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श्री आत्मबोध.
" द्रव्यार्जनं सद्व्यवहार शुद्ध्या, करोति सद्भोजनमादरेण । पूजादिकृत्यानि विधाय पूर्व, निजोचितं मुक्त विशेषलौल्यः” । १ ।
ते पक्षी श्रावक व्यवहारशुद्धिवमे व्योपार्जन करे बे. त्यार बाद पहेला मध्यान्हकाल संबंधी देवपूजा करीने, मुनि महाराजाओ ने दान आपीने छ, तुर, तिथि पशु वगेरेनी चिंता करीने विशेष लोलुपतानो त्याग करी श्रावक पोताने योग्य एवं जोजन आदरथी करे बे. योग्य एवं जोजन एम कवानो आशय एव के, सूतकवालुं भोजन लोकविरुद्ध होवाथी, अनंतकायादिवमे व्याप्त एवं भोजन ग्रागमविरुद्ध होवाथी ने मद्यमांसादिकनुं जोजन जयलोक - - शास्त्र विरुद्ध होवाथी श्रावक करतो नथी, तेम लोलुपपणाथी पोताना जठराग्निना वलनो विचार कर्या वगर श्रावक अधिक जोजन करे नहीं. कारण के, अधिक जोजन करवाथी वमन, विरेचन आदि रोगनी उत्पत्ति अने तेमांथी मरण प्रमुख बहु अनर्थ उत्पन्न थाय बे; तेथी जे मितभोजन करे बे ते पछी धर्मशास्त्रो परमार्थ चिंती योग्य व्यापारमां दिवसना त्रीजा पोहोरनुं निर्गमन करेबे. सूर्य अस्त यतां पहला संध्याकाले जिनपूजा करे बे. जो विजुक्त [वेशणा]नुं प्रत्याख्यान कर्यु होय तो चार घमी दिवस बाकी रहे त्यारे व्यालु करेछे, ए श्लोकमा कल नथी तोपए जाएं। लेबुं.
त्रिकाल जिनपूजानो विधि.
" प्रातः प्रपूजयेद्वासै मध्यान्हे कुसुमैर्जिनम् । संध्यायां धूपदीपैस्त्रिधा देवं प्रपूजयेत् " ॥ १ ॥
"प्रातःकाले जिनेश्वर ने वासकेपथी पूजवा, मध्यान्हे पुष्पार्थ पूजवा अने
"
संध्याकाले धूपदीपथी पूजवा - एम जिनदेवने त्रिकाल पूजवा .
इति श्रावक दिन कृत्य.
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