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________________ ve श्री आत्मबोध. 66 46 रवाने गयो, गुरुए ए धर्मी शेठने पुछ्युं, ' केम तमारे सुखशाता बे ? ' त्यारे शेठे कर्छु, “ जगवन्, तमारी कृपार्थी सुखज बे, पण धर्मना निंदक लोको बोले बे के, “ जिनालय कराववाथी या धनसार शेठनुं सर्व व्य नाश पामी गयुं. " धर्मनी निंदा सांजळी मारा मनने चिंता थाय बे. मारुं प्रव्य नष्ट थयुं, तेनी चिंता मने बीलकुल नयी पण धर्मनी निंदा थवाथी मने जारे खेद थायछे. अव्यने माटे तो हुं समजुं हुं के, शुभ कर्मना उदयथी अन्य बहु वार आवे उत्तम अंतराय कर्मना दययी नाश पामे बे. हे स्वामी, आप ज्ञानना बलवी अने मने कहो के “ आ जवने विषे मारुं अंतराय कर्म त्रुटशे के नहीं ?" धनसार शेठना या वचनो सांजळी ते गुरु संतुष्ट थ‍ गयो, अने तेमाणे पोताना ज्ञानना बलथी धनसार शेठना अशुभ कर्मनो नाश ने शुभ कर्मनो उदय जाणी बी. पी धर्मनी उन्नति करवाने माटे गुरुए ते धनसार शेवने सर्व मंत्रोमां श्रेष्ठ ने महामंगल रूप नवकार मंत्र साधन विधि सहित प्यो. धनसार शेठ ते मंत्रने विधि सहित जाली जिनालयमां जइ मूलनायक प्रभुनी आगळ रही अष्टम चरवा पूर्वक ते महा मंत्रनो जप करवा लाग्यो. ज्यारे ए तपना पारणानो दिवस आव्यो एटले ते दिवसे एक अखंमित yoपोनी माला श्री जिनेश्वरना कंठमां स्थापी जेवामां प्रजुनी स्तुति करवा प्रवत्यौ, तेवामां नाग कुमार देवतानो इंड धरणें संतुष्ट थइ ते शेवनी आगळ प्रगट थयो. ने बोढ्यो, “ धनसार शेठ, तमारी जक्तिथी हुं संतुष्ट थयो बुं. जे इच्छा होय ते मागी लो. धनसार शेठे प्रजुनी स्तुति पूर्ण करीने कां, “देव, जो तमे मारी पर संतुष्ट थया हो तो, आ प्रभुना कंठमां आरोपण करेली पुष्पमाला व जे पुण्य प्राप्त थयुं होय, तेनुं फल मने पो. " धरणे कां, “शेठ, ते अर्पण करेली पुष्मालाना पुण्यनुं फल आपवाने हुं समर्थ नथी. चोसन इंडो पण तेनुं फल प्रापवाने शक्तिमान् नथी, माटे बीजुं कांइ मागो. " शेठे कएं, “ कदि तमे बधी पुष्पमालानुं फल आपवाने असमर्थ हो तो ते मालाने विषे रहेल एकज पुष्पनुं फल आपो. " इंसे कर्छु, “ ते पण आपवाने हुं समर्थ नथी. " धनसार शेठे कर्छु, “ ज्यारे तमारामां एटलु फल आपवानी पण शक्ति नथी तो तमे तमारे स्थाने पाळा चाव्या जाओ. " धनसार शेठना ए वचन सांजळी धरणें कं, “शेजी, देवतानुं दर्शन निष्फल होय नहीं, माटे तमारा घरमां में रत्नोथी 46 46 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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