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________________ ( ४) आ ग्रंथनो बीजो देश विरति नामे प्रकाश छे. या प्रकाशमां गृहस्थ धर्मर्नु उपयोगी विवेचन आपलृ . गृहस्थनी समाचारी केवी होवी जोइए? केवा गुणोथी गृहस्थावास अलंकृत थाय ? अने गृहस्थे केवा व्रतो पाळवा जोइए ? ए विषय उपर ग्रंथकारे पातानो वाणीनो वैनव उच्च प्रकारे दर्शाव्यो . तेमांथी एवो ध्वनि निकले जे के, नव्य मनुष्ये निश्चय बळ वधारवाना साधनो संपादन करवा, उर्सन एवा मनुष्यजीवनने सूर्य जे तेजस्वी, प्रतापी अने सर्वतुं श्रेयःसाधक बनाक्वू, आळस, प्रमाद, व्यग्रता, क्रोध, चिंता, मोह अने अमर्याद आसक्ति एटलाथी अत्यंत सावध रहे, ए दोषो विपत्तिोना महासागरमां डुवामनारा ने, एम मानवं, सप्तर्व्यसनो उदयनी आशाने निर्मूळ करी दुर्गतिना दरवाजा तरफ लइ जनारा , एम निश्चय करवो. बळ अपंचनी छायामां पण जन्ना न रहे,, सत्यनो प्राण जतां पण त्याग न करवो अने निश्चय बळ अने आत्मबळमां विश्वासवाळा रहे, ए देशविरति धर्मना उपदेशनु रहस्य ने, अने गृहस्थ धर्मना शुछ स्वरूपनो प्रकाश जे. ते गृहस्थधर्मने अंगे बार व्रतोतुं स्वरुप अने सदाचार नरेला सद्वत्तेन विषे ग्रंथकारे घणां रसिक दृष्टांतो आपला डे. ते प्रसंगे दानधर्मनुं विवेचन करी गृहस्थावासमां करवा योग्य उदारता नरेनी सखावतो विषेपण इसारो करवामां आवेलो . तदनुसार श्रावकनी एकादश प्रतिमा दृष्टांत सहित प्रतिपादन करी गृहस्थ श्रावकना जच्च जीवनने अपनारा कत्तव्यो दाव्या जे जे मनन पूर्वक वाचवा योग्य . आ प्रकाशना लेख उपरथी ग्रंथकारे सिक कर्यु डे के, प्रत्येक ग्रहस्थे कर्त्तव्यनिष्ट थवानुं जे अने पोताना जीवनने सदनावनामय बनावी सर्व प्रति जच्च प्रेमनी लागणीथी जोवानुं जे. हृदयमा प्रेमरुप अमृतने नरी मृता नरेली वाणी उच्चारवानी , जे वाणी सर्व श्रवण करनारने शीतळता अने शांति उपजावे छे. प्रत्येक गृहस्थ देशविरति , छतां तेनी नावनामा सर्व विरतिपणानुं स्वरूप प्रकाशित होवू जोइए . तेनु वर्तन दयालुताथी रंगाएछं, विमुफ अने सात्विक होवू जोइए; जेथी शुकदेव, गुरु अने धर्म-ए त्रिपुटीनी आराधना करवानी योग्यता तेनामां पूर्णरीते प्राप्त थाय बे. सद्वर्तननी शुछिने सेवनारो गृहस्थ श्रावक आत्माना असाधारण महिमाने जाणी शकेले, ते कोइपण जातना पुराग्रहने वश थतो नथी, मिथ्यात्व नरेला विचारो तेने रुचिकर लागता नथी, ते निरंतर पोतानी सम्यग् दृष्टि उच्चपद तरफ राखेडे, अने नीचपदनी उपेक्षा करे. तेनी भावनामां श्रेणीबंध सद्विचारो Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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