Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 582
________________ १, ५, २९७. ] कालानुगमे तेउ-पम्मलेस्सियकालपरूवणं [ ४६९ समए तेउलेस्सा चेव, किंतु संजमासंजमं असंजमेण सह सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्तं मिच्छत्तं वा गदो । एसा गुणपरावत्ती (१) । अधवा, अप्पमत्तो तेउलेस्साए अच्छिदो । तिस्से अप्पमतद्वा खएण पमत्तो जादो । पमत्तो तेउलेस्साए सह एगसमयं दिट्ठो । विदियसमए मदो देवो जादो | एवं मरणेण (२) । पमत्त संजदो तेउलेस्साए परिणमिय विदियसमए जेण लेस्संतरं ण गच्छदि, पमत्तगुणं पडिवज्जमाणो वि तेउलेस्सद्धार समओ अस्थि त्तिण पडिवज्जदि, तेण लेस्सापरावत्ती णत्थि । अप्पमत्तो हायमाणपम्मलेस्सिओ पम्मलेस्साए एगो समओ अस्थि त्ति पमत्तो जादो । विदियसमर वि पमत्तो चेव, किंतु तेउलेस्सिओ जाहो । एसा लेस्सापरावती (३) । अधवा पमत्तो तेउलेस्साए अच्छिदो । तिस्से अद्धाक्खरण पम्मलेस्सा आगदा । पम्मलेस्साए सह पमत्तो एगसमयं दि । विदियसमए पम्मलेस्सिओ चेव, किंतु अप्पमत्तो जादो । एसा गुणपरावती । पम्मलेस्साए अच्छिदो पमत्तो तिस्से अद्धाखएण तेउलेस्साए परिणमिय विदियसमए अप्पमत्त किष्ण कीरदे ? ण, हीयमाणलेस्साए अप्पमत्तगुणग्गहणाभावा । मिच्छत्तादिगुणं रूपमें दृष्टिगोचर हुआ । पश्चात् द्वितीय समय में तेजोलेश्या ही रही, किन्तु वह संयमासंयमको, अथवा असंयम के साथ सम्यक्त्वको, अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको, अथवा सासादनगुणस्थानको, अथवा मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त होगया । यह एक समयरूप गुणस्थानपरिवर्तन है (१) । अथवा, कोई एक अप्रमत्तसंयत तेजोलेश्या में वर्तमान था। उसी लेश्या में रहते हुए ही अप्रमत्तगुणस्थान के कालक्षयसे वह प्रमत्तसंयत हो गया । वह प्रमत्तसंयत तेजोलेश्या के साथ एक समय दृष्टिगोचर हुआ । द्वितीय समय में मरा और देव होगया । इस प्रकार मरणकी अपेक्षा एक समय उपलब्ध हुआ (२) । प्रमत्तसंयत तेजोलेश्या के साथ परिणमित होकर द्वितीय समयमें चूंकि, दूसरी अन्य लेश्याको नहीं प्राप्त होता है, और प्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त होता हुआ भी तेजोलेश्या के काल में एक समय शेष रहता है, इसी लिए वह लेश्यान्तरको नहीं प्राप्त होता है । इस कारण से यहां पर लेश्याका परिवर्तन नहीं है | हायमान पद्मलेश्यावाला कोई अप्रमत्तसंयत, पद्मलेश्या के कालमें एक समय अवशिष्ट रहने पर प्रमत्तसंयत हो गया । द्वितीय समय में भी वह प्रमत्तसंयत ही रहा, किन्तु तेजोलेश्यावाला होगया । यह लेश्यासम्बन्धी परिवर्तन है (३) । अथवा, कोई प्रमत्तसंयत तेजोलेश्या में विद्यमान था । उसके उस तेजोलेश्या के कालक्षय से पद्मलेश्या आगई । पद्मलेश्या के साथ वह प्रमत्तसंयत एक समय दृष्टिगोचर हुआ । द्वितीय समय में वह पद्मलेश्यावाला ही रहा, किन्तु असंयत हो गया । यह गुणस्थानपरिवर्तन हुआ । शंका- पद्मलेश्या के कालमें विद्यमान कोई प्रमत्तसंयत उस लेवा के कालक्षय से तेजोलेश्या से परिणमित होकर द्वितीय समय में अप्रमत्तसंयत क्यों नहीं हो जाता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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