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प्रथम प्रकाश.
प्रकाश माद्यं वर दर्शनस्य ततश्च देशाद्विरतेर्द्वितीयं । तृतीय मस्मिन् सुमुनि व्रतानां वदये चतुर्थं परमात्मतायाः॥४॥
आ ग्रंथमां प्रथम प्रकाशमां सम्यग् दर्शननुं स्वरुप बतावेल बे, बीजा प्रकाशमां देश विरतिनुं स्वरुप, त्रीजा प्रकाशमां उत्तम मुनित्रतनुं स्वरुप ने चोथा प्रकाशमां परमात्म भावनुं स्वरूप दर्शावेल बे. या उपरथी परस्पर संबंधवाला सम्यक्त्वादि स्वरूपने प्रतिपादन करनारा एवा चार प्रकाशथी प्रतिष एवो आत्मबोध ग्रंथ बे, एम सूचवेलुं बे.
ग्रंथना अधिकारीयो, कोण बे ?
नव्या नहि जातिजव्या न दूरजव्या बहु संसृतित्वात् । मुमुक्षवोऽनूरिनवज्रमा हि आसन्न नव्यास्त्वधिकारिणोऽत्र || ||
व्य, जातिय ने दूरजव्य ए बहु संसारी होवाथी या ग्रंथना अधिकारी नथी. जेमने बहु जवमां जमा करवानुं नये । एवा मुमुक्त पुरुषो ने प्रसन्न जन्य ए आ ग्रंथना अधिकारी. २
कवानुं तात्पर्य एबे के, दुष्ट अंतवाला ने अनंत चार प्रका रनी गतिना स्वरुपने प्रसार करनारा या संसारने विषय जगतना सर्व जंतुना चित्तने चमत्कार करनारा एवा इंद्रादिक सुर असुरोए रचेला उत्कृष्ट आठ महाप्रातिहार्य वगेरे सर्व अतिशयोथी युक्त एवा जगद्गुरु श्री वीरमनुए सर्व घनघति कर्मना दीयाना समूहना नाशथी उत्पन्न थयेल सर्व लोकालोक लक्षणवाला लक्ष्यने अवलोकन करवामां कुशल एवा निर्मल केवलज्ञानना बसथी ऋण प्रकारना जीवो कहेला बे. १ जव्य, २ अव्य, अने ३ जातिजव्य. जे जीवो कालादिकना योगनी सामग्री प्राप्त करी पोतानी शक्तिथी सर्व कर्मोंने पाव मुक्तिए गया डे, जाय बे अने जवाना बे, ते सर्व जीवो त्रिकालनी - पेare aव्य कदेवाय के.
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