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श्री आत्मप्रबोध. "दीपो यथा निर्वृतिमन्युपेतो नैवावनिं गच्छति नांतरीक्षम् । दिशं न कांचिहिदिशं न कांचित् स्नेहदयात्केवलमेति शांतिम्१॥ जीवस्तथा नितिमन्युपेतो नैवावनिं गच्छतिनांतरीक्षम्। (दर्शन कांचिद्विदिशं न कांचित् क्वेशदयात्केवलमेति शांतिम्।।
दीपक निर्वाण ( बुझावपणा ) ने प्राप्त थतां ते पृथ्वोमां, अंतरीद-प्रा. काशमा, दिशा अने विदिशामा चाख्यो जतो नथी, पण केवल स्नेह (तेल ) नो देय थवायो ते शा। तने पामे . तेव। रीते जीवपण निवृत्ति (निर्वाण ) ने प्राप्त थतां पृथ्वी, आकाश, दिशा के विदिशामां जतो रहेतो नथी, पण केवल क्लेशनो दय थवाथी ते शांतिने पामे . १-२
आ सौगतनो मत तदन अयुक्त के कारण के जो तेम होय तो चारित्र सेवा वगैरे प्रयास निरर्थक थाय ने. वन। तेमां आपेवं दीपकनुं दृष्टांत पण घटतुं नथी; कारण के दीपकनी अग्निनो सर्वथा विनाशज नथी. ते तो तेवी जातिना पुद्गलना परिणामनी विचित्रता के एटो अग्निना पुद्गलो पोताना देदीप्यमान रूपनो त्याग करी अंधकारना रूपांतरने पामे छे, तेम दीवो बुझाइ जतां केटलाएक काल अंधकारना पुद्गल रुप विकार प्राप्त थाय छे, ते पुनः चिरकाले तरतज प्राप्त करातो नथी; ते आंजणना रजनी पेठे सूक्ष्म अने सूक्ष्मतर परिणामना सद्लावधी प्राप्त करवामां आवतो नथी; अहीं आपेला अंजनना रजर्नु दृष्टांत आ प्रमाणे जे.जेम अंजननी काली रज पवने करी हराती उमी जाय , ते परिणामनी सूदभताथी पमाती नथी, ते उतां ते असत् नथी तेनुं छतापणुं में; ते उपरथी सिद्ध थयु के, जेल आंतरा रहित कहेलु स्वरूप परिणामांतरने पामी दीपकनो निर्वाण कहेवाय में, तेम जीव पण कर्म रहित था केवल अमूर्त जीव स्वरूप लक्षण रुप परिणामांतरने प्राप्त थयो तेनो निर्वाण कहेवाय . तेथ। उःखादिवायरुपवाली उती एव। जीवनी अवस्था तेज तेनो निर्वाण मोदछ,
६ अस्ति पुनर्पोझोपायः। जोवने मोक्ष मेलववानो उपाय छे. एटले सम्यगू झान, दर्शन तथा चारित्र मोक्षना साधक होवाथी ते तेना उपाय रुप छै.
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