Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 559
________________ ४४६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २५१. दोण्णि तिण्णि उवसमा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २५१ ॥ तिसु वि कसाएसु दोहि उवसामगा, अणियट्टीदो उवरि तिहं कसायाणमभावा । लोभकसाए तिण्णि उवसामगा, उपसंतकसाए लोभोदयाभावा । एदेसिं कसायपरावत्तिगुणपरावत्ति-वाघादेहि एगसमओ णत्थि । कुदो ? तहाविहुवएसाभावा । किंतु अणियट्टिसुहुमसांपराइयाणं चढंत-ओयरत-पढमसमए मदाणं एगसमओ लब्भइ । अपुव्वस्स पुण ओयरंतस्स पढमसमए चेव । कुदो ? चढमाणअपुवस्स पढमसमए मरणाभावा । उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥२५२॥ कुदो ? चढंत-ओयरंतपज्जयपरिणदजीवेहि अंतोमुहुत्तकालं एदेसिं गुणट्ठाणाणमसुण्णत्तुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २५३ ॥ क्रोध, मान और माया, इन तीनों कषायोंकी अपेक्षा दो उपशामक अर्थात् आठवें और नवें गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव, और लोभकषायकी अपेक्षा तीन उपशामक अर्थात् आठवें, नवें और दशवें गुणस्थानवर्ती उपशमश्रेण्यारोहक जीव, कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं ॥ २५१ ॥ क्रोधादि तीनों ही कषायोंमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, ये दो गुणस्थानघर्ती उपशामक जीव होते हैं। क्योंकि, अनिवृत्तिकरणसे ऊपर तीनों कषायोंका अभाव है। लोभकषायमें अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय, ये तीन गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव होते है, क्योंकि, उपशान्तकषाय गुणस्थानमें लोभकषायके उदयका अभाव है। इन उपर्युक्त दो और तीन गुणस्थानवर्ती उपशामकोंमें कषायपरिवर्तन, गुणस्थानपरिवर्तन और व्याघात, इन तीनों की अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा नहीं है, क्योंकि, उस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है। किन्तु, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंके चढ़ने या उतरनेके प्रथम समयमें मरे हुए जीवोंके एक समय पाया जाता है। अपूर्वकरण गुणस्थानके उतरनेके प्रथम समयमें ही एक समय पाया जाता है, क्योंकि, उपशमश्रेणी पर चढ़नेवाले अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीवके प्रथम समयमें मरणका अभाव है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५२ ॥ क्योंकि, उपशमश्रेणी पर चढ़ती और उतरती हुई पर्यायसे परिणत जीवोंकी अपेक्षा भन्तर्मुहूर्त काल इन गुणस्थानोंके अशून्य अर्थात् परिपूर्ण रूपसे पाया जाता है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ २५३ ।। द्वयोपशमकयोः xx केवललोभस्य च xx सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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