा नेदो उपजी शके ले. ते कहे जे–१३ अवज ७४ करोझ, १२ लाख, ७७ हजार, २०० ने २बे जांगा था शके छे. ए रीते श्री जिनश्वरे श्रावकोने अनिग्रहना नेदनी संख्या दावी . ए नांगाने माटे श्री प्रवचन सारोकारनुं बसोबत्रीशमुं घार जोवं. वली बार व्रतमां प्रथमना आठ व्रतो एक साथे अंगीकार करेला जावजीव सुधी हाय डे, तेथी ते यावत्कथिक कहेवाय . जे चार शिक्षाव्रतो तेनो मुहूर्तादि अवधियी लश्न तेमनुं वारंवार अंगीकार करवापणुं रे ते अल्पकालजावि छ माटे ते इत्वर कहेवाय जे. तेम वली ते बारव्रतन विषे पेहेला पांच व्रत धर्मरुपी वृदना मृलनूत होवाथी ते मूल गुण कहेवाय जे. बाकीना सात Jain Education Intemational Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्री आत्मप्रबोध. व्रतो धर्मरुपी वृदनी शाखारुप होवाथी उत्तर रुपे हाइ अणुव्रताने गुण करवायी ते उत्तरगुण कहेवाय . पूर्वे एक एक व्रतने आश्रीने दृष्टांतो बतावेला ने. हवे बारव्रताने आश्रीने श्री वीरशासनना सर्व श्रावकोमा गुणोथी वृद्ध अने उपाशक दशांगसूत्रमा प्रसिक एवा दश श्रावकोना दृष्टांतो अनुक्रमे लेश मात्र दर्शावेला . प्रथम ते दशना नाम कहे जे-१ आनंद, २ कामदेव, ३ चुबनी पिता, ४ सुरादेव, ५ चुबशतक ६ कुंमकोलिक, ७ सहालपुत्र, ७ महाशतक, ए नंदिनीपिता, १० तेतलीपिता. ए दश उत्कृष्ट श्रावको कहेवाय . आनंद श्रावक, वृत्तांत. वाणिज्यग्राम नामना नगरमां बार कोटी सोनेयानो स्वामी आनंद नामे एक श्रावक रहेतो हतो. तेणे चार कोटी सौनया निधानमा माटेला हता, चार . कोटी व्याजमां अने चार कोटी व्यापारमा रोकेला हता. तेने प्रत्येकमां दशहजार गायोवाला चार गोकुन हता. उत्कृष्ट शील तथा सौजाग्य वगैरे गुणोने धारण करनारी शिवानंदा नामे तेने स्त्री हती. ते वाणिज्य गामनी बाहेर ईशान खूणामां कोबाग नामना एक परामा ते आनंद शेउना झाति कुटुंबीओ अने घणां मित्रो रहेता हता. एक वखते ते वाणिज्य गामनी समीपे आवेला द्रुतपक्षाश नामना चैत्यने विषे श्री महावीर प्रनु समोसर्या ते समये त्यां मोटी पर्षदा एकठी थइ हती, आ खबर सांगळी अानंद श्रावक स्नान पूर्वक शुक वस्त्रा पेहेरी पोताना घणा परिवार साथे परवरी प्रजुनी पासे आव्यो, ते प्रजुने वंदन करी योग्य स्थाने बेगे ते समये प्रभुए देशना आपी ते प्रत्तुनी देशना सांचळी आनंदे शुक श्रधान प्राप्त करी प्रभुने कह्यु, “ भगवन् तमारो कहलो धर्म मने रुच्या छ, माटे हुं तमारी समक्क बार व्रत लेवाने इच्छं छु, त्यारे प्रजुए कह्यु. “ यथासुखं देवानुप्रिय, मा प्रतिबंधकार्षीः " "हे देवानुप्रिय, जेम सुख उपजे तेम करो, पण विलंब करशो नहीं" ते वखते आनंदे प्रभु समीपे वार व्रत अंगीकार कर्यां तेना विशेष विधिनो विचार Jain Education Intemational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. २६१ उपासक दशांग सूत्रथी जाली लेवो. व्रत ग्रहण कर्या पछी आनंद श्रावक भगवान् ने नमीने या प्रमाणे बोल्यो - " भगवन् आजथी अन्य तीथओ, अन्य तीर्थी ओना देव अन्यतीर्थीओए पोताना देव तरीके ग्रहण करेल अरिहंतनी प्रतिमा तेमने हुं वंदन करीश नहीं अने नमस्कार पण करीश नहीं; तेमणे प्रथम न बोलाव्या तो हुं तेमनी साथ आलाप तथा संलाप करीश नहीं. अर्थात् मारे हरेक कार्यने माटे तेमने बोलाववा नहीं. जो पहेलां ते बोलावे तो मारे बोलवं. तेली तेमने धर्मबुद्धिए अशनादि प्रापीश नहीं. राजान्नियोगादि छ आगा रने व बीजे सर्व ठेकाणे मारे नियम बे; आजथी हुं श्रमण निर्ग्रथोने प्रासुक तथा एषणीय आहारादिवमे प्रतिज्ञाजित करतो विचरीश आ प्रमाणे अभिग्रह व जुने त्रण प्रदक्षिणा फरी वंदन करी ते आनंद श्रावक पोताने घेर गयो हतो. तेनी स्त्री शिवानंदा पण पतिनामुखथी या प्रमाणे प्रवृत्ति सांजळी पोते प्रजुनी समीपे ावी अने तेणीए त्यां बार व्रत ग्रहण कर्या. ते पी आनंद श्रावकने चरुता जावयी पोषध उपवासादि धर्मकृत्यवमे आत्माने नाव युक्त करतां चौद वर्ष व्यतीत थइ गयां ज्यारे पंनरमा वर्षनो प्रवेश थयो एटले ते आनंद श्रावके एक दिवसे गीयार प्रतिमा (परिमा) अंगीकार करवानी इच्छाथी पोताना ज्ञातीय, स्वजन ने मित्रोने एकठा करी सरस जोजनथी तृप्त करी सत्कार कर्यो. पछी तेमनी समझ पोताना ज्येष्ठ पुत्रने कुटुंबना स्वामित्व उपर स्थापी, • सर्वनेने पुत्र पुछी पोते कोब्लाक संनिवेशमां पोतानी पोषधशालामां आव्यो. त्यां जूमिने प्रमाज, अने उच्चार तथा प्रश्रवणनी भूमिने पमीलेही दर्जना संयारा उपर ते प्रारूढ थयो. त्यां ते श्रावकनी पेहेली परिमा अंगीकार करी. तेने सूत्रोक्त विधिपूर्वक आराधी अनुक्रमे गीयार श्रावकनी पमिमा आराधी, ते पछी तपथी जेणे शरीरने सुकावी दीधुं बे एवा आनंद श्रावकने एक दिवसे निर्मल अध्यवसायथी ने ज्ञानावरणीय कर्मना क्षयोपशमथी अवधिज्ञान उत्पन्न थइ आव्युं. तेवामां एक दिवसे ते वाणिज्य गामनी बाहेर श्री वीर प्रजु समोसर्या. त्यारे प्रजुने पुछीने इंद्रभूति ( गौतम स्वामी ) गणधर त्रीजी पोरसीमां ते वाणिज्य गाममां यथारुचि आहार ग्रहण करी गामनी बाहेर Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. नोकाता कोदाक संनिवेशनी अति नजीक नहीं तेम अति दूर नहीं तेम विचरतां लोकाना मुखथी आनंद श्रावकनी तपनी प्रवृत्ति तेमना सांजळवामां प्रावी. तत्काल पोते ते प्रत्यक्ष जोवा कोदाक संनिवेशमां आवेत्री पोषधशालामां व्या. त्यारे अानंद श्रावक ते जगवान् गौतमने आवता जो घणाज खुशी थया अने तेमने वंदना करी आ प्रमाणे बोटयो-" हे स्वामी, तपस्याने बस्ने जेना शारीरमा मात्र नामी अने अस्थि रहेता डे एवो हुँ आपनी समीपे श्रावबाने शक्तिमान् नथ); माटे आप मारी उपर कृपा करीने पधारो. ते वखते गौतम स्वामी ज्यां आनंद आवक रहेला , त्यां आव्या. स्वामीने आवेला जोइ आनंद श्रावके तेमने मस्तक मे त्राण वार चरणमां नमी आ प्रमाणे पूज्यु.-" हे स्वामी, गृहस्थने घरमा रहेतां उतां अवधिज्ञान उत्पन्न थाय के नहीं ? " गौतम स्वामी ए कडं, “ हा, उत्पन्न थाय, " त्यारे आनंदे कडं, “ महाराज, मने पण अवविज्ञान थयुं .तेनाथी हुँ पूर्व, दक्षिण अने पश्चिम दिशामां पांचशो पांचशो योजन देत्र रुप लवण समुज पर्यंत हुं देखी शकुंछुने उत्तर दिशामां हिमवंत वर्षधर पर्यंत जाणी शकुंछ. ऊर्ध्व लोके सौधर्म देवलोक यावत् अने अधोजागे रत्नप्रजा पृथ्वीना बोलुच्चय नामना नरकवास पर्यंत जाणुं बुं-देखू छं. आनंदना आ वचनो सांनळी गौतम मुनि बोल्या “ नज, गृहस्थने अवधिज्ञान उप्तन्न थाय, पण एटवं बधू मोटुं न थाय, माटे आ स्थान- आलोचन—निंदनादिक करो. " आनंदे का," हे स्वामी, जिन वचनमा साचा अर्थनी आलोयणा होय जे? त्यारे गौतमे कह्यु, “ एम न होय" आनंद बोट्या " महाराज, जो एम डे तो पठी तमारेज ए स्थानकनी आलोचना निंदना करवी.” आनंदना आ वचनो सांनळी गौतम हृदयमां शंकित थइ गया. पर तत्काल त्यांथी नीकळी द्रतपलाश चैत्यमां ज्यां श्री वीरपत्नु रहेला त्यां आवी गमनागमन प्रतिक्रमणादि पूर्वक स्वामीने नम) सर्व वृत्तांत निवेदन करी आ प्रमाणे पूडे जगवन्! ते स्थानक आनंदने आलोचवा योग्य डे के मारे आलोचवा योग्य ? प्रनुए कह्यु, " तुंज ते स्थानने आलोव अने तेने माटे आनंदने खमाव " जगवान्ना आ वचनने विनयश्री अंगीकार करी पोते गातमे ते स्थानकनी आलोचनादि लइ पनी आनंद श्रावक पासे आवी ते अर्थने खमाव्यो हतो ते पर। आनंद श्रावक बहु प्रकारना शीलवतादि धर्मकृत्यवके पोताना आत्माने जावो, Jain Education Intemational Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. २६३ वीश वर्ष पर्यंत श्रावक पर्याय पाली छेवट एक मासन। संलेखणा करी समाधि पूर्वक कालकरी सौधर्म देवलोके अरुणान नामना विमानमां चार पढ्योपमना आयुष्यवालो देवता थयो. त्यांथी चवीने ते महाविदेहने विषे सिद्धिपदने प्राप्त थशे. ए प्रकारे आनंद श्रावनुं वृत्तांत बे. कामदेव श्रावको वृत्तांत. चंपानगरीमा कामदेव नामे एक गृहस्थ रहेतो हतो. तेने जड़ा नामे स्त्री हती. अारकोट । सोनैयाना द्रव्यनो स्वामी हतो. तेटला इव्यमाथी छ कोटी सुवर्ण द्रव्य निधानमां कोटी व्याजमा अने व कोटी व्यापारमां एम त्रण जागे तेनुं अन्य रहेतुं हतं. ते शिवाय दश दश हजार गायोवाला छ गोकुलो तेनी पासे हता. एक वखते ते नगरनी समीपे वेला पूर्णन नामना चैत्य मां श्री वीरप समोसर्या या खबर सांजळी कामदेव तेमने वंदना करवा गयो आनंद श्रावकनी पेठे तेणे प्रभु पासे बार व्रत अंगीकार कर्या. अनुक्रमे ए व्रतनुं पालन करतां कामदेवे एक समये पोताना ज्येष्ठ पुत्रने कुटुंबनो जार सौंपी पोते पोशाळामां आवी पोषध व्रत लइ बेठो. अर्द्ध रात्रिनो समय यतां कोई एक मायावी . मिथ्यात्वी देव प्रगट थइ तेनी पासे आव्यो. ते विकराळ पिशाचनुं स्वरूप विकुर्वी हाथमां तीक्ष्ण धारावाळु खग लइ तेनी पासे उज्जो रह्यो, ते कामदेवने आ प्रमाणे कहा, “ अरे कामदेव, तूं नहीं प्रार्थना योग्यनी प्रार्थना करनार, बुद्धि लज्जा ने ली वगरनो अने धर्मपुयवमे स्वर्ग तथा मोदानी dia राखनारो बे. पण हवे तारा शीलवतादि तथा पोषधोपवासादिनो सत्वर त्याग करी दे. जो तुं त्याग नहीं करेतो हमणांज आ तीक्ष्ण खड़गवमे तारा शरीरने खं खं करी नांखीश; जेथी तुं पीमा पामतो मरणाने शरण थइश. पिशाचे या प्रमाणे करूं तो पण कामदेव तेथी जय पाम्यो नहीं; ते अधिक कोन पाम्या शिवाय, अचलित, मौनधारी अने धर्मध्यानथी युक्त थइने रखो. ते मिथ्यात्व देवे तेने निश्चल जाए) ते प्रमाणे वे ऋण वखत कां, परंतु धर्मवान् कामदेव तेनाथी जरापण चलायमान थयो नहीं. तेथी ते देवने नारे कोप थ‍ आव्यो. कुटी चावी ते तेनी पर खमूग जगाम्युं तोपण कामदेव जराए 27 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्री आत्मप्रबोध. मग्यो नहीं. पडी तेणे खड्गनो घा करी तेना शरीरना खंग करी नांख्या, तथापि कामदेवे ते पीमा सहन कर। अने ते पोताना धर्मने विषे निश्चल रह्यो. ज्यारे कामदेव पोताना पिशाचना रूपथी चलित थयो नहीं एटले मिथ्यात्वी देव हृदयमां खेद पामतो हलवे हलवे पोषधशालामाथी बाहेरनीकटयो अने तेणे ते पिशाचना रुपने गंभी दी. पी तेणे हस्तिनुं रुप विकुर्यु. एकमहान् शुंढा दमने जगळतो, मदोन्मत्त थ६ मेघनी जेम गुलगुलायमान शब्द करतो, अने जयंकर आकारने धारण करतो ते पोषधशालामां आव्यो. तेणे गर्जना करीने कयुं, "अरे कामदेव, जो तुं मारुं कहेतुं नहीं माने तो हमणा आ मारी शुंढ वझे ग्रहण कर। तने आकाशमां फेंकीशा अने मारा तीक्ष्ण दंतो रुप हळवमे तने जेदी नांखीश. वत्री नीचे नांखी पगवमे करी मसलीश. तेणे आ प्रमाणे कां, तो पण कामदेव जरापण दोन पाम्यो नही, त्यारे ते देवताए जेम कहुं हतुं तेम करी बताव्युं तो पण ते श्रावके ते महा वेदना सहन करी अने ते धर्मध्यानमां स्थिर रह्यो. ज्यारे ते देव हस्तीरुपे पण ते कामदेवने दोन पमामवाने अशक्त थयो, एटले ते हलवे हलवे पागे सरीने पोषधशाळामाथी बाहेर गयो अने त्यां जश् हस्तिना रूपनो त्याग कर्योपठी तेणे सर्पनुं रूप विकुव्यु. महा विष अने क्रोधथी पूर्ण, काजळना पुंजना जेवा वर्णवाळो, अति चंचळ जिह्वाने धरनारो, नत्कट, प्रकट, अने वक्र जटाधारी, अने कग्नि फणाटोप करवामां दक्ष एवो जयंकर सर्प बनी ते पोषध शालामां आव्यो. अने तेणे कामदेवने आ प्रमाणे कयु-" अरे कामदेव, जो तुं मारुं वचन नहीं माने तो हमणांज हुं सरसर शब्द करतो तारी काया नपर चमीने पश्चिम नागवमे त्रण वार आंटा दइ तारी ग्रीवाने वींटी जरमो लाश अने तीक्ष्ण विषयी व्याप्त एवी दाढावमे तारा उरस्थलने नेदी नांखीश." तेना आवा वचनोथी पण कामदेव चलित थयो नहीं, त्यारे तेणे अति क्रोधायमान थइने तेज उपसर्ग कर्यो. परंतु कामदेवे अक्षुब्ध थप तेनी तीव्र वेदनाने धैर्यथी सहन करी. तेणे जैन धर्मने पोताना चित्तथी क्षणवार पण दूर कयों नहीं. आ प्रमाणे ते देव सर्प रुपे पण कामदेवने धर्मधी चलायमान करवाने असमर्थ थयो, एटले ते पालो हलवे हलवे ओसरीने ते पोषधशालार्थी बाहेर नीकट्यो अने तेणे सपना रुपनो त्याग को. पडी तेणे अति मनोहर, शीतळ-सौम्य आकृतिवालु देदीप्यमान देवनुं स्वरुप विकुयु. पठी ते पोषधशालामां आकाश मार्गे रही Jain Education Interational Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. १६ए कामदेव प्रति या प्रमाणे बोब्यो- " हे कामदेव, तमने धन्य छे. तमेज पुण्य जैनधर्म अंगीकार कररी पोताना जन्मने सफल कर्यो . हमणा एक वखते सुधर्मा इंड पोतानी सनामां तमारी प्रशंसा करता हता के, कामदेव नामे श्रावक देव दानवोथी पण अहोज्य बे. " आ सांजळी में इंडना वचनने मान्युं नहीं. हुं तत्काल अहिं आव्यो में तमारी परीक्षा करी, तेमां सुधर्मा जेव वर्ण हती, तेवी तमारी शक्ति मारा जोवामां आव. दवे हूं तमोने खमां कुं. मारो करेलो अपराध तमारे क्षमा करवो. हूं ते कार्य नहिं करूं. " या प्रमाणे कही ते देव कामदेवना चरणमां वारंवार पोतानो अपराध खमावी पोताने स्थाने चाव्यो गयो. वे आज नमी अंजलि जोडी देव गया पी कामदेवे उपसर्गनी नाव जाणी कायोत्सर्गने पार्यो. आ समये श्री वीर परमात्मा त्यां प्रवीने समोसर्या. ते वार्ता सांजळी कामदेवे पोताना मनमा चितव्यं के, " हुं श्री वीरमनुने वंदना कररी पछी पोषध पारुं तो वधारे सारूं. " आवुं चिंतवी ते घणा लोकोथी परिवृत थइ श्री वीरमनी पासे आव्यो. त्यां प्रजुने वंदना करी योग्य स्थाने वेळो. ते पछी श्री वीर ते कामदेवने उद्देशीने तेने रात्रे वीतेला उपसर्गोनो सर्व वृत्तांत कही संजळाव्या. पर्छ । विशेषमां जणाच्यं के, " हे कामदेव, या हकीकत सत्य बे ? " त्यारे कामदेवे कां " हे स्वामी, एमज बे. " ते समये जगवाने घणा निग्रंथोने अने साध्वी ने बोलावी या प्रमाणे कर्छु – “ हे आर्यो, या कामदेव तो गृहस्थ श्रावक बे ते गृहावासमां रहीने ज्यारे आ प्रमाणे देव तथा मनुष्यना करेला उपसर्गाने सम्यक् प्रकारे सहन करे बे, तो द्वादशांगीने जणेला एवा तमारे तेवा उपसर्गों सहन करवाने विशेष समर्थ थं जोइए. " मनुना आ वचनाने ते साधुओ ने साध्वीओए अति विनयथ अंगीकार कर्या. आर्थी कामदेव विशेष आनंद पामतो मनुने वंदना कररी पोताने स्थाने आव्यो. ते पछी तेणे आनंद श्रावकनी पेठे श्रावकनी अगीआर परिमाने अनुक्रमे सम्यक् विधिथी आराधी ने वीश वर्ष पर्यंत श्रावक पर्याय पाली एक मासनी संलेखना वमे काल कर ते कामदेव श्रावक सौधर्मदेवलोके अरुणान नामना विमानमां देव पणे उत्पन्न थयो. त्यांथी च्यवी ते महाविदेह क्षेत्रने विषे सिद्धिपदने पामशे. ए रीते कामदेव श्रावकनो वृत्तांत बे. ३४ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्री आत्मप्रबोध. त्रीजा श्रावक चुटतनीपितानो वृत्तांत. वाराणसी नगरीमा चुबनी पिता नामे एक गाथापति-गृहस्थ रहेतो हतो. तेने सोमा नामे स्त्री हती. ते चोवीश कोटी अव्यनो स्वामी हतो ते अध्य आठ कोटी निधानमा, आठ कोटी व्याजमां अने आठ कोटी व्यापारमां-एम त्रण जागे वहेंचाएटुं हतुं. प्रत्येक दश दश हजार गायोवाला आठ गोकुल तेनी सत्तामा हता, तेणे एक वरखते आनंद अने कामदेवनी जेम श्री वीर प्रन्नु पासे बार व्रत ग्रहण कर्या. अवसर आवतां पोताना ज्येष्ठ पुत्रने कुटुंब उपर स्थापी पोते पोषधशालामा जश्ने पोषध लड्ने रह्यो. त्यां अर्ध रात्रे कोई देवे हाथमां तीक्ष्ण खा लइ ते चुबनीपिता श्रावकने आ प्रमाणे कह्यु,-" अरे चुबनीपिता, तुं आ धर्मनो त्याग कर. जो नहीं करे तो तारा ज्येष्ठ पुत्र वगेरेने आ खाथी हणीश." तेणे आ प्रमाणे कडं, ते उतां पण ते चुबनीपिता जरा पण क्षोभ पाम्यो नहीं, त्यारे अति क्रोधायमान थयेलो ते देव तेना ज्येष्ठ, मध्यम अने कनिष्ठ-त्रणे पुत्रोने त्यां लाव्यो. ते त्रणेने तेनी समक्ष खाथी हणी नांख्या. अने पठी तेमने एक तपेली कडाहनी अंदर नांखी तेना मांस अने रुधिरथी ते चुबनी पिताना शरीर उपर सिंचन कर्यु. तथापि ते क्षोन पाम्यो नहीं. पठी ते देवताए तेने चारवार आ प्रमाणे कडं, " अरे चुबनी पिता, जो तुं मारुं वचन नाह माने तो हमणांज तारी माता जघा सार्थवाहीने अहिं लावी तारी सन्मुख हणी तपेली कमाहमां नांखीश अने तेणीना मांस तथा रुधिरयी तारा शरीरनुं सिंचन करीश, जेणीना मुखथी पीमित एवो तुं अकाले मृत्युने पामीश. आ प्रमाणे कहेतां बतां पण ज्यारे ते चुबनी पिता क्षोन पाम्यो नहीं, एटले तेणे फरीवार कह्यु. ते पड़ी ते श्रावकना मनमां आ प्रमाणे विचार उत्पन्न थयो."अहो ! आ कोई अनार्य पुरुष लागे , ते अनार्य बुधिथी न आचरवा योग्य एवा पाप कर्मने आचरे ; जेथी तेणे मारा त्रण पुत्रोने मारी नांख्या अने हवे माताने मारवा ते तत्पर थयो डे, तो हवे हुँ आ उष्ट पुरुषने ग्रहण करूं तो ठीक " आवं विचारी ते श्रावक शीघ्रताथी जेवामां तेने ग्रहण करवा हाथ प्रसारेडे, तेवामां ते देव उमीने आकाशमांचाल्यो गयो. अने चुबनी पिताना हाथमां एक स्तंज आव्यो. पछी ते श्रावके मोटा शब्दोथी कोलाहल कर्यो, तेवामां तेनी माता Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश जज्ञासार्थवाही पोताना पुत्रनो शब्द सांभळीने तेनी पासे आवी अने तेणीए कोलाहल करवानुं कारण पूछयु. चुबनी पिताए पोते जे अनुजवेलो हतो ते सर्व वृत्तांत माताने कही संजळाव्यो. माता ते वृत्तांत सांजळी आ प्रमाणे बोली" वत्स, कोइ एवो पुरुष नथी, अने तेणे तारा पुत्रोने हण्या नथी, आ कोई पुरुष तने जपसों करे , माटे तुं हमणां लग्न व्रत थयो बु-तारा पोषध व्रतनो जंग थइ गयो , माटे तुं ए स्थानकनी आलोचना वगेरे कर." माताना आ वचनो सांनळी ते चुबनी पिताए तेणीना वचननो अंगीकार करी ते स्थानकनी आलोचनादि ग्रहण की. ते पनी ते आनंद श्रावकनी जेम अनुक्रमे श्रावकनी अगीआर पमिमाने आराधी बेवटे समाधिवडे काल करी पहेता देवलोके अरुणान विमानमा चार पट्योपमना आयुषे उत्पन्न थयो. त्यांथी च्यवीने ते महाविदेह देत्रने विष सिछिपदने प्राप्त थशे एवी रीते चुबनी पितानी कथा . श्रावक सुरादेवनो वृत्तांत. वाराणसी नगरीमां सुरादेव नामे एक गृहस्थ श्रावक रहेतो हतो. तेने धन्या नामे एक स्त्री हती. तेने कामदेवना जेवी व्यनी संपत्ति अने गोकुलो हता. तेणे पण कामदेव श्रावकनी जेम व्रत ग्रहण कर्यु हतुं, अने तेमां उपसगों पण थया हता. ते सुरादेवने त्रण पुत्रो हता. पूर्वनी जेम को मिथ्यात्वी देवे तेना त्राण पुत्रो हणवानो उपसर्ग करेलो तो पण ते सुरादेव मनमां जरा पण दोन पाम्यो न हतो. तेने व्रतमा दृढतावालो जोइ ते देवताए कह्यु, " अरे सुरादेव, जो तुं आ जैनधर्मनो त्याग नहीं करे तो तने सोळ जातना महा रोग उत्पन्न करी अकालेज तारा प्राणनो नाश करीश. ते उपरथी तेणे कोलाहल करतां तेनी बन्या स्त्री आवी अने तेणीए तेना नामनुं समाधान कर्यु. ते पठी पूर्ववत् वृत्तांत बन्यो हतो. मरण पामी ते श्रावक सौधर्म देवलोके अरुणान विमानमां देव रुपे उत्पन्न थयो हतो. त्यांथी च्यवीने ते महाविदेह क्षेत्रने विषे सिद्विपदने पामशे. एवी रीते सुरादेवनो वृत्तांत जे. पांचमा चुटलशतक श्रावकनुं दृष्टांत. आननिका नगरीमां चुबशतक नामे एक गृहस्थ रहेतो हतो. तेने बहुला नामे स्त्री हती. तेने अव्यनी संपत्ति अने गोकुलो कामदेव श्रावक प्रमाणे Jain Education Intemational Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० श्री आत्मप्रबोध. हता. व्रत वगेरे ग्रहण करवानो प्रसंग तेने त्रीजा श्रावकनी जेम बन्यो हतो. विशेषम एट के परीक्षा करवा आवेला देवताए तेना पुत्रने उपसर्ग करतां ते दोन पाम्यो नहीं, त्यारे कां के, “ जो तुं तारा धर्मनो त्याग नहीं करे तो ार कोटी सोनैया तारा घरमाथी काढी या नगरीना त्रिकमार्गे चौटामां एकदम विखरी नांखीश, जेथी आर्त्त तथा रौध ध्यानमा पेठेलो तुं प्रकाले मृत्यु पामीश" इत्यादि प्रसंग बनतां कोलाहल कर्यो एटले तेनी स्त्री बहुला आवी तेणे पूर्ववत् कर्यु. ते पछी ते श्रावक मृत्यु पामी सौधर्मदेवलोके अरुणानविमानमां देवपणे उप्तन्न थयो. त्यांथी च्यवी ते महाविदेहक्षेत्रने विषे सिद्धिपदने पामशे. एवी रीते चुल्लशतक श्रावकनुं दृष्टांत छे. छट्ठा कुंडको लिक श्रावकनो वृत्तांत. कांपिढ्य नगरने विषे कुंडकोलिक नामे एक गृहस्थ रहे तो हतो. तेने पुष्पमित्रा नामे स्त्री हती. तेनी समृद्धि अने गोकुलो कामदेव प्रमाणे हता. अने व्रत ग्रहण वगेरेनो विधि पण एज प्रमाणे ढतो. एक दिवसे ते कुंमकोलिक श्रावक मध्यरात्रे पोतानी अशोक वाडीमां पृथ्वीपर रहेली शिलाना पट उपर आन्यो. त्यां वी पोतानी नामांकित मुद्रा ने उत्तरासंग वस्त्रने राखी ते धर्मध्यान करतो रोहतो. ते वखते एक देव प्रगट थइ तेनी मुद्रा ने वस्त्रादि त्यांथी उपामी आकाशे रही या प्रमाणे बोढ्यो – “ अरे श्रावक कुंमकोलिक, गोशाले पुत्रे कला धर्मनी प्रज्ञप्ति सुंदर बे, कारण के जेमां उद्यमादिक कां पण नथी. जीवोनो पुरुषाकार बतां पुरुषार्थनी सिद्धिनुं पाळवाणं नथी, ते कारण माटे सर्व जाव नियत बे; अने श्री वीरमनुनी प्रज्ञप्ति सारी नथी, कारके तेनी अंदर जयमादिक वर्ते बे. तेथी करी तेमां सर्व जाव नियत बे. ते देवना या वचनो सांजली ते कुंमकोलिक या प्रमाणे बोल्यो. "हे देव, जो, एम होय तो, तुं देवनी ऋषि उद्यमादिकथी पाम्यों के उद्यमादिक विना ? " देव बोल्यो “हुआ देवऋकिने उद्यमादिक विना पाम्यो बुं.” कुंमको लिके कयुं, "जो तुं उद्यमादिक विना देवऋषि पाम्यो बो तो जे जीवाने उद्यमादिक नथी सर्वे जीव देवप केम पाम्या नहीं ? अने जो उद्यमादिकवमे आ ऋद्धि प्रा Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. ६ए तथइ, एम कहे तो गोशालाना धर्मनी प्रज्ञप्ति सुंदर डे, इत्यादि तें जे कयु, ते मिथ्या . " ज्यारे ते श्रावके आ प्रमाणे कडं, एटले ते देव शंका पामी ते श्रावकने प्रत्युत्तर आपवाने समर्थ था शक्यो नहीं पड़ी तेनी मुजा अने उत्तरासंगवस्त्र पृथ्वीनी शिलाना पट उपर मुकी ते देव पोताने स्थाने चाव्यो गयो. तेवा अवसरमां श्री वीरपत्नु ते स्थले समोसर्या. ते खबर जाणी कुंमकोलिक प्रातःकाले मनुन समीपे गयो. ते पडी बधो वृत्तांत कामदेव श्रावकनी प्रमाणे जाणी लेवो. विशेषमा एटर्मो के अर्थ हेतुना प्रश्नादिकथी अन्य तीर्थीओने निरुत्तर करवाथी श्री वीरपत्नुए ते कुंडकोलिक श्रावकनी प्रशंसा करी, त्यारे कुंम्कोलिके चौद वर्ष पछी पूर्वना श्रावकोनी पेठे ज्येष्ठ पुत्रने कुटुंबमां स्थापी पोते पोषधशाळामा रही श्रावकनी अगीआर पमिमा आराधी हती. ते पठी एक मासनो संलेखनाथ। समाधि पूर्वक काल करी ते पेहेले देवलोके अरुणानविमानमां देवपणे उत्पन्न थयो. त्यांची चवीने ते महाविदेह क्षेत्रने विषे सिधि पदने पामशे. ए रीते कुंमकोलिकनो वृत्तांत . सातमा सद्दानपुत्र श्रावकनो वृत्तांत. पोलासपुर नगरने विषे सदालपुत्र नामे एक कुंचकार श्रावक रहेतो हतो. ते गोशालानो सेवक हतो. तेने अग्निमित्रा नामे स्त्री हती. तेनी पासे त्रण कोटी सोनैयानुं अन्य हतुं. तेमां एक कोटी अव्य निधानमां, एक कोटी व्याजमां अने एक कोटी व्यापारमा रहेतुं हतुं. तेने दशहजार गायोवाळु एक गोकुल हतुं तेना ताबामां कुंजारनी पांचसो उकानो हती. एक वखते सद्दालपुत्र मध्य रात्रे अशोक वाडीमां आवी गोशालाए कहेला धर्मध्याननुं ध्यान करतो हतो ते वखते एक देवे प्रगट थइने तेने आ प्रमाणे कयुं, “ हे देवानुप्रिय, अहिं महामाहण, जेने ज्ञान दर्शन उत्पन्न थयु डे तेवा, ज्ञानदर्शनना धरनारा अने त्रिकालने जाणनारा अरिहंत प्रनु आवशे, तेमने तारे वंदना करवी अने तेमनी प्रतिपत्ति करवी." आ प्रमाणे देवता बे त्रणवार कही पोताने स्थाने चाट्यो गयो. ते देवतार्नु आ वचन सांजळी ते सहालपुत्रे पोताना मनमां चिंतव्युं के आ देवताए जे गुणो कह्या, तेवा गुणवालोतो अमारो धर्माचार्य गोशालो . ते निचे प्रातःकाले अहिं आवशे, ते वखते हुं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. तेमने वंदना करीश." आ प्रमाणे ते शेउ विचार करवा लाग्यो. प्रातःकाल थतां श्री वीरनगवान् त्यां समोसर्या. ते खबर जाणी सहान पोताना परिवार साथे मनुनी पासे आव्यो. त्यां प्रतुने वंदना कर योग्य स्थाने वेगे. प्रनुए धर्मदेशना आपी. पी जगवते ते सहासने बोलावी रात्रे बनेलो सर्व वृत्तांत कही संजत्राव्यो. ते पड़ी आ प्रमाणे पुग्यं, हे सदालपुत्र, आ वृत्तांत सत्य डे के केम ? " तेणे कर्जा, “ हा एमज ." पड़ी लगवाने कयु, “हे सदालपुत्र, ते देवताए गोशालाने आश्रीने कयुं न हतुं." प्रभुनु आ वचन सांजळी ते सदालपुत्रे चिंतव्युं के, " पूर्वे कहेला गुणोथी संपन्न एवा तो आ श्री महावीर स्वामी जे; माटे हुं आ प्रनुने वंदना करी पोठफलकादि वडे निमंत्रण करूं." श्रा प्रमाणे चिंतवी तणे वंदना करी प्रभुने कां, "हे जगवन्, आ नगरनी बाहेर कुंनकारनी पांचसो उकानो छ, तेने विषे तमे पीठफलक शय्या संस्तारकादि ग्रहण करीने विचरो. " आ प्रमाणे गोशालाना एटले आजीविक मतना श्रावकना वचन सांजळीने ते स्थले पीठफलकादिक ग्रहण करीने प्रभु रह्या हता. एक वखते ते सदालपुत्रे शाखामांथी जांमो ( पात्रो )ने बाहेर त जइ तापमां मुक्या त्यारे प्रजुए पूजयुं, हे सदालपुत्र, आ नामो (ठाम ) केम उत्पन्न थाय ले ? " त्यारे तेणे मृत्तिकाथी आरंभी नामोनी निष्पत्तिनुं स्वरुप प्रजुनी पासे कही संजळाव्युं. त्यारे प्रनुए कड्यु, "ते नामो नद्यमादिकवमे कराय ने के, अनुद्यमादिकवझे ? " त्यारे सदाबपुत्र बोल्यो. “हे स्वामी, ते अनुद्यमादिकवमे कराय ने, नद्यमादिकवझे नहीं. तेथी नद्यमादिक नथी. माटे सर्व नाव नियतज डे." स्वामीए कडं, "जो कोइ पुरुष आ तारा नामोने अपहरे अथवा विनाश करे अथवा तारी स्त्रीनो साथे जोग जोगवतो विचरे तो ते पुरुषने तुं शुं दंग आपे ? " सद्दानपुत्रे का, “ स्वामी, हु तेने हणवादिक करुं " आ प्र. माणे सद्दालपुत्रने पोताना वचने पुरुषाकार अंगीकार करावी प्रन्नु बोच्या -"जे निश्के करी तारा भांमोने हरे नहीं अथवा तेनो नाश करे नहीं तो तेर्नु हननादिक तुं न करे. वळी जो नद्यमादिक नथी अने सर्व जाव नियत छ, तेम अपराधी पुरुषने तुं हननादिक करे जे, तो तें जे कयुं के उद्यमादिक नथी, ए वात मिथ्या थाय . " प्रतुना आ वचनो सांनळी सदालपुत्र प्रतिवोध पाम्यो. Jain Education Interational Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. तत्काल तेणे प्रनुने वंदना करी अने तेमना मुखथी धर्म सांनळी आनंद पामी प्रत्तु पासे वार व्रतो अंगीकार कर्या. तेनी पासे पूर्वना श्रावक जेटधं अव्य हतुं. ते पछी पोताने घेर आव्यो अने तेणे पोतानी स्त्रीनी आगन ते सर्व वृत्तांत जणाव्यो, अने तेणीने पण व्रत ग्रहण कराव्या. त्यारथी ते श्रावक थयो हतो. एक बखते आ वृत्तांत सांजळी गोशालो ते सदालपुत्रने जैनधर्ममाथी चलित करवा अने पोताना धर्ममा लाववा आजीविक संघथी परिवृत थप ते नगरमां आव्यो. ते नगरनी अंदर आजीविकनी सनामां पोताना नांडादिक मुकी केटलाएक नियतवादी मतवालाओने साथे बइ ते सदालनी समीपे आव्यो. सदालपुत्रे गोशालाने आवतो जोयो पण तेनो आदरसत्कार को नहीं. ते मौनधरीनेज वेशी रह्यो. सदाबपुत्रे पोतानो आदर कर्यों नहीं, ते छतां पीठफलकादिकने माटे ते श्रावकनी आगल श्री वीरपत्तुना गुणोनु कीर्तन तेणे करवा मांमयु. तेणे कयु, हे देवानुप्रिय, अहिं महामाहण, महागोप, महा सार्थवाह, महाधर्मकथक, अने महानियामक आव्या हता ? " सद्दालपुत्रे का, “ हे देवानुप्रिय, एवा कोण जे ? " त्यारे गोशाले कड्यु, तेवा श्री श्रमण जगवंत महावीरस्वामी. श्रावक सदालपुत्रे कहां, “ ते एवी जपमाना धारक केम ने ? " त्यारे गोशाले कहां, " हे सदालपुत्र, श्री वीरस्वामी अनंत ज्ञानादिकना धारक होवाथी अने चोसठ इंजोने पूजवा योग्य होवाथी महामाहण कहेवाय . आ संसार रुप अटवीमां त्रास पामता एवा बहु जीवोने धर्ममय दंमे करी रक्षण करनार अने निर्वाण पदरुप मोटा वामाने पमाडनार होवाथी ते महागोप कहेवाय छे. आ संसाररुप अटवीमां जन्मार्गे पमतां जीवोने मुक्तिना नगरमां बइ जनारा होवाथी ते महासार्थवाह कहेवाय छे. सन्मार्गथी भ्रष्ट थयेला जीवोने अनेक प्रकारना अर्थ-हेतुवडे सन्मार्गे लावी संसारथी निस्तार करनार होवाथी ते धर्मकथक कहेवाय . आ संसार समुघमां डुबता एवा पाणीओने धर्ममयी नाविकावडे निर्वाणरुप नगरना कांगनी सन्मुख करवाथी ते महानियामक कहेवाय छे. " गोशालाना आवा वचन सांजळी सदालके कयु, " हे देवानुप्रिय, निपुण, नयवादी अने विज्ञानवान् एवा मारा धर्माचार्य श्री वीरमजुनी साथे तमे विवाद करवा समर्थ छो ? " गोशाले का, Jain Education Interational Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रवधि. "हुं समर्थ नथी. " सद्दानपुत्रे कडं, “तमे केम समर्थ नथी ? " गोशालो बोख्यो-"महावीरस्वामी मारी प्रत्ये अर्थ-हेतु पके करी ज्या ज्यां ग्रहण करेछे, त्यां त्यां मने निरुत्तर करे , तेयो हुँ तेमनी साथे विवाद करवाने समर्थ नथी." सदालपुत्र कह्यु, “ देवानुप्रिय, तुं मारा धर्माचार्य, आ प्रमाणे गुणोत्कीर्तन करे छे, माटे हुं पीठफलकादिवडे तने निमंत्रण करुं छु, परंतु धर्मने माटे निमंत्रण करतो नथी. तमे मारी कुंभकारनी दुकाने जात्रो अने पीगदिक ग्रहण करीने विचरो." ते श्रावकना आवा वचनथी गोशालो पीठादिक ग्रहण करीने त्यां रह्यो हतो. परंतु ज्यारे ते सदानपुत्रने कोइ प्रकारे पण जिनप्रवचनथकी चनाववाने शक्तिमान् न थयो त्यारे पोते खेद पाम्यो थको पोलासपुरनगरथी पागे नीकळीने बीजे ठेकाणे चाख्यो गयो. सदालपुत्र सम्यक् प्रकारे धर्मने पालतो थको चौद वर्ष अतिक्रमे थके आनंदादिकनी पेठे पोषधशालामां आवीने रह्यो. त्यां चुबनी पितानी जेम ते श्रावकने उपसर्ग थया. पण एटलुं विशेष के चोथी वार अग्निमित्रा नार्याने हणवाना वचन देवे कह्या त्यारे ते देवने ग्रहण करवातुं श्रारंने बते देव आकाशमां नमी गयो अने कोलाहल कर्या पली अग्निमित्रा नार्या आवी ते वृत्तांत पूर्ववत् बन्यो. पठी सदानपुत्र एक मासनी संलेखना करी कान धर्मने पामी पहेबा देवलोके अरुणान विमानमा उत्पन्न थयो. ते पढ़ी ते महाविदेह देत्रमा सिफिपदने पामशे. एवी रीते सदानपुत्रनो वृत्तांत छ. ग्मा श्रावक महाशतकनुं वृत्तांत. राजगृही नगरीमा महाशतक नामे गाथापति रहेतो हतो. तेने रेवती प्रमुख तेर स्त्रीओ हती. तेनी पासे चोवीश कोटी सोनैया अव्य हतुं. निधान, व्याज अने व्यापारमां--आठ आठ कोटी अव्य रहेतं हतुं, अने आठ गोकुल हता. तेनी मुख्य स्त्री रेवतीना पिता तरफथी आठ करोम सोनैया अने आठ गोकुलो मढ्या हता. बीजी वार स्त्रीोना पिताना घर तरफथी बार बार कोटी सोनैया अने बार बार गोकुलो आव्या हता. एक दिवसे तेणे पण आनंद श्रावकनी पेठे श्री वीरपत्नु पासे बार व्रतो ग्रहण कर्या. विशेषमा एटर्बु के, तेणे पोतानी निश्राना चोवीश कोटी सोया Jain Education Intemational Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. १७३ गोकुलो राखी बाकीना रेवती प्रमुख तेर स्त्रीओना व्यनो त्याग कय. तेमज रेवती प्रमुख स्त्रीओ शिवाय वीजी स्त्री साथे विषयोग करवानो त्याग कर्यो हतो. तेथी ते महाशतक श्रावक सुखे करी श्रावक धर्मने पालतो विचरतो हतो. एक वखते रेवतीनाः मनमां एवो विकल्प उत्पन्न थयो के, मारी बार शोक्याना व्याघातथी हुं मारा पति साथै एकली जोग जोगववाने शक्तिमान् थती नथी; माटे कोई उपाय । ते शोक्योने मारी नांखु तो हूँ जतरनी साथे एकली भोग. जोग ने तेम वली ते स्त्रीमना इव्यनी पण हुँ एकलीज स्वामिनी थाउं. " या विचार करी ते पापिणी रेवतीए को बल करी पोतानी व शोक्योने art ने शोक्याने विष प्रयोगथी मारी नांखी अने तेमना अव्यनी पोते स्वामिनी इ. या प्रमाणे शोक्य वगरनी रेवती पोताना पति साथ एकली जोग जोगaar लागी. ते जोगनी आसक्तिथी मांस ने मदिरानी पण लोलुप बनी गइ एक दिवसे ते नगरीमा अमारी वोषणा यश, आयी रेवतीने मांस मलवं दुर्लभ युं. पछी तेलीए पोताना पिताना घरना खानगी पुरुषोंने बोलावीने क के, " तमारे दररोज गायना वे वे वाबरमा मारीने हे लावा. रेवतीना आ वचन प्रमाणे ते पुरुषो तेम करवा लाग्या. रेवती ते बाबरमानुं मांस खाइ मदिरापान करती विचरया लागी आवक महाशतके ते पछी चौद वर्ष - तिक्रमण करी पूर्वनी पेरे पुत्रने कुटुंब उपर स्थापी पोषम व धर्मध्यान करवा मांग. या वखते तेनी स्त्री रेवती मदिरानुं पान करी मदोन्मत्त बनी चीखराला केशवाळी अने मस्तक उपरथी उत्तरासंग वस्त्र उतारती ते पोपधशालामां आ वी. त्यां प्रावी पोताना नर्त्तारिने उन्माद उत्पन्न करावया हाव जाव देखामती शृंगाना वाक्यो बोलवालागी - " हे महाशतक श्रावक, तमे धर्मयी स्वर्ग तथा मोक्षादिकना कथा बो. आ तमारी धर्मकरणीथी शुं थवानुंबे ? तमेशा माटे मारी साथे जोग जोगवता नथी?" तेलीए या प्रमाणे कयुं, तोपण ते महाशतक श्रावक मौरीने रह्यो. तेलीना ए वचननो तेथे अनादर कयों. ते तो धर्मध्यानमां तत्पर थइ रह्यो हतो. रेवतीए ए प्रमाणे वे वार करूं, पण तेणीनो अनादर करवामां आव्यो, पछी ते पोताने स्थानके वाली ग, ते पछी श्रावक महाशतक श्रावकनी गारमा आराधी ने बहु प्रकारना तप करी शरीरने सुकवी ते आ ૩૫ " Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ श्री आत्मप्रबोध नंद श्रावकनी जेम मात्र नामी तथा अस्थिवाला शरीरने धारण करनारो थयो हतो. ____ एक दिवसे शुन अध्यवसाये करी तेमने अवधिज्ञान उत्पन्न थइ अाव्यु. तेनाथी ते पूर्व, दक्षिण अने पश्चिम दिशाना लवण समुजमा एक एक हजार योजन प्रमाण क्षेत्रने जाणनार अने जोनार थयो. वाकीनो दिशाओने पण आनंद श्रावकनी जेम देखवा लाग्यो. एक वखते रेवती पूर्वनी जेम महाशतकने उपसर्ग करवा श्रावी, त्यारे ते गाथापति क्रोधायमान थप गयो अने अवधिज्ञान प्रयोजी ताणे रेवतीने श्रा प्रमाणे कडं, " अरे रेवती, तुं नहीं प्रार्थना करवा योग्यने प्रार्थना करना। ३. तुं सात दिवसमां अनसक........व्याधियी परानव पामी असमाधिवझे काल करी पहेवी नरके लोबुच्चय नामना नरकावासमां चोराशी हजार वर्षनी स्थितिए नारकीपणे उत्पन्न या. रेवती तेना या वचनो सांजळी जय पामो मनमा आ प्रमाणे चिंतववा लागी-" आजे आ महाशतक मारी उपर रुष्टमान थयो बे, तेय ते कोइ कदर्थनाथी मने मारशे." या चितवी ते हलवे हवे त्यांय पाठी ओसरीने पोताने घेर अावी अने युःखे रहेवा लागी. ते पी लेगी सात दिवसनी अंदर काळ करी पहरो नरके लानुचय नामना नरकावासमां नत्पा थइ. आ अरसानां भी वोर परमात्मा समोतो. सोरको थोत्रो पदाने प्रनुए धर्मदेशाना साधा. ते सांगळी पदा पोतपोताने स्त्राने गया पो श्री वीरप्रनुए गौतम स्वामीने बोलायो बाब महातको कोष उत्पन्न या वगेरे बधो वृत्तांत जबाबो श्राप्रमाणे को,..." गीतम, पोषशास्त्रामा छ। संवेखना करी जेणे पोताना शरीरने उर्वञ कथु के अने जले नात पाणी ना पञ्चखाण का चे, एवो महाशतक श्रावक वीजा प्रत्ये साचा होय तोपण अप्रीति कार। वचनो बोले, ते घटित नयी; माटे तमारे महाशतकनी पासे जवू अने तेने कहेयु के, “ हे महाशतक, तमे रेवती प्रति सत्य वचन कह्या, पण ते अनिष्ट वचन होवाथी अघटित हता, माटे तेनी आलोयणा करो." अनुना आ वचनय। गौतम राजगृहनगरीमां महाशतकने घेर गया. ते गौतम मुनिने प्रावता जोइ श्रावक महाशतक खुशी थयो अने तेणे तेमने जावपूर्वक वंदना करी. पड़ी गौतमे श्री Jain Education Intemational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. वीरनगवान्ना वचनो तेमना नामथी कह्या, एटने ते महाशतके गौतम स्वामीना वचनने अंगीकार करी ते स्थानकन) आलोयणा बीधी. पर) गौतम स्वामी त्यांधी नीकळी श्री वीरमनुनी पासे आव्या. ते पठी महाशतक श्रावक सम्यक् प्रकारे श्रावकधर्मने पाळी, प्रांते अनशन करी अरुणावतंसक विमानने विषे देवपणे उत्पन्न भयो. त्यांथी च्यवीने ते महाविदेह क्षेत्रने विषे सिछिपदने पामो एवी रीते महाशतक आवकनो वृत्तांत जे. नवमा नंजिनोपिला श्राइकनो वृत्तांत. श्रावस्तीनगरीमा नदिनी पिता नामे एक गाथापति श्रावक रहेतो हतो. तेने अश्विनी नामे स्त्री हती. तेनी पासे ऽव्य अने गोकुळ आनंद श्रावकना जेटला हता, अने बार व्रत पण तोणे आनंदश्रावकनी पेठे ग्रहण कर्या हता. ते चौद वर्ष अतिक्रमण करी अनुक्रमे पुत्रने कुटुंब उपर स्थापी पोषधशालामां आवी अनेक प्रकारना धर्मकृत्योशी आत्माने जावी श्रावकनो अगीआर प्रतिमा आराधी प्रांते अरुणान विमानमा देवपणे उत्पन्न भयो हतो. अनुक्रमे ते महाविदेह केत्रे सिछिपदने प्राप्त यशे. एवी रीते नंदिनी पितानो वृत्तांत . दशमा तेतलीपिता श्रावकनो वृत्तांत. श्रावस्तीनगरीमा तेतलीपिता नामे एक गाथापति रहेतो हतो, तेने फागुनी नामे स्त्री हती. तेनी समृद्धि अने बार व्रत लेवानो प्रकार पूर्वनी पेठे समजवो. ते पोताना ज्येष्ठ पुत्रने कुटुंब सुपर स्थापी, तेनी आझायी पोषधशालामां आव्यो अने श्रावकली अगीआर पमिमा आराधी प्रांते सौधर्म देवलोके अरुणान विमानमा चार पक्ष्योपमनी आयुष्ये देवपणे उत्पन्न थयो. त्यांथी च्यवीने ते महाविदेह क्षेत्रने विषे सिछिपदने प्राप्त थशे. ए प्रकारे दशमा तेतलीपिता श्रावकनो वृत्तांत बे. आ दशे श्रावकोने पनरमा बर्षमा गृहत्याग करवानो अध्यवसाय थयो हतो, अने ते लए वोश वर्ष मुधो श्रावक पर्याय पाब्या हता. तेमज तेश्रो सर्वे सौधर्म देवलोकमां समान आयुष्ये नुत्पन्न थया हता. ते दश श्रावकोमा पहेला, ठग, Jain Education Interational Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ श्री आत्मबोध. नवमा दशमा श्रावकने उपसर्गो थया नथी. बाकीना व श्रावकोने उपसर्गो rar a. पहेला श्रावकने श्री गौतमस्वामी साथे प्रश्नोत्तर थया ने बठा श्राant देवनी साये धर्मचर्चा थड़ हती. या दश श्रावकोना बार व्रत उपरना दृष्टांतो श्री उपासकदशांग सूत्र अनुसारे लखेला े. या वृत्तांतो सांजळी वीजा पण सम्यग्दृष्टि जीवोए एवी रीते वार व्रतो पालवा तत्पर यवं. श्रावकनी गीयर प्रतिमानुं स्वरूप. 66 दंसण वय सामान्य, पोसह परिमा" अन सचित्ते । आरंभ पेस उद्दिट्ट, वज्जए" सम ७ भूए य ॥ १ ॥ 55 ६ “ १ दर्शन – सम्यक्त्व प्रतिमा, २ व्रत - अणुत्रतादि, २ सामायि क, ४ पोषध, ए कायोत्सर्ग प्रतिमा - पांच प्रतिमाने विषे विधान रुपे करीने अभिग्रह विशेष रूप प्रतिमा जाणवी, तिमा त्याग रुपे जाणवी, आरंभ - पोतानी प्रेप्य, एटले वीजाने पापकर्मनो व्यापार कराववो, १० उद्दिष्ट - एटले ते ते श्राand उद्देशाने सचेतन अथवा अचेतन अथवा पक्व आहारादिक ते नो वर्जक तथा आमी यदि प्रतिमानो धारक, ११ श्रमणचूत एटले साधुतुल्य- ए गीवार प्रतिमा कहेवाय बे. आ गाथार्थ ययो. दवे जावार्थ -ग्रा प्रमाणे बे. १ एक मास पर्यंत शंकादि दोष तथा राजानियोग आदि उ आगार वर्जितपणे करी केवल शुद्ध सम्यक्त्वने धारण करवाथी पेहेली प्रतिमा थाय ते. ब्रह्म, ७ सचित्त- - ए प्रजाते पापक्रिया करवी ते, द वे मास पर्यंत प्रतिचार रहित ने अपवाद वर्जित व्रतोने ने सFarad धारण करवाथी बीजी प्रतिमा थाय बे. ३ ऋण मास पर्यंत सम्यक्त्वाने व्रत सहित प्रतिदिन उनय संध्या सामायिक करवाथी त्रीजी प्रतिमा थाय बे. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. ४ चार मास सुधी प्रत्येक मासे उ पर्वने विषे चार प्रकारे पोषध करवाथी चोथी प्रतिमा थाय . ५ पांच मास पर्यंत स्नान रहित दिवसे प्रकाशवाला भागमा जोजन करतां अने रात्रे सर्वथा जोजननो त्याग करतां पेहेरवाना वस्त्रनो कच्छ नहीं बांधतां दिवसे ब्रह्मचारी अने रात्रे अपर्वतिथिमां स्त्रीओनुं अने तेना जोगर्नु परिमाण करतां अने पर्वतिथिए रात्रे चौटा दिकने विषे कायोत्सर्ग करतां पांचमी प्रतिमा थाय छे. अहिं रात्रिनोजन वर्जवामाटे सूचव्युं .