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________________ ३६४ श्री आत्मप्रबोध. पांडुरोग, मन, मूत्र अने वायुनो निराध थाय जे. बीजी एकसो साठ नसो तिरबी गामिनी , ते हस्ततळने स्पर्शेती छे । तेनो उपघात न थाय तो ते नुजाने बल आपनारी ने अने नपघात थवाथी परखामां के कुखमां वेदना उत्पन्न करेछे. बीजी पचवीश नसो श्लेष्मने धरनारी , पचीश पित्तने धारण करनारी जे अने दश शुक्र नामनी सातमी धातुने धरनारी छे. आ प्रकारे नाजिथी उत्पन्न थयेल सातसो नसो पुरुषना शरीरे हाय , तेनाथी स्त्रीओने त्रीश ओठी होय ने अने नपुंसकने वीश ओगी होय . वली आ शरीरमां नवसो हाम बंधननी नामीओ , तेमां चार रसने वहन करनारी धमनी नामीओ . दाढी तथा मुंबना केश विना नवाणुं लाख रोमकूप छे अने मुंड सहित गणतां साडा त्रण कोटी रोमराजी थाय छे. तेमां दाढी, मुड अने कूर्चना केशोने शिरोरुह कहेवामां आवे . मुखमां जे मांसना खंगरुपे जिह्वा रहनी चे ते पोताना दीर्घ अंगुलना प्रमाणे सात आंगळ प्रमाण होय छे अने तेनो तोल मगध देशमा प्रसिफ एवा चार पाना मापे चार पसनो छे. चक्षुना बे मांसना गोळा तोलमां बे पन छे. मस्तक हामना खंम रुप चार कपाळे कररी निष्पन्न थाय छे. ग्रीवातुं प्रमाण चार आंगुलनुं . मुखमां अस्थिना खंम रुप दांत प्राये करीने वत्रीश होय छे अने हृदयनी अंतर्वर्ती एवो मांसनो खंड सामात्रण पळनो डे अने वक्षस्थळना अंतरनो गूढ नाग के जे कलेजाना नामथी अोलखाय ने ते पचास पत्रनुं होय छे. वळी शरीरमां मूत्र अने रुधिर दरेक आढक प्रमाण ने अने ते सर्वकाले अवस्थित होय . चरवीनुं प्रमाण अर्धा आढकनुं छे. मस्तक- नेगें एक प्रस्थ प्रमाण जे अने पुरुषने उ प्रस्थ प्रमाण- होय . पित्त अने श्लेष्म प्रत्येक एक एक कुमव प्रमाण अने शुक्र अर्ध कुमव प्रमाण सर्वदा अवस्थित के. आ आढक तथा प्रस्थ वगेरेनुं माप बालक, कुमार अने तरुण वगेरेनुं "दोअसईउ पसई" इत्यादि क्रमे करीने पोतपोताना हायने आश्रीने जाणवं तेने माटे कयुं छेक, "दोअसश्न पसई, दोपसइओ सेश्या, चतारि सेश्याओ कुलओ, चत्तारि कुलअो पच्छो, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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