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________________ श्री आत्मप्रबोध. " राजाने मळवानी इच्छायी निक्षुक आव्यो बे; पण द्वार उपर अटकाववाय । ते त्यां जो बे. तेना हाथमां चार श्लोक बे; ते आपनी पासे यावे के पाछो जाय. 77 ? राजा उत्तरमां नीचे प्रमाणे कहेवराव - दीयंतां दशनकाणि, शासनानि चतुर्दश । हस्तन्यस्तचतुः श्लोको यद्वा गच्छतु गच्छतु ॥ २ ॥ जेना हायमां चार श्लोको बे, ते निक्षुकने दश लाख व्य अने चौद गामोना पट्टा कर पो. ते खुशी होय तो वे अने खुशी न होय तो पात्रो जाय. ‍ " सिद्धसेन दिवाकर राजानी पासे गयो. ते वखते महाराजा विक्रम पूर्व दिशा तरफ सिंहासन उपर वेळा हता. त्यां जड़ ते कवीश्वर नीचे - माणे नवीन श्लोक बोट्या " ग्राहते तत्र निःस्खाने, स्फुटिते रिपुहृद्घटे । गलिते तत्प्रियानेत्रे, राजंश्चित्रमिदं महत्" ॥ १ ॥ " हे राजा, तमारा नीशाननो मंको वागतां तमारा शत्रुग्रोनो हृदयरूप फूटी जाय ने तेमनी स्त्रीओना नेत्र गळे छे. आ एक मोडं आश्चर्य a." ? श्लोक सांजळी राजा विक्रम दक्षिण दिशा तरफ मुख करीने वेळा. कारण, ते श्लोक प्रसन्न थयेला राजाए मनमां चितव्यं के, “ में आ निक कविने मारुं पूर्व दिशानुं राज्य आपी दीधुं. आचार्य पुनः सन्मुख यात्री नीचे प्रमाणे श्लोक बोब्या पूर्वेयं धनुर्विद्या, जवता शिक्षिता कुतः । मार्गणौधः समयेति, गुणो याति दिगंतरम् ॥ २ ॥ हे राजा को पूर्व धनुर्विद्या तमो क्यांथी शीख्या के जेथी त 66 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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