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( १४ ) शी रीते ? शुं कहेवा मात्रथी ? शुं अन्यने उपदेश आपना पुरता ? शुं पोतानुं स्वार्थी जीवन तृप्त करवा खातर ? शुं दंभवमे जगत्नी वंचना खातर ? न हिज. वास्तविक स्थिति जानार मनुष्य तेज होइ शके के जे जाएया पछी हेय पदा ने जवानी अभिलाषा राखतो जाय-क्रमे क्रमे ततो जाय ने परिणामे सती दे. देशविरतिपणुं ए गृहस्थने योग्य वारव्रतनी परिपालना रूप कर्तव्य विशेष बे, के जे कर्तव्यवमे आत्मा असत्य मार्गथी दूर रहेवा यथाशक्ति प्रयत्नपरायण थाय बे, अने सर्व रीते दूर रहेवानी निरंतर अभिलाषानुं सेवन करे बे. षष्ठ तथा सप्तम गुणस्थानके वर्तता आत्मानी त्रीजी भूमिका सर्वविरति छे. अत्र जततुना सर्व पदार्थोमांथी ' अहंममता ' दूर थाय छे. आरंभ समारंजजन्य सर्व पापोनो परिहार थाय छे. सर्व विरति भूमिकाने प्राप्त ययेला मनुष्य प्राणी कोइ प्रकार पाप सेवता नथी, अन्यने ते करवानो उपदेश करता नथी, तेमज तेवं करनारनी अनुमोदना करता नयी सांसारिक इच्छा मात्रनो ज्यां त्याग ने एक मात्र आत्मानुभवनीज अपेक्षा अस्खलितपणे वहती होय त्यां स्वार्थमय दुनियामां निविरूपणे वास करीरी रहेला क्रोध, कीर्ति, यश, मान, दंन ने प्रपंचोमां अमूल्य समयने गुमाववानो वखत क्योंथी होय ? वस्तुतः सर्व विरतिनो या अप्रतिहत मार्ग निर्दिष्ट थयेलों छे. आ नूमिकामां बाह्य मर्यादामां टकी रहेवाने संस्कार पामवा माटे ऽव्यथी मुनिवेष अंगीकार करवो पाने नावथी कषायादिने निर्मूल करवा हिंसा, असत्य विगेरे तोथी सर्व प्रकारे विरमण कर पके बे. चतुर्थ परमात्म भूमिका - टम गुणस्थान वर्ती आत्मार्थी मांगीने सिद्धपणानी अवस्था पर्यंत बे. आमां पकश्रेणि के उपशम श्रेणिगत आत्मा गीयारमुं गुणस्थानक के ज्यां मोहनों सर्वथा उपशम होय छे, अथवा बारमुं गुणस्थानक के ज्यां मोहनों सर्वथा दय होय छे तेथी, बने गुणस्थानके ' वीतराग ' पणे संबोधाय बे, त्यारथी ते परमास्मानी कोटिमां वी शके बे. चतुर्दश गुणस्थानक सुधी ते जवस्थ परमात्मतामां पीथी शाश्वतपणे सिद्धिस्थ परमात्मतामां वर्ते बे. या प्रकाशमां नवस्थ केवीं स्वरूप तथा सिवना जोवोनी अवगाहना तथा सिद्ध सुखन। अनिर्वचनी - यतानुं स्फोटन करे छे. या रीते विस्तारथी चारे भूमिकानुं स्वरूप ग्रंथकार प्रतिपादन करे छे.
जैनदर्शनरूप प्रासादना चार द्वार इव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकर
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