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सम्यक्त्त्व नूमिकाना स्वरूप दर्शनमा मिथ्यात्व गुणस्थामकथी आत्मा उच्च स्थाने आवतां-तेना मिश्र परिणाम थतां, पनीथी अनिवृत्ति करणरुप आत्मवीर्यथी चतुर्थ गुणस्थानके प्रवेशतां आत्मा सम्यक्त्त्व नूमिका प्राप्त करे . आ सम्यक्वने केवी रीते प्राप्त कर ? प्राप्त करनार आत्माना परिणाम केवा होय ? विगेरे प्रथम प्रकाशरुपे क्रमपुरःसर दर्शावजे. सम्यक्त्व ए अनादि निष्पन्न नवनी
आत्यंतिक निवृत्तिनुं बीज ने एम जैनदर्शन पुनः पुनः मिर्मिम वगामीने कहे तेथीज कहेवामां आवेवू डे के:
कृष्णपके परिक्षीणे, शुक्ने च समुदञ्चति । योतते सकताध्यक्षाः, पूर्णानंदविधोः कसाः ॥
'मिथ्यात्वरुप कृष्णपक्ष पूर्ण थतां अने सम्यक्त्वरुप शुकनपद उदयमान थतां पूर्णानंदमय आत्मारूप चंद्रनी कलाओ क्रमशः सकळनावाने प्रत्यक्ष करती प्रकाशे
श्रीमद् यशोविजयजी. आम होइ सम्यक्त्वरुप बीज अवश्य मुक्ति फळ प्राप्त करावी आपने, असप्त कर्म प्रकृतिओना क्षय के उपशमथी उत्पन्न थयेवं दायिक के औपशमिक सम्यक्त्व उत्कृष्ट स्वरूपमा सर्वघाति प्रकृतिओना क्षयरुप दायिक सम्यक्त्वरुपे प्रकटे ने. सप्तकर्मप्रकृतिना दय के उपशमरुप आत्मनावनी जागृति ते अंतरात्म अवस्था के अने सर्व प्रकृतिओना दयरुप आत्मनावनी जागृति ते परमात्म अवस्था छे.
__ग्रंथकर्ता पूर्वोक्त स्थिति जान करावतां सम्यक्त्वना बाह्य अने आभ्यंतर स्वरूपनुं दर्शन करावे , ते साथे सम्यक्त्वना सदहणा, लिंग, विगेरे सडसठ प्रकारों दर्शावे .
सम्यक्त्वना अनेक प्रकारो जुदीजुदी अपेक्षाए पण दर्शावे डे, परंतु व्यवहारथी शुद्ध देव-गुरु अने धर्मनी श्रधा अने निश्चयथी अंतरात्मपणुं प्राप्त कर ए मुख्य उद्देशोमां सम्यक्त्वना षट्स्थानको दर्शावतां या प्रकाश समाप्त करे छे. त्सार पनी पंचम गुणस्थानक उपर देशविरतिनी भूमिकानो आत्माने अधिकारी बनावे . 'ज्ञानस्य फलं विरति' ए सूत्रनुं सत्य आत्माने देशविर तिनी नूमिका यथार्थ करावे छे. केमके आत्माए संसारना क्षणिक पदार्थोंने भ्रममूलक जाण्या
* अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, अने सम्यक्त्व मोहनीय.
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