SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री आत्मप्रवोध. उपशमावतां-दबावी देतां एटले उदयमां न आववा देवारुप करतां जे चैतन्यनो गुण प्रगट थाय जे, ते उपशमिक सम्यक्त्व कहेवाय . आ सम्यक्त्व अनादि मिथ्यादृष्टिने, ग्रंथिनेद करनारने, अने उपशम श्रेणिना प्रारंजना करनारने थाय. २ दायिक-अनंतानुबंधी कषायनी चोकमीनो तय थया परी अनंतर मिथ्यात्व, मिश्र सम्यक्त्वरूप त्रण पुंजरूप दर्शनमोहनीय कर्मनो सर्वथा क्य थतां आत्माने जे गुण उत्पन्न थाय, ते दायिक सम्यक्त्व कहेवाय. आ सम्यक्त्व दपक श्रेणी अंगीकार करनारने होय . “दपक श्रेणी अंगीकार करनार पुरुष आठ वर्षथी उपरांत वयवाळो, वज्रऋषजनाराच संघयणवाळो, अने ध्यानने विषे चित्त आपनारो होय , ते पुरुष अविरति होय, देश विरति होय अथवा प्रमत्त-उग गुणगणावाला अथवा अप्रमत्त-सातमा आउमा गुणगणांवालामाथी गमे ते होय ते आपकवेणी मां , " एम प्रवचनसारोद्धार ग्रंथने विषे कहवं . ३ कयोपशमिक–उदय आवेना मिथ्यात्वने विपाकना उदये करी वेदी क्षय करे अने शेष के जे सत्तामा अनुदय आवेदूं होय तेने उपशांत करे एटले मिथ्यात्व मिश्र पुंजने आश्रीने रोके अर्थात् उदयने अटकावे. अने शुद्ध पुंजने आश्री मिथ्यात्व भावने दूर करी एटले नदीरणा करेल मिथ्यात्वनो कय करवाथी अने नहीं दीरणा करेत मिथ्यात्वनो उपशम करवाथी आत्माने जे गुण नुत्पन्न थाय ते क्योपशमिक सम्यक्त्त्व कहेवाय जे. आ मिथ्यात्व शुफ पुंज बकणवा, डे, ते अतिशय निर्मल एवा वादळानी पेठे जे, तेथी तेमां यथावस्थित शुक तत्त्वरुचिर्नु आच्छादन थतुं नथी, एटले ते आच्छादन करनार न होवाथी ते उपचारथी सम्यक्त्व कहेवाय . अहिं शिष्य प्रश्न करे -उपशम सम्यक्त्व अने क्षयोपशमसम्यक्त्त्वमा शो तफावत ? कारणके, ते वंने सम्यक्त्वमां कांश विशेष जोवामां आवतुं नथी. ते बनेमां उदय आवेन मिथ्यात्वनो कय अने नहीं जदय आवेत मिथ्यात्वनो उपशम, ए कहेवामां आव्युं . गुरु उत्तर आपे डे-तेमां विशेषपणुं . क्षयोपशम सम्यक्त्त्वमां मिथ्यात्वना विपाकनो अनुभव नथी, पण रक्षाए Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy