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श्री आत्मबोध.
धारण करे अने सर्व असार वस्तुने सार रूपे जाणे बे. ते पेहेला गुण ठामां वर्त्तनारो जीव बाह्य दृष्टिपणाने लइने वहिरात्मा कहेवाय बे.
अंतरात्मानुं स्वरूप.
तत् श्रासहित थइ कर्मना बंध वगेरेनुं स्वरूप सारीरीते जाते बे. जेम के "आ जीव आ संसारने विषे कर्म बंधना हेतुरूप एवा मिध्यात्व, अविरत कषाय ने योगव के समय समय प्रत्ये कर्मने बांधे छे, ते कर्म ज्यारे उदय आवे छे, त्यारे ए जीव पोतेज तेने जोगवे बे. तेने कोइ बीजो जीव सहाय पण करतो नथी." या प्रमाणे चितवे बे. अने ज्यारे द्रव्य कोरे कांइक वस्तु जाय बे, त्यारे ते प्रमाणे चितवे छे. मारो य वस्तुनी साथेनो संबंध नष्ट थयो. मारुं खरं अन्यतो ज्ञानादि वे, जे आत्म प्रदेशनी साथ संबंध धरावे बे, ते अन्य कथां पण जवानुं नथी. " ज्यारे कां प्रव्य वगेरेनो लान थाय बे, त्यारे ते या प्रमाणे जाणे बे- पौगलिक वस्तुनो संबंध मारे थयो बे तेमां हर्ष शो धारण करवो ? " ज्यारे वेदनीय कर्मना उदययी कष्ट वगेरेनी प्राप्ति थाय त्यारे ते समजावने धारण करे बे ने आत्माने परनावथी जिन्न मानी तेने त्याग करवानो उपाय करे वे अपने चित्तमां परमात्मानुं ध्यान करे बे, तेमज आवश्यकादि धर्म कृत्यमां विशेष उद्यमवंत थाय बे, ते चोथा गुणarural area गुण गणां सुधी वर्त्तनारो जीव अंतर्दृष्टिथी अंतरात्मा कदेवाय जे.
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परमात्मानुं स्वरूप.
जे जीवशुद्ध आत्मस्वनावने प्रतिबंध करनारा कर्म शत्रुने ह ने निरुपम केवलज्ञानादिकनी उत्तम संपत्तिने प्राप्त कररी सर्व पदार्थोंना समूहने हथेली मां रहेल आमळानी जेम अथवा हथेळीमां रहेल निर्मळ जंबनी जेम जाणे ने जुवे, तेमज परम आनंदना संदोहथी संपन्न थाय ते तेरमा ने चौदमा गुणगणामां रहेल आत्मा तथा सिद्धात्मा (शुद्ध स्वरूपपणे) परमात्मा कहेवाय बे.
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