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________________ ४०४ श्री प्रात्मप्रबोध. "सामान्यपणे करी श्री पिकनियुक्ति आदि आगमने विषे उपयुक्त थयो थको एटले ते शास्त्रने अनुसारे कल्पनीय-अकल्पनीयने विचारतो थको श्रुतकानी साधु जो कोई प्रकारे अशुफ आहारादिक ग्रहण करे तोपण ते अशनादिक केवळझानी पण जोगवे-आहार करे; जो तेम न करे तो श्रुतझान अप्रमाण थइ जाय." ____आ वात स्पष्ट करे -"उद्मस्थने श्रुतज्ञानना बन्ने करी शुष्क आहारादिकनी गवेषणा करवी प्रमाण छे; पण बीजे प्रकारे ते प्रमाण नथी. जो केवलीश्रुतझानीवडे ग्रहण करायलो आहार आगमने अनुसारे गवेषण करता उता अशुद्ध ने, एम जाणी न जोगवे तो श्रुतझाननो अविश्वास थइ जाय पछी कोइ श्रुतने प्रमाणिकपणे अंगीकार न करे, ज्यारे श्रुतझान अप्रमाणिकथाय तो पठी सर्व क्रियानो लोप थवानो प्रसंग प्राप्त थाय. अने वली श्रुत विना उद्मस्थोने क्रियाकामना परिज्ञाननो अ. संभव होय छे; तेथी श्रुतज्ञानीनो लावेलो आहार केवनी जोगवे . आ अधिकार शिष्यादिक सहित एवा केवळीने आश्रीने कहेलो . जो केवळी एकमा होय तो पोताना ज्ञाननना बलवमे यथायोग्य शुष्क आहार ग्रहण करे, विवेक . अहिं जिनो अने अजिनोने आश्रीने बी घणुं कहेवानुं बे, पण ग्रंथ वधी अवाना भयथी ए कहेवामां आव्युं नथी, आ तो जवस्थ केवलीनुं देश मात्र स्वरूप कहेवामां आव्युं . सिघ स्वरूप. हवे श्री पन्नवण सूत्रमा कहेली गाथावमे सिघन स्वरूप दर्शाने . तेमा प्रथम उत्तानीकृत एटले पोहोला करेला छत्रना आकारवाळी सर्व रीते श्वेतवर्ण स्फटिक रत्नमय अने समय क्षेत्र (अढी छीप)नी सम श्रेणीए पीस्तानीश लाख योजन प्रमाणवाळी सिद्धशिला , ते मध्य नागे आठ योजन प्रमाण मांबी पोहोळी अने जामी ने. ते पठी सर्व दिशा अने विदिशाने विषे थोमी थोकी प्रदेशनी हानिए करी घटती घटती सर्व चरम (बेरा ) प्रदेशना अंतने विषे माखीनी पांखना जेवो पातलो एवो अंगुलना असंख्यातमा नागना जामापणावाळी सिघशिलारुप पृथ्वीना उपर निसरणीनी गतिए करी एक योजनमा लोकांत जाग आवेलो छे ते उपरनो योजननो जे चोथो गान, तेनो सर्वोपरिनो ठगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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