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________________ अथ तृतीय प्रकाश. ( सर्वविरति. ) त्रीजा सर्वविरति नामे प्रकाशना आरंभमां तेनी प्राप्तिना भेदने सूचना आर्या प्रमाणे - आ "( प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्कक्षयोपशमजवनात् । बनते मानव एतां देशविरतिमानविरतो वा " " देशविरति एटले पंचमगुणस्थानवर्ती पुरुष अथवा अविरति एटले प्रथम गुणस्थानवती अथवा चतुर्थ गुणस्थानवतीं पुरुष प्रत्याख्यानावरणीय नामना जीजा कषायनी चोकमोनो क्षयोपशम थतां सर्वविरतिने पामे छे. त्रिविध त्रिविध भांगाए करीने सर्व सावद्य योगयी जे निवृत्ति ते सर्वविरति कहेवाय बे. देवता, तिर्यच ने नारकी तथाप्रकारना जवना स्वनावने लइने ए सर्वविर तिने पामी शकता नयी, ते कारणथीज अहिं मनुष्यनुंज ग्रहण करेलुं बे. वली ए सर्वविरति देशविरतिनी प्राप्तिने अवसरे जविष्यमा थनार | कर्मनी स्थितिमांथी संख्याता सागरोपम खपाव्यायी प्राप्त कराय बे, ए प्रथम विस्तार पूर्वक दर्शा - oj . तथा स्थितिमान सर्व विरतिनुं तथा देशविर तिनुं पण जघन्यथी - तर्मुहूर्त्त ने उत्कर्ष देशोनपूर्वकोटीनं जाणं, एवा प्रकारनी छे सर्व विरतिछे जेने ते सर्व विरतिमान् साथ कहेवाय बे. आवा साधु छद्मस्थाने केवळी एम वे प्रकारना बे. तेमां जे मुनिराजा गुणगणाथी आरंजीने वारमा गुणस्थानवर्ती बे, ते बनस्थ कहेवाय छे। अने जे तेरमा अने चौदमा - ए वे गुणस्थाने वर्तनारा छे, ते केवळी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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