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श्री आत्मप्रबोध.
सम्यक्त्वना रथी पोताना आत्मानी अंदर अत्यंत शीतळता प्रगट थाय बे. ते पर्छ। उपशम सम्यक्त्वने विषे वर्त्ततो जीव सत्ताने विषे वर्त्तता एवा मिथ्यात्वने शोधी तेनी त्रण पुंज रुपे व्यवस्था करे बे. जेम कोइ मेलाना कोदराने शोधे बे, ते शोधतां केलाएक शुद्ध था जाय डे, केटलाएक अर्धा शुद्ध थाने harएक वाने वाज रहे बे. एम जीव पण अध्यवसाये करीने जिनवचननी रुचिने रोकनारा दुष्टरसनो उच्छेद करी मिथ्यात्वने शोधे बे, ते शोधतां बतां शुद्ध, अर्ध शुद्ध अने अशुद्ध, एम प्रकारे थाय छे.
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पुंजमा जे शुद्ध पुंज बे, ते सर्वज्ञ भगवंतना धर्मने विषे सम्यक्त्वनी प्राप्तिमां रोकवावाळो नथी; तेथी ते सम्यक्त्व पुंज कहेवाय बे ने बीजो अर्ध शुद्ध पुंज बे, ते मिश्रपुंज कहेवाय बे. ते मिश्रपुंजनो उदय थवार्थ | जिन धर्मने विषे उदासीनता होय बे, अने अशुद्ध पुंजना उदयथी - रिहंत - सिद्धादिकने विषे मिथ्यापणानी प्राप्तिनो उदय थाय ब्रे, तेथी ते मिथ्यात्वपुंज कहेवाय बे, एटले शुद्धदेव अरिहंतने कुदेव माने अशुद्ध गुरुने कु गुरु माने ते मिथ्यात्व कहेवाय बे. तेज अंतरकरणे करी अंतर्मुहूर्त्त काल पपशमिक सम्यक्त्व अनुजच्या पत्री तरतज निश्रयथ । शुद्ध पुंजना उदयी क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि थाय के अने अर्ध शुद्ध पुंजना उदयथी मिश्र ने अशुद्ध पुंजना उदयर्थी सास्वादन गुणस्थान फरसवा पूर्वक मिथ्यादृष्टि थाय बे. ते सास्वादन गुणस्थान जघन्यपणे एक समय प्रमाण ने उत्कृष्टथी व आवळी प्रमाण बे. वळी प्रथमनुं उपशम सम्यक्त्व प्राप्त थतां कोइ जीव सम्यक्त्वनी साथेज देश विरतिपणाने पण पामे बे ने कोइ जीव प्रमत्त जावना बठा गुणस्थानने पामे अनेको जीव सास्वादन गुणस्थान पामी मिथ्यादृष्टि पण थाय बे. शतकनी - वृहद चूर्णीमां ते विषे कां बे
वसम सम्मदी अंतरकरण पमत्तावपि सासायणो
ans को इति ॥ १ ॥
बीजुं कां न पामे एम कर्म ग्रंथनो अभिप्राय कहेलो बे. हवे सिद्धांत
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कोइ देसविरईपि ॥ पुण न किंपि सहे
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