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________________ श्री आत्ममबोभ. " जे पुरुषो श्री जिन भगवान्ना वचनने विषे रक्त बे ने जे जाववने श्री जिन वचनने अंगीकार करे छे, तेओ निर्मल आगमना बोधथी क्लेशरहित ने अप संसारी थाय बे. "" 2 ४१ sक्तमादौ स्वपरोपकृत्यै, सम्यक्त्वधर्मादिचतुः प्रकाशः । विनाव्यतेऽसौ शुचिरात्मबोधः, समर्थितं तद्भगवत्प्रसादात् ॥ ३॥ " जे प्रथम कहेवामां यान्युं हतुं के, पोताना तथा परना उपकारने अर्थे सम्यक्त्वधर्म वगेरे चार प्रकाशवाळो या आत्मप्रबोध ग्रंथ कहेवामां आवे बे, ते प्रमाणे श्री जगवान्ना प्रसादथी या शुद्ध - पवित्र आत्मप्रबोध ग्रंथ संपूर्ण कहेवामां आव्यो . " ३ मिथ्याडुष्कृत प्रार्थना. प्रमादबाहुल्यवशादबुड्या, यत्किंचिदाप्तोक्तिविरुद्धमत्र । प्रोक्तं भवेत्तजनितं समस्तं मिथ्याऽस्तु मे शुष्कृतमात्मशुद्ध्या १ " विशेष प्रमादना वशथी, अने बुद्धिना प्रभावयी, आ ग्रंथमां जे कांइ प्राप्त पुरुषोना वचनथी विरुद्ध कहेवामां यान्युं होय, ते आत्मशुद्धिवमे मा समस्त दुष्कृत मिथ्या थाओ. " १. आत्मप्रबोधः समाप्तः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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