श्रावकोए तो केशवादिकनी पेठे कोऽ काले पण रात्री जोजन न कर जोइए; परंतु जे कोइ श्रावक ते नियम करवाने शक्तिमान् न होय तेने पण पांचमी प्रतिमाथी आरंजीने अवश्य रात्रि जोजननो त्याग करवो. ते केशवनुं वृत्तांत आगळ कहेवामां आवशे. ६ मास यावत् दिवस अने रात्रिने विषे सर्वथा ब्रह्मचर्य धारण कर_ ए बढी प्रतिमा थाय . ७ सात मास पर्यंत अचित्त अशनादिक भोगवनारने सातमी प्रतिमाथाय छे. आठ मास पर्यंत आरंजनो त्याग करवाथी आगमी प्रतिमा थाय . एनव मास पर्यंत बीजा पासे पण आरंन नहीं करावनारने नवमी प्रतिमा थाय छे. १० दश मास पर्यंत झुरमुंम अने शिखाने धारण करतां अथवा नद्दिष्ट आहारनो त्याग करतां दशमी प्रतिमा थाय . ११ अगीआर मास पर्यंत कुरमुंम अथवा लोचे करीने बुप्तकेश एटले केश रहितपणे रजोहरण तथा पात्रादि साधुना उपकरणो ग्रहण करी साधुनी जेम एपणीय अशनादिकने ग्रहण करतां अद्यापि स्वजनने विषे अव्यवछिन्न स्नेह वास्रो तथा गोचरीने अवसरे " जेणे प्रतिमा अंगीकार करेती छे, एवा श्रावकने निका आपो" ए प्रकारे बोलनारने अगीआरमी प्रतिमा होय छे. __ आ कालनुं मान उत्कृष्टथी कडं जे. जघन्य पणे तो ते प्रत्येक अगीआर Jain Education Intemational Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० श्री आत्मप्रबोध. प्रतिमा अंतर्मुहूर्त्त प्रमाण वाली बे. ते मरण समये अथवा दीक्षा लेवामां संवे बे, ते शिवाय संजवती नथी. प्रथमनी सात प्रतिमा कोइ प्रकारांतरे कहेली बे, ते विषेनो विचार श्री प्रवचन सारोवार ग्रंथमांथी जाएगी लेवो. पूर्वे सूचवेनुं केशवनुं दृष्टांत. कुंमिनपुर नगरने विषे यशोधन नामे एक वणिक रहेतो हतो. तेने रंभा नामे स्त्री हवी. तेणीना उदरमांची हंस बाने केशव नामे वे पुत्रो उत्पन्न थया. ते बने पुत्रोअनुक्रमे यौवन वयने प्राप्त थया. एक वखते तेओ क्रीमा करवा माटे वनमां गया. त्यां धर्मघोष नामे एक मुनि तेमना जोवामां आव्या. तेमने जोतां जतेने विवेक उत्पन्न थयो. तत्काल वंदना करी तेमनी समीपे बैठा. गुरुए धर्मोपदेश आप्यो. ते उपदेशमां रात्रि जोजनने माटे या लोक तथा परलोक संबंधी घण दोषो बताव्या. ते या प्रमाणे - रात्रिने विषे क्रीमा करवाने माटे नि. शाचर -- राक्षस देवताओ स्वेच्छाथी भूतल उपर जमे छे, तेत्रो रात्रि जोजन करनाराने तत्काल छल करे छे. जो जोजन करवा योग्य अन्नादिकमां कीडीतो भ करनारनी बुद्धिनो नाश करे बे; जो मक्षिका आवे तो वमन थाय बे, जो जू आवे तो जलोदरनो रोग थाय छे, जो करोलीओ आवे तो कोढ नीकले बे, जो वाल आवे तो गले वलगवाथी स्वरनो जंग करे छे, कांटो अथवा लामानो कटको वेतो गले पीमा करे बे, जो वीबी आवे अथवा उपरथी सपनुं गरल प तो मरणांत कष्ट उत्पन्न थाय छे. ते वखते भाजन - पात्र वगेरेने धोवादिक करवामां लघु जीवोनी हिंसा थाय बे इत्यादि आलोक संबंधी दोषो नरके पकवा रूप परलोक संबंधी घणा दोषो रहेला छे, तेथी ते रात्रिभोजनने घण घण दोषोथी दुष्ट मानी संसारजोरु प्राणीओए तेनो त्याग कवामां उद्यम करवो. " या प्रमाणे गुरुना उपदेश वचन सांभळी जेमने प्रतिबोध थयो छे एवा बने जाइए गुरुनी साक्षीए हर्षपूर्वक रात्रिनोजनना त्यागनो नियम ग्रहण कर्यो. ते पछी गुरुने वंदना करी ते पोताने घेर आव्या. मध्याह्नकाले भोजन करी बने जाइ वेपारना धंधा माटे दुकाने गया, ज्यारे वे घमी दिवस बाकी रह्यो Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. ७ एटो तेश्रो घेर आव्या अने तेमाणे मातानी पासे नोजन ( वाळु ) माग्युं, त्यारे माताए कह्यु, " अत्यारे कांश पण जोजन तैयार नथी, रात्रे थशे; तेथी चार घमी सुधी खमो." माताना आवा वचन सांजळी हंस अने केशव बोट्या"माता, तमे जे कयुं, ते सत्य , परंतु अमोए रात्रिनोजननो त्याग करेलो , माटे जो अमोने नोजन कराव, होय तो हमणांज आपो." तेमना आ वचनो घरमां आना रहेला यशोधने सांनळ्या. तत्काल तेना मनमा क्रोध उत्पन्न थइ आव्यो. तेणे मनमां आ प्रमाणे चिंतव्यु-" अरे को धूर्ते जरुर मारा पुत्रोने उग्या लागे बे, नहीं तो कुलक्रमथी आवेला रात्रिनोजननो तेश्रो शामाटे त्याग करे ? हवे हुं तेमने बे त्राण दिवस नुख्या राखी तेमना रात्रिनोजनना त्यागना कदाग्रहने त्यजाव। दनं तोज ठीक." या प्रमाणे चिंतवी तेज वखते कांश नोजन आपवा थाळ ग्रहण करवाने गर्भगृहमा आवेनी पोतानी स्त्री रंजाने तेणे गुप्त रीते आ प्रमाणे कयुं, " तारे मारी आज्ञा शिवाय पुत्रोने जोजन आप नहीं." पतिनी आवी आझा थतां तेणी घरमांथी पाठी आवी अने आ प्रमाणे पुत्रोने कह्यु, " पुत्रो, हाल घरमां कांय पण पक्वान्न वगेरे खावानुं नथी, माटे रात्रे तमारे पितानी साथे जोजन करवं. नीतिमां कडं डे के, “जेश्रो पिताना मार्गने अनुसरे तेज पुत्रो कहेवाय डे." आ दखते ते बनेए जरा हास्य करीने कहां, “माता, जे सत्पुत्र होय ते पितानो सन्मार्गी थाय , पण कुवामां पमता पितानी पछवामे झुं गमन कराय ? " पुत्रोना आवा वचन सांजळी माताए कह्यु के, “जे तमोने रुचे ते कर, पण आ वखते जोजनतो नहीं मळे." माताना प्रा वचन सांजळी तेश्रो बने मौन धरीने रह्या, पछी तेस्रो घरनी बाहेर चाव्या गया. ते पड़ी तेना मिथ्याष्टि पिताए अति क्रोधातुर था रंगाने या प्रमाणे का, “ तारे ए पुत्रोने रात्रिने विपेज जोजन आप. दिवसे कदि पण आप नहीं." पतिनो आशा रंनाए स्वीकारी. ज्यारे रात्रि पी एटले ते बने घेर अाव्या, ते वखते माताए तमने जोजन करवानें कहां, पण ते धैर्यवाळा बंने पुत्रोए नोजन करवानी ना कही. बीजे दिवसे तेमना मूर्ख पिताए ते सरल चित्तवाला बने पुत्रोने क्रय-विक्रयना मोटाव्यापारमांजजोमी दीधा; ते वेपारमा तेमनो आखो दिवस प्रसार य गयो. तथापि ए व्यापारनो अंत आव्यो नहीं. ज्यारे रात्रि पमीत्यारे घेर आव्या. तेओबंने पोताना नियमने अनुसरी जोजन कर्या शिवाय सुइ गया. आ प्रमाणे तेना केपी पिताए तेमने ए Jain Education Intemational Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० श्री आत्मबोध. व्यापारमां एवा जोमी दीधा के जेथी तेमने आहार विना पांच रात्रिय प्रसार थइ गइ. ते पछी छठे दिवसे रात्रे तेना कुटिलमति पिताए आ प्रमाणे सारा वचनोथी कहूं, 66 वत्सो, जे कार्य मने अनुकूल ने सुखदायक होय ते तमारे इष्ट हो जाइए. आवी प्रतीति धारण करी हुं तमोने जे कहुं, ते प्रमाणे तमारे करवं वली तमे रात्रिभोजननो त्याग कर्यो छे, ए वात मारा जाणवामां नथी, नहीं तो हुं तमोने एवा क्लेशकारी व्यापारना कार्योंमां शामाटे जोकुं ? तमोए - ला दिवस जोजन कर्यु नहीं, तेथी तमारी माताए पण जोजन कर्यु नथी. तेएने पण जे बो उपवास थयो छे, ते ब उपवास ब मास जेवा य‍ पमचा बे, तमारी या नानी व्हेन पण अन्न न पामवाथी अति ग्लान शरीरवाली थ‍ गइ बे. में ज्यारे तेलीना शरीरनी ग्लानि थवानुं कारण पूड्यं त्यारे तमारी माता तमारो सर्व वृत्तांत मने जान्यो. माटे तमारे हवे ] बालिका उपर दया बावी जोजन कर जोइए एटले तमारी माता पण जमे. वळी पंकित पुरुषो रात्रिना पेहेला पोरने प्रदोष कहे बेने पावला पोहोरने प्रत्यूष कa ने तेज कारणथी रात्रि लोकोमां त्रियामा कहेवाय बे. ते अपेक्षाए जे रात्रिमुखे जोजन करवं, ते निशाजोजन कहेवातुं नथी. " याप्रमाणे पितानी वाणीथी जेने भारे क्षुधा लागी छे. तेथी विद्ववल थयेलो हंस केशवनी सन्मुख जोवा लाग्यो. पोताना मोटा जाइ हंसने कायर थयेतो जोइ पोते निश्चल चित्तवालो थइ पिता प्रति या प्रमाणे बोल्यो - " पिताजी, जे कां तमने सुखदायक होय, ते हुं करूं, पण जे मने पाप रूप होय ते तमने सुखने माटे शुं थाय ? वली जे तमे माता वगेरेना वात्सल्य विषे कहोबो ते वात्सल्य धर्मकार्यमा शल्यरूप बे; कारणके सर्व लोक पोताना करला कर्मना फलने जोगवे छे. ते कारणे कोण कोने माटे पापकर्म करे ? वली जे तमे त्रियामानं स्वरुप कहुँ, ते तो कथनमात्र बे. तत्त्वथी तो दिवसना मुखेने अंते रहेतुं जे मुहूर्त्तते रात्रिनुं समीपवर्त्तिं होवाथी रात्रि तुव्यज बे, माटे तेमां उत्तमबुद्धिवाला भोजन न कर जोइए, अने हमलां तो रात्रिज बे, तेथी तेमां तो कदि पण भोजन थायज नहीं. पिताजी, तमारे मने ते विषयमां वारंवार कहेतुं नहीं." या प्रमाणे केशवनुं वचन सांगळी यशोधने क्रोधातुर थइने केशवने या प्रमाणे कर्छु, “अरे दुर्विनीत, जो तुं मारुं वचन उल्लंघेडे, तो मारी दृष्टिथी दूर जा. " Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. १०१ पिताना आवां वचन सांगळी महाधैर्यवान् केशव तत्काल व्यादिकनी ममतानो त्याग करी घरमांथी बाहेर नीकट्यो, ते वखते हंस तेनी पछवामे जवा लाग्यो, एटले यशोधने बलात्कारे तेने पकमयो अने घणां वचनो कही तेने खोजावी दीधो. आथी हंस रात्रे भोजन करवाने वेठो. हवे केशवे त्यांथी नीकळी देशांतरे जवा विचार कर्यो. मार्गमा घणां नगर, गाम तथा आराम वगेरे नवंघतो सात दिवस निराहारपाणे एक मोटी अटवीमां आवी पोहोच्यो. ते अटवीमां रात्रि पमी एटने आम तेम नमतां घणा यात्रालुओथी युक्त एक यक्षायतन तेना जोवामां आव्यु. त्यां केटवाएक यात्राबुओ रसोइ करता तेना जोवामां आव्या. तेश्रोए आ केशवने आवतो जोइ हर्षथी आ प्रमाणे कयु, " हे पांथ, अहीं आवो, अहिं आवो अने लोजन करी अमोने पुण्यनुं फल आपो; अमोए पारj करवानो आरंज करतां तमो अमोने अतिथि तरीके प्राप्त थया गे. अमे अतिथिनी गवेषणा करता हता." यात्रानु ओना आवां वचन सांनबी केशवे कां; “ हे यात्रालुओ, आ केवा प्रकारर्नु व्रत के जेमां रात्रे पारणुं थाय ? " यात्राबुओ बोट्या-“हे पांथ, आ माणव नामे महा प्रजावक यक्ष ने आजे तेनो यात्रानो दिवस बे. अहिं आवेना लोको दिवसे उपवास करीने रात्रे कोई अतिथिने जमामी पाराणुं करे . श्राम करवाथी महापुण्यनी प्राप्ति थाय . माटे तमे अमारा अतिथि थाओ." । यात्राबुओना आवचन सांनळी केशव बोल्यो-"रात्रे अशन करवाथी पापना कारणरुप एवा आ पारणामां हं जोजन करीश नहीं. जेमां रात्रे पारणं करवामां आवे, तेवो उपवास कहेवायज नहीं. धर्मशास्त्रमा आठ प्रहर सुधी नोजननो त्याग करवो, ते उपवास कहेवाय , वत्री जेओ धर्म शास्त्र विरुद्ध तप करे , ते पुर्बुद्धि लोको उर्गतिमां जाय ." केशावना आवां वचन सांनळी ते यात्रालुओ बोल्या-" अरे नाइ, आ देवना व्रतमां आवोज विधि जे. माटे अ. हिं शास्त्रोक्त विधिनी युक्तायुक्त विचारणा करवानी नथी. अमारे अतिथिनी शोध करतां घणी रात्रि गइ छे; माटे ए विचार मुकी दर तत्काल आ पारणं करवाने तैयार थाओ." आ प्रमाणे कही तेश्रो सर्वे उन्ना एइ तेना चरणमा प.. ड्या. तोपण केशवे तेमनुं वचन मान्युं नहीं. आ समये यक्षना शरीरमांथी एक जयंकर रूपवानो पुरुष बाहेर नीकट्यो. ते हाथमां मुद्गर ला विकराळ नेत्रवालो Jain Education Interational Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्री आत्मप्रबोध. था तीदण अने रुकवाणीवमे केशवने आ प्रमाणे कहेवा लाग्यो-" अरे ! 5. टात्मा, तुं मारा धर्मने दूषित करे ने अने मारा नक्तोनो अवगणना करे? तुं हमणा जलदी जोजन कर. जो नहीं करे तो तारा मस्तकना सो खंग करी नांखीश." आ वखते केशव हसीने बोल्यो-" हे यक्ष तुं मने शा माटे दोभ पमामले ? नवांतरे उपार्जित करेला प्रधान भाग्यनी ऋछिए करी मने मरणनो भय जरापण नथी." तेना आ वचन सांभळी ते यह पोताना भक्तोने कां, "हे नतो, आ माणसना धर्मगुरुने पकमीने लावो, तेने आनी आगळ मारे हणवो जे. कारणके, तेणे आ केशवने आवो धर्मोपदेश दीघोछे." आबु कहेतांज ते सेवकोए जेनो केशपाश पकड्यो डे अने जे आर्तनाद करे छे, एवा धर्मधोष मुनिने त्यां लाववामां आव्या. अने तेमने यदनी आगल मुक्या. त्यारे यने कह्यु, " अरे मुनि, आ तारा शिष्य केशवने अहीं जमाम, नहींतो तने हमणां हणी नांखीश." त्यारे ते मुनिए केशवने कहुं " नक, देव गुरु अने संघने माटे अकृत्य पण करवं; माटे तुं नोजन करी ले, अने मने हणवाने तैयार थयेला एवा आयतथी तुं मारुं रक्षण कर." तेना आवां वचन सांजळी केशव चिंतववा लाग्यो"जेत्रो महा धैर्यादि गुणोथी संपन्न एवा धर्मधोष मुनि स्वप्नने विषे पण यथार्थ बोले नहीं, तेो मृत्युना जयथी आवा पाप कृत्यमां अनुमति केम आपे ? माटे निचे आ मारा गुरुज. नथी. आ यानी को माया लागे छे. " आ प्रमाणे चितवी केशव मौनधरीने रह्यो. त्यारे यो मुनिनपर मुद्गर नपामीने कडं, " अरे केशव, तुं जोजन कर नहींतो आ तारा गुरुने हणुं बु. “ केशवे निःशंकताथी जणाव्युं, " अरे मायावी, आ मारा गुरु नथी. तेवा चारित्रना पात्र गुरु तारी आवी शक्तिने वश कदापि न थाय. " ते वखते कल्पित मुनिए कह्यु, " अरे ! केशव, हुंज तारो गुरु छं. मारुं रक्षण कर, रक्षण कर." आ प्रमाणे पोकार करता ते मुनिने यके मुद्गरना प्रहारथी हणी नांख्यो. पछी तेणे केशवने कह्यु, " अरे ! जो तुं नोजन करीश तो आ तारा मरेला गुरुने पाछो सजीवन करीश. अने तने मोटं अर्ध राज्य आपीश; नहींतो हुँ आ मुद्गरना घा वडे तने पण यमराजनो अतिथि करीश. “ त्यारे केशव हसतो हसतो बोल्यो "अरे यद, आ मारा गुरु होयज नहीं, अने हुं तेना वचने करी मारा नियमनो जंग नहीं करूं; अने जो तुं मरेलाने जीवता करतो हो तो आ तारा जक्तोना पूर्वजोने Jain Education Intemational Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ទុច៖ द्वितीय प्रकाश. केम जीवता करतो नथी ? तेम वली तारामां जो राज्य देवानुं सामर्थ्य होय तो आ तारा नक्तोने राज्यधारी केम करतो नथी ? वली तुं मने वारंवार मृत्युनो जय बतावे छे, पण मारामां जो आयुष्यनुं बल हशे तो कोइ पण मने मारवाने समर्थ थवानो नथी." केशवनी आ वाणी सांजळी अने तेनी दृढता जोइ यह खुशी थइ गयो. तत्काल ते केशवने आलिंगन करीने आ प्रमाणे बोल्यो. " अहो मित्र धियां पात्र न स्यादेष गुरुस्तव । मृता मया न जीव्यंते नैव राज्यं च दीयते " ॥१॥ "अहो बुफिना पात्र मित्र, आ तारा गुरु नथी. मरेला (पाणीउ) माराथी जीवता थता नथी अने मारायी राज्य आपी शकातुं नथी." १ आ प्रमाणे ज्यारे यह कयु, त्यारे मुनिरुपे भूमि नपर पमेलो ते यदनो किकर हास्य करतो करतो उठी अने मुनिना रुपनो त्याग करी आकाश मार्गे चाट्यो गयो. आवी विचित्र मायाथी विस्मय पामेला केशवने यह आ प्रमाणे कडं " हे मित्र, तुं सात उपवासे करी खिन्न थइ गयो छे. अने घणा मार्गनो विहार करीने थाकी गयेस्रो , माटे आ रात्रे अहिं विश्रांत था अने प्रातःकाले आ मारा जक्तोनी साथे पारणं करजे. " आ प्रमाणे कही ते यह पोतानी माया शक्तिथी एक शय्या उपजावी तेने बतावी. पछी यक्षनी आझाथी नक्तजनो जेना पग चांपेजे, एवो केशव ते शय्याने विषे सुइ गयो. ते श्रांत थयेलो होवाथी तत्काल निजाने वश थइ गयो. चारघडी पठी प्रनात विकुर्वी निजाथी जेना लांचन व्याप्त जे एवा केशवने यह कह्यु, नऊ, रात्रि चाली गइ. प्रनात थयेल , माटे निशानो त्याग करी जाग्रत् थाओ. " तत्काल केशव जाग्रत् थयो. दिवसना अजवाळाने अने सूर्यथी मंमित एवा आकाशने तेणे जोयुं. त्यारे ते आ प्रमाणे चिंतववा लाग्यो-" हुं रात्रिना पाउला पोहोरे सुतो होगं, तोपण ब्राह्म मुहूर्त्तमां स्वतः जागी जागंबुं अने आजेतो अर्ध रात्रे सुतो हतो, तोपण अर्ध प्रहर दिवस चड्यो ते उतां केम जाग्यो नहीं, तेनुं शुं कारण हशे ? क्त्री हजु मारा नेत्रो निसाथी व्याप्त केम हशे ? तेमज मारा श्वासनो पवन हजु सुगंधी केम नथी ? " आ प्रमाणे चिंतवता केशवने यह कह्यु, Jain Education Interational Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शन्ध श्री आत्ममबोध. " हे सत्पुरुष, तमे धीउपणुं गेमीदो. अने प्रजातना कृत्य करी पार| करो." केशव बोल्यो-' हे यक्ष, तारा यक्षपणाथी हुँ ठगायो नथी. मने खात्री थायडे के, हजु रात्रि छे. आ दिवसनो प्रकाश तारी मायाथी उत्पन्न थयेलो . " आ प्रमाणे केशव बोलतो हतो, तेवामां तेना मस्तक उपर आकाशमांथी पुष्पनी वृष्टि थइ. अने जय जय शब्द प्रगट थयो. त्यारे केशवे पोतानी सन्मुख एक कांतिवाला दिव्य पुरुषने जोयो. अने यदायतन, यद अने यदना जक्तो जोवामा आव्या नहीं. ते देवे केशवने का, हे महाधीरजवान्, हे पुण्यवान्मां शिरोमणिरुप, तमारा जेवा पुरुषोनी उत्पत्तिथी आ पृथ्वी रत्नगर्जा कहेवायछे. हमणां इंजे पोतानी सनाने विषे रात्रि जोजनना त्यागना विषयमां तमारा धैर्य- अत्यंत वर्णन कर्यु ते माराथी सहन था शक्युं नहीं. हुं वह्नि नामे देव बुं. पड़ी तमारी परीक्षा करवाने माटे हुँ अहिं आव्यो, पण नियमने विषे दृढ चित्तवाला एवा तमारं एक रोम पण चवित करवाने हुं समर्थ थयो नहीं; हवे हुँ तमोने खमाबुबुं. तमे मारो अपराध क्षमा करो. वळी देवनुं दर्शन निष्फल न होय, तेथी तमे मारी पासे कांक वर मागी ब्यो; अथवा तमारा जेवा सत्पुरुषोने कोइ जातनी श्छा होती नथी, पण मारे पोताने पोतानी नक्ति देखामवी जोइए, तेथी हुं तमोने बे वरदान आपुं बुं. " आजथी जे कोइ रोगी पुरुष तमारा अंगने बागेला जलक्मे पोताना शरीरर्नु सिंचन करो, ते तत्काल नीरोगी थशे." बीजं तमे कदाचित् आतुरताथी जे कांश चिंतवशो, ते कार्य सत्वर सिछ थशे." आ प्रमाणे बे वरदान प्रापी ते केशवने साकेतपुरनी पासे मुकी ते देव अदृश्य थइ गयो, केशवे पोताना आत्माने कोइ नगरनी पासे रहलो जोयो. ते पठी सूर्योदय थतां केशव पोतार्नु नित्य कृत्य करी ते नगर जोवाने अंदर गया. जतां मार्गमां कोई प्रदेशना मध्यनागे राजादि लोकोने धर्मोपदेश आपता कोइ आचार्य तेना जोवामां आव्या. ते महामांगव्यरुप मानतो केशव तत्काल त्यां गयो अने ते गुरुना चरणमां नमी पड्यो अने पड़ी तेमनी आगळ बेगे. गुरुए धमदेशना आपो. देशनाने अंते ते नगरना राजा धनंजये गुरुने आ प्रमाणे विनंति करी-" नगवन्, हुं जराथी व्याप्त थयो छ माटे हुं व्रत ग्रहण करुं तो ठीक, पण हुं अपुत्र बुं, तो मारा राज्य उपर कोने स्थापित करूं ? आव्र चितवन करतो हुँ रात्रे सुश गयो. तेवामां कोई दिव्य पुरु Jain Education Intemational Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश ए षे स्वप्नमां आवी मने कत्यु, “काले प्रजाते देशांतरथी तारा गुरु समीपे कोई पुरुष आवशे. ते सत्पुरुषने तारा राज्य उपर स्थापी तुं तारो मनोरथ पूर्ण करजे." आ स्वप्नथी तत्काल हुं जागृत थइ गयो. प्रजातना कृत्यो कर। अहीं आव्यो. त्यां आ पुरुषने में आपनी पासे जोयो छे." राजाना आ वचन सांजली ते गुरुए ते केशवनो रात्रि जोजनना त्याग संबंधी सर्व वृत्तांत कही सं. जनाव्यो. आ वखते राजाए पूज्यु, “ भगवन् , मने जे पुरुषे स्वप्नमां का हतुं ते पुरुष कोण हशे? " त्यारे गुरु बोल्या--" आ केशवनी परीक्षा करनार वह्नि नामे देवताए तने स्वप्नमां कडं हतुं." ते पनी राजा गुरुने नमी केशव सहित पोताना नगरमां गयो. अने मोटो उत्सव करी केशवनो राज्य नपर अनिषेक कर्यो. पनी पोते गुरु पासे व्रत सइ चाली नीकट्यो हतो. केशव राजा थया पली प्रतिदिन चैत्यपूजा करतो हतो अने दीन जनोने दान आपतो हतो. तेणे पोताना प्रतापथी सीमामाना राजाओने ताबे करी सीधा हता. ते न्याय मार्ग प्रेमयी पोतानी प्रजाने पालतो हतो. एक वखते केशव पोताना महेलना गोख उपर बेगे हतो, तेवामां तेने पोताना पितानुं स्मरण थइ आव्यु. पिताना दर्शन करवानी तीव्र इच्छा प्रगट था आवी. आ समये नूमि उपर तेज मार्गे चालता पिताने तेणे जोया. केशवे तत्काल पोताना पिताने ओलखी लीधा. तेज वखते ते महेल उपरथी नीचे जतयों, तेनी पाउल घणा सेवको दोडता चाव्या. केशव मार्गमां आवी पोताना पिताना चरणमां नमी पछ्यो. केशवने अोलखीने आश्चर्य पामी गयो. केशवे कयुं, " हे पिता, तमे एवा समृद्धिवान् हता, ते आजे रांकना जेवा केम देखाओगे?" यशोधन पुत्रनी राज्यनी समृधि जोइ हृदयमां आनंद पामतो अने दुःखाश्रु वर्षावतो आ प्रमाणे बोल्यो-" हे पुत्र, तुं गया पछी में तारा नाश हंसने रात्रे जोजन करवा बेसार्यो, अर्ध जोजन को पड़ी तेने अकस्मात् भ्रम उत्पन्न थइ आव्यो, अने ते मूर्ग खाइ पृथ्वी उपर पनी गयो. तत्काल 'आ शुं ययु' एम चिंतवती अने मुःखातुर थयेसी तारी माता दीवो लावी अने तेणीए त्यां जोयुं, तेवामां तेना अन्नने विषे गरळ ( विष ) पडेलुं जोवामां आव्यु. पठी उपरना नागमां जोयु, त्यां तुलापट्ट [ मोभ ] उपर रहेलो सर्प जोवामां आव्यो. आवी रीते रात्रिनो Jain Education Intemational Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ श्री श्रात्मप्रबोध. जनुं फल जो मोबधा कुटुंबे तने धर्मनो ज्ञाता जाणी मोटो आक्रंद करवा मांड्यो, तेथी घणा लोको त्यां एकठा थइ गया. तेवामां कोइ एक विषवैद्य त्यां आवी चड्यो. अमोए ते वैद्यने पूच्यं के, विष कोई पण प्रयोगयी साध्य छे के नहीं ? ” त्यारे तेणे कर्तुं के, शास्त्रमां तिथि, वार, नक्षत्र आदि आश्रीने साध्य साध्यपणानो विचार कहेलो छे. 46 " ते या प्रमाणे " तिथय: पंचमी षष्ट्य -ष्टमी नवमिका तथा । चतुर्दश्यप्यमावास्या - ऽहिना दष्टस्य मृत्युदा ॥ १ ॥ | शेषास्तु नैवमित्यर्थः । दष्टस्य मृतये वारा जानुभौम शनैश्चराः । प्रातः संध्याऽस्तसंध्या च संक्रांतिसमयस्तथा ॥ २ ॥ नरणी कृत्तिकाश्लेषा विशाखा मूलमश्विनी । रोहिण्या मघापूर्वात्रयं दष्टस्य मृत्यवे ॥ ३ ॥ वारि श्रतश्चत्वारो दंशाश्च यदि शोणिताः । वीक्ष्यते यस्य दष्टस्य स प्रयाति नवांतरम् ॥ ४ ॥ रक्तवान् दंश एको वा बिडी काकापदाकृतिः । शुष्कः श्याम त्रिरेखो वा दष्टे स्पष्टयति व्ययम् ॥ ९ ॥ संवर्त्तः सर्वतः शोफो वृत्तः संकुचिताननः । देश: शंसति दष्टस्य विनष्टमिह जीवितम् ॥ ६ ॥ केशांते मस्तके जाले भ्रू मध्ये नयने श्रुतौ । नासा ओष्ठे चिबुके कंठे स्कंधे हृदि स्तने ॥ ७ ॥ कायां नाजिपझेच लिंगे संधौ गुदे तथा । पाणिपादतले दष्टः स्पृष्टोऽसौ यमजिह्वया ॥ ८ ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. २८७ " पांचम, छठ, आम, नवमी, चौदश ने मास - एटली तिथियो सर्पे शेला माणसने मृत्यु आपनारी बे, ते शिवायनी तिथि मृत्यु आपनारी नथी. रविवार, मंगलवार ने शनिवार एटला वार सर्वे डशेला माणसने मृत्यु पनारा थाय छे. प्रातःकाल, सायंकाल, संक्रांतिनो समय, पण मृत्यु प्रापनार बे. नक्षत्रोमां, जरणी, कृत्तिका, अश्लेषा, विशाखा, मूल, अश्विनी, रोहिणी, आर्डा, मघा, त्रण पूर्वा (पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाचाऽपद) एटला नक्षत्रो सर्पे मला माणसने मृत्यु आपनारा बे. सर्वे मशेला माणसना जखमना चार जागमांथी जो पाणी जरतां ने रुधिरवाला देखाय तो ते माणस अवश्य मृत्यु पामे बे. ज्यां सर्प दंश मार्यो होय ते जाग रुधिरवालो, विश्वालो, कागडाना पग जेवी प्राकृतिवालो, शुष्क, श्याम अथवा त्रण रेखावालो होय तो ते कशेला माणसना नाशने करेछे. जो मंश आवर्त्त - घुमरीवालो, सर्व तरफ सोजावालो, गोळाकार ने संकुचित मुखवासो होय तो ते जीवितनो नाश सूचवेडे. केशने अंते, मस्तक उपर, ललाट, बे भ्रुकुटीनी बच्चे, आंखे, काने, नासिकाना अग्र जागे, होवे, हडपचीए, गळे, कांधे, छातीए, स्तने, काख उपर, नाजिए, लिंगे, सांधा उपर, गुद उपर ने हाथ पगने तलीए मशायलो पुरुष यमराजनी जिह्वाथी स्पर्श करायलो बे, अर्थात् मृत्यु पामे बे. १-२-३-४-५-६-७-८ शास्त्रमां या प्रमाणे लखे छे, पण या हंस सर्वे मशेलो नथी; परंतु तेना दरमां गरळनो प्रवेश थयेल बे, तेथी तेमां साध्य - असाध्यनो विचार करवो शा कामनो बे ? " यावा ते विषवैद्यना वचन सांजळी में तेने पूबयुं के, “त्यारे हंस शा उपायथी जीवे ?" त्यारे तेणे मंत्रनुं आव्हान करीने कर्छु, “ तमारो कोइ पण उपाय चालशे नहीं; तेथी तेने माटे श्रम करवो नहीं. कारण के, आ सर्प विष तेना शरीरमां हलवे हलवे व्यापी जशे अने या बालकनी काया तेनाथी एक मास सुधी गळती जशे पछी एक मासे तेनुं मरण नीपजशे.” श्रावा तेना वचन सांगळी सर्व लोकोनुं विसर्जन करी तारा जाइ हँसने एक शय्यामां सुवाकी हुं पांच दिवस सुधी तेनी शी स्थिति थाय छे ते जोतो घरमा रह्यो. तेला वखतमां तेना शरीरमां रोम रोम बियो परवा लाग्या तेथी ते मृत्यु पामी गयो. पनी हुं तारी शोध करवाने घरमांथी बाहेर नीकल्यो. हुं घणो मार्ग Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ՋԵԵ श्री आत्मप्रबोध. नबंधन करी अहिं आव्यो, त्यारे पुण्ययोगे तारो अचानक मेलाप थइ आव्यो. घेरथी नीकट्या मने आजे मास पूर्ण थाय जे. आजे ते हंसनुं मृत्यु थयुं हशे, अथवा हमणां थशे." पिताना आवा वचन सांजळी केशव अतिशय खेदातुर बनी गयो. ते पोताना मनमां आ प्रमाणे विचार करवा लाग्यो--" अहिंथी ते नगर सो योजन दूर हशे. हवे मारा जीवता बांधवनुं मुख जोवा शीरीते जावू ?" आ प्रमाणे जेवा पोते विचार करे छे, तेवामां केशवे पोताना आत्माने पिता सहित हंसनी पासे रहेलो जोयो. हंसतुं शरीर अत्यंत कोहाइ गयुं हतुं. तेनी सुगंध चारे तरफ प्रसरती हती, तेथी सर्व परिवारे तेने गेकी दीधो हतो. अति रुदन करवाथी जेणीना नेत्र शून्य थइ गयला ने एवी तेनी माता तेनी पासे बेठी हती. नरकनी पीमाथी पीमित अने मृत्यु जेनी नजीक डे एवो हंस पृथ्वी उपर नांखेलो जोवामां आव्यो. तेने जोतांज 'हुँ अहिं अकस्मात् शी रीते आव्यो ?' एम विचार करतां केशवे तेज वखते पोतानी समीपे पेला वह्निदेवने उनेलो जोयो. तत्काल ते देव बोल्यो--"मित्र, अवधिज्ञानथो तारी पीमा मारा जाणवामां आवतां तने आपेलुं वरदान सत्य करवाने हुं उतावळो आव्यो अने तने अहीं मुकी तारा मनोरथ में पूरा कयो छे." या प्रमाणे कही ते देव तत्काल अदृश्य था गयो. ते पछी हर्ष पामेला केशवे पोताना हस्तना स्पर्शवाळ जन लश् हंसना शरीर उपर तेनुं सिंचन कर्यु. एटले तत्काल हंस रोगयी मुक्त थइ बेगे थयो अने तेनुं स्वरूप पूर्वना जेवू थइ गयु. हंसने आवो नीरोगी अने सुंदर जोई सर्व परिवार आनंदित थइ गयो. सर्वे सानंदाश्चर्य थइ केशवना गुणोनी प्रशंसा करवा लाग्या. ते वखते बीजा रोगी अने विषनी पीमाथी पीडाता एवा घणा लोको आवी केशवना अंगने स्पर्शेला जलवझे पोताना शरीरनुं सिंचन करी नीरोगी थवा लाग्या. धर्मनो आवो प्रत्यक्ष प्रभाव जोइ तेना संबंधीओए अने बीजारोए रात्रिनोजनना त्यागनुं व्रत ग्रहण कर्यु हतुं. पठी केशवराजा पोताना कुटुंबने पोतानी राजधानी साकेतनगरमां लश् गयो. त्यां केशव चिरकाल राज्य जोगवी घाणा लोकोने धर्ममार्गमा लावी अने पोते श्रावक धर्मने पाती छेवटे सद्गतिनो नाजन थयो हतो. ए प्रकारे रात्रिभोजनना त्याग विषे केशवनो वृत्तांत कहेवाय छे. _____ा प्रमाणे अन्वय अने व्यतिरेकवाला आ हंस केशवनो दृष्टांत सांजळी विवेकी पुरुषोए रात्रिनोजनना त्यागमा उद्यमवंत थर्बु. एवी रीते श्रावकनी पमि Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश ខ្ញុំចប់ मातुं स्वरूप कहेवामां आव्युं . श्रावकने निवास करवा योग्य स्थानकनुं स्वरूप. " न चैत्य सार्मिक साधुयोगो, यत्रास्ति तद्ग्रामपुरादिकेषु । युतेष्वपि प्राज्यगुणैः परैश्च, कदापि न श्रारजना वसंति"॥१॥ __“ज्यां चैत्यो, साधर्मिकजनो अने साधुओनो योग होतो नथी, तेवा गाम तथा नगर वगेरे कदि बीजा घणा गुणोथी युक्त हाय तोपण तेमां श्रावक लोको वसता नथी." १ अहिं वीजा गुणो एटले सारुं राज्य, जल, इंधणा, धन उपार्जन करवाना व्यापारादि साधनो, कुटुंबीओ, घर, हाट अने सारां स्थानो वगेरे समजवा. जे नगरमां जिनालयो होय, साधर्मिक बंधुओ अने उत्तम धर्मनो उपदेश आपनारा साधुओ होय, तेवा नाम के नगरमां श्रावको वसेजे. ते विषे बीजे स्थले पण कयुं छे के," बहुगुण आईणेविहु, नगरे गामे च तत्य न वसेइ।। तत्य नवि जश् चेश्य साहम्मि य साहु सामग्गी" ॥१॥ तेनो नावार्थ उपर प्रमाणे जे. ते नगरादिकमां वसनारा श्रावकोए केवा पमोशमां न रहे ? ते कने. " पाखंमि पारदारिक-नटनिर्दयशत्रुधूर्त पिशुनानाम् । चौरादीनां च गृहा-ज्यणे न वसंति सुश्राघाः॥२॥ " पाखंडी, व्यन्निचारी, नट, निर्दय, शत्रु, धूतारा, चामीया अने चोर वगेरेना घरना पडोशमां उत्तम श्रावकोए रहेवू नहीं." ? अहीं आदि शब्दथी कमा वगरना, अभिमानी, दासी, गोला, जुगारी अने विदूषक वगेरे जाणवा. आवा पमोशमां रहेवाथी अनुक्रमे सम्यक्त्वनो नाश थाय, परस्त्रीगमननी या थाय, तेमनी कलानी अभिलाषा थाय, क्रूर परिणाम ३७ Jain Education Intemational Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ श्री आत्मप्रबोध. उत्पन्न थाय, प्राणनो नाश था जाय, अव्यनी हानि थाय, राजदंमादिकना कष्ट उपजे, कलहनी वृछि थाय, इत्यादि घणा दोषो थवानो संभव , माटे ते पर्जवा योग्य . केवो श्रावक नत्तम गणाय ? " मातापित्रोभक्तः कुलशीलसमैश्च विहितविवाहः। दीनातिथिसाधूनां प्रतिपत्तिकरो यथायोग्यम् ” ॥ १॥ "जे माता पितानो नक्त होय, कुन शीलमां सरखाओनी साथे विवाह करनार होय अने योग्यता प्रमाणे दीन, अतिथि अने साधुओनी बरदास करनार होय. ( आवो श्रावक उत्तम गणाय जे ) १. आ उपरथी श्रावके समजवायूँ के, तेणे समान कुलशीलवाळानी साथे विवाह संबंध जोमवो. विरुष्क कुलशीलवाळानी साथे विवाह संबंध जोडवाथी निरंतर उग रहेवाने सीधे धर्मनी हानि थाय छे. वळी तेणे दीन पुरुषोने दान आप अने उत्तम मुनिराजनी नक्ति करवी. बळी का डे के, " परिहरति जनविरुषं दीर्घ रोषं च मर्मवचनं च । ईष्टः शत्रणामपि परितप्तिविवर्जको नवति" ॥१॥ उत्तम श्रावक लोकविरुक, दीर्घकालनो रोप अने मर्मवचननो त्याग करे छे अने शत्रुओने पण इष्ट होय जे तेमज परिताप करतो नथी. " ? बली को डे के, " सव्वस्स चेव निंदा विसेसओ तय गुणसमिघाणं ॥ उज्जुधम्माणं हसणं रीढा जणपूयणिजाणं ॥१॥ बहुजणविरुषसंगो देसाचारस्स लंघणा चेव । एमाश्याई इच्छठ लोगविरुद्धाइं नेआइंति" ॥२॥ अर्थ-सर्व प्राणीोनी निंदा-विशेषे करीने गुणोवमे समृध थयेला Jain Education Intemational Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वित्तीय प्रकाश. ए१ जनोनी निंदा, सरख स्वनावी प्राणीओनी मस्करी, पूज्य जनोनी हेलना, बहु जनना विरोधी मनुष्यनो संसर्ग, देशाचारनुं नबंधन कर, विगेरे आ सर्व लोकविरुष जाणवा. __वली श्रावके पासथ्यादिकना अब्रह्म सेवा वगेरे पुराचार जोइने धर्मनी विमुखता करवी नहि. कडं जे के “ पासथ्याईण फुलं अहम्मकम्मं निरिकए तहवि । सिढिलो होश न धम्मे एसो चिय वंचिोति म ।। आ गाथानो अर्थ उपर प्रमाणे जे, मात्र चोथा पदनो अर्थ एवो ठे के, ते विचारो रांक कर्मे करीने उगाणो ने एटले के जेणे कल्पवृक्षना माहात्म्यने नीचं करेलुंडे तथा जे समस्त सुख आपवाने समर्थ छे तेवं आ अपार संसारसमुघमां तारवाने यानपात्र समान अति निर्मल चारित्र पामीने उपर कह्या प्रमाणे प्रवर्तछे-माटे ते कर्मवडे उगायो . वत्री कोइ मुनिने स्खलित जोइने तेनी नपर निःस्नेहपणुं राखे नहीं. परंतु ते एकांतपणे ते मुनिने माता पितानी जेम शिक्षा आपे छे. तेने माटे कहु ने के, " साहूस्स कहवि खलिअं दट्टण न होइ तत्य निन्नेहो । पुण एगते अम्मा पिनव्वसे चोणं देश" ॥१॥ "आ गाथानो अर्थ उपर आवी गयो जे. आयी करीने श्रावक साधुना मातापिता समान डे एम सूचव्यु जे. गणांग सूत्रमा चार प्रकारना श्रमणोपासक श्रावको कहेला -१ मातापि. ता समान, २ नाइ समान, ३ मित्र समान अने ४ सपत्नो-शोक्य समान. ते चार प्रकारना श्रावकोने माटे या प्रमाणे गाथा जे. "चिंतइ मुणिकजाइं न दिट्ट खनियो वि होइ निन्नेहो । एगंत वच्छलो मुणि-जणस्स जणणीसमो सट्ठो॥१॥ " मुनिनुं कार्य चिंतवे, मुनिने स्खलित जोइ स्नेह रहित न थाय Jain Education Intemational Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्‍ श्री आत्मबोध. अने मुनि उपर एकांते वात्सव्य राखे, तेथी श्रावक मुनिने मातापिता समान थाय बे. " १ हवे श्रावक जाइ समान केवी रीते थाय छे ? ते कहे बे" हियए ससिहोच्चिय मुणीण मंदादरो विण्यकज्जे । भाउसमा साहूणं परानवे होइ सुसहाओ " ॥ १ ॥ 66 “ मुनिने माटे हृदयने विषे स्नेहवालो, विनय कार्यमां मंद आदरवाळो पराजवमां सहायभूत थनारो श्रावक मुनिने नाइ समान छे, १ श्रावक मित्र समान केवी रीते ते कहे बे. " मित्तसमाणो माणादिं रूस अपुच्छिन कजे । मन्नतो अप्पाणं मुणीए सयणाउ अप्नादिअं " ॥१॥ 44 मुनिने पोताना कुटुंबथी अधिक मानतो ने मानादिकने विषे रोष करनारो ने पुछा वगर कार्य करनारो, ते श्रावक मुनिने मित्र समान छे. १ श्रावक मुनिने शोक्य समान केवी रीते थाय बे ? ते कहे बे यो बिप्पेही पमाय खलियाण निच्चमुच्चरइ । सो सवप्पो साहुजणं तसमं गणइ” ॥ १ ॥ ८५ 6 " स्तब्ध, मुनिना छि जोनारो, 'या मुनि प्रमादी ने स्खलित छे' एम नित्य बोलनारो, ने साधुजनने तृण समान गणनारो श्रावक मुनिने शोक्य समान वे. १ श्रावकनुं संक्षिप्त आन्हिक. "प्रबुध्य दोषाष्टमभागमात्रे स्मृत्वोज्वलां पंचनमस्कृतिं च । व्यापृतोऽन्यत्र विशुद्धचेता धर्मार्थिकां जागरिकां स कुर्यात् | १ | " रात्रिने मे जागे एटले चार घमी रात्रि बाकी रहे त्यारे श्रावके जागीने उज्वल एवा पंच नमस्कारनुं स्मरण कर पछी वीजा काममां जोमाया Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वित्तीय प्रकाश बगर-एटले गृहकार्यमा लाग्या शिवाय शुफ हृदयवाला था धर्मजागरिका करवी."१ ते धर्मजागरिका शी रीते करवी ? ते कहे - “ कोऽहं का मेऽवस्था, किं च कुलं के पुनर्गुणा निगमाः। किं न स्पृष्टं क्षेत्रं, श्रुतं न किं धर्मशास्त्रं च " ॥१॥ "हुँ कोण बु ? मारी शी अवस्था छ ? मारु कुन शुं ? मारामां केवा गुणो के ? में केवा नियमो कर्या ने ? में क्या क्षेत्रने स्पश्टुं नथी ? अने में शुं धर्मशास्त्र सांजव्युं नथी ?" ? ते विषे विशेष कहे . रात्रे निजाथी मुखित एवा लोचनवाला श्रावके प्रथम उठी चित्तनी पटुता प्राप्त कर्या शिवाय तेणे चिंतक्यूँ के, हुं कोण हुँ ? हुं मनुष्य बुं के देवता छ ? हुं मनुष्य बुं तो मारी शी अवस्था छे ? हुँ बाल्यावस्थामा छं के यौवन अवस्थामांर्छ? जो यौवन अवस्थामां हो तो मारामां बाब्यचेष्टाओ अने वृद्धचेष्टाओ न थाओ. हुं युवावस्थावानो बुं, तो पनी मारु कुन शुं ? श्रावक कुन बे के बीजं कुल ने ? जो मारुं श्रावक कुल , तो मारामां केवा गुणो छ ? मूत्र गुणो डे के उत्तर गुणो छ ? वली में केवा नियमो-अनिग्रहो धारण करेला डे? उते वैनवे १ जिननुवन, बिव, प्रतिष्ठा, पुस्तक, ५-६-७-७ चतुर्विध संघ, अने ए शत्रुजयादि तीर्थयात्रा-आ नव अक्षणवाला नव देत्रोने विष में क्या केत्रो स्पर्या नथी ? धर्मशास्त्रमा दशवकालिक वगेरेमां में शुं शुं नथी सांजव्यां ? माटे हुं क्षेत्र स्पर्शवाने माटे तथा धर्मशास्त्र सांभळवाने माटे उद्यम करूं. वली ते श्रावक के जेने आ संसारने विषे वैराग्य उत्पन्न थयो , ते दीक्षा लेवानाध्यानने मुकतो नथी. जेने ते समये बीजो व्यापार नथी एटले ते दीवाना अभिवापथी आ प्रमाणे चिंतवे -" ते वज्रस्वामी प्रमुखने धन्य डे के जेमणे बाल्यावस्थाने विषे समग्र मुःखो जेथी निवारण थाय तेवा संसारना कारणोनो त्याग करी शुक हृदयथ। संयमनो मार्ग सेव्यो ने अने हुं तो अद्यापि गृहस्थावासरुपी पाशमां पमेलो ते मार्ग सेववाने शक्तिमान् थयो नथी; तेथी मारे तेवो शुज दिवस क्यारे आवशे के ज्यारे हुं मारा आत्माने धन्य मानतो संयम मार्गने अंगीकार करीश." (इत्यादि श्लोकमां कडं नथी तोपण जाणी लेवं.) Jain Education Intemational Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन श्री आत्मप्रबोध. आ प्रकारे रात्रिने शेष नागे चितवन कररी पछी श्रावक शुं करेले ते कहेजे" विभाव्य चेत्यं समये दयालुरावश्यकं शुष्मनोंगवस्त्रः । जिनेउपूजां गुरुवंदनं च, समाचरेन्नित्यमनुक्रमेण " ॥१॥ ___ " दयालु एवा श्रावके ए पूर्वोक्त प्रकारे एटले रात्रि मुहूर्त्तमात्र बाकी रहे त्यारे सामायिकादि प्रत्याख्यान पर्यंत लोकोत्तर भावपूर्वक आवश्यक करवा. जो ते व्याकुलपणाने बस्ने षमावश्यक करवाने अशक्त होय तो ते निश्चे करी यथाशक्ति प्रत्याख्यान आवश्यक चिंतवे, तेने माटे का डे के, “ श्रावके जघन्यथको नमस्कार सहित प्रत्याख्यान तो करवूज." ते पनी सूर्य- अर्धविंव जोवामां आवे त्यारे शुम अने मनोहर वस्त्र अंगे धारण करी जिनेनी पूजा आचरेवे. ते पूजाने माटे प्रथम यतनाए करीने विधिपूर्वक घर देरासरनी पूजा करी पछी पूजाना उपकरण ग्रहण करी महोत्सवपूर्वक श्री जिनालयमा जइ मुखकोश वांधी दश त्रिक, पांच अनिगम इत्यादि शास्त्रोक्त विधिपूर्वक जिनपूजन करे . [ पूजाना जेदोनुं व्याख्यान श्री ज्ञाताधर्मकया आदि सिकांतने अनुसारे प्रथम प्रकाशमां श्रापेलु डे त्यांथी जाणी लेव.] प्रथम जे कहां के, “ शुधमनाग वस्त्रः" ते आ प्रकारे-प्रथम सर्व सावद्य अध्यवसायनुं वर्जg, ते मननी शुचि. ते पनी निर्जीव एटले कचरा रहित तथा पोलाश विनानी भूमिने विषे अल्पजल अने हस्तना बहु व्यापारवके सर्वांग स्नान करवू, ते अंगशुचि. ते पडी पवित्र, श्वेत, अखंमित वस्त्र धारण करवा ते वस्त्रशुकि. आ प्रमाणे मन, अंग अने वस्त्रनी शुधि करवी. स्नानवमें देहशुछि कर्या शिवाय देवपूजा कराय, एम कदि पण मानवू नहीं. कारण के, तेम करवायी आशातना थवानो प्रसंग आवे . जन्म पर्यंत निर्मल शरीरधारी देवताओ पण विशेष शुछिने माटे स्नान करीनेज देवपूजा अर्थे प्रवर्तेठे तो जेने नव अने अगीयार प्रवाह निरंतर स्त्रवता ने अने जे बुगधी मनवाला ले एवा मनुष्याथी स्नान कर्या विना जिनपूजा केम कराय ? ए कारणने सध्ने देवपूजा करनारने सिघातमा ठेकाणे काणे “ एहाया कय वलिकम्मा " " न्हाइने जणे पूजा करी जे." एम विशेषण आपलं . Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. एए __ अहिं प्रश्न करे ने के, " यतनामां तत्पर एवा श्रावकोने बहु आरंनपणुं होवाथी स्नान कर अनुचित जे." तेना उत्तरमा कहे छ के, “एम कहे नहीं, कारण तो पड़ी जल, धूप, पुष्प वगेरे आरंनना हेतु होवाथी, तेमनो पण निषेध आवी पमशे, माटे पंमिताने तेनो निषेध करवो इष्ट नथी. कडं ने के, " छज्जीव कायसंयमा, दव्वश्थ एसोवि सुश कसिणो । __ तो कसिण संयमविऊ, पुष्फाश्य न इच्छति” ॥ १ ॥ __“उ जीवनिकायनी यतनावंत होय ते अव्यस्तवथी विराम पामे, तेथी संपूर्ण यतनावंत होय ते पुष्पादिकने इच्छता नयो." अथवा“ अकसिणपवत्तयाणं, विरयाविरयाण एस खबुजुत्तो। संसार पयणुकरणे, दव्वथ्थए कूव दिलुतो” ॥ १॥ ___" असंपूर्ण चारित्रने विष प्रवर्त्तनारा एवा विरताविरती श्रावकोने ससार पातळो-लघु करवा माटे कुवाना दृष्टांते करी अव्यस्तवमा प्रवर्तन युक्तज जे." ? इत्यादि आगम प्रमाणे छे, माटे हवे ते विषे विशेष विस्तार करवानी जरुर नथी. देवपूजा कर्या पठी श्रावक विनयपूर्वक गुरुवंदन आचरे, ते कहे - "शृंगी यथा क्षारजले पयोनिधौ वसन्नपिस्वाजलं पिबेत्सदा । तथैव जैनामृतवाणिमादरा-द्भजद्गृही संसृति मध्यगोऽपि सन्।१। “जेम शृंगी जातनो मत्स्य खारा जलवाला समुञमां वसता उतां पण सदा मी, जल पीवेडे, तेम संसारना मध्यमा रहेलो पण गृहस्थ श्रावक जैन आगमनी अमृत जेवी वाणीने आदरथी सेवेळे." १ ते पछी श्रावके बाल तथा सानादिक साधुनने प्रभाते खावा योग्य एवा औषधादि लावी देवा यत्नवान् थq. आ वात दर्शावी नथी तोपण जाणी लेवी. ले पठी श्रावके शुं शुं कर जोए ? ते कहे जे Jain Education Interational Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ श्री आत्मबोध. " द्रव्यार्जनं सद्व्यवहार शुद्ध्या, करोति सद्भोजनमादरेण । पूजादिकृत्यानि विधाय पूर्व, निजोचितं मुक्त विशेषलौल्यः” । १ । ते पक्षी श्रावक व्यवहारशुद्धिवमे व्योपार्जन करे बे. त्यार बाद पहेला मध्यान्हकाल संबंधी देवपूजा करीने, मुनि महाराजाओ ने दान आपीने छ, तुर, तिथि पशु वगेरेनी चिंता करीने विशेष लोलुपतानो त्याग करी श्रावक पोताने योग्य एवं जोजन आदरथी करे बे. योग्य एवं जोजन एम कवानो आशय एव के, सूतकवालुं भोजन लोकविरुद्ध होवाथी, अनंतकायादिवमे व्याप्त एवं भोजन ग्रागमविरुद्ध होवाथी ने मद्यमांसादिकनुं जोजन जयलोक - - शास्त्र विरुद्ध होवाथी श्रावक करतो नथी, तेम लोलुपपणाथी पोताना जठराग्निना वलनो विचार कर्या वगर श्रावक अधिक जोजन करे नहीं. कारण के, अधिक जोजन करवाथी वमन, विरेचन आदि रोगनी उत्पत्ति अने तेमांथी मरण प्रमुख बहु अनर्थ उत्पन्न थाय बे; तेथी जे मितभोजन करे बे ते पछी धर्मशास्त्रो परमार्थ चिंती योग्य व्यापारमां दिवसना त्रीजा पोहोरनुं निर्गमन करेबे. सूर्य अस्त यतां पहला संध्याकाले जिनपूजा करे बे. जो विजुक्त [वेशणा]नुं प्रत्याख्यान कर्यु होय तो चार घमी दिवस बाकी रहे त्यारे व्यालु करेछे, ए श्लोकमा कल नथी तोपए जाएं। लेबुं. त्रिकाल जिनपूजानो विधि. " प्रातः प्रपूजयेद्वासै मध्यान्हे कुसुमैर्जिनम् । संध्यायां धूपदीपैस्त्रिधा देवं प्रपूजयेत् " ॥ १ ॥ "प्रातःकाले जिनेश्वर ने वासकेपथी पूजवा, मध्यान्हे पुष्पार्थ पूजवा अने " संध्याकाले धूपदीपथी पूजवा - एम जिनदेवने त्रिकाल पूजवा . इति श्रावक दिन कृत्य. ? Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. Ջg श्रावक रात्रि कृत्य संक्षेप. " कृत्वा षडावश्यकधर्मकृत्यं, करोति निजामुचितवण च । हृदि स्मरन् पंच नमस्कृति स, प्रायः किलाब्रह्म विवर्जयंश्च"॥१॥ "ते पनी श्रावक षमावश्यकरुप धर्मकृत्य [ प्रतिक्रमण ] करीने योग्य अवसरे निजा करे . [ ते वखते ते शुं करे ? ते कहे .] ते समय हृदयने विषे पंचपरमेष्टी नमस्कार- स्मरण करे अने प्राये करीने अब्रह्मनो परिहार करेले अने तेम करतां निज़ा करेछे. अहिं पाये करीने कयुं , तेनो हेतु एवो डे के, ऋतुकाले संतानने अर्थ तथा वेदोदय शमाववाने अर्थे तेमज पोतानी विवाहित स्त्रीने अब्रह्म सेवानो अनियम होइने अब्रह्म सेवा बनी आवे छे. तेम वली श्रावक मथुन नावमां अत्यंत लोलुप न थाय, ते पण सूचव्युं . ए रीते श्रावकना अहोरात्रना कृत्यो संक्षेपमां कहेवामां आव्या बे. हवे उपर कहेल देवपूजाना विषयमा विशेष कहेवामां आवे छे. कारण के वारंवार जिनपूजानुं विधान मोटा पुण्यना माजनुं कारण . तेने माटे कयु डे के, “वीसेस डिजणणी, सुग्गश्दाविदउकनिदरणी। दसणसुधि निमित्तं, पुणो पुणो कोरए पूआ "॥१॥ " समस्त विशेष ऋधिने नत्पन्न करनारी अने जुर्गति, दारिज तथा सुःखने दळनारी एवी जिनेश्वरनी पूजा दर्शनशुछिने माटे वारंवार कराय जे." १ हवे स्थानांग नामना त्रीजा अंगना चोथा गणामां कहेली श्रावक संबंधी चार विश्राम नूमिन देखामे जे. जेमके व्यवहारमां, जत्थणं अंसाओ अंसं साहरश १, जत्य वियणं नच्चारं पासवणं वा परिठवेश् २, सुवासकुमारावाससि वा जत्य वियणं नागकुमारावासंसि वासं नवेश ३, जत्थ वियणं आवकहाए चि . अर्थ-[१] जे अवसरे एक स्कंध नपरथी बीजा स्कंध नपर स्थापन करे, ३८ Jain Education Intemational Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श् श्री आत्मप्रबोध. [२] जे स्थाने मलमूत्र परठवे, [३] जे स्थाने नागकुमार अथवा सुवर्णकुमार असुरोना वासमां वासो ले-रात्रि रहे [४] जे स्थाने यावज्जीव रहे. ए प्रकारे श्रावकने चार विश्राम (विशामा ) कडेला बे. कहां से के, -- " जत्थणं सिलव्वयगुणव्वय वेरमण पञ्चरका पोसहोववासाइ परिवज्जइ " ॥ १ ॥ "" “ जत्य विणं सामाइयं देसावगासियं वा परिवज्जइ ॥२॥ जत्थ वियणं चाउद सिद्दिपुलिम्मासीसु परिपुन्नं पोसढं सम्मं अणुपालेश् " ॥ ३ ॥ "" जत्थ वियणं पच्छिमं मारणंतियसंबेदणा झूला झूसिए जन्तपरिग्रइस्किए पाठ गए कालं प्रणवकख माणे विहरइ " ॥ ४॥ अर्थ - [१] ज्यां अणुव्रत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान ने पोषघोषवासादि अंगीकार करे, [२] जे स्थाने सामायिक करे अथवा देशावका शिकने आदरे, [३] जे स्थाने चतुर्दशी अष्टमी अमावास्या पूर्णिमाने दिवसे परिपूर्ण अ होरात्र पोषवत सम्यक् पाले, [४] जे स्थानमा मृत्यु समयनी संलेखना करarah कषायने पातळा करवाएं अंगीकार करे, असा करे अने पादोपगमन करीने जीवित मरणने अइच्छतो विचरे. श्रावना सद्भूत गुणोनुं वर्णन. " जिनप्रणीतार्थविदो यथार्थ - सद्वाग्युतोऽपास्तमतांतरस्थाः । स्वकीय धर्मोज्ज्वल मार्गमग्नाः श्रद्धालवः शुद्धधियो जयंतु " ॥ १ ॥ " जिनप्रणीत एवार्थने जाणनारा, यथार्थ सत्य वाणी बोलनारा, मतमतांतरने दूर करनारा पोताना धर्मना उज्वल मार्गमां मत्र रहेनारा, श्रद्धालु ने शुद्ध बुद्धिवाला श्रावको जय पामो. " १ विशेषार्थ - जे श्रावको श्री जिनेश्वरे प्ररूपेला यथास्थित जीवाजीवादि १. जेम कोइ भारवाही मनुष्य आ प्रकारे चार विसामा लीए तेम श्रावकने माटे नीचेना चार विसामा छे; अत्र दृष्टांत दाष्टतिक छे. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. एए पदार्थोना जाणनारा होय. ममुक श्रावकनी जेम यथार्थ वचननी युक्तिवमे निरुत्तर करवाथी मतांतरीओ--कुलिंगिओने जेमणे पराभव करेला होय, जेओ पोताना धर्मना उज्ज्वल मार्गने विषे लीन थयेला एटले एकाग्र चित्तवाला होय, जेओ शुफ बुफिना धारक अने श्रधालु होय, तेवा श्रावको जय पामो. १ ___ मंमुक श्रावकनो वृत्तांत. [पंचमांग विवाहप्रज्ञप्तिमांथी संक्षिप्त. ] राजगृहीनगरीनी समीपे गुणशील नामे एक चैत्य जे. ते चैत्यना समीपना नागमां कालोदायी शेवालोदायी प्रमुख घणा अन्य तीर्थीओ वसता हता. एक वखते तेत्रो बधा एकत्र थया अने तेमनी वच्चे मांहोमांही वादविवाद यह आव्यो. जे श्री महावीरस्वामी धर्मास्तिकायादि पांच अस्तिकायोने प्ररूपेछे, तेमां धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय अने पुद्गलास्तिकायने अचेतन अने जीवास्तिकायने सचेतन प्ररूपेठे. तेम वली धर्म, अधर्म, आकाश, जीव-अस्तिकायोने अरूपी अने पुद्गलास्तिकायने रूपी प्ररुपेडे, ए प्रकारे सचेतन--अचेतनादिरुपे करीने अदृश्यपणं होवाथी ते शीरीते मनाय ?" आ प्रमाणे तेमनी मांहेमांही आलाप--संलाप थयो हतो. हवे ते राजगृहनगरमां मंडुक नामे एक श्रावक रहेतो हतो. ते महान् समृधिवालो, सर्वलोकमान्य, जीवाजीवादि पदार्थोना स्वरूपने जाणनार, अने निरंतर धर्मकृत्यवमे आत्माने नावनार हतो. ते सुखे करी काल निर्गमन करतो हतो. एक वखते श्री वीर नगवान् गुणशील चैत्ये आवी समोसर्या. प्रजुना आगमननी वार्ता सांजळी ते मंझक श्रावक अत्यंत आनंदथी प्रन्नने वंदना करवा नीकडयो. जेवामां ते नगरनी बाहेर नीकली पेक्षा अन्य तीर्थोनी अति नजीक नहीं तेम अति दूर नहीं एम आव्यो, तेवामां ते तीथिोनी दृष्टिए आव्यो. तत्काल तेओ एका थइ तेनी पासे अाव्या अने आ प्रमाणे बोट्या-" हे मंडुक, तारो धर्माचार्य जे पंचास्तिकायादिकनी प्ररूपणा करे , ते शी रीते मनाय ? तेमने शी रीते जणाय ? " मंमुके कयु, “जे धर्मास्तिकायादिके कर। पोता। कार्य कराय , ते कार्य उपरथी ते धर्मास्तिकायादिकने अमे जाणीए बीए. जेम Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. जिणाय बे, तेम तेमना कार्य उपरथी ते जणायडे. वली जो तेथ कार्य करातुं न होय तो अमाराथी न जाली शकाय. एटले कार्यादिक लिंगघारे करीनेज बद्मस्थ जीवोने अतींद्रिय पदार्थोनुं ज्ञान थाय छे; तेम वली धर्मास्तिकायादिकनुं कार्यादिलिंग मोने प्रतीतवाळु देखातुं नथी ते प्रसंगे तेनानावथी मे नथी जाणता. " ३०० खते धर्मास्तिकायादिक संबंधी अपरिज्ञानने अंगीकार करता मंकुकने उपालंन आपतां ते अन्य तीथओ बोल्या - " हे मंकुक, जो तुंर्थने जाणतो नथी तो तुं श्रावक केम ? " 6 " आवा उपालंजयी ते मंमुक श्रावक जेमाणे अदृश्यमानपणे धर्मास्तिकायादिको संभव कहेलो छे, तेमनो ते विषय खऊंन करवा या प्रमाणे बोल्यो" हे आयुष्मंत, वायुकाय वाय बे ? त्यारे तेमणे करूं, हा, वाय . पूज्यं, “ तमे ते वायुकायने वातरूप देखो छो ? " तेमणे उत्तर आयो, पदार्थ समर्थ नथी, एटले रूप देखता नथी. " मंशुक - गंधवाला पुद्गलो छे ? अन्यतीर्थ-हा, वे. मंडुक - त्यारे तमे घ्राणसहगत पुद्गलोना रूपने देखो हो ? अन्यतीर्थओ नथी देखता. मंमुक --- काष्ट सहचारी निकाय बे ? अन्यतीर्थिओ - हा, बे. मंडुक—त्यारे तमे निकायना रूपने देखो छो ? अन्यतीर्थ - नथी देखता. मंडुक - समुनुं रूप पारगत बे ? अन्यतीर्थओ -हा, छे. मंमुक-तमे ते देखी शको हो ? अन्यतीर्थो नथी देखता. मंकुक - देवलोक संबंधी रूप छे ? अन्यतीर्थ- हा, बे. मंमुके " ए Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. Makarma मंगक-त्यारे ते रूपने तमे देखो छो. अन्यतीर्थिओनथी देखता. मंक-हे आयुष्मंतो, हुं तमे अने बीजा बद्मस्थ जीवो ज्यारे ते देखता नथी तो शुं ते सर्व नयी? तमारा मत प्रमाणे तो घणा लोको पण न होय. आवा प्रश्नोथी ते अन्यतीर्थिओने निरुत्तर करी दीधा. ते पनी मंमुक श्रावक गुणशील चैत्यने विषे रहेला श्री वीरस्वामी पासे जइ वंदनापूर्वक योग्य स्थाने बेगे त्यारे जगवाने मंसुकने का, “ नज, तुं शोजनिक . कारण के तें अस्तिकायोने न जाणतां उतां अन्यतीर्थिओनी आगळ हुं नथी जाणतो एम का. जो तुं अजाणतो छतो ' हुं जाएं छ,' एम कडं होत तो तुं अरिहंतादिकनी आशातना करनारो थात." प्रनुना आवां वचन सांजळी ममुक खुशी थइ गयो. पछी मनुने वंदना करी धर्मदेशना सांनळी पोताने स्थाने चाल्यो गयो. आयुष्यना क्यथी अरुणाल नामना विमानमा प्रथम देवलोके उत्पन्न थयो. ते पछी त्यांथी च्यवी महाविदेह केत्रमा सिछिपदने प्राप्त थशे. एवी रीते मंमुक श्रावक, वृत्तांत कहेवाय ले. नपर प्रमाणे श्रावकपणं पामी ते पाळवाने माटे सर्वथा प्रमादनो परित्याग करवो जोइए. ते कहे जे" निशम्य विप्रोपनयं सुधान्निः प्रमादसंगोऽपि न कार्य एव । इहोत्तरत्रापि समृद्धिहेतो, महोज्वोऽस्मिन्निजधर्मकार्य” ॥१॥ " सारी बुछिवाला नव्यप्राणीओए दरिन ब्राह्मणर्नु उपनय-दृष्टांत सांनळी आलोक तथा परलोकमां समृधिना कारणरुप एवा महान् उज्वल पोताना धर्मकार्यमा प्रमादनो संग पण न करवो जोइए." १ ते दरिज ब्राह्मण, दृष्टांत. काई नगरमां जन्मपर्यंत दरिधी अने घणोज आलम एक ब्राह्मण रहेतो हतो. एक दिवसे ते पोतानी स्त्रीनी प्रेरणाथी दान लेवा माटे राजानी पासे गयो. तेणे · चिरकाल जीवो' इत्यादि आशीष आपी. आकृति उपरथी तेने दरिजी जाणी अनुकंपाथी पूरित हृदयवमे राजाए कत्यु, “ हे विष, सूर्यास्त थया अगाउ Jain Education Intemational Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. तारी इच्छा प्रमाणे मारा नंमारमाथी अव्य बइ तारुं घर पूर. हुं तेवी आज्ञा आपुंचं." आ प्रमाणे कही ते आझानी साथे पोताना नामथी अंकित पत्र लखावीने ते विप्रने आप्यो. तेथी खुशीथ ब्राह्मणे ते पत्र लक्ष पोताने घेर आवी ते वृत्तांत पोतानी स्त्रीने जणाव्यु. एटले स्त्रीए कह्यु, “ स्वामी, सत्वर त्यां जाओ अने पूरतुं अव्य लश् आवो." कारण के, नीतिशास्त्रमा कडं छे के, “श्रेय कायोमा विन्न घणा होय ." ब्राह्मणे कयुं, “प्रिया, नीतिशास्त्रमा का डे के, " शतं विहाय भोक्तव्यं " " सो काम पड्या मुकीने जमवू." माटे हुं जोजन कर्या पली स्थिर चित्तवालो थइ पछी प्रव्य लेवाने माटे जइश." पतिना आवां वचन सांजळी स्त्री पमोशीने घेरथी आटो लावी, तेने पकावी पतिने जमाड्यो. अने परी तेणीए कडं, " स्वामी, हवे शीघ्र जा पोतानुं कार्य साधो." पतिए कडं, “ शास्त्रमा कयु डे के, “ जो जम्या पठी सुवानुं न मने तो सो मंगलां चालवू." माटे कणवार शयन कर्या पठी जश्श." आ प्रमाणे कही ते विष सुइ गयो. प्राये करीने दरिजीने निजा घणी होय जे, तेथी ते एवी गाढ निघामां सुतो के, तेनी स्त्रीए घणा घांटा पामया अने तेना हाथ पग हलाव्या उतां ते दिवसने बीजे पोहोरे मांड मांड जागृत थयो. ते पठी स्त्रीनी प्रेरणाथी ते दरिजी ब्राह्मण घेरथी नीकट्यो, पण मार्गमां जतां चौटामा एक नाटक थतुं तेना जोवामां आव्युं, त्यारे तेणे चिंतव्यु के, “ हजु दिवस घणो ने, माटे नाटक जोया पठी अव्य लेवाने माटे राजघारमा जश्श." आ प्रमाणे चिंतवी तेणे पूर्ण रीते नाटक जोयु. ते जोया पछी ते आगळ चाल्यो. मार्गमां ठेकाणे ठेकाणे कौतुको जोतो जोतो ते रोकायो. दिवस पसार थइ गयो, ते तेना जाणवामां आव्युं नहीं. ज्यारे सूर्य अस्त थयो, त्यारे ते राजाना जंमार समीपे आवी पहोंच्यो, त्यां मारी - मारे ताबु आपी जतो हतो, तेनी पासे आवी ते विप्रे राजाना हुकमनो पत्र आप्यो. नंमारीए पत्र वांचीने कडं, " अरे विप्र, राजाए करलो नियम पूर्ण थइ गयो , तेथी हवे तने कांश पण अव्य मन्त्री शकशे नहीं; माटे पालो घेर जा." नंमारीनां आवां वचन सांजळी प्रमादना वशथी अव्यने नहीं पामतो, हाथ घसतो अने पश्चात्ताप करतो ते पोताने घेर पागे आव्यो, अने पूर्वनी पेठे दरित्रपणे रह्यो हतो. Jain Education Interational Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश. आ लौकिक दृष्टांतनो उपनय आत्मा उपर आ प्रमाणे घटे जे. आ संसाररुपी नगरमां दरिबी ब्राह्मणरुप सुखी संसारी जीव रहे . तेने सत् कार्यमां प्रेरणा करनारी जे स्त्री ते सुमति समजवी. जे राजा ते तीर्थकरादि सद्गुरु समजवा. तेत्रो धर्मरुपी धनना दातार . जे नंमार कह्यो, ते आ मनुष्य जव समजवो. कारण के, ते विना धर्मरुपी धननी प्राप्ति थती नथी. जे आयुष्य ते सूर्य समजवो. जे सूर्य अस्त पाम्या अगाउ धन ग्रहण करवानी आझा हती, ते आयुष्यनो दय थया अगान धर्म करवानी गुरुनी आज्ञा समजवानी , तेने माटे कडं डे के," जरा जाव न पीडेश, वाहि जाव न वढ्इ। जाव न दियहाणी, ताव धम्मं समायरे” ॥ १ ॥ " ज्यां सुधी जरा आवी नथी, ज्यां सुधी व्याधि वृछि पाम्यो नथ। अने ज्यां सुधी इंजियोनी हानि थइ नथी, त्यां सुधी धर्मनुं आचरण करवू." ? वत्री जेम ते ब्राह्मण ‘दिवस हजु घणो छ' एम मानी निजा, नाटक अने कौतुको जोवाना प्रमादमां आसक्त थतां धननी प्राप्ति करी शक्यो नहीं, अने पछी पश्चात्तापमा परी गयो. तेम प्रमादी जीव आयुष्य होय त्यां सुधी प्रमादमां पमी पठी आयुष्य पूर्ण थतां धर्मकृत्य न करतां गत्यंतरमा जइ सुःखे पीमित थ पश्चात्ताप करे ने जेमके-"अहो! हुं पूर्व नवे विषयोमा मग्न थइ पमयो सर्व प्रकारनी सामग्री उतां में जैनधर्म आराध्यो नहीं." आ प्रमाणे ए दरिजी ब्राह्मणनो उपनय समजवानो . अवसर गुमाव्या पली कांई पण कार्य सिफ थतुं नथी, माटे हे नव्यजनो! प्रथमथीज प्रमादनो त्याग करी स्वधर्म पालवाने तत्पर थाओ. जेथी सर्व इष्ट सिधि प्राप्त थशे. आ प्रकारनुं श्रावकपणुं प्राप्त करवानी श्च्छावाला नव्य पुरुषोंए निन्हावादिक कुदृष्टिओना वचनमा विश्वासी थ, न जोइए. "जनस्य सत्कांचनकंकणघ्यी-निर्मापकस्योपनयं निशम्य सः। Jain Education Intemational Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ श्री आत्मप्रबोध. कुदृष्टिवाक्याश्रयणे पराङ्मुखो जवेन्नचेट्टचनमश्नुते ध्रुवम् ॥१॥ "सोनीनी पासे उत्तम प्रकारना सोनाना वे कंकणोने करावनार लोकोनो उपनय सांजळी श्रावके कुदृष्टिोना वचनने सांभळवामां विमुख थर्बु, अन्यथा ते निश्चे वंचनाने पामे ." ? कहेवानो आशय एवो डे के, सोनीनी पासे उत्तम प्रकारना बे कंकण घमावनार लोकोनुं दृष्टांत सांजळी योग्य धर्मना अभिलाषी एवा श्रावके कुदृष्टि ओना वचनथी पराङ्मुख य, एटले तेमना वचनोनो विश्वास न करवो. जो तेमना वचनथी पराङ्मुख न थाय तो निश्चे वंचनाने पामे . अर्थात् तेमना वचनथी व्युद्ग्राहित चित्तवालो थऽ सद्गुरुना उपदेशनो अनादर करी स्वधर्मथी ज्रष्ट थाय . सुवर्णना कंकण घडावनार पुरुषy दृष्टांत. को मुग्ध पुरुषे सोनीनी पासे सोनाना बे कंकण घमाववा आप्या. ते धूर्त सौनीए ते पुरुषने जोळो-मूर्ख जाणो तेने उगवा माटे वे कंकणो बनाव्या; तेमां एक जोम सुवर्णमय अने बीजी पीतळमय जोम करी. बने साचा कंकणो पेला मूर्खने आपी उगवानी बुछिए ते सोनीए एकांते जणाव्यु के, आ गाममां सर्व लोको मारा षी, तेथी तेओ मारा बनावेला आचरणो साचा होय तोपण तेने खोटा कहे छे, माटे तमारे मारुं नाम बीधा शिवाय वीजा लोको पासे आ बने कंकणो बतावी तेनी परीक्षा कराववी पड़ी हुं ते कंकणोने नजाळीने तारा हाथमां पेहेरावीश. पेस्रो मुग्ध माणस तेना कपटने न जाणतो ते साचा कंकणनी जोम लइ लोकोने बताववा नीकट्यो. लोकोए ते कंकणोने चोखा सो. नाना शुछ कयां, ते सर्व वृत्तांत तेणे सोनीने आवी जणाव्यो. पछी ते कपटी सोनीए पोताना हस्तनी लाघवताथो ते सुवर्ण कंकणना युगलने बुपी रीते मुकी दइ, तेना जेवा तुट्य प्रमाणवाला आकारना वीजा पीतलना बे कंकणो तेना हाथमा पेहेराव्यां अने कह्यु के, "आजथी मारुं नाम सांजळी जो कोइ लोको आ कंकणने पीतळना कहे तो तारे तेमनुं वचन न मानQ अने मारा वचन उपर विश्वास राखो". ते मुग्ध पुरुषे ते वात अंगीकार करी. ते पर। ते अशुद्ध कंकणनी जोम Jain Education Intemational Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ द्वितीय प्रकाश. पहेरी ते पुरुष चौटामां नोकव्यो, त्यारे लोको तेने पुजवा बाग्या के, “ आ कंकणनी जोम कया सोनीए करी ? " तेणे ते सोनीतुं नाम आप्यु पठी परीक्षक लोकोए तेने सारी रीते तपासीने का के, " आतो पीतळना कंकण जे." तने ते धूर्त सोनीए उग्यो . "पेस्रा धूर्त सोनीए जेना चित्तने व्युद्ग्राहित करेलुं छे एवा ते पुरुषे मनमां चिंतव्यु के, “ आ बोको तेना धेषी छे, माटे या प्रकारे बोबेछे. आ मारा कंकणोतो शुष सुवर्णमय जे. माटे आ षी लोको नले देष बुषिथी कहे, पण हं तो तेनो त्याग करीश नहीं." आवं चिंतवी ते पुरुष सारा माणसोना वचनमा अनादर करी अने ते धूर्त सोनीना वचन उपर विश्वास राखी अशुध वस्तु पामीने उगायो अने शुछ वस्तुनो नोगी थयो नहीं. आ दृष्टांतनो उपनय आत्मा उपर आ प्रमाणे घटे ले. जे सुवर्णना केकणने ग्रहण करनार पुरुष ते धर्मार्थी जीव समजवो. जे धूर्त सोनी ते निन्हवादिक कुगुरु समजवा. जे पूर्व सुवर्णमय कंकणो बताव्या, ते अहीं प्रत्याख्यान, दान, दया आदि धर्मकृत्य बताववामां आवे ते समजबु वळी तेणे पोतानो विश्वास उपजावी पीतळना कंकण आप्या ते अहिं कुदृष्टिवके अनेक प्रकारना वचननी रचनावमे माणसना चित्तने विका करी एकांतवाद युक्त श्री अरिहं. तना धर्मनी विरुष समजाववानुं समजवू. ते पुरुष मिथ्यात्वथी व्युद्ग्राहित चित्तवालो होवाथी शुफ धर्मना उपदेशक एवा गुरुने धेषी जाणी तेमना वचनने मान्य करतो नथी. जेम पेस्रो मुग्ध पुरुष अशुछ सुवर्ण पामीने ठगायो , तेम मिथ्यात्वयी व्युद्ग्राहित चित्तवालो पुरुष अशुद्ध तत्त्व वस्तु पामीने उगायो समजवो. तेवो पुरुष आखरे उतिर्नु जाजन थाय ने अने पछी तेने सम्यग्धर्मरुप वस्तुनी प्राप्ति उर्सन थइ पो छे, माटे हे जव्य जीवो ! जो तमारे शुछ धर्म प्राप्त करवानी श्छा होय तो प्रथमथीज निन्हवादिक कुदृष्टिओना वचन उपर विश्वास करशो नहीं. श्रीमद् अर्हत्प्रणीत अनेकांत धर्मना उपदेशक एवा शुष गुरुना वचन उपर विश्वास करवो जेथी तमोने तत्काल परमात्मसंपत्ति प्रकट थशे. ए प्रकारे कुदृष्टिना वचनमा विश्वास राखवा उपर सुवर्णकंकण निर्मापकनो उपनय कहेवामां आव्यो. Jain Education Intemational Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ श्री आत्मप्रबोध. " इत्थं स्वरूपं परमात्मरूप-निरूपकं चित्रगुणं पवित्रम् । सुश्रावकत्वं परिगृह्य नव्या नजंतु दिव्यं सुखमक्यंच॥"१॥ " लेशादेशविरते विचार एषोऽत्र वर्णितोऽस्ति मया । अनुसाराद् ग्रंथस्योपदेशचिंतामणिप्रभृतेः " ॥२॥ हे नव्यो ! आ प्रमाणे परमात्माना रूपने निरुपण करनार अने विचित्र गुणवाळु पवित्र श्रावकपणुं ग्रहण करी तमे दिव्य एवा अदय मुखने जजो. १ उपदेश चिंतामणि वगरे ग्रंथने अनुसारे आ देशविरतिना स्वरुपनो विचार में संक्षेपथी वर्णन करी बताव्यो . २ इति श्रीमबृहत् खरतरगलाधिराज श्री जिननक्तिसूरिना. चरणकमळमां हंससमान श्री जिनसामसूरिए रचेला आत्मप्रबोध ग्रंथनो देशविरति नामे बीजो प्रकाश पूर्ण थयो. คลลลลลลลลลลล SannanAR ६ ॥ इति हितीयः प्रकाशः॥ Jain Education Intemational Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीय प्रकाश. ( सर्वविरति. ) त्रीजा सर्वविरति नामे प्रकाशना आरंभमां तेनी प्राप्तिना भेदने सूचना आर्या प्रमाणे - आ "( प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्कक्षयोपशमजवनात् । बनते मानव एतां देशविरतिमानविरतो वा " " देशविरति एटले पंचमगुणस्थानवर्ती पुरुष अथवा अविरति एटले प्रथम गुणस्थानवती अथवा चतुर्थ गुणस्थानवतीं पुरुष प्रत्याख्यानावरणीय नामना जीजा कषायनी चोकमोनो क्षयोपशम थतां सर्वविरतिने पामे छे. त्रिविध त्रिविध भांगाए करीने सर्व सावद्य योगयी जे निवृत्ति ते सर्वविरति कहेवाय बे. देवता, तिर्यच ने नारकी तथाप्रकारना जवना स्वनावने लइने ए सर्वविर तिने पामी शकता नयी, ते कारणथीज अहिं मनुष्यनुंज ग्रहण करेलुं बे. वली ए सर्वविरति देशविरतिनी प्राप्तिने अवसरे जविष्यमा थनार | कर्मनी स्थितिमांथी संख्याता सागरोपम खपाव्यायी प्राप्त कराय बे, ए प्रथम विस्तार पूर्वक दर्शा - oj . तथा स्थितिमान सर्व विरतिनुं तथा देशविर तिनुं पण जघन्यथी - तर्मुहूर्त्त ने उत्कर्ष देशोनपूर्वकोटीनं जाणं, एवा प्रकारनी छे सर्व विरतिछे जेने ते सर्व विरतिमान् साथ कहेवाय बे. आवा साधु छद्मस्थाने केवळी एम वे प्रकारना बे. तेमां जे मुनिराजा गुणगणाथी आरंजीने वारमा गुणस्थानवर्ती बे, ते बनस्थ कहेवाय छे। अने जे तेरमा अने चौदमा - ए वे गुणस्थाने वर्तनारा छे, ते केवळी Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. कहेवाय जे. तेमां आ त्रीजा प्रकाशने विषे उद्मस्थ साधुनो अधिकार आवेडे. अने केवळी के जे परमात्मरुप , तेमनुं स्वरूप चोथा प्रकाशमां कहेवाशे. अहिं प्रथम सर्व विरति अंगीकार करनार पुरुष स्त्री अने नपुंसकतुं योग्यायोग्यपणुं देखाझे . " अट्ठारसपुरिसेषु वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु । पव्वावणा अणरिहा, श्य आणला आहियासुत्ते” ॥१॥ " अढार पुरुषने विषे अने स्त्रीने विषे वीस तथा नपुंसकमां दश-दीका आपवाने अनला एटले अयोग्य सूत्रने विषे कहेला ," दीक्षाने विषे अयोग्य अढार पुरुषो आ प्रमाणे छे" बाले वुढे नपुंसेय कीवे जड्डेय वाहिए । तेणे रायावगारीय नम्मत्ते य अदंसणे" ॥ १ ॥ दोसे पुढे य मूढेय रुन्नत्ते जुंगिएहइय । नचट्टएयभयए सेह निप्फेमियाश्य ,, ॥२॥ जन्मथी आरंनी सात-आठ वर्ष सुधी बाल कहेवाय . बाल जेनो तेनो तिरस्कार करे तेथी अने तेनामां चारित्रना परिणामनो अनाव होय तेथी ते दीक्षाने अयोग्य छे. वली बालकने दीक्षा आपवाथी सयमनी विराधना थवा प्रमुख दोषो संचवे , जेथी ते बालक अज्ञानीपणे लोढाना गोळा जेवो . एटले जेम जेम ते चाले तेम तेम बकायना जीवोनो वध थवानो ते हेतुरुप बने . तेथी लोकोमा निंदा थाय छे के, “ आ साधुओ निर्दय के जेमणे आवा बासकने बलात्कारे दोकारुप बंदीखाने नांख्यो अने तेम करीने तेनी स्वाधीनतानो नच्छेद कों ." तेम वत्री माता प्रमुखनी करवा योग्य एवी परिचर्या करतां स्वाध्याय ( सकाय ) ध्याननो जंग थाय छे. अहिं प्रश्न करे ने के, ज्यारे वाबकने दीका अपाती न होय तो__ "छव्वरिसो पव्वश्ओ, निग्गंथराइकण पावयणं" Jain Education Intemational Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. [ इत्यादौषड्वार्षिकस्यातिमुक्तकुमारस्य ] " छ वर्पना अतिमुक्तकुमारनी दिवानी प्रतिपत्ति केम कहेवामां आवे ने ? आ प्रश्नना उतरमां कहेवायूँ के, अतिमुक्तकुमारने त्रिकालना ज्ञाता जगवान् श्री महावीर प्रनुए पोते दीक्षित करेन होवाथी तेमां कोइ जातनो दोष आवतो नथी. ते अतिमुक्तकुमारनुं वृत्तांत श्री अंतगम दशांग आदि सूत्रने अनुसारे अहिं आपवामां आवे जे अतिमुक्त कुमारनुं वृत्तांत. पोलासपुर नगरने विषे विजय नामे राजा हतो. तेने श्री नामे पटराणी हती. ते श्री राणीने अतिमुक्त नामे कुमार थयो हतो. ते कुमार बहु प्रयत्नवझे वृधि पामतो अनुक्रमे उ वर्षनो थयो. ते अस्सामां नगरनी बाहेर श्री वीरप्रनु समोसर्या ते वखते प्रथम गणधर गौतम स्वामी श्री वीरप्रनुनी अनुज्ञा लइ निदाने माटे नगरमां आव्या. आ समये राजकुमार अतिमुक्त कुमार वानकोनी साथे रस्तामां क्रीमा करतो हतो. ते गौतम स्वामीने देखी या प्रमाणे बोब्यो, “ तमे कोण बो ? अने शा माटे फरो को ? " गौतम स्वामीए का, “अमे साधु बोए अने भिकाने माटे फरीएबीए." तेमना या वचन सांजळी राजकुमारे कडुं, " हे पूज्य, आवो तमोने निदा अपा." आ प्रमाणे कही ते कुमार गौतम स्वामीनी आंगळीए वळगी पोताने घेर लइ गयो. ते वखते तेनी माता श्रीदेवी अति हर्ष पामती नक्तिपूर्वक श्री गौतम स्वामीने नमीपमी अने तेणीए नावथी गणधरने प्रतिमानित कर्या. ते वखते ते राजकुमारे आ प्रमाणे का, “ महाराज, तमे क्यां वसोछो ? " गौतमे कयु, "जे उद्यानमां अमारा धर्माचार्य श्री वर्षमान स्वामी बसे . त्यां अमे बसीए बीए." राजकुमार बोब्यो. " स्वामी, त्यारे हुं तमारी साथे त्यां आवं, अने तमारा धर्माचार्यने वंदना करूं. गौतमे कह्यु, " देवानुप्रिय, तमने सुख थाय तेम करो." ते पड़ी अतिमुक्त कुमारे गौतम स्वामीनी साथे श्री वीरप्रजुने वंदना कर . " पठी प्रनुए तेने धर्मोपदेश आप्यो. ते सांभळी अतिमुक्त कुमार प्रतिबोध पामी गयो. अने दीक्षा लेवान्नी इबाथी पितानी आझा लेवाने घेर आव्यो. तेणे घेर आ. Jain Education Intemational Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० श्री आत्मप्रबोध. " बी प्रमाणे माता पिताने कधुं, “हे माता पिता, में जे श्री वीरमनी पासे धर्म सांजो अने ते धर्म मने रुच्यो बे. त्यारे माता पिता बोब्या. “ पुत्र तने धन्य े. तुं कृतपुण्याने या लोकमां कृतार्थ थयो छे ; के जे तें श्री वी. म पासे धर्म सांजोने वली ते धर्म तने रुचिकर थयो. " कुमार बोल्यो. हे माता पिता, हुं ते प्रजुना मुखथी धर्म सांजली या संसारना नयथी उनि थइ गयो हुं. मने जन्म मरणनो अति जय बाग्यो बे ; तेथी तमारी आज्ञाथी हूं ते वीरमनु पासे दीक्षा लेवा इच्छा राखुं बुं. " ते अनिष्ट, अमनोश, अमिय पूर्वे नहि सांजलेल वचन सांजली तत्काल माता शोक सागरमां मन थ‍ गया. तेमनुं हृदय दीनवत् खेद पामी गयुं ने मन उपर ग्लानि प्रसरी गइ. तकाल ते पुत्रवियोगना जयथी मूर्च्छित या गृहना प्रांगणामां सर्वांगे पमी गया. ते वखते दासी सत्वर सुवर्णनो कलश लइ, ते कलशना मुखमांथी नीकलती शीतल ने निर्मल जननी धारावडे ते राणीना शरीरने सिंचन कर्तुं अने वायुनो उपचार कर्यो एटले ते राणी चेतनाने प्राप्त थया. तत्काल ते विलाप करता राणीए पुत्रने आ प्रमाणे कहुं, " हे पुत्र, तुं मारे एकज पुत्र े. इष्ट, कमनीय ने प्रिय बे. हे वत्स, अमूल्य रत्नना आचरणना कंमीया समान, हृदयने आनंद उपजावनार ने उंबराना पुष्पनी पेठे तुं दुर्लन बे ; माटे एक क्षणमात्र पण तारो वियोग सहन करवाने मे शक्तिमान नथी ; तेथी ज्यां सुधी अमे जीवीए त्यां सुधी तुंरमां रहे, ते पछी तुं सुखे करी चारित्र ग्रहण करजे. " माताना वां वचन सांगळी राजकुमार या प्रमाणे बोल्यो - " तमे कहो छो ते सत्य बे, परंतु या मनुष्यनव के जे अनेक जन्म जरा मरणवालो ने तेमज शरीर ने मन संबंधी अत्यंत दुःख - वेदना अने उपड़वोथी युक्त बे, ते अध्रुव - अनित्य बे. ते संध्याना वादलाना रंग सरखो, जबना परपोटा जेवो ने विद्युत् लतानी पेठे चंचल छे. शरीर के जे समन, पमन, विध्वंसन धर्मवाळु ने पेहेला अथवा पनी अवश्य त्याग करवा योग्य बे. aal विचार करो के, आपणामांथी कोण जाणे बे के परलोकमां पेहेलो कोण जो ? नेपछी को जशे ? तेथी तमारी आज्ञावमे हु हमणांज दीक्षा लेवाइछा राखुं बुं. माता, " राजकुमारना या वचनो सांजली माता पिता वोढ्या - " हे पुत्र, आ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३११ तारुं शरीर अतिशय सुंदर ने लक्षण - व्यंजन गुणोथी युक्त बे, तेमज अनेक प्रकारनी व्याधिरहित, सौभाग्यवालुं, उन्नत, मनोज्ञ, अने पंचेडियोथी शोभायमान छे, वत्स, तेथी तारे प्रथम शरीरना ते सौभाग्यादि सर्व गुणाने - नवी पछी योग्य वयवाला थइ दीक्षा ग्रहण करवी. " राजकुमार बोल्यो, “हे माता पिता, तमोर जे मारा शरीरनुं स्वरूप कही बतान्युं, ते मानव शरीर निवे को दुःखनुं घर, अने सेंकको व्याधिप्रोनुं स्थान रूप डे वल्ली ते अस्थिरुप काष्ठपिंजरवा, नसो तथा ओररूप जालथी वीटाएंलु, मृतिकाना पत्रनी पेठे 5बेल, अशुचि पुद्गलोथी उत्पन्न ययेनुं, " समन, परुन, विध्वंसन धर्मवाळु अप्रथम नेपाली अवश्य त्याग करवा योग्य बे ; तेथी कयो बुद्धिमान पुरुप तेवा शरीरने माटे राचे ? " माता पिता कां, “पुत्र, या तारा पूर्वज - वकिलोनी परंपराथी वेल - स्तीर्ण धन, सुवर्ण, रत्न, मणि, मोती, शंखरत्न, प्रवालां, प्रमुख स्वाधीन प्रधान दोलत ते सात पेढी सुधी गरीब प्रमुखने आपतां तां दय पामे ते न - थी, एवा व्यनो स्वेछा प्रमाणे उपभोग करने तारी मनोवृत्ति प्रमाणे चानारी नेता समान रूप लावण्यवाली घी राजकन्याने परणी तेमनी साधे आर्यकारक सांसारिक सुख जोगवी ते पछी तूं दीक्षा ग्रहण करजे. " प्रतिमुक्तकुमार बोढ्यो - " हे पूज्य माता पिता, तमोए जे अव्यादिकनुं स्वरूप कहुं, ते प्रव्य निचे करीने अग्नि, जल, चोर, राजा ने जागीदारो प्रमुख घणाने साधारण बे ने परिणामे अध्रुव े तेथी ते पण पेहेला - थवा पी अवश्य त्याग करवा योग्य थशे. जे मनुष्यसंबंधी कामजोगो बे, ते पण अशुचिअने अशाश्वत बे; ते साये वात, पित्त, कफ, शुक्र-वीर्य अने शोणित करनारा बे. अहं कामनोग शब्दयी वातपित्तादिकना आधारनूत एवा स्त्री पुरुषना शरीरो जाणवा. वल्ली ते अमनोज्ञ तथा दुगंग उत्पन्न करनारा मूत्र ने विष्टार्थी परिपूर्ण, निःश्वास अने उच्छासी दुर्गंधी, अज्ञान जनोए सेवित . संसारने वधारनारा होवाथी साधुजनने निंदनीय े. तेना फन वां कटु बे, तेथी तेवाओने माटे कोण पोताना जीवितने निष्फल करे ? " पुत्रना या वचन सांजली तेना माता पिता विचारमां पडी गया. ते Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. मणे विषयोने अनुकूल एवा घणां वचनोथी तेने लोनाव्यो, तो पण ते जरा पण मग्यो नहीं पठी तेने बोजावाने अशक्त थयेला माता पिताए विषयने प्रतिकूल अने संयमना जयने वतावनारा वचनो पा प्रमाणे कह्या--" वत्स, निग्रंथ संबं. धी जे प्रवचन जे. ते सत्य : सर्वोत्कृष्ट, शुष्मने, कम रुपी शव्यने तोमनार , मोक्ष मागनुं दर्शक डे अने सर्व सुःखोनो नाश करनार . ए प्रवचनने विषे स्थित एवा जीवो सिछिपदने पामे के; परंतु ए प्रवचन लोढाना चणा चाववा जे अत्यंत उष्कर जे. रेतीना कोलीया जेवू स्वादरहित जे अने नुजावळे महासभुनने तरवा जेवं मुष्कर जे. वत्री ते प्रवचन खड्गनी धार उपर चालवा जेवू, दोरमे बांधेत्री महा शिवाने हाथे धारण करवा जेवू . वत्स, वत्री साधुने आधाकर्मी, उद्देशिक आदि भोजन कल्पतुं नथी, ते तारा जेवा स्वादिष्ट भोजन बेनाराने शी रीते रुचिकर यशे ? पुत्र, तुं सदा सुखमा रहेनारो , सुःखमां रहेनारो नथी, तेथी साधुने सहन करवामां शीत, जण, क्षुधा, पिपासा, मंश, मशकना तया रोगादिकना परिसहो अने उपसर्गो सहन करवा समर्थ नयी तेथी तने प्रव्रज्या देवानी आझा आपत्राने श्वता नथी. " माता पिताना आवा वचन सांजली कुमार वोटयो- " हे पूज्य माता पिता, तमोए जे संयमनी 3 करता बतावी ते सत्य , परंतु ते पुरुषातन विनाना कायर पुरुषोने माटे छे चारित्रनी पुष्करता वीरपुरुषोने माटे नयी; जेओ आ लोकमां प्रतिबंधवाला, परलोकथी पराङ्मुख रहेनारा अने विषयोमा तृष्णावाला छे तेओने महाव्रत पुष्कर छे; परंतु जेत्रो धैर्यवाला, अने आ संसारना नयथी नहिन रहेनारा , तेओने ए महाव्रतनुं ग्रहण जरापण दुष्कर नथी माटे आप पूज्य वमिलनी आझाथी हुं दीक्षित थवाने इच्छु बुं." माता पिता बोब्या--" चाइ, ए खरी बात छे. परंतु तारे आवी हर न करवी जोइए. तुं वालक शुं जाणे ? " अतिमुक्त कुमारे कयु, " पूज्य माता पिता, जे हुं जाj , ते हुं नथी जाणतो अने जे हुं नथो जाणतो ते हुं जाणुं छु." पुत्रना आवा वचन सांनळी माता पिता बोल्या-" वत्स, आ तुं शुं कहे जे ? ते कांइ समजातुं नथी. ते अमोने स्पष्ट रीते समजाव्य." राजकुमार बोल्यो-" पूज्य, आ जगतमा जे Jain Education Intemational Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. जन्म्या तेमने अवश्य मरवू ले ते हुं जाणुं बु. परंतु तेमने कयारे कयां, केवी रीते अने केटोक काले मरवू छे ? ते ९ जाणतो नथी. तेमज केवा कर्मे करीने जीवो नरकमां उपजे जे ? ते मारा जाणवामां नथी पण तेत्रो पोताना करेला नगरा कर्मोथी नरकमां पमे , एम हुं जाणुं बुं." - अतिमुक्त कुमारना आ वचनो सांजली तेना माता पिता हृदयमां खुशी या गया. "श्रा पुत्र चारित्रमा स्थिर चित्तवालो ." एवी खात्री यतां तेमणे दीदा बेवानी आझा आपी. अने मोटा आवरथी तेनो दीक्षा महोत्सव कर्यो. राजकुमार अतिमुक्त स्नान, विलेपन तथा वस्त्रानूषणथी विजूपित था मातापितादि परिवारथी परितृत बनी सुंदर शिविकामां बेशी विविध वाजित्रोना ध्वनि साथे नगरमा फरवा निकटयो. ते समये अन्यना दाननी हा राखनारा चारण नाट वगेरे याचको आ प्रमाणे आशिष आपवा लाग्या-"राजकुमार, तमे धर्म अने तपथी कम रुपी शत्रुओनो जय करो. हे जगतने आनंद करनारा ! तमाएं सदा कट्याण थाो. उत्तम ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रवमे, न जीती शकाय तेवी इंडियोने जीतो, साधु धर्मनुं सम्यक प्रकारे पालन करो. अने निर्विघ्ने सिछिपदने प्राप्त करो." ___ आ प्रमाणे याचकोथी स्तवातो नगरना स्त्री पुरुषोथी आदरपूर्वक जोवातो अने अर्थी लोकोने ज्यादान आपतो ते अतिमुक्त कुमार नगरनी वाहेर नीकली ज्यां श्री वीरपत्नुनुं समवसरण हतुं, त्यां आव्यो. दूरथी शिविकामांथी जतरी गयो. पनी माता पिता तेने आगन्न करी श्री वीरप्रनुनी पासे आव्या अने वंदना करी आ प्रमाणे बोव्या-" जगवन , आ अतिमुक्त कुमार अमारो स्ट, मनोज्ञ अने एकनोएक पुत्र जे. जेम कमन कादवमाथी उत्पन्न थाय ने अने जो करी वधे ने पण ते कादव तथा जलनी साथे लिप्त यतुं नथी, तेम आ कुमार शब्द, रूप, लक्षणोए करी काममांयी नत्पन्न यत्रो डे, गंध, स्पर्श लक्षणवाला नोगमा वृधि पाम्यो छे, पण कामनोगमां के सगा स्नेहीअोमां सेपायो नथी. वली आ कुमार आ संसारना जयथी नग्नि थइ तमारी पासे दीक्षा सेवा श्छे जे, माटे अमो आपने आ शिष्यरुपी निक्षा आपीए जीए ते आप कृपा करी अंगीकार करो." Jain Education Intemational Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ श्री आत्मप्रबोध. प्रनु गंजीर स्वरथी बोव्या. " देवानुप्रिय, तमने सुख उपजे तेम करो. आ कार्यमां विलंब करशो नहीं. " नगवान् वीरानुना आ वचन सांजली अतिमुक्त कुमार खुशी थइ गयो. तत्काल तेणे मनुने त्राण प्रदक्षिणा करी अने वंदना करी इशान खूणामां आवी पोतानी मेले अंग उपरथी वस्त्राचरणो नतार्या. तेनी माता पुत्रना वस्त्राभरणो हंस चिह्नवाला कोमल रुमालमां लइ नेत्रोमांथी अश्रुधारा वर्षावता आ प्रमाणे बोट्या-" व्हानापुत्र, पामेला संयमयोगमां तमे प्रयत्न करजो. अने नहीं पामेला संयमयोगनी प्राप्तिने माटे घटना करजो. चारित्रने अखम रीते पालवामां तमारा पुरुषत्वना अभिमानने सफल करजो अने प्रमादनो तदन त्याग करजो." आ प्रमाणे पिताए पण कडं. पठ। बंने माता पिता प्रन्नुने वंदना करी पोतपोताने स्थाने चाव्या गया. ते पळो अतिमुक्त कुमार प्रजुनी पासे आव्या अने वंदना करी तेणे विधि पूर्वक दीक्षा ग्रहण करी. मनुए पंच महाव्रत ग्रहण करावी संयमना क्रिया कलापने शीखववा माटे गीतार्थ एवा स्थविर मुनिने तेने सोपी दीधा. ते पनी प्रकृतिए नषक अने विनयवान् एवा अतिमुक्त कुमार बालसाधुरुपे रहेवा लाग्या. एक वखते ते कुमार मुनि मोटो दृष्टि पमतां पोतानी काखमां पात्र अने रजोहरण लश् बाहेर आव्या; त्यां जलना प्रवाहने वेहेतो देखी बाल्य वयने सीधे तेमणे ते प्रवाहनी आमे माटीनी पाल वांधी पछी तेनी अंदर रमत करवाने पोतार्नु पात्र वहाणनी जेम तरतुं मुक्यु. आ देखाव स्थविर मुनिमोना जोवामां आव्यो, एटने ते बाल मुनिनुं उपहास्य करता ते मुनिओए प्रनुनी पासे आवी आ प्रमाणे पुग्युं, “ जगवन्, तमारो अतिमुक्तकुमार शिष्य केटले जवे सिद्धिपदने पामशे ? " महाज्ञानी प्रनु आ प्रमाणे बोट्या-" आर्यो ! ए मारो शिष्य आ नवमांज मोक्ष पामशे. तेथी तमारे ए बाल मुनिनुं उपहास्य न करवू. तेनी चेष्टानी निंदा के गर्हणा न करवी. तेमज अपमान न कर. जज देवानुप्रिय, तमारे ए मुनिने खेदरहितपणे अंगीकार करवा अने तेनो उपकार करवो. ते साये नात पाणीयो अने विनयथा तेनी वैयावच्च करवी. ते बालमुनि आ संसारनो अंत करनार चरम शरीरी जे." प्रजुना आवा वचन सांगली ते मुनिओए वंदना करी प्रनुनुं वचन अंगीकार कर्यु अने अतिमुक्त कुमारने खेद. रहित ग्रहण कर्या. अने तेनी वैयावच्च करवा मांझी. ठेवटे ते अतिमुक्त कुमार Jain Education Interational Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३१५ पापस्थानने लोवी, अनेक प्रकारनी तपश्चर्या कररी संयमनुं आराधन करी अंतगम केवली याने परम सिद्धिपदने प्राप्त थया हता. या वृत्तांतनो संबंध अंतर दशांग नामना आठमा अंग तथा जगवतीजी - पांचमा अंग प्रमुख सूत्रोने आधारे कहेलो . आ प्रकारे बालवयनी दीक्षा उपर अतिमुक्त मुनिनो वृत्तांतकडेवामां आव्यो. जे साठ तथा सीतेर वर्ष उपरांतना पुरुषो वृद्ध कहेवाय बे, तेमनुं पण समाधानादिक करं अशक्य बे माटे तेवा पुरुषो दीक्षाने अयोग्य बे. तेने माटे कहां के, “ उच्चारणं समीहर, विषयं न करेइ गव्वमुव्वह । बुढो न दिकियव्वो, जइ जाओ वासुदेवेां " ॥ १॥ " जे वृद्ध होय ते उंचा आसनने इछे छे, विनय करतो नथी ने गर्व धारण करे बे तेथी कदि ते वासुदेवनो पुत्र होय तो पण वृद्ध पुरुषने दीक्षा आपवी नहीं. " ? आपणं सो वर्षना आयुष्यनी अपेक्षाए छे. जेटलं उत्कृष्ट आयुष्य होय तेने दश जागे वेंची पछी शमां जागमां वर्तताने वृद्धपणं जाणं. १-२ स्त्री तथा पुरुष - ननयनो अभिलाषी ने पुरुषनी आकृतिवाल पुरुष नपुंसक जाणवो. जे स्त्री वमे निमंत्रित थलो होय अथवा संवृत्त स्त्रीने देखीने कामाभिलाषी थड़ वेदना सहन करवाने शक्तिमान् न थाय, ते पुरुष क्लीब कहेवाय बे. - आ बने उत्कट वेदपणाथी अकस्मात् उड्डाहने करनारा थाय तेथी दीक्षा व्यापवाने योग्य वे. ४ अथवा जे जे का मानवमा के द to पुरुष ऋण प्रकारना बे. १ भाषाजम, २ शरीरजम ने ३ क्रियाजड. मां जाषाज पण त्रण प्रकारना बे. १ जलमूक, २ मन्यन्मूक, अने ३ एकमूक. जे जलने विषे मुबता - नी जेम ' बुबुम' शब्दो करे ते जलमूक कहेवाय बे. जे वचन बोलतो बोलतो स्खलना पामेते एटले ' मण मण ' एवा शब्दो बोले ते मन्मन्मूक कहेवाय छे. अ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ श्री आत्मप्रबोध. ने जे बोकमानी पेठे मात्र अव्यक्त शब्दो बोले ते एडमूक कहेवाय जे. जे शरीर जम पुरुष जे, ते अति स्थूलपणाने लइने मार्गमां, निदाटन करवामां अने वं. दनादिकमां अशक्त होय छे. जे क्रियाजम ते प्रतिक्रमण तथा प्रत्युपेक्षणादि क्रियानो वारंवार उपदेश कर्या उतां पण जडपणाने लाने ग्रहण करवाने शक्तिमान् थतो नथी. अने जे जापाजम ते ज्ञान- ग्रहण करवाने असमर्थ थाय . आथी तेवा पुरुषो दीक्षा आपवाने योग्य नथी. ५ वली जे कोढ, जगंदर अने अतिसार वगेरे रोगोधी ग्रस्त थयेलो होय, तेवो व्याधिग्रस्त पुरुष पण दीक्षाने योग्य नथी. कारण, तेने चिकित्सा करवामां छ कायनी विराधना अने स्वाध्यायादिकनी हानि थाय . ६ खातर देवू, बुंट करवी इत्यादि चोरीनी क्रियामां तत्पर एवो चोर जो दीक्षा ग्रहण करे तो तेथी गबने वध बंधनादि घणा अनर्थोनो हेतु थाय ने तेथीते दीका आपवाने अयोग्य . ७ राजाना शरीरादिकनो घात करनार, जनानामां घातकपणुं आचरनार, अने राजनंमारने हानि करनार तेमज राजानो कांपण अपकार करनार पुरुष अनर्थनो हेतु होवाथी दोहा आपवाने योग्य नथी. ७ यज्ञादिकथी अथवा महामोहना नदयथी जेने गांमापणुं थयु होय, तेवो पुरुष घणा दोपोनो हेतु होवाथी दीक्षा आपवाने अयोग्य जे ए अदर्शन एटले नेत्र वगरनो अथवा सम्यक्त्व वगरनो. थिणछि निघाना उदयवालो पुरुष दिक्षित करवाथी दृष्टिनी विकलताने लश्ने पगले पगले षदकाय जीवोनो विराधक थाय ने अने पोतानो पण जपघातक बने जे.थिणी निघावाळो पुरुप वेपने पाम्यो होयतो गृहस्थो तथा साधुओने मारणादिक करे ने तेथी तेवो पुरुष दीक्षा आपवाने अयोग्य छे. १० दास एटले घरनी दासीथी उत्पन्न थयेस्रो अथवा पगारथी राखेस्रो, वेचाती बोधेलो के लेणापेटे राखेसो पुरुष ते पुरुष पण दीक्षा आपवाने अयोग्य . कारणके, तेवा पुरुषने दीक्षा आपवाथी स्वामीना करेला दीक्षाना त्याग करखा रुप दोषो थवा संनव . ११ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश पुष्ट पुरुष वे प्रकारना . १ कषायउष्ट अने २ विषयउष्ट. तेमां गुरुए ग्रहण करेल सर्पवनी नाजीना वृत्तांतथी रीसाएला साधुनी जेम जे उत्कट कषायी होय ते कषायउष्ट कहेवाय . तेम जे परनारी आदिमां अतिशय आस क्त रहे ते विषयउष्ट कहेवाय . तेवा पुरुषो दीक्षा आपवाने अयोग्य , काकारणके तेश्रो अत्यंत संक्लिष्ट अध्यवसायी होय . १२ ___ स्नेह एटले अज्ञानादिकना क्शथी तत्त्वज्ञानवझे शून्य हृदयवानो ते मूढ कहेवाय. ते कृत्याकृत्यादि विवेकथी विकल होवाथी विवेकमूल एवी अरिहंतनी दीकाने अयोग्य छे. १३ ऋणात--एटले देवादार, तेने दीक्षा आपवामां घणा प्रसिक दोषो ने. १४ मुंगित एटले जातिए करीने, कर्मे-क्रियाए करीने अने शरीरादिके करीने दूषित एवो पुरुष जुंगित ए नीच जातिनो पुरुष के. चमार, धोबी, कोळी, मोची आदि जे अस्पृश्य , ते बधा जुंगितमां गणाय जे. तेओ जाति चंमाल पण कहेवाय . ते शिवाय स्त्री, मोर, कुकमा अने शुक आदिना पोषण करनारा स्पृश्य में, बतां तेपण जातिचंडाल कहेवाय . वांस, दोरमा, उपर चमनारा, हजाम जातिना, कसाइपणुं अने पारधिपणुं आचरनारा कर्मचंमाळ कहेवाय जे. जेओ पांगला, कुवमा, उींगणा अने काणाप्रमुख ने तेश्रो शरीर जुंगित कहेवाय जे. तेवा पुरुषो दीक्षा आपवाने अयोग्य जे; कारणके, तेवाओने दीक्षा आपवाथी लोकोमा अवर्णवाद थवानो संचव जे. १५ अव्य ग्रहण करवा माटे अथवा विद्या निमित्ते ' अमुक दिवस हुं तमारो बुं' आ प्रकारे जेणे पोतानी पराधीनता करेली होय ते अवबफ कहेवाय . तेमां कलह आदि दोषोनो हेतु रहेरो छे, तेथी ते दीक्षा आपवाने अयो जे अमुक व्य-पगारथी धनवंतनी आज्ञा उगववा नीमाएलो होय ते भृत कहेवाय , तेपण दीक्षा आपवाने अयोग्य जे; कारणके, तेवाने दीक्षा आपवाथी जेना कार्यमां पूर्वे ते निमाएलो होय, ते गृहस्थनी अप्रीतिनो ते पात्र बने ने. १७ Jain Education Intemational Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. जे दीक्षा लेवा उत्सुक होय तेनुं अपहरण करवू, एटले जेनो दीक्षा लेवानो नाव होय तेने बुपी रीते वीजे लइ जवो-उपलक्षणथी माता पितादिकनी आज्ञा वगर जेने दीदा आपवी, ते शैदयनिष्फेटिका कहेवाय जे. तेवाओ पण दीक्षा आपवाने अयोग्य जे; कारणके, तेवाओने दीक्षा आपवाथी अदत्तादानादि दोषनो प्रसंग आवे जे. १७ ___ आ प्रमाणे आ अढार पुरुषो दीक्षादानने अयोग्य कहेवाय जे. तेवाओमां पण वज्रस्वामीनी पेठे केटलाएकने दीक्षा आपवानी आझा करेली . स्त्री जातिने विषे पण वीश दीक्षा आपवाने अयोग्य ने. "जे अचारसनेया पुरिसस्स तहिनिाश्ते चेव ।। गुम्विणी' सबालबच्छा उन्नि श्मे हुँति अन्ने वि" ॥१॥ जेम पुरुषना अढार नेद कहेला ने, तेवाज स्वीना पण अढार नेद . सेमा गुर्विणी एटले सगर्ना अने स्तनपान करनारा नाना बालकवाली ते बालवसा-ए वे जेद मेलववाथी स्त्री जातिना वीश नेद थाय ." ? पूर्वाक्त ते वीश स्त्रीोना जेद छ ते दीक्षा आपवाने अयोग्य ने. तेमने विषे दोष पण पूर्वनी पेठे समजी बेवा. नपुंसकना सोळ नेद. आगमने विषे नपुंसकना सोल नेद कहेला डे; तेमा दश नेद सर्वथा दीक्षा आपवाने अयोग्य जे; कारणके तेमां अतिशय संक्लिष्टपणुं रहेन . ते आ प्रमाणे पंमए वाइए कीवे। कुंनीइसानु एश्य ॥ सउणी तकम्मसेवीय । पखिया पकिएश्य ॥१॥ सोगंधिए अ आसत्ते दसएए नपुंसंगा ॥ संकिलठत्ति साहणं । पव्वावडं अ. कप्पिया ॥२॥ (१) पंझक (२) वातिक, (३) क्लीब (४) कुंजी (५) इर्ष्यालु (६) शकुनी (७) तत्कर्मसेवी (0) पाक्षिकापाक्षिक (ए) Jain Education Interational Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३१॥ सौगंधिक (१०) आसक्त ए दश नपुंसक संक्लिष्ट चित्तवाला होवाथी साधु ओने दीक्षा देवाने अयोग्य छे, ते सर्वनुं संक्लिष्टपणुं महानगरदाह समान कामना अध्यवसाय युक्तपणावडे स्त्री पुरुष सेवन आश्रीने होय छे. केमके ते उजय सेवी छे. तेमनुं स्वरुप निशीथ भाष्यथो तथा प्रवचनसारोघारथी जाणी से. अत्र प्रश्न थाय छे के पुरुषना नेदमां अने अत्र नपुंसक कहेला छे तेमां शुं विशेष छ ? उत्तरमां कहेवामां आवे छे के त्या प्रथम पुरुष आकृतिनुं ग्रहण डे अने अत्र नपुंसक आकृतिनुं ग्रहण -ए विशेषपणुं . तेमज स्त्रीने विषे पण समजवू. हवे सोळ जेदमां बाकी रहेला छ लेद दीक्षाने योग्य ते दावे . " वधिए चिप्पिएचेव मंतयो सहिउवहे। सिसते' देवसत्ते य पवावेज नपुंसए " ॥१॥ १ राजा अंतःपुरनी रक्षा माटे उत्तर कालमां बाल अवस्थामां बेद आपी जे पुरुषना चिह्नने गाळी नांखे छे ते वर्षक नपुंसक कहेवाय छे. ५ जन्म पामतांज अंगुठाथी अथवा आंगळीथी जेनुं पुरुष चिह्न खेरवी नखाय अथवा वीवरी नखाय ते चिप्पित नामे नपुंसक कहेवाय छे. ३-४ जेने मंत्रनी शक्तिथी अथवा औषधना प्रनावी पुरुष वेद अथवा स्त्री वेद हणतां नपुंसक वेद उदय थाय ते बे प्रकारे नपुंसक कहेवाय छे. ५ को ऋषि के तापसे शाप आपवाथी जे नपुंसक थयेलो ते ऋषिशप्त नपुंसक कहेवाय छे. ६ जे कोइ नुवनपति वगेरे देवताना शापथी नपुंसक थयेस्रो होय ते देवशप्त कहेवाय जे. आ छ प्रकारना नपुंसकोने दीक्षा आपी शकाय छे. ___हवे अढार, वीश अने दश नेदथी व्यतिरिक्त एवा पुरुष स्त्री अने नपुंसकने विषे जे सर्व विरति अंगीकार कराय छे, ते कहे - " अमंदवैराग्यनिमग्नबुझ्यः तनकृताशेषकषायवैरिणः । ऋजुस्वभावाः सुविनीतमानसा भजति भव्या मुनिधर्ममुत्तमम्"१ Jain Education Intemational Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० श्री आत्ममबोध. " जेमनी बुद्धि तीव्र वैराग्यमां निमग्न थयेली छे, जेमणे कषायरुपी सर्व शत्रुने सूक्ष्म कर दीधा बे, जेमनो स्वभाव सरल छे ने जेमणे पोताना मनने अनुकूल करेलुं बे, एवा जन्य प्राणी उत्तम एवा मुनिधर्मने भजे बे." १ लोकमां अमंद वैराग्य ए विशेषण आपलं बे, ते उपरथी सिक या छे के रोगादिजन्य एवा कण मात्र रहेनारा वैराग्यवमे कां पण सिद्धि थती नथी, एम सूचयुं बे. 66 वळी कांबे के, - -- रोगेण व सोगेण व, डुकेण व जं जमाण उल्लस । मग्गति न वेरग्गं तं विबुहा अप्पकालंति " ॥ १ ॥ सुदिअस्सव्व हिस्सव, जं वेरग्गं नवे विवेषणं । पायं प्रपञ्च्चयंवा, तं चिय चारिततस्बीत्र्यं " ॥ २ ॥ “ तेवा वैराग्यने पंति पुरुषो मागता नथी के जे वैराग्य निर्विवेकी पुरुषोने कासश्वासादि रोगथी, पुत्र वियोगादि शोकथी ने वध बंधादिकना योगथी उत्पन्न थाय बे. वळी या सारसंसारने धिक्कार बे, कारण के, रोग, शोक यदि घणां कष्टो मां रहेला छे एवी विचारणामय वैराग्य जेमां उल्लास पामे वा वैराग्यने पंदित पुरुषो इच्छता नथी, जेथी तेवं वैराग्य सर्व विर तिने अयोग्य बे. १ तेवा वैराग्यनी योग्यता शाथी थाय छे ? ते कहे बे-तेवा वैराग्यनुं प काल सुधी स्थायीपांडे, तेमज रोगादिकनी निवृत्ति थतां तेवा वैराग्यनी पण निवृत्ति थइ जाय बे, माटे उत्तम बुद्धिवाला पुरुषोए तेयुं वैराग्य इच्छवा योग्य नथी. अहीं प्रश्न करे छे के, “त्यारे सर्व विरतिने योग्य केवं वैराग्य होय ? " तेना उत्तरमां कहे छेके, सुखी अथवा दुःखी जनने जे वैराग्य थाय, तेवंज वैराग्य अनश्वर होय, कारण के, विवेकना मूलपणाने लइने सर्व दुःखादिकनी निवृत्ति थतां वैराग्य पण निवृत्ति पामतुं नथी, तेथी ए वैराग्य चारित्ररूपी वृहने उत्पन्न करवानुं कारण बीजरूप बे. अहिं चारित्रने छनी उपमा आपली छे, ते सम्य Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३१ क्वरुप मूलथी, प्रथम व्रतरुप स्कंधथी, शेष-बाकीना व्रतरुप शाखाओथी, प्रशमादिक प्रशाखाओथी, सकल क्रियाकलापरुप प्रवाळांथी, बबिछो रुप पुष्पोथी अने मोक्षरुप फलथी बराबर घटे ले. तेनी अंदर जे प्रायः शब्द मुकेलो छे, तेथी व्यभिचार बतां दोष आवतो नथी; कारण के, ते नंदीषेण वसुदेवना पूर्व नवना जीव , ते अति कुरूपपणाथी स्त्रीवमे अनादर करातां मनने विषे अत्यंत दुःख पामता अविवेकथी पण अविनाशी वैराग्यने पामेला हता. १-२ दश प्रकारनो यतिधर्म. " खंती १ मदवश अज्जव ३ मुत्ती तव ए संजमेय ६ बोधव्वे। सच्चं ७ सोयं आकिं-चणंच ए बंन्नं १० च जश्धम्मो” ॥१॥ “१ दांति-एटले सर्वथा क्रोधनो परित्याग, २ मृता-सर्वथा माननो त्याग, ३ सरलता-सर्वथा कपट वृत्तिनो त्याग, ४ निर्मोजता-सर्वथा लो. भनो त्याग, एथी मुनिओए प्रथम चार कषायनो जय करवो, एम सूचव्यु छे. कषायो जनयलोकमां प्राणीओना स्वार्थनो विनाश करनारा छे. कडं डे के, " कोहो पाई पणासे माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेश् लोदो सव्व विणास ॥१॥ कोहो नाम मणुसस्स, देहाओ जायए रिऊ । जण चयंति मित्ताइ धम्मो य परिजस्सई॥२॥ नासियगुरूवएस विजाअहलत्त कारणमसेसं । कुग्गहगयासाणं को सेवा सुव्वों माणं ॥३॥ कुडिलग कूरमश सयाचरणवजिओ मलिणो । मायाइ नरो नुअगव्व दिमित्तो वि जयजणो ॥an किच्चाकिच्च विवेयं हण जो सया विझवणानं । तं किरनोहपिसायं को धीमं सेवए लोए " ॥५॥ " क्रोध प्रीतिनो नाश करे , मान विनयभंजक , माया मित्रोनो विनाश करनारी छ अने लोन सर्व विनाश उत्पन्न करनार " (?) ४१ Jain Education Intemational Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ श्री आत्मप्रबोध. “क्रोध मनुष्यना शरीरमाथी उत्पन्न थयेलो शत्रु छे. जेना सदनावणी मित्रो ( संग ) तजी दे छे अने धर्म दूर जाय छे. (२) .. "जेणे गुरुना उपदेशग्रहणनो विनाश करेलो छे, जे समस्त विद्याने निष्फल करवाने कारणचूत , जे कुग्रहरुप हस्तीने बांधवानुं स्थान ने तेवा मानने कोण सदाचरणी पुरुष सेवे ? " (३) मायावी मनुष्य वक्रगतिवालो, क्रूर बुछिवालो, सदाचरणवर्जित, मलि न, अने सर्पनी पेठे दृष्टिमात्रथी नयने नत्पन्न करनार होय " (४) “जे कृत्याकृत्यना विवेकनो विनाश करे , जे सर्वदा विमंबनाना हेतुनूत ने, तेवा लोजरुप पिशाचने कयो बुद्धिमान पुरुष सेवे ?" (५) वली बीजा सर्व मोक्षना अंगोने विषे कषायनो त्याग ते पण मोदनुं एक मुख्य अंग जे ते विना कदिपण मोदनी प्राप्ति थती नथी. तेने माटे कयुं छे के, "कट्ठ किरियाहिं देहं दमंति किं ते जमा निरवराहं । मूलं सव्व दुहाणं, जेहिं कसाया न निग्गहिया" ॥१॥ “जेमणे कषायोनो निग्रह कों नथी एवा पुरुषो कष्ट क्रियाओ करी सर्व सुखना मूलरुप एवा निरपराधी देहने दमे तेओ जम पुरुषो जे." ? “ सव्वेसुवि विसु कसायनिग्गहसमं तवो नथ्थि । जं तेण नागदत्तो सिघो बहुसो वि लुतो" ॥ १॥ "सर्व प्रकारना तपमां पण कषायोनो निग्रह करवा रुप तपना जेवू बीजं तप नथी, जे तपना प्रनावथी नागदत्त घणीवार जोजन करतो पण सिफथयो हतो." १ नागदत्तनुं बीजं नाम कुरगडु साधु कहेवाय जे. ते दररोज त्रण प्रणवार जोजन करतो, पण केवल कषायना निग्रहना बनथी केवळझाननी लक्ष्मीने प्राप्त थयो हतो. ए नागदत्तनी कथा प्रसिधछे तेथी आ स्थो दर्शावेल नथी. ___ हवे अपवाद मार्गने आश्रीने अहीं विशेषपणे देखाडे जे. "यः शासनोड्डाह निवारणादि--सधर्मकार्याय समुद्यतः सन् । तनोति मायां निरवद्यचेताः प्रोक्तः स चाराधक एव सुझैः"१ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. "जे मुनि शासननी निंदानुं निवारण करवा वगेरे सारा धर्मकार्योने माटे नजमाल था निर्दोष हृदये मायाने विस्तारे , तेवा मुनिने सुझ पुरुषोए आराधक कहेलो छ. " ? कहेवानो आशय एवो छ के, जे मुनि शासननी निंदा अटकाववाने माटे माया-कपट आचरे ते मुनि शासनना आराधक गणाय छे, विराधक गणाता नथी; कारणके, शासननी अपभ्राजना निवारवाथी पोते आचरेता मायाकषायना लेशनी आलोचना करी तेश्रो शुष थइ शके . वनी सिद्धांतमां पण नवमा गुणस्थान सुधी संज्वलन मायानो उदय कहेलो छे, ते उपर एक दृष्टांत कहेवामां आवे छे. मायाकषाय विषे दृष्टांत. कोइ एक नगरमा एक मिथ्यात्वी राजा राज्य करतो हतो. तेनी राणी जैनधर्म जपर परम रागवती हती. बनेनी वच्चे अत्यंत प्रीति हती. तेओनी बच्चे वारंवार धर्मनी चर्चा थती हती. एक वखते ते मिथ्यात्वी राजाए विचार कर्यो के, “जो हुं कोई रीते आ राणीना धर्मगुरुनो अनाचार प्रगट करी बतायूँ तो राणी मौन थइने रहेशे." आ प्रमाणे विचारी राजाए तेनो उपाय योजवा माटे पोताना नगरनी पासे आवेला एक चमिकाना पूजारीने बोलावी आ प्रमाणे कयु-" जो कोइ जैनमुनि आ चंमिकाना मंदिरमां रात्रे निवास करे, त्यारे तमारे कोइ वेश्याने मंदिरमा राखी हार बंध करी देवा अने तत्काल मने ते खबर आपवा." आ प्रमाणे राजानी आझा ते पूजारी अंगीकार करी पोताने स्थाने गयो. एक दिवसे कोई जैनमुनि चंमिकाना मंदिरमा आवो चमया. ते वखते तेणे वेश्याने अंदर पूरी घार बंध करी दीधा. पछी तेणे राजाने ए वात निवेदन करी. राजाए कहूं, " हवे ज्यारे हुं त्यां आएँ, त्यारे तमारे ते घार उघाडवां." राजानां आ वचनने अंगीकार करी पूजारी पोताने स्थाने आव्यो. अहीं मंदिरमा पूराएला जैनमुनिए चिंतव्यु के, “ कोई मिथ्यात्वीए क्षेष बुषिथी मने आ उपसर्ग करेखो , माटे मारे आ उपसर्गने सम्यक् प्रकारे सहन करवो. हुं आ उपसर्गने सहन करीश पण प्रभाते अहीं आवनारा लोकोमा मारा निमित्ते जिनमतनी निंदा थशे, तेथी आ निंदा दूर करवा माटे हुं को उपाय Jain Education Intemational Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ श्री आत्मप्रबोध. आचरुं, ” आ प्रमाणे चिंतवी तत्काल उत्पन्न थयेली बुद्धिषमे तेणे ते मंदिरना मध्य जागे रहेला दीपकना मिथी पोताना वस्त्रादिक सर्व उपकरणाने बाळी तेनी रक्षा करी. ते रक्षार्थी तेणे पोतानुं सर्व शरीर चोयुं अने रजोहरणम रबी लाकडी हाथमां ग्रहण कर जे खुणे वेश्या हती तेनाथी दूर मंदिरने बीजे खूणे ते निश्चितपणे बेठा. मुनिनुं वं नयानक स्वरूप जोइ वेश्या मनमां जय पामी गइ अने ते मौन धरीने एकांत जागे बुपाइने बेशी गइ. प्रातःकाले राजा जैन मुनिना अनाचार देखामवानी इच्छाथी नगरना मुख्य लोकोने प्रति आग्रह करी चंकिकाना मंदिर पासे लाव्यो. नगरना श्रेष्ठी शाहुकारो सहित राजा मंदिर पासे आव्यो अने देवीना पूजारीने कथं, “पूजारी, आ धारना कमाम उघाट, अमारे माताना दर्शन करवां बे. " राजाना आवा वचनथी पूजारीए मंदिरना द्वार उघाड्यां, तेवामां ते जैनमुनि हाथमां लाकडी नइ नग्न स्वरूपे ' लख लख एवा शब्दो करता अंदरथी बाहेर नी कल्या राजा वगेरे सर्व लोकोनी बच्चे यह बीजे स्थाने चाव्या गया; तेनी पाबळ वेश्या पण बाहेर नीकली. राजा पोतानाज धर्मना गुरुनुं यतुं दुःस्वरूप जोइ अतिशय शरमा गयो अने नम्र मुखे जो रह्यो. " या वखते राणी बोली, “स्वामी, शी चिंता करो हो ? मिध्यात्वनी विडंबनाए करी प्राणीने शीशी चिंता उत्पन्न थती नथी. ? " आ वखते राजाए उठी पोताने स्थाने यावी पूजारीने क्रोधथी ते बनाव विषे पूज्यं, त्यारे तेणे कयुं, “स्वामी, आपना कहेवा प्रमाणं में कर्यु दतुं, ते बतां आम विपरीत बन्युं, ते विषे हुं कांइ पण जाणतो नयी. पबी राजाए ते वेश्याने बोलावीने पूछयुं, त्यारे वेश्याए ते सर्व वृत्तांत राजाने निवेदन कर्यो ने जैनमुनिना धैर्यनुं वर्णन करी ता. पक्षी राजा ते वृत्तांत सांजळी राणीना वचनथी प्रतिबोध पामी सम्यक्त्ववंत श्रावक बनी गयो हतो. पेला मुनि फरीथी मुनिवेष धारण करी पोते करेल मायाकषायना स्थानकने लोवी ने शुद्ध संयमने आराधी छेवटे उत्तम गतिना जाजन थया हता. या प्रमाणे शासननो नड्डाह निवारखा विषे माया करनार मुनिनो दृष्टांत बे. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३२५ तपस्यानुं स्वरूप. तप वे प्रकारनुं . १ बाह्य अने २ आत्यंतर. ते प्रत्येक उ उ प्रकारना ने, तेने माटे आ प्रमाणे कहेढुं - “अणसणमुणोअरिश्रा, वित्तिसंखेवणं रसच्चा । कायकिलेसो संत्रीण, याय बद्यो तवो होइ " ॥ १ ॥ " अनशन एटले आहारनो त्याग-ए वे प्रकारे ने. १ इत्वर अने २ यावत्कथिक. श्रीवीरतीर्थे नमुक्कारसहिथी लश्ने उ मास पर्यंत अने प्रथम मिनना तीर्थमां वर्ष पर्यंत अने शेष जिनोना तीर्थमा आठ मास पर्यंत होय . बीजें यावत्कथिक.-१ पादपोपगमन, २ इंगितमरण अने ३ भक्तपरिज्ञा-एम त्रण प्रकारे बे. तेमां नक्तपरिझामां त्रिविध अथवा चतुर्विध आहारना पञ्चरखाण अने शरीरनी परिकर्मता (शरीर संबंधी वैयावच) पोते करे अथवा बीजा पासे करावे. बोजा इंगितमरणमा निश्चे चतुर्विध आहारनो त्याग अने वीजाथी परिकर्म-वैयावचनुं वर्जन होय , अने पोते पण पोताना कल्पना देश भागमां उछ नादिक परिकर्म करे ले. त्रीजा पादपोपगममां वृदनी पेठे पोताना अंग तथा उपांग ने सम अथवा विषम प्रदेशने विषे जेम प्रथम पमयुं होय तेम धारण करी निश्चल थइ रहेवानुं छे, एटले वृदनी शाखानी जेम पासु बदट्या वगर पमयुं रहेवानुं . ऊनोदरी प्रमुखनुं स्वरूप. " बत्तीस किरकवता-हारो कुचिपूरओ नणिो । पुरिसस्स महिलयाए, अठ्ठावीसं नवे कवला" ॥१॥ " जे बत्रीश कवळ-कोलीयानो आहार ते कुक्षिपूरण आहार कहेलो , तेमां पुरुषना बत्रीश अने स्त्रीना अठ्यावीश कोलीया कहेला . आ प्रमाणे आहारनुं मान संदेपरुपे जाणी ले. वृत्ति-निदाने अव्य, क्षेत्र, कान अने नावथी अनिग्रह विशेषवढे संकोचवी ते वृत्तिसंक्षेप कहेवाय डे अथवा आजीविका संक्षेप कहेवाय छे. दही, दूध, वगेरेनो परिहार ते रसत्याग कहेवाय छे. तेमज Jain Education Intemational Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ श्री आत्मप्रबोध. कायार्नु आसन बांधवू अथवा लोचादिकथी कायाने क्लेश आपवो ते कायक्लेश कहेवाय . जे इंजिओनी गुप्तता ते सलीनता कहेवाय जे. एटले इंजिय, कपाय अने योगवने संकीर्ण तेमज स्त्रीपशुपंमकादि वर्जित स्थाने रहे, ते संबीनता कहेवाय जे. एउ प्रकारना तप बोकोमा प्रवर्ने ने, वनी केटलाएक कुतीथिो पण ए तप आचरे में, तेथी ते बाह्य तप कहेवाय . आत्यंतर तपना प्रकार. " पायच्छित्तं विणो, वेयावच्चं तदेव सज्माओ । काणं नस्सग्गोवि अ, अप्नितर तवो होइ” ॥१॥ " १ प्रायश्चित्त, ५ विनय, ३ वैयावृत्य, ४ स्वाध्याय, ५ ध्यान अने ६ कायोत्सर्ग-ए उ प्रकार- आत्यंतर तप कहेवाय ." १ प्रायश्चित तपना दश प्रकार. " आलोयण पडिकमणे, मीसविवेगे तहावि नस्सग्गो । तवच्छेय मूल अणवठ्ठ-याय पारंचिय चेव" ॥१॥ १ आलोचना-एटले गुरुनी आगळ पोतानुं दुष्कृत वचनथी प्रगट करवं. २ प्रतिक्रमण-एटले लागेला दोषयी पार्छ फरवू-फरीथी ते दोष न करवाने माटे मिथ्या पुष्कृत आपy पण गुरु समक्ष न आलोचवू, अनुपयोगपणे श्लेष्मादिकना प्रदेपनी जेम. ३ मिश्र-जे पुष्कृत आ बंनेथी शुफ न थाय तो तेनी शुधिने अर्थे आ लोचना अने प्रतिक्रमण ए बने करवा ते. ४ विवेक-जे आधाकर्मादि आहार ग्रहण करवा प्रमुख के जे अकृत्यपणे ग्रहण करेला आहारादिकनो त्याग करवाथी शुफ थाय , ते शिवाय बीजी रीते शुकि थती नथी, ते शुधिने अर्थे जे आहारादिकनो परित्याग ते विवेक कहेवाय . ५ व्युत्सर्ग-दुःस्वप्नथी उत्पन्न थयेन दोपनी शुछिने माटे कायाना व्यापारनो निरोध करतो ते. Jain Education Intemational Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३२७ नेि ६ तप - जे प्रथम कहेला उपाये कर जे अशुद्ध रहे तो ते दुष्कृतनी शुमाटे यथायोग्य नीवी आदि छ मास पर्यंत जे तपनुं चरण ते. ७ छेद - शेष चारित्र पर्यायनी रक्षाने माटे सदोष पूर्व पर्यायनुं बेदन करते. ८ मूल - कोई महा दोष लागतां समग्र चारित्र पर्यायने छेदी फरीथी महा व्रतनुं आरोपण करवं ते. to अनवस्थाप्यता - क्रोधादिकना उदयथी सेवन करेला पापनी शुद्धिने माटे गुरु यथार्थ पेक्षा तपनी शुद्धि ज्यां सुधी नथी करी त्यां सुधी तेने व्रत विषे अथवा वेषने विषे न स्थापवा ते अनवस्थाप्यता कहेवाय बे. १० पारांचित - मुनिघात, राजवध आदि महा अकृत्य सेववायी लिंग, काल, क्षेत्र ने तपवने तेनो पार पामवो ते. प्रमाणे प्रायश्चित्त तपना दश प्रकार बे. ते प्रायश्चित्त प्रगटपणे सिंग धरनारा, जिनक टिपकना तुख्य रूपवाळा अने क्षेत्रथी बाहेर रहेला आचार्योंने शुभ विस्तीर्ण तप करतां तां जघन्यथ मास अने उत्कृष्टथी बार वर्ष पर्यंत होय बे; ते पी एटले अतिचारनुं पार गमन कर्या पछी नंतर तेने दीक्षा अपाय बे, अन्यथा पाती थी. दश प्रकारना प्रायश्चित्तमां बेल्ला वे प्रायश्चित्त पहेला संघयण बाला चौद पूर्वी सुधी होय बे ने बीजा आठ प्रायश्चित्त श्री दुःप्रसन्नसूरि सुधी रहेशे, एम जावं. विनय, ज्ञानादिक भेदे करीने सात प्रकारनो छे; तेमां ज्ञानादिकनी भक्तिरुप ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनो विनयत्रण प्रकारनो बे, तथा मन, वचन अने काया कार्यादिकने विषे अकुशल एटले नगरी रीते प्रवर्त्तता मन, वचन कायानो निरोध ने कुशल प्रवृत्तिवाळाने मन, वचन तथा कायानुं उदीरण एम विनयना व प्रकार थया. सातमो उपचारिक विनय ते गुरु आदिकनी अनुकूल प्रवृत्तिरूप कहेवाय बे. सात प्रकार विनय सर्व काले मुनिओने आचरवा योग्य डे. ४ वैयावच्च. वैयावच्च तप सेवावृत्तिमां आवे छे. आचार्यादिकने अन्न, पाणी, वस्त्र, Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० श्री आत्मप्रबोध. पात्रादि संपादन करवानी विधिनो जे व्यापार ते वैयावच्च कहेवाय बे. ५ स्वाध्याय. काल वेलानो परिहार करीने अथवा पोरिसीनी अपेक्षाए जे अध्ययन करवं ते स्वाध्याय कहेवाय बे. ते स्वाध्याय पांच प्रकारे बे. १ वाचना, २ पृष्ठना, ३ परावर्त्तना, ४ अनुप्रेक्षा ने ए धर्मकथा - एवा तेमना नाम बे. जे नहीं जणेला सूत्रोनुं शास्त्रोक्त विधिवमे गुरु मुखे ग्रहण करं. ते वाचना कहेवाय बे. तेमां संदेह थतां पुखं ते पृछना कहेवाय बे. ते पृष्ठना निश्चित सूत्रोनुं विस्मरण न याय तेने माटे गणवं ते परावर्तना कहेवाय . सूनी पेरे अर्थनं जे चितव, ते अनुभेक्षा कहेवाय छे अने अभ्यास करेला सूत्र ने अर्थनो बीजाने उपदेश आपको ते धर्मकथा कहेवाय जे. अहीं सूत्र बे प्रकारे बे. १ अंगप्रविष्ट अने २ अंगबाह्य तेमां बे पग, बे जंघा, वे उरु, वे गात्र, वे हाथ, एक ग्रीवा ने एक मस्तक ए बार अंगवाल पुरुष " सुअविसिहो " यी ओलखाय बे. ए प्रवचनरुप पुरुषना अंगमां जे रहेतुं ते अंगप्रविष्ट सूत्र कहेवाय बे. ते बार प्रकारे बे. आचारांग ने सूत्रकृतांग सूत्र ए प्रवचन पुरुषना बे पग बे. स्थानांग ने समवायांग - ए तेनी बे जंघा बे. जगवती ने 'ज्ञातासूत्र ते तेना बे रुबे, उपासकदशांग तथा अंतगडदशांग ते तेना पीठ तथा उदररुप बे गात्र बे, अनुतरोववादशांग अने प्रश्न व्याकरण - ए बे तेना हाथ बे, विपाक सूत्र ते ग्रीवा ने दृष्टिवाद ते मस्तक बे. या प्रमाणे प्रवचन पुरुषना ले सूत्रो बार अंग रूप बे. हवे जे अंग बाह्य आवश्यक बे, ते उपांगो, पयन्ना आदि नेदथी अनेक प्रकारनुं छे दीक्षा ग्रहण करनारने जेटले वर्षे जे सूत्रनी वाचना ग्रहण करवा योग्य होय ते स्वरूप व्यवहार सूत्र मांहेली गाथावमे दर्शावे डे. संवत्स रादि कालना अनुक्रमे करी जे जे काल प्राप्त थाय, ते ते काले धीरपुरुष वाचना लेवे ते काल या प्रमाणे बे. वर्षना दीक्षा पर्यायवालो आचारकल्प नामना अध्ययन सुधी वाचनाले बे. चार वर्षवालो सूयगकांग नामे वीजा अंग सुधी ने पांच वर्षनो Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३२ए दीक्षित दशाश्रुतस्कंध, कल्पसूत्र अने व्यवहार सूत्रनी वाचना न शके डे. अहिं आचारकल्प एटले निशीथ सूत्रनुं अध्ययन समजवू. आठ वर्षना दीक्षा पर्यायवालो पुरुष श्री स्थानांग अने चायं समवायांग वांची शके छे. दश वर्षना पर्यायवालाथी श्री जगवतीजी वांची शकाय . अगीआर वर्षना पर्यायवालाथी श्री खुड्डियविमाणविनत्ती आदि पांच अध्ययन वाच्य छे. बार वर्षना पर्यायवालाने माटे श्री अरुणोववाह आदि पांच अध्ययन कहेला . तेर वर्षना दीदा पर्यायवालाने नहाणश्रुतादिक चार अने चौद वर्षना पर्यायवालाने श्री आशीविष नावना वाचनीय जे. पंदर वर्षना पर्यायवाला दृष्टिविष नावना अने सोळ वर्षना पर्यायवाला चारणनावना मुधी वांची शके . सत्तर वर्षना पर्यापवालाने महसुमिण जावना अने अढार वर्षना पर्यायवालाने तेयगनिसग नावना सुधी अध्ययन कर योग्य छे. ओगणीश वर्षना पर्यायवालाने वारमा दृष्टिवाद वांचवानी आझाडे अने संपूर्ण वीश वर्षना पर्यायवाला मुनिने सर्व सूत्रनी आझाडे ते स्वाध्यायने करनारा अने संयम मार्गने नहीं विराधनारा मुनिओए व्याविधत्व प्रमुख अतिचारो सर्वथा वर्जवा जोइए. ते अतिचारो चौद प्रकारना जे. १ व्या विचत्व-विपरीतपणं. २ व्यानेमित-जुदा जुदा आलावा मेलवी बेत्रणवार कहे. ३ हीनादर-हीन अदरपणुं. ४ अत्यक्षर-वधारे अक्षरो कहेवा ते. ५ पदहीनता-पद ओळं कहेवू ते. ६ विनय हीनता-विनयनो त्याग करवो ते. ७ उदात्तादि घोष हीनपणुं. ७ योग हीनता-यांगनी उपचारता न करवी ते. ए अपश्रुतने योग्य होय तेने अधिक श्रुतनुं दान देवू.१० पाग स्वताने कबुषित हृदये ग्रहण कर ते. ११ अकाले स्वाध्याय करवो. १५ काले स्वाध्याय न करवो ते. १३ स्वाध्यायने अवसरे स्वाध्याय न करवो. १४ स्वाध्याय न करवो होय त्यारे करवो. ए चौद अतिचारनुं स्वरुप विशेषपणे आवश्यकादि सूत्रोथी जाणी लेवु. आ चौद अतिचारोने वर्जी स्वाध्याय करनारा मुनिओने महान् लान प्राप्त थाय छ. जो आ अतिचारोनो त्याग कर्या विना स्वाध्याय ध्यान करवामां आवे तो हीनाक्षर दोषने करनारा एक विद्याधरनी पेठे विद्यानी निष्फलता प्रमुख महादोषी उत्पन्न थाय . ते विद्याधरनुं दृष्टांत. Jain Education Intemational Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. एक वखते राजगृह नगरने विषे तेनी समीपे आवेला उद्यानमां श्री वीर प्रन्नु समोसर्या; ते वखते स्वामीना आगमननी वार्ता सांजळी जेनु चित्त संतुष्ट थयेनुं बे, एवो श्रेणिक राजा अजयकुमार वगेरेने लइ त्यां आव्यो. ते प्रनुने त्रण प्रदक्षिणा करी वंदना करी घणा देव अने असुर कुमारादि तथा विद्याधर अने मनुष्योना समूहे विराजित एवी सन्नामां योग्य स्थाने बेगे. धर्मने सांगली पर्षदा पुनः पोतपोताने स्थाने गइ. तेवामां को विद्याधर आकाश मार्गे जमी जतो हतो, ते तत्काल पृथ्वी उपर पडी गयो. विद्याधरने पृथ्वीपर पमतो देखी श्रेणिक राजा विस्मय पामी गयो. अने तत्काल तेणे मनुने तेना पमवानुं कारण पुग्यु. प्रनुए कह्यु, “ राजन्, आ विद्याधर गगनगामिनी विद्यानो एक अक्षर चुकी गयो, तेथी तेनो अधःपात थइ गयो . ते हवे आकाश मार्गे जवाने समथे थवानो नथी." आ वखते श्रेणिक राजानी पासे रहेलो मंत्री अजयकुमार प्रभुना वचन सांभळी तत्काल वेगे थयो अने तेणे त्यां जइ विद्याधरने कयु, "हे विद्याधर, तुं तारी विद्याना एक अक्षरथी भ्रष्ट थयो छ, जो तुं मने ए विद्या आपे तो हुँ तने ते अक्षर आपुं." विद्याधरे अञ्चयकुमारनुं ते वचन अंगीकार कयु. पगरी विद्याधरने एक अक्षर आपी तेणे तेनी पासेथी आकाशयामिनी विद्या ग्रहण करी. पठी विद्याधर पूर्ण विद्या प्राप्त करी आकाश मार्गे चाट्यो गयो अने अजयकुमार अनुक्रमे पोताने स्थाने आव्यो हतो. आ विद्याधरना दृष्टांतनो लेश सांजळी मुनिआए पूर्वे कहेला दोषोनो त्याग करवा यत्न करवो. वनी पोते स्वाध्याय करता अने वीजाने करावता एवा मुनिओए प्रथम सोळ वचनो अवश्य जाणवा जोइए. ते सोळ वचनो श्री अनुयोगधारादि सूत्रोमां आ प्रमाणे आपेला . ३ लिंग, ३ वचन, ३ काल, १ परोक्ष, १ प्रत्यक्ष, ४ उपनय-अपनय अने १ अध्यस्थ-ए सोळ वचनो कहेवाय जे. ३ लिंग त्रण ने. १ पुरुष लिंग, श स्त्री लिंग अने ३ नपुंसक विंग. ३ त्रण वचन. १ एकवचन, वचन अने ३ बहुवचन. ३ त्रण काल. १ अतीत, २ अनागत अने ३ वर्तमान. १ परोक्ष एटले 'ते' निर्देशवचन. १ प्रत्यक्ष एटले 'आ, ' प्रत्यक्षवचन. Jain Education Interational Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश ४ उपनय--अपनय चार प्रकारे छे. जे प्रशंसा वचन ते उपनय वचन--जेमके, " आ रूपवती स्त्री छे. " जे निंदावचन ते अपनय वचन छे. जेमके, “आ स्त्री रूपवती , पण सुशीलवाली जे." अपनय--उपनय एटले निंदा करीने प्रशंसा करवी ते. जेम “श्रा स्त्री कुरूपा डे पण सुशीलवतो ." चित्तमां बीजुं धारण करी, छेतरवानी बुछिए बीजूं कहेवा श्चतां उतां पण जे चित्तमां बे, ते तत्काल बोली नांखे, ते अध्यात्मवचन कहेवाय छे. जेओ आ सोळ वचनना अज्ञात होइ सूत्रवाचनादिकमां प्रवर्ते छे, ते मूढ जीवो जिनवचनने नवंधन करनारा होवाथी जिनाझाना विराधक बे, एम समजवू; तेथी उत्तम मुनिओए प्रथम कहेला विधियी परिझान पूर्वक सूत्रअर्थनो स्वाध्याय करवो. ४ ध्यान. अंतर्मुहूर्त मात्र काल सुधी चित्तनो एकाग्र अध्यवसाय करवो ते ध्यान कहेवाय जे. ते ध्यान चार प्रकारनुं . १ आर्त, २ रोज, ३ धर्म अने ४ शुक्ल. तेमां आर्तध्यान चार प्रकारे जे. १ इष्टवियोग, २ अनिष्टसंयोग, ३ रोगचिंता अने ४ अग्रशोचविषय. १ इष्ट एवा शब्द, रुप, रस, गंध स्पर्श लक्षणवाला विषयोनो जे वियोग, एटले " आ मने कदि पण न थाओ,” इत्यादि चिंतववं, ते इष्टवियोग नामे पहेलुं आर्तध्यान कहेवाय . २" अनिष्ट शब्दादिक विषयोनो संयोग ते मने कोई दिवस पण न थाओ." एवं जे चितवन ते अनिष्टसंयोग नामे बीजं आध्यान कहेवाय . ३ रोगनी उत्पत्ति थतां जे घणी चिंता करवी ते रोगचिंताविषय नामे श्रीजु आर्तध्यान कहेवाय दे. प देवपणानी अने चक्रवर्तीपणानी ऋषिनी प्रार्थना करवा प्रमुख अनागतकाल संबंधी कार्यनो शोक करवो, ते अग्रशोचविषय नामे चोथु आतध्यान कहेवाय छे. आ ध्यान शोक, आक्रंदन, स्वदेह तामन आदि लक्षणोथी अोलखाय छे. ते तिर्यचनी गतिनुं कारणरुप कहेवाय छे. आ ध्याननो संलव बग गुणगणा सुधी ने, एम जाणवं. ऊर्बल प्राणीओने जे रोक्रावे ते रुन कहेवाय , ते प्राणिवध आदि Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. कार्यवझे परिणत एवा आत्मानुं जे कर्म ते रोज अथवा ते रुषपणानो जे नाव ( क्रिया ) ते रोज कहेवाय ने ते संबंधी जे ध्यान ते रौषध्यान कहेवाय बे. ते रौऽध्यानना चार प्रकार जे. १ हिंसानुबंधी, २ मृषानुबंधी, ३ चौर्यानुबंधी, अने व परिग्रहरक्षणानुबंधी. एवा तेना नाम ले. ? प्राणीओना वध, बंधन दहन, अंकन अने मारणादिक- चितवन ते हिंसानुबंधी रौजध्यान कहेवाय छे. २ पिशुनता, सत्यासत्य अने घातादिकनुं चितवन करवं, ते मृषानुबंधी रोषध्यान कहेवाय छे. ३ तीत्रकोप, लोनाकुन, प्राणीनो उपघात करवामां तत्परता, परलोकना जय तरफ उपेक्षा तथा परनव्यना हरण- चितवन ते चौर्यानुबंधी रोषध्यान कहेवाय . ४ सर्व जनने शंकामां पामवानी तत्परता, उपघातमां परायणता, विषय सुखनी साधकता तथा अध्यना संरक्षण- चितवन, ते परिग्रहरक्षणानुबंधी नामे रोऽध्यान कहेवाय जे. आ ध्यान प्राणिवधादि लक्षणोथी ओलखाय , तेथी ते नरकगतिनुं कारणरुप थाय . ___आ रोऽध्याननो संजव पांचमा गुणगणा पर्यंत जाणवो. केटलाएक आचार्यों आ ध्यानना चोथा प्रकार (परिग्रहरक्षणानुबंधी )ने उग गुणगणा सुधी माने . धर्मध्याननुं लक्षण आ प्रमाणे जे-धर्म एटले दमादि दश प्रकारनो धर्म, तेनाथी युक्त अथवा ते संबंधी ते धर्मध्यान कहेवाय . ते धर्मध्यान चार प्रकारनुं . ? आझाविचय, २ अपायविचय, ३ विपाकविचय अने । संस्थानविचय-एवा तेना नाम . . १ श्रीमान् सर्वज्ञ पुरुषोनी आझानुं जे अनुचिंतन, ते आझाविचय नामे धर्मभ्यान कहेवाय जे. २ राग, केष, अने कषायने वशवत्ती एवा प्राणीओना सांसारिक कटोनं जे चितवन ते अपायविचय नामे धर्मध्यान कहेवाय छे. ३ ज्ञानावरणादि कर्मोना शुनाशुन विपाकनुं जे चितवन कर तें विपाकविचय नामे धर्मध्यान कहेवाय . Jain Education Interational Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. भूमंगळ, घोप, अने समुज प्रमुख वस्तुना संस्थानादिक स्वनावर्नु जे विचारवं, ते संस्थानविचय नामे धर्मध्यान कहेवाय . आ धर्मध्यान जिनोक्त तत्त्व पर श्रघा करवानुं शुनचिह्नरुप ने अने देवगति आदि फलनुं साधक . ए ध्याननो संनव चोथा अथवा पांचमा गुण गणाथी आरंभीने सातमा तथा आठमा गुणगणा पर्यंत छ, एम जाणवू तेने विषे पहेला बे नेद चोथे गुणगणे अने पहेलेथी त्रण नेद पांचमे गुण गणे--एटलो विशेष छे. आठ प्रकारना कर्मना मलने शोधे ते शुक्ल कहेवाय जे. ते संबंधी जे ध्यान ते शुक्लध्यान. ते शुक्लध्यान चार प्रकारे छे. १ पृथक्त्व वितर्क समविचार, २ एकत्व वितर्क अप्रविचार, ३ सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति अने ४ समुचिन्नक्रिया अनिवृत्ति-एवा तेना नाम जे. १ जेने विष नावश्रुतने अनुसारे अंतरंग ध्वनिरूप वितर्क-श्रुत अर्थथी अर्थातरमां, शब्दथी शब्दांतरमां, अने योगयी योगांतरमा संक्रमे छे, वत्री पोताना शुछ आत्मप्रव्ययी अव्यांतरने पामे डे, गुणयी गुणांतरने पामे ने अने पर्यायथी पर्यायांतरने पामे डे. तेने माटे का डे के," श्रुतचिंतावितर्कः स्या-हिचारः संक्रमो मतः । पृथक्त्वं स्यादनेकत्वं, नवत्येतत् त्रयात्मकम्” ॥ १॥ "जे श्रुतनी चिंता ते वितर्क, संक्रम ते विचार अने पृथक्त्व ते अनेकपणुं-ए त्रण वस्तुमय पहेलो पायो थाय बे. वितर्कने माटे आ प्रमाणे कहेवूछे-- " स्वशुष्मात्मानुजूत्यात्म-भावश्रुतावलंबनात् । अंतर्जल्पो वितर्कः स्यात् , यस्मिंस्तत् सवितर्कजम् ॥ १॥ अर्थादर्थांतरे शब्दाबब्दांतरे च संक्रमः। योगाद्योगांतरे यत्र, सविचारं तमुच्यते ॥५॥ अव्याद् अव्यांतरे याति, गुणाद्याति गुणातरम् । पर्यायादन्यपर्याय, सपृथकत्त्वं भवत्यतः ” ॥ ३ ॥ आ ऋण श्लोकनो नावार्थ उपर कहेवामां आव्यो छे. Jain Education Intemational Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ श्री आत्मपबोध. आ शुक्लध्याननो पहेलो पायो भाउमा गुणस्थानथी आरंजी अगोआरमा गुणस्थान सुधी होय छे. २ शुक्लध्याननो एकत्व वितर्क अप्रविचार नामे बीजो पायो निश्चन एक अव्यतुं अथवा एक पर्यायर्नु अथवा एक गुणर्नु अथवा शब्दथी शब्दांतरतुं इत्यादि जे संक्रमण तेनाथी रहित जे. जावश्रुतावलंबनवमे चिंतवन करवारुप बीजो पायो बारमा गुणगणे होय छे अने ते पछी तेरमे गुणस्थाने ध्यानांतरिका होय छे. ३ ते पनी जेने विषे केवनी नगवान अत्यंत आत्मशक्तिवमे बादर काययोगमां आत्म स्वनावथी स्थिति का बाद बादर मन वचन युगलने सूक्ष्म करे जे, ते पठी सूक्ष्म वचन तथा मनने विषे स्थिति करी बादरकाययोगने सूक्ष्मतामां न जाय , ते पठी सूक्ष्म काययोगमां कण मात्र स्थिति करो तत्काल सूक्ष्म वचन तथा मननो सर्वथा निग्रह करे छे. त्यारवाद सूदम काययोगे क्षण मात्र स्थिति करी सूक्ष्म क्रियावाला ज्ञान स्वरूपी पोताना आत्माने पोतानी मेले अनुजवे ने अने तेने योग्य एवा जे शुल परिणाम तेथी पावापणुं यतुं नथी. आ शुक्लध्याननो बीजो पायो कहेवाय . ए तेरमा गुणगणाने अंते प्राप्त थाय छे. ५ जेने विषे सूक्ष्म क्रियानो पण समुच्छेद थाय बे, ते शुकलध्याननो चोथो पायो कहेवाय जे. ते चौदमे गुणगणे होय जे ते पठी जीव सिधिपदने पामे छे. ___ ए ध्यान अवाधा अने असंमोहादि विंग गम्य ने अने मोक्ष फलन साधक जे एम समजवू. एथी अक्रियपणाने योग्य परम विशुद्ध परिणामन निवृत्ति पण होती नथी. ए चारे ध्यानमां धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान-ए बे निर्जराना हेतु होवाथी अत्यंतर तपरुप समजवा. अने आर्त तथा रौष-ए बे बंधना हेतु बे, निजराना हेतु नथी तेथ। ते तपरुप नथी, माटे उत्तम बुफिवाला पुरुषोए ते आर्त तथा रोज-बने ध्याननो परिहार करवो. अन्यथा नंदमणियार तथा कंकरीकादिकनी जम महा सुखनी प्राप्ति थाय . ५ जो के चित्तनुं अति चंचलपणुं होवाथी मनुष्य कुध्यानचे पामे ने तोपण वीर पुरुषोए प्रसन्नचंजादिकनी पेठे ते उध्यानने निवारवा माटे आत्मवीर्यना नदास प्रकट करको वीर्य फोरच अने शुञ्च थालनो विद म थाय, Jain Education Intemational Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VAN तृतीय प्रकाश. ३३५ तेवो अज्यास करवो. ६ नत्सर्ग एटले त्याज्य वस्तुनो सम्यक् प्रकारे त्याग करवो ते. ते उत्सर्ग बे प्रकारे छे. १ बाह्य अने २ अज्यंतर. बीजा अध्यंतर उत्सर्गमां क्रोधादिक कषायनो त्याग करवानो ने. अहिं प्रश्न थाय ने के, नत्सर्ग प्रायश्चित्तमा आवी जायचे, तो पड़ी फरीवार कहेवार्नु कारण ? तेना उत्तरमां कहेवार्नु के, ए सत्य डे परंतु पूर्व अतिचारनी शुछिने माटे कहेल जे अने अहीं तो सामान्यथी निर्जराने माटे कहेल , तेथी तेमां पुनरुक्तिनो दोष आवतो नथी. आ उ प्रकारनो तप लोकोयी अणओळखातो होवाथी, अन्यमत वानाओए नहीं सेवातो होवाथी अने मोदनी प्राप्तिमां अंतरंगपणे रहेन तेथी आज्यंवर कर्मने तपावनार होवाथी ते आत्यंतर तप कहेवाय छे. ए प्रकारे तपर्नु स्वरूप कहेवामां आव्यु. ए. संयमनुं स्वरूप. संयम शब्दनो अर्थ आ प्रमाणे छ–सं एटले सम्यक् प्रकारे यम एटले सावध योपथी निवृत्त थर्बु, ते संयम कहेवाय रे तेना सत्तर नेद . पांच प्राणातिपातादिकथी विरम, अने पंच महाव्रतनुं धारण कर ते-तेमना ब्रतोनुं स्वरूप आ प्रमाणे . १ स स्थावरादि सर्व जीवोने मन, वचन, कायाए करी पोते हणे नहीं बीजानी पासै हणावे नहीं अने हणनारने अनुमोदे नहीं. २ तेम त्रिविध त्रिविध जांगाए करी राग, क्षेप, क्रोध, मान, माया, बोन, हास्य अने काहादिके करी प्राणांते पण मृषावाद वोले नहीं. ते मृषावाद चार प्रकारे . १ सदनावनिषेध, २ सद्नाव जदनावन ३ अर्थातर अनिधान अने ४ गहऱ्यावचन. पहेला बेदमां आत्मा नथी इत्यादि मानवं. बीजीमां श्यामाक नामे धान्य अथवा चोखा जेटलो अथवा ललाटने विषे रहेलो आत्मा ने तेम मानवं, त्रीजा नेदमां गवादिकने अश्वादिकना शब्द कहेवा ते अमे चोथा जेदमां काणाने काणो कही बोलाववो ते. ३ चारित्रवंत साधु उपयोगवंत या विविध विविध नांगे करी १ जीव Jain Education Intemational Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. अदत्त, २ तीर्थकरअदत्त ३ स्वामिअदत्त, अने ४ गुरुअदत्त एवी अल्प वस्तु पण न ग्रहण करे. A जे जीवअदत्त बे, ते सचित्त कहेवाय , ते पोताना विनाशनी शंका करता जीवोवझे पोते आश्रय करेल शरीरनु अर्पण न करेल होवायी जे सचित्तने ग्रहण करे ते जीवअदत्त कहेवाय ले. शिष्यने वलात्कारे दीक्षा आपवी ते जीव अदत्त कहेवाय . B अचित्त होय तोपण जेने माटे श्री तीर्थकरनी आज्ञा न होय, एवा सुवर्णादिकने ग्रहण कर ते तीर्थकरअदत्त कहेवाय जे. C तीर्थकर प्रनुए आशा आप्या बतां जे वस्तु तेना स्वामीए-घणीए न आपी उतां ग्रहण करवामां आवे ते स्वामि-अदत्त कहेवाय . D धणीए आझाापी पण को कारणने लइने जे वस्तु गुरुए निषेधती होय, जेमके, “हे मुनि, तुं आ वस्तु ग्रहण करीश नहीं." ते उतां लोनादिकने वश थ ग्रहण करे तो ते गुरु-अदत्त कहेवाय जे. अथवा गुरुना कह्या शिवाय जे जोजनादिक जोगववां ते पण गुरु अदत्त कहेवाय . साधु अढार प्रकारचें मैथुन सेवे नहीं. तेमां औदारिक शरीर संबंधी मैथुन मने करी सेवे नहीं, बीजाने सेववामां प्रेरणा करे नहीं अने बोजा सेवनारने सारा जाणे नहीं एम त्रण नेद थाय . तेवी रीते वचने करीने अने कायाए करीने एम बधा मळी नव जेदो थाय जे. एवी रीते औदारिके करी जेम नव नेद थाय, तेम क्रियवझे पण मेथुनना नव नेद प्राप्त थता सर्व मन्त्री मैथुनना अढार नेद थाय . . संयमने उपकार करनारी उपधि शिवाय मुनिए त्रिविध त्रिविध नांगे करी परिग्रहनों त्याग करवो. ते संयमने नपकार करनारी उपधिना वे प्रकार ने. १ औधिक अने २ उपग्रहिक. जे प्रवाहे करीने ग्रहण थाय अने कारणे नोगवाय ते औधिक उपधि कहेवाय जे. तेना वस्त्र, पात्र, रजोहरणादि चौद दो बे. जे कारण उते ग्रहण कराय ने अने कारण पड्ये जोगवाय , ते उपग्रहिक कहेवाय जे. ते संथारो, उत्तरपट वगेरेना प्रकारे ले. ते औधिक अने उपग्रहिक नपधिने विष मुनिए ममत्वने धारण कर नहीं. ममत्वथी रहित थ मात्र संयमयात्राने माटे वे प्रकारनी उपधिने धारण करतां उतां मुनिओ निष्परिग्रहीज ग Jain Education Intemational Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. यतेने माटे कांबे के, तायिना । " न सो परिग्गहो वृत्तो नाइपुत्ते मुच्छा परिग्गदो वृत्तो ३३ वृत्तं मदे सिणा " ॥ १ ॥ 46 ता एवा श्री महावीर प्रभु ते परिग्रह कह्योज नथी, पण मूर्छाने परिग्रह कहेलो छे, ने महर्षियोए पण तेमज कहुँ बे. १ " अथवा मुनि व्य, क्षेत्र, काल अने जाव ए चार वस्तुमां ममत्व करे नहीं १ तेमां व्यथी उपधिने विषे अथवा श्रावकादिकने विषे २ क्षेत्रथी नगर, ग्राम, तथा सुंदर उपाश्रयने विषे ३ कालथी शरदऋतु अथवा दिवसादिकने विषे. ४ नावथी शरीरनी पुष्टि आदिमां तथा क्रोधादिकमां ममत्वने धारण करे नहीं. Eat महाव्रतने उपयोगी होवाथी बं रात्रिनोजन निवृत्तिरूप व्रत पण मुनिओए अवश्य धारण करखं. ते रात्रि जोजन चार प्रकारे बे. १ दिवसे लावेलं दिवसे जोगवनं २ दिवसे झावेलं रात्रे खावं, ३ रात्रे लावे रात्रे खा, अने ४ रात्रिए लालुं दिवसे खावं. तेने विषे दिवसे ऐसा अशनादिकने ग्रहण करी रात्रे तेने उपाश्रयमां सम्यक् प्रकारे राखी वीजे दिवसे जोगवनारने पेहेलो नेद, दिवसे लावेलुं रात्रे जोगवनुं ते बीजो तथा वीजा नेदो सुगम डे. आ चार प्रकारनुं रात्रि जोजन पंच महाव्रतनुं घात करनार होवाथी, तेमज जिनागममां तथा अन्य मतिना आगममां तेनुं निषेधपणं होवाथी, ते परिहरखाने अशक्य ३३७ तो मां कुंआदि सूक्ष्म जीवोनो वध होवाथी, सर्व विरति साधुओए तेनो अवश्य परिहार करवो. ए रीते पंचमहाव्रतना पालवा संबंधी स्वरूप कहेवामां यान्युं. पांच इंडियना निग्रहनुं स्वरूप. पंचमहाव्रतने पालवानी इछा राखनारो मुनि शब्द, रूप, गंध, रस अने स्पर्शरूप पांच विषयोमां रागद्वेषनो त्याग कर श्रोत्र, नेत्र, घाण जिह्वा ने स्पर्श वाली पांच इंडियोनो निग्रह करे. तेमां १ सुस्वर - मधुर स्वरवाला एवा मुरज, वेणु, वीणा, स्त्री, आदिना शुभ अने काग, उंट, धुवम, गधेका, घंटी ने रेंट आदिना अशुभ शब्दो सांजळीने, तथा 2 अलंकार, गज, घोको, वनिता, आदिनुं शुभ अने कुब्ज, कुष्टी, वृद्ध, अमुक आदिनुं अशुभ रूप देखीने तथा ३ चंदन, कपूर, अगर, कस्तूरी दिन शुभ ने मल, मूत्र, ૪૩ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ श्री आत्मप्रबोध. मरेला कलेवर आदिना अशुभ गंधने संघीने ४ तथा खां, साकर, मोदक आ दिनो शुभ ने खं वासी अन्न अथवा कोही गयेलुं अन्न, अने खारुं पाणी -इत्यादिकनो अशुभ स्वाद करीने, तथा ए स्त्री, ताइ, नेत्रादिकनो शुभ ने पाषाण, कंटक, कांकरादिकनो अशुभ स्पर्श अनुभवीने ते उपर ज्यारे 'आ मने इष्ट छे' एवो राग अने 'आमने अनिष्ट बे' एवो द्वेष धारण न करे त्यारे अनुक्रमे ते श्रोत्रादिक इंडियनो निग्रह थाय बे. ली कदि मुनिने पूर्वे जोगवेला जोग, क्रीमानुं स्मरण थइ आवे तेम कुतूहलीपणाने लइने इंडियो नत थइ जाय त्यारे मुनिए आय प्रमाणे आत्माने शीखामण देवी " परिमियमान जुव्वण-मसंठियं वाहिवाहियं देहं । परिणविरसा विसया अणुरजसि तेसु किं जीव ॥ १ ॥ आयुष्य परिमित बे, यौवनवय संस्थित बे, शरीर व्याधिपीडित विषयोनी परिणति महा विरस बे, माटे हे जीव, तुं एने विषे शुं राचे छे?? जे मुनि इंडियानो निग्रह करे नहीं, परंतु जत अश्वनी पेठे पोतानी इछाने चलित करे, ते या लोक तथा परलोकमां मोटा दुःखनुं भाजन बने बे. विषे श्री ज्ञाता धर्मकथा सूत्रने विषे अन्वय तथा व्यतिरेकथी वे काचबाना दृष्टांतो आपेला बे. चबाना दृष्टांत. वाराणसी नगरीनी पासे गंगा नदीमां मृदंगतीर नामे एक अह बे. तेमां गुडियाने गुप्तेंयि नामे वे काचवाओ रहेता हता. ते बने एक दिव से स्थलचारी की मायना मांसनी इवावाला थया. तेथी तेस्रो हनी बाहेर नी - कया. कोइष्ट वेशीयालोए तेपने जोया, त्यारे तेप्रो बने जयजीत यज्ञ गया. तत्काल पोतानो बचाव करवाने तेस्रो चारे पग ने ग्रीवा 'करोटीमां गोपवी चेष्टा रहित निर्जीवनी पेठे थड़ गया. पेला शीयाली आओ चंचलतायी तेमने उंचा नीचा करवा लाग्या अने तेमनीपर चरणोनो आघात करवा लाग्या. तेम करवाथी तेयो ते काचवाने कां विकृति करी शक्या नहीं पीते श्रांत थ‍ त्यांr दूरे जइ एकांते स्थिर थइने रा. १. माथानी खोपरी. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३३ या वखते जे अगुप्तेंप्रिय काचवो हतो, तेणे चपलताथी पोतानी मोकने चरणोनी वाहेर काढी, तेवामां पेला बने शीयाली ओ दोमी आव्या अने तेना शरीरना aaa aaar करी तेने मरण पमामी दीधो. जे बीजो गुप्तेंद्रिय काचबो हतो, ते अचपळ होवाथी घणा वखत सुधी तेवीज स्थितिमां रह्यो. ज्यां सुधी ते ने शीयाळी त्यां रह्या, त्यां सुधी तेणे कांइ पण चपळता करी नहीं. शीयाळी घणी वार बेशी थाकी गया ने पत्नी त्यांथी बीजे स्थले चाव्या गया हता. ते पछी ते गुप्तेंद्रिय काचबो हळवे हळवे दिशानुं विलोकन करतो चाल्यो अने कुदीने पेला मां पड्यो, पछी ते सुखी थइ रह्यो हतो. या प्रमाणे पांच गोने गोपवनारा ते काचबानी जेम जे मुनि पांच इंडियोने गोपवनार थाय बे, ते सदा सुखी रहे बे ने पेला बीजा गुप्तेंप्रिय काचवानी पेठे जे पांच इंडियाने गोपवतो नथी, ते मुनि दुःखी थाय छे; तेथी मुनिए पांच इंडियानो जय करवामां यत्न करवो इंडियोनो जय करवामां ते बे काचबानो उपनय दर्शावी इंडियनिग्रहरूप संयम कडेलो छे. कषायजयनुं स्वरूप. पांच इंडियोनो निग्रह करनार साधुओए क्रोधादि चार कषायो के जेओ अनुदित छे मनो अनुदीरणावमे अने जे उदय आवेला बे, तेमने निष्फल करवावमे जय करवो - एटले निरोध करवो. कषाय शब्दनो अर्थ. नाथ प्राणी कप एटले संसारने त्र्य कहेता पामे ते कषाय कहेवाय छे. क्रोध, मान, माया, लोभ, एवा तेना चार प्रकार बे. ते चार कषायोना प्रत्येकना अनंतानुबंधी आदि चार चार भेद छे. १ अनंत जव जमवापणे करी जेमां कर्मनो अनुबंध थाय, ते अनंतानुबंधी कडेवाय बे, तेवा अनंतानुबंधी क्रोधादिकना उदयर्थी जीवो सम्यक्त्वने पामता नयी, अथवा पामे तो तेप्रो सम्यक्त्वने वमी नाखे बे. " २ जेने सर्वथा विरतिरुप प्रत्याख्यान नथी ते प्रत्याख्यान कहेवाय बे, वामत्याख्यानी क्रोधादिकना उदयथी सम्यक्त्व पामेला होय तोपण तेवा जीवने देशविरति परिणाम थता नथी ने थता होय तो अवश्य नाश पामे छे. ३ जे प्रत्याख्यानने आवरे ते प्रत्याख्यानावरणीय कहेवाय बे; तेना Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० श्री आत्मप्रबोध. जदयथी जीवो सर्वविरति परिणामने पामता नथी अने जो पाम्या होय तो तेनो विनाश थइ जाय . अहिं देशविरतिनो निषेध नथी. जे जरा बाले-एटले परिषह उपसर्गो प्रावी परतां साधुओने पण नदयिक जावमां लावे ते संज्वलन कहेवाय . तेना उदयथी जीवने यथाख्यात चारित्र होतुं नथी; परंतु तेने चारित्रना वीजा नेदो थवानो संजव जे. ___ आ अनंतानुबंधी आदि कषायो अनुक्रमे जावजीव, वर्ष, चार मास अने पद सुधीनी स्थितिवाला ले. अनुक्रमे १ नरक, तिर्यच, ३ मनुष्य अने ४ देवतानी गतिना आपनारा छे. अगीयारमा गुणगणाना अग्रभागे आरूढ थयेना साधुने पण पामी द फरीथी मिथ्यात्वरुप अंध कुवामां फेंकनारा छ, शुफ आत्म गुणना घातक डे अने सर्व अनर्थना मूत्र , माठे बुधिमान् उत्तम पुरुषोए तेमनो सर्वथा विश्वास न करवो, तेमनो निग्रह करवामांज उद्यम करवो. तेने माटे कडं ने के,“ जा जीव वरिस चउमास पलगा नरय तिरिय नर अमरा । सम्माणु सव्वविरश, अहकाय चरित्त घायकरा ॥