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________________ ३६८ श्री आत्मप्रवोध. आकाशास्तिकाय कहेवाय . ___ जे चेतना बदणवालो, कर्मनो कर्ता तथा जोक्ता अने जीवनधर्मी छे, ते जीवास्तिकाय कहेवाय छे. ५ जे पृथ्वी, पर्वत आदि समस्त वस्तुओतुं परिणामी कारण अने पूरण गलन धर्मवालो, ते पुद्गलास्तिकाय कहेवाय छे. ६ जे वर्तना बक्षणवालो, नवीन पुद्गलिक वस्तुने जीर्ण करनार, तथा समयदेत्र ( अढो छीप) अंतवर्ती ने ते काळ अव्य कहेवाय डे. आ उ प्रव्यमां एक पुद्गल अव्य मूर्त ने अने वाकीना पांच व्य अमूर्त जे. तेमज एक जीव व्यने वर्जीने बीजा सर्व अव्य अचेतन डे मात्र जीव व्यज सचेतन . अहीं प्रश्न थाय ने के असंख्याता प्रदेशमय लोकाकाशमां अनंतानंत जीव व्यो तथा तेथी अनंत गुण अधिक पुद्गल अव्यो शीरीते रहेता हशे ? तेमने संकडाश केम न थाय ? आ शंकाना उत्तरमा कहेवान के, जीव अन्योन अमूर्तपाणु ने तेथी तेमां संकीर्णपाणुं यतुं नथी अने पुद्गलोर्नु मूर्तपणुं छे. दीपकनी प्रनाना दृष्टांते करी तेवा परिणामनी विचित्रताथी एकज आकाशना प्रदेश उपर अनंतानंत परमाएवादि पुद्गल अव्यो असंकीर्णपणे प्रवेश करे ; तोपछी ते असंख्याता प्रदेशनुं कहेवूज ? अर्थात् तेमां समाइ जाय, तेमां शुं आश्चर्य ? तेथी तेमां कोइ जातनो दोष आवतो नथी, ते विषे श्री अजयदेव सूरिजीए श्री जगवतीनी टीकामां तेरमा शतकना चोथा नदेशमां कहेनुं बे “आगासस्थिकाएण" ॥ इत्यादि । " जीव अव्योतुं अने अजीव अव्योतुं नाजनजूत आकाशास्ति काय छे." एथी तेमणे आ प्रमाणे कयु के, आकाश जीवोनुं तथा अजीवोने अवगाहन आपनार डे केमके विस्तारवाळु छे, ते पछी आकाशनुं नाजनपणुं देखामता यका कहे जे " एगेण वि” इत्यादि। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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