Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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:४७८) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ५, ३११. एयणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिवा ।
सिद्धेहि अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण' ।। ४३ ॥ इच्चादिसुत्तदंसणादो य । ण च मोक्खमगच्छंताणं भवियत्तं णत्थि त्ति वोत्तुं जुत्तं, मोक्खगमणसत्तिसब्मावं पडुच्च तेसिं भवियत्तुवदेसा' (३)। ण च सत्तिमंताणं सव्वेसि पि वत्तीए होदव्वमिदि णियमो अस्थि सव्वस्स वि हेमपासाणस्स हेमपज्जाएण परिणमणप्पसंगा। ण च एवं, अणुवलंभा । णिव्वुई गच्छमाणो वि ण वोच्छिज्जदि भव्वरासि ति कधमेदं णव्वदे ? तस्साणंतियादो । सो रासी अणंतो उच्चइ, जो संते वि वए ण णिहादि, अण्णहा अगंतववएसो अणत्थओ होज्ज । तम्हा तिविहेण भवियत्तेण होदव्वमिदि । ण च सुत्तेण सह विरोहो, सत्तिं पडुच्च सुने अणादिसांतत्तुवएसा ।
जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिदेसों ॥ ३११ ॥
एक निगोदशरीरमें द्रव्यप्रमाणसे जीव सिद्धोंसे तथा समस्त अतीत कालके समयोंसे अनन्तगुणे देखे गये हैं ॥ ४३ ॥
इत्यादि सूत्रोंके देखे जानेसे भी भव्य जीवोंके विच्छेदका अभाव सिद्ध है। तथा, मोक्षको नहीं जानेवाले जीवोंके भव्यपना नहीं होता है, ऐसा भी कहना युक्त नहीं है, क्योंकि, मोक्षगमनकी शक्तिके सद्भावकी अपेक्षा उनके भव्यत्वके पाये जानेका उपदेश है। तथा यह भी कोई नियम नहीं है कि भव्यत्वकी शक्ति रखनेवाले सभी जीवोंके उसकी व्यक्ति होना ही चाहिए, अन्यथा, सभी स्वर्णपाषाणके स्वर्णपर्यायसे परिणमनका प्रसंग प्राप्त होगा ? किन्तु इस प्रकारसे देखा नहीं जाता है।
शंका-निवृति (मोक्ष) को जानेके कारण नित्यव्ययात्मक भव्यराशि विच्छेदको प्राप्त नहीं होगी, यह कैसे जाना ?
समाधान-क्योंकि, यह राशि अनन्त है। और यही राशि अनन्त कही जाती है, जो व्ययके होते रहने पर भी समाप्त नहीं होती है। अन्यथा, फिर उस राशिकी अनन्त संशा अनर्थक हो जायगी। इसलिए भव्यत्व तीन प्रकारका ही होना चाहिए । तथा सूत्रके साथ भी कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि, शक्तिकी अपेक्षा सूत्र में भव्यत्वके अनादिसान्तताका उपदेश दिया गया है।
उक्त तीन प्रकारों से जो भव्यत्व सादि और सान्त है उसका निर्देश इस प्रकार है ॥ ३११॥
. .गो.जी. १९६. २ अप्रती मवियत्तुवलंमदेसा' इति पाठः।
'३ मव्वत्तणस जोग्गा जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा। ण हु मलविगमे णियमा ताणं कणओवलाणमिन। गो. नी. ५५८.
४ तत्र सादिः सपर्यवसानो जघन्येनान्तर्मुहर्तः। स. सि. १...
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