१॥ जश् नवसंत कसा, वह अणंतं पुणोवि पडिवायं । न हुते विससियव्वं, थोवेवि कसाय सेसंमि" ॥३॥ आ वे गाथानो जावार्थ उपर दर्शावेलो डे, तेमां बीजी गाथाना चोथा पदनो अर्थ एवो डे के, “ थोडामां थोमो पण कषाय होय, तेनो पण विश्वास न करवो. वनो कर्तुं छे के,“ तत्तमिणं सारमिणं, वालसंगी एस नावत्यो । जं नवनमण सहाया, इमे कसाया चनंति" ॥ १ ॥ " तत्त्व पण आ , सार पण आ , अने घादशांगीनो पण एज नावार्थ डे के जे नवज्रमणामां सहायभूत एवा कषायो , ते त्याग करवा योग्य डे."१ एवी रीते कषायजयरुप संयमनुं स्वरूप जाणवू. दमविरति स्वरूप. हवे त्राण दमनी विरतिनुं स्वरूप कहे जे. उपर कहेला चार कषायोना Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३४१ जितनारा मुनि मन, वचन ने कायाना त्रण दंथी विरमे छे. नेत्रण गुप्तिने धारण करे बे. हिंगममां कहेला विधि प्रमाणे तो अशुद्ध क्रियार्थी निवृत्त थला ने शुद्ध क्रियामां प्रवर्त्तेला एवा मन, वचन तथा कायाना लक्ष्णवाला जे व्यापारी ते त्रण गुप्ति कहेवाय छे. तेमां वानरनी जेम चिंतवातुं एवं जे मन तेनी चंचळता घणी छे, तेने माटे कां छे के, - " संघ तरुणो गिरिणो, य संघए संघए जलनिर्दिवि । मइ सुरासुरठाणे, एसो ममकको होइ ॥ १ ॥ 46 मन रुपी मर्कट वृक्कोने ओलंघे बे, पर्वतोने ने समुोने लंबे अने सुर-असुरोना स्थानमां जमे बे. " १ एज कारणयी ते मन मुनिने पण दुर्जय डे. अने सर्व कर्मोने बांधवामां मुख्य कारण छे; तेथी तेने वमन करवाने इछता एवा मुनिप्रो बहु प्रकारनी असदजावना परिहरीने बार प्रकारनी सद्भावनाने विषे उत्तम प्रकारे विशेष आदर करवो. ते करवार्थ । तेवं चंचल चित्त पण सुखे करीने वशवर्त्ती थाय बे, ए मनो गुप्तिकहेवाय बे. "" बीजी वचन गुप्तिने चिंतवतो एवो साधु सजाय ध्यानना समय शिवाय बीजे वसरें करीने मौन धारण करीने रहे बे अने कुटी तथा हस्तादिकनी संज्ञा पण करतो नथी. कदि कोइ तेनुं कार्य आवी पमे तो ते सत्य तथा असत्य अमृषा वचन बोले बे. एटले के जे वस्तु ' प्रतिष्ठासया' एटले वस्तु स्थापवाना आशययी बोलाय बे, ते सत्य कहेवाय बे— जेमके " जीव बे, जीव कर्त्ता छे, कर्मनो जोक्ता बे इत्यादि " जे ' प्रतिष्ठासां विना ' एटले आशय स्थाप्या विना बोले, ते असत्य अमृषा कहेवाय बे; आमंत्रण तथा प्रा. ज्ञापनादि - अणाववा प्रमुख जेमके " देवदत्त, कार्य तुं कर " इत्यादि" ही तेज सत्य छे, जे सांजळनारने प्रिय - निरवद्य होय तेवुंज वचन वाले तेथी प्रिय सावध होय ते कदि साचं होयतो तेनाथी क्रोधनी उत्पत्ति तथा जीव घातादिक घणां अनर्थोनुं ते कारण होवाथी तेमज असत्य प्राय होवाथी तेनो परिहार करवो. वी प्रयोजनविना वाचालनी परे निरवद्य पण यथातथा— जेम तेम बोल Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ श्री आत्मप्रबोध. नहीं. जे साचं पण प्रिय होय ते बोलवं, तेने माटे आ प्रमाणे कडं बे. " नृपसचिवेज्यनरादीं-स्तथैव जल्पयति न खन्नु काणादीन् । न च संदिग्धे कार्ये-नाषामवधारिणी ब्रूते " ॥ १॥ “राजा, मंत्री अने बदमीवान् आदि शब्दयी सामंत, शेठ तथा सार्थवाह वगेरेने तेमना नामथी बोलाक्वा. काणाने काणो वगेरेथी बोलाववो नहीं. जे कार्यमां संदेह होय, तेमां निश्चय वतावनारी नाषा वोलवी नहीं." ? ते विष आचारांग सूत्रने विषे पण या प्रमाणे कहेलं छे.. " तेयावन्ने तहप्पगाराहिं नासाहिं ब्रूयानो कुप्पंति माणवा तेआवि तहप्पगारा तहप्पगाराहिं भासाहिं अनिकंखन्नासिजत्ति। " न च काणादिष्वपि अयं न्यायोऽनुसतव्यः। जे जेवा होय, तेने तेवा प्रकारनी भाषावडे बोलावतां माणस काम करे नहीं, तेथी तेमने तेवाज प्रकारनी जापावके बोलावे, पण ए न्याय काणाने काणा कहेवा वगेरेमा अनुसरवो नहीं.-एटले काणाने काणो कही बोलाववो नहीं. आदि शब्दयी कुष्टीने कुष्टी, लंगडाने लंगडो अने चोरने चोर वगेरे समजबु. ते विषे आगममां आ प्रमाणे कहेढुं छे“ तहेव काण काणंति पंडगं पंझगंति वा । वाहियं वा रोगित्ति तेणं चोरंति नावएत्ति" ॥१॥ " काणाने काणो, व्याधिवालाने व्याधिवालो, रोगीने रोगी, अने चोरने चोर-एम बोल नहीं. तेम संदेहवाला कार्यमां पण एमज न्याय छे-तेथी ए प्रकारनी अवधारिणी नाषा बोलवी नहीं. मुनिएतो वर्तमान योग एम बोलवू जोइए. तेने माटे कह्यु डे के, " आनस्स न विस्सासो, कजस्स बहूणि अंतरायाणि । तह्मा साहणं वट्ट-माणजोगेण ववहारोत्ति ” ॥ १॥ " आयुष्यनो विश्वास नथो अने कार्य करवामां घणा अंतरायो रहेना Jain Education Intemational Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ तृतीय प्रकाश. बे, तेथी साधुने वर्तमान योगवझे बोलवानो व्यवहार जे." १ वली “आ वाउडा धुंसरी खमवाने योग्य थयेला , एटला आंबाना फल नक्षण करवा लायक , आ दो स्थंभ, नार, वस्त्र, शय्या अने आसन प्रमुखने योग्य , ए शाळी, गोधम आदि अन्न बाणी करवाने योग्य थयेला ." आवा प्रकारना वचनो साधुए बोलवा न जोइए, कारणके, साधुना वचनो प्रतीतिपात्र होवाथी ए वृषनादिकने गामे जोमवा प्रमुख क्रियानो काल थइ गयो , एम निश्चय करी सांजलनार पुरुषो तेमना दमनादि कार्योमा प्रवर्ते तेयी मोटो आरंज थवानो संचव ने तेम माता, पिता, नाइ, व्हेन आदि स्वजनोने “ हे मात, हे तात, हे नाइ, हे व्हेन" इत्यादि नाषावमे साधु बोलावे नहीं, कारण के, साधु लोकाचारथी रहित होवायी लोक संबंधीना नाषणनो अनधिकारी, मे, तेने माटे आ प्रमाणे कहे छ" दम्मे वसहे खज्जे, फले थंना समुचिए रुके । गिब्ने अन्ने जणयाश्यति, सयणे वि न बवे" ॥१॥ ___आ गाथानो अर्थ उपर आवी गयो जे. अहीं विशेष कहे छे के," राजेश्वराद्यैश्च कदापि धीमान् , पृष्टो मुनिः कूपतमागकार्ये । अस्तीति नास्तीति वदेन्नपुण्यं, नवंति यद्भूत वांतरायाः॥१॥ __" राजा, धनाढ्य वगेरे कदि कुवा के तलाव कराववाना कार्यमां मुनिने पुण्य विषे पूछे तो बुधिमान् मुनि तेमां'छ अथवा नथी' एम कहे नहीं. कारण के, तेम एक बात कहेवाथी प्राणीओनो वध अने अंतराय थाय छे." १ विशेषार्थ एवो छ के, कोई युवराज, धनाढ्य के गाममीओ पुरुष को वखते मुनिने पुछे के कुवो के तलाव कराववामां पुण्य छे के नहीं ? अथवा पाणीनी परव बंधाववामां पुण्य छे के नहीं ? तेना उत्तरमा बुछिमान् एटले सम्यक् प्रकारे आगमना जाण एवा मुनि " कुवो के तलाव कराववो तेमां महा पुण्य छे अने न कराववो तेमां कांइ पण पुण्य नथी, एम वे प्रकारे मुनि बोलता नथी. कारण के, जो मुनि 'पुण्य डे' एम बोले तो प्राणीनो वध थाय छे तेना शोषण समये जलने आश्रीने रहेला सेवाळ प्रमुख अनंतकायोनो तथा पूरा, शंख, मत्स्य, देमका, आदि त्रस जीवोनो प्रत्यक्ष विनाश देखावाथी अने मत्स्यादिकनुं मांहोमांहे ज Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्री आत्मप्रबोध. क्षण होवाथी, पाप लागे बे ने जो ' पुण्य नथी' एम बोलवामां आवे तो अंतरायनो दोष थाय. कारण के, घणां पशु, पक्षी, मनुष्यो जे तृषार्त्त होय छे, तेमना जलपाननो व्यवच्छेद होवाथी पण पापनो संभव छे; तेथी मुनिए तेमां मौनुं आलंबन कर अथवा एवा लौकिक कार्यमा मारे जाषण करवाना अधिकार नथ एम कहें. ते विषे सूत्रकृतांगना वीजा सूत्रमां या प्रमाणे कहें बे. “ तदा गिरं समारभेात्थि पुष्ांति नो वए । हवा नत्थि पुष्ांति एवमेएं मभयं ॥ १ ॥ दाव्याइ जे पाणा दन्नंति तस थावरा । तेसिं सारकण्ठाए तम्हा अथित्ति नो वए ॥२॥ जेसिं तं उवकप्पे अन्नपाणं तहाविदं । तेसिं लाजतरायंति तम्हा नत्थित्ति नो वए ॥ ३ ॥ जे दाणं पसंसंति वहमिच्छंति पाणि जे पहिंति वित्तिच्छेयं करंति ते ॥ ४ ॥ प्रोविन जाति अस्थि वा नत्थि वा पुणो । आयरयस्स दिचाणं निव्वाणं पारुणंति ते " ॥ ५ ॥ 44 ( अमारा अनुष्ठानथी पुण्य के के पाप छे ? एम मुनिने पूछतां ) ते समारंभमां पुण्य बे एम पण न कहे तेमज तेमां पाप के एम पण न कहे." केमके ए प्रकारे महानय थाय बे. १ " दानने अर्थे (अन्न पाणी पाचवा माटे ) जे त्रस ने स्थावर जीव हाय ते जीवोने राखवाने माटे या तमारा अनुष्ठाने पुण्य बे एम प साधु न कहे " २ " जे लोकने माटे अन्नपाणी तथाविध नीपजावे छे ते झोकने माटे निषेध करे तो बाजांतराय रूप आहार देवानुं विघ्न प्राप्त थाय तेथी पुण्य नथी एम न कहे " ३ कोइ यति दाननी प्रशंसा करे तो ते प्राणीना वधनी इछा करे बे जे कोइ यति निषेध करे बे ते अनेक जीवोनी आजीविकानो बेद करे छे १४ 46 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकोश. ३४ ___" 'हा' 'ना' बने प्रकारनी भाषा वाले नहि केमके कर्मरजनो तेथी लान थतो जाणीने तेवी नापा त्याग करे ते निर्वाणपद पामे छे. " ५ जेम कालिकाचार्ये दत्तनी आगळ सत्य वचन कह्यु हतुं, तेम पुण्यना अर्थी मुनिए आपत्तिने विषे पण सत्य वचन बोलवं, मृषा बोलवू नहीं. दत्त अने कालिकाचार्यनी कथा. तुरमिणी नगरीमां श्री कालिकाचार्यनो भाणेज दत्त नामे हतो. ते राजा. नो पुरोहित हतो. तेणे बले करी पोताना स्वामी राजाने बंदीखाने नांखी पोते स्वतंत्र राज्यना जारने वहन करनार थयो हतो. एक वखते ते मातानी प्रेरणाथी कालिकाचार्य पासे गयो. त्यां तेणे उन्मत्तपणे धर्मनी ईयाथी क्रोध सहित आग्रह पूर्वक कालिकाचार्यने यज्ञ करवानुं फल पुग्यु. ते वखते सूरिवरे धैर्यतुं अवसंवन करी का के " या हिंसारुप डे अने यनु फल नरक जे." आ प्रमाणे तेमणे जे सत्य हतुं, ते कडुं, अन्यथा कडं नही. ते वखते दत्ते पुनः पुग्युं के, " एमां निश्चय शुं जे." अने ते वचनमा विश्वास शी रीते पमे ? " गुरुए कडं के, आजथी सातमे दिवसे कुतराए जदण कराएल कुंनीमां पमशो, पनी हवे तेमां शो निश्चय करवो के ? " तेम उतां तेणे पाछो प्रश्न कर्यो के, 'एथी शुं ? ' त्यारे सूरिजीए कह्यु, " तेज दिवसे अकस्मात् तारा मुखमां विष्टा पमशे." आ सांजली अति क्रोधायमान थयेता दत्ते कां, के, “ तमे शी रीते म रण पामशो ? " गुरु बोव्या-" हुं समाधिवडे मृत्यु पामीश अने पड़ी हुं स्वर्गे जवानो छ." सूरिना आ वचन सांजली हुंकार करतो दत्त घेर आव्यो अने सूरिनुं वचन व्यर्थ करवाने पोते पोताना घरमा सुनटोथी चींटाइ समाधियी गनोमानो रह्यो. ज्यारे सातमो दिवस आव्यो, एटले ते बुछिना मोहथी तेने आठमो दिवस मानी अने 'आजे आचार्यना पाणथीज शांतिक कार्य करूं' एवं धारी ते घरनी बाहेर नीकट्यो, तेवामां कोइ एक माली नगरीमा पेसतो हतो, तेवामां तेने दस्तनी हाजत लागी एटले कार्यनी आकुलताथी तेणे राजमार्गमां उसो करी ते जपर पुष्पोथी आगादन करी चालतो थयो. आ अरसामां दत्त पोतानो घोमो चलावतो तेज मार्गे आव्यो अने पेली ढांकेली विष्टा उपर घोमो चाल्यो एटले तेमांथी विष्टानो जरा नाग नड्यो, ते तेना मुखमां पमी, विष्टाना स्वादथी ते चमक्यो अने तेना जाणवामां आव्युं के आजे आठमो दिवस नहीं, पण सा Jain Education Intemational Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ श्री आत्मप्रबोध. तमो दिवस हो, तत्काल खेद पामीने ते पाछो फर्यो. तेज दिवसे दत्तना घणा उराचारोथी कंटाळी गयेला मंत्रिओए पेक्षा शत्रु राजाने पांजरानी बाहेर काढयो अने राज्य उपर बेसार्यो अने पाउळथी दत्तने बांधी राजाने सोंपी दीधो. राजाए तेने कुंजीमां नांखी नीचे अग्नि सळगावी कुतराओने बुटा मुकी तेने कदर्थना पमामी मारी नखाव्यो; ते मरीने नरके गयो अने आचार्य जगान् राजा प्रमुखयी बहुमान पाम्या हता. आ प्रमाणे वचन गुप्तिने विषे श्री कालिकाचार्यनो वृत्तांत ध्यानमां लक्ष् मुनिओए वचन गुप्ति धारण करवी. कायगुप्ति. कायगुप्तिना चितवनमा मुनि कायोत्सर्ग करीने अथवा पद्मासनादिके करी शरीरनो व्यापार रोके अने तथाप्रकारनुं गमन, शयनादिक कार्य उत्पन्न थ. तां शरीरने प्रवर्ताववाथी मगले मगले मारा शरीरवमे कोइ जीवनो वध न था ओ एवी यतना चिंतवे. कारणके, यतना विना मगले मगले उकाय जीवनो वि. घात थाय ने तेने माटे कयुं ने के, " गमणठाण निसीयाण-तुअट्टणगीहण निसरणासु । कायं असंवरंतो एहंपि विराहो होई” ॥ १॥ "मुनि गमन, स्थान, निसीदन, तुअर्त्तन', ग्रहण, निदेप आदि कार्यमां कायाने संवरे नहीं तो ते विराधक थाय जे." आ प्रमाणे कायगुप्ति कहेवाय छे. ए त्रिविधगुप्तिने कहेवावमे सत्तर प्रकारे संयम कहेलो ... हवे दशविध यति धर्मना बाकी रहेना चार सत्यादि नेदो या प्रमाणे. ७ सत्य-एटने मृपावादनी विरति + शौच-एटने संयममा निरतिचारता-निरुपलेपता. । अकिंचन एटले निष्परिग्रहपj. १० ब्रह्मचर्य एटले सर्वथा क पक्रीडानो निषेध. ___ अहिं केटलाएक दोk अन्यमां अंतर्दृतपणे होवाउतां पृथक् ग्रहण कर ते तेनी स्पष्टता करवा माटे छे एम सवाधिवालाअोए जाणी लेवं. ___एवीरीते दश प्रकारनो यतिधर्म कहेवामां आव्यो. १ आळोटबु. Jain Education Interational Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश ३४७ ए अत्यंत दुर्लभ एवा मुनिधर्ममां निग्रंथोए सर्वथा प्रमादनो परिहार करवो, ते देखा छे-- नवसय सहस्स उनहे, जाइ जरा मरण सागरुत्तारे । ज धम्मंमि गुणायर, खणमविमाकाहिसिपमायं" ॥१॥ " हे गुणवंत मुनि, लाखो नवे करीने उझन अने जन्म, जरा, मरणरुप, समुज्ने उतारनार एवा यतिधर्ममां क्षण मात्र पण प्रमाद करीश नहीं, कारण के, ते मोटा अनर्थनो हेतुरुप ने. कडुं के," सेणावईमोहनिवस्स एसो, सुहाणजं विग्घकरोरप्पा । महारिक सव्वजियाण एसो, कयावि कज्जो न तओपमाओ" १ “जे कारण माटे आ पुरात्मा प्रमाद मोहराजानो सेनापति , से कारणे ते मोहादिक सुखोमां विघ्न करनारो ने अने ते विघ्न करनार होवाथी सर्व जीवोनो महान् रिपु बे, तेथी जेणे परमार्थने जाणेलो ने, एवा मुनिए कोई काले पण ए प्रमादने करवो नहीं." १ वली कह्यु के के, " थोवोवि कयपमाओ जश्णो संसारवडणोभणिओं । जह सो सुमंगल मुणी पमाय दोसेण पयवछो" ॥१॥ " यतिने थोमो पण प्रमाद संसारनी वृद्धि करनारो कहेलो , तेवा थोमा प्रमादना दोषयी सुमंगळ मुनि चाममाथी पगे बंधाया हता." ? सुमंगळ मुनिनो वृत्तांत.. श्रा भरतक्षेत्रने विषे सुमंगळ नामे एक आचार्य पांचसो शिष्योथी परिवृत हता. तेओ अप्रमत्त थइ सर्वदा शिष्योने वांचना देता हता. एक वखते वात व्याधिवझे आचार्यनी कटीमा वेदना नत्पन्न थर आवी, तेथी तेश्रो वांचना देवाने अशक्त थप गया ते वखते तेमणे पोताना शिष्योने कहां, “हे शिष्यो, तमे कोश गृहस्थना घरमाथी योगपट्ट लावो." ते वरखते एक शिष्ये गुरुनी नक्तिथी योगपट्ट लावी गुरुने आप्यो. गुरुए तेने कटी प्रदेशमा स्थापन कयों अने तेना योगथी पनोंठी वाळी एटले तेश्रो अति सुख पाम्या. पठी आचार्य ते योगपट्टने एक कणवार मुकता न हता. तेवी रीते केटलाएक दिवसो गया पली शिष्योए आचा Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ श्री आत्मप्रबोध. र्यने का, “ नगवन्, आपने शरीरे हवे आराम थयो , तेथी तमारे गृहस्थने योगपह पाछो आपको जोइए, अने आपे आ प्रमादना स्थाननो त्याग करवो जोइए. कारण के, थोमा पण प्रमादथी संसारनी वृछि थाय जे." आचार्ये कह्यु, " शिष्यो, श्रा योगपट्ट धारण करवामां शो प्रमाद थाय छे. आ योगपट्ट तो मारा शरीरने सुख करनारो बे, ते प्रमादनुं स्थान नथी. " गुरुनां आवां वचनो सांनळी ते विनीत शिष्यो मौनतुं अवलंबन करीने रह्या हता. केटलोक समय गया पड़ी ते सुमंगळ आचार्य श्रुतना उपयोगथी पोतार्नु आयुष्य पूर्ण थवानो अवसर जाणी अने एक विशिष्ट गुणवाला शिष्यने सूरिपदे स्थापी पोते संझेखना करी कालनी राह जोइ रह्या हता, ते वखते शिष्यो शुभध्यानोपगत गुरुनी निकामणा करतां आ प्रमाणे वोड्या-" हे स्वामी, व्रतग्रहण कर्या पली आज सुधीमा जे कांई प्रमाद स्थान सेव्यु होय तो ते आप आलोवो-पमिक्कमो." शिष्योना आ कथनथी सूरिए योगपट्ट धारण करवा शिवायना बीजा जे जे प्रमादना स्थान हता ते आलोव्या अने पडिकम्या. त्यारे शिष्योए कह्यु, " स्वामी, योगपट्ट धारणनो प्रमाद पण आलोवो." शिष्योनुं आ वचन सांभळी आचार्य कोपानळथी प्रज्वलित थइ बोट्या--" अरे शिष्यो, तमारी मति विनीत जे, जेथी तमे अद्यापि योगपट्टथी थयेला मारा दूषणने ग्रहण करो छो." आ प्रमाणे गुरुने कोपायमान थयेला जाणी तेश्रो विनयपूर्वक बोव्या-" स्वामी अमारो अपराध क्षमा करो. अमाए अजाणतां तमोने अप्रीति वचन कहेलु डे, आजथी हवे अमे बोलीशुं नहीं. " शिष्योना था वचनथी सूरिनो कोप शांत थइ गयो, पण तेमनुं ध्यान योगपट्टने विषे रहूं, तेश्रो ए प्रमाद स्थानने आलोच्या विना काल करी गया. ते पछी तेत्रो ए दोषने लश्ने कुडागार नगरना राजा मेघरथनी विजया नामे देवीना जदरमा गर्जपणे उत्पन्न थया. प्रसव समये जेना पग कटीपर वीटाएला चाममा पट्टे बांधेला , एवो ते पुत्र उत्पन्न थयो. राजाए तेनो जन्मोत्सव कर्यो अने बारमे दिवसे ते पुत्रनुं नाम दृढरथ पाडयुं. पांच धात्रीअोथी लालन करातो ते बालक ज्यारे आठ वर्षनो थयो त्यारे तेने कलाचार्यने सोंप्यो अने ते अनुक्रमे बोतेर कक्षामा प्रवीण बनी गयो. ते कलाओमां ते संगीतकलामा विशेष निपुण थयो. कुमार दृढरथने संगीतकलामां विशेष निपुण जाणी घणा गंधर्वो पोतपातानी कला बताववाने तेनी पासे आववा लाग्या. ते Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३पए चतुर कुमार एटलो बधो संगीत कुशल हतो के जेथी कोई पण गायक तेना मनने रंजन करवा समर्थ थऽ शकतो नहीं. राजकुमार दृढरथ उंची जातना संगीतने जाणनारा गायकोनी कदर करतो. तेमने घणुं अव्य आपी संतोष पमामतो हतो. तेओ तेनाथी संतोष पामी देश देशांतरमां ते दृढरथनी कीर्तिने विस्तारता हता. आ प्रमाणे दृढरथकुमार पोतानो समय सुखे प्रसार करतो हतो. एक समये जे पेला पांचसो शिष्यो हता, तेश्रोमांथी निर्मल ज्ञान, दर्शन अने चारित्रने धरनार जे शिष्य सुमंगलसूरिना आचार्यपद नपर आवेन, ते अने बीजा शिष्योए अवधिज्ञानथी जाएयुं के, पोताना गुरु सुमंगलाचार्य दृढरथ कुमार थइ अवर्या जे. आयी पोताना गुरुना स्वरुपy दर्शन करवा तेमनी श्छा थइ अनार्य क्षेत्रमा कुमार दृढरथ रुपे गुरुनो अवतार थयेलो जाणी तेमना मनमां खेद उत्पन्न थयो अने तेश्रो प्रमादना आचरणने धिक्कारवा लाग्या. तेओए कह्यु के, प्रमादना थोमां पण आचरणथी आ अमारा गुरुना जीवनी आ दशा थइ . जेओ संसारमां आ प्रमाणे प्रमाद- सेवन करशे, तेत्रो अमारा गुरुनी जेम बहु प्रकारे दु:खना भाजन वनशे." तेत्रो आ प्रमाणे चिंतवता हता, तेवामां तेमना आचार्यपद उपर आवेला शिष्यना मनमां विचार उत्पन्न थयो के, “ हवे कोइ पण उपाय करी गुरुना जीवने अनार्य क्षेत्रमाथी आर्य क्षेत्रमा सवायतो वधारे सारं." आवो विचार करी तेमणे वीजा शिष्योने ते वात निवेदन करी. पी कोइ एक योग्य शिष्यने गबनो भार सौंपी ते आचार्य अनार्य देशमां शुफ आहारनी 5लनता मानी तेवा दृढ संधयणथी महातप तथा चारित्र पासवानी शक्तिवाला केनाएक साधुओने साथे लश् गामोगाम विहार करी अनार्य देशमां आव्या. त्यां आवतां तेमणे आहारनी गवेषणा न करवायी नारे परिश्रम पड्यो हतो. यानक नामना अनार्य देशमां आवेना कुडागार नगरमां तेओ आवी पोहोच्या. ते नगरनी समीपे आवेता एक उद्यानमां तेओ दाखल थया. त्यां शुक्छ नूमिने पमी लेही अने इंसादिकनो अवग्रह लश् तेत्रो रह्या हता. आ नगरना वासीओ के जेओए साधुना रूपने कदिपण जोयेनुं नहीं, तेश्रो आ साधुओने जो आश्चर्य पामी गया. तेओए तेमनी समीपे आवीने आ प्रमाणे पुज्युं, " तमे कोण गे?" साधुओए का, “ अमे नट बोए." त्यारे लोकोए कह्यु, "जो तमे नट होतो राजानी पासे जाओ, एटले तमोने यथेष्ट ध Jain Education Intemational Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० श्री आत्मप्रबोध. न प्राप्त थशे." साधुओए कयु, “ अमे कोश्नी पासे जता नथी, जेओ अमारी पासे आवे तेमने अमे अमारी नृत्य कला बतावीए बीए." लोकोए प्रश्न कर्यो." जो तमे राजानी पासे नहीं जाओ तो जोजन क्याथी करशो ? " त्यारे साधुओ बोब्या-" अमे जोजन करता नथी." आ सांनळी लोको विस्मय पाम गया पठी ज्यारे. साधुओ पडिलेहणा तथा प्रतिक्रमण करता, त्यारे केटलाएक स्रोको आवी तेमने पुरवा लाग्या के “ तमे आ शुं करो डो" साधुओ बोल्या, " अमे आ नृत्य संबंधी परिश्रम करीए बीए." ते सांनळी लोको पोताने स्थाने चाख्या गया. लोकोना मुखथी वृत्तांत नगरमा फेलायो. ते राजाना सांभळवामां आव्यो ते सांजळो विस्मय पामेलो राजा तेमनुं स्वरूप जोवाने माटे उद्यानमा आव्यो. तेणे आवी साधुओने पुग्युं, “तमे कोण बो? क्याथी अने शा प्रयोजनने माटे तमे अहीं आव्या डो?" आचार्ये कहा, “ अमे नट बीए. तमोने अमारी कला देखामवाने दूरथी आव्या जीए." राजाए का, त्यारे तमारं नृत्य मने बतावो-“ साधुओ बोट्या-" देवानुप्रिय, जे संगीत कलामां निपुण होय, तेनी आगळ अमे नाटक करीए बीए." त्यारे राजाए कह्यु, “ मारो पुत्र दृढरय ए सर्व जाणे ." गुरु बोट्या-" तेमने अहीं सत्वर बोलावो. " आ उपरथी राजाए राजकुमार दृढरथने बोलावा एक पुरुषने मोकल्यो. ते पुरुष राजकुमारने तेमवा गयो. राजकुमार पालखीमां बेशीने त्यां आव्यो. तेणे आवी साधुओने का, “ तमे संगीत शास्त्रमा कुशल हो तो प्रथम संगीतना जेदो बोलो, " ते वखते आचार्य श्रुतना बाथी संगीतना बधा भेदो कुमारनी आगळ कही संभलाव्या ते सांजळी कुमार अत्यंत विस्मय पामी गयो अने मनमा चितववा लाग्यो के, " अहो ! आ तो संगीत शास्त्रमा प्रवीण लागे . आना जेवो बीजो कोइ नटाचार्य नथी, माटे तेनी नृत्यकला हमणाज जोइए." आ प्रमाणे चीतवी तेणे साधुने आ प्रमाणे कडं,-" नटो, तमे नृत्य करो, जेथी तमारी नृत्यकलानी परीक्षा करी शकाय. त्यारे आचार्ये कह्यु के, प्रथम नत्यना उपकरणो मंगावो. त्यारे कुमारे पोताना माणसो मोकली नृत्यना सर्व उपकरणो मंगाव्यां ते पड़ी आचार्ये वादिननो ध्वनि करतां पेहेला मधुर स्वरे करी तेवा प्रकारनो भालाप को. जे सांजळी सर्व श्रोताओ चमत्कार पामो गया. अने जेम चित्रमा श्रालेखेला होय, तेम स्तब्ध थइ गया Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. आ वखते आचार्य नृत्यना आरंजमां आ ध्रुवपद नण्या हता. “छि छिपमाय लत्रियं सुमंगलो वच्छमेरिसिंपत्तो । किं कुणिो अंबडया पसरंति न अम्हगुरुपाया" ॥१॥ हे वत्स, आ प्रमादना लालित्यने धिक्कार हो, के जेथी सुमंगल आवी दशाने पाम्या ! पूर्व कर्मना दोषथी अमारा गुरुना चरण प्रसरता नथी, तेमां अमे शुं करीए ? अमारो शो नपाय ? ते पड़ी आचार्यना कहेवा वाक्योने वीजा साधुओए मोटे स्वरे उच्चार्या अने तेमां वीणादिक वाद्यो वगाड्या. राजकुमार दृढरथ वारंवार जणाता ते ध्रुवपदने सांभळी पोताना चित्तमां विचार करवा लाग्योके, "आ साधुओ झुंजणे ? ___ सुमंगल कोण अने तेणे केवी रीते प्रमाद कर्यो ? राजकुमारे एवी रोते वारंवार नहापोह करवा मांड्यो, तेवामां ते तत्काल मूर्ग पामो नूमि उपर पड़ी गयो. ते वखते सर्वत्र हाहाकार थइ गयो. तत्काल राजादिके तेनो शीतोपचार करवा मांड्यो. कणवारे चेतना पामी ते कुमार पोताना पूर्व जवने संनारी ते पूर्वना शिष्योने देखी या प्रकारे विनाप करवा लाग्यो-"अहो ! आ संसार सुखमय छे अने कर्मनी गति विचित्र प्रकारनी . आ संसारमा उष्कर्मना उदययी थयेला प्रमादना दोपे करी आ जीवो बहु प्रकारना मु:खने अनुभवे छे. हुँ लगार प्रमादने आचरवाथी आवी दशाने पामी गयो." कुमारने आम चिंतवतो अने विनाप करतो देखी राजाए चिंतव्यु के, "निश्चे आ साधुओए मारा कुमारने घेलो करी दीधो, माटे तेमने हणवा जोइए." आई चिंतवी राजाए रोषथो सेवकोने ते साधुओने बंदीवान कररी वध करवानी आझा आपी. ते वखते कुमारे का, “ हे पिता, आ पुरुषो तो हितकर्ता ने अने परना कार्य साधनारा छे, माटे ते पूजवायोग्य जे. वध बंधन करवाने योग्य नथी." कुमारना आ वचन सांजली राजाए ते आझा पाठी खेंची सीधी अने ते सावुओनी बहुनक्तिपूर्वक सेवा करी. ते पठी कुमारे एकांते जइ ते साधुओने आ प्रमाणे कहा, "हे देवानुप्रिय, आ अनार्य क्षेत्र जे. अहीं वसनारा लोको पण अनार्य छे. आ स्थले सारा धर्मनी वार्ता पण सांजळवामां आवती नथी, तेथी अहिं मारी शी गति थशे?" Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ श्री आत्मप्रबोध. आचार्य बोया - ", तमे अमारी साथै आवो: जेयी तमारा कार्यनी सिद्धि यशे. " " आ राजकुमार बोल्यो - महाराज, मारा चरण बंधा गया बे, तेथी हुं चालवाने समर्थ नथी, तेथी आगळ जतां मारो शी रीते निर्वाह यशे ? चार्ये जणाव्यं, “जन, ज्यारे तमे हळवे हळवे आर्यक्षेत्रमा आवशो, एटले आ साधु तमारी वैयावच्च करशे. " आ आचार्य ना वचन सांजली कुमारने हिंमत आवी पछी ते पोताना माता पिता पासे आवी आ प्रमाणे बोल्यो - " हे माता पिता, जो आप आशा आपो तो हुं आ महान् कल्लाचार्य पासे कला शीखवाने जाउं " माता पिता मोहातुर थइने बोल्या(6 'वत्स, में तारो वियोग सहन करवाने समर्थ थी माटे ए नटोने अहींज राखी कलानो अभ्यास कर. राजकुमार बोल्यो, ए वात सत्य बे, ए लोको परदेशी बें, तेम आपण 5व्यने नारा नथी, तो ते अहींशी रीतें रहे ? तेथी बीजा सर्व विचार बो " 66 दमने तेमनी साथे जवा आज्ञा आपो जेथी हुं तेमनी साथ संगीत कलानो संपूर्ण अभ्यास करुं. " राजकुमारनो आवो अति आग्रह जाणी माता पिताए तेने आज्ञा आपी ते साथे तेने बेशवाने एक शिबिका, अनेकेटलाक माणसो प्राप्या. राजकुमार खुशी थइ शिविकामां आरूढ थइ तेमनी साथे चाब्यो तेनी पाउल साधुओ चालवा लाग्या, अनुक्रमे ते अनार्य क्षेत्रनं उल्लंघन कर आर्यक्षेत्र प्राप्त था. एटले कुमारे ते शिविकाने पाळी वाळी मुकी. साधुओए ते आर्य क्षेत्रमां आवी कोइ एक नगरमा निक्षाने माटे जइ शुद्ध आहारावी पोते करेला आंबा तपनुं पारणं कर्यु. ते वखते राजकुमारे कां, “ जगवन, हवे मारे शुं करवुं ? " आचार्य बोल्या, “ तमे व्रत ग्रहण करो. " सूखिरनी व आज्ञाथी ते कुमारे चारित्रने ग्रहण कर्यु पछी तेना पूर्व जवना शिष्यो खेद रहित थ‍ तेनी वैयावच्च करवा लाग्या पछी अनुक्रमे तेमना पोताना गन्ना बीजा साधुग्रो एकता थइ आव्या अने ते अत्यंत आनंद पामी गया. ते कुमारमुनि महा तपस्वी थया, चारित्र ग्रहणथी मांगीने तेमणे यावज्जीवित पकाने ममत्तपणे संयमने पाल्यो. अनुक्रमे आयुष्यनों क्षय समाधि पूर्वक काल करी ते नवग्रैवेयकमां देवपणे उत्पन्न थया हता, त्यांथी चवीने महाविदेह क्षेत्रने विषे तेयो सिद्धिपदने प्राप्त थशे. बीजा पण सासंयमनी आराधना करी अनुक्रमे उत्तम गतिने प्राप्त थया हता. ए प्र Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. कारे प्रमाद उपर सुमंगलमुनिनुं दृष्टांत . आ दृष्टांत उपरथी प्रमादना देशथी उत्पन्न थयेला कर्मनो विपाक केवो विषम डे ? तेनो विचार करी संसारनीरु एवा मुनिओए सर्वदा प्रमादनो परिहार करवो जोइए. हवे प्रमादनो परिहार करी संयम पालवामां उजमान थयेला मुनिओ मननो निग्रह करवा प्रमुख कार्यमा जे वार सदनावना नावे . तेनुं स्वरुप कहेवामां आवे बे. " पढम मणिच्च मसरणं संसारो एगया य अन्नत्तं । असुश्तं आसवसंवरोय तह निजरानवमी ॥ १॥ लोग सहावो बोहि-सुबहा धम्मस्स साहगा अरिहा । एयाओ भावणाओ, भावेयवा पयत्तेणं " ॥ २ ॥ ? अनित्य, २ अशरण, ३ संसार, ४ एकत्व, ५ अन्यत्व, ६ अशुचि, ७ आश्रव, संवर; ए निर्जरा, १० लोक स्वरुप, ११ बोधि दुर्लन अने १२ धर्मना साधक अरिहंत-इत्यादि बार नावनाओनो सुदृष्टि पुरुषोए यत्ने करी अभ्यास करवो. १ आ संसारमा मोहादिकने वश थइ सर्व वस्तुने विर्षे अवली बुझिवाबा मूढजनो स्वामित्व, धन, यौवन, शरीरखावण्य, बल, आयुष्य, विषय सुखनी वबनता अने जनसंयोगादिक पदार्थोने पर्वतथी उतरती महा नदीना पूरनी पेठे अत्यंत वायुना समूहे कंपावेला ध्वजपटनी जेम वांछित प्रदेशमा पोतानी श्या प्रमाणे विहार करनारा अने चारे तरफ जमराओना समूहे आश्रित एवा गंडस्थलवाला मदोन्मत्त हस्तीना कर्णतालनी पेरे अने निबिक पवने करी हणाएसा वृक्षना पाका पात्राना समूहनी परे अति चंचल , तोपण ते सर्वदा नित्यरुप जाणे , पण तत्त्व दृष्टिए जोतां आ सर्व जावो अनित्य , तेमां एक पण नित्य-शाश्वत नथी. वली जे परमानंदने आपनारा सदज्ञानादिक प्रात्माना गुणों ते नित्य , आ प्रमाणे जे चिंतवg, ते पेहेंत्री अनित्य नावना कहेवाय उ. तेने माटे आ प्रमाणे कहेलु डे. " सामित्तणधणजुव्वणक रूवबलाउछसंजोगा। अइलोता घणपवणा हयपायव पकपत्तव्व " ॥ १ ॥ ૪૫ Jain Education Intemational Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. आ गाथानो अर्थ उपर कहेवामां आव्यो छे. २ वीजी अशरण जावना बे. जेम या लोकने विषे माता, पिता, नाइ, व्हेन, स्त्री, पुत्र, मित्र, सुनटादि परिवार देखता बतां एक जैन धर्म शिवाय बीजं कांइ पण शरण रुप नथी इत्यादि चितवन कर, ते अशरण भावना कहेवाय बे. तेने माटे या प्रमाणे कहेलुं बे " पिउ जाउ जयणि जज्जा, नडाए ( पच्चरक मिरक माणाणं । जीवं हरइ मच्चू, नविसरणं विणा धम्मं " ॥१॥ ३५४ श्लोकन नावार्थ उपर कहेवामां आव्यो बे. ३ त्रीजी संसार नावना बे. जेनी अंदर या प्रमाणे चितवन करवानुं बे- “ संसारने विषे चोराशीलाख जीवायोनिमां वारंवार जन्ममरण याश्रीने भ्रमण करता एवा संसारी जीवो कर्मना उदयर्थी कोइवार सुखी, कोइवार राजा, कोइवार रंक, कोइवार कुरुपी ने कोइवार स्वरूपवान् एम विविध प्रकारनी अवस्था अनुवे छे. वली परस्पर संबंधी ओनी चिंताने विषे रह्या करे छे. कर्मनावाने लइने कुबेरदत्त प्रमुखनी जेम एकज जवमां महान् दुष्कर्मना बंधना हे - तुरुप एवा अनेक संबंधो उत्पन्न थाय छे, तो अनेक नवोमां अनेक संबंधो थाय, शुं कहें ? तेथ वस्तुताए एकांत दुःखरूप एवा आ दुःखमय संसारने विषे मूढ पुरुषो रच्या पच्या रहे छे. पण जेयो तत्त्वज्ञानी छे, तेो तेमां कदिपण आसक्त थता नथी, या प्रमाणे जे चिंतवन करवुं, ते त्रीजी संसार भावना कहेवाय छे, तेने माटे कां छेके, " जाइमिगं मुंचंतो छावरं जाई तहेव गिण्हंतो । म चिरमविरामं जमरोव्व जिओ जवारामे" ॥१॥ " एकेंप्रिय आदि जातिने मुकतो अने बीजी वे इंडिय प्रमुख जातिने ग्रहण करतो एवो जीव जमरानी जेम या नवरूप आरामने विषे विराम पाम्या art चिरकाल मे बे. " ते विषे कुबेरदत्तनो वृत्तांत. मथुरा नगरी मां कुबेरसेना नामे एक गणिका रहेती हती. एक दिवसे ते Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३५५ 46 - ह - " णीने नवीन गर्न उत्पन्न थर आव्यो, आर्थी ते हृदयमां अत्यंत खेद पामवा जागी. तेणीनी माताएं ज्यारे तेलीने खेद पामती जोइ, त्यारे तेणीए तेनुं दुःख दूर करवा माटे वैद्याने बोलाव्या. वैद्योए नामी जोइ तेलीने नीरोगी जाणी कयुं, आना शरीरमां को जानो रोग नथी, पण तेलीना उदरमां युगलनो गर्न बे हेतुथी आ स्त्रीने खेद थयो छे. ते पछी ते वैद्योने विदाय करी वृद्ध कुट्टिनी पोतानी पुत्रीने या प्रमाणे कहेवा लागी – “पुत्री, आ तारा उदरनो गर्न रा प्राणने हरनारो छे, माटे तेने पामी नांखवो योग्य छे. वेश्याए कनुं, “ हुं गमे तेला क्लेश सहन करीश पण मारा गर्ननुं कुशल थाओ. " पछी ज्यारे योग्य अवसर आयो, एटले तेणीए पुत्र ने पुत्रीना युगलने जन्म प्राप्यो. आ वखते तेलीनी माताए कहुं, “पुत्री, आ छोकरां तारा यौवनने हरनारा बे, तेथी युगलने विष्टानी जेम त्यजी दइ तारी आजीविकाना साधनरुप एवा यौवनवयनुं रक्षण कर. माताना या वचन सांजळी ते वेश्या बोली - " माता ज्यारेप कहो बोतेम होयतो दश दिवस सुधी राह जुवो, पछी तमे जेम कहेशो, तेम हुं करीश. या प्रमाणे कही ते कुबेरदत्ता वेश्या ते पोताना बालकोने दश दिवस सुधी स्तनपान करावा लागी, ज्यारे अगीयारमो दिवस आव्यो, एटले तेलीए पोताना बालकोनां कुबेरदत्त ने कुबेरदत्ता एवा नाम पाड्यां. पीतेमनाए नामर्थ। अंकित एवी वे मुद्रा करावी तेमनी यांगली मां पेहेरावी - नेमने एक लाकडान | पेटीमां मुकी बनेने सायंकाले यमुना नदीना प्रवाहमां वेहता मुक्या जलना प्रवाहमां वेहेती ते पेट) अनुक्रमे सूर्योदय वखते शौर्यपुर नगरने दरवाजे आवी. ते वखते कोइ वे शेठना पुत्रो त्यां स्नान करवा आवेला, म ए पेटी जोइ ने तत्काल तेने ग्रहण करी घामी; त्यां ते बने बालको तेमना जोवामां याव्या. तेश्रोमाथी एकने पुत्रनी इछा हती, तेथे पुत्र लीधो ने एक पुत्रीनी वाहती तेणे पुत्री सीधी. तेस्रो बनेने लइ पोतपोताने घेर प्राव्याने ते संतानो पोतानी स्त्रीने याप्या अने तेमनी मुझाना लेख प्रमाणे तेमना नाम राख्या. केटलेक काले ज्यारे ते बने बालको एकठा थया त्यारे ते शेपोतानो स्नेह संबंध जाळववाने माटे ते बनेनो विवाह संबंध जोगी दीधो-मोटी धामधूमथी तेमनो लग्नोत्सव करवामां आव्यो. ते बँने दंपती एक वखते एकांते सोठा बाजीनी क्रीमा करता हता तेवामां कुबेरदत्तना हाथ मांथी Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. मुजा नीकलीपमी अने ते कुबेरदत्तानी आगल पी. कुबेरदत्ताए ते हाथमां लीधो; तेमां रहेन नाम वांची अने ते पोतानी मुना साथे मेळववा मांझी, तेवामां ते बनेनो सरखो घाट अने समान आकृति जोइ तेणीना मनमा शंका उत्पन्न था आवी अने कुबेरदत्त वखते पोतानो भाइ हशे एम निश्चय थवा मांड्यो. आ प्रमाणे निश्चय थतांज तेणीए मुजा कुबेरदत्तना हाथमा पेहेरावी दीधी तेने जोतां ज कुबेरदत्तना मनमां पण शंका था आवी अने कुबेरदत्ता पोतानी व्हेन हशे, एवो तेणे निश्चय कर्यो. आथी तेना मनमा अत्यंत खेद नत्पन्न थइ आव्यो. पर। बंने एकत्र था विचार करी पोताना विवाहना कार्यने अकार्यमानी ते संदेह दूर करवाने पोतपोतानी माताने सोगन आपी अतिशय आग्रहथी पुउवा लाग्या. ज्यारे तेमनो अति आग्रह देखायो, एटले ते माताए पेटीनी प्राप्तिथी आरंजीने बधो वृत्तांत तेमनी आगल निवेदन करी दीधो. आ वखते कुबेरदत्ते प्रश्न कों --" तमोए अमोने युगल जन्मेला जाणतां उतां आवो लग्न संबंध केम कर्यो ? तमारे आधुं अकार्य करवू न हतुं." ते माताए कह्यु, " तमारा जेवी रूप, गुण अने शीलमा मनती बोजी जोम न मनवाथी अमोए आ संबंध जोड्यो बे, उतां जो तमारा मनमां ते विषे खेद रहेतो होय तो हजु कांइ बगमी गडे नथी; कारणके, हजु तमारूं मात्र पाणिग्रहणज थयुं ने कांश मैथुन थयुं नथी; तेथी तमो खेद पामशो नहीं. तमोने फरोवार वीजा योग्य जोडां साथे परणावीशुं." माताना आ वचनो सांजळी कुबेरदत्त बोल्यो-" तमे कहो बगे, ते यथार्थ . पण हात हुं वेपारने माटे विदेशमा जवा श्छा राखुं बुं, माटे मने आाआपो." माता पिताए कुबेरदत्तने आझा आपी. पी कुबेरदत्त पोतानी व्हेनने आ - त्तांत जणावी घणुं करीयाणु लइ परदेश चाल्यो गयो. कर्मयोगे ते पोतानुं वतन जे मथुरा नगरी तेमां आवी चड्यो. त्यां पोते व्यापार कम करवा लाग्यो. एक दिवसे तेनी माता पेली कुवेरसेना वेश्या तेना जोवामां आवी. तेणीने घणी सुंदर जोइ कुबेरदत्त कामवश थइ गयो. तत्काल घj .अव्य आपी तेणे तेणीनी साथे विषय जोग जोगव्यो. एवी रीत केटलोक वखत विषयनोग जोगवतां तेणीने एक पुत्र उत्पन्न थयो. अहीं शौर्यपुरमां कुबेरदत्ताए ज्यारे पोतानी माता पासेयी पोतानो वृत्तांत सांजल्यो, एटले तेणीना मनमां वैराग्य उत्पन्न थइ आव्यो. तत्कान तेणीए कोई Jain Education Intemational Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३५७ साध्वीनो योगयतां तेीनी पासे दीक्षा ग्रहण करी. संयमने प्राप्त करी तेली ए एवो तप आचर्यो के, जेथी निर्मल अध्यवसायने लड़ने तेणीने अल्प समयमा अवधिज्ञान उत्पन्न थइ त्र्यायुं. एक वखते ते कुबेरदत्ता साध्वीजीए अवधिज्ञानना वलर्थी पोताना जाइनुं स्वरूप विलोक्युं तेवामां तेणीना जाणवामां त्र्याव्यं के, पोतानो जाइ कुबेरदत्त मथुरामां पोतानी माता साथे आसक्त थयो बे, अने तेनाथी एक पुत्र उत्पन्न थल्लो बे. या स्वरूप जाणी तेणी कर्मनी गतिने धिकार आपी पोताना बंधुने ते कार्यरुप महापापमांथी मुक्त करवा ने तेना आत्मानो उच्चार करवा मथुरानगमां आवी. ते नगरीमां कुबेरसेना वेश्याने घेर जइ धर्मलान आशीष आपी, तेलीए रहेवा माटे आश्रय माग्यो. कुवेरसेनाए कयुं, " हे महा सती, हुं वेश्या हुं तोपण हम एक नर्त्तारना संयोगथी कुलीन स्त्री बनी हूं; तेथी तमे सुखे कररी मारा घरनी नजीक निरवद्य श्रयने ग्रहण करो अने उपदेश आपी मोने सदाचारमां प्रवतो. वेश्यानां या वचनो उपरथी कुबेरदत्ता साध्वी पोताना परिवार साथे ते वेश्याना घरनी पासे वास करीने रह्या हता. वेश्या कुबेरसेना दररोज ते साध्वीनी आगळ पोताना बालकने लोटतो मुक्ती त्यारे अवसरने जाणनारा साच्ची ते बालकने आ प्रमाणे बोलावता हता, " अरे बालक, १ तुं मारों जाइ बे, २ तुं मारो पुत्र बे, ३ मारो दीयर छे, ४ मारो मत्री जो बे, ए मारो काको बे ने ६ मारो पौत्र बे. तारो जे पिता ते १ मारो जाइ बे, २ मारो पिता छे, ३ मारो दादो बे, ४ मारो जतार बे, ए मारो पुत्र छे, अने ६ मारो ससरो पण छे. वली जे तारी माता ते ? मारी माता बे, २ मारी दादी बे, ३ मारी जाजी बे, ४ मारी पुत्रवधू डे, ए मारी सासू बे ने ६ मार। शोक्य पण छे. एक बखले कुवेरदत्ते आ वचन सांगळी विस्मय पामी साध्वीजीने आ प्रमाणे पुत्रयुं, " साध्वीजी, तमे आवा अयुक्ति वचनो केम बोलो बो ? ते वखते साध्वीजी बोल्या, "जाइ, हुं जे वोलुं लुं, ते युक्तज बे, प्रयुक्त नयी. सांजळो, १ बालक ने हुं एक माताना बीए तेयी ते मारो जाइ थाय बे, १ ते मारा नर्त्तानो पुत्र होवाथी मारो पुत्र थाय बे, ३ ते मारा जरिनो नानो जाइ होवाथी मारो दियर याय बे, ४ मारा जाइनो पुत्र होवाथी मारो मत्री जो थाय बे, Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० श्री आत्मप्रबोध. ५ मारी माताना पतिनो नाश होवाथी मारो काको थाय ने ६ अने मारी शोक्यनो पुत्रनो पुत्र होवाथी मारो पौत्र थाय . आ प्रमाणे बालकनी साथे पोताना उ संबंधो देखामी साध्वीए पुनः जणाव्युं, “ १ आ बालकना पितानी अने मारीमाता एक होवाथी ते मारो नाइ थाय , २ आ बालक मारी मातानो नत्तार होवाथी मारो पिता थाय , ३ आ मारा काकानो पिता होवाथी मारो दादो थाय , ४ ते पूर्वे मने परणनारो होवाथी मारो जार थाय छे, मारी शोक्यनो पुत्र होवाथी मारो पुत्र थाय ने अने मारा दियरनो पिता तेथी ते मारो ससरो थाय डे. हवे आ बालकनी माता मारी प्रसव करनारी होवाथी ? ते मारी पण माता थाय छे, २ ते मारा नाश्नी वहु तेथी नानी थाय , ३ मारा काकानी माता होवाथी ते मारी दादी थाय , ४ मारी शोक्यना पुत्रनो वहु होवाथी मारी वधू थाय छे. ५ मारा नारनी माता तेथी ते मारी सासू थाय , ६ अने मारा जारनी बीजी स्त्री, तेथी मारी शोक्य थाय छे. ए बालकनी माता कुबेरदत्ता वेश्यानी साथे मारा पोताना उ संबंध थाय . आ प्रमाणे कही ते कुबेरदत्तना आत्मानो नकार करवा पोते राखेशी पेली मुजा तेनी आगळ प्रगट करी बतावी. कुबेरदत्त ते मुघा जो विचारमां पमा गयो अने साध्वीए बतावेला सर्व संबंधोने विरुछ जाणी तेना हृदयमां वैराग्य नावना प्रगट थइ आवी. आत्मनिंदा करता ते कुबेरदत्ते पोतानी शुछिने माटे विचार करी तत्काल दीक्षा ग्रहण करी अने ते महान् तपस्या करवाने प्रवो. • आ प्रवृत्ति जाणी कुबेरसेना वेश्याए पण प्रतिबोधने पामी श्रावकधर्म अंगीकार कर्यो. साध्वी कुबेरदत्ता या प्रमाणे तेमनो उद्धार करी पोतानी प्रवर्तिनी पासे चाट्या गया. अनुक्रमे ते सर्वे जीवो पोताना धर्मने सम्यक् प्रकारे आराधी उत्तम गतिना जाजन थया हता. अढार संबंध उपर कुबेरदत्तनुं दृष्टांत आ प्रमाणे -आ अढार संबंधो एक जवने आश्रीने बताव्या जे. अनेक नवनी अपेक्षाए तो प्राये करीने सांव्यवहारिक एटले व्यवहार राशिवाळा जीवोनो एकेको संबंध अनंतीवार थयो, तेमज श्री जगवती सूत्रना वारमा शतकना सातमा उद्देशमां कयुं ने के," अयणं नंते जीवे, सव्व जीवाणं माइत्ताऐ” इत्यादि । Jain Education Interational Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३५ ए देवानुं तात्पर्य के, " हे जगवन्, आ जीव सर्व जीवोना मातापणे, पितापणे, नापणे, व्हेनपणे, स्त्रीपणे, पुत्रपणे, पुत्रीपणे, बहुपणे, शत्रुपणे, घातकपणे, प्रत्यनीकपणे, शत्रुसहायपणे, राजापणे, युवराजपणे, सार्थवाहपणे, दासदासीपणे, जागग्राहीपणे, शिक्षकपणे, अने इर्ष्यालुपणे पूर्वे उत्पन्न थयो हशे ?” या प्रमाणे गौतम महाराजे पुछतां श्री वीरमनु कहे बे-" हा, गौतम, अनेकवार अथवा अनंतवार पूर्वे उत्पन्न थयो, एम सर्व जीवो या जीवना मातादिकपणे अनेकवार अथवा अनंतवार पूर्वे उत्पन्न यया बे. ४ चोथी एकत्व जावना या प्रमाणे बे-आ संसारमां जीव एकलो उत्पन्न थाय छे ने एकलो मरण पामे छे; तेमज एकलोज कर्म उपार्जे बे ने तेना फल पण एकलोज जोगवे बे, तेथी तत्वपणे करी एक श्री जैन धर्म विना कोण अन्य स्वजनादिक सहाय करता नथी . इत्यादि जे चितवन, ते एकत्व जावना कहेवाय छे, तेने माटे या प्रमाणे कहेतुं बे " इक्को कम्माइ समं जणेश भुंज‍ फलंपि तस्सिको । इकस्स जम्ममरणे, परभवगमणं च इक्कस्स " ॥ १ ॥ या गायानो अर्थ उपर कहेवामां आव्यो बे. ५ पांचमी अन्यत्व जावना या प्रमाणे बे- चिरकालथी आत्म प्रदेशनी साथे गाढ संबंधवालुं अने मनवांछित अशनपानादिके करी बहु प्रकारे बालित एवं पोतानुं शरीर पण वस्तुगतिए कर अन्य — जुडुंज बे. ते अन्यपपाने लइ बेटे प्राणी अनी पछवाने जतुं नथी तो पछी बाह्यभूत एवा धन सुवर्णादि परवस्तुनशी वात करवी ? माटे एक आत्म धर्म विना सर्वे सांसारिक जावो अन्य बे-जुदा बे, आवुं जे चितवन ते अन्यत्व भावना कहेवाय बे, तेने माटे या प्रमाणे कलेलं - 66 चिरालिपि देहं जर जिम मंतंमि नाणुवद्वेश | तापि दो अन्नं धणकणयाईए का वत्ता " ॥ १ ॥ अपिच - " अन्नं इमं कुकुंबं अन्ना बच्छी सरीरमवि अन्नं । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. मोत्तुं जिणंदधम्म, न भवांतरगामिओ अन्नो" ॥ १॥ पेहेली गाथानो अर्थ उपर दर्शाव्यो छे. बीजी गाथानो अर्थ आ प्रमाणे . " कुटुंब पण अन्य छे, आ लक्ष्मी पाण अन्य जे अने आ शरीर पण अन्य छे. श्री जिनधर्म शिवाय नवांतरमा आवनार को बीजें नयी." २ ६ उठी अशुचि भावना कहे जे-" रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, शुक्र, अने मज्जा-ए सात धातुमय श्लेष्म तथा मन्त्र, सूत्र, पुरीप, त्वचा, आंतरमा अने ओरना समूहवडे वीटाएवं अने सर्व काले कृमि, रोग, गंडोला आदिथी नरेखें आ औदारिक शरीर तत्वष्टिए जोतां महा अशुचिवालुं छे. ते एक अद्भुत आत्मधर्म विना का प्रकारे शुचि थाय ? कदिपण थाय नहीं. वली जे आवा शरीरने केवन जलादिवडे शुध करवा छे छे ते तत्त्वथी विमुख अने अज्ञानी जाणवा" या प्रकारे जे चितवन करवू, ते अशुचि भावना कहेवाय छे. तेने माटे आ प्रमाणे लखे छे " मेयवसरे अमनमुत्त पूरिअं चम्म वेढिअं तत्तो। जंगममिव वच्चहरं कहएयं सुझए देहं ” ॥ १॥ आ गाथानो अर्थ उपर दर्शाव्यो -हवे तंत्र वियावि प्रकीर्णने अनुसारे ते औदारिक शरीरनुं गर्जाधानथआरंजीने कांक विशेष अशुचिर्नु स्वरूप देखामे में. स्त्रीनी नाजिनी नीचे पुष्पनालने आकार के नाम से, तेनी नीचे अधो मुखी कमलना कोशने आकारे जीवनी नत्पति स्थान रुप योनि होय . तेनी नीचना नागमा आंबानी मांजरीना जेवी एक मांसनी मंजरी छे, ते मंजर। ऋतु वखते फुटी रुधिरना विंचुओने मुके . ऋतुकाल वीत्या पी एटले त्राण दिवस पछी ते कमलना कोशना आकारवाली योनिने विष प्रवेश करे डे, पठी पुरुषना संयोगथी पुरुषना शुक्र (वीय ) नी साथे मिश्र थाय , त्यारे झानी महाराजाए ते योनि जीवने उपजवा योग्य कहेली ने ते स्थने वार मुहूर्त सुधी ते शुक्र अने शोणित अविनाशी योनीपणे थाय ने अने बार मुहूर्न पठी विनाशी योनिपणाने पामे ने तेथी ते वार मुहूर्त सुधीमा जीवनी उत्पति ; ते वार मुहूर्त्त प. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. जी जीव उत्पन्न थतो नथी; ते उत्पत्तिना प्रथम समये एकत्र थयेल पिता संबंधी वीर्य अने माता संबंधी शोणित तेने ते जीव आहारपणे ग्रहण करें छे, ते आहारने ओज आहार कहेवामां आवे , ते ओज आहार अपर्याप्त अवस्था सुधी होय छे, ते पड़ी ज्यारे ते पर्याप्त थाय , त्यारे ते गर्नमां रहेला जीवने लोमाहार होय . ते जीवने आश्रीने रहेब शुक्र अनै शोणित अन्य सात दिवस सुधी कलल रुपे होय जे अने ते सात दिवस पी परपोटा रुपे रहे .. ते परी पेहेंले मासे ' कर्पोपल' एवा प्रमाणनी मांसनी पेशी रुपे बने जे. बीजे मासे ते निविममांसपिमिका थाय ने, जीजे मासे ते माताने दोहद उत्पन्न करे . चौथे मासे माताना अंगने पीडा उत्पन्न करें में. पांचमें मासे ते जीवनी मांस पिंडिकामांथी अंकुरानी पेठे बे हाथ, वे पग अने मस्तक-एम पांच अवयव निष्पन्न करे . बठे मासे पित्त अने शोणितने बनावे . सातमे मासे सातसो नसो, पांचसो मांसपेशी नव धमनी नामीविशेष अने सामात्रण कोटी रोमराजी, निष्पादन करे , आठमे मासे लगार ऊणो नत्पन्न करे ने अने नवमे मासे सुनिष्पन्न सर्व अंगोपांग वालो जीव वनी जाय जे. ते गर्भावस्थामां माताना जीवनी रस हरनारी तथा संततिना जीवनी रस हरनारी जेबे नामीओ होय जे, तेश्रोमां पहेली माताना जीवनी साथे बंधाएल उतां संतानना जीवने स्पर्शेली , तेथी संताननो जीव माताए जोगवाता अनेक प्रकारना रसविगयनो एक देशे करीने ओज आहारने ग्रहण करे , वीजी नामी जे संततिना जीवनी साथे बंधाएल ते माताना जीवने स्पशैली छे, ते नाडीवमे जीव पोताना शरीरने वृधि पमामे , परंतु ते अवस्थामां ते कवत आहारने ग्रहण करतो नथी; तेथी तेने उच्चार (कामो ) तथा प्रस्रवण (मूत्र ) संभवता नथी तेम वली ते जीव जे आहार अव्य ग्रहण करे , ते पोतानी श्रोत्रादिक इंजियो अने अस्थि, मज्जा, केश, रोम अने नखपणे परिणमे . ते गर्नमा रहेलो जीव माताना शयन वखते सुइ जाय जे अने मातानी जागृत अवस्थामां जागे . माता सुखी एटले ते पण सुखी होय . एवी रीते कमना उदयथी जीव उत्कृष्ट अंधकारमा अशुचि नरेखा गर्नस्थानमां महा सुख अनुजवतो रहे छे. ज्यारे नव मास अतीत यतां ते पुरुष, स्त्री, नपुंसक अने बि Jain Education Intemational Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ श्री आत्मबोध. ए चारमां हरको रुपे प्रसवाय बे. जो शुक्र अल्प होय अने शोणित विशेष होय तो स्त्री, शुक्र विशेष ने शोणित अल्प होयतो पुरुष अने शुक्र अने शोणित समान होय तो नपुंसक जन्मे बे. जो केवल शोणितनों ज योग होयतो मांसना पिंरुप बिंब प्रगटे बें. वली कोइ प्राणी माताना उदरमां उत्पन्न ययेलो होय परंतु घणा पापे करीने पराभूत थयेलो होय तो ते वात तथा पित्तादिकव में दूषित थवा देवतादि स्तंजित करेलो होवाथी दरारहित बार वर्ष सुधी त्यांने त्यां (गर्भमां ) रहे बे एटले वार वर्षे वीत्या पनी जन्मे बे, बोकमां ते बोम - चोडना नामथी ओळखाय बे. आ प्रमाणे गर्जनी भवस्थिति कहेवाय बे. तेनी जे काय स्थिति बे, ते मनुष्यने चोवीश वर्षेनी बे-ते प्रमाणे - कोइ जीव बोमरूपे वार वर्ष गर्नमा रही अंते मृत्यु पामी वा प्रकारना पुष्ट कार्यना योगी त्यांज गर्नमा रहेला कलेवरमांज उत्पन्न थाय के अने उत्पन्न थ‍ मांज बार वर्ष सुधी रहे बे-एवी रीते उत्कृष्टो चोवीश वर्ष सुधी तेनो गर्ना - वास थाय बे. तिर्यच जीवो तिरवीना गर्भमां उत्कृष्टथी आठ वर्ष सुधी रहे छे, ते पनो विनाश अथवा प्रसव पण थाय बे. स्त्रीनी गर्नोत्पत्तिनी योग्यता ने पुरुषमा वीर्यनी गर्भाधान करवानी योग्यताने माटे या प्रमाणे लखेलुं बें—स्त्रीनी योनि पंचावन वर्ष पर्यंत अम्लान होवाथी गर्जने धारण करी शके छे अने ते पछी आवनो अभाव होवाथी तेनी योनि म्लान थइ जाय छे, तेने माटे निशीथ चूर्णीमां या प्रमाणे कहेतुं बे"इथिए जाव पपन्नावासा न पूरयंति ताव अमिलिआणाय जोणी” नो अर्थ उपर दर्शावेलो डे. पुरुष पंचोतेर वर्ष सुधी गर्भाधानने योग्य एवा वीर्यवालो होय बें; ते पनी ते प्राये करी वा वीर्यथी रहित यह जाय बे. ते विषे पण निशीथ चूणीमां कहेल बे-- सो वर्षनी आयुष्यवाला नी अपेक्षा समजवं. सो वर्षनी गल वसो, नसो, चारसो इत्यादि पूर्व कोटी होय. स्त्री जेटलं आयुष्य होय, ते सर्व आयुष्यांथी अर्ध आयुष्य पर्यंत म्लानपणा रहित होवाथी ते गर्भ धारण करवाने समर्थ होय . अने पुरुषने तो Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. सर्व पूर्व कोटी पर्यंतना पोताना आयुष्यनो छेवो वीशमो नाग अबीज होय अने पूर्व कोटी नपरनी स्थितिवालाने तो युगलिकपणे करी एकवार प्रसवधर्मीपणाने लइने अने निरंतर यौवनपणाने लश्ने आ नियम लागु पमतो नथी. आ शरीरे त्राण माता संबंधी अंगो मे १ मांस, २ रुधिर अने ३ मस्तक--नेजु. अने त्रण पिता संबंधी अंगो छ, १ अस्थि, ३ अस्थिमज्जा अने ३ केश, स्मश्रु, ( दाढी ) रोम तथा नख. आ शरीरना अवयवोनी संख्या ा प्रमाणे -तेमां प्रथम मनुष्य शरीर माटे कहे जे-मनुष्य शरीरमा पृष्ठ वंशनी ग्रंथिरुप अढार संधिओं मेंएटो वासामा अढार सांधाओं छे. तेओमां बार संधिोमांथी बार पांसळी. ओ नीकली वे पासा-परखाने वीटाइ वक्षस्थलनामध्य जागे रहेला हामने लागी पवाना आकारपणे परिणमें ; तथा ते पृष्टवंशना अवशेष रहेला छ संधियी पांसतीओ नीकळी वे पमखाने वीटाइ हृदयनी वे वाजु वदपंजरथीनीचे शिथिल अने कुखनी नपर परस्पर नहीं मोती रहे तेने कटाह कहे छे. वनी शरीरमां दरेक पांच पांच वामना वे आंतरमा छे तेमां एक स्थूल डे अने वीजें सूकम छे. तेमां जे स्यूल , तेनाथी वमीनीति परिणमे डे अने जे सूक्ष्म छे तेनाथी बघुनीति परिणमे छे. श्रा शरीरमां वे परखा जे. एक जमणो अने बीजो मावो. तेमा जे जमणं पर छे, ते जुःखकारी परिणामवाळु डे अने जे माबुं ने ते सुखकारी परिणामवालु . वली प्रा शरीरमां बीजी एकसो साठ पांस लोओ छे. ते अंगुलीआदि अस्थिना खमना मेलापना स्थानथी ओलखाय छे. बीजा एकसो सीतेर संखाणिकादिक मर्मस्थान छे. तेमां पुरुषना शरीरे नानिथी उत्पन्न एवी सातसो नसो , तेमां एकसो साठ नस ऊर्ध्वगामिनी जे, ते नानिथी आरंजीने मस्तक सुधी जाय , तेने रसहरणी कहे . तेना अनुपघात पणामां कान, चक्षु, घ्राण अने जिह्वानुं वन उल्लसे . अने जो तेनो नपघात थाय तो ते कान वगेरेनुं वन क्षीण थाय छे. ते शिवाय एकसो आठ वोजी नसो अधोगामिनी छे. ते पगना तत्रीआ मुधी रहेली छे, तेनो अनुपघात होय तो ते जंघाना बनने आपनारी छे अने तेनो उपधात थतां मस्तकनी वेदना अने अंधता वगेरे पीडा उत्पन्न करे . तेम वली एकसो साठ वीजी गुदाप्रविष्ट नसोडे, ते नसोना बबथी प्राणीओने वायु, मूत्र अने विष्टा प्रवर्ते जे. जो तेनो विघात थाय तो अर्श, Jain Education Intemational Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ श्री आत्मप्रबोध. पांडुरोग, मन, मूत्र अने वायुनो निराध थाय जे. बीजी एकसो साठ नसो तिरबी गामिनी , ते हस्ततळने स्पर्शेती छे । तेनो उपघात न थाय तो ते नुजाने बल आपनारी ने अने नपघात थवाथी परखामां के कुखमां वेदना उत्पन्न करेछे. बीजी पचवीश नसो श्लेष्मने धरनारी , पचीश पित्तने धारण करनारी जे अने दश शुक्र नामनी सातमी धातुने धरनारी छे. आ प्रकारे नाजिथी उत्पन्न थयेल सातसो नसो पुरुषना शरीरे हाय , तेनाथी स्त्रीओने त्रीश ओठी होय ने अने नपुंसकने वीश ओगी होय . वली आ शरीरमां नवसो हाम बंधननी नामीओ , तेमां चार रसने वहन करनारी धमनी नामीओ . दाढी तथा मुंबना केश विना नवाणुं लाख रोमकूप छे अने मुंड सहित गणतां साडा त्रण कोटी रोमराजी थाय छे. तेमां दाढी, मुड अने कूर्चना केशोने शिरोरुह कहेवामां आवे . मुखमां जे मांसना खंगरुपे जिह्वा रहनी चे ते पोताना दीर्घ अंगुलना प्रमाणे सात आंगळ प्रमाण होय छे अने तेनो तोल मगध देशमा प्रसिफ एवा चार पाना मापे चार पसनो छे. चक्षुना बे मांसना गोळा तोलमां बे पन छे. मस्तक हामना खंम रुप चार कपाळे कररी निष्पन्न थाय छे. ग्रीवातुं प्रमाण चार आंगुलनुं . मुखमां अस्थिना खंम रुप दांत प्राये करीने वत्रीश होय छे अने हृदयनी अंतर्वर्ती एवो मांसनो खंड सामात्रण पळनो डे अने वक्षस्थळना अंतरनो गूढ नाग के जे कलेजाना नामथी अोलखाय ने ते पचास पत्रनुं होय छे. वळी शरीरमां मूत्र अने रुधिर दरेक आढक प्रमाण ने अने ते सर्वकाले अवस्थित होय . चरवीनुं प्रमाण अर्धा आढकनुं छे. मस्तक- नेगें एक प्रस्थ प्रमाण जे अने पुरुषने उ प्रस्थ प्रमाण- होय . पित्त अने श्लेष्म प्रत्येक एक एक कुमव प्रमाण अने शुक्र अर्ध कुमव प्रमाण सर्वदा अवस्थित के. आ आढक तथा प्रस्थ वगेरेनुं माप बालक, कुमार अने तरुण वगेरेनुं "दोअसईउ पसई" इत्यादि क्रमे करीने पोतपोताना हायने आश्रीने जाणवं तेने माटे कयुं छेक, "दोअसश्न पसई, दोपसइओ सेश्या, चतारि सेश्याओ कुलओ, चत्तारि कुलअो पच्छो, Jain Education Intemational Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ तृतीय प्रकाश. चतारि पच्छा आढयं, सुचत्तारि आढयो दोणो” इत्यादि धान्यथी नरेखो अवांगुख करेलो हाथ 'अस्ती' कहेवाय डे-आगला सूत्र प्रमाणे तेनो अर्थ जाणवो; एटले बे मूंढा हाथनो एक पसी थाय, वे पसीनो एक सेतिका थाय, चार सेतिकानो एक कुल, चार कुलनो एक प्रस्थ, चार प्रस्थनो एक आढक अने चार आढकनो छोण थाय छे. आ प्रमाणे कहेता प्रमाणयी शुक्र तथा शोणित वगेरे, जे न्यूनाधिकपाणु थाय बे, ते वातादिकना दोषने लश्ने थाय . पुरुषना शरीरमां पांच अने स्त्रीना शरीमा उ कोग जे. पुरुषने वे कान, वे आंखो, बे नसकोरां, एक मुख, एक गुदा अने एक पुरुष चिह्न, ए नव घार प्रवाहने वहन करनारा . ए नव सहित बे स्तन वधवाथी स्त्रीने प्रवाहने वहन करनारा अगीयार घार . आ गणना मनुष्य गतिने आश्रीने जाणवी. . तिर्यंच गतिमां बकरा वगेरे बे स्तनवालाने अगीयार अने चार स्तन वाली गाय प्रमुखने तेर तथा मुक्करीने वगेरेने आठ स्तन गणतां सत्तर-आ प्रमाणे व्याघात विना जाणी लेवानुं जे. व्याघात होयतो एक स्तनवाळी अजाने दश, त्रणस्तनवाळी गायने बार,–एम समजवानुं . पुरुषना शरीरमा कुल पांचसो मांसनी पेशीओ , तेनाथी स्त्रीओने त्रीश अने नपुंसकने वीश ओपी छे. आ शरीर अनेक महा रोगानुं नत्पत्ति स्थान छे, तेने विषे संसारी जीवोना रोगोनी संख्या पांच करोफ, अमसठ लाख, नवाणुं हजार अने पांचसो चालीशनी जे. कयुं के, पंचेवयकोमी बखाअमससिहसनवनवई पंचसयाचुतसीई रोगाणहंतिसंखाजत्ति ॥ अर्थ उपर आवी गयो -आ प्रमाणे अस्थि आदिना समूहवाला अने अनेक प्रकारना व्याधिोथी व्याप्त एवा ए शरीरमां शुं शुचि जे? कांइपण बेज नहीं. ७ सातमी आश्रव नावना छे. आ संसारमा जीवो १ मिथ्यात्व, अ. विरति, ३ कषाय अने ४ योग रुप आश्रवे करी समय समय प्रत्ये शुनाशुन कर्मना Jain Education Interational Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. पुदगलोने जे ग्रहण करे छे. पुण्यात्माओ चित्त निरंतर सर्व प्राणी ओमां मैत्रीनाव, जे गुणोथी अधिक होय तेमां प्रमोद, जे अविनीत होय ते उपर मध्यस्थता अने जे सुखीया होय ते उपर करुणा-करवाथी शुज कर्म बांधेछे अने जे जीवोनुं चित्त आर्तध्यान, रोषध्यान, मिथ्यात्व तथा कषाय विषय वो सर्वदा पीमित छे, तेओ अशुभ कर्म बांधे ---इत्यादि जे चितवन, ते आश्रवनावना कहेवाय ने तेने माटे आ प्रमाणे कहेंबुं बे " मिबत्ता विर कसाय-जोग दारोहिं जेहिं अणुसमयं । इह कम्मपुग्गलाणं गहणं ते आसवा हुंति" ॥१॥ ते गाथानो नावार्थ उपर आवी गयो ने-आठमी संवर भावना नीचे प्रमाणे नपर कहेल मिथ्यात्वादिकना आश्रवोने सम्यक्त्त्वादिकथी जे निरोध करवो, ते संवर कहेवाय डे-ते देशथी अने सर्वथी-ए वे प्रकारनो छे. तेमां सर्वया संवरतो अयोगी केवत्रीनेज होय छे अने देशथी संवर एक, बेत्रण आश्रवना निरोधीने होय , ते संवर प्रत्येक अव्य अने भावथी बे प्रकारनो थाय छे. आत्माने विषे थता आश्रवथी कर्मना पुद्गलोने जे ग्रहण करवापणं, तेने सर्वथो अथवा देशथी दवं ते अव्य संवर कहेवाय ने अने जे नवहेतुक सर्व क्रियानो त्याग करचो ते नाव संवर कहेवाय जे. एवा स्वरूपना आश्रवना विरोधी संवरचं जे चितवन कर, ते संवर नावना कहेवाय बे, तेने माटे या प्रमाणे कहेतुं छे. " आसवदारपिहाणं सम्मत्ताहिं संवरो नेत्रो। पहियासवो हि जीवो सुतरिव्य तरेइ भवजनहिंति " १ आश्रवधारनुं सम्यक्त्त्वादिवझे जे आजादान करवू, ते संवर कहेवाय छे, ते संवरथी सर्व जीवो सारा वाहाणनी फेठे आ संसार समुज्ने तरे जे." नवमी निर्जरा जावना जे.-आ संसारमा पूर्वे बांधेवा कोने तपवझे जे बालवा, ते निर्जरा कहेवाय जे. जे कर्म बंधाता होय तेने विषे संवर अने पूर्वे वांधेला कोने विषे निर्जरा ए तेमनी वच्चे भेद जे. ते निर्जरा बे प्रकारे -सकाम अने अकाम. तेमां जे सकाम निर्जरा रे ते बाह्य अने आभ्यंतर-एवा प्रत्येक तपना Jain Education Intemational Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. उ नेदयी वार प्रकारनी थाय जे. ते जेद प्रथम यति धर्मना अधिकारमां कहेला छे तेथी आ प्रसंगे आपवामां आव्या नथी. आ बार प्रकारन। निर्जरा विरति परिणामवालाने होय जे; एटले विरतिपरिणामी कर्मक्षयने माटे पोतानी अभिलाषाथी सकाम निर्जरा करे जे. अने जे विरति परिणामथी रहित , अने ते शिवाय बाकीना मनुष्य प्राणीओ ने, तेमने अनिलाष रहित शीत, नष्ण, क्षुधा, तृपा आदि सहन करवाशी अकाम निजेरा थाय .-आव निर्जरानुं जे चितवन, ते निर्जरा नावना कहेवाय . तेने माटे आ प्रमाणे कहेळ . ___“कम्माण पुराणाणं निकंतणं निजरा वानसहा । विरयाण सा सकामा तहा अकामा अविरयाणं तु” ॥१॥ आ गाथानो अर्थ नपर श्रावी गयो बे. दशमी बोकस्वरूप नावना जे. आ लोकना मध्य भागमां चतुर्दश रज्जु प्रमाण लोक विद्यमान . कटी नपर राखेला छे बे हाथ जणे अने तिला प्रसारेला ने बे चरण जेणे एवा पुरुषना आकार जेवो आ लोक डे अथवा अधोमुख करेल मोटा शरावनी उपर रहेन जे लघु शराव, तेना संपुटना जेवी तेनी आकृति जे. कहेवानुं तात्पर्य ए जे के, सात रज्जुना विस्तारथी नीचे लोकना तबीयाथी चे थोडे थोएं संकोचता तीर्छा लोक एक रज्जु विस्तारवालो छे. ते पठी ऊर्ध्व नागे अनुक्रमे विस्तारने पामतो ब्रह्मदेवलोकने त्रीजे पाथडे पांच रज्जु विस्तारवाळो . ते पळी थोथोडे संदेपने जजतो सर्व उपरना लोकाग्र प्रदेशने प्रतरे एक रज्जु विस्तारवालो ने, ए रीते यथोक्त संस्थानवालो लोक . ते स्रोकने विषे धर्मास्तिकायादि उ अव्यो ने. १ स्वनावधी गतिपरिणत जीव अने पुद्गलोनो मत्स्य अने जवनी जेम जे उपष्टंनकारी संबंध ते धर्मास्तिकाय कहेवाय बे. २ वटेमागुने गायानी जेम तेनी स्थितिमां जे नपटनकारी, ते अधर्मास्तिकाय कहेवाय जे. ३ पूर्वोक्त बने अन्यो प्रदेशथी अने प्रमाणथी लोकाकाशतुल्य तेमज तेमने गति अने स्थितिमा प्रवर्ततां अवकाश आपवाथी जे अवगाहन धर्मवालो ने, ते Jain Education Intemational Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ श्री आत्मप्रवोध. आकाशास्तिकाय कहेवाय . ___ जे चेतना बदणवालो, कर्मनो कर्ता तथा जोक्ता अने जीवनधर्मी छे, ते जीवास्तिकाय कहेवाय छे. ५ जे पृथ्वी, पर्वत आदि समस्त वस्तुओतुं परिणामी कारण अने पूरण गलन धर्मवालो, ते पुद्गलास्तिकाय कहेवाय छे. ६ जे वर्तना बक्षणवालो, नवीन पुद्गलिक वस्तुने जीर्ण करनार, तथा समयदेत्र ( अढो छीप) अंतवर्ती ने ते काळ अव्य कहेवाय डे. आ उ प्रव्यमां एक पुद्गल अव्य मूर्त ने अने वाकीना पांच व्य अमूर्त जे. तेमज एक जीव व्यने वर्जीने बीजा सर्व अव्य अचेतन डे मात्र जीव व्यज सचेतन . अहीं प्रश्न थाय ने के असंख्याता प्रदेशमय लोकाकाशमां अनंतानंत जीव व्यो तथा तेथी अनंत गुण अधिक पुद्गल अव्यो शीरीते रहेता हशे ? तेमने संकडाश केम न थाय ? आ शंकाना उत्तरमा कहेवान के, जीव अन्योन अमूर्तपाणु ने तेथी तेमां संकीर्णपाणुं यतुं नथी अने पुद्गलोर्नु मूर्तपणुं छे. दीपकनी प्रनाना दृष्टांते करी तेवा परिणामनी विचित्रताथी एकज आकाशना प्रदेश उपर अनंतानंत परमाएवादि पुद्गल अव्यो असंकीर्णपणे प्रवेश करे ; तोपछी ते असंख्याता प्रदेशनुं कहेवूज ? अर्थात् तेमां समाइ जाय, तेमां शुं आश्चर्य ? तेथी तेमां कोइ जातनो दोष आवतो नथी, ते विषे श्री अजयदेव सूरिजीए श्री जगवतीनी टीकामां तेरमा शतकना चोथा नदेशमां कहेनुं बे “आगासस्थिकाएण" ॥ इत्यादि । " जीव अव्योतुं अने अजीव अव्योतुं नाजनजूत आकाशास्ति काय छे." एथी तेमणे आ प्रमाणे कयु के, आकाश जीवोनुं तथा अजीवोने अवगाहन आपनार डे केमके विस्तारवाळु छे, ते पछी आकाशनुं नाजनपणुं देखामता यका कहे जे " एगेण वि” इत्यादि। Jain Education Intemational Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३६ए एक परमाणु आदिके करीने आकाशास्तिकायनो प्रदेश पूर्ण कहेवाय छे बे परमाएवादिके करी पूर्ण अने शतसहस्त्रादिके करीने पण पूर्ण बे, एम जणाय छे ! एम केम कहेवाय ? तेना उत्तरमां कहे छे के, ते परिणामना भेदथी कही शकाय जे. जेम ओरमानो आकाश एक दीवानी प्रजापटलथी पूराय बे, तेम वीजा दीवानो प्रकाश पण त्यां समाइ जाय जे, यावत् एकसो दीवापण तेमां समाइ जाय . तेमज औषध विशेषना एकगपणाथी एक पारो खेंचवामां सो सोनामोहर पेशी जाय ने पनी ते पारो अने कर्षीचूत औषधना सामर्थ्यथी पारानी कणी अने सुवर्णना सैकडो कर्ष पृथक् थप जाय , कारण के पुद्गलोना परिणामर्नु विचित्रपणुं छे. वनी लोकप्रकाश ग्रंथमां पण कर्तुं ने के औषधना सामर्थ्यथी पारानी एक कणीमां सुवर्णनी सो कणी नांखीए तोपण तोलमां कर्षथी अधिक न थाय, वळी औषधना सामर्थ्यथी ते बंने जुदा जुदा थइ जाय -सुवर्णना कर्षक सो अने पारानो एक कर्ष ए प्रमाणे थाय जे. अहीं वली ऊर्ध्व, अधो अने ती लोकनुं स्वरूप ग्रंथांतरथी जाणी लेबु-आ प्रमाणे लोकनुं स्वरूप चिंतव, ते लोक स्वनाव नावना कहेवाय छे, तेने माटे कयुं छे के. __ " अहमुहगुरुमबयठिय लहु मलयजुयनसंठिअंसोगं । धम्माइ पंच दव्वेहिं पूरिओं मणसि चिंतिजेति " ॥१॥ अर्थ. नीचे मुखघाळा मोटा सरावळांनी पेठे रहेला तथा नाना सरावळांना संपुटनी पेठे ( ऊर्ध्व भागमां ) रहेला तथा धर्मास्तिकायादि पांच अव्योवमे परिपूर्ण एवा आ लोकनुं मनने विष चितवन करवू. अगीआरमी बोधि उर्सन नावना बे. अनंतानंत काले पंचेंजियपाणुं 3बन छे तेमां पण मनुष्यजावादि सामग्री उर्बन डे, तेनो योग थतां पण प्राणी ओने परम विशुफि करनार सर्वझे दर्शावेल तत्त्वज्ञान रुपी बोधि ( सम्यक्त्व ) पाये करीने घएं उर्सन , जो ते एकवार पण प्राप्त थयेश होय तो प्राणीओने आटला समय सुधी आ संसारनुं पर्यटन होय नहीं." इत्यादि जे चितवन ते ४७ Jain Education Interational Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. बोधि उर्लभ नावना कहेवाय - तेने माटे आ प्रमाणे कहेलु - " पंचिंदियत्तणाइ, सामग्गीसंनवेपि अश्लहा । तत्तावबोहरूवा बोहि सुही जीअस्सजोत्ति" ॥ १ ॥ आ गाथानो अर्थ उपर आवी गयो छे.. बारमी धर्मकथक अर्हन् जावना कहेवाय जे. आ संसारमा वीतरागपणे करीने सर्वदा परकार्य करवाने सावधान एवा अने निर्मल केवलझानरुप चक्षुएथी जेमणे सर्व लोकालोक अवलोक्यो में एवा श्री अरिहंत विना यति अने श्रावकनो निर्मल-सद्यूत धर्म कहेवाने बीजो कोइ समर्थ नथी. कुतीर्थिओना कहेला कुवचनो अज्ञान मूत्र होवाथी पूर्वापर विरुद्ध अने हिंसादिक दोषोथी दूषित , तेथी ते वचनो प्रत्यक्ष असदनूतज डेः तेमज तेमना कोइ वचनमां दया सत्य वगेरेनुं कांश्क पोषण देखाय जे, ते फकत वचन मात्रज बे, पण तत्त्वथी नथीज; ते माटे तत्त्वथी शुभ स्वरूपने धरनारी अने सकल जगतना जंतुओने तारनारी श्रीमद अरिहंत प्रनुनी वाणीनू केटटुं विवेचन करीए ! जो कोश पण रीते ते वाणीनुं एक पण वाक्य कर्णगोचर ययुं होय तो ते रोहिणीया चोरनी पेठे पाणीने महान् उपकार करनारूं थाय जे." आ प्रकार- जे चितवन ते बारमी धर्मकथक भावना कहेवाय . तेने माटे आ प्रमाणे कहेढुं - " धम्मो जिणेहिं निरवहिनवयारपरेहि सुट्ट पामत्तो । समणाणं समणोवा-सयाण दसहा वानसहा" ॥१॥ आ गाथानो अर्थ उपर आवी गयो जे. रोहिणेय चोरनी कथा. राजगृह नगरमां श्रेणिक नामे राजा हतो. तेने सर्व बुधिओनो निधान रुप अनयकुमार नामे पुत्र थयो हतो. ते नगरनी समीपे वैभारगिरि नामे एक पवंत हतो. तेनी एक गुफामां लोहखुर नामे एक घातकी चोर रहेतो हतो. ते राजगृही नगरीना झोकोना अव्य अने स्त्री वझे पोताना काम अने अर्थ अनायासे साधतो हतो अने तेमांज पोतानो काळ निर्गमन करतो हतो. ते लोहखुर चोरने Jain Education Intemational Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३७२ रोहिणी नामे एक स्त्रीना उदरथी रौहिणेय नामे पुत्र थयो हतो. ते पण पितानी जेम घणोज घातकी थयो हतो. एक वखते लोहखुर मरण पथारीए पड्यो, एटले तेणे पोताना पुत्र रौहियने बोलावीने को, " वत्स, जो तुं तारुं हित इछतो हो तो मारी शिक्षासांजळ - “जे या त्रण गढ देखाय बे तेमां महावीर नामे एक महात्मा बे, तेश्रो कोमल वचन बोले बे, ते वचन उत्तरकाले दारुण होवाथी तारे कदिपण सांजळवा नहीं. " आ प्रमाणे शीखामण आपी ते लोहखर चोरे पोताना प्राणनो त्याग कर दीघो. ते पछी रौहिणेय ते पिताना वचनने संचारतो नित्य चोरी करतो हतो. एक वखते श्रीवीर परमात्मा ते स्थले समोसर्या. देवताओ ते स्थले समवसरण रच्युं. ते वखते भव्य जीवोने धर्मनी देशना आपवानो मनुए आरंभ कर्यो - ते वखते चोर रौहिणेय राजगृह नगरमां चोरी करवा जतां ते समवसरएनी पासे आवी चढ्यो. ते वखते तेने याद आव्युं के, जो हुं या मार्गे जा तो वीरभगवान्नी वाणी संजलाइ जशे अने अहिं जवानो वीजो मार्ग बे नहीं. हवे शंकर ? अथवा एवो खेद करवाथी सर्यु. हुं कानमां आंगली वाल्यो जाजं. पछी ते कानमां ांगली नांखी उतावले पगले चाल्यो; तेवामां तेनापगमां कांटो वाग्यो. एटले ते आगळ एक मगलं नरवाने पण समर्थ थयो नहीं. पी कानमांथी एक ांगली जुदी कर तेवमे कांटो काढवा लाग्यो, तेवामां अंतरना शब्यने शोधनारी अने देवस्वरूपने वर्णन करनारी श्री वीरमजुनी वा नांखीने तेना कानमां या प्रमाणे सांभळवामां आवी " अणिमिस नया मणकज्ज सादणा पुप्फदाम अमिलाणा । चनरंगुले भूमिं न च्छविंति सुरा जिला विंति " ॥ १ ॥ जेमना नेत्रो मींचाता नथी, जे मनथी चिंतित एवा कार्यना करनारा बें, जेमनी पुष्पमाला करमाती नथी ने जेओ भूमिथी चार आंगळ उंचा रबे, एवा देवताओ होय छे, " १ आ प्रमाणे जिनेश्वरे कहां ते रौहिणेय चोरना सांभळवामां आव्युं त काल तेणे चिंतन्युं के, अरे ! मारा सांजळवामां घणुं यावी युंग्राम कही Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ श्री आत्मप्रबोध. चिंतातुर थतो ते चोर कांटो काढी पाछो कानमा आंगळी नांखतो ते राजगृह नगरमां चाब्यो गयो अने त्या पोतानी श्या प्रमाणे चोरी करी पाछो पर्वतनी गुफामां पेशी गयो. परंतु पेली जे मनुनी वाणी तेणे सांनळी सीधी , तेने माटे ते निरंतर चित्तमां खेद पाम्या करतो हतो. ते हमेशां गुप्त रीते राजगृही नगरीने खंटया करतो अने लोकोने रंजामतो हतो. चोरनी पीमाथी कंटाली गयेला लोकोए राजा श्रेणिकनी आगळ फरीआद करी अने पोताना दुःखो निवेदन का राजाए मधुर वचनोथी लोकोने आश्वासन आप्यु. पठी तेणे कोटवालने बोलावीने कडं, " कोटवाल, तमे आखा नगरने हेरान करनारा चोरने पकमी लोकोनी रक्षा केम करता नथी ? कोटवाले कह्यु, “राजन्, रौहिणेय, नामे एक चोर थयो छे, पण ते घणी मुस्केली वमे पकडाय तेवो , तेने पकमवा माटे अमे घणा जपायो योजीए बीए, पण ते पकमातो नथी; महाराजा, जो आप पोते तबारद बनो तो वखते पकमाशे. " कोटवालना आ वचनो सांभळी राजा श्रेणिक पोताना पुत्र अने प्रधान अजयकुमारनी सामे जोयु. एटले अजयकुमार अंजलि जोमी बोल्यो--" पिताजी, हुं सात दिवसनी अंदर ते चोरने पकमी लावोश. जो सात दिवसनी अंदर तेम न बने तो तमारे मने ते चोरनी जेम शिक्षा करवी. " अजयकुमारे आवी नारे प्रतिज्ञा करी; ते सांजली सर्व सभा अने राजा आश्चर्य पामो गया. परी अजयकुमारे भारे प्रयत्नथी ते चोरनी शोध करवा मांडी, पण कोइरीते ते चोरनो पत्तो लाग्यो नहीं. एवी रीते 3 दिवस वीती जवा लाग्या. ठे दिवसे संध्याकाले लोकोना कोलाहलने शांत करी ते गढनी बाहेर केटलाएक सुनटोने तणे गोठवी दीधा. पेलो रौहिणेय चोर केटलाएक अपशुकनोए तेने अटकाव्यो छतां पण ते कर्मने वशः थइ नगरीमां चोर करवाने पेगे; जेवामां तेणे कोइ धनवान्ना घरनुं खातर पामवा मांडयुं, तेवामां पगी लोकोए मली एक मोटी हांक मारी तेने त्रास पमाडयो, तेथी ते त्यांथी नाशी नगरीना किया उपर आव्यो. तेने चंचो चमो किया उपरथी बाहेर पडतो सुन्नटोए पकमी लीधो. प्रातःकाले सुभटोए तेने अजयकुमारने सोंपी दीधो. अजयकुमार तेने राजा पासे लइ गयो. चोरेला घव्य साथे पकमेला ते चोरने जोइ राजाए पुग्यु, तुं कोण ? चोर वोढ्यो “ राजन्, हुं शालिग्रामनो रहेवासी अने उगचं नामे राजाने जमे Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३७३ भरनारो खेत बुं. हुं मारुं कांइक काम करी रात्रे मारा गाम तरफ जतो हतो तेवामां तमारा सुनटोए मने बीहराव्यो, एटले कीलो ठेकी बाहेर पमतां सुनटोएमने चोर जाणी कमी लीधो. हे मुझ विद्यचण राजा, विचार करो. जो हुं चोर होतो मने खुशीथी शिक्षा आपो; अने जो मने मारवाथी अजयकुमार जीवे तो तेम करो. " तेना यावां वचन सांगळी राजाए दृढ बंधनथी बोकाव्या पछी तेनी खात्री करवाने माटे पोताना सेवकाने शालिग्राममां मोकल्या. रौहिणेय चोर एटलोबधो लुच्चो हतो के, ते प्रथमथी शालिग्रामना लोकोनी साथै संकेत करी राख्यो हतो ने तेमनी साथै ते चोरे ठराव करेलो के, तेणे कदि पण शाबिग्राममां चोरी करवी नहीं अने ते गामने मदद आपवी; आथी ते लोको तेनी सर्व वात मान्य करता हता. राजा श्रेणिकना सुनटोए शालिग्राममां आवी त्यांना लोकोने पुक्युंके, या गाममां कोइ दुर्गचंम नामे खेत रहे बे ? ते गामना लोक के जेओ तेना संकेत प्रमाणे वर्त्तनारा हता, तेयो बोल्या, – “हा, ते खरी बात बे. दुर्गचं आ गामनो रहेवासी बे ते गइ काले नगर तरफ गयो बे, ते हजु सुधी आव्यो नथी; अमे सर्वे तेनो वृत्तांत जाणवाने आतुर थ रहेला बीए. " " ते लोकांना या वचनो सांजळी ते सुनटोए श्रेणिक राजाने ते वृत्तांत जणाव्यो, ते वखते राजा विचार्य के “ आहा ! आ केवी बात कहेवाय ? अ जयकुमार मृत्युना जयथी सरल हृदयना एक गाममी आने चोर ठरावे बे. राजाना मुखना चेहेरा उपरथी अजयकुमार समजी गयो ने तत्काल तेणे विचार्य के, या चोरनुं कां पण कपट बे, ते कोइपण रीते खुल्लुं कर जोइए. ग्राम विचारतां ते चतुर प्रधानना हृदयमां बुद्धि स्फुरी घ्यावी. ते एक देव विमान जेवो सुंदर मेहेल रचाव्यो. ते मेहेलनी अंदर सात भूमिकाओ रची. अनेक प्रकारना चंदरखाने मोती योना तोरणोथी तेने अलंकृत कर्यो. रंजासमान स्वरूपवाली देवतुल्य स्वरूपवाला पुरुषो तेमां स्थापित कर्या. पछी अजयकुमारे पेला रौहिणेय चोरने बोलावीने कयुं. “ भाइ, मारा जेवा मूर्ख माणसने धिकार हो. तमे तो कोइ नक्ति करवा लायक पुरुष बो. तमोने में अतिशय हेरान कर्या. ते क्षमा करो. हवें एकवार आ मारा मेहेलमां आवो, जेथी हुं त्यां तमारी जक्ति क मारा अपराध दूर करूं. 46 19 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. अजयकुमारना वां कपट नरेलां वचनोनो मर्म ते चोरना समजवामां 66 " 46 यो नहीं. तत्काल ते तेनी साथे मेहेलमा गयो; त्यां तेने प्रथम मिष्ट आहार आपी तृप्त कर्यो. पनी कपटी अजयकुमारे तेने मदिरापान करावी उंची जातना दिव्य वस्त्रो पेहेरावी एक सुंदर पलंग उपर सुवाड्यो - ते चोर ते दिव्यमंदिरमां रही जाणे पोते स्वर्गमां रह्यो होय तेम मानवा लाग्यो. शयन कर्या पछी ते जागृत थयो, एटले अजयकुमारनी आज्ञार्थी केटलाक सामंतो ने नरनारीओनों समूह त्यां हाजर रहेब, ते 'जय जय नंदा' इत्यादि मांगलिक शब्दोना उच्चार करतां तेना सांजळवामां याव्या. या देखाव जोइ ते मदिराथी मत्त थयेलो चोर पोताना आत्माने मुली गयो, पेला हाजर रहेला लोको तेनी पासे यावी या प्रमाणे कवा लाग्या- as, पूर्वना सुकृत्यवमे तमे आ स्वर्गना विमानमां प्रगट थ‍ तेना स्वामी थया बो अने या मे सर्वे तमारा सेवक बीए. या प्रमाणे कही ते नाटक करवानो आरंभ कर्यो. ते पछी अजयकुमारनी सूचनाथी जेना हाथमां एक सुवर्ण रहेलो बे एवो एक पुरुष यान्यो; तेणे आवी नाटक करनाराओने कहां के, “ हाल नाटक बंध करो, हूं या देवने तेमनी देव स्थितिनुं ज्ञान करावं. " आ प्रमाणे कही तेणे रौहिणेयने कयुं 'हे नवा देव, पोताना पूवोपार्जित एवा जे तमारा पुण्य ने पाप होय ते निवेदन करो अने ते पछी सुख जोगवो. " ते पुरुषना आ वचनो सांजली ते रौहिणेय विचारमां पड्यो. “शुं आसाचं स्वर्ग हशे ? अथवा मारे माटे अजयकुमारे प्रपंच तो नहीं रच्यो होय? " प्रमाणे चिंतवी ते धीर बुद्धिवाला चोरे कंटक काढती वेलाए गंभबेली देवना स्वरूपना वर्णनवाळी प्रजुनी वाणी ( अणि मिसनया इत्य. दे ) संजारी तत्काल ते पोतानी आगल रहेला लोकोने पृथ्वी उपर लागेला चरणवाला, कुमलाला पुष्पोनी मालाने धरनारा, मटका मारता नेत्रोवाला ने मनोसाधनां समर्थ एवा जोइ श्री वीरपरमात्माना वचनो साथे तेमनो विरोध जोइ अजयकुमारे करेला कपटने जाली बीधुं. " या वखते पेलो दंगधारी पुरुष बोल्यो. “ देव, शो विचार करो हो ? या वधो देवलोक पोतपोतानी नक्ति देखाडवाने तत्कंठित बे; तेथी तमारो जे शुद्ध वृत्तांत होय ते सत्वर निवेदन करो. " आ वखते ते रोहिणेय बोल्यो - " जिनपूजा, साधुसेवा, दयापालन, सुपादान ने चैत्य निर्मापन आदि उत्तम धर्मकार्यों में पूर्व जवे करेला छे. " ते दं ३७४ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश ३७५ मधर बोटयो-" हे देव, प्राणीआनो जन्म एक स्वनावे करीने थतो नथी तेथी तमे जेम पुण्यनुं वर्णन कयु, तेम तमारा पापदं वर्णन पण करो. चोरी, स्त्रीलोबुपता अने वीजा जे कांश नगरां पाप कर्मो कर्या होय ते निःशंकपणे कहो." रौहिणेय बोब्यो-"अहा ! दिव्यज्ञानने धारण करनारा एबा तमोने आवो मतिज्रम शो थयो ? साधुओनी सेवा करनारा श्रावको शुं एवा खराब काम करे ? तेम उतां जो तेश्रो एवा काम करे तो पली, तेमने आवो स्वर्गवास केम प्राप्त थाय ? तेथी मेंतो जरा पण पाप कर्म कर्यु नथी, शा माटें वारंवार पुछो छो?" आ वखते अजयकुमार के जे बुपो रही आ वृत्तांत सांगलतो हतो ते पोता। मनमां ते चोरनी बुधिनी नारे प्रशंसा करवा लाग्यो. दाणवार पड़ी ते चोरनी समीपे आव्यो अने ते रौहिणेयने आलिंगन करी आ प्रमाणे बोल्यो -" हे वीर, हुं आज सुधी कोइनाथी जीतायो नथी, पण एक ताराथी जी. ताइ गयो छु: हुं तने निग्रह करी शक्यो नहीं, ए मोटामां मोठं आश्चर्य डे" या प्रमाणे अजयकुमारे प्रेमपूर्वक कयु, एटले ते रौहिणेय चोर आ प्रमाणे बोल्यो "हे राजकुमार, हुं श्री वीरवाक्यने हृदयमां धारण करतो हतो, तेथी तमाराथी पकमायो नहीं, तेथी तेमां कांइ पण आश्चर्य पामवा जेवू नथी; पण तमोए मने मद्यपान करावी स्वर्गनी प्राप्ति करावी ए मोटा आश्चर्यनी वार्ता. "रौहिणेयना आ वचनो सांनती अन्नयकुमार बोब्यो-“भाइ तुं मारा कहेवाथी लज्जा पामीश नहीं अने मने कहे के तारा जेवा चोरने श्री वीरप्रभुनी वाणी शी रोते कर्णगोचर थइ ? " अनयकुमारे आ प्रमाणे स्नेहपूर्वक पुग्यु, एटले ते चोरे पोतानी कथा आदिथी अंतसुधी कही संनसावी. अने विशेषमा जणाव्युं के जो में ए जगद्गुरुनी वाणी न सांजळी होततो हुँ आजे तमाराथी बनाइ जात अने तेथी शीशी विनंबना पामत ते कही शकातुं नथो; जे प्रनुनी एटली अरूपवाणी पण प्राणीओने कष्ट निवारक थाय ने, तो ते प्रजुनुं सर्व आगम सां. भनवाथी अदय सुखनी प्राप्ति थाय, एमां शुं आश्चर्व ? हुं तो मारा पितारुप शग्रुथी उगायो हतो, तेथी ते वखते कर्णगोचर थयेली श्री वीरवाणीने शब्यतुल्य मानतो हतो पण अत्यारे ते वाणीए मने जीवितदान आपेलु . हे राजकुमार, हवे में अव्यादि चोरेख छे, ते तमने बतावी हुं श्री वीरभनुनी पासे व्रत ग्रहण Jain Education Intemational Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ करवा इछा राखुं बुं. तेजयकुमारे ते रौहिणेय चोरने राजानी पासे लावी या प्रमाणे कयुं, " स्वामी, या चोर पोतानी चोरी मानी जाय छे. " तत्काल राजा तेने वध को आदेश कर्यो एटले अजयकुमारे कहुँ, “ पिताजी, जो आपणे - चोरने बोम | दइए तो ते चोरेलुं सर्व धन पाएं आपशे; ते शिवाय ते द्रव्य - पथ ग्रहण करी शकाय तेम नथी; बल्ली में आ चोरने बंधु करीने पकड्यो बे, करीने पकड्यो नथी. तेमज आ चोरतुं हृदय वैराग्यथ वासित थयेलं छे, तेथे तेही मुक्त थइ दीक्षा ग्रहण करवाने इछे छे; तेथी या चोर वध करवाने योग्य नथी. " अभयकुमारना या वचनो उपरथी राजाए तेने छोड्यो, एटले ते सर्व धन बतान्युं पछी राजाए नगरजनोने एकता करी जेनुं जे हतुं, तेने ते धन आपी दीघुं. ते पछी श्रेणिक राजाए जेनों दीक्षा महोत्सव करेलो बे जे धन, वैभव, स्त्री ने परिवारनो त्याग करेलो छे एवा रौहिणेय चोरे श्री वीरपरमात्मानी पासे दीक्षा ग्रहण करी. ते वखते नगरजनोए तेनी जारे स्तुति करी हती. श्री आत्मप्रबोध. रौहिणेय चोर मुनित्रत धारण करी पोताना दुराचारनी शुकिने माटे अनेक प्रकारना तप तपी ने जवपर्यंत शुद्ध धर्म आराधी मां अनशन करी से देवपद प्राप्त थयो हतो. या प्रमाणे जगवंतनी वाणीना प्रजावने दर्शाबनारी रौहिणेय चोरनी कथा कहेवामां आवी. एरी बार जावनानुं स्वरूप लक्षमां राखी जन्य जीवोए तेना प्राराधनने विषे तत्पर यं जोइए. बार प्रतिमानुं संक्षिप्त स्वरूप. year प्रतिमा एक मासनी कट्टेवाय बे; बीजी वे मासनी, त्रीजी त्रण मासनी, चोथी चार मासनी, पांचमी पांच मासनी, बीब मासनी ने सात - मी सात मासनी प्रतिमा छे, आठमी नवमी अने दशमी ए त्रण सात हो रात्रिनी. अगीयारमी एक अहो रात्रिनी अने बारमी एक रात्रिनी बे-एवी रीते निक्षु- साधुनी प्रतिज्ञा रूप - वार प्रतिमा थाय बे, तेमां पेहेली प्रतिमा - नपानना व्यवन दानरूप होवाथी एक दत्ती कदेवाय बे. तेवी रीते बीजी Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३७७ दत्ती, त्रीजी ऋण दत्ती —- एम सातमी सात दत्ती सुधी गणाय छे. सात होराना प्रमाणवाली मी प्रतिमाने विषे जल रहित एकांतर उपवासे रही पारपाने दिवसे आंबिल करवामां आवे छे. अहीं दत्तीनो नियम नथी. वली तेमां ग्रामादिकनी बाहेर ऊर्ध्व मुखे शयनादि प्रासने रही घोर उपसर्गो सहन करवाना छे. नवमी प्रतिमामां पण तेज प्रमाणे उत्कटादि आसने रहे परे बे, दशमी प्रतिमामां पण एवीज रीते रहेवानुं बे पण गोदोहासन - गाय दोहोवानुं आसन करवानुं बे. अ गरमी प्रतिमामां पण एमज वर्त्तवानुं बे परंतु तेमां जल रहित बकरी लांबी जुजाव रहेवानुं बे. बारमी प्रतिमामां उपर प्रमाणे बे, परंतु तेमां जल रहित त्रण उपवास करी एक पुद्गलव्याप्त निमेष रहित दृष्टि राखी अने लांबी जुजा करीरी रहेवानुं a. एनो अंगीकार करनार १ वज्र ऋषन नाराच, २ ऋषननाराच, अने ३ नाराचमाथी हरेककोड़ संघयण युक्त होय बे. जघन्यथी नवमा पूर्वनी त्रीजी वस्तु सुधी अने उत्कृष्टथं। कांइक जणा दश पूर्व सुधी सूत्रार्थ अधिगत होय छे. तेमज १ तप, २ सूत्र, ३ शक्ति, ४ एकत्व अने ए बले करी प्रतिमा - गीकार करनारने ए पांच प्रकारनी तुलनावमे परिकर्म — अन्यासयी पेहेलाज भावितात्मा थइ जवाय बे. ते परिकर्मनुं परिमाण आ प्रमाणे बे- मासिक आदि सात प्रतिमाने विजेटला प्रमाणनी प्रतिमा बे, तेटला प्रमाणे करी ते परिकर्म होय . तेम वर्षाऋतुमा प्रतिमा अंगीकार कराती नयी ने परिकर्म पण कराता नथी. प्रथमनी प्रतिमा एक वर्षमां याय बे. त्रीजी तथा चोथी एक एक वर्षमां होय बे. बीजी aण न्यत्र बीजे वर्षे ने परिकर्म पण अन्यत्र -- बीजे वर्षे थाय छे. प्रतिमानी प्रतिपत्ति आ प्रमाणे बे-नव वर्ष करीने पेहेली सात प्रतिमा समाप्त कराय बे, आमी आदि त्रण प्रतिमाओ एकवीश दिवसे समाप्त गरमी त्रण दिवसे प्राप्त थाय बे, अने ते अहो रात्रिने करवाथी बने छे अने बारमी प्रतिमा रात्रि पछी अनंतर टम करवाथी थाय बे ने चार रात दिवसना प्रमाणवाळी छे. अहीं बीजं घं कहेवानुं छे, पण ग्रंथ विस्तारना थी कहेवामां आव्युं नथी. ते प्रवचन सारोवार ग्रंथमांथी जी लें. re Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रात्मप्रबोध. आ प्रमाणे संदेपयी निक्षुकनी बार प्रतिमानुं स्वरूप कहेवामां आव्युं . अहो रात्रिनुं संक्षिप्त कृत्य. " शुखाचारः साधुः श्रीजिनवचनानुसारतो नित्यम् । कुर्यात् क्रमेण सम्यक् स्वस्याहोरात्र कृत्यानि " ॥१॥ " शुछ आचारवाला साधुए हमेशा श्री जिनवचनने अनुसारे अनुक्रमे पोताना अहोरात्रिना कृत्यो सम्यक् प्रकारे करवा." ? कृत्यनो क्रम. साधुए रात्रिना पाउला पोहोरे जाग्रत थइ मंदस्वरे करी सूत्र तथा अर्थना परावर्तन रुप स्वाध्याय करवो. जेथी आसपास रहेला आरंनी लोको जाग्रत न थाय. ते पछी ज्यारे ते पोहोरनो चोथो अंश बाकी रहे त्यारे उ प्रकारना आवश्यक करवा एटो प्रतिक्रमण करवं. त्यार बाद उत्कट आसने रही शरीरना परिजोग्य मुहपत्ति आदि उपकरणोनी विधि पूर्वकः पमिहणा करवी. ते पमिलेहणानी समाप्ति वखते सूर्योदय थाय त्यारे उपाश्रयने प्रमार्जे. ते पछी वं. दना पूर्वक आचार्यादिकने पुडी तेमनी आझावझे वैयावच्च तथा समाय ध्यान करे. पण ते पोतानी बुछिए न करे. तेने माटे कयु डे के "छ, अधम, चार, पांच, मास, अर्ध मास, अने मासखमण तेने विषे जे गुरु वचनने अनुसारे न करे तेने अनंत संसारी कहेला जे जेम के, "छठम दशम वालसेहिं, मासघमासखमणेहिं । अकरंता गुरुवयणंअणंतसंसारिआ नणि " ॥१॥ ते पछी कांक नणी पोरिसि वखते बेशी मुहपत्ती पमीलेही पठी पात्रादिक उपकरणानी पमिलेहणा करे. त्यार बाद बीजी पोरसीमां पूर्वे ग्रहण करेखा श्रुतना अर्थचं स्मरण करे. ते पड़ी ज्यारे निवाकाल प्राप्त थाय एटले आगममा कहेब विधि प्रमाणे गुरुनी आझा ग्रहण करी " आवस्सही" वझे जपाश्रयथी नीकली निवाकालना समयमां एटले उत्सर्गथी त्रीजी पोरिसीरुप निमेला वखतमां अथवा "कालेकालं समायरे " ए आगमना वचन प्रमाणे जे दे. शमां के जे गाममां लोको ज्यारे नोजन करता होय ते देशमां ते वखते स्थविर कल्पीओने निदानो काळ जाणी लेवो. Jain Education Intemational Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३७ ते पठी साधु व्याक्षेपता, आकुलता, अने शउताए रहित थइ युगमात्र दृष्टि राखी, पाउन अने पमखे उपयोग राखी एक गृहयी बीजे गृह निदा माटेनमे, अने तेम जमीने वेतालीश दोषे रहित एवी निदा ग्रहण करे. त्यांथी पाछा फरी “ निस्सिहि" पूर्वक उपाश्रयमा प्रवेश करी इरियावही पमिकमी विधि पूर्वक ते अशनादि गुरुने बतावो पछी पञ्चखाण पारी, गृहस्थनी दृष्टि न पमे तेवा प्रकाशवाला स्थानमा रही क्षुधानी वेदना उपशमाववा माटे १ वैयावच्च, इयोनी शुफि, ३ सत्तर प्रकारे संयमर्नु पालन, ४ प्राण धारण, ५ सकाय ध्यानादि अने ६ धर्म चिंताने माटे नोजन करे. ते नोजन समये सुरासुरादि पांच दोषने वर्जे. तेने माटे आ प्रमाणे कहे, जे'असुरसुरं १ अचवचयं,२ अदुअ३ मविलंबियं अपरिसाडिं मणवयणकायंगुत्तो लुजे अहपकिवणसोही " ॥ १ ॥ _____ए पांच मामलाना दोषने वर्जे. ते पड़ी मुनिए मात्रा करवानुं पात्र प्रवामन कर. तथा समाय ध्यान अने वैयावच्चादि कार्य करी ते पड़ी चोथे पोहोरे मुखवस्त्रिका पहिलेही गुरुना अने पोताना उपकरणानी पमिहणा करथी. ते परी ज्यारे सूर्य अर्ध विवरुपे रहे त्यारे गुरुनो समक्ष प्रतिक्रमण कर ते पठी एक प्रहर पर्यंत श्रुतपरावृत्तिरुप स्वाध्याय ध्यान करवा. ते पछी तेज प्रहरनो चोथो नाग बाकी रहे त्यारे नचार प्रश्रवणना स्थमित्रो (मांडवा ) करवा. ते पळी सूत्र तथा अर्थने संजारवा. त्यार वाद ज्यारे निशानो समय आवे त्यारे गुरुनी आज्ञा ग्रहण करवा पूर्वक पृथ्वी उपर संथारो पडिनेही चैत्यवंदन पूर्वक रात्रिना संथारानी गाथा ( संयारा पोरिसी)जणी अने रजोहरणने जमणी थाजु मुकी स्वट्प निघा करवी. अति निझावश न थवं. आ प्रमाणे संक्षेपथी अहोरात्रना कृत्यो बताव्या बे, विस्तारथी ते साधु संबंधी अधिकार ग्रंथांतरथी जाणी लेवो. मुनिओ अनेक गुणोना आधार रुप ले, ते वात दर्शावे छे" निच्चमचंचलनयणा । पसंतवयणा परिष्गुणरयणा । जियमयणा मिनवयणा सव्वत्यविसन्निहिअ जयणा ॥१॥ १ भोजन वखते सुर सुर शब्द न करवो (२) अचवच शब्द न करवो (३) उतावळ न जमवु (४) अति विलंबपणे न जम, (५ ) भोज्य पदार्थ वेरवो नहि. Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. इरियासमिश्पभई, नियसुखायारसेवणे निनणा। जे सुयनिहिणो समणा तेहिं श्मा नूसिया पुहवी" ॥२॥ "जेत्रो नेत्रोनी चंचलताथी रहित छे, जेमना मुख शांत छ, जेमना गुणरत्न प्रसिध , जेत्रो कामना जितनारा , जेमना वचन कोमळ छे जेमनी नजीक सर्व प्रकारे यतना जे, जेो या समिति प्रमुख पोताना शुछ आचारने सेववामां निपुण , अने जेओ श्रुतना निधान रूप में, एवा मुनिग्रोथी आ पृथ्वी विभूषित जे. १-२ सिद्धांतोक्त साधु गुणवर्णन. " जाइसंपन्ना, कुत्रसंपन्ना, बनसंपन्ना, रूवसंपन्ना विषय संपन्ना, णाणसंपन्ना, सणसंपन्ना, चरित्तसंपन्ना, सजासंपन्ना, बाघवसंपन्ना, मिनमदवसंपन्ना, पगभद्दया, पगविणीया, ओयंसि, तेयंसि, वच्चंसि, जसंसि, जियकोहा, जियमाणा, जियमाया, जियलोहा, जियाणदा, जितेंदिया, जियपरिसहा, जिवियासमरणनयविप्पमुक्का, नग्गतवा, घोर तवा, दित्ततवा, घोरबनचेरवासिणो, बहुसुया, पंचसमिहिंसमिआ, तिहिं गुत्तिहिं गुत्ता, अकिंचणा, निम्ममा, निरहंकारा, पुकरंव अलेवा, संखोश्व निरंजणा, गयएंव निरासया, वाउव्व अप्पडिबघा, कुम्मो श्व गुत्तेंदिया, विहंगुव्व विप्पमुक्का, नारंडव्व अपमत्ता, धरणिव्व सव्वंसहा, किं बहुणा ! एगंतपरोवरायनिरया, जिणवयणोवदेसण कुसता, जावकुत्तियावणनूयाए रिसा जिणाणाराहगा समणा जगवंतो नियचरणेहिं महीयलं पवित्तयंतो विहरंतित्ति" ॥ " जाति, कुल, बन, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बन्जा, बाघ Jain Education Intemational Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. ३८१ मृ मार्दवता, ए सर्वने पामेला, प्रकृतिवमे अधिक, प्रकृतिवने विनीत, पराक्रमी, तेजस्वी वाणीनी सुंदरतावाला, यशस्वी, क्रोध, मान, माया ने लोअजितनारा, निशाने, इंडियाने अने परिषहोने जितनारा, जीवितनी आशा तथा मरणना जयथी रहित, उग्र तपस्वी, घोर तपस्वी, दीप्त तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यना धारक, बहुश्रुत, पांच सुमतिवडे सुमत, त्रण गुप्तिव गुप्त, निष्परिग्रही, निरहंकारी, कमझनी जेम निर्लेप, शखनी जेम निरंजन, आकाशनी जेम निराश्रय वायुनी जेम प्रतिबंध रहित, काचवानी जेम गुप्तेंधिय, पक्षीनी पेठे विप्रमुक्त, नारंडनी जेम प्रमाद रहित, पृथ्वीनी जेम सर्वने सहन करनारा, जिनवचननो उपदेश करवामां कुशल, एकांते परोपकार करवामां तत्पर, विशेष शुं कहेतुं ? पण 'कुत्रिकापण जेवा बे, एवा जिनेश्वरनी प्राज्ञाना आराधक, श्रमणस्त्री मुनिओ पोताना चरणवरे या पृथ्वीतळने पवित्र करता विचरे बे. प्रावा साधुजन प्रमुख उत्तम पुरुषोने प्राराधन करवा योग्य एवा सर्वोजता दर्शावे छे " -तप " तम धर्मनी << जद चिंतामणि रयणं सुबदं न होइ तुच्छ विवाणं । गुण विश्ववज्जियाणं जियाण तद धम्मरयांमि " ॥१॥ " पशुपालनी पेठे तु वैजववाला ने थोमा पुण्यवाला जीवोने जेम चिंतामणि रत्न सुलन होय नहीं, तेम सम्यक्त्वादि गुण रूप वैजवथी रहित एवा जीवोने धर्म रत्न सुमन दोतुं नथी. तो जयदेव कुमारनी जेम जे अतुल गुणवान होय छेतेने मणिनी खाण रूप एवी मनुष्य गतिमां चिंतामणि तुख्य नम धर्मने पामे बे. " १ पशुपाल ने जयदेवनुं दृष्टांत. हस्तिनापुर नगरमां नागदेव नामे एक शेव रहे तो हतो. तेने वसुंधरा नामे एक स्त्रीना नदरथी जयदेव नामे एक पुत्र उत्पन्न थयो. ते जयदेवे बार वर्ष सुधी रत्ननी परीक्षानो प्रयास कर्यो हतो, आधी शास्त्र अनुसारे ते चिंतामणिने महान् प्रजाववालुं जाणी बाकीना रत्नोने पाषाण तुल्य समजतो हतो; आथी ते चिंतामणि रत्न उपार्जन करवा माटे याखा हस्तिनापुरमां दरेक एकाने घेर घेर फर्यो. तोपणा कोइ स्थले तेने चिंतामणि रत्न मल्युं नहीं. आर्थी शास्त्रमां कहेल देवताष्ठित दुकाननी जेवा - अर्थात् जेमनी पासेथी जे जोइए ते मळी शके तेवा, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्री आत्मप्रबोध. . खेद पामी तेणे पोताना मातापिताने कयु. “हे पूज्य, मारुं चित्त चिंतामणि रनने माटे लागेलुं छे; में घणी शोध करी पण ते रत्न अहीं प्राप्त थयुं नहीं, तेथी जो आशा आपोतो हुं अहीथी बीजे स्थले जालं." माता पिता बोल्या “वत्स, ए चिंतामणिनी तो कल्पना , परमार्थथी चिंतामणि रत्न डेज नहीं, माटे तुं तारी वा प्रमाणे बीजा रत्नोनो वेपार कर्य." आ प्रमाणे कही तेमणे जयदेवने घणो अटकाव्यो, तथापि जाणे चिंतामणि रत्न मेळववानो निश्चय करेलो बे एवो ते हस्तिनापुर नगरमांथी नीकली गयो. घणा नगर, गाम, खीण, कर्बट, पाटण अने समुझ तीरे गवेषणा करतो ते अतिशय फरवा लाग्यो पण कोइ ठेकाणे तेने चिंतामणि रत्न प्राप्त थयु नहीं. आथी ते खेदातुर था आप्रमाणे चिंतववा लाग्यो-"शुं चिंतामणि रत्ननी वात सत्य नहीं होय ? कोइ पण ठेकाणे ते देखातुं नथी अथवा ते मणि शास्त्रमा दर्शावेन के, एटले तेनु अस्तित्व न होय, ते केम संनवे? शास्त्रनुं वचन अन्यथा होय नहीं. तेथी को ठेकाणे ए रत्नो हशेज." आ प्रमाणे चितवी पागे ते मणिनी खाणोमां फरी तेनी शोध करवा बाग्यो. तेवामां कोइ एक वृष पुरुष तेने मनी आव्यो, तेणे जयदेवने को, "अही एक मणिनी मोटी खाण बे, ते खाणमांथी पुण्यवंत पुरुषो चिंतामणि रत्नने प्राप्त करी शके ने."वृष पुरुषना आवां वचनो सांजली जयदेवे ते खाणमां चिंतामणि रत्ननी गवेषणा करवामांगी; तेवामां एक मंदबुधि पशुपालना हाथमा वर्तलाकार पथ्थर जोवामां आव्यो. शास्त्रमा कहेला लक्षणोथी तेने चिंतामणि जाणी जयदेवे तेन पासे तेनी मागणी करी. पशुपाल बोल्यो-" तारे आ वस्तुनुं शुं काम डे ? जयदेव बोल्यो-" हुं आ वस्तु घेर जश् बालकोने रमवा आपीश. " पशुपाले का, “ आवी वस्तुतो अही घणी , तुं पोतानी मेले ते शा माटे बा लेतो नथी ?" जयदेवे का, “ अत्यारे घेर जवानी मने भारे उत्कंगथ डे माटे मने सत्वर आप, एटले हुं मारे घेर चालतो थानं. तने आ स्थले बीजा आवा पदार्थो मनशे." आवा जयदेवना वचनो सांजळीने पण ते पशुपास परोपकारशील न होवाथी पीगट्यो नहीं अने तेने ते रत्न आप्युं नहीं. पछी जयदेवे उपकार बुद्धिथी तेने आ प्रमाणे कडं, “ नज, जो तारे मने श्रा रत्न न आप, होय तो तुं तेनी आराधना कर. ए चिंतामणि रत्न डे तेनो आराधना करवाथी ते तने वांछित फल आपशे. " पशुपाल बोल्यो-"जो श्रा Jain Education Intemational Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश. साचं चिंतामणि रत्न होय तो ते मने बदरीना चिंतवेला फल तथा कचकमां शीघ्र आपो." पशुपालना आ वचनो सांगली जयदेव हसीने बोल्यो-" अरे पशुपास, एम चितववाथी कांई मनतुं नथी, पण प्रथम तेनी आराधना करवी मोइए. पेहेला त्रण उपवास करी संध्याकाले ते रत्नने शुद्ध जले न्हवरावी, शुक नूमिना नंचा प्रदेशमा स्थापी तेनी चंदन, कपूर तथा पुष्पादिकवडे पूजा करी पठी नमस्कार करी ए रत्ननी आगल पठी जे इष्ट होय, तेनुं चितवन करवू, तो पनी प्रातःकाले ते प्राप्त थाय ने." जयदेवना आ वचन सांजळी ते पशुपाल पोताना बकरां अने मेंढाना ,दने वाळी गाम तरफ चाल्यो. " निश्चे आ मणि आ हीन पुण्यना हाथमा रहेशे नहीं" एम धारतो जयदेव पण तेनी पाउल चालवा लाग्यो. मार्गे चालतां पशुपान ते मणिने उदेशोने वोल्यो-"अरे मणि, हुं आ बकरां वेची तेवमें चंदनादि सामग्री लावी तारी पूजा करीश अने तारे पण मारा चिंतितकार्य साधवामां पूर्ण नद्यम करवो. वळी हे मणि, हजु अहींथी गाम दूर जे, तेथी रस्तामां कांइ कथा कहे तो रस्तो खूटशे. जो कदि कोइ कथा तारा जाणवामां न होय तो हुं कहुं बुं, ते सांजल "कोइएक एक हाथना प्रमाणवाळु देवगृह , तेनी अंदर चार नुजावाळो देव डे." आ प्रमाणे तेणे वारंवार कहेवा मांडयुं, तोपण ते मणि का पण बोल्यो नहीं, त्यारे ते रोपातुर था प्रमाणे बोल्यो. " अरे मणि, तुं मारी वातमा होकारो पण आपतो नथी, तो पळी वांछित आपवामां तारी शी आशा राखवी ? अथवा तारुं नाम चिंतामणि , ते बराबर , कारण के तारी प्राप्तिथी मारा मननी चिंता नाश पामती नथी. जे हुं छाश विना एक क्षणमात्र पण रही शकतो नथी ते हुं तारे माटे कराता त्रण उपवास करी मरणज पाम, एमां शक नथी. एयी हुं तो एम मार्नु छं के, आ वणिके मने मारवाने माटेज तारं वर्णन करेलु बे, तेथी तुं चाल्यो जा. फरीवार मारी दृष्टि गोचर थश नही," आ प्रमाणे कही ते पशुपाले मणिने फेंकी दीधो. या वखते आनंदित थयेला जयदेवे तत्काल ते चिंतामणिने प्रणामपूर्वक ग्रहण करी अने पोताना मनोरथ पूर्ण थयेला जाणी पोताना नगर तरफ चाल्यो. मार्गमा चालतां महापुर नामे एक नगर आव्यु. मणिना प्रनावथी ते नगरमां लक्ष्मीनो समूह ते ने प्राप्त Jain Education Intemational Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ श्री आत्मप्रबोध. थइ आव्यो. ते समये ते नगरना सुबुद्धि नामना शेठे पोतानी पुत्री रत्नवती ने तेनी साधे परावी. पी जयदेव ते कन्या तथा बहु परिवार सहित पोताना व न हस्तिनापुरमा आव्यो अने ते पोताना मातापिताना चरणमां वंदना करी. पोताना पुलने वो समृद्धिमान् जोड़ ते माता पिता आनंदित थइ तेनी जारे प्रशंसा करवा लाग्या. स्वजनोए जयदेवनुं वह सन्मान कर्यु ने वीजा लोको तेन स्तुति करवा लाग्याने जयदेव यावज्जीवित सुखी थयो हतो. आ प्रमाणे धर्म रत्ननी प्राप्ति जयदेव ने पशुपालनो वृत्तांत कहेवाय छे; ते उपनय रुपे जाणवो. एवी रीते प्रसंगे प्राप्त थयेल बद्मस्थाश्रित एवं सर्वविरतिनुं स्वरूप कहेतुं छे. इत्थं स्वरूपं परमात्मरूप - निरूपकं चित्रगुणं पवित्रम् | सुसाधुधर्मं परिग्र जव्या भजंतु दिव्यं सुखमयं च" १ 46 आवा स्वरूपवाला, परमात्मरूपने निरुपण करनारा, विचित्र गुणवाला, पवित्र एवा उत्तम साधु धर्मने ग्रहण करी जव्य प्राणीओ दिव्य ने अकय सुखने भजो. " १ "" ८८ प्राक्तन सद्ग्रंथानां पद्धतिमाश्रित्य वर्णितोऽत्रमया । साध्वाचारविचारः शुद्धो निज आत्मशुद्धिकृते " ॥२॥ पूर्वना सदग्रंथोनी पद्धतिने श्री मारा पोताना आत्मानी शुदिने माटे में अहं शुद्ध एवो साधुनो आचार वर्णन करेलो छे. " २ ए प्रकारे श्रीमान् वृहत् खरतर गहना अधिराज श्री जिननक्तसूरींना चरणाराधक श्री जिनलानसूरिए रचेल्ला आत्मबोध ग्रंथनो संक्षिप्त सर्व विरति नामनो त्री जो प्रकाश संपूर्ण थयो. ONE Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BiMHIRANAS अथ चतुर्थ प्रकाश परमात्म स्वरूप. अनुक्रमे आवेझा आ चोथा परमात्म प्रकाशनो प्रारंन करवामां आनावे . प्रथम परमात्मताना वे प्रकार . १ जवस्थ परमात्मता अने All सिमस्थ परमात्मता. ते परमात्मतानी मानिने सूचवनारी बे आयाओ श्रा प्रमाणे - "पकश्रेण्यारूढः कृत्वा घनघातिकर्मणां नाशम् । आत्मा केवलनूत्या नवस्थपरमात्मतां नजते ॥ १॥ तदनुनवोपग्राहक-कर्मसमूहं समूलमुन्मूल्य । ऋजुगत्या लोकाग्रं प्राप्तोऽसौ सिधपरमात्मा" ॥२॥ पक श्रेणी उपर आरुढ थयेनो आत्मा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय अने अंतराय-ए चार कर्म के जे आत्मगुणना घातक होवाथी पनघाती कहेवाय , तेनो नाश करी सोकालोकने प्रकाश करनार केवलझाननी संपत्ति प्राप्त करी ते वझे नवस्थ एवा परमात्मपणाने पामे . " ? से पड़ी ते आत्मा तत्कास कामे करीने एटले चौदमा गुणगणाना डेछा समयमां नवोपग्राही एटले वेदनीय, श्रायु, नाम अने गोत्र रुप चार कर्म ने भव पर्यंत स्थायी , ते कर्मना समूहने मूलमाथी उखेकी नांखी अजुगति एउसे समयांतर के प्रदेशांतरनो स्पर्श न करीने सोकाग्र-सिफि स्थानने प्राप्त करी सिफ परमात्मपणाने पामे . १ YE Jain Education Intemational Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ श्री प्रात्मप्रबोध. अहीं भवस्थ परमात्मतानी स्थितिनुं मान जघन्यथी अंतर्मुहूर्त्तनु ने अने उत्कृष्टथी देशे जणी एवी पूर्व कोटि वर्षमुंबे अने सिक परमात्मतानी स्थितिनुं मान सादि अपर्यवसित कालवें . एवा प्रकारनी परमात्मता जेने होय रे ते परमात्मा कहेवाय छे. से परमात्मा भवस्थ केवळी अने सिघ एवा चे प्रकारे . तेमां प्रथम भषस्थ केवलीनुं स्वरूप बतावे जे. नवस्थ केवलीन स्वरूप. अवस्य केवनीना पण १ जिन अने २ अजिन एवा बे नेद ले. तेमां ने जिन नामकर्म उदयवाला तीर्थकर ते जिन कहेवाय ने अने जे सामान्य केपली ते अजिन कहेवाय जे. ते जिन ? नाम जिन, २ स्थापना जिन, ३ घव्य जिन अने ४ भाव जिन–एम चार प्रकारे रे. ते विष आ प्रमाणे कछु - " नामजिणाजिनामा ग्वण जिणा पुणजिणंदपडिमाओ। दव्वजिणाजिजीवा नावजिणा समवसरणत्या" ॥१॥ ने श्री ऋषज, अजित अने सजव वगेरे जिनो ने ते नाम जिन कहेपाय . से नाम जिन साक्षात् जिनगुण वर्जित , तोपण परमात्मगुण- स्मरण बगेरे कारणने लश्ने परमार्थपणे सिधिने करनार होवाथी सम्यग् दृष्टि पुरुषोए से सर्व काले स्मरण करवा योग्य छे जेम लोकने विषे पण मंत्राक्षरना स्मरणथी कार्यनी सिफि देखाय छे. रत्न, सुवर्ण, रजत, आदि धातुमय एवी कत्रिम तथा अकत्रिम जे जिनेश्वरनी प्रतिमा ते स्थापना जिन कहेवाय , तेने विषे पण जो के साक्षात् जिनगुण विद्यमान नथी तोपण तेमां तात्विक जिन स्वरूपर्नु स्मरण थवाने बीधे तेना दर्शन करनार सम्यग्दृष्टि जीवोना चित्तमां परमशांत रसनु जत्पादक होवाथी भने अबोधी जनने उत्तम बोधिवीजनी प्राप्तिनुं हेतु होबाथी तेमज श्री केवली भगवान्ना वचनवमे तेमां जिनतुल्यप| होवाथी शुक मार्गानुसारी श्रावकोने अव्य भने भावथी सर्वकाले शंका रहितपणे ते स्थापना जिन वंदनीय, पूजनीय अने Jain Education Interational Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकाश. ३८७ स्तवनीय. जाकरवी योग्य मुनिओने सर्व सावध योगनी निवृत्ति होवाथी तेमनी नावपूते विषे आगमने विषे प्रतिपादन करेलुं बे. herएक सांप्रतकाले बुद्धिहीन, श्री वीरमजुनी परंपरानी बाहेर वर्तनारा, मिथ्यात्वना उदयथी पराजव पामेला, स्वपति कल्पित अर्थ स्थापनारा श्री जिनेश्वरे रूपेला स्याद्वाद - अनेकांत मार्गने झोपनारा लोकोए कुदृष्टिनो विलास प्रगट करेलो बे; ते लोको जैनानास एटले जैन लक्षण रहित छतां जैनना जेवो आनास बतावनारा बे. ते श्री परम गुरु-तीर्थकरना वचनाने उध्यापनारा होवाथी अनंत भव भ्रमणाना जयने अवगणी पोते ग्रहण करेला असत्पक्षने सिद्ध करवा माटे जोळा लोकोनी गळ उत्सूत्र प्ररूपणा करे छे. तेप्रो कहे बे के, " स्थापनाजिन ज्ञानादि गुणोथी शून्य होवाथी वंदना करवा योग्य नथी, तेमने वंदना करवाथी सम्यक्त्वनो नाश थाय बे. आगमने विषे पण तेमने वंदना करबानो अधिकार को नथी. आधुनिक लोकोए पोतानुं माहात्म्य प्रगट करवाने माटे जिनचैत्यनी स्थापना करेली बे. " वी ओ कहे छेके, “जिनबिंबनी पूजा वगेरे करवामां साक्षात् जीवहिंसा देखाय बे अने ज्यां जीवहिंसा होय त्यां धर्म होयज नहीं. कारण के, धर्म तो दया मूलज को बे, तेथी पोताना सम्यक्त्वनुं अक्षयपणे रक्षण करवाने इष्टनारा प्राणीने तो श्री जिन प्रतिमानुं दर्शन कर पण प्रयुक्त बे. अहा ! केवी अज्ञानता दे ! पूर्वजोने संतुष्ट करवा माटे पींपळा आदि कोना मूलमां सचित्त जलनुं सिंचन करवा प्रमुख आचरण ने मिथ्यात्वी देवनी पूजा वगेरेमां प्रवर्त्तन -- ए करवामां सम्यक्त्वनो नाश थतो नथी. कारण के, संसारीपणाने लइने श्रावकोने एवा कार्यमा अधिकार के. या प्रसंगे सिद्धांतना वचनाने अनुसरी अद्भुत युक्तिथी तेमना असत् पहने दूर करवा माटे उत्तररूपे वचनो कहेवामां आवे छे जे स्थापना जिन बे तेनों जिन स्वरूपने स्मरण कराववा प्रमुख जे तात्विक हेतु युक्तिपूर्वक प्रथम कहेवामां आव्यो बे, से प्रत्यक्षादि प्रमाणव के सिकयाय बे, तेथी तेमनामां सर्वथा गुणशून्यपणानो अनाव होवाथी नामां वंदनादि करवानी योग्यता सापित थायडे. ते स्थापना जिननुं दर्शन वंदन वगेरे करवाथी तत्काळ शुभ ध्यान प्रगट थतां प्राणीने सम्यक्त्वनी निर्मलता प्राप्त थाय छे. तेथे ते जैनानासोए सम्यक्त्वने नाश थवानी जे युक्ति कहेली ܐܕ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रात्मप्रबोध. ने से सर्वथा मिथ्यात्वनी मूल रुप . आ प्रमाणे जाणी सम्यग्दृष्टि जीवोए से युक्तिने आदर आपको नहीं. वली जे स्थानकमां चित्रमा आलेखेली स्त्री होय तेवा स्थानकमा साधुओने रहेवानो निषेध आचारांग सूत्रमा कहेलो ; चितरेली स्त्री साक्षात् स्त्री गुणथी वर्जित , उतां प्राकार मात्रे करी विकार उत्पन्न थवानुं कारणनूत . त्यारे जो तेना दर्शनथी विकार उत्पन्न थाय ने तो पळी परम शांत रसवाळी सौम्य प्राकारने धारण करनारी श्री जिन प्रतिमाना दर्शनथी प्रबुद्ध पुरुषोने उत्तम ध्यान थवानो संजव केम न होय ? श्रावी रीते सख़ुफिवामा पुरुषोए विवेकपूर्वक विचार करवो जोइए. ते जैनानासो कहे डे के, " अागमने विषे जिन चैत्यवंदनादिकनो अधिकार नथी, चैत्य स्थापन ए आधुनिक रे. पूजामां हिंसा थवाथी ते अधर्म छे अने वृक्ष-पींपळा प्रमुखने पाणी पावू, तथा मिथ्यात्वीअोना देव- पूजन करखं, एमां सम्यक्त्वनो विनाश थतो नथी. आ तेमना आलापो उन्मत्त माणसना आलाफ्ना जेवा अयुक्त जे. कारण के, आगमने विषे स्थाने स्थाने जिन चैत्यवंदन तथा पूजनादिकना अधिकार ने तेथी स्थाप. नानुं अने पूजानुं प्राचीनपाएं सिफज थाय . जो तेमां अधर्मपणुं होय तो आप मने विषे कहेला हित, सुख अने मोक्षादिकना फलनी प्राप्तिमां विरोध प्रावे. तेम वली तिर्यच, नरक गति आदि नगरा फल अधर्मना कहला . जे पीपळाने सचित्त जल सिंचन कर, ते प्रत्यक जैन धर्मनी घानी विरुछ होवाथी ते साक्षात् मिथ्यात्वीओज कार्य ठे ए प्रसिस के कारण के, सम्यक्त्वीओने अन्य देवने वंदनादिक करवामां राजानियोग आदि आगारने वर्जीने बीजे सर्व स्थने सेनो सर्वथा परिहार करवाने आगममां कहेल डे, तेथी उत्सर्ग मार्गथी अन्य देवनें वंदनादि करवामां सम्यक्त्वनो अवश्य नाश थाय २. उपर कहेला अर्थने प्रतिपादन करनारा श्री झाताधर्मकथा सूत्रना केटलाएक वचनो प्रा प्रमाणे - १“तएणं सा दोवई रायवरकाागा एहाया कय बलिकम्मा कयकोउय मंगलपायबित्ता सुधपावेसाई मंगलाई वच्छाई पवरपरिहिया मजणघराउ पडिजिकमा पडिनिस्कमित्ता जेणेव - १ द्रौपदी-ध्रुपद राजानी पुत्री-पांडवोनी पत्नएि जिन प्रतिमानी पूजा केवा प्रकारोथी करी तेनो भधिकार थे. Jain Education Intemational Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ प्रकाश. ३८ जिहरे तेणेव नवागच्छईश्ता जिणहरं अणुपविस्सइ बालोए पणामं करेइ लोमहत्ययं परामुसइ एवं जहा सूरिआने जिएपडिमा अच्छे तदेव जाणिव्वं जावध्रुवं महइ वामं जाणं अच्चे दाहिणां धरणीतसंसि निहद्दु तिखकुत्तो मुद्धानं धरणीतलंस निसेंइ ईसिं पच्चुन्नमइ करयलजावकद्दु एवं वयासी नमुत्थुणं अरिहंताणं जावसंपचाणं वंदइ नमसइ जिणहराज पडि निस्कमइति ॥ बली रायपसेणी सूत्रमां पण या प्रमाणे कहेलुं बे २" तरणं से सुरियाने देवे पोत्थयरयां गिएहत्तिश्त्ता पोत्थयरयणं वाएत्तिश्ता धम्मियं ववसायं परिगिएदत्तिश्ता पोत्ययरयणं परिनिख्कमंतिश्त्ता सिंहासणाओ अब्नुट्ठेश्श्त्ता ववसायसनान पुरित्थमलदारेणं परिनिख्कमइश्ता जेणेव दा पुरुकर णि तेणेव उवागचश्त्ता गंदा पुख्करणीए पुरत्थि - मणं दारेणं तिसोपा परिरुवेणं पच्चोदइश्ता तत्थ हत्थ - पादं परकाले शत्ता प्रायते चोख्के परमसुश्नूए एवं सेयं मह रययामहं विमलसलिलं पुष्षं मत्तगयमुहागिश्समाणं जिंगारं पगिएहंत्तिश्त्ता जाईं तत्थनप्पलाई जाव सयपत्तारं सहसपत्ताई ताई गिएहंत्तिश्त्ता दान पुरुकरणीय पचोरुदश्श्ता जेणे व सिद्धायत तेणेव पहारत्थगमणाए इत्यादि जाव बहु दिय देवे देवीदिय सद्धिं संपरिवुमे सव्वद्धीए जाव वाइयरवे जेणेव सिद्धायतणे तेणे व जवागल सिद्धायतणं पुरित्थिमलेणं २ सूर्याभदेवे देवलोकमां जिन प्रतिमानी केवा केवा द्रव्य भने भावमय प्रकारोवढे पूजा करी तेनो अधिकार छे. Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० श्री आत्मप्रबोध. दारेणं अणुपविसरत्ता जोव देवच्छंदए जेणेव जिणपमिमा तेणेव उवागच्छ जिणपमिमाणं आलोए पणामं करेइश्त्ता सोमहत्यगं गिएहश्श्त्ता परामुसइश्त्ता लोमहत्थगं जिणपमिमाओ लोमहत्येणं पमजश्त्ता जिणपमिमाओ सुरहिणा गंधोदएण एहाणेशश्त्ता सरसणं गोसीस चंदणेणं गायाई अणुलिंपश्श्ता जिणपमिमाणं अहियाई देवदूसजुयलाई निअंसे २त्ता अग्गोहिवरेहिं गंधेहिं अञ्चश्श्त्ता पुप्फारुहणं मलाहहणं वन्नारुहणं चुण्णाहणं धत्थारुहणं आभरणारहणं करेइश्त्ता आसत्तो सत्त विनत वग्धारिअमलदाम कलावं करेइश्त्ता जावकरग्गह गहिअ करयसपब्लूरु विप्पमुक्केणं दसष्पाले कुसुमेणं मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं करेइश्त्ता जिणपमिमाणं पुरओ अत्थेहिं संण्हेहि अत्थरसा तंजुलेहिं अच्छमंगले आहिन तं सोस्थियामएहिं १ सिरिवच्छ २ सुचिअनंदिआवत्त ३ वद्धमाण ४ वरकलस ५ नदासण ६ मवयुगल ७ दप्पण ८ तयाणंतरं चणं चंदप्पन रयण वश्र वेरूलिय विमनदंडं कंचणमणिरयण नत्तिचित्तं कातागुरु पवरु कंजुरुक तरुक धूव मघमघंतगंधुत्तमाणुविधं धूमवदि विणिम्मुयंतं वेरूलियमयं का च्युअं पग्गहिरं पयत्ते धूव दाऊण जिणवराणं असयविसुफ गंधजुत्तेहिं महावित्तेहिं अत्यजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं संयुणश्त्ता सत्तछपयाहिं अोसरश्त्ता वामंजाणुं अंचेश्त्ता दाहिणजाणुं धरणितसंसि निह१ तिखुत्तो मुखाई "रणीतलं निवामेश सिं पच्चूममश्श्ता करयनपरिगाहिअंतिरसाव दसनहं म अंजलिं कह एवं वयासि नमुत्युणं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं Jain Education Interational Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकाश. तिकडे वंदश् नमंसति ॥ तेवी रीते जीवाभिगम गने विषे पण विजयदेवना संबंधमां विजयदेवने नामे आ प्रमाणे अालाय कहलो डे; ते ते स्थनेयी जाणी लेवु. एवी रीतना घणा आलावानी अंदर सम्यक्त्त्ववंत देव तथा मनुष्ये करेली पूजानो अ. धिकार साक्षात् जोवामां आवे ने बतां ते वातनी ना कहेवा सम्यक्त्त्व धारोश्रोए शक्तिमान् य, ए तदन अयोग्य छे. विवेकी पुरुषोए ते विचारी लेवानुं जे. वनी आ अधिकारने विष जैनानास लोको पोते मिथ्याष्टि होइ वीमाओने मिथ्यादृष्टि तरीके जोवाथी सम्यक्त्त्ववती प्रौपदीने पण मिथ्याष्टि कई ने अने सिचायतन तथा जिनगृह ए शब्दना मूल अर्थने उलटावे ने अने सेने स्थाने कामदेव यक वगेरेना देहेरानो अथे प्ररूपे , ए केटलं अयोग्य करेपाय ? तेने माटे एटर्बु कहेवान के, जो प्रौपदीए मिथ्याष्टिपणाने लश्ने कामदेव यानी पूजा करी होय तेमज सूर्यान प्रमुख देवे यक्षा दिकनी पूजा करी होय तो ते उव्य पूजाने अंते “ नमुथ्युणं अरिहंताणं " इत्यादि शकस्तव न लणे; कारण के, शक्रस्तव कह्यानो पाठ आगमने विष साक्षात् देखाय छे ते छसां ए जैनाभासो निन्हव रुपे खोटं बोलवाने केम समर्थ थाय डे ? वन्नी वैमानिक देवताओ पोताथी हीन पुण्यवाला एवा यक्षादिकनी पूजा केम करे ? अ र्थात् नज करे. सेम वली जो जौपदी श्राविका न होततो नारद आवतां अज्युस्थान प्रमुख करत पण जे लेणीए कर्यु नथी तेथी निश्चे ते श्राविकाज हती एम सिफ थाय छे. वली श्राविका विना तेणीने ' नमुथ्युणं' ( शक्रस्तव ) नी विधिनुं परिझान पण न संजवे, ए पंमितोए विचारी लेवू, वली ते जैनाभासो कहे जे के, “ सूर्यान देवे पोतानी राजधानीना मंगलिकने माटे जिन प्रतिमा पूजी ," तेने माटे सूत्रमां एवा प्रकारनो पाउज नथी परंतु तेनी करेली पूमाने आश्रीने “हियाए, सुहाए, खेमाए, निस्सेयहिए, अणुगामियत्ताए भविस्स" ए पाठ विद्यमान डे अने त्यां निःश्रेयस शब्द मोक्षवाची छे, ते सर्व Jain Education Interational Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए श्री प्रात्मप्रबोध. शास्त्रोमां प्रसिद्ध जे. वनी श्री अरिहंतना वचनमां पण अनुक्रमे पूजार्नु फल मोक्ष प्ररुपे , ते जाणीने पठी स्वेछावादीओना वितय वचनो उपर केम विश्वास रहे ? तेमज पूजाने आश्रीने ते जैनानासो कहे जे के. “ नगवंते हिंसानो तदन निषेध कर्यो में, तो पी पूजानुं आचरण केम कराय ? तेना उत्तरमा कहेवातुं के ए वचन कये ठेकाणे कयु ने के हिंसा करवा ? हिंसानो निषेध कह्यो छे, ए वात सत्य , परंतु जगवते कया आगममां जिनपूजा निषेधेली ने ? ते जणावो. आगमने विषेतो जरहें सत्तर भेदी पूजा करवाने कहेलु ने अने ते बात कर्त्तव्य रुपे दशावेन डे. श्री प्रश्न व्याकरण सूत्रने विषे पेहेला संवरघारमा जे अहिंसा-दयाना साठ नाम आपेला छे, तेमां पूजा, पण नाम छे. जेम के, “निव्वाणं १ निव्वुर समादि ३ संती ४ इत्यादि यावत् जालो ४६ आयतणं ४७ जयण ४८ मप्पमा ४९ आसासो ५० वीसासो ५१ अन्नो ए३ सव्वस्सविअनाघाओ ५३ चोक ५४ पवित्तीएए सुश्५६ पूया५७विमलए८प्पन्नासईएएनिम्मलतरिति ६०” एवमाणि नियय गुणनिम्मियाई पजवनामाणिहात्ति ॥ अहिंसाए लगवई एति ॥ (श्वाऽहिंसानामसु जहशब्देन 'पूया' शब्देन च देवपूजा गृहीताऽस्ति ). अहिं दयाना नामने विषे (जाम) शन्द तथा (पूया) शब्दे करी देव पूजा ग्रहण करेली , कारण के 'यजनं यज्ञः' इत्यादि व्युत्पत्ति थाय . तो हवे तमो जिन पूजाने हिंसामा केम गणो गे? वनी श्री सूयगमांगजीना बीजा श्रुतस्कंधना बीमा अध्यायनमां अर्थदंडना अधिकारमा कयु छ के, " नागहेऊ न. यहेळं" इत्यादि पाठमां नाग, नूत यदादिकनी हेतु पूजाने विषे हिंसापर्ण कहेल , पण जिन पूजामां कहेब नथी, कारण के, जो जिन पूजामां हिंसा थती होत सो ते सूत्रमा जिणहेऊ.' एवो पाउ कहेत, पण तेवो पाठ त्यां आपेलो नथी; तेथी श्रा प्रमाणे सूत्रना वचन उत्यापन करी तमारं अंगीकार केम कराय ? बसी ते Jain Education Intemational Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकाश. ३ए३ जैनानासो कहे डे के, “ जिनपूजाने विषे उ कायना आरंजनो संनव तेथी श्रावकोए तेनुं आचरण केम कराय ?" तेना उत्तरमां कहेवायूँ के, जैनधमनुं अनेकांतपणुं होवाथी सम्यक्त्त्ववंत पुरुषोने तेवा एकांतपक्षनो आग्रह होतो नथी; कारण के, श्री ज्ञाताधर्मकथा-बग अंगने विषेत्रण झानवाळा श्री मबिनाथ जिनेश्वरे पोताना उ मित्रोने प्रतिबोध करवा माटे सुवर्णनी पुतलीमां निरंतर कवळनो प्रक्षेप कयों ने तथा सुबुद्धि मंत्रीए पोताना स्वामीने प्रतिबोधवा माटे एक खाश्ना जलनु परावर्तन करावेलुं . तेम वली आगमने विषे घणा हाथी, घोडा, रथ अने पायदा प्रमुख परिवार सहित कुर्णिकादिक राजाओए आचरेन जिनवंदनादि महोत्सव स्थाने स्थाने सांभळवामां आवे . ए कार्योमा घणी हिंसा थवानो संजव बे, परंतु ते लाजनुं कारण होवाथी तेनी गणना हिंसामा करेली नथी पण ते बाजनुं कारण , एम समजवानुं छे. आ कारणथी एम निश्चय थयो के, श्री जिनाझाने आश्री, सम्यक् यतनाए करी अने नक्तिए करी उत्तम क्रिया करवामां हिंसानो कोइ पण दोष नथी. " ज्यां हिंसा त्यां जिनाझा नथी.” एम जे कहे , तेने माटे एटझुंज कहेवार्नु के, जो एम होय तो साधुओने प्रतिक्रमण अने विहारादिकने विष पण जिनाझा न होवी जोइए. कारण के, तेने विषे पण हिंसानो संजव बे; माटे श्रुत व्यवहार एवो के, जे नाजने माटे निर्दोष परिणामवझे यतना पूर्वक प्रवर्तन ने तेवा प्रसंगे तेवा प्रकारनो कमबंध नथी. या वात श्रीनगवतीजीना अढारमा शतकना आठमा उद्देशमां विवेचन करी समजावी छे ते विस्तारथी जाणी लेवी. ते प्रसंगमां दर्शाव्युं ने के, जावितात्मा अनगार युगमात्र दृष्टिवडे जोइ जोइ गमन करतां तेना पग नीचे कुलिग (कुकमा ) आदिकनुं बच्चु मरण पामे तोपण तेमने हिंसाना परिणामनो अनाव होवाथी इरियावही पमिक्कमवानी क्रिया होय डे परंतु सांपरायिकी क्रिया होती नथी विगेरे ते अधिकारमांज . वली जे पूजामां पुष्पारंज देखाय , ते उपचारिक , परंतु उत्तम सद् जावे करी ते आरंभनो परिहार थाय बे, तेमज जेम मुनिओने नदी उतरती व. खते जन्न उपर करुणाना परिणाम होय जे, तेम श्रावकोने जिन पूजामां पुष्पादिक उपर करुणाना परिणाम होय छे. एवी रीते हिंसानुबंधी क्लिष्ट परिणामना अभावे १ गाडांनी धूसरी जेटला प्रमाणवाळी. ૫૦ Jain Education Intemational Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्री आत्मप्रबोध. करी साधुनी जेम श्रावकने पण तेवो उष्ट कर्मनो बंध थतो नथी. जेम चातुं पमेयूँ होय, तेना बेदन वखते प्राणीओने वेदनानो संजव बतां अंते महा सुखनी उत्पत्ति थाय . तेम पूजाने विषे पण स्वरूप मात्र आरंज डे उतां परिणामनी शुछिने लइने अनुक्रमे परमानंदनी प्राप्ति थाय बे. अहीं प्रश्न करवामां आवे के, “ जो, पूजाथी परिणामनी शुद्धि अने तेथी अनुक्रमे परमानंदनी प्राप्ति थती होय तो साधुओ व्यपूजा केम नथी करता ?" तेना उत्तरमां कहे जे के, “ रोगीओने जेम औषधोपचार महान् उपकारी थाय , तेम अव्यपूजा आरंजमग्न एवा प्राणीओने महान् उपकारी थाय बे; तेथी ते श्रावकोनेज करवा योग्य छे. सर्वारंनथी मुक्त एवा साधुओने ते ऽव्यपूजा योग्य नथी. जे सर्वथा नीरोगी होय तेने औषध उपकारकारक नथी. एज कारपथी श्री तीर्थकर जगवाने तेमने अनुकंपा दान करवा वगेरेनी पण आज्ञा आगममा आपेली नथी. वळी दशमा अंगमां ( श्री प्रश्न व्याकरण सूत्रना पहेला आअवधारमा ) धर्मार्थ वगेरेने माटे हिंसा करनारने मंदबुधिपणं कहवं , तेनुं रहस्य पण आ ज . तेमज देशविरति श्रावकने सिघांतमां बालपंमित कहेन , एकांत पंमित कहेन नथी; कारण के, तेनामां देशथकी बालपणुं रहेढुंज छे धावा कारणने लइने सांसारिक कार्योमा प्रवर्त्तता एवा पुरुषोने अव्यपूजानो निषेध केम थाय ? ए विवेकी पुरुषोए विचारी लेवू जोइए; अथवा ते युक्ति दूर रहो. तथापि पाप आचरनार पुरुषोंने आश्री तेनुं मंदबुधिपणुं कहेलु बे, बीजाने आश्रीने कहेल नथी. वनी ते स्थने हिंसा करनारना घारने विषे शौकरिक-मच्छीमार आदि जे अशुज परिणामी पापरुचि जीवो , तेमने तेवा हिंसाना करनार कहेना , पण शुज परिणामवाला जिनगृह वगेरेना करनारा श्रावकोने कहेला नथी. वली जे जैनाभासो कहे जे के, “प्रतिमामां एकेंजियदलपणुं डे, तेथी तेनुं वंदनादिक कर अयुक्त जे." तेने माटे एटर्बुज कहेवार्नु के, “श्री जिनेंजोए जिनबिंबोने जिन प्रतिमाना शब्दे कहेल डे अने तेमना गृहने सिकायतन शब्दथी उच्चारे छे, तेथी ते जैनानासो जवज्रमणना जयथी अवगणना करी शामाटे आवा कगेर शब्दो बोलता हशे ? त्यारे पुजवू जोइए के, “ तमे दिशा सन्मुख थप वंदनादिक करो हो, तो ते दिशा अजीवरुप , तेथी तमारे दिशा सन्मुख शा माटे थर्बु जोइए ?" Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकाश. ३ए कदि तेओ एम कहे के, “ दिशावंदन समये अमारा मनमां सिक ममुख रहेला , तेथी तेम करवामां दोष नथी," तो अमे पण कहीशु के, "श्री जिन प्रतिमाने वंदन करवा समये अमारा मनमा पण सिद्ध प्रमुख होय ." आधीनावनी अपेक्षाए बने ठेकाणे न्यायतुं समानपणुं , तेथी को प्रकारे पण जिन पू. जानो निषेध करवो युक्त नथी. वली सूत्रने विषे गुरुना आसनादिकनी आशातना वर्जवाने कहेब , तो ते पाट पाटला प्रमुख आसनादिक अजीवरुप , उता गुरुना संबंधने लइने ते स्थापित होवाथी तेनुं जे बहुमान करवामां आवे , ते वस्तुताए गुरुचेंज बहु मान , तेवी रीते जिन प्रतिमा, जे बहु मान छे, ते परमार्थपणे सिघ भगवान्नु ज बहु मान ले. वली सुधर्मा सनामा जे जिन जगवान्नी दाढाओ 3, तेओ अजीवरुप छे, बतां सिद्धांतने विषे तेमनुं वंदनिकपणुं तथा पूजनिकपणुं कहेढुं . ते साये तेमनी आशातना न करवी एम पण जणावेदूं , तो पछी जिन मुजानी वंदनीयतामां अने पूजनीयतामां शो संदेह राखयो ? वनी पंचमांगनी आदिमां " णमो बंजिए बीविए" ए वाक्योए करी श्री सुधर्मा स्वामीए पोते अक्षरविन्यासरुप एवी लीपिने जो नमस्कार कर्यो तो तेमना वचनने अनुसारे प्राणीओने लीपिनी जेम जिन प्रतिमाने नमस्कार करवामां क्यो दोष उत्पन्न थाय ? कारण के, बने ठेकाणे स्थापना, तो समानपणुं बे. तेम वली ज्यारे त्रैलोक्यस्वामी जगवान् समवसरणने विषे मूलरुपे पूर्व दिशा सन्मुख था सिंहासने बेसे , त्यारे देवता तत्काल जगवंत समान आकारवाला त्रण प्रतिबिंब करीने बाकीनी त्रण दिशाप्रोमां सिंहासन उपर स्थापन करे , ते अवसरे सर्व साधु श्रावकादिक नव्यजनो प्रदक्षिणापूर्वक तेमनी वंदना करे . आ वात तो आखा जैनमतमा प्रसिफ छे. वनी जगवंते दानादिक धर्मनी प्रवृत्ति देखामी छे, तेमज पोतानी स्थापनानुं पोतानी जेम वंदनीयपणुं देखामधुं छे, जो एम न होय तो श्री जिनाज्ञानुवर्ती साधु, साध्वी, श्रावक अने श्राविका वंदनादिक केम करे ? ए प्रकारे विवेकी पुरुषोए पोतानी मेले विचारी लेवं जोइए. श्रीमद् जगवती अंगने विषे वीशमा शतकना नवमा उद्देशमा विद्याचारण जंघाचारण मुनिने आश्रीने शाश्वती तथा अशाश्वती जिन प्रतिमाना वंदननो अधिकार स्पष्ट Jain Education Intemational Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. पणे कहेंलो ने, ते आ प्रमाणे जे-" श्री गौतमस्वामी पुढे छ के, “नगवन् , विद्याचारणनी तिर्ण गतिनो विषय केटलो डे ? प्रनुए उत्तर प्यो के, " सेो एक मगले मानुषोत्तर पर्वते जाय छे अने त्यां चैत्यवंदन करी बीजे मगन्ने नंदीश्वर छीपे जाय जे. त्यांना चैत्योने वंदना करी त्यांथी नीकळी एक मगने अहिं आवे ने अने अहींना चैत्योने वंदना करे के ए प्रकारनी तेमनी तिर्की गति कहेली . " पठी गौतम स्वामीए पुग्यं के, “ हे जगवन् , विद्याचारणनी ऊर्ध्व गतिनो बिषय केटलो डे ?" पत्नुए उत्तर आप्यो-" हे गौतम, तेओ एक मगले नंदनवनमा जाय डे अने त्यांना चैत्योने वंदना करी बीजे डगने पंगवनमा जाय , त्यां चैत्यवंदन करी त्रीजे मगले अहीं आवी अहींना चैत्योने वंदन करे २. ए प्रमाणे विद्याचारणनी ऊर्ध्व गतिनो विषय कहेलो छे. परंतु गतिना प्रमादथी वच्चे रहेला चैत्यानुं वंदन रही जाय तो ते स्थानकनी आलोयणा-पडिकमण कर्या विना तेमने आराधना होती नथी;ज्यारे ते स्थानकने आलोव्या-अतिक्रम्याथी आराधना होय छे. एवीरीते जंघाचारणना विषयतुं सूत्र जाणी लेवं. तेनी गतिना विषयमा जे फेर , ते आ प्रमाणे-"जंघाचारण मुनि तिर्ण गति आश्रीने एक मगले तेरमा रुचक छीपमा जाय , त्यांथी पाग फरी बीजे मगले नंदीश्वरे आवे डे अने त्रोजे मगले अहीं आवे अने तेमनी ऊर्ध्व गति आश्रीने पहेले डगले पंगवनमां जाय , त्यांथी पाग निवर्ती बीजे मगले नंदनवनमां आवे डे अने त्रीजे मगले अहिं आवे . ते स्थानकनो आ नावार्थ जे." लब्धि फोरक्वाथी थयेस्रो जे प्रमाद तेने सेक्वाथी तेने आलोच्या के पमिकम्या विना चारित्रनी आराधना थती नथी, कारण के, तेनी विराधना करनारने चारित्रना आराधन- फल मनतुं नथी. ___ आ अधिकारने विषे ते जैनाभासोए उत्सूत्र प्ररूपणानो नय अवगण बहुश्रुत परंपराए आवेस्रो चैत्य शब्दनो ज्ञान रुप अर्थ जे प्ररूपे ने ते विषे क. हेवामां आवे छे जो अहीं साधुओए ज्ञान वंदन करेलुं होय तो चेश्याई (चैत्यानि ) एवा बहु वचननो प्रयोग न करत. नगवान्ना ज्ञान- अति अद्भुत एक स्वरूपज हो जोइए तेथी 'चेश्य' ( चैत्य ) एवो एक वचननो पाठ होवो जोइए, पण तेवो पाठ मुकवामां आव्यो नयी; ते उपरथी ते चारण मुनिओए श्री जिन Jain Education Interational Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AA चतुर्य प्रकाश. ३७ प्रतिमानुं वंदन कर्यु, एम समजवू. वली एम न मानवु के, मानुषोत्तर वगेरे पर्वतोमां श्री जिन प्रतिमा नथी, केमके जंबुधीप पन्नति आदि शास्त्रोने विषे मेरु, रुचक, मानुषोत्तर, नंदीश्वर दीप प्रमुख सर्व शाश्वत स्थानोने विषे श्री जिन प्रतिमानो सदनाव कहेलो. तेम वत्री श्री जगवतीजीना त्रीजा शतकना बोजा उद्देशमा प्रगटपणे श्री जिन प्रतिमानो अधिकार आपेस्रो छे. ते आ प्रमाणेगौतम मुनिए जगवंतने पुग्युं के " हे जगवन् , असुरकुमार देवता कोनी निश्राए उंचे उमेरे अने यावत् सुधर्म देवलोक सुधी जाय ?" तेना उत्तरमा जगवाने या प्रमाणे कयु के, ___ " से जहानामए इह सप्पराश्वा बब्बराश्वा ढंकणाश्वा चुचुयाति वा पल्हवाति वा पुलिंदातिवा एगं महं रणं वा ग९ वा पुग्गं वा दरिं वा विसमं वा पव्वयं वा निस्साए सुमदनमपि आसबलं वा हथिबलं वा जोहबलं वा घणुबलं वा आगलिंति एवमेव असुरकुमारावि देवा गणथ्य " ॥ ___ आ पाठमां जे 'णणथ्य' शब्द छे, तेना अर्थमां एटलो विशेष डे के, अरहंत, अरिहंतना चैत्य अने अनगार नावित आत्मा-ए त्रणनी निश्राए ते असुर कुमार देवता यावत् सुधर्म देवलोक सुधी जंचे उडे . वली 'गणथ्य' नो एवो अर्थ पण जे के, निश्के करीने आ लोकने विषे अथवा अरिहंतादिकनी निश्राए करी ते उंचे उमे छे. तेमनी निश्रा विना ते उंचे नमी शके नहीं. आ उद्देशमा उत्तरोत्तर त्राण निश्रा कहेली . अने पठी के आशातना कहेली छे. एक अरिहंतनी अने बीजी साधुनी. त्यां एम संनवे छे के, अरिहंतनी प्रतिमार्नु कोइ प्रकारे अरिहंतनुं तुब्यपणुं जणावाने माटे जुडं कहेवामां आव्युं नथी. एटले अरिहंत पदे करी तेमनी प्रतिमानुं ग्रहण थवाथी नूदो निर्देश को नथी. अहीं ते जैनानासो कुतर्क करे छे के, क्या श्रावके जिन प्रतिमा पूजी बे? तेना समाधानमां कहवानुं के, सिधार्थ राजा, सुदर्शन शेव, शंख, पुष्कलिक, कार्तिक शेठ अने बीजा तुंगिया नगर निवासी घणा श्रावकोए जिन प्रतिमा पूजी जे. अने ते ते अधिकारे सिकांतमा देखाय छे. “ न्हाया कयवनिकम्मा " Jain Education Intemational Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३एन श्री आत्मप्रबोध. एवो जे पाठ , तेनों अर्थ आ प्रमाणे डे " जेमणे स्नान कर्या पछी बलि कर्म करेलु छे." एटले पोताना गृह चैत्यना अरिहंत देवनी प्रतिमानी जेमणे पूजा करेली. ___ अहीं कुलदेवीनी पूजा करेली , एवो अर्थ न करवो, कारण के, सम्यक्त्व अंगीकार करती वखते जिन जगवान्थी व्यतिरिक्त एवा देवोने वंदन पूजन आदि करवानो त्याग करवामां आव्यो बे, तेम वली तुंगिया नगरीमां रहेनारा श्रावकोनुं सूत्रमा जे वर्णन करवामां आवे ने तेमां तेथी विरोध आवे . तेना वर्णननो पाठ श्री जगवती सूत्रना बीजा शतकमां पांचमां उद्देशमा आ प्रमाणे . " अढादित्ता इत्यादि यावत् असहिजदेवासुरनागसुवसाजरकस किंनर किंपुरिस गरल गंधव्व महोरगादिएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणतिव्कमणिज्जा निग्गंथे पावयणे निस्संकिया निकंखिया निव्वतिगिच्छा लघका गहियठा पुच्छियठा ” इत्यादि ॥ तेमां असहिजत्ति ए पदनो एवो अर्थ ने के, जेने परनी-बीजानी सहाय नथी एवा अर्थात् आपत्तिने विषे पण देवादिकनी सहायताने नहीं इबनारा-पोताना करेला कर्म पोतानेज जोगववा पो छे, एम मानी अदीन मनोवृत्तिवाना आवा विशेषण बाला श्रावको बीजा मिथ्यादृष्टि देवनी पूजा केम करे ? आ प्रत्यक्ष विरोध आवे , तेथी नत्तम बुझिवाना पुरुषोए तेनो सम्यक् प्रकारे विचार करवो योग्य छे. श्री नव्वाइ उपांग सूत्रने विषे अंब परिव्राजकना अधिकारमा श्री जिन चैत्योर्नु साक्षात् वंदनिकपणुं कहेलै बे, ते सूत्र आ प्रमाणे - “ अंबमस्सणं परिव्वायगस्त णो कप्पंति अणन ढिएवा अणउच्छियदेवणयाणिवा अणनच्छिय परिग्गहियाणि अरिहंतचेहयाणि वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा जावपज्जु वा Jain Education Intemational Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकाश. ३एए सित्तएवा गणथ्थ अरिहंते वा अरिहंतचेश्याणि वा " इ. त्यादि ॥ अंबम परिव्राजकने जे कल्पतुं नथी तेने माटे कहे जे के, अन्यतीर्थिओने तथा अन्य तीर्थोना देवाने तेमज अन्यतीर्थिोए ग्रहण करेला अरिइंतना चैत्योने वंदन-नमस्कार तथा पर्युपासना करवी ते विषे. परंतु तेमां आटटुं विशेष डे के, अरिहंत तथा अरिहंतनी प्रतिमाने वंदनादिक कर कटपेछे. ए प्रमाणे श्री उपासकदशांगसूत्रमा पण आनंद श्रावकने अधिकारे जे कहेवामां आव्युं बे, ते ते स्थनेथी जाणी लेवू. वनी ते जैनानासो कहे जे के, “प्रदेशी राजाए चैत्यो केम न कराव्या ? " तेना उत्तरमा कहेवायूँ के, प्रदेशी राजा श्री जैनधर्मनी प्राप्ति कर्या पली केटनो काल जीव्यो हतो के ते चैत्यो करावे ? तेम वन्नी सर्व श्रावको एकज प्रकारनुं धर्म कार्य करे, एवो नियम क्यां छे ? तेथी सुदृष्टि पुरुषोए सर्व धर्मकार्यमां सम्यग् दृष्टिवके श्रछा करवी. पण कुदृष्टिोनी जेम श्री जिनोक्त धर्मकृत्यनो स्वमति कट्पनाए निषेध करवो नहीं. वत्री श्री जंबूछीप पन्नतिमा प्रथम ,जिनना निर्वाणने स्थाने स्तूप करवाना अधिकारमा “ जिणनशिए धम्मचिए" एवो पाउ जे. अने तेनो “ जिन जक्तिथी धर्मथी" एवो अर्थ थाय , ते उपरथी पण सिफ थाय ने के, आगमने विषे स्तूप निर्माणनी अंदर जिन नक्ति करवी कहेली छे. तो पड़ी जिन चैत्य करवा-कराववामां जिन जक्ति प्रगटज छ तेमां शो संदेह करवो. तेमज महानिशीथ सूत्रमा श्रावकोने आश्रीने चैत्य निर्मापणनो अने साधुओने आश्रीने चैत्यवंदनादिकनो अधिकार प्रगटपणे कहेलो . धर्मना अर्थी पाणीओए ते स्वतः सम्यग् दृष्टिए विचारी लेवो. वनी व्यवहार सूत्रमा “ जहेव सम्म नावियाई पासिज्जा तहेव आलो इज्जा" ए पाठमां पण चैत्यनी सादीए आलोचना लेवी कहेली , एम केटलाएक आगमना वचनो देखाय . धणा आगमने विषे स्थापनादिकनो अधिकार विद्यमान छे. ते जैनानासो कहे छे के, " बत्रीशज आगम प्रमाण बे, तेना संबंधां Jain Education Intemational Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० श्री आत्मप्रबोध. कहेवानुं के, श्री नंदी सूत्रने विषे साक्षात् कहेला आगमोनुं उत्थापन करी ते बत्रीश आगमोनेज प्रमाण मानवामां कोनी आझा छे ? कदि तेओ कहेशे के तेवा प्रकारना उत्कृष्ट प्रमाणे करी अमो कहीए बीए, तो ते कहें तदन प्रयुक्त बे; कारण के, हाल तेवा प्रकारना ज्ञाननो असंभव बे. तेम वली च्या काळने विषे श्री वीरवाणीमां विश्रांत थयेला, अने तेमनी परंपरामां उत्पन्न थयेल आज्ञाने अनुसारे वर्त्तमान काळना वर्त्तता सर्व सिद्धांतना लेखक महोपकारी श्री देवकिंगणि क्षमाश्रमणे सर्व साधुओने संमतिथी जे सिद्धांतो पुस्तक रूपे स्थाप्या बे, तेमने उत्पाथन करनारा ते जैनानासोने जिनाशानुं विराधकपणुं प्रगट प्राप्त थयुं छे. तेमज आगमने विषे प्रमाण करेला निर्युक्ति, चूणी, जाप्य, वृत्ति प्रमुखने उत्थापन करवाथी जिनाशानुं विराधकपणुं अवश्य प्राप्त थयेलुं छे, तेप्रो कहे बे के नगवती सूत्रांप्रमाणे लख्युं बे “सुतथ्यख पढमो बीओ निज्जुत्तिमीसिओपिओ तोय निरवसेसो एस विहि होइ अणुओगो” ॥ १ ॥ ते जैनानासो कहे छे के, अमे फक्त श्री सूत्र अनुसारे प्ररूपणा करीए बीए; तेथे निर्युक्ति वगेरेनुं शुं काम के ? तेना जवाबमां कहेवानुं के, तेमनुंए कहें तदन युक्त बे; कारण के, सूत्रना अति गंभीर आशयने लइने निर्युक्ति आदिना परिज्ञान विना उपदेश करनाराओने नय, निक्षेप, 5व्य, गुण, पर्याय, काल, लिंग, वचन, नाम, धातु अने स्वर आदिनुं परिज्ञान थ‍ शकतुं नथी, पदे पदे मृषावादादि दोषनो संभव बे, तेने माटे श्री प्रश्न व्याकरण सूत्रमां बीजा संवर धारने विषे या प्रमाणे कहेलुं बे "केरियं पुणाइ सच्चं नु जासिव्वं जं तं दव्वेहिं पजवेहिं गुणेहिं कम्मेहिं बहु विदेहिं सप्पेहिं आगमेहिं नामस्काय निवात नवसग्ग तद्धिय समास संधि पद देन जोगिय उणादि किरिया वहाण धान सर विभत्ति वष्णजुत्तं तिकालं दंसविपि सच्चं जह जणियं तदय कम्मुणा होइ डवालसविहाय होइ सोल्लसविद एवमरिहंत अणुन्नायं समस्कियं संज Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकाश. ४०१ एणं कालंमि अवत्तव्वं " इत्यादि ॥ आवा कारणथी ते विषे वधारे कहेवानी जरुर नथी. वस्तुगतिए पुष्ट मिथ्यात्व रुपी पिशाचे तेमनी कुदृष्टिओने ग्रसेली छे तेथी तेओए ग्रहण करेला असत् पधनी पुष्टिने माटे अनेक प्रकारनी स्वेचायी वत्ती तेत्रो उत्सूत्र प्ररूपणा करता थका लोकने विषे नाव साधुनी उपमाने धारण करता पोताने अने बीजा मंदबुकि जनोने आ अपार संसाररुप समुजमां मुबामे बे, तेथी ते संसाररुप समुधथी जय पामनारा जे जव्य प्राणीओ होय-के जेत्रो पोताना आत्मगुणनी कुशलताने श्वनारा होय तेमणे बगलानी जेम बाह्य क्रियामां तत्पर एवा ते परम अज्ञानी निह्नवोनो परिचय सर्वथा न करवो. कारण, तेवा पुरुषो सूत्रमा विराधक जे. जेश्रो गीतार्थपणाथी आचार्य, नपाध्याय, कुल, गण वगैरेनी निश्राए विचरे में, तेोने सूत्रमा आराधक कहेला डे अने जेओ गीतार्थनी निश्राए विचरता नथी, तेोने विराधक कहेला . ते विषे श्री जगवतीजीमां आ प्रमाणे कहेलै - “ गीयथ्थो य विहारो बीओ गीयथ्यनिस्सिओ नणिो। इत्तो तइयविदारो नाणुन्नाओ जिणवरेहिं " ॥१॥ " पेहेलो गीतार्थ विहार , बीजो गीतार्थ निश्रानो विहार छ अने त्रीजा विहारने माटे श्री जिनेश्वर जगवंते आज्ञा करेली नथी." ___ आधी ते जैनालासोने एक पण निश्रानो असंभव होवार्थी श्री जिना ज्ञातुं विराधकपणुं छे. वळी सिघांतमा योग उपधान वहन कर्या पठी सूत्र पाठ भणवानी आज्ञा आपेनी , तेमां श्रावकोने श्री आचारांग सूत्र जणवानी आज्ञा नयीज. निशीथ सूत्रमा कयु डे के “जो निरकु अन्नतित्थीयं वा गारत्यायं वा वायणं वाइजति वाजंतं साजतिस्स चनम्मासि अपरिहारठाणं इत्यादि" ॥ __“जे मुनि अन्य तीर्थीओ तथा गृहस्थने सूत्रनी वाचना आपे ते मुनि पोतानुं चार मासर्नु चारित्र नाश करे ; तेम वळी साधुआए पाएं करीने साध्वी भानो अर्थ संक्षिप्तपणे भागळ लसवामां भावेल के. Jain Education Intemational Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ श्री आत्मप्रबोध. ए लावेला आहारने ग्रहण करवो नहीं इत्यादि जिनाझा छे; ते ते आझाोने ते जैनानासोए मूलमांथी उन्मूलन करेली छे. ___ आवा ते जैनानासोनो सर्वथा परिचय करवो न जोइए. कारण के, तेम करवाथी तत्काल सद्भूत एवा सम्यक्त्व रत्ननी मलिनतानी प्राप्ति थाय छे. जेमना मनमां कदि शंका उत्पन्न थती होय तेमणे सिद्धांतमां कहेला अनेकांत मार्गने अनुसरी तेनी परीक्षा करवी; परंतु मात्र बाह्य क्रियामां अनुरक्त थq नहीं; कारण के, तेओना करतां पण अधिक एवा अभव्यों आ संसारने विषे जमता थका अनंतवार बाह्य क्रिया कर्या करे . वली आगमने विषे सद्झाननी अपेक्षाए क्रियानी गौणता कहेली . तेनी व्याख्या श्री जगवतीजीना आठमा शतकना दशमां उद्देशमां आ प्रमाणे आपेली - ___“मए चतारि पुरिसजाया पन्नत्ता तथ्थणं जेसे पढमे पुरिसजाए सेणं पुरिसे सीखवं असुयवं उवरए अविनाय धम्मे एसणं गोयमा ! मए पुरिसे देसाराहए पन्नत्त तथ्यणं जेसे दोच्चे पुरिसजाए सेणं पुरिसे असीलवं सुतवं अणुवरए विलायधम्मे एसणं गोयमा मए पुरिसे देसविराहए पन्नत्ते तथ्यणं जेसे तच्चे पुरिसजाए सेणं पुरिसे सीतवं सुतवं नवरए विमायधम्मे एसणं गोयमा! मए पुरिसे सव्वाहारए पन्नत्ते तथ्थणं जेसे चउथ्ये पुरिसजाए सेणं पुरिसे असीलवं असुतवं अणुवरए अविलायधम्मे एसणं गोयमा ! मए सव्व विराहए परमत्ते ॥ अहिं प्रश्न करे छे के, श्री गणांगजोमां जमानि प्रमुख सात निन्हवो कहेला ने तेनी अंदर तो आ अंतर्भूत थता नथी तो पड़ी ते जैनालासोने निन्हवपणुं केम प्राप्त था शके ? " मग्गानेयाश्यं सुच्चा बहवे परित्नस्स" ॥ इत्यादि उत्तराध्ययन सूत्रना वचनना प्रमाणथी दिगंबरनी जेम तेमने प१ गौतम स्वामीने श्रीमद् वीरप्रभु उत्तर आपे छे के 'चार प्रकारना पुरुषो छे A शील अने श्रुत संपन्न - ( सर्वाराधक) B शील असंपन्न अने श्रुतसंपन्न (देशविराधक) C शीलसंपन्न अने शृतअसंपन्न (देशआराधक) D शीलअसंपन्न अने शृतअसंपन्न ( सर्व विराधक).' धम्मेलणं पुरिसे सत्ता तथ्थणं जेसे पार Jain Education Intemational Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकाश. ४०३ निन्द प्राप्त यं युक्तज छे. जे श्री स्थानांग सूत्रमां तेमनुं ग्रहण कर्तुं नथी त्यां एम संनवे बे के ते सूत्रने विषे लघु निन्हव ग्रहण करेला बे ने आतो दिगंबरनी पेठे महा निन्हव थाय छे, तेथी ए सूत्रमां ते प्रतिमा उत्थापक तथा दिगंबर बनेने ग्रहण करेला नथी परंतु तव तो केवली गम्य बे. अथवा बहुश्रुतगम्य बे. हवे ते विषे विशेष विस्तार करवाजी जरुर नथी. या प्रकारे स्थापना जिननुं स्वरूप कहेवामां आव्युं. ३ द्रव्य जिन स्वरूप. ३ हवे प्रव्य जिननुं स्वरूप कहे बेजे जीवो तीर्थकरपणे थशे, तेप्रो अव्यजिन कृष्ण वगेरे. तेप्रो नविष्यकाळने आश्रीने वंदनिक बे; मरिचिना जवमां श्री वीरप्रभुना जीवने वंदन कर्यु हतुं. ४ नावजिन स्वरूप. कहेवाय बे. जेम श्रेणिक, कारण के, जरतच क्रिए ४ जे समस्त जीवादि पदार्थना समूहने यथास्थित प्रकट करनार केवल - ज्ञान पामी सर्व लोकना नेत्रोने मंद आनंदना उत्सवने करनारुं छे, जे उपमाथी रहित बे, जे गढथी सुशोजित एवा समवसरणना मध्य जागे स्थापित थला विविध रत्नोथी जमित एवा सिंहासन उपर बेशी आठ महा प्रातिहार्य त्कृष्ट वा अरिहंतपणानी संपत्तिने जे अनुभवे बे, ते नावाजिन कहेवाय बे. ते नावजिन सन्मार्गने देखावा प्रमुख कृत्योथी सर्व प्राणी ओनो परम उपकारी होवाथी सर्वकाले वंदन, पूजन, अने स्तवनादि करवाने योग्य बे. आ प्रमाणे चार निक्षेपाथी श्री जिननगवंतनुं स्वरूप कहेलं बे. आनिदेपा जिनथी अन्य एवा केवली तथा सिन्होने विषे एवेज प्रकारे योग्यता अनुसारे अगामी जोमी देवा. कारण के चार निक्षेपे करीनेज सर्व पदार्थों जावाएं बे. हवे केवलीने आहार संबंधी जे विशेष छे, ते श्री पिंक नियुक्तिने अ नुसारे देखा - "ओहो सुमो व उत्तो, सुयनाणी जइवि गिएर असुद्धं । तं केवली विजु, अप्पमाणसांजवेश्या " ॥ १॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ श्री प्रात्मप्रबोध. "सामान्यपणे करी श्री पिकनियुक्ति आदि आगमने विषे उपयुक्त थयो थको एटले ते शास्त्रने अनुसारे कल्पनीय-अकल्पनीयने विचारतो थको श्रुतकानी साधु जो कोई प्रकारे अशुफ आहारादिक ग्रहण करे तोपण ते अशनादिक केवळझानी पण जोगवे-आहार करे; जो तेम न करे तो श्रुतझान अप्रमाण थइ जाय." ____आ वात स्पष्ट करे -"उद्मस्थने श्रुतज्ञानना बन्ने करी शुष्क आहारादिकनी गवेषणा करवी प्रमाण छे; पण बीजे प्रकारे ते प्रमाण नथी. जो केवलीश्रुतझानीवडे ग्रहण करायलो आहार आगमने अनुसारे गवेषण करता उता अशुद्ध ने, एम जाणी न जोगवे तो श्रुतझाननो अविश्वास थइ जाय पछी कोइ श्रुतने प्रमाणिकपणे अंगीकार न करे, ज्यारे श्रुतझान अप्रमाणिकथाय तो पठी सर्व क्रियानो लोप थवानो प्रसंग प्राप्त थाय. अने वली श्रुत विना उद्मस्थोने क्रियाकामना परिज्ञाननो अ. संभव होय छे; तेथी श्रुतज्ञानीनो लावेलो आहार केवनी जोगवे . आ अधिकार शिष्यादिक सहित एवा केवळीने आश्रीने कहेलो . जो केवळी एकमा होय तो पोताना ज्ञाननना बलवमे यथायोग्य शुष्क आहार ग्रहण करे, विवेक . अहिं जिनो अने अजिनोने आश्रीने बी घणुं कहेवानुं बे, पण ग्रंथ वधी अवाना भयथी ए कहेवामां आव्युं नथी, आ तो जवस्थ केवलीनुं देश मात्र स्वरूप कहेवामां आव्युं . सिघ स्वरूप. हवे श्री पन्नवण सूत्रमा कहेली गाथावमे सिघन स्वरूप दर्शाने . तेमा प्रथम उत्तानीकृत एटले पोहोला करेला छत्रना आकारवाळी सर्व रीते श्वेतवर्ण स्फटिक रत्नमय अने समय क्षेत्र (अढी छीप)नी सम श्रेणीए पीस्तानीश लाख योजन प्रमाणवाळी सिद्धशिला , ते मध्य नागे आठ योजन प्रमाण मांबी पोहोळी अने जामी ने. ते पठी सर्व दिशा अने विदिशाने विषे थोमी थोकी प्रदेशनी हानिए करी घटती घटती सर्व चरम (बेरा ) प्रदेशना अंतने विषे माखीनी पांखना जेवो पातलो एवो अंगुलना असंख्यातमा नागना जामापणावाळी सिघशिलारुप पृथ्वीना उपर निसरणीनी गतिए करी एक योजनमा लोकांत जाग आवेलो छे ते उपरनो योजननो जे चोथो गान, तेनो सर्वोपरिनो ठगे Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... . चतुर्थ प्रकाश. ४०५ जाग तेने विषे श्री अनंता सिद्ध जगवानो अनंत अनागत कामना स्वरूपे रहेला तेना स्वरूपने प्रतिपादन करनारी गाथा आ पमाणे - " तत्यवि अ ते अवेया, अवेयणा निम्ममा असंगाय । संसारविप्पमुका पएसनिव्वत्तसंठाणा " ॥१॥ ते सिक क्षेत्रमा रहेला सिझ जगवानो पुरुष वेदादिके रहित, शाताअशाता वेदनाए वर्जित, ममत्व विनाना अने बाह्य तथा आत्यंतर ने प्रकारना संगथी रहित के कारण के, तेश्रो आ संसारथी मुक्त थयेना अने आत्म प्रदेशथी निष्पन्न थयेना संस्थानवाला छे. अहिं प्रदेशमा प्रात्माना प्रदेश सेवा पण बाह्य पुद्गल न लेवा; कारण के, तेमने पांचे शरीरनो त्याग थयेनो के. - अहिं प्रश्न करे ने के " कहिं पडिहया सिधा कहिं सिखा पइग्यिा। कहिंबोदी चश्ताणं कब गंतूण सिज्म " ? ॥१॥ . (अहिं 'कहिं एत्रीजी विनक्तिना अर्थमा सप्तमी विनक्ति छे) " ते सिक नगवानो कोनाथी सवलना पाम्या ? तेश्रो कया स्थानमा रह्या रे ? कया क्षेत्रमा जश्ने तेमणे शरीरनो त्याग कर्यो अने कयां जश्ने सिषि पदने वरे ने एटले निष्ठितार्थ थाय छे. ?" तेना उत्तरमा कहे जे के, " अलोए पडिहया सिझा लोगग्गे य पइच्श्रिा । इह बोदींचश्त्ताणं तब गंतण सिज्जर " ॥ १ ॥ " ते सिक जगवानो अलोके करीने-केवळ आकाश रुपे करीने स्वाना पाम्या एटले सिघना जीवो अलोकमां धर्मास्तिकायादिकनो अनाव होवाथी तेनु जे समीपवतीपएं, तेज अहिं तेपर्नु स्खलन डे; पण संबंध छतां तेमनो विघात ( रोकवापणुं ) नयी, कारण के, तेमने रोकवापणानो अनाव के तेम वळी पंचास्तिकाय रुप जे लोक तेना छेदा अग्रनागना मस्तक उपर ते रहेना ने अने फरी पार्छ संसारमा प्रावq नथी, एवी स्थितिए रहेला छे तथा आ मनु Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ श्री प्रात्ममबोध. ष्य झोकमा शरीरनो त्याग करी त्यां लोकाग्रने विषे समयांतर अने प्रदेशांतरने अणफरसी गतिवझे जश्ने सिध जीवो रहे ने अने त्यां निष्ठितार्थ (सर्व अर्थथी परिपूर्ण ) थाय . अहिं शंका करे ने के, सिफ जीवोने कर्म रहितपणुं होवाथी तेमने गति थवी केम संभवे ? तेना उत्तरमा कहेवातुं के, एवी शंका करवी नहीं कारण के, पूर्व प्रयोग अने गति परिणामथी तेमने गति थवानो संलव . तेने माटे जगवती अंगमा श्रा प्रमाणे कहेलु ठे __“ कहणं नंते अकम्मस्स गइपमायमिति मोयमा निस्संगताए निरंगणताए गतिपरिणामेणं बंधणछ्यणताए निरि धणताए पुव्वपयोगेणं अकम्मगइं पं०" ॥ श्री गौतम स्वामी श्री वीरमजुने पुढे छ के, " हे जगवन्, अकर्मने गति केवे प्रकारे थाय ? जगवन् कहे छे-निःसंगपणे एटने कर्मरुपी मलनो नाश होवाथी, नीरोगीपणे एटले मोहनो विनाश होवाथी, गति परिणामे एटले तुंबकीना फळनी जेम गतिना खजाववमे, कर्मना बंधने जेदवावमे एटले एरंगीना फलनी जेम, निरिंधनपणे एटने कर्म रुषीइंधणाथी धूमामानी जेम मुकाववावके, पूर्वना प्रयोगे करीने एटले सकर्मताने विषे गति परिणामवाला बाणनी जेम अकर्मवंताने पण गति जणाय छे. एप्रकारे विशेषपणे तुंबी फलना दृष्टांतोनी योजना सूत्रथी जाणी लेवी. ते स्थने नयेला सिक जगवानोने जे संस्थान, प्रमाण छे ते बतावे छे" दोहं वा हस्सं वा जं चरिमं जवेज संगणं । तत्तोऽतिनागहीणा सिंघाणोगाहणा भणिया " ॥१॥ ... "पांचसो धनुष्य प्रमाण दीर्ध बे हाथ ममाण ह्रस्व, वा शब्दथी मध्यम अथवा विचित्र मकानुं जे ब्रह्मा नवमां शरीरनुं संस्थान होय ते संस्थानथी त्रीजे जागेहीन एटले मुख उदर आदि-छिनो पूरातां त्रीजे नागे न्यून एवी सिफना जीवोनी अवमाहना श्री तीर्थकर लगवाने कहेल . " १ .. अहि संस्थान प्रमाणनी अपेक्षाए बिनाग हीन एवं ते संस्थान जाणवू. Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकाश. ४०७ ते विषे विशेष स्पष्ट करी बतावे छे—जेटला प्रमाणनुं जे संस्थान या मनुष्य नवर्मा होय, तेज शरीरने त्याग करती वखते बेले समये सूखक्रियामतिपाती नामना शुक्लध्यानना त्रीजा पायाना ध्यानना बलथी मुख, उदर आदि छिड़ो पूराइ जवाथी चीजे जागे हीन एटले प्रदेशनो जे घन होय, ते प्रदेशघनना मूल प्रमाणनी अपेक्षा करी बीजे जागे हीन प्रमाणवायुं संस्थान होय . ते संस्थान लोकांत क्षेत्रमां ते सिद्ध भगवानोंने होय छे, बीजुं संस्थान होतुं नथी. ते विषे कलुंके, - 66 " जं संवाणं तु इद जवं चयंतस्त्र चरिमसमयं मि । आसीयप सघणं तं संठाणं तहिं तस्स " ॥ १ ॥ हवे उत्कृष्टादि भेदे करीने श्रीजी अवगाहना देखामे बे. तिन्निसा तित्तिसा धणूंतिभागो य होइ नायव्वो । एसा खलु सिद्धाणं नकोसोगाहणा नणिया " ॥ १ ॥ aurसो तेत्री धनुष ने एक धनुषनो त्रीजो जाग उपर एटली उत्कृष्टी अवगाहना सिद्धना जीवोनी छे. या अवगाहना पांचसो धनुष्यवाला जीवोना शरीरनी अपेक्षाए जाएवी. " हिं कोई शंका करे छे के, “ नाभि कुलकरना पत्नी मरुदेवा हता. तेनानि राजाना शरीरनुं प्रमाण सवा पांचसो धनुष्यनुं हतुं, अने जेतुं नाजि राजाना शरीरतुं प्रमाण हतुं तेटलीज मरुदेवाना शरीरनी अवगाहना हती. एटले पांचसोने पचवीश धनुष्यना प्रमाणनी हती" तेने माटे या प्रमाणे कांबे “ तदेव मरुदेवाया अपि संघयणं संगणं उच्चत्तं कुलगरेहिं समं " ॥ " मरुदेवा माताना संघयण - संस्थाननुं जचपएं नानि कुलकरनी बरावर हतुं. - ܕܪ • हवे ज्यारे मरुदेवा सिक थया त्यारे तेमना शरीरना ममाणनो श्रीमो Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० श्री प्रात्मप्रबोध. जाग हीन करतां सिक अवस्थाने विषे साडात्रणसो धनुष्यनी अवगाहना प्राप्त थाय , त्यारे उपर कहेन त्रणसो तेत्रीश अने एक धनुषनो त्रीजो नाग ए शीरीते घटे ? आ शंकाना उत्तरमा कहेवानु,के मरुदेवाना शरीरनुं प्रमाण नानिराजाना करतां कांक अोर्छ होवायी पण कोइ जातनो विरोध प्रावतो नथी; कारण के, उत्तम संस्थानवाळी स्त्रीओ उत्तम संस्थानवाळा पुरुषोथी पोतपीताना काळनी अपेक्षाए करी काश्क ोग प्रमाणवाली होय छे; ते उपरथी मरुदेवा पण पांचसो धनुष्यना प्रमाणवाळा जाणवा; एवी रीते होवाथी को जातनो दोष आव. तो नथी. तेम वळी मरुदेवा हाथीना स्कंध उपर आरूढ थतां संकुचित अंगवाळा सिफिपदने पाम्या जे. त्यारे शरीरना संकोचपणाना सदनावथी अधिक अवगाहना संजवती नथी; ए पण अविरोध-निर्दोष . ते उपर नाष्यकार आ प्रमाणे कहे छे “कहमरुदेवा माणं नानीतो जेण किंचिदूणा सा । तो किर पंचसयच्चिय अहवा संकोचतो सिका" ॥१॥ (आ गाथानो अर्थ उपर कहेवामां आव्यो .) मध्यम अवगाहनानुं स्वरूप. " चत्तारिय रयणीओ, रयणीतिभागुणिया य बोधव्वा । एसा खनु सिकाणं, मज्झिमोगाहणा भणिया" ॥१॥ " चार हाथ अने एक हाथना त्रण नागमाथी चे जाग उपर एटने हाथ १३ मध्यम अवगाहना जाणवी." १ अहिं वादी प्रश्न करे छे के, जघन्य पदणी सात हाथ उंची अवगाहनावाळा जीवोनी सिद्धि आगमने विषे कही छे, माटे उपर कहेगी । मघन्य स्थिति थाय छे; पण मध्यम स्थिति केम थाय ? आ प्रश्नना उत्तरमा कहेवातुं के, तीर्थकर जगवान्नी अपेक्षाए करीने जघन्य पदथी सात हाथनी अवगाहनावाळाओने सिदि कहेली ने अने सामान्य केवनीनी अपेक्षाए तेना करवा दीन प्रमाणवाळाप्रोने पण सिदि थाय ने, प्रा Jain Education Intemational Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकाश. You सात हाथनी अवगाहनानुं मध्यम मान सामान्य सिवनी अपेक्षाए चितवनुं, जेथी कोइ जानो दोष वशे नहीं. जघन्य अवगाहनानुं स्वरूप. गाय होइ रयणी, अठेवय अंगुलाई सादिया । एसा खनु सिद्धाणं, जहन्नयोगादणा नणिया " ॥ १ ॥ आगळ उपर एटले १३ हाथनी अवगाहना 46 एक हाथ ने tarai सामान्य केवलीनी जाणवी. " १ (6 आ अवगाहना वे हाथ प्रमाणवाळा कुर्मापुत्र वगेरेनी जाणवी; अथवा सात हाथ उंचा शरीरवाळा अने यंत्रपीक्षणने लइने संकुचित शरीरवालानी पण ते जघन्य अवगाहना जागवी. ते उपर जाष्यकार श्री जिननझगणी क्षमाश्रमण भगवान् या प्रमाणे कहे बे " जेठान पंचधणुसय, तणुस्स मज्जायस तथ्यस्स । देह तागढ़ीणा, जहन्निया जावदथ्थस्स " ॥१॥ पांचसो धनुष्यवाळानी उत्कृष्ट ने सात हाथवाळानी मध्यम अवगा हना अहिं शरीरने त्रीजे जागे न्यून समजवी ने एक हाथ अने एक हाथनो त्री जो भाग उपर ए जघन्य अवगाहना समजवी. – एटले उत्कृष्ट ३३३ अने जघन्य १ ए रीते अवगाहना समजवी. ते विषे या प्रमाणे मध्यम लखे बे “ सतसिएस सिद्धि, जहन्न कहमिदं विदत्थेसु । सा किरतिथ्यरेसु, सेसाणं सिज्माणां ॥ १ ॥ तेपु होज विदुत्था, कुम्मापुचादयो जहन्नेां । संवयस्स - हथ्थ सिद्धस्स दीचि " ॥२॥ सिद्धोना संस्थाननुं लक्षण. योगादणाए सिद्धा, नवविभागेण होइ परिहीणा । संगण से छं, जरामरणविषयमुक्काणं " ॥ १ ॥ પર Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मप्रबोध. " सिद्ध भगवान्नी अवगाहना त्रीजे जागे हीन होय बे. ते 'अनित्थंस्थं ' एटले या प्रकारे पामेल नथी अर्थात् मुख आदि पोलाशनो जाग पूरावाने लइने पूर्वना कारथी अन्यथा प्रकारे आकारनो तेमां सद्भाव बे नावार्थ समजवो, ते वळी सिद्धादिकना गुणाने विषे सिद्ध भगवानोने जे दीर्घपणानो प्रतिषेध को, ते पूर्वना आकारनी अपेक्षाए संस्थानना अनित्थंस्थं ( ए प्रकार रहितपणे) पणे अंगीकार करवो, पण सर्वथा संस्थाननो अभाव नथी. 44 हिं को शंका करे के, “ सिवना जीवो परस्पर देश भेदे करीने रह्या बे के बीजी रीते ?" नो उत्तर कहे बे ४१० “ जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अांता भवस्कय विमुक्का | मोस समोगाढा, पुडा सव्वेवि लोगंते " ॥१॥ " ज्यां एक सिद्ध बे, त्यां अन्योन्य अवगाहीने लोकांतने स्पर्शी अनंता सिद्ध भगवानो रहेला बे. 66 सिद्धजीवोनुं लक्षण. सरीरा जीवघणा, नवनचा दंसणे य नाणे य । सागारमणागारं, बकणमेयं तु सिद्धाणं " ॥ १ ॥ " शरीर रहित जीवधन एटले घणा जीवो अथवा वदनादि बो पूराइ जवार्थी जीवधन केवळ दर्शन तथा केवळङ्गज्ञानने विषे उपयोगवाळा; हिं जो के सिप प्रगट थवामां केवलज्ञानना उपयोगनो संभव होवाथी ज्ञाननी प्रधानता बे तथापि सामान्य सिन्धोनुं लक्षण जणाववा माटे प्रथम सामान्य अवलंबन रूप दर्शन कनुं छे. अहिं सामान्य विषय ते दर्शन अने विशेष विषय ते ज्ञान समजवं; तेथे साकार ने अनाकार - सामान्य विशेष उपयोगरुप सिद्ध जीवोनुं लक्षण बे. केवळदर्शनने समस्तवस्तुनुं विषयपणुं बे. केवलज्ञान केवळनावउत्ता, जाणंति सव्वभावगुणभावे । पासती सव्व खबु, केवल दिट्ठी हिताहि " ॥१॥ 66 ܕ १ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकाश. १११ ___ “सिक नगवानो केवलझाने करी उपयोगवाला थइ सर्व प्रव्य, गुणपर्यायाने जाणे . तेमां जे सहवर्ती ते गुण अने क्रमवती ते पर्याय कहेवाय छ; वनी तेत्रो अनंत एवी केवळदृष्टिोवमे सर्व प्रकारे देखे जे. अहिं जे केवळदर्शननी अनंतता कही, ते सिधोनी अनंतता होवाथी जाणवी. ा स्थले प्रथम शाननुं ग्रहण कर्यु , तेनुं कारण ए ने के, प्रथम ज्ञानना उपयोगवझेज सिधिपद प्राप्त थाय ने, एम जणावा माटे समजवू. सिघना जीवो निरुपम सुखना नजनारा छे. “ नवि अश्थि माणुसाणं, तं सुखं न विय सव्वदेवाणं । जं सिखाणं सुखं, अव्वावाहं उवगयाणं " ॥ १ ॥ "सिघना जीवोने जे सुख चे, ते चक्रवर्ती आदि मनुष्योने पण नथी अने अनुत्तर विमानवासी देवताओने पण नथी, तो पड़ी बीजा नीचेना देवताओने क्याथी होय ? कारण के, ते सिक नगवानो अव्याबाध-बाधाना अभावने प्राप्त थयेला छे."१ ते सिघना सुखनी समान बीजुं सुख नथी. “ सुरगणसुहं समत्तं, सव्वद्वापिंडिअं अणंतगुणं । ण वि पावs मुत्तिसुहं, एंताहिं वि वग्गवग्गेहिं " ॥१॥ “ अतीत, अनागत अने वर्तमानकालथी उत्पन्न थयेन एवं जे देवसमुदायतुं सुख, तेने सर्व काळना समय साथे गुणी अनंतगणुं करीए एवा प्रमाणना सुखने असत् कल्पना करी एकेक आकाश प्रदेश नपर स्थापीए, एवी रीते सर्व आकाश प्रदेश पूरवायी पण अनंतु थाय, ते अनंताने पण अनंत नामना वर्गे करी वर्गित करीए-गुणीए तेथी प्रकर्षपणाने पामेलुं सुख पण मुक्ति मुखनी बराबर था शके नहीं." १ ते सिखनुं सुख निरुपम ने. " जह नाम को मेडगे, नयरगुणें बहु विमाणंतो । न सक्क परिकहेजें, उवमाए तहिं असंतीए " ॥१॥ Jain Education Intemational Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ श्री आत्मप्रबोध. " जेम को वनेचर म्लेच नगरना निवास करवा वगैरे गुणोने जाणतो होय पण ते बीजा वनेचरोनी आगळ कहेवाने समर्थ थइ शकतो नथी; कारण के, वनमा तेवी उपमानो अनाव छे." १ ते विषे कथानक. "कोइ मोटी अटवीमां घणा म्लेड लोको ( जंगली लोको ) रहेता इ. ता. तेश्रो वनना पशुओनी जेम त्यां रहीने पोतानो काळ निर्गमन करता हता. एक वखते कोइ बुटाएनो राजा ते अटवीमां आवी चड्यो. तेने एक वनवासी म्छे जोयो. 'आ कोई सत्पुरुष लागे छे' एवं धारी ते वनेचर ते राजाने पोताना वासस्थानमां लइ गयो अने त्यां तेनी सारी बरदाश करी तेने संतुष्ट कर्यो. राजा तेने पोतानो उपकारी जाण। पोताना नगरमां ते म्ले पुरुषने तेको गयो. त्यां तेने एक सुंदर बंगलामा राखी स्नान, विलेपन, अमूल्य वस्त्रागरण वगेरेथी तेने घणोज संतोष पमाड्यो. पोताना शरीरनी जेम तेनी जंची जातनी बरदास करावी. शेहेरमा हरवा फरवाथी अने राजवैभव भोगववाथी ते अत्यंत खुशी थयो. केटलाक दिवसो रह्या पठी वर्षाकाळ आव्यो. वर्षाकाळ आवतां तेने पोतानुं चिरकाळनुं वतन जंगन सांजरी आव्यु. ते वखते तेने राजवैनव गम्यो नहीं. तत्काल पोतानो मन वेश पेहेर ते पोताना जंगलमां चाट्यो आव्यो. तेने जोतांज वनवासी म्बो तेनी पासे आव्या अने तेने आ प्रमाणे पुरवा लाग्या-" अरे जाइ, तुं कयां गयो हतो ? " तेणे कयुं के “हु एक मोटा नगरमा गयो हतो." वनचर म्लेडोए पुग्युं, “ नाइ, कहे, ते नगर केवं होय अने तेमां शुं शुं हतुं ?" ते जंगली मनुष्य नगरना बधा गुणोने जाणतो हतो, पण नगरनी उपमा आपवाने ते जंगलमां कांइपण हतुं नहीं, तेथी ते नगरना गुणोने कहेवाने समर्थ था शकयो नहीं. नगरमां जे वस्तुओ तेणे जोयेली तेवी वस्तु अटवीमां न होबाथी ते उपमाना अनावे कांश्पण कही शक्यो नहीं." आ दृष्टांत उपरथी समजवायूँ के, केवळझानी नगवान् पोताना अनंत झानना बले करीने सिधिना ( मोदना ) मुखने जाणे छे, उतां पण आ संसारमां तेनी नपमाना अनावथी तेओ जव्य जीवोनी आगल ते मुखनुं वर्णन करवाने शक्तिमान् थता नथी. उपर कहेला दृष्टांतनो आ उपनय समजवो. Jain Education Intemational Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकाश. ते विषेक छेके, 66 श्य सिद्धाणं सुकं णोवमं नत्थि तस्स ग्रोवम्मं । किंच विसेसेतो सारस्करण मिणं सुणह वोडुं ” ॥१॥ ४१३ 66 प्रमाणे सिद्ध भगवानोनुं सुख अनुपम छे, एटले ते सुखनी उपमा पी शकात नथी; तथापि बाल जनने समजावत्रा माटे कांइक विशेषणोए करीने तेने या प्रमाणे कहेवामां आवे छे 66 जह सव्वकामगुणियं पुरिसो जोत्तृण जोयणं कोइ । तपदा हा त्रिमुक्क छिन जहा अमियतत्तो ॥ १ ॥ श्य सव्वकालतत्ता अतुलं निव्वाणमुवगया सिद्धा । सासयमव्वाबाहं चिति सुदी सुहंपत्ता " ॥ २ ॥ " जेम कोइ पुरुष संपूर्ण सुंदरताए करी संस्कार करेला जोजनने जमी क्षुधाने तृषार्थी मुक्त थइ जाणे अमृतथी तृप्त थयो तेम रहे बे, तेम निर्वाणने पामेला सिद्ध भगवानो सादि - - पर्यवसित कालपर्यंत तृप्ति पामेला सर्व प्रकारे उत्सुकपणानी निवृत्ति परम संतोषने आश्रित थता अतुल, अनुपम, शाश्वत, प्रतिपाती ने अव्याबाध एवा सुखने पामेला छे, तेथीज तेओ परम सुखी छे. 77 उपर कला प्रर्थनी विशेष भावना कहे छे. " सिद्धत्तिय बुद्धत्तिय, पारगत्तिय परंपरगयति । उम्मुक्क कम्मकवया अजरा अमरा असंगा य ॥ १ ॥ पित्थी सव्वरका जाइजरामरणबंधणविमुक्का । अव्वाबादं सोकं अणुहोतिसासयं सिद्धा " ॥ २ ॥ " जेम आठ प्रकारा कर्म क्षय करेला बे, ते सामान्यपणे कर्मक्षय सिद्ध कहेवाय बे. " सिन्कोना प्रकारने माटे कां ने के, Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ श्री आत्मप्रबोध. " कम्मे सिप्पे य विजाए मंते जोगे य आगमे। ___ अथ्थजुत्त अजिप्पाए तवे कम्मकए श्य" ॥ १ ॥ " कर्मसिक, शिल्पसिक, विद्यासिक, मंत्रसिक, योगसिक, श्रागमसिक, अर्थसिक, युक्तिसिद्ध, अभिप्रायसिक, तपःसिफ अने कर्मक्षयसिक इत्यादि सिघो कहेना , ते कर्मादि सिझोनो त्याग करवा माटे बुछ कहेल एटले अज्ञाननिजाने विषे सूतेला एवा जगत्ने विषे बीजाना उपदेशवडे जीवादि तत्त्वाने जाणनारा ते बुक कहेवाय छे. हवे घणा बुछो पण आ संसारना भयने त्याग करनारा, तेमनो निरास करवाने कहे छे के, ते पारगत , एटले संसारना सर्व प्रयोजनना समूहने पार पामेला छे. केटलाएक यदृच्छावादीओ पण अक्रम सिझपणाथी तेवा कहेवाय छे, ते भ्रमनो निरास करवा माटे 'परंपरागताः' कहेल छे, एटले ज्ञान, दर्शन अने चास्त्रिधारा चौद गुणगणाए करी अनुक्रमे मोदना पदने पामेला, ते परंपरागत कहेवाय . केलाएक तत्त्वथी कर्ममुक्त नहीं थयेला कहे जे के, 'पोताना तीर्थना तिरस्कारपणाथी (विनाशपणाथी ) तेना नकार माटे आ लोकमां अवताररुपे आवे .' ए वचनथीं फरीवार संसारमा आववानुं अंगीकार करवामां आवतां, तेमनो निरास करवाने कहे जे के, ' उन्मुक्त कर्मकवचाः ' प्रबळताथी--फरीथी प्रगट न थवापणाथी सर्व प्रकारे कर्मरुपी कवचनो जेमणे त्याग कर्यो बे एवा . तेथीज तेत्रो 'अजरा' शरीरना अनावथी जरावस्थाए रहित, माटेज 'अमरा' शरीरने अभावे नहीं मरनारा, कारण के, शरीरना असंजवथी प्राणना त्यागनों पण नेमने असंनव बे, एवा अमर ; वली ते सिद्ध नगवानो 'प्रसंगा' एटले बाह्म तथा आत्यंतर एवा संगथी रहित जे. वनी तेश्रो " निस्तीर्णसर्वसुखाः" एटले जेओ सर्व मु:खोने अोलंगी गया के कारण के, जाति, जरा, मरण अने बंधनथी मुक्त थयेला बे; जाति एटले जन्म, जरा एटले वयनी हानि, मरण एटले प्राण त्याग अने बंधन एटले तेना कारणरुप कर्मो-ते सर्वनो जेमणे सम्यक् प्रकारे विनाश करेलो ने, तेथीज ते सिफ जगवानो अव्याबाध शाश्वत सुखने अनुजवे छे. सिद्ध नगवान्ना एकत्रीश गुणो. Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H૨૫ त तिष्ठ चतुर्थ प्रकाश. " संठाण वाम रस गंध फरस वेयंगसंगनवरहियं। गतीस गुणसमिधं सिहं बुद्धं जिणं नमिमो " ॥१॥ " १ वृत्त, ( वर्तुत ) २ व्यस्र (त्रणखुणादार ) ३ चोरस, ४ सांबु अने ५ परिमंमल-ए पांच संस्थान, १ कृष्ण, २ नील, ३ पीत, प रातो अने ५ श्वेत-ए पांच वर्ण, १ तीखो, २ कमवो, ३ कसाएलो, ४ खाटो अने ५ मधुर-ए पांच रस, १ मुगंधी अने ५ उगंधी-ए बे गंध; १ गुरु, २ लघु, ३ मृउ, ४ खर, ५ शीत, ६ नष्ण, ७ स्निग्ध अने उखुखो-ए आठ फरस, १ स्त्री, २ पुरुष अने नपुंसक-एत्रण वेद, अंग एटले शरीर, संग एटले परवस्तुनो संसर्ग, अने लव एटले जन्म-संसार-आ एकत्रीश उपाधिथी रहित-तेथीज एकत्रीश गुणोथी समृधिमान् एवा श्री सि. छ जगवानोने नमस्कार करीए छीए." ते सिझोना आठ गुण. __ आठ कर्मोना क्यथी सिद्धोने विष आठ गुणो उत्पन्न थाय डे, ते दर्शावे छे " नाणं च दंसणं च अव्वाबाहं तहेव सम्मत् । अकयविई अरूवं अगुरुतहू वीरियं हव" ॥ १॥ ___ "ज्ञानावरणीय कर्मना यथी अनंतझानपणुं, ५ दर्शनावरणीय कर्मना क्यथी अनंत दर्शनपाणु, ३ वेदनीय कर्मना यथी अनंत अव्याबाधपणुं,-आ अव्याबाध गुणने लइने अनंत सिघो परिमित क्षेत्रमा अन्योन्य अवगाढपणे रहेला उतां तेमने परस्पर बाधा थवानो अनाव . ४ मोहनीय कर्मना क्यथी दायिक सम्यक्त्त्वपणुं, आयुः कर्मना यथी अक्षय स्थितिपणु, ५ नाम कर्मना क्यथी अरूपीपणुं, अने ६ गोत्र कर्मना यथी अगुरुलघुप" --कारण के, उच्च गोत्रना उदयथी बोकमां गौरव थाय डे अने नीच गोत्रना उदयथी लघुता थाय -सिक जगवानोने विषे ए बनेनो अनाव होवाथी अगुरुलघुपणुंज . अहिं कोइ वादी शंका करे के, सिद्ध नगवान्ने, सज्जनोन पूजनीय होवाथी गुरुपणुं अने नास्तिकोने पूजनीय न होवाथी लघुपएं होय, Jain Education Interational Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ श्री आत्मप्रबोध. तेथी अहिं अगुरु बघुपर्णो केम कहेवाय ?" तेना उत्तरमा कहे के, “जेम उच्च गोत्रवाळा पुरुषना आववाथ। आसन उपरथी उठवू, आसन देवं अने पूजा करवी वगेरे थाय छे, अने नीच गोत्रवाळा पुरुषना आववाथी तेम यतुं नथी, तेने तो दूरज रखाय , तेवी रीते अहिं सिद्ध नगवानोना व्यवहारमा यतुं नयी; माटे तेत्रोमां अगुरु बधुपाणु डे, ते युक्तज जे. ७ अंतराय कर्मना क्षययी सिफ नगवानोमां अनंतवीर्यपाj , तेथी लोकवर्ती अनंत पदार्थोनुं समकाले झान तेमने संजवे छे. ७ वळी ते सिद्ध नगवानोने अनंत सुखपणुं कहेवाय , ते वेदनीक कर्मना विनाशयी उत्पन्न थयु एवं अव्यावाध स्वरूप अथवा सम्यक्त्व स्वरूप समजबु. आ प्रमाणे श्री सिक नगवान्ना गुणोनुं वर्णन करवामां आवे ने तेमना सकळ मंगळमय परमात्म स्वरूप वर्णन करतां कहे छ के," इत्यं स्वरूपं परमात्मरूपं, निधाय चित्ते निरवद्यवृत्तेः। सध्यानरंगात्कृतशुद्धिसंगा नजन्तु सिम्मिं सुधियः समृधिम् ।। ___ " ए प्रकारे निर्दोष वृत्तिथी चित्तनी अंदर श्री परमात्मानुं स्वरूप धारण करी शुभ ध्यानना संगथी जेमणे नाव शुधि प्राप्त करती ने, एवा सद्बुद्धिवाळा जनो सिधिरुपी समृधिने नजो." १ " जगवत्समयोक्तीना-मनुसारेणैष वर्णितोऽस्ति मया । परमात्मत्व विचारः शुषः स्वपरबोधकृते " ॥२॥ " श्री जिनराजना आगमना वचनोने अनुसारे आ शुछ परमात्म तत्त्वनो विचार ( स्वरूप) में पोताना अने पर (जव्यजीवो )ना वोधने माटे वर्णन करेन बे. ولی وال جنوری ملتی ہے اسلی श्री जिननक्तिसूरिना चरणकमळना आराधनमां उमरतुट्य एवा श्री जिनवाजसूरिए प्रकाशित करेला आ आत्मप्रबोध ग्रंथने विषे परमात्म स्वरूप वर्णन नामे चोथो प्रकाश संपूर्ण थयो. Jain Education Intemational Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ PWAL आत्मबोधनी दुर्लभता. " नरेन्ज देवेंच सुखानि सर्वाण्यपि प्रकामं सुलनानि लोके । परं चिदानंदपदैकहेतुः सुदुर्लभस्तात्विक आत्मबोधः" ॥१॥ "आ लोकने विषे चक्रवर्ती अने इंड वगेरेना सर्व सुखो प्राप्त थवा सुमन ने, परंतु चिदानंद-ज्ञानानंद पद ( मोक्षपद )ना हेतुरुप एवो तात्त्विक-पारमार्थिक आत्मबोध थवो अत्यंत उर्लभ ." " ततो निरस्याखिनउष्टकर्म-व्रजं सुधीनिः सततं स्वधर्मः । समग्रसांसारिकःखरोधः समर्जनीयः शुचिरात्मबोधः॥२॥ " तेथी उत्तम बुझिवाला पुरुषोए सर्व उष्ट कर्मना समूहनो नाश करी संसारना सर्व मु:खोने रोकनार एवा आत्मिक धर्मरुप पवित्र आत्मबोधने संपादन करवो."५ ते आत्मबोध करनारी श्री जिनवाणीनुं माहात्म्य. " न ते नरामुर्गतिमाप्नुवन्ति, न मूकतां नैव जमस्वनावम् । न चांधतां बुधिविहीनतां नो, येधारयन्तीह जिनेवाणीम् ॥१॥ "जे पुरुषो आ लोकमां श्री जिनेवाणीने धारण करे , ते पुरुषो बुर्गतिने, मुंगापणाने, जम स्वनावने, अंधपणाने अने बुधिनी हीनताने पामता नथी."१ "ये जिनवचने रक्ताः, श्री जिनवचनं श्रयंति भावेन । अमलागमतोऽवशा, नवंति ते स्वल्पसंसाराः "शा Jain Education Interational Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्ममबोभ. " जे पुरुषो श्री जिन भगवान्ना वचनने विषे रक्त बे ने जे जाववने श्री जिन वचनने अंगीकार करे छे, तेओ निर्मल आगमना बोधथी क्लेशरहित ने अप संसारी थाय बे. "" 2 ४१ sक्तमादौ स्वपरोपकृत्यै, सम्यक्त्वधर्मादिचतुः प्रकाशः । विनाव्यतेऽसौ शुचिरात्मबोधः, समर्थितं तद्भगवत्प्रसादात् ॥ ३॥ " जे प्रथम कहेवामां यान्युं हतुं के, पोताना तथा परना उपकारने अर्थे सम्यक्त्वधर्म वगेरे चार प्रकाशवाळो या आत्मप्रबोध ग्रंथ कहेवामां आवे बे, ते प्रमाणे श्री जगवान्ना प्रसादथी या शुद्ध - पवित्र आत्मप्रबोध ग्रंथ संपूर्ण कहेवामां आव्यो . " ३ मिथ्याडुष्कृत प्रार्थना. प्रमादबाहुल्यवशादबुड्या, यत्किंचिदाप्तोक्तिविरुद्धमत्र । प्रोक्तं भवेत्तजनितं समस्तं मिथ्याऽस्तु मे शुष्कृतमात्मशुद्ध्या १ " विशेष प्रमादना वशथी, अने बुद्धिना प्रभावयी, आ ग्रंथमां जे कांइ प्राप्त पुरुषोना वचनथी विरुद्ध कहेवामां यान्युं होय, ते आत्मशुद्धिवमे मा समस्त दुष्कृत मिथ्या थाओ. " १. आत्मप्रबोधः समाप्तः Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ch श्रीमद्वीर जिनें तीर्थ तिलकः सद्भूतसंपन्निधिः संजज्ञे सुगुरुः सुधर्मगणभृत्तस्यान्वये सर्वतः । पूर्णे चांडकुलेऽनवत्सुविहिते पक्षे सदाचारवान् सेव्यः शोजनधीमतां सुमतिमानुद्योतनः सूरिराट्र” ॥१॥ " श्री वीरजिनेश्वरना तीर्थमां तिलकरूप ने सत्य संपत्तियना निधानरुप गुरु श्री सुधर्मा स्वामी यया हता. तेना वंशमां सर्व प्रकारे पूर्ण एवा चंद्रकुलमा विधिपक्ष ( खरतरगच्छनी) अंदर उत्तम आचारवाला ने सारी बुद्धिवाळा विधानाने सेववा योग्य एवा उद्योतन नामे सूविर थया हता. प्रासीत्तत्पदपंकजैकमधुकृत् श्रीवर्द्धमानाभिधः ። सूरिस्तस्य जिनेश्वराख्यगणभृद् जातो विनेयोत्तमः । “ ग्रंथकार प्रशस्ति. ( ग्रंथकर्त्तानी गुरुपरंपरा . ) ८ यः प्रापच्छिवसिद्धिपंक्तिशरदि श्रीपत्तने वादिनो जित्वा सद्विरुदं कृती खरतरेत्याख्यंनृपादेर्मुखात्" ॥२॥ “ ते उद्योतन सूरिना चरणकमलमां भ्रमररूप श्री वर्धमान नामे तेमना शिष्य थया हता. ते श्री वर्धमानसूरिना उत्तम शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि गणधर थया हता. ते जिनेश्वरसूरिए विक्रम संवत् १००० ना वर्षमां श्री जबलपुर १ अहिं 'सुविहिते पक्षे' एनो अर्थ चंद्रपक्षे उज्वल पक्ष पण थाय छे. ० ૧ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० श्री आत्मप्रबोध. मां वादिओने जीती त्याना राजा वगेरेना मुखथी खरतर एवो पदवी प्राप्त करी हती. " तच्छिष्यो जनचंपसूरिंगणभृद् जझे गुणांनोनिधिः संविज्ञोऽजयदेवसूरिमुनिपस्तस्यानुजोऽजूत्ततः । येनोत्तुंगनवांगवृत्तिरचनां कृत्वाईतः शासने साहाय्यं विदधे महच्छृतपरिज्ञानार्थिनां धीमताम्" ॥३॥ ते श्री जिनेश्वरसूरिना शिष्य गुणोना समुरुप श्री जिनचंजसूरि गएघर थया हता. तेमना शिष्य संवेगी अजयदेवसूरि थया हता. तेमणे श्री जिनशासनने विषे मोटा सिधांतोना अर्थने जाणवाना अर्थी एवा बुधिमान् पुरुषोने सहाय करवा नव (श्री स्थानांगसूत्रथी विपाकसूत्र सुधीना ) अंगो उपर टीका रची हती. ३ " तत्पट्टे जिनवबन्नो गणधरः सन्मार्गसेवापरः संजातस्तदनुप्रनूतमहिमा सदन्तव्यबोधप्रदः। अंबादत्तयुगप्रधानपदभूत् मिथ्यात्व विध्वंसकृत् नेता श्रीजिनदत्तसूरिरत्नवद् वृंदारकान्यर्चितः " ॥॥ " ते श्री अभयदेवसूरिनी पेठे सन्मार्गनी सेवा करवामां तत्पर एवा श्री जिनवबन गणधर थया हता. ते पछी ते श्री जिनवबजनी पाटे जेमनो घणी महिमा जे, जेओ नत्तम एवा नव्य प्राणीओने बोध आपनारा , अंबा देवीनी सहायथी जेमणे युगप्रधान पद प्राप्त करेलुं बे, जेओ मिथ्यात्वनो नाश करनारा ने अने जेओने देवताओए पूजेला डे, एवा श्री जिनदत्तसूरि थया हता. ४ " तदनु श्रीजिनचंजः सूरिवरोऽनूत् स्वधर्मनिस्तंजः। सन्मणिमंमितनावप्रणताखित शिष्टभूपालः " ॥ ५ ॥ " ते पळी श्री जिनदत्त सूरिनी पाटे श्री जिनचंजसूरि थया हता. जेश्री स्वधर्मने विषे अपमादी अने जेमने सर्व उत्तम राजाओ पोताना सुंदर मुकुखाळा मस्तकोथी नमता हता. "तघ्शे गुणनिधयः सम्यगविजया मुनीश्वराः शुचयः। Jain Education Intemational Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंयकार प्रशस्ति. ४२१ श्री जिनकुशलमुनीष-श्रीजिनभद्रादयो मुनयः ॥६॥ श्री जिनचंचसूरिनी पाटे गुणोना निधि रुप, सम्यक् प्रकारे विजयवाला, अने पवित्र एवा श्री जिनकुशल अने श्री जिनना वगेरे मुनींनो थया हता. ६ ___ " जज्ञे मुनींद्रस्तदनुक्रमेण श्रीजैनचंसो मुनिमार्गसेवी । प्रबोधितो येन दयापरण अक्कब्बराख्यः प्रतिसाहिमुख्यः । ते पछी अनुक्रमे मुनिओना मार्गने सेवनारा श्री जैनचंडमुनि थया. जे दयालु मुनिए बादशाहोमा अग्रेसर एवा श्री अकबर बादशाहने प्रतिबोधित को हतो. ७ तदन्वभूतु श्रीजिनसिंहसरिः स्वपाटवाल्हादितसर्वसूरिः । ततः स्वधीनिर्जितदेवसारः स्फुरत्प्रतापो जिनराजसूरिः ७ श्री जैनचंसूरिनी पाटे पोताना चातुर्ययी सर्व विधानोने आनंदित करनार श्री जिनसिंहसूरि थया हता अन तेमनी पाटे पोतानी बुद्धिथी देवताना सूरि बृहस्पतिने पण परानव करनार अने प्रतापथी स्फुरणायमान एवा श्री जिनराजसरि थया हता. तच्छिष्यो जिनरत्नसरिसुगुरुः श्री जैनचउस्ततो गच्छेशो गणभृघरो गुणगणांनोधिर्जगछिश्रुतः । तत्पट्टोदयशैलमूर्ध्नि च सूरि स्वित्प्रतापोखुरः पूज्यः श्रीजिनसौख्यसूरिरभवत्सत्कीर्तिविद्यावरः ।। "ते श्री जिनराजसूरिना शिष्य जिनरत्नसूरि थया अने तेमना शिष्य श्री जिनचंड थया, जेत्रो गच्छना नायक, गणधरोमा श्रेष्ट, गुणगणोना समुज अने जगत्मा प्रख्यात थया. तेमनी पाटरूपी उदयगिरिना शिखर उपर सूर्यना जेवा प्रतापी, पूज्य अने सत्कीर्ति तथा सहिद्याथी श्रेष्ट एवा श्री जिनसौख्यसूरि थया हता. ९ " तत्पादांबुजसेविनो युगवराः सत्यप्रतिज्ञाधराः श्रीमंतो जिनन्नक्तिसूरिगुरवोऽनूवन गणाधीश्वराः । वैसद्दामगुणैः स्वधर्मनिपुणे निःशेषतेजस्विनां तस्थे मौलिपदे प्रकामसुजगैः पुष्पैरिव प्रत्यहम्" ॥१०॥ Jain Education Interational Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 425 श्री आत्मप्रबोध. " ते श्री जिनसौख्यसूरिना चरणकमळने सेवनारा श्री जिननक्तिसूरि गुरु थया, तेओ युगप्रधान, सत्य प्रतिझा धरनारा अने श्रीमान् गणना अधीश्वर थया हता. उद्दामगुणवाना, स्वधर्मयां निपुण अने अत्यंत सुंदर एवा तेश्रो पुपोनी जेम प्रतिदिन सर्व तेजस्वी पुरुषोना शिरपर स्थान करता हता. 10 तेषां विनेयो निरवद्यवृत्तिः प्रमोदतः श्री जिनलानसूरिः / इमं महाग्रंथपयोधिमध्यात् समग्रहीत्नमिवात्मबोधम् 11 " ते श्री जिननक्तिसूरिना निर्दोष वृतिवाळा शिष्य श्री जिनसानसरि थया हता. तेमणे मोटा ग्रंथोना महासागरमांथी रत्नोनी जेम संग्रह करी आ आ. त्मबोध ग्रंथ हर्षयी रचेलो छे. 11 हुताशसंध्यावसुचंऽवत्सरे समुज्ज्वले कार्तिकपंचमीदिने / मनोरमे श्रीमनराख्यबिंदरेऽगमन्निबंधः परिपूर्णतामयम् / 12 " संवत् १७३३ना वर्षमा कार्तिक मासनी शुक्ल पंचमीने दिवसे मनोहर एवा मणार नामना बंदर गामने विषे आ ग्रंथ परिपूर्ण थयेलो छे. 12 यत्किचित्सूत्रमपप्रयोगं निरर्थकं चात्र मया निबधम् / प्रसिद्य तच्छोध्यमवंसुधीनिः परोपकारो हि सतां स्वधर्मः 13 आ ग्रंथने विषे काय पण उत्सूत्र [ सूत्र विरुष्क], अशुछ प्रयोगवाळु, अने निरर्थक-अर्य वगरनुं माराथी लखायुं होय, ते सद्बुधिमान् पुरुषोए कृपा करी शोधी ले. कारण परोपकार करवा, ए सत्पुरुषोनो स्वधर्म ने. 13 यावन्महीममतमध्यदेशे विराजते शैवपतिः सुमेरुः / तावन्मुनी रैभिवाच्यमानो जीयादसौ ग्रंयवरात्मबोधः 14 ज्यां सुधी आ चूमंमळना मुध्य नागे पर्वतोनो राजा सुमेरु पर्वत विराजे छे. त्यां सुधी मुनीशोथी वंचातो आ उत्तम ग्रंथ आत्मप्रबोध जय पामो. 14 प्रथमादर्शेऽलेखि दमादिकट्याणसाधुना श्रीमान्। संशोधितोऽपि सोऽयं ग्रंयः सबोध नक्तिभृता // 15 // " श्री क्षमा कल्याणक मुनिए आ श्रीमान् ग्रंथने प्रयम प्रति ( परत ) रुपे लखेलो के अने सद्बोध नपर नक्तिवाळा तेज मुनिए शोधेनो ने. 15 इति ग्रंथकार प्रशस्तिः