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श्री आत्मप्रबोध.
उपर जळने विषे पमेला तेलना बिंदुनुं दृष्टांत बे. जेम तेलनो बिंदु जळना एक देशमा पबे, पण ते पछी समस्त जळने आक्रमण करे छे, तेवी रीते तत्त्वना एक देशमां आत्मान | रुचि उत्पन्न थइ, तो ते आत्मानी रुचि तेवी रीतना योपशमर्थ | समस्त तत्त्वाने विषे प्रसरी जाय े, आनुं नाम बीजरुचि कहेवाय बे.
६ निगमरुचि — अभिगम एटले विशेष प्रकारनं ज्ञान, तेने विषे जेने रुचि थाय ते निगमरुचि सम्यक्त्ववान् कहेवाय बे. एटले 'श्रुतज्ञानना प्रर्थने श्रीने जेने विज्ञान - विशिष्ट ज्ञान प्राप्त थाय ते निगमरुचि कहेवाय डे.
9 विस्ताररुचि -- सातनयो वमे संपूर्ण द्वादशांगीनी विस्तार पूर्वक वि चारणा करवामां जेनी रुचि वृद्धि पामे बे, ते विस्ताररुचि सम्यक्त्ववालो कहेवाय जे.
ए विस्ताररुचि सम्यक्त्वमां नैगमादिक सर्वनयो वने तथा प्रत्यक्षादिक प्रमाणो व पट् व्यनुं अने तेना पर्यायनुं यथार्थ ज्ञान थाय छे.
८ क्रियारुचि -- सम्यक् प्रकारे संयम चारित्रना अनुष्ठान एटले क्रिया तेनी प्रवृत्तिने विषे जे रुचि थवी ते क्रियारुचि सम्यक्त्व कहेवाय जे. जे पुरुषने क्रियारुचि सम्यक्त्व प्राप्त थयेलुं होय, तेने जावथी कानाचार, दर्शनाचार अने चारित्राचार आदि अनुष्ठानने विषे रुचि उत्पन्न थाय छे.
ए संक्षेपरुचि - जेनामां विशेष प्रकारे जाएवानी शक्ति न होय, तेथी जे संपथ जावानी रुचि करे, ते संक्षेपरुचि सम्यक्त्ववालो कहेवाय छे. ते सम्यक्त्वमां जिन वचन रूप आगमने विषे अकुशलपएं तां तेमज बौदिक कुदर्शननो अभिलाषी न बतां चिल्लातिपुत्रनी पेठे उपशम, विवेक ने संवर नामना पढ़े करीने तत्त्वनी रुचि प्राप्त थाय .
१० धर्मरुचि - धर्म एटले अस्तिकायादि धर्म तथा श्रुतधर्म अने चारित्रधर्म, तेने विषे जेने रुचि होय ते धर्मरुचि सम्यक्त्ववालो कहेवाय बे. एटले जिनेश्वरेकला धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय वगेरेना गति, स्थिति रुप उपष्टकता आदि स्वनावने विषे अस्तिपणं तेमज अंग-प्रविष्ट अर्थात् अंग-आगम
१ आचारांग आदि अंग, उववाइ आदि उपांग अने उत्तराध्ययनादि प्रकरण ते श्रुतझान कहवाय छे.
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