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________________ प्रथम प्रकाश. ४७ वृद्धि थाय छे. दारि, दुर्भाग्य, नारुं शरीर, दुर्गति, हीनबुद्धि, अपमान, रोग ने शोक वगेरे दोषो कोइकाले पण थता नथी. हिंजिनचैत्यना अधिकारमा घणी बाबत कहेवानी बे, पण ते विषे श्री चार दिनकर प्रमुख ग्रंथोथी जाणी लेवुं. ए प्रकारे पांच प्रकारना चैत्यो - नी वक्तव्यता कहेवामां आवी, हवे तेना विनयनुं स्वरुप कहे . चैत्य विनयनुं स्वरूप. द्वित्रिपंचाष्टादिनेदैः प्रोक्ता भक्तिरनेकधा । द्विविधा द्रव्यन्नावाभ्यां त्रिविधांगादिनेदतः ॥ १ ॥ पूर्वे विनय, जक्ति, बहुमान वगेरे जे कहेला बे, तेना प्रकार कहे बे. क्ति, त्र, पांच ने वगेरे दोथी अनेक प्रकारनी छे. तेमां अव्य aar वे प्रकारनी बे. अने अंग, अ ने नाव - एम ऋण प्रकारनी . मां जल, विलेपन, पुष्प ने आरण वगेरेथे । जे अंग पूजा थाय बे, ते बतावे . दुःखे करने प्राप्त थयेला सम्यक्त्व रत्नने स्थिर करवानी इच्छावाला विवेकी पुरुषे पोते प्रथम पवित्र थइ, बादर जीवनी यतनादिकने माटे शुद्ध वस्त्र पेढे | जिनालयमां जवं. त्यां श्री जिनेश्वर समान मुझाए युक्त, एवा श्री जिनबिंबने मार्जन करी, कपूर, पुष्प, केशर, तथा साकर प्रमुखथी मिश्रित सुगंधी जलव स्नात्र कर. ते पनी कपूर, केशर, अने चंदन आदि इव्योथी विलेपन कर, ते पी पुष्प पूजा करवी. जन्य प्राणीए सामान्य पुष्पोथी प्रभु पूजा न करवी. तेने माटे नीचे प्रमाणे कहेलं बे "" न शुष्कैः पूजये देवं कुसुमैर्न महीगतैः । न विशीर्ण फलस्पृष्टैर्नाशुनैर्ना विकासिभिः ॥ ॥ १ ॥” सुकाइ गयेला, पृथ्वीपर पमेला, समीने विशीर्ण थयेला, फलोथी स्पविकास नहीं पामेला पुष्पोथी जिनेश्वरनी पूजा करवी र्शाला, नहीं. १ " पूतिगंधान्यगंधानि आम्लगंधानि वर्जयेत् । कीटकोशापविद्धानि जीर्ण पर्युषिता निच ॥ २ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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