Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, ३४१.] कालाणुगमे आहारि-अणाहारिकालपरूवणं
[ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३३८ ॥ एदं पि सुत्तं सुगमं चेय, ओघम्हि उत्तत्थादो ।
उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणी ॥ ३३९ ॥
तं जहा- एको मिच्छादिट्ठी विग्गहं कादूण उववण्णो । अंगुलस्स असंखेजदिमाग असंखेज्जासंखेजा ओसप्पिणि-उस्सपिणीपमाणं तत्थ परिभमिय आहारगो जादो । पुणो अवसाणे विग्गहं करिय अणाहारितं गदो । एवमाहारिमिच्छादिहिस्स उक्कस्सकालो सिद्धो होदि ।
सासणसम्मादिट्टिप्पडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥३४०॥ कुदो? णाणेगजीवजहण्णुकस्सकालेहि आहारिसासणादीणं ओघसासणादीहि भेदाभावा। अणाहारएसु कम्मइयकायजोगिभंगों ॥ ३४१ ॥ यह सूत्र सुगम है।
एक जीवकी अपेक्षा आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३३८ ॥
यह सूत्र भी सुगम ही है, क्योंकि, ओघमें इसका अर्थ कह दिया गया है।
उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी है ॥ ३३९ ॥
जैसे- एक मिथ्यादृष्टि जीव विग्रह करके (आहारक मिथ्या दृष्टियों में) उत्पन्न हुआ। अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी तक उनमें परिभ्रमण करता हुआ आहारक रहा । पुनः अन्तमें विग्रह करके अनाहारकपनेको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल सिद्ध हो जाता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तकके आहारकोंका काल ओषके समान है ॥ ३४०॥
क्योंकि, नाना और एक जीवसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा आहारक सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानोंका ओघ सासादनादि गुणस्थानोंके कालके साथ कोई भेद नहीं है।
अनाहारक जीवोंका काल कार्मणकाययोगियोंके समान है ॥ ३४१॥ .. १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. वि. १, ८. २ उत्कर्षेणीगुलासंख्येयभागा असंख्येयासंख्येया उत्सपिण्यवसर्पिण्यः । स. सि.१, ३ शेषाणां सामान्योक्तः कालः | स. सि. १, ८. ४ अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः। एकजीवं प्रति जघन्येनैक: समयः। उत्कबैण त्रयः
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