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________________ द्वितीय प्रकाश. २०३ जोमी देवु. अथवा सत्तानुमाने करीने छतां प्रमाणे बेवट नियम ग्रहण करवो. ते पर आनंदादि श्रावकोना दृष्टांतो प्रसिद्ध बे. जो कदि गृहस्थ इच्छा निरोध न करी शके तो जे होय ते करतां मां के चोगणं मोकलं राखीने बाकी जे शेष रहे तेनो नियम करे. को शंका करशे के, “ बतां परिग्रहनो निषेध करीने जे व्रतनुं अंगीकार करवापणुं बे, ते मरु देशनी वापीकाना जलना स्नाननी जेम कोने हास्यनुं स्थान नहीं थाय " ? ते शंकाना समाधानमां कहेवानुं के, नाग्ययोगे कालांतरे करीने इच्छा प्रमाणे क्षेत्रादिक संपदाना पण अधिक प्रारंभं थवा अनेकदि संपदा न होय पण इच्छा अनंत होय छे, तेनो निरोध करवा माटे व्रतनो अंगीकार करतो ते सफल बे. तेने माटे कां बे के, परिमिमुवसेतो, अपरिमियमांतया परिहरतो । पाव परंमि बोए, अपरिमिमणंतयं सुकं” ॥१॥ परिमित परिग्रहने सेवतो अने अपरिमित अनंतनो परिहार करतो पुरुष या लोकनो पार पाये बे ने अपरिमित अनंत सुखने पामे बे. " १ 66 प्रश्न करे बे के, इछा प्रमाणे वस्तु प्राप्त करतां वा पोतानी मेळे शांत पामे बेज; तो पी आ परिग्रह परिमाण करवानुं शुं कारण बे ? जोजन करवाथी क्षुधा एनी मेळे समाइ जाय बेज. तेना उत्तरमांकदेवानुं के, एम नथी; कारण के परिपूर्ण समृद्धि प्राप्त थतां पण इहानी अतृप्तिज बे. तेने माटे कां बे के, " जह बहेई रिद्धिं तद बोहो विवहुए बहुओ । बहिण दारुभारं किं अग्गी कह विविज्काइ " ॥१॥ 46 जेम जेम ऋद्धि प्राप्त यती जाय बे, तेम तेम लोन बहु वृद्धि पामे बे. अग्नि लाकमानो समूह प्राप्त करीने बुद्धी जतो नथी, पण उलटो दृष्टि पामे बे. " १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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