Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, २९९.] कालाणुगमे सुक्कलेस्सियकालपरूवणं
[४७१ त्ति अप्पमत्तो जादो । विदियसमए अप्पमत्तो चेव, किंतु सुक्कलेस्सं गदो । एसा लेस्सापरावत्ती (१)। अधवा अप्पमत्तो हायमाणसुक्कलेस्तिगो सुक्कलेस्सद्धाखएण पम्मलेस्सिगो जादो । विदियसमए पम्मलेस्साए सह पमत्तगुणं पडिवण्णो । एसा गुणपरावत्ती (२)। अधवा पमत्तो पम्मलेस्साए अच्छिदो पमत्तद्धाए खीणाए एगसमयं जीविदमत्थि त्ति अप्पमत्तो जादो । विदियसमए मदो देवत्तं गदो । एवं मरणेण (३)।
उक्कस्समंतोमुत्तं ॥ २९८ ॥
तं जधा-संजदासंजदो पमत्तसंजदो अप्पमत्तसंजदो वा तेउ-पम्मलेस्सासु अप्पिदलेस्साए परिणमिय सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तमच्छिय अणप्पिदलेस्सं गदो।
सुक्कलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ २९९ ॥
कुदो ? तिसु वि कालेसु सुक्कलेस्सियमिच्छादिठीणं विरहाभावा ।
कालमें एक समय अवशेष रहने पर अप्रमत्तसंयत हो गया। वह द्वितीय समयमें अप्रमत्तसंयत ही रहा, किन्तु शुक्ललेश्याको प्राप्त हो गया। इस प्रकार यह लेश्यापरिवर्तन हुआ (१)। अथवा, हायमान शुक्ललेश्यावाला कोई अप्रमत्तसंयत जीव शुक्ललेश्याके कालक्षयसे पद्मलेश्यावाला हो गया। द्वितीय समयमें पद्मलेश्याके साथ प्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त हुआ। यह गुणस्थानपरिवर्तनसम्बन्धी एक समयकी प्ररूपणा हुई (२)।
___अथवा, कोई प्रमत्तसंयत पद्मलेश्यामें विद्यमान था। वह प्रमत्तकालके क्षीण हो जाने पर, तथा एक समयप्रमाण जीवनके शेष रहने पर अप्रमत्तसंयत हो गया, दूसरे समय में मरा और देवत्वको प्राप्त हो गया । यह मरणके साथ एक समयकी प्ररूपणा हुई (३)।
तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २९८ ॥
जैसे-कोई संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत, अथवा अप्रमत्तसंयत जीव तेजोलेश्या और पद्मलेश्याओं से विवक्षित किसी एक लेश्यामें परिणत होकर और सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल रह करके अविवक्षित लेश्याको प्राप्त हो गया।
___ शुक्ललेश्यामें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल होते हैं ॥ २९९ ॥
क्योंकि, तीनों ही कालोंमें शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके विरहका अभाव है। १ उत्कर्षेणान्तमुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ शुक्ललेश्यानां मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १,८.
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