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श्री प्रात्मप्रबोध. ने से सर्वथा मिथ्यात्वनी मूल रुप . आ प्रमाणे जाणी सम्यग्दृष्टि जीवोए से युक्तिने आदर आपको नहीं. वली जे स्थानकमां चित्रमा आलेखेली स्त्री होय तेवा स्थानकमा साधुओने रहेवानो निषेध आचारांग सूत्रमा कहेलो ; चितरेली स्त्री साक्षात् स्त्री गुणथी वर्जित , उतां प्राकार मात्रे करी विकार उत्पन्न थवानुं कारणनूत . त्यारे जो तेना दर्शनथी विकार उत्पन्न थाय ने तो पळी परम शांत रसवाळी सौम्य प्राकारने धारण करनारी श्री जिन प्रतिमाना दर्शनथी प्रबुद्ध पुरुषोने उत्तम ध्यान थवानो संजव केम न होय ? श्रावी रीते सख़ुफिवामा पुरुषोए विवेकपूर्वक विचार करवो जोइए. ते जैनानासो कहे डे के, " अागमने विषे जिन चैत्यवंदनादिकनो अधिकार नथी, चैत्य स्थापन ए आधुनिक रे. पूजामां हिंसा थवाथी ते अधर्म छे अने वृक्ष-पींपळा प्रमुखने पाणी पावू, तथा मिथ्यात्वीअोना देव- पूजन करखं, एमां सम्यक्त्वनो विनाश थतो नथी. आ तेमना आलापो उन्मत्त माणसना आलाफ्ना जेवा अयुक्त जे. कारण के, आगमने विषे स्थाने स्थाने जिन चैत्यवंदन तथा पूजनादिकना अधिकार ने तेथी स्थाप. नानुं अने पूजानुं प्राचीनपाएं सिफज थाय . जो तेमां अधर्मपणुं होय तो आप मने विषे कहेला हित, सुख अने मोक्षादिकना फलनी प्राप्तिमां विरोध प्रावे. तेम वली तिर्यच, नरक गति आदि नगरा फल अधर्मना कहला . जे पीपळाने सचित्त जल सिंचन कर, ते प्रत्यक जैन धर्मनी घानी विरुछ होवाथी ते साक्षात् मिथ्यात्वीओज कार्य ठे ए प्रसिस के कारण के, सम्यक्त्वीओने अन्य देवने वंदनादिक करवामां राजानियोग आदि आगारने वर्जीने बीजे सर्व स्थने सेनो सर्वथा परिहार करवाने आगममां कहेल डे, तेथी उत्सर्ग मार्गथी अन्य देवनें वंदनादि करवामां सम्यक्त्वनो अवश्य नाश थाय २. उपर कहेला अर्थने प्रतिपादन करनारा श्री झाताधर्मकथा सूत्रना केटलाएक वचनो प्रा प्रमाणे -
१“तएणं सा दोवई रायवरकाागा एहाया कय बलिकम्मा कयकोउय मंगलपायबित्ता सुधपावेसाई मंगलाई वच्छाई पवरपरिहिया मजणघराउ पडिजिकमा पडिनिस्कमित्ता जेणेव
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१ द्रौपदी-ध्रुपद राजानी पुत्री-पांडवोनी पत्नएि जिन प्रतिमानी पूजा केवा प्रकारोथी करी तेनो भधिकार थे.
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