Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 601
________________ ४८८ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ५, ३४२. कुदो ! मिच्छादिडी णाणाजीवं पडुच्च सव्वर्द्ध होंति, एगजीवं पडुच्च जहणेण एगो समओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया; सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण वे समया; सयोगिकेवलीणं णाणाजीवं पडुच्च जहणेण तिण्णि समया, उक्कस्सेण संखेजसमया, एकजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण तिण्णि समया एहि अणाहारमिच्छादिट्ठिआदीणं कम्मइय काय जोगिमिच्छादिट्ठि आदीहिंतो विसेसाभावा । अजोगकेवली ओघं ॥ ३४२ ॥ कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं, एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण पंचहरस्सक्खरुच्चारणकालो इच्चेदेहि भेदाभावा । ( एवं आहारमग्गणा समत्ता । ) एवं कालाणिओ गद्दारं सम्मतं । क्योंकि, अनाहारक मिथ्यादृष्टि नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं, एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं, और उत्कर्ष से तीन समय होते हैं; अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्ष से आवली के असंख्यातवें भाग, एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय तक होते हैं; सयोगिकेवलीका काल नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय और उत्कर्ष से संख्यात समय है, तथा एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल तीन समय है; इस प्रकारले अनाहारक मिथ्यादृष्टि आदि जीवोंका कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि आदि से विशेषताका अभाव है । अनाहारक अयोगिकेवलीका काल ओघके समान है ॥ ३४२ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल पांच हस्व अक्षरोंके उच्चारण कालके समान है, इस प्रकार ओघप्ररूपणा से कोई भेद नहीं है । ( इस प्रकार आहारमार्गणा समाप्त हुई । ) इस प्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ । समयाः । सासादनसम्यग्दृष्टथ संयत सम्यग्दृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेणावलिकाया असंख्येयमागः । एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण द्वौ समयौ । सयोगकेवलिनो नानाजीवापेक्षया अपन्येन त्रयः समयाः । उत्कर्षेण संख्येयाः समयाः । एकजीवं प्रति जघन्यश्चोत्कृष्टश्च त्रयः समयाः । स. सि. १, ८. १ अयोगकेवलिनी सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, ८. २ कालो वर्णितः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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