Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, ३१३. ]
काला गमे भवियकालपरूवणं
[ ૨
तिन्हं भवियाणं मज्झे जो सादिसपज्जवसिदो भविओ तस्स इमो णिद्देसो परूवणा पण्णवणाति उत्तं होदि । अधवा भवियाणं जं मिच्छत्तं तं दुविहं, अणादिसपज्जवसिदं सादिसपज्जवसिदमिदि । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो मिच्छादिट्ठी तस्स इमो गिद्देसो ति वत्तव्वं । पुव्विल्लम्हि पुण अत्थे जो सादिओ सपज्जवसिदो भविओ तस्स मिच्छतस्स इमो णिद्देसो परूवेदव्वो ।
जहणेण अंतोमुत्तं ॥ ३१२ ॥
तं जधासम्मादिट्ठी दिट्ठमग्गो मिच्छत्तं गतूण सव्वजहणमंत मुहुत्तमच्छिय अणगुणं गदो ।
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टं देसूणं ॥ ३१३ ॥
तं जहा - एको अणादियमिच्छादिट्ठी तिण्णि करणाणि करिय सम्मतं पडिवण्णो । तेण सम्मत्तेण उप्पज्जमाणेण अणंतो संसारो छिण्णो संतो अद्धपोग्गलपरियमेत्तो कदो । उवसमसम्मत्तेण जहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियसेसाए आसाणं गंतूण मिच्छत्तं णेदव्वो । अहवा उवसमसम्मादिट्ठी चेव मिच्छत्तं गंतूण अद्धपोग्गलपरिय
तीन प्रकारके भव्यों के मध्य में जो सादि- सान्त भव्य है, उसका यह निर्देश हैं, अर्थात् उसकी यह प्ररूपणा या प्रज्ञापना की जाती है। अथवा, भव्य जीवोंके जो मिथ्यात्व है, वह दो प्रकारका होता है- (१) अनादि- सान्त, और (२) सादि- सान्त । उनमेंसे जो सादि और सान्त मिध्यादृष्टि है, उसका यह निर्देश है, ऐसा कहना चाहिए। तथा पहले के अर्थ में जो सादि- सान्त भव्य कहा है, उसके मिथ्यात्वका यह निर्देश है, ऐसा प्ररूपण करना चाहिए । सादि-सान्त मिथ्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३१२ ॥
जैसे- दृष्टमार्गी कोई सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सर्वजघन्य अन्तमुहूर्त काल रह करके अन्य गुणस्थानको चला गया ।
सादि-सान्त मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन है || ३१३ ॥
जैसे- कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव तीनों करणोंको करके सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ | उत्पन्न होने के साथ ही उस सम्यक्त्व से अनन्त संसार छिन्न होता हुआ अर्धपुङ्गलपरिवर्तन कालमात्र कर दिया गया । उपशमसम्यक्त्व के साथ सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह कर उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां शेष रह जाने पर उसी जीवको सासादनगुणस्थानमें ले जाकर मिथ्यात्व में ले जाना चाहिए। अथवा, उपशमसम्यग्दृष्टि जीव ही मिथ्यात्वको जाकर देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल मिध्यात्वके साथ परिभ्रमण करके
१ उत्कर्षेणापुद्गलपवित देशोनः । स. सि. १, ८.
२ प्रतिषु ' कुदो' इति पाठः ।
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