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श्री आत्मप्रबोध
ने अने पूर्वापर क्षणे त्रुटित एवा अनुसंधान रुप बक्षण अंगीकार करे तो कर्मनो बंध बीजाने थाय अने मोक्ष बीजानो थाय. ते तो एक नुख्यो रहे अने बीजो तृप्त थाय एम बने. दवा कोइ खाय अने रोग कोई बीजानो मटे, एवो प्रसंग आवे. तपनो क्लेश बीजो सहे अने स्वर्ग बोजाने मले, तेवा अति प्रसंग पणाना दोषथी ए वात घटित थती नथी. आथी करी बौछ मतनो निरास करवामां आव्यो बौकोना सिधांत रुप अंधकारनो नाश करी दीधो.
३ स पुनः कर्माणि करोति । ते जीव वली कर्मोने करे जे. एटले मिथ्यात्व, अविरति अने कषायादि बंधना हेतुथी युक्त होवाथी ते जीव नवा कर्म करे . जो एम न होय तो दरेक प्राणीने प्रसिक अने विचित्र एवा सुखनुःखादिकनो अनुन्नव अप्राप्त थाय अने आ लोकमां तो जीव अनेक प्रकारना सुख मुखनो अनुभव करे छे, तेथी ते विचित्र सुखजुःखनो अनुजव निर्हेतुक नथी. ते शी रीते ? निर्हेतुकपणुं उतां निष्पन्न एवो आत्मा कमळना पत्रनी पेठे निर्केप होय . ते उपरथी एवो सिफांत थाय ने के, सर्व काले ए सद्नावना अनावनो प्रसंग प्राप्त थवाथी तेम थाय ने ; माटे आ जीवने सुखःखना अनुजवनुं कारण पोताना करेला कर्मज ने ; बीजु कोइ नथी. ते उपरथी एम पण सिछ थयुं के, ए जीव कर्मोनो कर्ता के आथी कपिलना मतनो निरास करेलो, . अहिं को शंका करे के, "आजीव तो सर्वकाले सुखाजिनाषीज डे को काले ते पु:खनी वांछना राखतो नथी, त्यारे ते पोते कर्मोनो कर्ता थइ सुःखना दनने आपनारा कर्मो करे " ? तेना उत्तरमां कहेवार्नु के, जेम रोगी माणस रोगनी निवृत्ति इच्छे . ते रोगथी परानव पामी अपथ्य सेवन करवा वझे उत्पन्न थवाना जावी कष्टोने जाणे , ते उतां ते अपथ्य सेवे में, तेवी रीते जीव पण मिध्यात्वादिकथी परानव पामता उतां अने कोइ प्रकारे ते जाणता उतां पण पुःखना फलने आपनारा कर्मोने करे ने तेथी तेमां कोई जातनो दोष आवतो नथी.
४ कृतं च वेदयति। ते जीव करेला कर्मने वेदे , एटले ते करेला शुजाशुज कर्मोने जोगवे जे. तेनुं अंगीकारपणुं अनुभव प्रमाण, लोक प्रमाण अने आगम प्रमाणथी सिक थाय ने जो स्वकृत कर्मना फलने जोगवनार जीवने
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