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आ
अथ द्वितीय प्रकाश (देशविरति.)
बीजा देशविति प्रकाशमां जेनुं स्वरूप प्रथम कहेवामां आव्युं छे, एवो सम्यकत्वमूल आत्मबोध प्रकट थवायी केटलाएक आसन्न नव्य जीवोना चारित्र मोहनीय कर्मनो वय अथवा उपशम थवाथी मने देश विरति आदि बाजनी प्राप्ति थाय बे, ते बतावे बे.
“ सदात्मबोधेन विशुद्धिनाजो जव्यादि के चित्स्फुरितात्मवीर्याः । जंति सार्वोदित शुद्धधर्म देशेन सर्वेण च केचिदार्याः ॥ १ ॥
निरंतर आत्मबोध वडे विद्धिने प्राप्त थरला केलाएक जन्य प्राणीओ पोताना वीर्यने देशथ अने केटलाएक सर्वथी फोरवी सर्व प्रतुए कहेला शुद्ध धर्मने जजे बे. १
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कवान आशय एव के, केटलाएक सर्वज्ञ प्रणीत विरतिलक्षण शुद्ध धर्म देशी जे ने केटला एक सर्वथी एटले सर्व विरति जावने नजे बे. मां प्रथम देशविरति पामवानुं स्वरूप प्रगट करे बे. या संसारने विषे वीजा कषायनी चोकीनो दय अथवा उपशम यतां मनुष्य, अने तिर्यचो सम्यक्त्व युक्त शरीर डे जे देश विरति प्राप्त करे बे, तेनी शुद्ध व्याख्या करवामां आवे छे. देश एटले कोइ जागते व प्राणातिपातादि पाप स्थानकोथी निवृत्त वुं पाछा हवं, ते देशविरति कडेवाय बे. ते निर्मल देशविर तिपणुं बीजा अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया ने लोन लक्ष्णरूप चार कपाय क्षीण अथवा उपशांत थतां या संसारने विषे सम्यक्त्व युक्त एवा मनुष्य तथा तिर्यचवमे प्राप्त करी शकाय बे; ते शिवाय बीजार्थी मातुं नथी. कारणके, देवता ने नारकी ओने ए देशविरतिनी प्राप्तिनो
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