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________________ ६४ श्री आत्मप्रबोध. जं पावइ पुष्णफलं वूयाएदवणेण सत्तुंजे ॥ १ ॥ " “अन्य तीर्थोमां सुवर्ण, भूमि अने आभूषणोना दान करवार्थी जे पुण्य यतुं नयी, ते पुण्य शत्रुंजय तीर्थ उपर पूजा ने न्हावण करवा थाय बे ? " तीर्थ यात्रा करनारा प्राणीओए यात्रा वखते भूमि संथारो, शीव्रत, एकाहार प्रमुख व वानां करवाना छे. अने तेम करीने रहेवाथी त्यां तीर्थयात्रानो प्रयास विशेष इष्टफलने आपनारो थाय छे. ते बवानांने 'बरी' करीने कहे . बरीकार नीचे प्रमाणे दर्शाव्या . एकाहारी नूमिसँस्तारकारी पद्भ्यां चारी शुद्धसम्यक्त्व धारी । यात्राकाले यः सचित्तापहारी पुण्यात्मा स्याद् ब्रह्मचारी विवेकी ॥ १ ॥ " 66 46 यात्रा वखते जे विवेकी पुरुष एकाहार - एक वखत आहार क करनार, परावके चारी - चालकरनार अने ब्रह्मचारी - ब्रह्म - नार, भूमि संस्तारकारी — भूमि उपर संथारो नार, सचित्तापहारी - सचित्त वस्तुनो त्याग चर्य पालनार रहे ते पुण्यात्मा कहेवाय बे. १ " वली कछु बेके, " श्रीतीर्थपांथरजसा विरजी जवंति तीर्थेषु बंचमणतो न जवे चमंति । Sव्यव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः पूज्या जवंति जगदीशमथार्चयतः ॥ १ ॥ " जव्य प्राणी तीर्थोमां भ्रमण करनारा अव्यनो व्यय करे बे, ते नारा बीजाने पूजवा 66 Jain Education International तीर्थना मार्गना रजव मे विरज पापरहित थाय बे आ संसारमां भ्रमण करता नथी. जे तीर्थक्षेत्रमां स्थिरसंपत्तिवाळा थाय बे ने त्यां जगत्पतिने पूज योग्य थाय बे. " १ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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