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________________ श्री आत्मप्रवाध. आत्मबोध थवानुं कारण सम्यक्त्व . कारण विना कार्यनी उत्पत्ति थती नथी एवो न्याय , तो आत्मबोध प्रगट थवामां का सत् रुप कारण हो जाइए. ते कारण वस्तुताए सम्यक्त्त्व ज . बीजुं कांह नथी. आगममां पण सम्यक्त्व शिवाय आत्मवोधनी उत्पत्ति सांनळवामां नयी, ते उपरथी आत्मबोध सम्यक्त्व मूत्र ने एम सिह थयुं. सम्यक्त्वना स्वरुपने प्रतिपादन करवाने तेनी नत्पत्तिनी रीति कहे . कोइ अनादि कालनो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वने बझ्ने अनंत पुद्गल परावर्त्तन सुधी आ अपार संभार रुपी गहनमां नमी नमी नव्यपणाना परिपाकने पामी तेने बइ पर्वतनी नदीना जलना वेगमां घसमाता पाषाणना घसारानी जेग मांस मांग अनाजोगयी निवृत्त एवा यथा प्रवृत्ति करणरूप परिणाम विशेषथी घणां कर्मनी निर्जरा करतो अने थोमा कर्मने बांधतो संझी जीवपणं प्राप्त करे . पठी पल्पोपमना असंख्येय नागयी न्यून एवा एक सागरोपम कोटीनी स्थितिवाला आयुष्य शिवायना सात कोंने करे जे. जीवने पोताना उप्कमयी उत्पन्न थयेत्र घाटा राग पना परिणाम रुप, कठोर अने घाटा लांबा कालनी लागेल गोपाएन वक्रग्रंथि ( गांउ ) ना जेवो मुनेंद्य अने पूर्व कदि नहीं नेदाएल ग्रंथि डे, ए ग्रंथि सुधी अजव्य जीवो पण यथाप्रवृत्तिकरणवमे कमने खपावी अनंतवार आवे . अने ते ग्रंथिदेशमा रहेन अजव्य जीव अथवा जव्य जीव संख्येय अथवा असंख्येय कान सुधी रहे . तेमा कोइ अजव्य जीव चक्रवर्ती वगेरे अनेक राजाओए जेमने श्रेष्ठ पूजा, सत्कार, अने सन्मान आपेल , एवा उत्तम साधुओने जोवाथी, अथवा जिन समृफिना देखवाथी अथवा स्वर्गना सुख वगेरेना प्रयोजनथी दीक्षा ग्रहण करी प्रव्य साधुपणाने प्राप्त करी पोता. नी महत्ता वगेरेनी अनितापाची जावसाधुनी जेम प्रतिलेखनादि क्रियाोना कनापने आचरे . अने ते क्रियाना बलथी उत्कृष्टा नवमा अवेयक सुधी पण जाय जे. अन कोइ नवमा पूर्व सुधी मात्र सूत्रपात जाणे अर्थ जाणता नथी, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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