Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१,५, ३०५. ]
कालानुगमे सुकलेस्सियकाल परूवणं
[ ४७३
समओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छ आवलियाओ, इच्चेदेहि तदो भेदाभावा ।
सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ३०३ ॥
कुदो! णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालेहि सह ओघसम्मामिच्छादिट्ठीहिंतो भेदाभावा । असंजदसम्मादिट्टी ओघं ॥ ३०४ ॥
कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि, इच्चेदेहि विसेसाभावा । णवरि पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे अत्थि विसेसो एत्थ । कुदो ? पच्छिममणुस सहगद अंतो मुहुत्तेण सादिरेगत्तु वलंभा । ओहि देणपुत्र को डीए सादिरेगत्तदंसणादो |
संजदासंजदा पमत्त - अप्पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ३०५ ॥ सुगममेदं सुतं ।
पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय, और उत्कृष्ट काल छह आवलिप्रमाण है । इस प्रकार ओघसे इसके कालमें कोई भेद नहीं होने से ओघपना बन जाता है ।
शुक्कलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ ३०३ ॥ क्योंकि, नाना जीव और एक जीवसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट कालोंके साथ भोघसम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंसे कोई भेद नहीं है ।
शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है || ३०४॥
क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागरोपम है, इस प्रकारसे कोई विशेषता नहीं है । किन्तु केवल पर्यायार्थिकनयके अवलम्बन करने पर यहां विशेषता है । वह इस प्रकार है- पिछले मनुष्यभव में होनेवाली शुक्ललेश्याके एक अन्तर्मुहूर्त के साथ उक्त कालकी सातिरेकता पाई जाती है । किन्तु ओघ में देशोन पूर्वकोटीके साथ उक्त कालकी सातिरेकता देखी जाती है ।
शुक्लेश्यावाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। ३०५ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
१ x x संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८.
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