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________________ ३३४ श्री आत्मपबोध. आ शुक्लध्याननो पहेलो पायो भाउमा गुणस्थानथी आरंजी अगोआरमा गुणस्थान सुधी होय छे. २ शुक्लध्याननो एकत्व वितर्क अप्रविचार नामे बीजो पायो निश्चन एक अव्यतुं अथवा एक पर्यायर्नु अथवा एक गुणर्नु अथवा शब्दथी शब्दांतरतुं इत्यादि जे संक्रमण तेनाथी रहित जे. जावश्रुतावलंबनवमे चिंतवन करवारुप बीजो पायो बारमा गुणगणे होय छे अने ते पछी तेरमे गुणस्थाने ध्यानांतरिका होय छे. ३ ते पनी जेने विषे केवनी नगवान अत्यंत आत्मशक्तिवमे बादर काययोगमां आत्म स्वनावथी स्थिति का बाद बादर मन वचन युगलने सूक्ष्म करे जे, ते पठी सूक्ष्म वचन तथा मनने विषे स्थिति करी बादरकाययोगने सूक्ष्मतामां न जाय , ते पठी सूक्ष्म काययोगमां कण मात्र स्थिति करो तत्काल सूक्ष्म वचन तथा मननो सर्वथा निग्रह करे छे. त्यारवाद सूदम काययोगे क्षण मात्र स्थिति करी सूक्ष्म क्रियावाला ज्ञान स्वरूपी पोताना आत्माने पोतानी मेले अनुजवे ने अने तेने योग्य एवा जे शुल परिणाम तेथी पावापणुं यतुं नथी. आ शुक्लध्याननो बीजो पायो कहेवाय . ए तेरमा गुणगणाने अंते प्राप्त थाय छे. ५ जेने विषे सूक्ष्म क्रियानो पण समुच्छेद थाय बे, ते शुकलध्याननो चोथो पायो कहेवाय जे. ते चौदमे गुणगणे होय जे ते पठी जीव सिधिपदने पामे छे. ___ ए ध्यान अवाधा अने असंमोहादि विंग गम्य ने अने मोक्ष फलन साधक जे एम समजवू. एथी अक्रियपणाने योग्य परम विशुद्ध परिणामन निवृत्ति पण होती नथी. ए चारे ध्यानमां धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान-ए बे निर्जराना हेतु होवाथी अत्यंतर तपरुप समजवा. अने आर्त तथा रौष-ए बे बंधना हेतु बे, निजराना हेतु नथी तेथ। ते तपरुप नथी, माटे उत्तम बुफिवाला पुरुषोए ते आर्त तथा रोज-बने ध्याननो परिहार करवो. अन्यथा नंदमणियार तथा कंकरीकादिकनी जम महा सुखनी प्राप्ति थाय . ५ जो के चित्तनुं अति चंचलपणुं होवाथी मनुष्य कुध्यानचे पामे ने तोपण वीर पुरुषोए प्रसन्नचंजादिकनी पेठे ते उध्यानने निवारवा माटे आत्मवीर्यना नदास प्रकट करको वीर्य फोरच अने शुञ्च थालनो विद म थाय, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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