Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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(१६)
षट्खंडागमकी प्रस्तावना उसी प्रकार जैन समाजके गिरतीके समयमें किसी — गुरु ' ने अपने अज्ञानको छुपानेके लिये यह सार-हीन और जैन उदार-नीतिके विपरीत बात चला दी, जिसकी गतानुगतिक थोड़ीसा परम्परा चलकर आज तक सद्ज्ञानके प्रचारमें बाधा उत्पन्न कर रही है। सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र
और चामुण्डरायजी के विषयमें जो कथा कही जाती है वह प्राचीन किसी भी ग्रंथमें नहीं पाई जाती और पीछेकी निराधार निरी कल्पना प्रतीत होती है। ऐसी ही निराधार कल्पनाओंका यह परिणाम हुआ कि गत सैकड़ों वर्षों में इन उत्तमोत्तम सिद्धान्त ग्रंथोंका पठन-पाठन नहीं हुआ और उनका जैन साहित्यके निर्माणमें जब जितना उपयोग होना चाहिये था, नहीं हुआ। यही नहीं, इनकी एक मात्र अवशिष्ट प्रतियां भी धीरे धीरे विनष्ट होने लगी थीं। महाधवलकी प्रतिमेंसे कितने ही पत्र अप्राप्य हैं और कितने ही छिद्रित आदि हो जानेसे उनमें पाठ-स्खलन उत्पन्न हो गये हैं। यह जो लिखा है कि इन सिद्धान्त ग्रंथोंकी कापियां करा कराके जगह जगह विराजमान करा दी जानी चाहिए, सो ये कापियाँ कौन करेगा? श्रावक ही तो? या मुनिजनोंको दिया जायगा, सो भी अल्पबुद्धि नहीं, विद्वान् मुनियोंको ? यथार्थतः गृहस्थों द्वारा ही तो उनकी प्रतिलिपियां की गईं, और की जा सकती हैं, तथा गृहस्थों द्वारा ही उनका जो कुछ उद्धार संभव है, किया जा रहा है। इसमें न तो कोई दूषण है, न बिगाड़ । अब तो जैन सिद्धान्तको समस्त संसारमें घोषित करनेका यही उपाय है । हाथ कंकनको आरसी क्या ?
२. शंका-समाधान
पुस्तक १, पृष्ठ २३४ १. शंका-'तद्भ्रमणमंतरेणाशुभ्रमज्जीवानां भ्रमद्भूम्यादिदर्शनानुपपत्तेः इति' । इस वाक्यका अर्थ मुझे स्पष्ट नहीं हो सका। उसमें पृथ्वीके परिभ्रमणका उल्लेखसा प्रतीत होता है । उसका अर्थ खोलकर समझाने की कृपा कीजिये । (नेमीचंदजी वकील, सहारनपुर, पत्र २४-११-४१)
समाधान-प्रस्तुत प्रकरणमें शंका यह उठाई गई है कि द्रव्येन्द्रियप्रमाण जीव-प्रदेशोंका भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यों न मान लिया जाय, क्योंकि, सर्व जीव-प्रदेशोंके भ्रमण माननेपर उनके शरीरके साथ सम्बन्ध विच्छेदका प्रसंग आता है ? इस शंकाका उत्तर आचार्य इस प्रकार देते हैं कि 'यदि द्रव्येन्द्रियप्रमाण जीव-प्रदेशोंका भ्रमण नहीं माना जावे, तो अत्यन्त द्रुतगतिसे भ्रमण करते हुए जीवोंको भ्रमण करती हुई पृथिवी आदिका ज्ञान नहीं हो सकता है।' इसका अभिप्राय यह है कि जब कोई व्यक्ति शीघ्रतासे चक्कर लेता है तो उसे कुछ क्षणके लिये अपने आस पास चारों भोरका समस्त भूमंडल पृथिवी, पर्वत, वृक्ष, गृहादि घूमता हुआ दिखाई देता है । इसका कारण उपर्युक्त समाधानमें यह सूचित किया गया है, कि उस व्यक्तिक शीघ्रतासे चक्कर लेनेकी
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